शिक्षा प्रणाली का क्या अर्थ है? - shiksha pranaalee ka kya arth hai?

आज की शिक्षा से हम क्या समझते है?

हर रोज़ विद्यालय में जाकर शिक्षकों ने जितना बोला, उसे दिमाग का उपयोग किए बिना ही रट लेना शिक्षा है?

या दुनिया के सभी छात्रों से आगे निकल जाने वाली कोशिशों में खुद को ही भूल जाने की भागदौड़ को शिक्षा कहेंगे?

क्या हम उन्हें शिक्षित कहेंगे जो स्वाभाविक सी बातों पर भी मरने-मारने की धमकी देते हैं, या फिर शिक्षा वह है जो परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर आत्महत्या की सोच की तरफ ले जाती है?

मनुष्य एक प्राणी मात्र ही तो है, परंतु फिर भी पृथ्वी पर उसका महत्व इसलिए है क्योंकि वह सोच सकता है - उस सोच को शब्दों के रूप में प्रकट कर सकता है - और वही सोच का आदान प्रदान करके अपने आप में परिवर्तन भी ला सकता है - कुछ नया कर सकता है। शिक्षा का सरल अर्थ ही तो सोचने, बोलने और बदलाव लाने की प्रक्रिया है जो संसार को उन्नति की तरफ ले जाए।

तो क्या यह सरल मतलब आज की शिक्षा प्रणाली समझती है?

भारत ने आज तक कई प्रकार की शिक्षा प्रणालियाँ देखी है। उनमें से सबसे पुरानी है वर्ण व्यवस्था आधारित शिक्षा प्रणाली। यह शिक्षा प्रणाली के चलते समाज स्थिर हुआ। बच्चे के जन्म के साथ ही उसका वर्ण निश्चित हो जाता और वर्ण से शिक्षा जुड़ी हुई थी। मतलब कि उसकी शिक्षा भी उसके जन्म के साथ ही तय हो जाती। कैसी शिक्षा लेनी है और कब लेनी है यह प्रश्न ही नहीं था।

इसके बाद दर्शन आधारित शिक्षा प्रणालियाँ सामने आई। उन्होंने अपने विचार के प्रचार के लिए शिक्षा का उपयोग किया और उपासकों का एक वर्ग उभरकर सामने आया। यह नवीनतम विचारधाराओं ने वर्ण बंधन की दासता को तोड़ा। परंतु बदलाव ही संसार का नियम है और इस नियम के तहत यह विचार आधारित शिक्षा प्रणाली में से भी धीरे-धीरे विचार चले गए और मात्र शिक्षा प्रणाली बच गई। यह बात कुछ १०-१२ सालों की नहीं है, यह सब होने में संभवतः ३००० से भी ज्यादा वर्षों का समय लगा।

इसके बाद एक ऐसी शिक्षा प्रणाली ने जन्म लिया जिसकी तुलना हम किसी फ़ैक्टरी से कर सकते हैं और जिस में हम सब आज शिक्षा भी ले रहे हैं। इस प्रणाली ने मानव को एक संसाधन बना दिया। और जो खुद एक संसाधन है वह दूसरों को भी संसाधन की नजर से ही देखता चला गया।

यह सभी बातें शिक्षा प्रणाली में आए बदलाव को सूचित करती हैं। शिक्षा में आए इस परिवर्तन ने समाज, सामाजिक मूल्यों एवं पर्यावरण पर अपना गहरा प्रभाव डाला। मानव जब खुद एक संसाधन बन गया तो उसने पर्यावरण को भी संसाधन के स्वरूप में स्वीकार कर उसका उपयोग ना करते हुए उपभोग करने निकल पड़ा। उपभोग की इस यात्रा में हमने काफी लंबा रास्ता तय कर लिया है। इसीलिए कई शहरों की शिक्षा में प्राणवायु देने वाले पेड़ो का महत्व सिर्फ किताबों और पर्यावरण दिन मनाने तक सीमित रह जाता है। लेकिन आज भी ऐसे कई स्थान है जहां बड़ी संख्या में लोग इस पर्यावरण के साथ जंगलों में रहते हैं। जो उनका ना तो उपयोग करते है और ना ही उपभोग, वे उन्हें अपने जीवन का एक हिस्सा मानते हैं। भले ही आज की शिक्षा प्रणाली उन तक पहुंचने में और अक्षर ज्ञान देने में असफल रही हो परंतु वे पर्यावरण को बखूबी हमसे ज्यादा जानते हैं। उनके जीवन में किसी और से आगे निकल जाने की भागदौड़ नहीं है, ना ही जीवन में कुछ नहीं किया इस सोच की हताशा। क्योंकि उनके सामने हर साल सूखा हो जाने वाला जंगल फिर से हरा भरा हो जाता है, वही उन्हें जीवन अमूल्य शिक्षा देता है।

भौगोलिक दृष्टि से देखा जाए तो भारत एक बहुत बड़ा राष्ट्र है। पानी से भरे जंगल से लेकर रेत से भरा रेगिस्तान, पर्वत की आड़ी टेढ़ी चट्टानों से लेकर विशाल समुद्र तट को हमारा भारत समाता है। इतना वैविध्यपूर्ण पर्यावरण उस इलाके में रहते इंसानों की आर्थिक स्थिति एवं सोचने के दृष्टिकोण में बदलाव लाता है। शिक्षा प्रणाली चाहे एक ही हो परंतु दृष्टिकोण अलग होने से शिक्षा दृष्टिकोण एवं पर्यावरण के साथ जुड़ी होनी चाहिए।

यह मुद्दे आज की शिक्षा प्रणाली को प्रभावित कर रहे हैं। परंतु शिक्षा प्रणाली अब तक इन मुद्दों से प्रभावित नहीं है। विश्व में आई हुई और आने वाली बड़ी चुनौतियों का डटकर सामना करने की शिक्षा भी आज की शिक्षा प्रणाली नहीं दे पा रही। शिक्षा के वर्तमान मूल्य में परिवर्तन लाने का समय अब आ गया है। दिखावे मात्र के प्रयत्न तो काफी किए जा रहे है, अब ज़रूरत है की छोटी छोटी कोशिशें जो हमारे देश में जगह जगह हो रही है उनका समर्थन किया जाए। आने वाले समय में उनको एक जुट कर एक व्यवस्था परिवर्तन की जाए।

लेखिका - बंसरी रबाडिया

(समानता के साथ काम करते हुए बंसरी अपना योगदान बच्चों के लिए उनके आस पास के अनुभवों से सम्बंधित कार्य तय्यार करने में सहायता कर रही है।)

अफगानिस्तान के एक विद्यालय में वृक्ष के नीचे पढ़ते बच्चे

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शिक्षा ज्ञान, उचित आचरण, तकनीकी दक्षता, विद्या आदि को प्राप्त करने की प्रक्रिया को कहते हैं। शिक्षा में ज्ञान, उचित आचरण और तकनीकी दक्षता, शिक्षण और विद्या प्राप्ति आदि समाविष्ट हैं। इस प्रकार यह कौशलों (skills), व्यापारों या व्यवसायों एवं मानसिक, नैतिक और सौन्दर्यविषयक के उत्कर्ष पर केंद्रित है।[1]

शिक्षा, समाज एक पीढ़ी द्वारा अपने से निचली पीढ़ी को अपने ज्ञान के हस्तांतरण का प्रयास है। इस विचार से शिक्षा एक संस्था के रूप में काम करती है, जो व्यक्ति विशेष को समाज से जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है तथा समाज की संस्कृति की निरंतरता को बनाए रखती है। बच्चा शिक्षा द्वारा समाज के आधारभूत नियमों, व्यवस्थाओं, समाज के प्रतिमानों एवं मूल्यों को सीखता है। बच्चा समाज से तभी जुड़ पाता है जब वह उस समाज विशेष के इतिहास से अभिमुख होता है।

शिक्षा व्यक्ति की अंतर्निहित क्षमता तथा उसके व्यक्तित्त्व का विकसित करने वाली प्रक्रिया है। यही प्रक्रिया उसे समाज में एक वयस्क की भूमिका निभाने के लिए समाजीकृत करती है तथा समाज के सदस्य एवं एक जिम्मेदार नागरिक बनने के लिए व्यक्ति को आवश्यक ज्ञान तथा कौशल उपलब्ध कराती है। शिक्षा शब्द संस्कृत भाषा की ‘शिक्ष्’ धातु में ‘अ’ प्रत्यय लगाने से बना है। ‘शिक्ष्’ का अर्थ है सीखना और सिखाना। ‘शिक्षा’ शब्द का अर्थ हुआ सीखने-सिखाने की क्रिया।

जब हम शिक्षा शब्द के प्रयोग को देखते हैं तो मोटे तौर पर यह दो रूपों में प्रयोग में लाया जाता है, व्यापक रूप में तथा संकुचित रूप में। व्यापक अर्थ में शिक्षा किसी समाज में सदैव चलने वाली सोद्देश्य सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास, उसके ज्ञान एवं कौशल में वृद्धि एवं व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है और इस प्रकार उसे सभ्य, सुसंस्कृत एवं योग्य नागरिक बनाया जाता है। मनुष्य क्षण-प्रतिक्षण नए-नए अनुभव प्राप्त करता है व करवाता है, जिससे उसका दिन-प्रतिदन का व्यवहार प्रभावित होता है। उसका यह सीखना-सिखाना विभिन्न समूहों, उत्सवों, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टेलीविजन आदि से अनौपचारिक रूप से होता है। यही सीखना-सिखाना शिक्षा के व्यापक तथा विस्तृत रूप में आते हैं। संकुचित अर्थ में शिक्षा किसी समाज में एक निश्चित समय तथा निश्चित स्थानों (विद्यालय, महाविद्यालय) में सुनियोजित ढंग से चलने वाली एक सोद्देश्य सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा विद्यार्थी निश्चित पाठ्यक्रम को पढ़कर संबंधित परीक्षाओं को उत्तीर्ण करना सीखता है।

शिक्षा पर विद्वानों के विचार[संपादित करें]

समाजशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों व नीतिकारों ने शिक्षा के सम्बन्ध में अपने विचार दिए हैं। शिक्षा के अर्थ को समझने में ये विचार भी हमारी सहायता करते हैं। कुछ शिक्षा सम्बन्धी मुख्य विचार यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैंः -

  • शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास से है। (महात्मा गांधी)
  • मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। (स्वामी विवेकानंद)
  • शिक्षा व्यक्ति की उन सभी भीतरी शक्तियों का विकास है जिससे वह अपने वातावरण पर नियंत्रण रखकर अपने उत्तरदायित्त्वों का निर्वाह कर सके। (डॉ लवी गौतम प्रदेश संयोजक उत्तर प्रदेश DARYS)
  • शिक्षा व्यक्ति के समन्वित विकास की प्रक्रिया है। (तथागत बुद्ध)
  • शिक्षा का अर्थ अन्तःशक्तियों का बाह्य जीवन से समन्वय स्थापित करना है। (हर्बट स्पैन्सर)
  • शिक्षा मानव की सम्पूर्ण शक्तियों का प्राकृतिक, प्रगतिशील और सामंजस्यपूर्ण विकास है। (पेस्तालॉजी)
  • शिक्षा राष्ट्र के आर्थिक, सामाजिक विकास का शक्तिशाली साधन है, शिक्षा राष्ट्रीय सम्पन्नता एवं राष्ट्र कल्याण की कुंजी है। (डॉ लवी गौतम प्रदेश संयोजक उत्तर प्रदेश DARYS)
  • शिक्षा बच्चे की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन है। ('सभी के लिए शिक्षा' पर विश्वव्यापी घोषणा, 1990)

डॉ लवी गौतम जी के द्वारा शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ‘मुक्ति’ की चाह रही है ( सा विद्या या विमुक्तये / विद्या उसे कहते हैं जो विमुक्त कर दे )। बाद में जरूरतों के बदलने और समाज विकास से आई जटिलताओं से शिक्षा के उद्देश्य भी बदलते गए।

शिक्षा के प्रकार[संपादित करें]

व्यवस्था की दृष्टि से देखें तो शिक्षा के तीन रूप होते हैं -

(1) औपचारिक शिक्षा (2) निरौपचारिक शिक्षा (3) अनौपचारिक शिक्षा (4) भौतिक और नूतन शिक्षा

औपचारिक शिक्षा[संपादित करें]

वह शिक्षा जो विद्यालयों, महाद्यालयों और विश्वविद्यालयों में चलती हैं, औपचारिक शिक्षा कही जाती है। इस शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियाँ, सभी निश्चित होते हैं। यह योजनाबद्ध होती है और इसकी योजना बड़ी कठोर होती है। इसमें सीखने वालों को विद्यालय, महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय की समय सारणी के अनुसार कार्य करना होता है। इसमें परीक्षा लेने और प्रमाण पत्र प्रदान करने की व्यवस्था होती है। इस शिक्षा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। यह व्यक्ति में ज्ञान और कौशल का विकास करती है और उसे किसी व्यवसाय अथवा उद्योग के लिए योग्य बनाती है। परन्तु यह शिक्षा बड़ी व्यय-साध्य होती है। इससे धन, समय व ऊर्जा सभी अधिक व्यय करने पड़ते हैं।

निरौपचारिक शिक्षा[संपादित करें]

वह शिक्षा जो औपचारिक शिक्षा की भाँति विद्यालय, महाविद्यालय, और विश्वविद्यालयों की सीमा में नहीं बाँधी जाती है। परन्तु औपचारिक शिक्षा की तरह इसके उद्देश्य व पाठ्यचर्या निश्चित होती है, फर्क केवल उसकी योजना में होता है जो बहुत लचीली होती है। इसका मुख्य उद्देश्य सामान्य शिक्षा का प्रसार और शिक्षा की व्यवस्था करना होता है। इसकी पाठ्यचर्या सीखने वालों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर निश्चित की गई है। शिक्षणविधियों व सीखने के स्थानों व समय आदि सीखने वालों की सुविधानानुसार निश्चित होता है। प्रौढ़ शिक्षा, सतत् शिक्षा, खुली शिक्षा और दूरस्थ शिक्षा, ये सब निरौपचारिक शिक्षा के ही विभिन्न रूप हैं।

इस शिक्षा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके द्वारा उन बच्चों/व्यक्तियों को शिक्षित किया जाता है जो औपचारिक शिक्षा का लाभ नहीं उठा पाए जैसे -

  • वे लोग जो विद्यालयी शिक्षा नहीं पा सके (या पूरी नहीं कर पाए),
  • प्रौढ़ व्यक्ति जो पढ़ना चाहते हैं,
  • कामकाजी महिलाएँ,
  • जो लोग औपचारिक शिक्षा में ज्यादा व्यय (धन समय या ऊर्जा किसी स्तर पर खर्च) नहीं कर सकते।

इस शिक्षा द्वारा व्यक्ति की शिक्षा को निरन्तरता भी प्रदान की जाती है, उन्हें अपने-अपने क्षेत्र के नए-नए अविष्कारों से परिचित कराया जाता है और तत्कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।

अनौपचारिक शिक्षा (Informal Education)[संपादित करें]

वह शिक्षा जिसकी कोई योजना नहीं बनाई जाती है; जिसके न उद्देश्य निश्चित होते हैं न पाठ्यचर्या और न शिक्षण विधियाँ और जो आकस्मिक रूप से सदैव चलती रहती है, उसे अनौपचारिक शिक्षा कहते हैं। यह शिक्षा मनुष्य के जीवन भर चलती है और इसका उस पर सबसे अधिक प्रभाव होता है। मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षण में इस शिक्षा को लेता रहता है, प्रत्येक क्षण वह अपने सम्पर्क में आए व्यक्तियों व वातावरण से सीखता रहता है। बच्चे की प्रथम शिक्षा अनौपचारिक वातावरण में घर में रहकर ही पूरी होती है। जब वह विद्यालय में औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने आता है तो एक व्यक्तित्त्व के साथ आता है जो कि उसकी अनौपचारिक शिक्षा का प्रतिफल है।

व्यक्ति की भाषा व आचरण को उचित दिशा देने, उसके अनुभवों को व्यवस्थित करने, उसे उसकी रुचि, रुझान और योग्यतानुसार किसी भी कार्य विशेष में प्रशिक्षित करने तथा जन शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार के लिए हमें औपचारिक और निरौपचारिक शिक्षा का विधान करना आवश्यक होता है।

औपचारिक शिक्षा की प्रणालियाँ[संपादित करें]

शिक्षा प्रणालियों शिक्षा और प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए, अक्सर बच्चों और युवाओं के लिए स्थापित की जाती है एक पाठ्यक्रम छात्रों को क्या पता होना चाहिए, बोध और शिक्षा के परिणाम के रूप में करने के लायक समझ को परिभाषित करता है। अध्यापन का पेशा, सीख प्रदान करता है जो विद्या प्राप्ति और नीतियों की एक प्रणाली, नियमों, परीक्षाओं, संरचनाओं और वित्तपोषण को सक्षम बनाता है और वित्तपोषण शिक्षकों को अपनी प्रतिभा के उच्चतम् क्षमता से पढ़ाने में सहायता करता है। कभी कभी शिक्षा प्रणाली सिद्धांतों या आदर्शों एवं ज्ञान को बढ़ावा देने के लिए प्रयोग की जाती है जिसे सामाजिक अभियंत्रिकी कहा जाता है विशेषतः अधिनायकवादी राज्यों और सरकार में यह व्यवस्था के राजनीतिक दुरुपयोग को बढ़ावा दे सकता है।

  • शिक्षा एक व्यापक माध्यम है, जो छात्रों में कुछ सीख सकने के सभी अनुभवों का विकास करता है।
  • अनुदेश शिक्षक अथवा अन्य रूपों द्वारा वितरित शिक्षण को कहते है जो अभिज्ञात लक्ष्य की विद्या प्राप्ति को जान बूझ कर सरल बनने को लिए हो।
  • शिक्षण एक असल उपदेशक की क्रियाओं को कहते है, जो शिक्षण को सुझाने के लिए आकल्पित की गयी हो।
  • प्रशिक्षण विशिष्ट ज्ञान, कौशल, या क्षमताओं की सीख के साथ शिक्षार्थियों को तैयार करने की दृष्टि से संदर्भित है, जो कि तुरंत पूरा करने पर लागू किया जा सकता है।

शिक्षण के स्तर[संपादित करें]

शिक्षण को हम तीन स्तरों में बांट सकते हैं :- [2]

  1. 1. स्मृति स्तर (Memory Level)
  2. 2. बोध स्तर (Understanding Level)
  3. 3. चिंतन स्तर (Reflective Level)

स्मृति स्तर[संपादित करें]

प्रवर्तक हरबर्ट स्मृति स्तर में ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न की जाती है, जिससे छात्र पढ़ाई की विषय वस्तु को (Content) आत्मसात कर सकें । इस स्तर पर प्रत्यास्मरण क्रिया पर जोर दिया जाता है । स्मृति शिक्षण में संकेत अधिगम (Signal Learning), शृंखला अधिगम (Chain Learning) पर महत्व दिया जाता है

बोध स्तर पर शिक्षण[संपादित करें]

बोध स्तर के शिक्षण में शिक्षक छात्रों के समक्ष पाठ्यवस्तु को इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि छात्रों को बोध के लिए अधिक से अधिक अवसर मिले और छात्रों में आवश्यक सूझबूझ उत्पन्न हो। इस प्रकार के शिक्षण में छात्रों की सहभागिता बनी रहती है । यह शिक्षण उद्देश्य केन्द्रीय तथा सूझबूझ से युक्त होता है।

बोध स्तर का शिक्षण विचारपूर्ण होता है।बोध स्तर के प्रतिमान के जन्मदाता हेनरी सी. मरिसन है।

चिन्तन स्तर पर शिक्षण[संपादित करें]

चिंतन स्तर में शिक्षक अपने छात्रों में चिंतन तर्क तथा कल्पना शक्ति को बढ़ाता है ताकि छात्र दोनों के माध्यम से अपनी समस्याओं का समाधान कर सके । चिंतन स्तर पर शिक्षण समस्या केंद्रित होता है । इस स्तर में अध्यापक बच्चों के सामने समस्या उत्पन्न करता है और बच्चों को उस पर अपने स्वतंत्र चिंतन करने का समय देता है । इस स्तर में बच्चों में आलोचनात्मक तथा मौलिक चिंतन उत्पन्न होता है। [3]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. शिक्षण - मरिअम वेबस्टर ऑनलाइन शब्दकोश Archived 2009-04-25 at the Wayback Machine से परिभाषा
  2. Mark. "Levels of Teaching". Learning Classes Online. मूल से 18 अगस्त 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 31 अगस्त 2019.
  3. LCO. "Shikshan ka satar". Learning Classes Online. मूल से 18 अगस्त 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 31 अगस्त 2019.

इसे भी देखें[संपादित करें]

  • शिक्षाशास्त्र
  • पाठ्यक्रम
  • शैक्षिक मनोविज्ञान
  • शैक्षिक अनुसंधान
  • शैक्षिक प्रौद्योगिकी
  • शिक्षा का इतिहास
  • उच्च शिक्षा
  • व्यावसायिक शिक्षा
  • प्रौढ़ शिक्षा
  • दूरस्थ शिक्षा

सन्दर्भ[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • राष्ट्रीय शिक्षा
  • शिक्षा (विकासपीडिया)
  • बहु-प्रतिभा सिद्धांत - क्या है आपके सीखने की शैली
  • ज्ञानगंगा
  • राजस्‍थान शिक्षा राजस्‍थान के शिक्षा संबंधी समाचारों को समर्पित वेबसाइट
  • शिक्षास्थली हिंदी भाषा में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए फ्री अध्ययन सामग्री प्रदान करने वाली वेबसाइट

भारत में शिक्षा प्रणाली का अर्थ क्या है?

भारत में शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य 'छात्रों को जीवन के लिए तैयार करना' है ताकि उनके सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित किया जा सके और उनके जीवन को सभी संबंधितों के लिए महत्वपूर्ण बनाया जा सके।

शिक्षा का अर्थ क्या है?

शिक्षा शब्द संस्कृत भाषा की 'शिक्ष्' धातु में 'अ' प्रत्यय लगाने से बना है। 'शिक्ष्' का अर्थ है सीखना और सिखाना। 'शिक्षा' शब्द का अर्थ हुआ सीखने-सिखाने की क्रिया। जब हम शिक्षा शब्द के प्रयोग को देखते हैं तो मोटे तौर पर यह दो रूपों में प्रयोग में लाया जाता है, व्यापक रूप में तथा संकुचित रूप में।

शिक्षा का क्या अर्थ है एवं इसके?

शिक्षा शब्द संस्कृत भाषा की शिक्ष् धातु में अ प्रत्यय लगने से बना है। शिक्ष् का अर्थ है-सीखना और सिखाना, इसलिए शिक्षा का अर्थ हुआ सीखने-सिखाने की क्रिया। यदि हम शिक्षा के लिए प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द एजूकेशन (Education) पर विचार करें तो भी उसका यही अर्थ निकलता है।

भारत में शिक्षा प्रणाली का क्या महत्व है?

भारत में शिक्षा की मुख्य भूमिका शिक्षा हम सभी के उज्ज्वल भविष्य के लिए एक अहम भूमिका निभाती है। हम अपने जीवन में शिक्षा के इस साधन का उपयोग करके आप सफलता के मार्ग में आगे बढ़ सकते है। शिक्षा का उच्च स्तर लोगों की सामाजिक और पारिवारिक सम्मान तथा एक अलग पहचान बनाने में मदद करता है।

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