विश्वामित्र ने भगवान राम को क्या सिखाया? - vishvaamitr ne bhagavaan raam ko kya sikhaaya?

विश्वामित्र ने भगवान राम को क्या सिखाया? - vishvaamitr ne bhagavaan raam ko kya sikhaaya?

भगवान राम के गुरु 

मुख्य बातें

  • माता-पिता के बाद जो भी कुछ सिखाया जाता है, गुरु द्वारा ही सिखाया जाता है

  • आम व्यक्ति ही नहीं भगवान भी गुरु में समर्पित रहे हैं

  • भगवान श्रीराम ने चार गुरुओं से अपनी समस्त शिक्षा प्राप्त की थी

Teacher Of God Rama: जीवन में गुरु का विशेष महत्व होता है। गुरु का महत्व आज से ही नहीं बल्कि पुराने समय से ही सर्वोपरि रहा है। गुरु को हमेशा भगवान का दर्जा दिया गया है। व्यक्ति को माता-पिता के बाद जो भी कुछ सिखाया जाता है वह गुरु द्वारा ही सिखाया जाता है। आम व्यक्ति ही नहीं भगवान भी गुरु में समर्पित रहे हैं। भगवान श्रीराम ने वशिष्ट, विश्वामित्र, भारद्वाज व अगस्त्य कि शिष्य के रूप में ही अपनी समस्त शिक्षा प्राप्त की थी। भगवान राम के जीवन में भी गुरुओं का विशेष महत्व बताया गया है। आइए जानते हैं शिक्षक दिवस के मौके पर भगवान राम के उन चार गुरुओं की बारे में जिनके बिना भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं बन पाते।

महर्षि विश्वामित्र

महर्षि विश्वामित्र भगवान राम के गुरु थे। जिन्होंने त्रेता युग में भगवान श्रीराम को धनुर्विद्या और शास्त्र विद्या का ज्ञान दिया था। भगवान राम को परम योद्धा बनाने के पीछे विश्वामित्र ही थे। भगवान राम के पास जितने भी दिव्य शास्त्र थे वे सब विश्वामित्र के ही दिए हुए थे। हिंदू शास्त्र के अनुसार महर्षि विश्वामित्र को त्रेता युग का सबसे बड़ा आयुध आविष्कारक माना जाता है।

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ऋषि वशिष्ठ 

वहीं ऋषि वशिष्ठ ने भगवान राम को राजपाट संभालने का ज्ञान दिया था। इसके साथ ही वेदों की भी शिक्षा ऋषि वशिष्ठ ने ही भगवान राम को दी थी। यही नहीं भगवान राम का राज्याभिषेक भी ऋषि वशिष्ठ के हाथों ही हुआ था। ऋषि विशिष्ट का भगवान राम के जीवन में विशेष महत्व है।

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महर्षि भारद्वाज

महर्षि भारद्वाज ने भगवान राम को विमान का ज्ञान दिया था। भारद्वाज ऋग्वेद के छठे मंडल की ऋषि रूप में विख्यात है। रामायण के अनुसार भगवान श्री राम ने महर्षि भारद्वाज से ही परामर्श पर वनवास की अवधि में चित्रकूट में वास किया था। लंका विजय के उपरांत लौटते समय भी भगवान राम इनके आश्रम में रुके थे।

ब्रह्मर्षि अगस्त्य

भगवान राम के जीवन में ब्रह्मर्षि अगस्त्य का विशेष महत्व है। ब्रह्मर्षि अगस्त्य एक वैदिक ऋषि थे। रामायण के अनुसार रावण के साथ युद्ध करते हुए जब राम थक जाते हैं और हताश होकर बैठ गए थे तब ब्रह्मर्षि अगस्त्य ने ही उनका हौसला बढ़ाया था। 

(डिस्क्लेमर : यह पाठ्य सामग्री आम धारणाओं और इंटरनेट पर मौजूद सामग्री के आधार पर लिखी गई है। टाइम्स नाउ नवभारत इसकी पुष्टि नहीं करता है।)


दोहा :

* ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।
भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥205॥

भावार्थ:-जो व्यापक, अकल (निरवयव), इच्छारहित, अजन्मा और निर्गुण है तथा जिनका न नाम है न रूप, वही भगवान भक्तों के लिए नाना प्रकार के अनुपम (अलौकिक) चरित्र करते हैं॥205॥ 

चौपाई :

* यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥1॥

भावार्थ:-यह सब चरित्र मैंने गाकर (बखानकर) कहा। अब आगे की कथा मन लगाकर सुनो। ज्ञानी महामुनि विश्वामित्रजी वन में शुभ आश्रम (पवित्र स्थान) जानकर बसते थे,॥1॥

* जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥
देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥2॥

भावार्थ:-जहाँ वे मुनि जप, यज्ञ और योग करते थे, परन्तु मारीच और सुबाहु से बहुत डरते थे। यज्ञ देखते ही राक्षस दौड़ पड़ते थे और उपद्रव मचाते थे, जिससे मुनि (बहुत) दुःख पाते थे॥2॥

* गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥
तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥3॥

भावार्थ:-गाधि के पुत्र विश्वामित्रजी के मन में चिन्ता छा गई कि ये पापी राक्षस भगवान के (मारे) बिना न मरेंगे। तब श्रेष्ठ मुनि ने मन में विचार किया कि प्रभु ने पृथ्वी का भार हरने के लिए अवतार लिया है॥3॥

*एहूँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौं दोउ भाई॥
ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मैं देखब भरि नयना॥4॥

भावार्थ:-इसी बहाने जाकर मैं उनके चरणों का दर्शन करूँ और विनती करके दोनों भाइयों को ले आऊँ। (अहा!) जो ज्ञान, वैराग्य और सब गुणों के धाम हैं, उन प्रभु को मैं नेत्र भरकर देखूँगा॥4॥

दोहा :

* बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।
करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥206॥

भावार्थ:-बहुत प्रकार से मनोरथ करते हुए जाने में देर नहीं लगी। सरयूजी के जल में स्नान करके वे राजा के दरवाजे पर पहुँचे॥206॥

चौपाई :

* मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र समाजा॥
करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥1॥

भावार्थ:-राजा ने जब मुनि का आना सुना, तब वे ब्राह्मणों के समाज को साथ लेकर मिलने गए और दण्डवत् करके मुनि का सम्मान करते हुए उन्हें लाकर अपने आसन पर बैठाया॥1॥

* चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥
बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिबर हृदयँ हरष अति पावा॥2॥

भावार्थ:-चरणों को धोकर बहुत पूजा की और कहा- मेरे समान धन्य आज दूसरा कोई नहीं है। फिर अनेक प्रकार के भोजन करवाए, जिससे श्रेष्ठ मुनि ने अपने हृदय में बहुत ही हर्ष प्राप्त किया॥2॥

*पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥
भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥3॥

भावार्थ:-फिर राजा ने चारों पुत्रों को मुनि के चरणों पर डाल दिया (उनसे प्रणाम कराया)। श्री रामचन्द्रजी को देखकर मुनि अपनी देह की सुधि भूल गए। वे श्री रामजी के मुख की शोभा देखते ही ऐसे मग्न हो गए, मानो चकोर पूर्ण चन्द्रमा को देखकर लुभा गया हो॥3॥

* तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥
केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥4॥

भावार्थ:-तब राजा ने मन में हर्षित होकर ये वचन कहे- हे मुनि! इस प्रकार कृपा तो आपने कभी नहीं की। आज किस कारण से आपका शुभागमन हुआ? कहिए, मैं उसे पूरा करने में देर नहीं लगाऊँगा॥4॥

* असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥
अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥5॥

भावार्थ:-(मुनि ने कहा-) हे राजन्! राक्षसों के समूह मुझे बहुत सताते हैं, इसीलिए मैं तुमसे कुछ माँगने आया हूँ। छोटे भाई सहित श्री रघुनाथजी को मुझे दो। राक्षसों के मारे जाने पर मैं सनाथ (सुरक्षित) हो जाऊँगा॥5॥

दोहा :

* देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥207॥

भावार्थ:-हे राजन्! प्रसन्न मन से इनको दो, मोह और अज्ञान को छोड़ दो। हे स्वामी! इससे तुमको धर्म और सुयश की प्राप्ति होगी और इनका परम कल्याण होगा॥207॥

चौपाई :

* सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥
चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥1॥

भावार्थ:-इस अत्यन्त अप्रिय वाणी को सुनकर राजा का हृदय काँप उठा और उनके मुख की कांति फीकी पड़ गई। (उन्होंने कहा-) हे ब्राह्मण! मैंने चौथेपन में चार पुत्र पाए हैं, आपने विचार कर बात नहीं कही॥1॥

विश्वामित्र ने भगवान राम को क्या सिखाया? - vishvaamitr ne bhagavaan raam ko kya sikhaaya?


* मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥
देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥2॥

भावार्थ:-हे मुनि! आप पृथ्वी, गो, धन और खजाना माँग लीजिए, मैं आज बड़े हर्ष के साथ अपना सर्वस्व दे दूँगा। देह और प्राण से अधिक प्यारा कुछ भी नहीं होता, मैं उसे भी एक पल में दे दूँगा॥2॥

* सब सुत प्रिय मोहि प्रान की नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाईं॥
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा॥3॥

भावार्थ:-सभी पुत्र मुझे प्राणों के समान प्यारे हैं, उनमें भी हे प्रभो! राम को तो (किसी प्रकार भी) देते नहीं बनता। कहाँ अत्यन्त डरावने और क्रूर राक्षस और कहाँ परम किशोर अवस्था के (बिलकुल सुकुमार) मेरे सुंदर पुत्र! ॥3॥

* सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥
तब बसिष्ट बहुबिधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥4॥

भावार्थ:-प्रेम रस में सनी हुई राजा की वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी ने हृदय में बड़ा हर्ष माना। तब वशिष्ठजी ने राजा को बहुत प्रकार से समझाया, जिससे राजा का संदेह नाश को प्राप्त हुआ॥4॥

* अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥5॥

भावार्थ:-राजा ने बड़े ही आदर से दोनों पुत्रों को बुलाया और हृदय से लगाकर बहुत प्रकार से उन्हें शिक्षा दी। (फिर कहा-) हे नाथ! ये दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं। हे मुनि! (अब) आप ही इनके पिता हैं, दूसरा कोई नहीं॥5॥ 

दोहा :

* सौंपे भूप रिषिहि सुत बहुबिधि देइ असीस।
जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥208 क ॥

भावार्थ:-राजा ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद देकर पुत्रों को ऋषि के हवाले कर दिया। फिर प्रभु माता के महल में गए और उनके चरणों में सिर नवाकर चले॥208 (क)॥

विश्वामित्र ने भगवान राम को क्या सिखाया? - vishvaamitr ne bhagavaan raam ko kya sikhaaya?

सोरठा :

* पुरुष सिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।
कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥208 ख॥

भावार्थ:-पुरुषों में सिंह रूप दोनों भाई (राम-लक्ष्मण) मुनि का भय हरने के लिए प्रसन्न होकर चले। वे कृपा के समुद्र, धीर बुद्धि और सम्पूर्ण विश्व के कारण के भी कारण हैं॥208 (ख)॥

चौपाई :

* अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥
कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥1॥

भावार्थ:-भगवान के लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं, नील कमल और तमाल के वृक्ष की तरह श्याम शरीर है, कमर में पीताम्बर (पहने) और सुंदर तरकस कसे हुए हैं। दोनों हाथों में (क्रमशः) सुंदर धनुष और बाण हैं॥1॥

* स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्वामित्र महानिधि पाई॥
प्रभु ब्रह्मन्यदेव मैं जाना। मोहि निति पिता तजेउ भगवाना॥2॥

भावार्थ:-श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई परम सुंदर हैं। विश्वामित्रजी को महान निधि प्राप्त हो गई। (वे सोचने लगे-) मैं जान गया कि प्रभु ब्रह्मण्यदेव (ब्राह्मणों के भक्त) हैं। मेरे लिए भगवान ने अपने पिता को भी छोड़ दिया॥2॥

* चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥3॥

भावार्थ:-मार्ग में चले जाते हुए मुनि ने ताड़का को दिखलाया। शब्द सुनते ही वह क्रोध करके दौड़ी। श्री रामजी ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिए और दीन जानकर उसको निजपद (अपना दिव्य स्वरूप) दिया॥3॥

विश्वामित्र ने भगवान राम को क्या सिखाया? - vishvaamitr ne bhagavaan raam ko kya sikhaaya?


* तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥
जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥4॥

भावार्थ:-तब ऋषि विश्वामित्र ने प्रभु को मन में विद्या का भंडार समझते हुए भी (लीला को पूर्ण करने के लिए) ऐसी विद्या दी, जिससे भूख-प्यास न लगे और शरीर में अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो॥4॥

महर्षि विश्वामित्र ने राम को कौन सी विधाएं सिखाई?

राम और लक्ष्मण नदी में मुँह - हाथ धोकर लौटे । महर्षि के निकट आकर बैठे । विश्वामित्र ने दोनों भाइयों को 'बला-अतिबला' नाम की विद्याएँ सिखाईं।

विश्वामित्र ने राम से क्या कहा?

“हम आज रात नदी तट पर ही विश्राम करेंगे, " महर्षि ने पीछे मुड़ते हुए कहा । दोनों राजकुमारों के चेहरे के भाव देखते हुए विश्वामित्र हलका-सा मुसकराए। राम के निकट आते हुए उन्होंने कहा, "मैं तुम दोनों को कुछ विद्याएँ सिखाना चाहता हूँ।

विश्वामित्र ने महाराज दशरथ से राम को क्यों माँगा?

वह नियमित यज्ञ कार्य भी नहीं कर पा रहे थे। दुष्ट प्रकृति का सुबाहु यज्ञ स्थल पर मरे प्राणियों की हड्डी बिखेर देता। इससे परेशान होकर विश्वामित्र ने विचार किया और निर्णय लिया कि यज्ञ की रक्षा के लिए अयोध्या नरेश से राम और लक्ष्मण को मांग लें।

विश्वामित्र राम को लेने क्यों आए राम को उनकी सेवा से क्या क्या लाभ हुए?

दशरथ कहते हैं कि मेरे राम लखन अभी बालक हैं बहुत ताकतवर असुरों से कैसे युद्ध कर पाएंगे। विश्वामित्र राम लक्ष्मण को लेकर जाने की जिद करते हैं। विश्वामित्र के नहीं मानने पर राजा दशरथ ने प्रभु राम और लक्ष्मण दोनों भाइयों को ऋषि मुनियों की रक्षा के लिए विश्वामित्र के साथ वन में भेज दिया।