RBSE Solutions for Class 12 Hindi सरयू Chapter 10 रामधारी सिंह दिनकर Show Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 10 रामधारी सिंह दिनकरRBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 10 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तरRBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 10 वस्तुनिष्ठ प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 10 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 10 लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 10 निबन्धात्मक प्रश्न प्रश्न 1. क्षमा, दया, सहनशीलता आदि गुण शक्तिशाली मनुष्य को ही सुशोभित करते हैं। जो शक्तिहीन है, उसके लिए तो ये गुण उसकी असमर्थता के ही द्योतक होते हैं। शक्ति और सामर्थ्य के अभाव में क्षमा निष्फल होती है। बिना शक्ति के क्षमाशील होने वाले व्यक्ति हँसी का पात्र बनता है और लोग उसकी निन्दा करते हैं। प्रश्न 2. शान्ति समाज तथा देश की उन्नति और विकास के लिए आवश्यक है। अशान्ति की स्थिति में उन्नति तथा प्रगति नहीं हो सकती। शान्ति दो प्रकार की होती है। एक प्रकार की शान्ति वह है जो अस्त्र-शस्त्रों तथा शक्ति के भय से स्थापित की जाती है। लोगों को आतंकित करके दमन, शोषण तथा अनुचित बातों को सहन करने को बाध्य किया जाता है। इस प्रकार की शान्ति कृत्रिम शान्ति होती है। इसी के भीतर युद्ध के बीज छिपे रहते हैं। दूसरी ओर सच्ची शान्ति वह होती है जो हृदय से स्वीकार की जाती है। इस शान्ति की स्थापना के लिए बल प्रयोग की जरूरत नहीं होती। बनावटी शान्ति की अपेक्षा अपने अधिकारों की रक्षा के लिए युद्ध करना अधिक अच्छा होता है। प्रश्न 3. RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 10 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तरRBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 10 वस्तुनिष्ठ प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 10 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. प्रश्न 18. प्रश्न 19. प्रश्न 20. RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 10 लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न
6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 10 निबन्धात्मक प्रश्न प्रश्न 1. विनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति। राम के शर-संधान करते ही समुद्र भयभीत हो उठा। उसने मानव स्वरूप धारण किया और राम के चरण में आ गिरा। उसने राम की चरण वन्दना की और राम का दास बन गया। इससे स्पष्ट है कि विनम्रता भी तभी सार्थक होती है जब विनय करने वाला शक्तिशाली हो। निर्बल की विनय कोई नहीं सुनता। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. भीष्म पितामह युधिष्ठिर से असहमत हैं। उनका मानना है कि जो शान्ति दूसरों का अधिकार छीनकर शान्ति के द्वारा स्थापित की जाती है, वह सच्ची शान्ति नहीं होती। युधिष्ठिर शान्ति के समर्थक हैं तो वनवास के बाद हस्तिनापुर क्यों आए? उन्होंने दुर्योधन से अपना राज्य क्यों माँगा। दुर्योधन ने उनको राज्य लौटाने से मना कर दिया। उसने कहा वह बिना युद्ध के राज्य नहीं देगा। अतः युद्ध अनिवार्य हो गया। अपना देय जब शान्तिपूर्वक माँगने से नहीं मिलता तो युद्ध करना पाप नहीं है। ऐसी दशा में युद्ध नहीं युद्ध से पीछे हटना निन्दनीय होता है। शान्ति सदा प्रशंसनीय नहीं होती। जब शान्ति शोषकों को निर्बलों का दमन और शोषण करने का अवसर देती है तो वह प्रशंसनीय नहीं होती। अस्त्र-शस्त्र के बल पर स्थापित शान्ति नकली होती है तथा उस शान्ति में ही युद्ध के कारण छिपे होते हैं। ऐसी शान्ति निन्दनीय होती है। मैं भीष्म का समर्थन करूंगा। शान्ति के नाम पर मैं कायरता का संरक्षण करने के पक्ष में ‘नहीं’ हूँ। कवि – परिचय : जीवन परिचय – रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया घाट नामक गाँव में 23 सितम्बर, सन् 1908 ई. को हुआ था। आपके पिता रवि सिंह कृषक थे। आपकी माता का नाम मनरूप देवी था। आपने प्राथमिक शिक्षा गाँव के स्कूल में प्राप्त की। राष्ट्रीय मिडिल स्कूल से मिडिल तथा मोकमाघाट हाईस्कूल से हाईस्कूल किया। सन् 1932 ई. में पटना विश्वविद्यालय से बी. ए. ऑनर्स करने के बाद आप मोकमाघाट स्कूल में प्रधानाध्यापक हो गए। आप लगभग 9 साल बिहार सरकार में सब रजिस्ट्रार पद पर रहे। सन् 1943 में आप ब्रिटिश सरकार के युद्ध प्रचार विभाग में उपनिदेशक बने। आप मुजफ्फरपुर कालेज के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष तथा विश्वविद्यालय में प्राध्यापक भी रहे। आपकी हिन्दी सेवा को देखते हुए राष्ट्रपति ने सन् 1952 में आपको राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया, जहाँ वह 1963 तक रहे। सन् 1964 में आप भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बने। भारत सरकार की ‘हिन्दी समिति’ के सलाहकार तथा आकाशवाणी के निदेशक रहकर हिन्दी की सेवा करते रहे। सन् 1974 ई. में आपको देहावसान हो गया। साहित्यिक परिचय – दिनकर को बचपन से ही साहित्य रचना में रुचि थी। हाईस्कूल में पढ़ते समय ही आपका ‘प्रणभंग’ नामक काव्य प्रकाशित हो गया था। सन् 1928-29 तक आपकी साहित्य-साधना का निरन्तर विकास होता रहा। सन् 1935 में ‘रेणुका’ के प्रकाशन के साथ ही आपका वास्तविक कवि जीवन आरम्भ हुआ। आपने मुक्तक, खण्ड-काव्य, महाकाव्य आदि की रचना की है। आपका काव्य राष्ट्रप्रेम को ओजस्वी भावों से भरा हुआ है। काव्य के अतिरिक्त आपने गद्य क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। दिनकर की भाषा तत्सम शब्दों से युक्त साहित्यिक खड़ी बोली है। आवश्यकतानुसार आपने उर्दू, अंग्रेजी, फारसी आदि भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग किया है। आपने मुक्तक तथा प्रबन्धकाव्य शैली में रचनाएँ की हैं। दिनकर जी की साहित्य सेवा का सम्मान करने के लिए सन् 1959 में भारत सरकार ने आपको ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया। आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ‘उर्वशी’ के लिए आपको ज्ञानपीठ पुरस्कार भी प्राप्त हुआ।
कविता का सारांश : कुरुक्षेत्र : प्रस्तुत पाठ’कुरुक्षेत्र’ काव्य के तृतीय सर्ग का संकलित अंश है। इस काव्य में दिनकर जी ने महाभारत के पात्र युधिष्ठिर तथा भीष्म के मध्य संवाद का वर्णन किया है। कवि ने इस संवाद के माध्यम से युद्ध और शांति की महत्वपूर्ण समस्या पर विचार किया है। युधिष्ठिर युद्ध को निन्दनीय बताते हैं। तब भीष्म उनसे पूछते हैं कि समर निन्दनीय है तो अनीति पर स्थित शांति प्रशंसनीय कैसे हो। सकती है। निर्बलों से जब हम छल के साथ छेनकर, अपार सुख-समृद्धि एकत्र करना और कहना शांति के लिए हैं कुछ मत बोलो, क्रान्ति की हैं बातें मत करो, कदापि उचित नहीं है। जहाँ सुख-सम्पत्ति के साधनों के समाज में नीति संगत विभाजन नहीं होता, सत्यवादी दण्ड के पात्र होते हैं, अन्याय असहनीय हो जाता है तथा तलवार के बल पर शासन चलता है, वहाँ वास्तविक शान्ति नहीं होती। सत्ताधारी यदि विद्रोह का संकेत पाकर भी सावधान न हों और किसी दिन दलितों-शोषितों का आवेग फूट पड़े तो युद्ध का दोषी कौन होगा? तुम दु:खी हो रहे हो यह सोचकर कि तुम्हारे कारण महाभारत का युद्ध हुआ। यह सोच ठीक नहीं है। युद्ध से पूर्व ही प्रतिहिंसा की आग सुलगने लगी थी। जब शक्ति के प्रयोग से क्रान्ति का दमन किया जाता है, तो युद्ध की पृष्ठभूमि तभी तैयार हो जाती है। सच्ची शांति तभी स्थापित हो सकती है, जब समाज में सभी लोगों को समानतापूर्वक सुख प्राप्त हो। धन-सम्पत्ति पर सबका समान अधिकार होना जरूरी है। किसी के पास बहुत ज्यादा तथा किसी के पास अत्यन्त कम सुख-साधन नहीं होने चाहिए। सच्ची शान्ति हृदय में रहती है। वह मनुष्य के ऊँचे विश्वास, श्रद्धा-भावना, भक्ति और प्रेम पर आधारित होती है, शान्ति के लिए सामाजिक न्याय का होना आवश्यक है। अन्यायी समाज में शान्ति नहीं रहती, बनावटी शान्ति तलवार के सहारे के बिना नहीं रह पाती। जिन लोगों को शान्ति की ऐसी व्यवस्था के कारण सुख पाने का अवसर मिलता है, उनको वह जीवनदायिनी प्रतीत होती है। किन्तु इस शान्ति के कारण जो शोषण का शिकार बनते हैं, उनके मन में जलती विद्रोह की आग को पहचानना जरूरी है। यदि अधिकार माँगने से न मिले और संघर्ष को पाप समझा जाये तो धर्मराज तुम्हीं बताओ कि शोषित जीवित रहे या मर जाये? न्यायोचित अधिकार माँगने से न मिले तो उसको लड़कर प्राप्त करना अनुचित नहीं है। तुम क्षमा, दया तथा तेज और मनोबल की बातें करके मनुष्य की कायरता की ही प्रशंसा कर रहे हो। देवताओं की तपस्या दानवों की शक्ति से सदा हारती ही रही है। यदि आपको युद्ध प्रिय नहीं तो वनवास त्याग कर क्यों आए थे तथा अपना राज्य दुर्योधन से क्यों माँगा था? पाण्डव दुर्योधन की घृणा के पात्र बने। लाक्षागृह में उनको जलाने का प्रयास हुआ, भीम को विष दिया, द्रोपदी का भरी सभा में अपमान हुआ। तुमने क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल की खूब बातें , परन्तु क्या उनका प्रभाव दुर्योधन पर पड़ा ? तुमने क्षमा की नीति अपनाई, शत्रु ने उसको तुम्हारी कायरता समझा। अत्याचार सहन करने से मनुष्य का पौरुष नष्ट हो जाता है। क्षमा करने का अधिकार पौरुषहीन मनुष्य को नहीं होता। राम तीन दिन तक समुद्र से लंका जाने के लिए मार्ग की याचना करते रहे किन्तु समुद्र पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। जब क्रुद्ध होकर राम ने शर संधान किया तो भयभीत समुद्र उनके चरणों में आ गिरा। सत्य यही है कि विनम्रता शक्तिशाली का आभूषण है। शक्तिशाली द्वारा प्रस्तुत संधि प्रस्ताव ही माननीय होता है। क्षमा, दया और सहनशीलता शक्ति का सहारा पाकर ही पूज्य गुण कहलाते हैं। जहाँ दण्ड देने की सामर्थ्य नहीं होती वहाँ क्षमा की बात करना बेकार है। ऐसी क्षमा में वाणी का छल छिपा रहता है। वह जहर का पूँट पीने अर्थात् आत्महत्या करने का बहाना मात्र है। पद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्याएँ 1. समर निंद्य है धर्मराज, पर शब्दार्थ – निंद्य = निन्दनीय। धर्मराज = युधिष्ठिर। विपुल = विशाल। कल = यंत्र। क्षुधित = भूखा। ग्रास = गस्सा। प्रहरी = पहरेदार। गरल = विष। अचल = स्थिर। सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘कुरुक्षेत्र’ शीर्षक कविता से उधृत है। इसके रचयिता राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं। महाभारत युद्ध के समय धर्मराज युधिष्ठिर रक्तपात देखकर बहुत दु:खी थे। वह युद्ध के विरोधी तथा शान्ति के पक्षपाती थे। पितामह भीष्म से युद्ध और शान्ति के सम्बन्ध में उनका तर्क-वितर्क चल रहा था। कवि वर्तमान के सन्दर्भ में युधिष्ठिर तथा भीष्म के माध्यम से इस विषय को उठाया है। व्याख्या – शान्ति के पक्षपाती धर्मराज युधिष्ठिर से भीष्म पितामह ने पूछा कि यदि तुम युद्ध को निन्दनीय मानते हो तो बताओ कि अन्याय और अनीति के पक्ष में होने वाली शांति, जो सीधेपन का दिखावा करती है, प्रशंसनीय कैसे हो सकती है? किसी निर्बल मनुष्य का धन लूटकर किसी भूखे के मुँह से रोटी का ग्रास छीनकर यंत्रों की सहायता से धोखे से तथा ताकत से धन-सम्पत्ति और सुख के अपार साधनों का संग्रह करके, सब धन-सम्पत्ति पर अधिकार करके उसकी सुरक्षा के लिए पहरेदार लगाकर लोगों को अन्याय का विरोध करने से रोककर उनसे यह कहना कि चारों ओर अमृत के समान लाभप्रद शांति की बहाली है, इसको रोको मत। इस शान्त वातावरण में क्रान्ति का विष घोलकर इसको नष्ट मत करो। ऐसी शान्ति सच्ची शांति नहीं है, वह न्याय-पथ पर चलने वालों का खून पीती है। वह उनसे कहती है, तुम चुप रहो, उठकर विरोध मत करो, शान्ति के राज्य को स्थिर रहने दो। तुम भी जीवित रहो तथा मुझे भी जीने दो। विशेष –
2. सच है, सत्ता सिमट-सिमट शब्दार्थ – सत्ता = शासन को अधिकार। साधु पुरुष = सज्जने (व्यंग्य का प्रयोग है)। सम्यक् = ठीक, सही। नये = न्याय। खड्ग = तलवार। पद्धति = ढंग, तरीका। सूत्रधार = संचालक। अविचारी= विचारहीन, मूर्ख। सन्धि = मेल। सीस = सिर। सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘कुरुक्षेत्र’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं। दिनकर जी ने वर्तमान युग के ज्वलंत प्रश्न शान्ति या युद्ध को महाभारत के पात्र युधिष्ठिर तथा भीष्म के संवाद के रूप में उठाया है। उनका खण्डकाव्य कुरुक्षेत्र पौराणिक कथा पर आधारित है किन्तु उसे वर्तमान जीवन की समस्याओं पर विचार किया गया है। व्याख्या – पितामह भीष्म ने शान्ति के पक्षपाती युधिष्ठिर से कहा कि अन्याय की भूमि पर खड़ी शान्ति टिकाऊ नहीं होती है। जिनको धीरे-धीरे शासन का अधिकार प्राप्त हो जाता है, वे शान्ति के पक्षधर बन जाते हैं। शान्ति रहने से ही उनका शासनाधिकार सुरक्षित रहता है। ऐसे भले आदमी युद्ध क्यों चाहेंगे? सुख का सही स्वरूप सुख के साधनों का नैतिक नियमों तथा न्याय के आधार पर बँटवारे से ही प्रकट होता है। यदि नीति न्यायपूर्वक का सुख के साधनों अर्थात् धन-सम्पत्ति आदि का विभाजन नहीं होता और तलवार का भय दिखाकर बलपूर्वक अशान्ति को दबाया जाता है, वहाँ सच्ची और स्थायी शान्ति नहीं होती। शासक जब अनीति के रास्ते पर चलते हैं तथा समाज के संचालक अन्यायी तथा विचारहीन होते हैं, वहाँ शान्ति नहीं रहती। जहाँ मेलजोल की नीतियुक्त बातें स्वीकार नहीं होती और सच्ची बात बोलने वाले के सिर काट लिए जाते हैं, वहाँ समाज में शान्ति नहीं रहती। विशेष –
3. जहाँ खड्ग-बल एकमात्र शब्दार्थ – खड्ग = तलवार। भभक रहा = उबल रहा। अनय = अन्याय। कापुरुष = कायर। द्वन्द्व = संघर्ष। तलातल = सात पातालों में सबसे नीचे का तल। चिनगारी = आग। विस्फोट = तेजी के साथ फूटना। इंगित = इशारा, संकेत। अंगार = आग से जलता कोयला आदि पदार्थ।। सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित कुरुक्षेत्र’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं। भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को समझाया कि सच्ची शांति क्या होती है तथा उसकी स्थापना में क्या बातें बाधक होती हैं। अन्याय की रक्षा के लिए तलवार की शक्ति से स्थापित शान्ति कभी स्थायी नहीं होती। व्याख्या – पितामह भीष्म ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा कि जब शासक तलवार की शक्ति से लोगों का दमन करता है और न्याय नहीं केवल बल प्रयोग द्वारा शासन करता है तो ऐसी शान्ति ऊपरी तथा दिखावटी होती है। जहाँ लोगों का क्रोध भीतर-ही-भीतर धधकता रहता है और अवसर पाकर विद्रोह के रूप में फूट पड़ता है। जहाँ मनुष्य का मन अन्याय और शोषण सहते-सहते निराशा से भर उठता है और वह अपने को कायर समझने लगता है तथा स्वयं। को धिक्कारने लगता है, जहाँ शासक अहंकारी, घमंडी होता है तथा शासित उससे घृणा करता है, वहाँ दोनों में अन्दर-अन्दर ही संघर्ष चलता रहता है। वहाँ ऊपर से शान्ति दिखाई देती है तथा अन्दर विद्रोह की चिनगारी दबी रहती है और सुलगती रहती है। वहाँ भविष्य में विद्रोह और युद्ध की सम्भावना निरन्तर बनी रहती है। वहाँ भावनाओं के अंगारे लोगों को आचार-व्यवहार से सांकेतिक रूप में दिखाई दे जाते हैं। विशेष –
4. पढ़कर भी संकेत सजग हों शब्दार्थ – दुर्गति = दुर्बुद्धि, मूर्खता। अनल = आग। आहुति = हवन सामग्री। शर-बेधक = पैने। आवेग = भाव। संयम = आत्मनियंत्रण। काल = मृत्यु। दायी = उत्तरदायी। दारुण = भयानक। जगद्दहन = संसार का जलना। सन्दर्भ तथा प्रसंग – उपर्युक्त पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित’कुरुक्षेत्र’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं। भीष्म पितामह ने धर्मराज युधिष्ठिर को समझाया कि बल प्रयोग से स्थापित शान्ति स्थायी नहीं होती। जब लोगों का सब्र टूट जाता है तो वे अन्याय का विरोध करते हैं और विद्रोह कर देते हैं। व्याख्या – पितामह ने कहा कि शासक को विरोध और विद्रोह का इशारा पाते ही सावधान हो जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होगा और वह मूर्खता का परिचय देते हुए आग में घी डालता रहेगा तो लोगों का विरोध बढ़ता ही जायेगा। शासक यदि अपने प्रजाजनों का शोषण करेगा अथवा उनकी बातों पर ध्यान नहीं देगा अथवा शक्ति का प्रयोग करके उनको दबायेगा तो अशान्ति अवश्य उत्पन्न होगी। लोग अपमानित होकर और पैनी व्यंग्यपूर्वक कही हुई बातें सुनकर भड़क उठेंगे। उनके मन में दबी हुई भावनाएँ किसी-न-किसी दिन उबल उठेगी और फूट पड़ेंगी। वे अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रख सकेंगे तथा मृत्यु का रूप धारण करके अन्यायी शासक पर टूट पड़ेंगे। इस तरह संसार में जो युद्ध की आग जलेगी, तुम बताओ, उसका उत्तरदायी कौन होगा ? शासक का घमण्ड तथा शासितजन की घृणा में से कौन इस युद्ध का दोषी होगा ? विशेष –
4. तुम विषण्ण हो समझ शब्दार्थ – विषण्ण = दु:खी। जगदाह = संसार का जलना, युद्ध। ज्वाला = आग। शिखा कराला = भयंकर लपटें। प्रतिहिंसा = बदला लेने की भावना। बलना = जलना। वर्जन = मनाही, रोकना। सर्जन करना = पैदा करना। सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक से संकलित ‘कुरुक्षेत्र’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता . रामधारी सिंह दिनकर हैं। युधिष्ठिर सोच रहे थे कि उनके कारण महाभारत युद्ध हुआ और हिंसा तथा रक्तपात हुआ। भीष्म पितामह ने उनको बताया कि ऐसा सोचना ठीक नहीं है। महाभारत युद्ध के दोषी युधिष्ठिर नहीं हैं, अन्याय का विरोध करने के लिए महाभारत युद्ध तो होना ही था। व्याख्या – पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को बताया कि उनको स्वयं को महाभारत युद्ध का दोषी नहीं मानना चाहिए। उनको यह सोचकर दु:खी नहीं होना चाहिए। युद्ध में हिंसा उनके कारण हुई थी। उनको विचार करना चाहिए कि क्या यह युद्ध अकस्मात् और अकारण हुआ था। क्या युद्ध की आग आकाश से बरसी थी? अथवा युद्ध की आग अचानक मिट्टी से फूट पड़ी थी? क्या यह भयंकर अग्नि मंत्रों की शक्ति से प्रकट हुई थी ? पितामह ने आगे कहा कि कुरुक्षेत्र का युद्ध तो पहले से ही आरम्भ हो चुका था। कौरवों तथा पाण्डवों के बीच प्रतिहिंसा का दीपक पहले ही जलना आरम्भ हो गया था। अर्थात् उनके बदले की भावना पहले ही तैयार हो चुकी थी। जब शान्ति के पक्षधर ताकत के आधार पर क्रान्ति को रोकते हैं तो समझ लो कि वे उसी समय युद्ध का बीज बो देते हैं। आशय यह है कि शक्ति द्वारा शांति स्थापित करने तथा परिवर्तन को रोकने का परिणाम युद्ध के रूप में हमको झेलना पड़ता है। विशेष –
6. शान्ति नहीं तब तक, जब तक शब्दार्थ – सम = समान। प्रणय = प्रेम। श्रद्धा = आदरभाव। न्यास = धरोहर। सुदृढ़ = मजबूत। कृत्रिम = बनावटी। सशंक = शंकाग्रस्त। सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘कुरुक्षेत्र’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं। भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा कि शक्ति का प्रयोग करके जो शान्ति स्थापित की जाती है, वह स्थायी नहीं होती है। सच्ची शान्ति न्यायपूर्ण व्यवहार पर निर्भर करती है। व्याख्या – पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा कि जब तक संसार में सुख के साधनों अर्थात् धन-सम्पत्ति आदि पर समान अधिकार नहीं होता, तब तक शान्ति स्थापित नहीं हो सकती। किसी को न तो बहुत अधिक तथा किसी को न बहुत कम प्राप्त होना चाहिए। सबको समान भाव से सुख-सम्पत्ति प्राप्त होनी चाहिए। सम्पत्ति के न्यायपूर्ण वितरण से ही वास्तविक शान्ति स्थापित होती है। सच्ची शान्ति मनुष्य के शरीर पर नहीं मन पर शासन करती है। वह मनुष्य के दृढ़ विश्वास, श्रद्धाभाव, भक्ति-भावना तथा प्रेम पर आधारित होती है। न्याय शान्ति की धरोहर होता है। न्याय के अभाव में सच्ची शान्ति नहीं होती। यदि समाज में लोग न्यायपूर्ण आचरण नहीं करते हैं। तो शान्ति का महल मजबूत नहीं बन पाता। अन्याय पर आधारित शान्ति शीघ्र नष्ट हो जाती है। बनावटी शान्ति को अपने आप से ही डर लगता है। अपने स्वयं से ही सशंकित रहती है। उसको केवल तलवार पर ही विश्वास होता है। वह और किसी पर विश्वास नहीं करती। आशय यह है कि कुछ लोग बल प्रयोग से स्थापित शान्ति को ही सच्ची शान्ति समझते हैं। विशेष- (i) कवि ने सच्ची और बनावटी शांति का अन्तर बताया है। 7. और जिन्हें इसे
शान्ति-व्यवस्था शब्दार्थ – सुलभ = सरलता से प्राप्त। सार = तत्व। सिद्धि = सफलता। अस्थियाँ = हड्डियाँ। शोणित = रक्त, खून। दाह = जलन, पीड़ा। स्वत्व = अधिकार। संघात = आघात, प्रहार। शोषित = पीड़ित। तेजस्वी = तेजवान्, प्रतापी।। सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘कुरुक्षेत्र’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं। पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को बताया कि शोषण सहकर भी शान्त रहना उचित नहीं होता। माँगने पर भी अधिकार न मिले तो उसके लिए युद्ध करना अनुचित नहीं माना जाता है। व्याख्या – पितामह भीष्म कहते हैं कि जिन लोगों को शान्तिपूर्ण व्यवस्था में सुख-सम्पत्ति सरलता से प्राप्त हो जाते हैं, वे तो शान्ति को जीवनदायिनी मानेंगे ही। उनके लिए शान्ति जीवन का तत्व तथा कठिन श्रम से प्राप्त सफलता है। वे इस शान्ति की प्रशंसा करेंगे ही। किन्तु इस शान्ति व्यवस्था में जिन लोगों का शोषण होता है, शक्तिशाली लोग जिनका खून पीते हैं और हड़ियाँ चबाते हैं, उनके मन की पीड़ा को भी तो समझो।। यदि अधिकार माँगने पर प्राप्त न हो, आघात करना पाप माना जाये, तो हे धर्मराज युधिष्ठिर ! तुम ही बताओ कि वे शोषित पीड़ित लोग जीवित रहें या मर जायें ? यदि न्याय की दृष्टि से उचित अधिकार माँगने पर न मिलें तो प्रतापी मनुष्य युद्ध में लड़कर, विजय प्राप्त करके, उनको पा लेते हैं अथवा लड़ते-लड़ते मर जाते हैं। अपने हक के लिए लड़ना पाप नहीं है।। विशेष –
8. किसने कहा, पाप है समुचित शब्दार्थ – समुचित = पूर्णतः उचित। स्वत्व प्राप्ति हित = अधिकार पाने के लिए। अभय = निर्भय, निडर। मनोबल = मन की शक्ति। वृथा = व्यर्थ, बेकार। दुहाई देना = वास्ता देना। व्यंजित = प्रगट। कदराई = कायरता। आघात = प्रहार। मन:शक्ति = मन की शक्ति। पौरुष = पराक्रम। भरत-राज्य = भारत। सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘कुरुक्षेत्र’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं। भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा कि अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए युद्ध करना उचित है, वीर पुरुष अपना हक युद्ध में जीतकर अथवा मर कर प्राप्त करते हैं। | व्याख्या – पितामह भीष्म ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा कि अपने न्यायोचित अधिकारों की प्राप्ति हेतु लड़ना अनुचित बात नहीं है। न्यायार्थ युद्ध में तलवार उठाना और निर्भयतापूर्वक मरना और मारना पाप नहीं है। धर्मराज युधिष्ठिर तुम क्षमा, दया, तपस्या, तेजस्विता, मनोबल आदि गुणों का वास्ता देकर युद्ध से विरत रहकर मनुष्य की कायरता को ही प्रकट कर रहे हो। तपस्या करने वाले ऋषि-मुनियों को भी हिंसक राक्षसों से सुरक्षा की आवश्यकता सदा रही है। दानवों की शक्ति के सामने देवताओं को हमेशा हार का सामना करना पड़ा है। यदि तुमको अपनी मन की शक्ति अर्थात् मन की शान्ति, पौरुष के प्रदर्शन की अपेक्षा अधिक प्रिय थी तो तुम वनवास छोड़कर हस्तिनापुर क्यों आये और कौरवों से अपना राज्य वापस क्यों माँगा ? विशेष –
9. पिया भीम ने विष, लाक्षागृह शब्दार्थ – लाक्षागृह = लाख से बना मकान। केशकर्षिता = जिसके केश पकड़कर खींचे गए अर्थात् द्रोपदी। नर व्याघ्र = मनुष्य रूप में बाघ। सुयोधन = दुर्योधन। रिपु = शत्रु। विनत = विनम्र। आतंक = भय। सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘कुरुक्षेत्र’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं। भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को वनवास की अवधि पूरी करके लौटने और दुर्योधन से अपना राज्य वापस माँगने की घटना का स्मरण कराया और कहा कि महाभारत युद्ध इस न्यायोचित माँग के अमान्य होने के कारण हुआ था। व्याख्या – पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को स्मरण कराया कि भीम को जहर दिया गया तथा पाण्डवों को लाक्षागृह आग में जलाने का प्रयास भी हुआ था। उनको बारह वर्ष वन में रहना पड़ा था। राजसभा में द्रोपदी के केश खींचकर उसे अपमानित किया गया था और दासी बनाया गया था। उस समय तुमने क्षमा, दया, तप तथा त्याग और मनोबल आदि मानवीय गुणों की बातें कहकर दुर्योधन को अन्यायपूर्ण आचार करने से रोकने का पूरा प्रयास किया था। किन्तु सत्ता की शक्ति से मदमत्त नररूप सिंह दुर्योधन इससे अप्रभावित ही रहा था। उस पर तुम्हारे इन नीतियुक्त वचनों का ही प्रभाव नहीं हुआ था। तुमने शत्रु को क्षमा करने का जितना अधिक प्रयास किया और उसके सामने अपनी विनम्रता प्रकट की, दुष्ट कौरवों ने इसका अर्थ यही समझा कि तुम कायर हो। तुम्हारी नम्रता को उन्होंने कायरता समझा। दमन सहने करने का यही दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है। वह जितनी अधिक कोमलता और उदारता प्रकट करता है, विरोधी पक्ष उसके पराक्रम से उतना ही कम भयभीत होता है। उसको उसके पराक्रम और वीरता भयभीत नहीं करते।\ विशेष –
10. क्षमा शोभती उस भुजंग को, शब्दार्थ – शोभती= शोभा देती है। भुजंग = सर्प। गरल = विष, जहर। पन्थ = मार्ग, लंका जाने के लिए रास्ता। रघुपति = राम। अनुनय = विनय, निवेदन। अनुनय के छंद पढ़ना = प्रार्थना करना। नाद = स्वर, आवाज। अधीर = धैर्यहीनता से पूर्ण। धधक = सुलगना। देहधर = शरीर ग्रहण कर, साकार। त्राहि त्राहि = रक्षा के लिए पुकारना, बचाओ बचाओ। मूढ़ = मूर्ख।। सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘कुरुक्षेत्र’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं। पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को समझाया कि अत्याचार सहन करने का परिणाम भयानक होता है। शक्ति का प्रयोग किया जाय अथवा नहीं किन्तु शक्ति को प्रदर्शित करना जरूरी होता है। शत्रु को अपने पराक्रम से भयभीत बनाए रखना जरूरी है। व्याख्या – पितामह भीष्म युधिष्ठिर से बोले-जिस सर्प के पास विष होता है, क्षमा उसी को शोभा देती है। जिसके दाँत टूट गये हों जिसमें जहर नहीं हो, जो विनम्र तथा सीधा-सादा हो उससे कोई नहीं डरता। आशय यह है कि क्षमा करने का अधिकार शक्तिशाली तथा पराक्रमी वीर पुरुष को ही होता है। दुर्बल मनुष्य को क्षमा करने की बात कहना शोभा नहीं देता। पितामह ने भगवान राम का उदाहरण देकर पराक्रम की महत्ता समझाई। उन्होंने कहा – राम समुद्र के तट पर तीन दिन तक उससे लंका तक जाने का मार्ग देने के लिए नम्रतापूर्वक निवेदन करते रहे, किन्तु समुद्र ने उनकी प्रार्थना पर कोई ध्यान नहीं दिया। यह देखकर राम का पराक्रम जाग उठा। उन्होंने नम्र निवेदन छोड़कर अपने धनुष पर बाण चढ़ा लिया। यह देखकर समुद्र भयभीत हो उठा। वह साकार होकर ‘हे प्रभु ! रक्षा करो, रक्षा करो’ कहता हुआ उनके चरणों पर गिर पड़ा। उसने राम की चरण वन्दना की, उनका दास बना और वह मूर्ख उनके वशीभूत हो गया। विशेष –
11. सच पूछो, तो शर में ही। शब्दार्थ – शर = बाण, तीर। दीप्ति = चमक। संधि वचन = समझौते की बातें, मेल-जोल की नीति। संपूज्य = माननीय। दर्प = गर्व। सामर्थ्य = क्षमता। शोध = दण्डित करना। मिस = बहाना। छल = कपट। सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘कुरुक्षेत्र’ नामक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं। भीष्म पितामह ने धर्मराज युधिष्ठिर को समझाया कि मनुष्य को शक्ति की उपासना करनी चाहिए। शक्तिहीन व्यक्ति से संसार में कोई नहीं डरता। यदि शक्तिहीन पुरुष क्षमा की बात करे तो यह उसको छलपूर्ण आचरण ही कहलायेगा। व्याख्या – पितामह ने युधिष्ठिर को बताया कि विनम्रता शक्तिशाली पुरुषों को ही शोभा देती है। विनम्रता की चमक-दमक बाण अर्थात् अस्त्र-शस्त्र से ही प्रकट होती है। शस्त्रहीन, शक्तिहीन पुरुष की विनम्रता निरर्थक होती है। जिस वीर पुरुष में शत्रु को परास्त करने की शक्ति होती है, उसी की मेलजोल की नीति तथा सन्धि-समझौते की बातें स्वीकार्य होती हैं। सन्धि की शर्ते तय करने का अधिकारी शक्तिशाली मनुष्य ही होता है। जब मनुष्य को वीरता और पराक्रम लोगों को स्पष्ट दिखाई देते हैं, तभी संसार उसका आदर करता है तथा उसके सहनशीलता, क्षमा, दया आदि गुण माननीय होते हैं। जिस पुरुष में अपने शत्रु को परास्त करने की शक्ति नहीं होती है, उसको क्षमा की बात कहने का हक नहीं होता। उसके द्वारा अपने शत्रु को क्षमा करने की बात कहना व्यर्थ है। उसका यह प्रयास बहाने से जहर पीने के समान है। क्षमा की बात करना उसकी बातों के कपटपूर्ण होने का प्रमाण है। विशेष –
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