आर्य समाज – दोस्तों, कैसे हैं आप सब आज हम आर्य समाज के ऊपर चर्चा करेंगे और उसके बारे में जानेंगे। आर्य समाज को दयानन्द सरस्वती के द्वारा 1875 में स्थापित किया गया था, हम सबसे पहले दयानन्द सरस्वती के ऊपर चर्चा करेंगे और देखेंगे की वह क्या परिस्थियाँ रही की उन्हें आर्य समाज की स्थापना करनी पड़ी और फिर हम आर्य समाज के बारे
में जानेंगे, तो चलिए दोस्तों जानते हैं। आर्य समाज की स्थापना की शुरुआत दयानन्द सरस्वती से होती है। दयानन्द सरस्वती भारत के एक महान दार्शनिक, सामाजिक नेता, और आर्य समाज के संस्थापक थे। इन महापुरुष का जन्म गुजरात में 1824 में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था, इनका मूल नाम या प्रारंभिक नाम मूल शंकर तिवारी था। इनके
बहुत करीब इनकी छोटी बहन की मृत्यु के बाद, इनके मन में यह विचार आने लगे की जीवन और मृत्यु में क्या फर्क है और जीवन और मृत्यु असल में है क्या? इसी के फलस्वरूप इन्होंने बहुत ही छोटी आयु में ही अपने घर का त्याग कर दिया था और 15 वर्षों तक सत्य की तलाश में पूरे भारत में भ्रमण करते रहे थे। अंत में इनकी खोज पूरी हुई और इन्हें इनके गुरु मथुरा में मिले, जिनका नाम विरजानन्द दण्डीश था। दयानन्द सरस्वती विरजानन्द दण्डीश से काफी प्रभावित हुए और उनको अपना गुरु मानते हुए, उनका शिष्य
बनकर उनके आश्रम में रहने लग गए थे। इन्होंने अपने गुरु विरजानन्द दण्डीश से बहुत सारा ज्ञान प्राप्त किया जैसे इन्होंने अपने गुरु जी से योग विद्या सीखी और वेदों का भी ज्ञान प्राप्त किया था। धीरे-धीरे इस प्रकार एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे मूल शंकर तिवारी अपने ज्ञान के कारण महर्षि दयानन्द सरस्वती बन गए थे, और पूर्णानंद नामक स्वामी जी ने इन्हें दयानन्द सरस्वती नाम दिया था। इनके गुरु विरजानन्द दण्डीश के अनुसार हिन्दू धर्म धीरे-धीरे अपनी ऐतिहासिक जड़ों से दूर जा रहा
है और भटकता जा रहा है। और कुछ लोग जिन्होंने धीरे-धीरे हिन्दू धर्म में कुछ नई मान्यताओं को डाल दिया है और डालते जा रहे हैं, उन सब मान्यताओं के कारण हिन्दू धर्म दूषित हो गया है। हिन्दू धर्म की ऐसी बिगड़ती हालत को देखते हुए दयानन्द सरस्वती द्वारा अपने गुरु विरजानन्द दण्डीश को वचन दिया गया की उनका पूरा जीवन हिन्दू धर्म का जीर्णोद्धार और वेदों को फिर से उनकी सही राह में लाने के लिए लग जायगा। इसके बाद अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए उन्होंने अपने गुरूजी से आज्ञा मांगी और अपनी राह के लिए चल पड़े। इस क्रम में सबसे पहला प्रयास दयानन्द सरस्वती जी ने 1863 में आगरा में धर्म के प्रचार के लिए पाखंड-खंडिनी पताका फहराई, इसका संदेश यह था की हिन्दू समाज में आई कुरीतियों को दूर करना। दयानन्द सरस्वती जी को पता था की प्राचीन काल में हिन्दू धर्म में वेदों का बहुत अच्छा प्रभाव था जिसके कारण प्राचीन काल में हिन्दू धर्म एक गौरवशाली धर्म था। परंतु समय के साथ-साथ उपनिषदों, पुराणों, अर्यनका और वेदांत सूत्रों को भी हिन्दू धर्म में वेदों के समान दर्जा प्राप्त होने लग गया था, बाद में दयानन्द सरस्वती जी द्वारा इन उपनिषदों, पुराणों, अर्यनका और वेदांत सूत्रों को वेदों का हिस्सा मानने से मना कर दिया गया था और उनके द्वारा यह कहा गया की हिन्दू धर्म सिर्फ वेदों के ऊपर ही निर्मित है। इस प्रकार दयानन्द सरस्वती जी के द्वारा सनातनी हिन्दुओं और आर्यों के बीच एक लकीर खींच दी थी क्यूंकि उनका कहना था की आर्य सिर्फ वेद को मानते हैं और अगर कोई वेदों के साथ उपनिषदों, पुराणों, अर्यनका और वेदांत सूत्रों को भी मानता है तो वह सनातनी हिन्दू है। इसी के साथ-साथ उन्होंने इसके साथ “वेदों की ओर लौट चलो” का भी नारा दिया था और इस नारे के पीछे दयानन्द सरस्वती जी का उद्देश्य हिन्दू धर्म में वेदों का प्रभाव फिर से बढ़ाना था। जिस समय दयानन्द सरस्वती जी ने यह नारा दिया था उस समय अंग्रजों का भी प्रभाव भारत में बढ़ता जा रहा था और वे अपनी पश्चिमी सभ्यता को भारतीय सभ्यता से ऊपर बताते और रखते थे और तब “वेदों की ओर लौट चलो” के नारे ने लोगों के ऊपर बहुत बड़ा प्रभाव डाला था। इस नारे से लोगों में राष्ट्रवाद की भावना उत्पन्न होने लग गई थी और अपनी भारतीय सभ्यता के ऊपर लोगों को गर्व होने लग गया था। सत्यार्थ प्रकाशदयानन्द सरस्वती जी के अंदर भारत की एक ऐसी छवि तैयार थी जिसमें भारत किसी का भी गुलाम नहीं था, भारत किसी भी जात-पात में नहीं बंटा था और सब लोग एक धर्म जो आर्य धर्म था उसको मानने वाले थे। दयानन्द सरस्वती जी के द्वारा लिखी गयी उनकी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में उन्होंने अपने ये सारे विचार व्यक्त किये थे, दोस्तों, सत्यार्थ प्रकाश से यह मतलब निकलता है की सत्य का प्रदर्शन और इस पुस्तक को उन्होंने 1874 में प्रकाशित किया था। इस पुस्तक में उन्होंने हिन्दू धर्म में चली आ रही मान्यताओं के ऊपर अपने विचार व्यक्त किये थे जैसे:
आर्य समाज की स्थापनाइसमें से बहुत सारी व्यवस्थाओं को दयानन्द सरस्वती जी के द्वारा खराब बताया गया था जैसे श्राद्ध के माध्यम से मृतकों को खाना खिलाना, बहुविवाह, अस्पृश्यता, मूर्तिपूजा, इसके साथ साथ पुराणों और जाति प्रथा को भी नहीं माना और यह कहा की बाल विवाह को तो बिलकुल भी स्वीकार नहीं करा जा सकता है। इसके साथ-साथ महिलाओं के लिए समान दर्जा, विधवा पुनर्विवाह, अंतर्जातीय विवाह और वेदों में वर्णित चतुर्वर्ण प्रणाली को मानने की बात उनके द्वारा कही गयी थी, प्राचीन काल में जब वेदों का प्रभाव था तब चतुर्वर्ण प्रणाली को अपनाया जाता था जिसमें जन्म के आधार पर नहीं बल्कि कर्म के आधार पर चार भागों में बाटा जाता था जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इन्हीं सब अधरों के ऊपर दयानन्द सरस्वती जी ने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की थी। आर्य समाजदोस्तों, जैसे की हमने अभी ऊपर जाना की दयानन्द सरस्वती जी ने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की थी और यह भी जाना था की उन्होंने “वेदों की ओर लौट चलो” का नारा भी दिया था, तो जिन-जिन लोगों के ऊपर इस नारे का प्रभाव पड़ा, वे तेजी के साथ आर्य समाज में जुड़ने लग गए थे। यह आर्य समाज पूर्ण रूप से वेदों के ऊपर ही आधारित है। जिस प्रकार ब्रह्म समाज एकल देवता के ऊपर विश्वास रखता है, उसी प्रकार आर्य समाज भी एकल देवता के ऊपर विश्वास रखता है और आर्य समाज का अर्थ है प्रगतिशीलों का समाज। 1875 में आर्य समाज की सबसे पहली शाखा बॉम्बे में खोली गई थी, परंतु प्रारंभिक दौर में पंजाब क्षेत्र से आर्य समाज को बहुत प्रगति प्राप्त हुई थी। इसलिए ही उस समय के पंजाब प्रांत के लाहौर क्षेत्र जो अब वर्तमान पाकिस्तान में है, वहां आर्य समाज के मुख्यालय को स्थापित किया गया था और यह मुख्यालय 1877 में स्थापित किया गया था। आर्य समाज से जुड़ा हर एक व्यक्ति वेदों को पढ़ और समझ सकता था, फिर चाहे वह कोई भी जात-पात का क्यों ही न हो और इसके साथ आर्य समाज का हर व्यक्ति उनकी बैठकों में हिस्सा ले सकता था। आर्य समाज के हर व्यक्ति को 10 नियमों का पालन करना पड़ता था, जो कुछ इस प्रकार है: आर्य समाज के 10 नियम
यह सारे नियम बेहद ही सरल और हर किसी को समझ आ जाए ऐसे नियम हैं ये। दयानन्द सरस्वती जी द्वारा आर्य समाज और उसके इन नियमों का पूरे भारत में जोरो-शोरों से प्रचार किया गया था। इसी के फलस्वरूप उत्तर भारत और उत्तर पश्चिम भारत के क्षेत्रों में धीरे-धीरे आर्य समाज की बहुत सारी शाखाएं खुलती चली गई थी और लाखों की संख्या में लोग आर्य समाज से जुड़ते चले गए थे और यहां तक की बहुत सारे लोग ब्रह्म समाज को छोड़कर आर्य समाज में जुड़ने लग गए थे। 1875 में जब से बॉम्बे में आर्य समाज की पहली शाखा खुली थी, तब से लेकर दयानन्द सरस्वती जी की मृत्यु यानि 1883 तक आर्य समाज की कुल 131 शाखाएं भारत में खुल चुकी थी। इनमें से 74 शाखाएं उत्तर प्रदेश में खुली थी और 35 शाखाएं पंजाब प्रांत में खुली थी। आर्य समाज के समाज सुधारक कार्यआर्य समाज ने भारत के कई समाज सुधारक कार्यों में अपना योगदान दिया था जो कुछ इस प्रकार है:
आर्य समाज की बढ़ती लोकप्रियता से दयानन्द सरस्वती जी के बहुत सारे मानने वाले और चाहने वाले अर्थात अनुयायी हो गए थे, परन्तु इसी के साथ-साथ उनके कई दुश्मन भी बनने लग गए थे। दयानन्द सरस्वती जी ने कई बार दूसरे धर्मों की खुले मंच से आलोचनायें की थी और कई बार उनके ऊपर जानलेवा हमले भी हुए थे। अंत में 1883 में एक जानलेवा हमले में दयानन्द सरस्वती जी की मृत्यु हो गयी थी, जिस घर में दयानन्द सरस्वती जी रह रहे थे, उसके नौकर को किसी ने पैसे दे कर उनके दूध में कांच के टुकड़े मिलवा दिए थे, जिसको पीने के बाद दयानन्द सरस्वती जी की हालत खराब होती चली गई और अंत में उनकी मृत्यु हो गई थी। इनकी मृत्यु के पश्चात लाला लाजपत राय, स्वामी श्रद्धानन्द और लाला हंसराज ने आर्य समाज को बढ़ाने की कमान संभाली और इन लोगों के नेतृत्व में आर्य समाज ने बहुत प्रगति प्राप्त की थी। आर्य समाज से जुड़े अन्य बिंदुआर्य समाज ने भारतीयों में राष्ट्रवाद का बीज बोने का कार्य किया था और अंग्रेज इससे खुश नहीं थे, जिसके कारण ब्रिटेन के वैलेंटाइन सिरोल ने 1907 में आर्य समाज को “भारतीय अशांति का जनक” कहा था। हम आशा करते हैं कि हमारे द्वारा दी गई आर्य समाज – Arya Samaj in Hindi इसके बारे में जानकारी आपके लिए बहुत उपयोगी होगी और आप इससे बहुत लाभ उठाएंगे। हम आपके बेहतर भविष्य की कामना करते हैं और आपका हर सपना सच हो। धन्यवाद। बार बार पूछे जाने वाले प्रश्नआर्य समाज के उद्देश्य क्या हैं?आर्य समाज का उद्देश्य हिन्दू धर्म में वेदों का प्रभाव फिर से बढ़ाना था, इसका मुख्य उद्देश्य पूरी दुनिया के लिए अच्छा करना है, ताकि सभी लोगों के लिए भौतिक समृद्धि, आध्यात्मिक समृद्धि और सामाजिक समृद्धि लाई जा सके। आर्य समाज की स्थापना किसने और क्यों की?दयानन्द सरस्वती जी ने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की थी, कुछ लोग जिन्होंने धीरे-धीरे हिन्दू धर्म में कुछ नई मान्यताओं को डाल दिया है और डालते जा रहे हैं, उन सब मान्यताओं के कारण हिन्दू धर्म दूषित हो गया है, हिन्दू धर्म की ऐसी बिगड़ती हालत को देखते हुए दयानन्द सरस्वती द्वारा आर्य समाज की स्थापना की गई थी। आर्य समाजी की शिक्षा क्या थी?वेदों ही मूल सिद्धांत हैं और वेद ही सच्चे ज्ञान के ग्रंथ हैं, हर एक आर्य समाजी को भगवान में अटूट विश्वास होना चाहिए और भगवान ही सारे ज्ञान का प्राथमिक स्रोत है। आर्य और हिंदू में क्या अंतर है?दयानन्द सरस्वती जी के द्वारा सनातनी हिन्दुओं और आर्यों के बीच एक लकीर खींच दी थी क्यूंकि उनका कहना था की आर्य सिर्फ वेद को मानते हैं और अगर कोई वेदों के साथ उपनिषदों, पुराणों, अर्यनका और वेदांत सूत्रों को भी मानता है तो वह सनातनी हिन्दू है। यह भी पढ़े : सिंधु घाटी सभ्यता आर्य समाज के कितने नियम बताए गए हैं?यहां न केवल महर्षि दयानन्द जी द्वारा आर्यसमाज की स्थापना ही की गई अपितु मुम्बई में जो 28 नियम स्वीकार किए गये थे उन्हें संक्षिप्त कर 10 नियमों में सीमित कर दिया गया और 8 सितम्बर, सन् 1877 को उन्हें विज्ञापित भी कर दिया गया। यह संक्षिप्त किये गये 10 नियम वर्तमान में भी प्रचलित हैं।
आर्य समाज के प्रमुख सिद्धांत क्या है?वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परमधर्म है। सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिये। संसार का उपकार करना-इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
आर्य समाज का पहला नियम क्या है?१. सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है। २. ईश्वर सच्चिदानंदस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करने योग्य है।
आर्य समाज कौन होता है?दयानन्द सरस्वती जी ने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की थी, कुछ लोग जिन्होंने धीरे-धीरे हिन्दू धर्म में कुछ नई मान्यताओं को डाल दिया है और डालते जा रहे हैं, उन सब मान्यताओं के कारण हिन्दू धर्म दूषित हो गया है, हिन्दू धर्म की ऐसी बिगड़ती हालत को देखते हुए दयानन्द सरस्वती द्वारा आर्य समाज की स्थापना की गई थी।
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