शिक्षा में सृजनात्मकता का क्या महत्व है? - shiksha mein srjanaatmakata ka kya mahatv hai?

सृजनात्मकता का महत्व

srijnatmakta ka mahatva;सृजनात्मकता एक ऐसा विचार है कि जिसके माध्यम से बालक-बालिकाओं में निहित मौलिक सम्भावनाओं को विकसित किया जाता है। बालकों में चिन्तन एवं मौलिक अभिव्यक्ति की दृष्टि से सृजनात्मकता बहुत महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है। सृजनात्मकता का शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं अपितु सर्वत्र महत्व है। शैक्षिक कार्यक्रम को उपयोगी बनाने तथा लक्ष्यपूर्ति की दृष्टि से सृजनात्मकता का विशेष महत्व है । सृजनात्मकता का महत्व निम्नलिखित बातों से स्पष्ट होता है--

Show

1. सृजनात्मकता मौलिकता तथा नवीनता के अद्भुत गुणों के विकास के लिये महत्वपूर्ण हैं। 

2. इससे चिंतन की प्रबल इच्छा प्रखर एवं विकसित होती है। फलतः जटिल से जटिल समस्या का हल सम्भव हो पाता है।

3. सृजनात्मकता में संवेदनशीलता और गम्भीरता के लक्षण विद्यमान रहते हैं इसलिये यह उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करने की क्षमता के विकास में सहायक होती है। 

4. सृजनात्मकता परम्परागत धारणा को नये सिरे से लेकर आगे खोज की प्रवृत्ति की ओर उन्मुख करती है।

5. सृजनात्मकता ऐसे विचारों को विकसित कर स्थापित करती है जिसमें वास्तविकता और व्यावहारिकता की पर्याप्त मात्रा रहती है। 

6. सृजनात्मकता उत्तरदायित्व के साथ कार्य के प्रति निष्ठा, लगन, परिश्रम तथा कार्य पूर्णता में दृढ़ आस्था के प्रति सजग बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करती है। 7. सृजनात्मकता तर्क, कल्पना, विचार-शक्ति एवं संगठन करने की शक्ति के विकास में सहायक है। 

8. सृजनात्मकता, दूरदर्शिता और बुद्धिमता को प्रखर करती है।

9. इससे भविष्य की सोचने, वर्तमान का भविष्य से सम्बन्ध स्थापित करने में सहायता प्राप्त होती है। 

10. सृजनात्मकता एकाग्रचित्त होकर अत्यन्त शान्त एवं धैर्यपूर्ण भाव से कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती है। 11. यह स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता का विकासित करती है।

 12. सृजनात्मकता के फलस्वरूप आत्मविश्वास की भावना प्रबल एवं सुदृढ़ होती है।

यह भी पढ़े; सृजनात्मकता का अर्थ, परिभाषा, तत्व

सृजनात्मकता के सिद्धांत (srijnatmakta ke siddhant)

मनोविश्लेषणवाद, साहचर्यवाद, व्यवहारवाद एवं मनोविज्ञान के अन्य संप्रदायों ने सूजनात्मकता के बारे में अपने-अपने सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं जिनकी व्याख्या निम्न तरह की गई है-- 

(अ) मनोविश्लेषण

इस सिद्धांत के मुख्य प्रवर्तक फ्राइड ने यह कहा है कि प्रत्येक प्राणी में कुछ मूल प्रवृत्ति जन्म व्यवहारों में समानता होती है। परंतु इन मूल प्रवृत्तिजन्य कार्यों से हटकर अगर मनुष्य चेतन रहते हुए कोई कार्य करता है तो उसे सृजनात्मकता कहेंगे।  

(ब) साहचर्यवाद 

साहचर्यवाद के अंतर्गत हम परस्पर तत्वों में संबंध स्थापित करते हैं। यह संबंध पदार्थों में साहचर्य द्वारा प्राप्त होते हैं, जिनमें कि संयोग एवं प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है। इन संयोगों तथा प्रणालियों का पुनर्गठन करना ही सृजनात्मक है । इसके द्वारा नवीनता अथवा मौलिकता पैदा करके सृजनात्मक का गुण विकसित किया जा सकता है। 

(स) समग्रवाद 

समग्रवाद या व्यवहारवाद के अनुसार समस्त समस्या प्रधान कार्यों का हल अंतर्दृष्टि अथवा सूझ का प्रतिफल होता है। इन विचारकों ने सृजनात्मक का आधार अंतर्दृष्टि बताया है। अंतर्दृष्टि द्वारा अगर मस्तिष्क में कोई नई बात आ जाती है जिसके कारण मौलिक कार्य हो जाता है तो उसे सृजनात्मक कहा जायेगा। उपरोक्त मनोवैज्ञानिकों के विचारों के आधार पर सृजनात्मक के निम्न सिद्धांत प्रचलित हैं-- 

1. इच्छा शक्ति का सिद्धांत 

इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति में किसी कार्य को करने की इच्छा शक्ति प्रबल होती है। यह प्रबल इच्छा शक्ति ही सृजनात्मक बनाने में मददगार होती है। 

2. बौद्धिक जागरूकता का सिद्धांत

कुछ व्यक्ति मानसिक (बौद्धिक) रूप से पूर्ण विकसित होते हैं। उनमें जागरुकता का गुण होता है। इसके कारण ही वे कुछ नया करने (नयी खोज करने के लिए) उद्यत होते हैं।

3. स्वप्रेरणा का सिद्धांत 

कुछ मनोवैज्ञानिकों का यह कथन है कि सृजनात्मक कार्य करने की भावना जाग्रत होती है। स्वप्रेरणा का परिणाम है। इस स्वप्रेरणा के कारण ही व्यक्ति में मौलिक अथवा नवीन कार्य करने की भावना जाग्रत होती हैं। 

4. जन्मजात शक्ति का सिद्धांत

सृजन शक्ति प्रत्येक व्यक्ति में जन्मजात होती है। अत: स्वतः ही उसमें सृजनात्मक के अंकुर फूट निकलते हैं। कभी-कभी हम इसे ईश्वरदत्त भी कहते हैं। 

5. प्रतिष्ठा का सिद्धांत 

कुछ व्यक्ति सृजनात्मक कार्यों को इसलिए हाथ में लेते हैं क्योंकि उनके ही माध्यम से उन्हें ख्याति मिलेगी एवं प्रतिष्ठा मिलेगी। प्रतिष्ठा की अंतर-आकांक्षा उसे सृजनात्मक कार्य की तरफ प्रेरित करती है। कला, साहित्य, दर्शन  एवं विज्ञान के क्षेत्र में बहुत से ऐसे व्यक्ति हैं जो विशिष्ट संस्थाओं, अकादमियों एवं शोध संस्थाओं में अपने मौलिक कार्य पर पुरस्कार प्राप्त करते हैं।

संबंधित पोस्ट

सृजनात्मकता का सामान्य अर्थ है सृजन अथवा रचना करने की योग्यता। मनोविज्ञान में सृजनात्मकता से तात्पर्य मनुष्य के उस गुण, योग्यता अथवा शक्ति से होता है जिसके द्वारा वह कुछ नया सृजन करता है। जेम्स ड्रेवर के अनुसार-’’सृजनात्मकता नवीन रचना अथवा उत्पादन में अनिवार्य रूप से पाई जाती है।’’ क्रो व क्रो के अनुसार-’’सृजनात्मकता मौलिक परिणामों को अभिव्यक्त करने की मानसिक प्रक्रिया है।’’

कोल एवं ब्रूस के अनुसार-’’सृजनात्मकता एक मौलिक उत्पाद के रूप में मानव मन की ग्रहण करने, अभिव्यक्त करने और गुणांकन करने की योग्यता एवं क्रिया है।’’ ई0 पी0 टॉरेन्स (1965) के अनुसार-’’सृजनषील चिन्तन अन्तरालों, त्रुटियों, अप्राप्त तथा अलभ्य तत्वों को समझने, उनके सम्बन्ध में परिकल्पनाएं बनाने और अनुमान लगाने, परिकल्पनाओं का परीक्षण करने, परिणामों को अन्य तक पहुचानें तथा परिकल्पनाओं का पुनर्परीक्षण करके सुधार करने की प्रक्रिया है।’’

उपर्युक्त परिभाशाओं से स्पश्ट होता है कि-

  1. सृजनात्मकता नवीन रचना करना है।
  2. सृजनात्मकता मौलिक परिणामों को प्रदर्षित करना है।
  3. सृजनात्मकता किसी समस्या के समाधान हेतु परिकल्पनाओं का निर्माण एवं पुनर्परीक्षण करके सुधार करने की योग्यता है।
  4. सृजनात्मकता मानव की स्वतंत्र अभिव्यक्ति में विद्यमान रहती है।

सृजनात्मकता की प्रकृति एवं विशेषताएं

  1. सृजनात्मकता सार्वभौमिक होती है। प्रत्येक व्यक्ति में सृजनात्मकता का गुण कुछ न कुछ अवश्य विद्यमान रहता है।
  2. सृजनात्मकता का गुण ईश्वर द्वारा प्रदत्त होता है परन्तु शिक्षा एवं उचित वातावरण के द्वारा सृजनात्मक योग्यता का विकास किया जा सकता है।
  3. सृजनात्मकता एक बाध्य प्रक्रिया नहीं है, इसमें व्यक्ति को इच्छित कार्य प्रणाली को चुनने की पूर्ण रूप से स्वतंत्रता होती है।
  4. सृजनात्मकता अभिव्यक्ति का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक होता है।

सृजनात्मकता की प्रक्रिया

सृजनात्मकता की प्रक्रिया में कुछ विशिष्ट सोपान होते हैं। इन सापानों का वर्णन मन द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘इन्ट्रोडक्षन टू साइकोलॉजी’ में विस्तार पूर्वक वर्णित है। सृजनात्मकता की प्रक्रिया के सोपान निम्न हैं- 1-तैयारी, 2-इनक्यूबेषन, 3-प्रेरणा, 4-पुनरावृत्ति

तैयारी

सृजनात्मकता की प्रक्रिया में तैयारी प्रथम सोपान होता है जिसमें समस्या पर गंभीरता के साथ कार्य किया जाता है। सर्वप्रथम समस्या का विष्लेशण किया जाता है और उसके समाधान के लिए एक रूपरेखा का निर्माण किया जाता है। आवष्यक तथ्यो तथा सामग्री को एकत्रित कर, उनका विष्लेशण किया जाता है। यदि प्रदत्त सामग्री सहायक सिद्ध नहीं हो पाती है तो किसी अन्य विधि को अपना कर प्रदत्त सामग्री एकत्रित की जा सकती है।

इनक्यूबेषन

सृजनात्मकता की प्रक्रिया में इनक्यूबेषन द्वितीय सोपान होता है जिसमें वाहृय क्रिया बन्द हो जाती है। इस अवस्था में व्यक्ति विश्राम कर सकता है। इस प्रकार सृजनात्मकता की प्रक्रिया में आने वाली बाधाएं शान्त हो जाती हैं एवं जिससे व्यक्ति का अचेतन मन समस्या समाधान की ओर कार्य करने लगता है और इसी अवस्था में समस्या के समाधान के लिए दिषा प्राप्त हो जाती है।

प्रेरणा

सृजनात्मकता की प्रक्रिया में प्रेरणा तृतीय सोपान होता है जिसमें व्यक्ति सहज बोध या इल्यूमिनेषन की ओर बढ़ता है। इस अवस्था में व्यक्ति समस्या के समाधान का अनुभव करता है। व्यक्ति को अंतदृश्टि द्वारा समाधान की झलक दिखाई दे जाती है। कभी-कभी व्यक्ति स्वप्न में भी समस्या के समाधान का रास्ता खोज लेता है।

पुनरावृत्ति

सृजनात्मकता की प्रक्रिया में पुनरावृत्ति चतुर्थ सोपान होता है इसे जाँच-पड़ताल भी कहते हैं जिसमें व्यक्ति सहज बोध या इल्यूमिनेषन से प्राप्त समाधान की जाँच-पड़ताल की जाती है। इस सोपान यह देखन का प्रयास किया जाता है कि व्यक्ति की अंतदृश्टि द्वारा प्राप्त समाधान ठीक है या नहीं। यदि समाधान ठीक नहीं होते हैं तो समस्या के समाधान के लिए नये प्रयास किये जाते हैं। इस प्रकार परीक्षण के परिणामों की दृष्टि में पुनरावृत्ति की जाती है।

सृजनात्मकता के तत्व

सृजनात्मकता के निम्न तत्व होते हैं- 1-धाराप्रवाहिता 2-लचीलापन 3-मौलिकता 4-विस्तारण

धाराप्रवाहिता

धाराप्रवाहिता से तात्पर्य अनेक तरह के विचारो की खुली अभिव्यक्ति से है। जा े व्यक्ति किसी भी विशय पर अपने विचारो की खुली अभिव्यक्ति को पूर्ण रूप से प्रकट करता है वह उतना ही सृजनात्मक कहलाता है। धाराप्रवाहिता का सम्बन्ध शब्द, साहचर्य स्थापित करने तथा शब्दों कीे अभिव्यक्ति करने से सम्बन्धित होता है।

लचीलापन

लचीलापन से तात्पर्य समस्या के समाधान के लिए विभिन्न प्रकार के तरीकों को अपनाये जाने से है। जो व्यक्ति किसी भी समस्या के समाधान हेतु अनेक नये-नये रास्ते अपनाता है वह उतना ही सृजनात्मक कहलाता है। लचीलेपन से यह ज्ञात होता है कि व्यक्ति समस्या को कितने तरीकों से समाधान कर सकता है।

मौलिकता

मौलिकता से तात्पर्य समस्या के समाधान के लिए व्यक्ति द्वारा दी गई अनुक्रियाओं के अनोखेपन से है। जो व्यक्ति किसी भी विशय पर अपने विचारों की खुली अभिव्यक्ति को पूर्ण रूप स े नये ढंग से करता है उसमें मौलिकता का गुण अधिक होता है। वह उतना ही सृजनात्मक कहलाता है। जब व्यक्ति समस्या के समाधान के रूप में एक बिल्कुल ही नई अनुक्रिया करता है तो ऐसा माना जाता है कि उसमें मौलिकता का गुण विद्यमान है।

विस्तारण

विचारो को बढ़ा-चढा़ कर विस्तार करने की क्षमता को विस्तारण कहा जाता है। जो व्यक्ति किसी भी विशय पर अपने विचारो की खुली अभिव्यक्ति को पूर्ण रूप से बढ़ा-चढ़ाकर एवं विस्तार के साथ प्रकट करता है उसमें विस्तारण का गुण अधिक होता है। वह उतना ही सृजनात्मक कहलाता है। इसमें व्यक्ति बड़े विचारों को एक साथ संगठित कर उसका अर्थपूर्ण ढंग से विस्तार करता है तथा पुन: नये विचारों को जन्म देता है।

सृजनात्मकता के सिद्धांत

सृजनात्मकता को समझने के लिए मनोवैज्ञानिको ने कई सिद्धान्तो को प्रतिपादित किये जो निम्न हैं-

वंषानुक्रम का सिद्धांत

इस सिद्धान्त के अनुसार सृजनात्मकता का गुण व्यक्ति में जन्मजात होता है, यह शक्ति व्यक्ति को अपने माता-पिता के द्वारा प्राप्त होती है। इस सिद्धान्त के मानने वालों का मत है कि वंषानुक्रम के कारण भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में सृजनात्मक शक्ति अलग-अलग प्रकार की और अलग-अलग होती है।

पर्यावरणीय सिद्धांत

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मनोवैज्ञानिक एराटी ने किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार सृजनात्मकता केवल जन्मजात नहीं होती बल्कि इसे अनुकूल पर्यावरण द्वारा मनुष्य में अन्य गुणों की तरह विकसित किया जा सकता है। इस सिद्धान्त के अन्य गुणों की तरह विकसित किया जा सकता है। इस सिद्धान्त के मानने वालो का स्पष्टीकरण है कि खुले, स्वतंत्र और अनुकूल पर्यावरण में भिन्न-भिन्न विचार अभिव्यक्त होते हैं और भिन्न-भिन्न क्रियाएं सम्पादित होती हैं जो नवसृजन को जन्म देती हैं। इसके विपरीत बन्द समाज में इस शक्ति का विकास नहीं होता।

सृजनात्मकता स्तर का सिद्धांत

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मनोवैज्ञानिक टेलर ने किया है। उन्होने सृजनात्मकता की व्याख्या 5 उत्तरोत्तर के रूप में की है। उनके अनुसार कोई व्यक्ति उस मात्रा में ही सृजनषील होता है जिस स्तर तक उसमें पहंचने की क्षमता होती है। ये 5 स्तर निम्न हैं-

  • क-अभिव्यक्ति की सृजनात्मकता यह वह स्तर है जिस पर कोई व्यक्ति अपने विचार अबाध गति से प्रकट करता है इन विचारों का सम्बन्ध मौलिकता से हो, यह आवश्यक नहीं होता । टेलर के अनुसार यह सबसे नीचे स्तर की सृजनषीलता होती है।
  • ख-उत्पादन सृजनात्मकता इस स्तर पर व्यक्ति कोई नयी वस्तु को उत्पादित करता है। यह उत्पादन किसी भी रूप में हो सकता है। यह दूसरे स्तर की सृजनषीलता होती है।
  • ग-नव परिवर्तित सृजनात्मकता इस स्तर व्यक्ति किसी विचार या अनुभव के आधार पर नये रूप को प्रदर्षित करता है।
  • घ-खोजपूर्ण सृजनात्मकता इस स्तर व्यक्ति किसी अमूर्त चिन्तन के आधार पर किसी नये सिद्धान्त को प्रकट करता है।
  • ड़-उच्चतम स्तर की सृजनात्मकता इस स्तर पर पहुंचने वाले व्यक्ति विभिन्न क्षेत्रों में उच्चतम स्तर की सृजनात्मकता को प्रकट करता है।

अर्धगोलाकार सिद्धांत

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मनोवैज्ञानिक क्लार्क और किटनों ने किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार सृजनषीलता मनुश्य के मस्तिश्क के दाहिने अर्द्धगोले से प्रस्फुटित होती है एवं तर्क शक्ति मनुष्य के मस्तिष्क के बाएँ अर्द्धगोले से प्रस्फुटित होती है । इस सिद्धान्त के अनुसार सृजनात्मक कार्य व्यक्ति के मस्तिश्क के दोनों ओर के अर्द्धगोलो के बीच अन्त:क्रिया के फलस्वरूप होते हैं।

मनोविष्लेषणात्मक सिद्धांत

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मनोवैज्ञानिक फ्रॉयड ने किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार सृजनषीलता मनुश्य के अचेतन मन में संि चत अतृप्त इच्छाओं की अभिव्यक्ति के कारण आती है। अतृप्त इच्छाओ को शोधन करने से वे सृजनात्मक कार्य की ओर अग्रसर होते है।

सृजनात्मक व्यक्ति की विशेषताएं

  1. सृजनात्मक व्यक्ति की स्मरण शक्ति अत्यन्त तीव्र होती है।
  2. सृजनात्मक व्यक्ति विचारों एवं अपने द्वारा किये गये कार्यों में मौलिकता को प्रदर्शित करते है।
  3. सृजनात्मक व्यक्ति अन्य व्यक्तियों की तरह जीवन न जी कर, एक नये ढंग से जीवन को जीने की कोषिष करते हैं।
  4. सृजनात्मक व्यक्ति की प्रवृत्ति अधिक जिज्ञासापूर्ण होती है।
  5. सृजनात्मक व्यक्ति का समायोजन अच्छा होता है।
  6. सृजनात्मक व्यक्ति में ध्यान एवं एकाग्रता गुण अधिक विद्यमान रहता है।
  7. सृजनात्मक व्यक्ति प्राय: आषावान एवं दूर की सोच रखने वाले होते हैं।
  8. सृजनात्मक व्यक्ति किसी भी निर्णय को लेने में संकोच नहीं करते एवं आत्मविश्वास के साथ निश्कर्श पर पहुंच जाते हैं।
  9. सृजनात्मक व्यक्ति में विचार अभिव्यक्ति का गुण अत्यधिक विद्यमान रहता है।
  10. सृजनात्मक व्यक्ति का व्यवहार अत्यधिक लचीला होता है। परिस्थितियों के अनुसार जल्दी ही परिवर्तित हो जाता है।
  11. सृजनात्मक व्यक्ति में कल्पनाषक्ति तीव्र होती है।
  12. सृजनात्मक व्यक्ति में किसी भी विशय पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति एवं उस अभिव्यक्ति पर विस्तारण का गुण अधिक होता है।
  13. सृजनात्मक व्यक्ति किसी भी समस्या का समाधान नये तरीके से करना चाहता है।
  14. सृजनात्मक व्यक्ति अपने व्यवहार एवं सृजनात्मक उत्पादन में आनन्द एवं हर्श का अनुभव करता है।
  15. सृजनात्मक व्यक्ति अपने उत्तरदायित्व के प्रति अधिक सतर्क रहते हैं।

सृजनात्मकता को विकसित करने के उपाय

  1. व्यक्ति को उत्तर देने की स्वतंत्रता दी जाये।
  2. व्यक्ति में मौलिकता एवं लचीलेपन के गुणों को विकसित करने का प्रयास किया जाये।
  3. व्यक्ति को स्वयं की अभिव्यक्ति के लिए अवसर प्रदान किये जाये।
  4. व्यक्ति के डर एवं झिझक को दूर करने का प्रयास किया जाये।
  5. व्यक्ति को उचित वातावरण दिया जाये।
  6. व्यक्ति में अच्छी आदतों का विकास किया जाये।
  7. व्यक्ति के लिए सृजनात्मकता को विकसित करने वाले उपकरणों की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  8. व्यक्ति मे सृजनात्मकता को विकसित करने के लिए विशेष प्रकार की तकनीकी का प्रयोग करना चाहिए। जैसे:- मस्तिश्क विप्लव, किसी वस्तु के असाधारण प्रयोग, षिक्षण प्रतिमानों का प्रयोग, खेल विधि आदि।
  9. व्यक्ति के लिए सृजनात्मकता को विकसित करने के लिए पाठ्यक्रम में सृजनात्मक विशय वस्तुओं का समावेश किया जाना चाहिए।

सृजनात्मकता के विकास में शिक्षक की क्या भूमिका है?

अध्यापक ऐसे बालकों को विचारों की अभिव्यक्ति के लिए अवसर प्रदान करें। कलात्मक अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान किये जाए। अध्यापक ऐसे बालकों को आत्म मूल्यांकन के लिए प्रोत्साहित करें। अध्यापक कक्षा में मनोवैज्ञानिक स्वतंत्रता युक्त वातावरण पैदा करें कि बालक स्वयं को सुरक्षित व स्वतंत्र महसूस करें।

शिक्षा में सृजनात्मक का क्या महत्व है?

सृजनात्मकता का गुण ईश्वर द्वारा प्रदत्त होता है परन्तु शिक्षा एवं उचित वातावरण के द्वारा सृजनात्मक योग्यता का विकास किया जा सकता है। सृजनात्मकता एक बाध्य प्रक्रिया नहीं है, इसमें व्यक्ति को इच्छित कार्य प्रणाली को चुनने की पूर्ण रूप से स्वतंत्रता होती है। सृजनात्मकता अभिव्यक्ति का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक होता है।

सृजनात्मक शिक्षण से आप क्या समझते हैं?

सृजनात्मकता सर्जनात्मकता अथवा रचनात्मकता किसी वस्तु, विचार, कला, साहित्य से संबद्ध किसी समस्या का समाधान निकालने आदि के क्षेत्र में कुछ नया रचने, आविष्कृत करने या पुनर्सृजित करने की प्रक्रिया है। यह एक मानसिक संक्रिया है जो भौतिक परिवर्तनों को जन्म देती है।

विद्यार्थी जीवन में सृजनात्मकता की क्या भूमिका है?

क्योंकि एक सृजनात्मक विद्यार्थी तो प्रतिभाशाली हो सकता है जबकि आवश्यक नहीं कि एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी सृजनात्मक भी हो। अतः किसी भी समाज या राष्ट्र की प्रगति के लिए आवश्यक है कि शिक्षा को इस प्रकार संरचित किया जाए कि सृजनात्मकता के प्रकटीकरण का अवसर मिले साथ ही उसके विकास और पोषण को भी बढ़ावा मिले।