Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions Show तोड़ती पत्थर पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर प्रश्न 1. प्रश्न 2. कवि ने उक्त पत्थर वाली स्त्री के विषय में इस प्रकार चित्र इसलिए प्रस्तुत किया है कि पत्थर तोड़ने जैसे कठिन र्का को सम्पादित करने के लिए सुगठित स्वस्थ शरीर को होना नितान्त आवश्यक है तथा सुगठित शरीर ही श्रमसाध्य कार्य हेतु सक्षम होता है। साथ ही तीक्ष्ण धूप में शरीर का साँवला होना स्वाभाविक है। कवि ने कार्य में उसकी पूर्ण तन्मयता का भी सुन्दर चित्रण किया है। मेरे विचार से ऐसा लिखना सर्वथा उचित है। प्रश्न 3. इस प्रकार प्रस्तुत पंक्ति देश की आर्थिक विषमता का सजीव चित्रण है। इसके साथ ही इस विषमता पर एक चुभता व्यंग्य भी है। प्रश्न 4. प्रश्न
5. प्रश्न 6. वह सामने विशाल अट्टालिका पर भी नजर डालकर समाज में व्याप्त अमीरी-गरीबी की खाई से भी कवि को रू-बरू कराती है। उसकी नजरों में संघर्षपूर्ण दीन-हीन जीवन का अक्स सहज ही दृष्टि गोचर होता है। उसकी विवशता ऐसी है मानो कोई मार खाकर भी न रोए। सामाजिक विषमता का दंश मूक होकर सहने को गरीब मजदूरनी अभिशप्त है। प्रश्न 7. कवि मजदूरनी के हृदय सितार से झंकृत वेदना जो सामाजिक विषमता की कहानी कहती हुई प्रतीत होती है, को दर्शाना चाहता है। कवि सहज अपने हृदय के वीणा के तारों से उस शोषण की प्रतिमूर्ति मजदूरनी के हृदय के तारों से जोड़कर उसके दारूण-व्यथा की अनुभूति कर लेता है। प्रश्न 8. कवि इलाहाबाद के जनपथ पर भीषण गर्मी में पत्थर तोड़ती मजदूरनी को देखता है। वह बिना छायावाले एक पेड़ के नीचे पत्थर तोड़ने का कार्य कर रही थी। उसके सामने वृक्षों के समूह और विशाल अट्टालिकाएँ और प्राचीर थे। तेज और तीखी धूप से धरती रूई की तरह जल रही थी। कवि पत्थर तोड़ती मजदूरनी को सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से देखता है। वह भी कवि पर एक नजर डालकर सामने के भव्य भावना को भी देख लेती है। वह मजदूरनी एक क्षण के लिए सिहर उठती है। उसके माथे से पसीने की बूंदे गिर पड़ती हैं। वह फिर अपने कार्य में चुपचाप लग जाती है और मौन होकर भी यह बता देती है कि वह पत्थर तोड़ रही है। प्रश्न 9. गरीब मजदूरनी अंतिम पंक्ति में मौन होकर भी यह बता देती है कि वह पत्थर तोड़ रही है। उसने परोक्ष रूप से हमारी शोषणपूर्ण तथा घोर विषम अर्थव्यवस्था पर व्यंग की करारी चोट भी की है और हमें यह संदेश दिया है कि इस आर्थिक विषमताजन्य स्थिति और परिस्थिति को समाप्त करने की दिशा में सही सोच का परिचय दें। सही सोच से ही समतामूलक अर्थव्यवस्था पर आधारित समाज प्रगति के सोपान पर निरन्तर अग्रसर हो सकता है। मजदूरनी की वे सांकेतिक वैचारिक बिन्दु सचमुच बिन्दु सचमुच सराहनीय है। प्रश्न 10. इस कष्टदायक परिवेश में वह बेचारी पत्थर तोड़ने का श्रमसाध्य कार्य कर रही है। वह मजदूरिन श्यामवर्ण युवती है। वह चुपचाप नतनयन हो पत्थर तोड़ने का कार्य कर रही है। उसके सामने ही अमीरों को सुख-सुविधा प्रदान करनेवाली विशाल अट्टालिकाएँ खड़ी हैं जो उसकी गरीबी पर व्यंग्य करती प्रतीत होती हैं। कवि उस मजदूरिन को सहानुभूति भरी दृष्टि से देखता है। वह मजदूरिन भी एक क्षण के लिए उस सहज मूक दृष्टि से देख लेती है। . कवि को लगता है कि उसने देखकर भी उसे न देखा हो। कवि उसके टूटे दिल की वीणा की झंकार को सुन लेता है। वह क्षण भर के लिए कांप-सी उठती है। श्रम-लथ उस मजदूरिन के माथे से पसीने की बूंद टपक पड़ती हैं। पसीने की वे बूंदे उसे कठोर श्रम और संघर्ष साधना का परिचय देती है और यह बताती है कि उस गरीब मजदूरिन का यह संघर्ष कितना मार्मिक और कितना कठोर है। संपूर्ण कतिवा हमारे देश की आर्थिक विषमता पर एक चूमता हुआ व्यंग्य है। तोड़ती पत्थर भाषा की बात प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3.
प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6.
प्रश्न 7. गीत और प्रगीत दोनों में तुक का आग्रह होता है। क्योंकि बिना तुक के गेयता संभव नहीं है। गीत जहाँ हृदय को राहत पहुँचाते हैं। प्रगीत हृदय को उद्वेलित करते हैं। मनकों मथ डालते हैं। गीतों और प्रगीतों के कलेवर की लम्बाई वर्णित विषय की गम्भीरता पर निर्भर है। अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर तोड़ती पत्थर लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. तोड़ती पत्थर अति लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न
7. प्रश्न 8. तोड़ती पत्थर वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर I. निम्नलिखित प्रश्नों के बहुवैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर बताएँ प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. तोड़ती पत्थर कवि परिचय – सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ (1897-1961) सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म 1899 ई. में बंगाल के मेदिनीपुर जिले के महिषादल राज्य में हुआ था। इनके पिता पं. रामसहाय त्रिपाठी महिषादल राज्य के कर्मचारी थे। तीन वर्ष की आयु में ही निराला जी की माता का देहांत हो गया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा बंगाल में हुई। बंगाल में रहते हुए ही उन्होंने संस्कृत, बंगला, संगीत और दर्शनशास्त्र का गहन अध्ययन किया। 14 वर्ष की आयु में उनका विवाह मनोहरा देवी से हुआ, किंतु उनका पारिवारिक जीवन सुखमय नहीं रहा। 1918 ई. में उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया और उसके बाद पिता, चाचा और चचेरे भाई भी एक-एक करके उन्हें छोड़कर इस दुनिया से चल बसे। उनकी प्रिय पुत्री सरोज की मृत्यु ने तो उनके हृदय के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। इस प्रकार निराला जीवन-भर क्रूर परिस्थितियों से संघर्ष करते रहे। 15 अक्टूबर, 1961 ई. को इनका स्वर्गवास हो गया – रचनाएँ-निराला का रचना संसार बहुत विस्तृत है। उन्होंने गद्य और पद्य दोनों ही विधओं में लिखा है। उनकी रचनाएँ निराला रचनावली के आठ खंडों में प्रकाशित हैं। निराला अपनी कुछ कविताओं के कारण बहुत प्रसिद्धि प्राप्त कवि हो गए हैं। ‘राम की शक्ति पूजा’ और ‘तुलसीदास’ उनकी प्रबंधात्मक कविताएँ हैं, जिनका साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। ‘सरोज-स्मृति’ हिन्दी की अकेली कविता है जो किसी पिता ने अपनी पुत्री की मृत्यु पर लिखी है। निराला की प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं-अनामिका, परिमल, गीतिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, नए पत्ते, बेला, अर्चना, आराधना, गीतगुंज। इन ग्रन्थों में अनेक ऐसी कविताएँ हैं जो निराला को जन कवि बना देती हैं। जिनकी लोगों ने अपने कंठ में स्थान दिया है। यथा-जूही की कली, तोड़ती पत्थर, कुकुरमुत्ता, भिक्षुक, मै अकेला, बादल-राग आदि। भाषा-शैली-काव्य की पुरानी परम्पराओं को त्याग कर काव्य-शिल्प के स्तर पर भी विद्राही। तेवर अपनाते हुए निराला जी ने काव्य-शैली को नई दिशा प्रदान की। उनके.काव्य में भाषा का कसाव, शब्दों की मितव्ययिता एवं अर्थ की प्रधानता है। संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दों के साथ ही संधि-सामसयुक्त शब्दों का भी प्रयोग निराला जी ने किया है। काव्यगत विशेषताएँ-निराला छायावाद के महत्त्वपूर्ण चार कवियों में से एक हैं। उनकी छायावादी कविताओं में प्रेम, प्रकृति-चित्रण तथा रहस्यवाद जैसी प्रवृत्तियों को मिलती हैं। बाद में निराला प्रगतिवाद की ओर झुक गए थे ! प्रगतिवादी विचारधारा के अनुसार उन्होंने शोषकों के विरोध और शोषितों के पक्ष में अनेक कविताएँ लिखी हैं, जिनमें, ‘विधवा’, “भिक्षुक’ और ‘तोड़ती पत्थर’ जैसी कविताओं में शोषितों के प्रति सहानुभूति है, तो ‘जागो फिर एक बार’ जैसी कविताओं में कवि दबे-कुचलों को जगाने का आह्मन करता है- जागो फिर एक बार। इन पंक्तियों से कवि राष्ट्रीयता को भी अभिव्यक्त करता है। ‘तोड़ती पत्थर’ कविता के पत्थर तोड़ने वाली की कार्य करने की परिस्थिति को देखकर किसका हृदय-द्रवीभूत नहीं हो जाएगा। निराला की प्रकृति संबंधी कविताएँ भी प्रकृति के मनोरम रूप प्रस्तुत करती हैं। उनकी ‘संध्या-सुंदरी’ कविता प्रकृति के मनोहर रूप प्रस्तुत करती है। बादल राग में भी प्रकृति का स्वाभाविक वर्णन करता है। ‘खुला आसमान’ कविता में प्रकृति की बहुत सरल भाषा में ऐसा वर्णन है, मानो दृश्यावली की रील चल रही हो। सब मिलाकर निराला भारतीय संस्कृति के गायक हैं, किंतु वे रूढ़ियों के विरोधी हैं और समय के साथ चलने में विश्वास रखते हैं। तोड़ती पत्थर कविता का सारांश मार्क्सवादी चेतना का संस्पर्श लिये प्रगतिवाद की प्रतिनिधि रचना है “वह तोड़ती पत्थर”, जिसके रचनाकार हैं सचमुच के भावुक कवि महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला’। कविता ‘वह’ से आरम्भ होती है और ‘मै’ से समाप्त होती है पर से स्व की यात्रा ही यह रचना है। जिस देश में “नारी की पूजा होती है वहाँ बसते हैं देव” जैसी महत् भावना कभी वास्तविकता थी। उसी देश में एक गरीब मजदूर स्त्री जेठ मास की चिलचिलाती धूप में बिना किसी छाया के पत्थर तोड़ रही है। यह दृश्य भले ही कवि को इलाहाबाद (प्रयाग) के पथ पर कहीं देखने को मिला किन्तु आज देश का हर कोना इस मामले में इलाहाबाद ही है। अमीरी गरीबी के बीच बड़ी चौड़ी अपाट्य खायी है। इसे कवि ने पत्थर तोड़ती कर्मरत वयस्क नारी के माध्यम से व्यक्त किया है। नियति विरुद्ध है। वरन् नारी के कोमल हाथों में भारी हथौड़ा क्यों होता जो बार-बार उठता है और गिरकर पत्थर को चकनाचूर करता है। उसके ठीक सामने पेड़ों की कतार है, ऊँचे-ऊँचे भवन हैं, बड़ी-बड़ी दीवारी है अर्थात् सुख-वैभव वहाँ संरक्षित है, यह साँवली भरे बदन वाली युवती आँखें नीची किये अपने इसी पत्थर तोड़ने के प्रिय कर्म में मनोयोग से लगी है। देखते-देखते दोपहर हुई। सूर्य प्रचंडती हुए। देह को झुलसा देने वाली लू चलने लगी धूल के बवंडर उठे धरती रूई की तरह जल रही है। किन्तु इस विषम परिस्थिति में भी उसका पत्थर तोड़ना जारी रहा। जब उसने देखा कि मैं (कवि) उसे देख रहा हूँ तो उसने पहले सामने मानचुम्बी भवन को देखा फिर एक अजब दृष्टि से जिसमें, व्यंग्य, निराश, कटाक्ष, आक्रोश, नियतिवाद, जैसे भाव एक साथ समाजित थे, मुझे देखा। मुझे ऐसा लगता जैसे किसी को मार पड़ी हो किन्तु किसी विवशतावश वह रो नहीं पाया हो, वह भाव आँखों से व्यक्त हो रहा था। इसके बाद कवि जाग्रत स्वप्नावस्था में चला गया। उसने देखा कि एक सितार साधा जा चुका है और उसके तारों से एक अनसुनी झंकार निकल रही है। स्वप्न टूटा, एक क्षण के लिए मरत स्त्री काँप गयी। गर्मी की अतिशयता से माथे से पसीने की बुन्दें दुलक पड़ी। उसे अपनी पति स्वीकार है, वह पुनः कर्म में लीन हो गयी। कवि को सुनाई पड़ा जैसे उसने कहा हो-मैं तोड़ती पत्थर। वास्तव में इस कविता में कवि ने सड़क के किनारे पत्थर तोड़ने वाली एक गरीब जिदरिन का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है। तोड़ती पत्थर कठिन शब्दों का अर्थ पथ-रास्ता। श्याम तन-साँवला शरीर। नत नयन-झुकी आँखें। कर्म-रत-मन-काम में लीन मन। गुरू-बड़ा। तरु मालिका-पेड़ों की पंक्ति। अट्टालिका-ऊँचा बहुमंजिला भवन। . प्रकार-चहारदीवारी, परकोटा। दिवा-दिन। भू-धरती। गर्द-धूल। चिनगी-चिनगारी। सुघर-सुगठित। सीकर-पसीना। छिन्नतार-टूटी निरंतरता। तोड़ती पत्थर काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या 1. श्याम तन ……………. कर्म-रत मन। प्रिय कर्मरत मन कहकर कवि यह बताना चाहता है कि उसने मजदूरी को अपनी जीविका का अनिवार्य माध्यम मान लिया है। उसका मन अपने काम में लगता है। अर्थात् वह मन लगाकर प्रेम से काम कर रही है। पत्थर तोड़ने का कार्य उसके लिए न तो बेगारी है और न अनिच्छा से थोपा हुआ कार्य। इस कथन से उसकी कर्मप्रियता और कर्मनिष्ठा दोनों व्यक्त हो रही है। समग्रतः वह मजदूरनी भरे हुए यौवन वाली साँवली युवती है और वह मन लगाकर तल्लीन होकर काम कर रही है। कदाचित् इसी तत्लीनता के कारण वह धूप के कड़ेपन का अनुभव नही कर पा रही है। 2. गुरू हथोड़ा हाथ ………….. अट्टालिका,
प्राकार। इलाहाबाद के पथ पर कवि ने जिस मजदूरनी को पत्थर तोड़ते देखा है वह पूरी तल्लीनता . के साथ लगातार पत्थर पर भारी हथौड़े से प्रहार कर रही है। सामने वृक्ष-समूह की माला से घिरी हुई एक अट्टालिका यानी हवेली है। वह हवेली प्रकार अर्थात् चहारदीवारी से घिरी है। कवि को अनुभव होता है कि मजदूरनी पत्थर पर नहीं सामने वाले भव्य भवन पर हथौड़े से प्रहार कर रही है। हम जानते हैं कि हँसिया हथौड़ा मार्क्सवादी पार्टी का चिह्न है। पार्टी मार्क्स के सिद्धातों पर चलती है। मार्क्स के अनुसार समाज में दो ही वर्ग है। सर्वहारा को संगठित कर पूँजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए उनका खात्मा और किसान -मजदूर राज की स्थानापना का मार्क्स का दर्शन है। उपर्युक्त पंक्तियों में हथौड़ा मजदूर का प्रतीक है और चहारदीवारी से घिरी वृक्ष-समूहों : शीतल छाया में खड़ा विशाल भवन पूँजीपति का प्रतीक है। मजदूरनी मानों पत्थर पर हथोड़, चलाकर इसकी चोट का प्रभाव महल की दीवारों पर अंकित करना चाहती है। 3. दिवा का तमतमाया रूप ……………………. वह तोड़ती पत्थर। दिन के तमतमाने का मतलब है अत्यधिक गर्मी। इसके परिणामस्वरूप लू चलने लगी है जो तन को झुलसा रही है। धरती इस तरह जल रही है मानो रूई जल रही हो। हवा के थपेड़ो के कारण चारो तरफ गर्द-गुब्बार का साम्राज्य है। तप्त हवा के कारण यह धूल शरीर से लगती है तब लगता है कि आग की चिनगारी उड़ कर शरीर में लग रही है। ऐसे विषम और गर्म मौसम में भी बेचारी मजदूरनी छायाविहीन स्थान पर पत्थर तोड़ रही है और दोपहरी के प्रचण्ड ताप में झुलस कर भी काम कर रही है। इन पंक्तियों में ‘रूई ज्यों . जलती’ उपमा अलंकार है और पूरे कथन में उत्प्रेक्षा अलंकार की ध्वनि है। 4. देखते देखा मुझे ……………. मार खा रोई नहीं। कवि को अपनी ओर देखते देखकर वह मजदूरनी भी उसकी ओर मुखाबित होती है। फिर वह एक बार उस विशाल भवन की ओर देखती है। मगर वहाँ उसे जोड़ने वाला कोई तार नहीं दिखता। अर्थात् वहाँ उसकी ओर किसी भी दृष्टि से देखने वाला कोई नहीं है। अतः प्रहार से तार छिन्न हो जाता है, टूट जाता है। कवि ‘छिन्नतार’ शब्द के प्रयोग द्वारा यह कहना चाहता है कि एक मजदूर और एक महल वाले के बीच जोड़ने वाला कोई तार नहीं होता। लिहाजा अट्टालिका की ओर से दृष्टि घुमाकर मजदूरनी कवि की ओर देखती है। उसकी दृष्टि में वेदना है जो मार खाकर भी न रोने वाले बच्चे की आँखों में होती है। ऐसी दृष्टि बेहद करुण होती है। यहाँ कवि की दृष्टिमें सहानुभूति है तो मजदूरनी की दृष्टि में विवशता भरी करुणा जो किसी की सहानुभूति पाकर उमड़ पड़ती है। 5. सजा सहज सितार ………………. मैं तोड़ती पत्थर। इसके बाद कवि पुनः यथार्थ के बाह्य जगत में लौट आता है। वह देखता है कि एक क्षण के बाद मजदूरनी के शरीर में कम्पन हुआ और उसके माथे पर झलक आयी पसीने की बूंदे लुढ़क पड़ती हैं। वह पुनः कर्म में लीन हो गयी। मानो कह रही हो-मैं तोड़ती पत्थर। इन क्तयों से स्पष्ट है कि मजदूरनी की कातर दृष्टि तथा मौसम की कठोर स्थिति की विषमता ने कवि के मन को उदवेलित किया। उसकी भावना के तार करुण से झंकृत हुए और उसी की परिणति इस कविता की रचना के रूप में हुई। ये पंक्तियाँ इस कविता को प्रेरणा– भूमि समझने की कुंजी ज्ञात होती है। पत्थर तोड़ने वाली स्त्री कहाँ बैठकर काम कर रही थी और वहाँ किस चीज की कमी थी?उत्तर: पत्थर तोड़नेवाली स्त्री इलाहाबाद में सड़क के किनारे बैठकर काम कर रही थी और वहाँ छायादार वृक्ष की कमी थी।
वह तोड़ती पत्थर में कवि ने मुख्यतः किसका वर्णन किया है?कवि इलाहाबाद के किसी रास्ते पर उस महिला को पत्थर तोड़ते हुए देखते है। वह एक ऐसे पेड़ के नीचे बैठी है, जहा छाया नहीं मिल रही आस पास भी कोई छायादार जगह नहीं हैं। इस प्रकार कवि शोषित समाज की विषमता का वर्णन करते है। ओर बताते है की मजदूर वर्ग अपना काम पूरी लग्न के साथ करते है।
तोड़ती पत्थर कविता में स्त्री पत्थर कैसे तोड़ रही थी?उत्तर: नारी दुपहर की धूप में पत्थर तोड़ रही थी। प्रश्न 5.
वह तोड़ती पत्थर कविता में निराला क्या संदेश दे रहे हैं स्पष्ट कीजिए?'वह तोड़ती पत्थर' कविता में भी श्रमिक नारी के जीवन और उसके प्रति समाज की हृदयहीनता का अंकन किया गया है । निराला का अपना जीवन भी कष्ट भोगते हुए बीता । उसमें सुख-आनंद की लहरें कुछ ही दिनों के लिए आईं, जिनकी स्मृति के सहारे ही उन्होंने शेष जीवन बिताया। 'मौन' कविता में कवि अपने प्रिय के साथ कुछ समय चुपचाप बिताना चाहता है ।
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