लेखक परिचय जीवन परिचय-ओम थानवी का जन्म 1957 ई० में हुआ था। इनकी शिक्षा-दीक्षा बीकानेर में हुई थी। इन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय से व्यावसायिक प्रशासन में एम०कॉम० किया। ये ‘एडीटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया’ के महासचिव रहे। 1980 से 1989 तक इन्होंने ‘राजस्थान पत्रिका’ में काम किया। ‘इतवारी पत्रिका’ के संपादन ने साप्ताहिक को विशेष प्रतिष्ठा दिलाई। ये अपने सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारों के लिए जाने जाते हैं। अभिनेता और
निर्देशक के रूप में ये स्वयं रंगमंच पर सक्रिय रहे। इनकी गहन दिलचस्पी साहित्य, कला, सिनेमा, वास्तुकला, पुरातत्व और पर्यावरण में है। इन्होंने अस्सी के दशक में सेंटर फ़ॉर साइंस एनवायरनमेंट (सी०एस०ई०) की फ़ेलोशिप पर राजस्थान के पारंपरिक जल-स्रोतों पर खोजबीन करके इसके बारे में विस्तार से लिखा। इन्हें पत्रकारिता में कई पुरस्कार मिले, जिनमें गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार प्रमुख है। 1999 ई० में इन्होंने दैनिक जनसत्ता के दिल्ली और कोलकाता के संस्करणों का संपादकीय दायित्व सँभाला। संप्रति, ये इसी
समाचार-पत्र के संपादक के रूप में कार्यरत हैं। पाठ का सारांश लेखक कहता है कि हड़प्पा व मुअनजो-दड़ो-दोनों स्थान अभी तक दुनिया के सबसे पुराने नियोजित शहर माने जाते हैं। मुअन जो-दड़ो ताम्रकाल के शहरों में सबसे बड़ा था। यहाँ खुदाई में बड़ी तादाद में इमारतें, सड़कें, धातु-पत्थर की मूर्तियाँ, चाक पर बने चित्रित भौंडे, मुहरें, साजो-सामान और खिलौने आदि मिले हैं। हड़प्पा के ज्यादातर साक्ष्य रेल लाइन बिछने के दौरान विकास की भेंट चढ़ गए। मुअन जो-दड़ो को सभ्यता का
केंद्र माना जाता है। यह दो सौ हेक्टेअर क्षेत्र में फैला था तथा इसकी आबादी लगभग पचासी हजार थी। यह नगर छोटे-मोटे टीलों पर आबाद था तथा ये प्राकृतिक नहीं थे। कच्ची-पक्की ईटों से धरती की सतह को ऊँचा उठाया गया था। इस शहर की सड़कों व गलियों में अब भी घूमा जा सकता है। यहाँ का सामान अजायबघरों की शोभा बढ़ा रहा है, परंतु शहर वहीं है। इस शहर की गलियाँ, मकान, चबूतरे, खिड़की, रसोई, सड़कें आदि सुंदर नगर-नियोजन की कहानी कहते हैं। शहर के सबसे ऊँचे चबूतरे पर बड़ा बौद्ध स्तूप है, परंतु यह मुअनजो-दड़ो सभ्यता के
जीर्ण-शीर्ण टीले पर बना है। 1922 ई० में राखलदास बनर्जी ने इस स्तूप की खोज की तो उन्हें यहाँ ईसा पूर्व के निशान मिले। तत्कालीन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक जॉन मार्शल के निर्देश पर खुदाई का व्यापक अभियान शुरू हुआ और भारत दुनिया की प्राचीन लेखक सबसे पहले इसी स्तूप पर पहुँचा। इसे नागर भारत का सबसे पुराना लैंडस्केप कहा गया है। सर्दी के मौसम में भी धूप घुमाएँ तो तसवीरों के रंग उड़े हुए प्रतीत होते हैं। स्तूप वाले हिस्से को ‘गढ़’ कहा
जाता है। दुनिया-भर की प्रसिद्ध इमारतों के खंडहर चबूतरे के पश्चिम में हैं। इनमें प्रशासनिक इमारतें, सभा-भवन, ज्ञानशाला और कोठार हैं। केवल अनुष्ठानिक महाकुंड अपने मूल स्वरूप में बचा है, शेष इमारतें उजड़ी हुई हैं। मुअनजो-दड़ो का नगर नियोजन बेमिसाल है। अधिकांश सड़कें सीधी हैं या आड़ी। इसे वस्तुकार ‘ग्रिड प्लान’ कहते हैं आजकल की सेक्टर-माका कॉलोनियों में हमें आड़ा-सीधा नियोजन मिलता है, परंतु वह रहन-सहन को नीरस बनाता है ब्रासीलिया, चंडीगढ़ या इस्लामाबाद ग्रिड शैली के शहर हैं, परंतु
उनमें स्वयं विकसने की क्षमता नहीं है। चबूतरे के ‘गढ़’ और ठीक सामने ‘उच्च’ वर्ग की बस्ती है। उसके पीछे पाँच किलोमीटर दूर सिंधु बहती है। दक्षिण में टूटेघर कामगारों के हैं। लेखक प्रश्न करता है कि निम्न वर्ग का अस्तित्व था या नहीं? शायद उनके घर कमजोर रहे जो समय के अनुसार नष्ट हो गए होंगे। टीले के पास महाकुंड है। इसका नाम ‘दैव मार्ग’ रखा गया है। यह सामूहिक स्नान के काम आता था। यह 40 फुट 25 फुट चौड़ा व सात फुट गहरा है। इसके उत्तर व दक्षिण से सीढ़ियाँ उतरती हैं। इसके तीन तरफ
साधुओं के कक्ष हैं त उत्तर में दो पाँत में आठ स्नानघर हैं। इनमें किसी का दरवाजा दूसरे के सामने नहीं खुलता। इस कुंड का निर्माण पक्की ई से हुआ है। पानी का रिसाव रोकने तथा गंदे पानी से बचाव के लिए कुंड के तल व दीवारों पर चूने व चिरोड़ी के गारे प्रयोग किया गया है। पानी के लिए एक तरफ कुआँ है। कुंड से पानी को बाहर बहाने के लिए नालियाँ हैं। ये पक्की से बनी हैं तथा ईटों से ढकी भी हैं। जल-निकासी का ऐसा सुव्यवस्थित बंदोबस्त इससे पहले के इतिहास में नहीं मिलता। कुंड के दूसरी तरफ विशाल कोठार है। शायद
यहाँ कर के रूप में हासिल अनाज जमा किया जाता था। यहाँ नौ-नौ चौकियों की तीन कतारें हैं तथा उत्तर की एक गली में बैलगाड़ियों के प्रयोग के साक्ष्य मिले हैं जो माल की दुलाई करती होंगी। सिंधु घाटी काल में व्यापार के साथ उन्नत खेती भी होती थी। अब इसे खेतिहर व पशुपालक सभ्यता माना जाता है। पत्थर व ताँबे की बहुतायत थी, परंतु लोहा नहीं था। पत्थर सिंध से तथा ताँबा राजस्थान से मिलता था। इनके उपकरण खेती-बाड़ी में प्रयोग किए जाते थे। कपास, गेहूँ, जौ, सरसों व चने की उपज के सबूत मिले हैं।
यहाँ कपास, बेर, खजूर, खरबूजे, अंगूर, ज्वार, बाजरा और रागी की खेती भी होती थी। यहाँ से मिला सूती कपड़ा दुनिया के सबसे पुराने नमूनों में से एक है। दूसरा सूती कपड़ा तीन हजार ईसा पूर्व का है जो जॉर्डन में मिला। मुअनजो-दड़ो में रँगाई भी होती थी। ऊन व लिनन का आयात सुमेर से होता था। महाकुंड के उत्तर-पूर्व में लंबी इमारत के अवशेष मिले हैं। इसके बीच में खुला बड़ा दालान है तथा तीन तरफ बरामदे हैं। इसे कॉलेज ऑफ़ प्रीस्ट्स माना जाता है। दक्षिण में बीस खंभों वाला एक हाल है जो शायद राज्य
सचिवालय, सभा-भवन या सामुदायिक केंद्र रहा होगा। गढ़ की चारदीवारी के बाहर ‘नीचा नगर’ था। खुदाई की प्रक्रिया में टीलों का आकार घट गया था। पूरब की बस्ती ‘रईसों की बस्ती’ है। इसमें बड़े घर, चौड़ी सड़कें तथा ज्यादा कुएँ थे। मुअनजो-दड़ो के सभी खंडहरो की खुदाई करनेवाले पुरातत्ववेत्तओं का संक्षिप्त नाम ‘डीके’ रचा गया है। ‘डीके’ क्षेत्र दोनों बस्तियों में सबसे महत्वपूर्ण हैं। शहर की मुख्य सड़क यहीं पर है। यह बहुत लंबी सड़क है तथा तैतीस फुट चौड़ी है। इस पर एक साथ दो बैलगाड़ियाँ आ-जा सकती थीं। यह सड़क
‘बाजार’ तक पहुँचती थी। इस सड़क के दोनों ओर घर हैं। सड़क की तरफ कोई दरवाजा नहीं है। काबूजिए ने भी चंडीगढ़ में इस शैली का प्रयोग किया था। सड़क के दोनों तरफ ढँकी हुई नालियाँ थीं। हर घर में एक स्नानघर है और नालियाँ घर का पानी हौदी तक लाती हैं तथा फिर वे नालियों के जाल से जुड़ जाती हैं। ज्यादातर नालियाँ ढकी हुई हैं। बस्ती के भीतर सड़कें नौ से बारह फुट तक चौड़ी हैं। बस्ती के कुएँ पकी हुई एक ही आकार की ईंटों से बने हैं। यहाँ लगभग सात सौ कुएँ पाए गए हैं। इसे ‘जल संस्कृति’ भी कहा जा सकता है। ‘डीके जी’ हलके के घरों की दीवारें ऊँची और मोटी हैं। यहाँ शायद दु मंजिले मकान भी होंगे। सभी पकी हुई ईटों से बने थे तथा ईटें भी एक ही आकार 1: 2: 4 के अनुपात की हैं। यहाँ घरों में केवल प्रवेश द्वार हैं, खिड़कियों नहीं हैं। बड़े घरों के भीतर आँगन के चारों तरफ बने कमरों में खिड़कियाँ हैं। घर छोटे-बड़े हैं। सभी घर एक कतार में हैं तथा अधिकतर का आकार तीस गुणा-तीस फुट का है। कुछ इनसे काफी बड़े भी हैं। सबकी वास्तु-शैली भी एक-जैसी लगती है। डीके-बी, सी हलके से ऐक घर से दाढ़ी वाले याजक-नरेश की
मूर्ति मिली है। ‘एच आर’ हलके के बड़े घर में कुछ कंकाल मिले हैं। प्रसिद्ध ‘नर्तकी’ शिल्प भी इसी हलके के छोटे घर से मिली है। यहीं पर एक बड़ा घर है जिसे उपासना-केंद्र समझा जाता है। गढ़ी के पीछे ‘वीएस’ हिस्से में ‘रैंगरेज का कारखाना’ है जहाँ जमीन में ईटों के गोल गट्ठे उभरे हुए हैं। यहाँ दो कतारों में सोलह छोटे एक-मैंजिला मकान हैं। सबमें दो-दो कमरे हैं। ये कर्मचारियों या कामगारों के घर रहे होंगे। मुअनजो-दड़ो में कुओं को छोड़कर अन्य सभी वस्तुएँ चौकोर या आयताकार हैं। लेखक बड़े घरों
में भी छोटे कमरे देखकर हैरान है। इसका कारण आबादी बढ़ना या निचली मंजिल पर नौकरों का निवास हो सकता है। सीढ़ियाँ शायद लकड़ी की रही होंगी। ऊपरी मंजिल पर लकड़ी की साज-सज्जा की जाती होगी। अधिकतर घरे में खिड़कियों या दरवाजों पर छज्जों के चिहन नहीं हैं। गरम क्षेत्र में ये चीजें आम होती हैं। इसका तात्पर्य यह है कि हाथी, शेर, गैंडा आदि जीवों की तसवीरों से लगता है कि यहाँ जगल थे तथा अच्छी खेती से सिंचाई की जाती थी। इस क्षेत्र में नहर के प्रमाण नहीं मिलते। इसका मतलब
यह निकलता है कि घटने तथा कुंओं के अत्यधिक इस्तेमाल से भूतल जल भी नीचे चला गया और बस्ती उजड़ गई। तेज हवा बह रही थी। हर जगह लेखक को साँय-साँय की ध्वनि सुनाई दे रही थी। यहाँ सब खंडहर हैं। नहीं है, लेकिन घर एक नक्शा ही नहीं होता। हर घर का एक संस्कारमय आकार होता है। किसी भी घर समय एक अपराध-बोध भी होता था। लेखक को यहाँ राजस्थान व सिंध-गुजरात के घर याद आ गए। यहाँ व ज्वार की खेती हजारों साल से होती है। मुअनजो-दड़ो के घरों में टहलते हुए उसे जैसलमेर के गाँव कुलधरा आई। यह पीले पत्थर के
घरों वाला एक खूबसूरत गाँव है। यहाँ घर हैं, परंतु लोग नहीं हैं। डेढ़ सौ साल पहले राजा से तकरार पर स्वाभिमानी गाँव का हर सदस्य अपना घर छोड़कर चला गया। घर खंडहर हो गए, पर ढहे नहीं। लोग निकल गए, वक्त वहीं रह गया। जॉन मार्शल ने मुअनजो-दड़ो पर तीन खंडों में एक विशाल ग्रंथ छपवाया। उसमें खुदाई में मिली ठोस पहियों वाली मिट्टी की गाड़ी के चित्र के साथ सिंध की वर्तमान बैलगाड़ी का चित्र प्रकाशित है। दोनों में कमानी या आरे वाले पहिये का प्रयोग किया गया है। अब उन पहियों की जगह जीप के उतरन पहिये लगते हैं। हवाई
जहाज के उतरन पहिये बाजार में आने के बाद ऊँट गाड़ी का भी आविष्कार हो गया। मेजबान ने अजायबघर के बारे में बताया। यह अजायबघर छोटा है तथा सामान भी ज्यादा नहीं है। अधिकतर चीजें कराची, लाहौर, दिल्ली और लंदन की हैं। मुअनजो-दड़ो से ही पचास हजार से ज्यादा चीजें मिली हैं। यहाँ पर काला पड़ गया गेहूँ, ताँबे व काँसे के बर्तन, मुहरें, वाद्य, चाक पर बने विशाल मृद्-भांड, चौपड़ की गोटियाँ, दीये, माप-तौल पत्थर, ताँबे का आईना, मिट्टी की बैलगाड़ी, दो पाटन वाली चक्की, कंघी, पत्थर के औजार, सोने के
गहने आदि थे। इस अजायबघर में औजार तो हैं, परंतु हथियार नहीं हैं। पूरी सिंधु-सभ्यता में कहीं हथियार नहीं मिलते। विद्वान निष्कर्ष निकालते हैं कि यहाँ अनुशासन ताकत के बल पर नहीं था। शायद सैन्य सत्ता भी न रही हो। दूसरे, यहाँ प्रभुत्व या दिखावे के तेवर नदारद हैं। दूसरी सभ्यताओं में राजतंत्र या धर्मतंत्र की ताकत का प्रदर्शन करने वाले महल, उपासना-स्थल, मूर्तियाँ और पिरामिड मिलते हैं, परंतु हड़प्पा संस्कृति में महल, मंदिर, समाधियाँ नहीं मिलतीं। यहाँ के मूर्ति शिल्प व औजार भी छोटे हैं। मुकुट व नावें भी
छोटी थीं। शायद यह ‘लो-प्रोफ़ाइल’ सभ्यता थी। मुअनजो-दड़ो साधन व व्यवस्थाओं के अनुसार भी सबसे समृद्ध है, परंतु यहाँ आडंबर नहीं है। अत: अनेक रहस्य अभी तक सामने नहीं आए हैं। सिंधु घाटी के लोग कलाप्रिय थे। उनकी यह कलाप्रियता, वास्तुकला, धातु व पत्थर की मूर्तियाँ, मृद्-भांड, उन पर चित्रित मनुष्य, वनस्पति, पशु-पक्षियों की छवियाँ, सुनिर्मित मुहरें, उन पर उकेरी गई। आकृतियाँ, खिलौने, सुघड़ अक्षरों से सिद्ध होती है। सिंधु घाटी
सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्य-बोध है जो राजपोषित या धर्मपोषित न होकर समाज-पोषित था। अजायबघर में ताँबे व काँसे की सूइयाँ मिली हैं। काशीनाथ दीक्षित को सोने की तीन सूइयाँ मिलीं। शायद ये कशीदेकारी में काम आती रही होंगी। ‘नरेश’ के बदन पर आकर्षक गुलकारी वाला दुशाला भी है। आज छापे वाला कपड़ा ‘अजरक’ सिंध की खास पहचान है। यहाँ हाथी-दाँत व ताँबे के सूए भी मिले हैं जो शायद दरियाँ बनाने के काम आते थे। अब मुअनजो-दड़ो में खुदाई बंद कर दी गई है क्योंकि सिंधु के पानी के रिसाव से क्षार और दलदल की समस्या पैदा हो गई
है। अब इन खंडहरों को बचाकर रखना ही बड़ी चुनौती है। शब्दार्थ अतीत में दबे पाँव – प्राचीन काल के अवशेष। मुअनजो-दड़ो – मुदों का टीला, पाकिस्तान के सिंध प्रांत में पुरातात्विक स्थल। हड़प्पा – पाकिस्तान के पंजाब प्रांत का पुरातात्विक स्थल। परवर्ती – बाद के काल का। परिपक्व दौर – समृद्ध काल। उत्कृष्ट – सर्वश्रेष्ठ। व्यापक –
विस्तृत। चित्रित भाडे – ऐसे बर्तन जिन पर चित्र बने हों। साक्ष्य – प्रमाण। आबाद – जहाँ लोग रहते हों। टीले – छोटे-छोटे मिट्टी के शिखर। खूबी – विशेषता। आदिम – अत्यंत प्राचीन। इलहाम – ईश्वरीय प्रेरणा। सर्पिल – साँप की तरह टेढ़ा-मेढ़ा। पगडडी – पैदल चलने के लिए सँकरा मार्ग। अयलक – पलक अपकाए बिना निरंतर देखना। नागर
– नगरीय गुणों से युक्त सभ्यता। लैंडस्केय – भू-दृश्य। आलम – संसार। ऐतिहासिक – इतिहास प्रसिद्ध। ज्ञानशाला – विद्यालय। कोठार – भंडार। अनुष्ठानिक – पर्व। महाकुंड – यज्ञ का विशाल कुंड। अदवितीय – अनोखा। वास्तुकौशल –भवन-निर्माण की चतुराई। नगर-नियोजन – शहर बसाने की विधि। अनूठी – अनुपम। मिसाल
– उदाहरण। भाँपना – अनुमान लगाना। कमोवेश – थोड़ी-बहुत। अराजकता –अशांति, अव्यवस्था। प्रतिमान – मानक। कामगार – मजदूर। ड़तर – भिन्न। विहार – बौद्ध-आश्रम। सायास – प्रयत्न सहित। धरोहर – उत्तराधिकार में प्राप्त। दैव – ईश्वरीय। अनुष्ठान – आयोजन। पाँत – पंक्ति। पाश्व
– अगल-बगल की जगह। समरूप –समान। धूसर – धूल के रंग के। निकासी – निकालना। बदोबस्त – इंतजाम। परिक्रमा – चक्कर लगाना। जगजाहिर – सभी द्वारा जाना हुआ। निमूल – शंकारहित। अवशेष –चिहन। भग्न – टूटी हुई। वास्तुकला – भवन-निर्माण कला। चेतन – मस्तिष्क का जाग्रत हिस्सा। अवचेतन – मस्तिष्क का सोया
हुआ हिस्सा। बाशिंदे – निवासी। सरोकार –प्रयोजन। याजक नरेश – यज्ञकर्ता राजा। चौकोर – जिसकी चारों भुजाएँ बराबर हों। आयताकार – जिस आकार की आमने-सामने की भुजाएँ बराबर हों। साज-सज्जा – सजावट। प्रावधान – व्यवस्था। अतराल – मध्य। अनधिकार – अधिकार रहित। अपराधबोध – गलती का अहसास। विशद – विशाल। इज़हार –
प्रकट। मेज़बान – जिसके घर अतिथि आए हों। यजीकृत – सूचीबद्ध। मृद-भाड – मिट्टी के बर्तन। आईना – दर्पण। राजतत्र – राजा को सर्व अधिकारो देने वाली व्यवस्था। भव्य – विशाल। समृदध – संपन्न। आडबर – दिखावा। उदघाटित – प्रकट। उत्कीर्ण – खोदी हुई। सुघड़ – सुंदर। गुलकारी – कपड़ों पर चित्र अंकित करने की कला।
साक्ष्य – प्रमाण। क्षार – नमक। पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न प्रश्न 1: प्रश्न 2: अथवा ‘सिंधु-सभ्यता का सौंदर्य-बोध समाज-पोषित था।”-अतीत में दबे पाँव’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए। अथवा ‘सिंधु-घाटी के लोगों में कला या सुरुचि का महत्व अधिक था”-उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए। प्रश्न
3: अथवा ‘सिंधु-सभ्यता ताकत से शासित होने की अपेक्षा समझ से अनुशासित सभ्यता थी”-अतीत में दबे पाँव के आधार पर उत्तर दीजिए। प्रश्न 4: अथवा मुअनजो-दड़ो की सभ्यता पूर्ण विकसित सभ्यता थी, कैसे? पाठ के आधार पर उदाहरण देकर पुष्ट कीजिए। प्रश्न 5: प्रश्न 6: प्रश्न 7: अथवा क्या
सिंधु वाडी सभ्यता कां जल-संस्कृति कह सकते हैं? कारण सहित उतार दीजिए। प्रश्न 8: अथवा “सिंधु मार्टा की सभ्यता लेवल अवशषां‘ के आधार पर बनाई गई एक धारणा जा “-इस विचार के पक्ष या विपक्ष में अपने विचार प्रकट र्काजिए।
अन्य हल प्रश्न I. बोधात्मक प्रशन प्रश्न 1: प्रश्न 2: प्रश्न 3: प्रश्न 4: प्रश्न 5: प्रश्न 6: प्रश्न 7:
प्रश्न 8: अथवा ‘मुअनजो-दड़ो की नगर-योजना आज की सक्टर-माका कॉलोनियों के नीरस नियोजन की अपेक्षा ज्यादा रचनात्मक है। ”-टिप्पणी कीजिए। ‘अतीत में दबे पाँव’ के लखक ने मुअनजो-दड़ो की सभ्यता को किस आधार पर ‘लो-प्रोफाइल सभ्यता’ कहा है? अथवा प्रश्न
9:
प्रश्न 10:
प्रश्न 11: प्रश्न 12: प्रश्न 13: II. निबंधात्मक प्रश्न प्रश्न 1: प्रश्न 2: प्रश्न 3: प्रश्न 4: प्रश्न 5:
प्रश्न 6: अथवा ‘अतीत में दबे पाँव” के आधार पर उस युग की सभ्यता और सस्कृति के विषय में अपने विचार प्रस्तुत कीजिए। प्रश्न
7: प्रश्न 8:
III. मूल्यपरक प्रश्न प्रश्न 1: (अ) अभी भी मुअनजो-दड़ो और हड़प्पा प्राचीन भारत के ही नहीं, दुनिया के दो सबसे पुराने नियोजित शहर माने जाते हैं। ये सिंधु घाटी सभ्यता के परवर्ती यानी परिपक्व दौर के शहर हैं। खुदाई में और शहर भी मिले हैं। लेकिन मुअनजो-द. डो ताम्र काल के शहरों में सबसे बड़ा है। वह सबसे उत्कृष्ट भी है। व्यापक
खुदाई यहीं पर संभव हुई। बड़ी तादाद में इमारतें, सड़कें, धातु-पत्थर की मूर्तियाँ, चाक पर बने चित्रित भांडे, मुहरें, साजो-सामान और खिलौने आदि मिले। सभ्यता का अध्ययन संभव हुआ। उधर सैकड़ों मील दूर हड़प्पा के ज्यादातर साक्ष्य रेल लाइन बिछने के दौरान ‘विकास की भेंट चढ़ गए।’
उत्तर –
(ब) नगर-नियोजन की मुअनजो-दड़ो अनूठी मिसाल है। इस कथन का मतलब आप बड़े चबूतरे से नीचे की तरफ़ देखते हुए सहज ही भाँप सकते हैं। इमारतें भले खंडहरों में बदल चुकी हों मगर ‘शहर’ की सड़कों और गलियों के विस्तार को स्पष्ट करने के लिए ये खंडहर काफ़ी हैं। यहाँ की कमोबेश सारी सड़कें सीधी हैं या फिर आड़ी। आज वास्तुकार इसे ‘ग्रिड प्लान’ कहते हैं। आज की सेक्टर-माका कॉलोनियों में हमें आड़ा-सीधा ‘नियोजन’ बहुत मिलता है।
लेकिन वह रहन-सहन को नीरस बनाता है। शहरों में नियोजन के नाम पर भी हमें अराजकता ज्यादा हाथ लगती है। ब्रासीलिया या चंडीगढ़ और इस्लामाबाद ‘ग्रिड” शैली के शहर हैं जो आधुनिक नगर-नियोजन के प्रतिमान ठहराए जाते हैं, लेकिन उनकी बसावट शहर के खुद विकसने का कितना अवकाश छोड़ती है इस पर बहुत शंका प्रकट की जाती है। मुअनजो-दड़ो की साक्षर सभ्यता एक सुसंस्कृत समाज की स्थापना थी, लेकिन उसमें नगर-नियोजन और वास्तु कला की आखिर कितनी भूमिका थी?
उत्तर –
प्रश्न 2: प्रश्न 3: प्रश्न 4:
प्रश्न 5:
इस प्रकार मुअनजो-दड़ो की नगर योजना अपने-आप में अनूठी मिसाल थी। स्वयं करें प्रश्न:
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NCERT SolutionsHindiEnglishMathsHumanitiesCommerceScience सिक्के के विश्राम की जगह कौन सी है?उत्तर- सिक्के के विश्राम की जगह गुल्लक है।
सिक्के की विश्वसनीयता और पहचान के लिए प्राचीन काल से राजा लोग क्या करते हैं?सिक्के की विश्वसनीयता और पहचान के लिए प्राचीन समय से ही राजाओं ने इसके एक ओर अपने राज्य की मुद्रा तथा दूसरी तरफ इसका मूल्य अंकित कर ढाला।
अल्पबचत की आवश्यकता क्यों है?अल्पबचत की आवश्यकता क्यों है? भविष्य में होने वाली आर्थिक कठिनाइयों का अंदाजा लगावा मुश्किल है, इसलिए हमें अपनी वर्तमान आय का एक हिस्सा गुल्लक में रखना चाहिए अर्थात अल्पबचत करनी चाहिए ताकि भावी आर्थिक संकट का मुकाबला कर सके।
कागज के नोट की तुलना में सिक्का अधिक समय तक अपनी सेवाएं क्यों देता है?कागज के नोट की तुलना में सिक्का अधिक समय तक अपनी सेवाएँ इसलिए देता है क्योंकि सिक्का धातु का बनता और धातु कागज की तुलना में अधिक उपयोगी है। इसीलिए सिक्के का अस्तित्व अभी तक बना हुआ है। सक्कों की कमी क्यों हो जाती है? सिक्कों की गति के साथ-साथ मुद्रा की अन्य विधियों का चलन बढ़ा है।
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