सोवियत संघ के विघटन के बाद कौन राष्ट्रपति बना? - soviyat sangh ke vighatan ke baad kaun raashtrapati bana?

सोवियत संघ के विघटन के बाद कौन राष्ट्रपति बना? - soviyat sangh ke vighatan ke baad kaun raashtrapati bana?

सोवियत संघ, २६ दिसम्बर १९९१ को विघटित घोषित हुआ। इस घोषणा में सोवियत संघ के भूतपूर्व गणतन्त्रों को स्वतन्त्रत मान लिया गया। विघटन के पूर्व मिखाइल गोर्वाचेव , सोवियत संघ के राष्ट्रपति थे। विघटन की घोषणा के एक दिन पूर्व उन्होने पदत्याग दिया था। विघटन की इस प्रक्रिया आरम्भ आम तौर पर गोर्वाचेव के सत्ता ग्रहण करने के साथ जोड़ा जाता है। वास्तव में सोवियत संघ के विघटन की प्रक्रिया बहुत पहले शुरू हो चुकी थी। सोवियत संघ के निपात के अनेक बुनियादी एवं ऐतिहासिक कारण हैं जो सतही नजर डालने पर नहीं दिखते।

पृष्ठभूमि[संपादित करें]

सोवियत संघ के विघटन के बाद कौन राष्ट्रपति बना? - soviyat sangh ke vighatan ke baad kaun raashtrapati bana?

१९८९ में सोवियत संघ से निकले विभिन्न भाग

1917 में बोल्शेविक क्रांति ने सोवियत संघ नामक एक नए साम्यवादी राज्य को जन्म दिया। इसी के साथ सोवियत संघ ने आरंभ में ही स्पष्ट कर दिया कि राजनीतिक व्यवस्था और साम्यवादी संगठन समाजवादी विचारधारा पर आश्रित होगे तथा साम्यवादी मार्क्सवादी विश्व दर्शन ही राष्ट्रहित को परिभाषित करने की एक मात्र कसौटी होगा। यह स्वाभाविक था कि इस क्रांतिकारी साम्यवादी राज्य को पूँजीवादी पश्चिमी राज्यों ने अपना जन्मजात शत्रु समझा।

1920 एवं 30 के दशक में लेनिन की मृत्यु के बाद स्टालिन ने अपने को सर्वोच्च नेता के रूप में स्थापित किया और उस देश में साम्यवादी पार्टी की तानाशाही स्थापित हो गई। स्टालिन ने अपने विरोधियों का बर्बरता से उन्मूलन व दमन किया। इस कारण सोवियत संघ की पहचान जनतंत्र का हनन करने वाले एक राज्य के रूप में होने लगी। आगे स्टालिन की मृत्यु के बाद भी खुश्चेव तथा ब्रेजनेव के शासन में तानाशाही प्रवृत्तियाँ मौजूद रही। नागरिक स्वतंत्रता, प्रशासन, विदेश यात्रा आदि पर प्रतिबंध जारी रहे। एक तरीके से लोक भावना पर "लोहे के पर्दे" (iron curtain) डाल दिए गए थे।

'सर्वहारा के अधिनायकत्व' का अर्थ ही थी कि सत्ता सर्वहारा वर्ग के हाथ में हो। मेहनतकश जनता के बुनियादी अधिकारों की गारंटी तथा राज्य की नीतियों के निर्माण में उनकी भागीदारी को सुनिश्चित करना ही समाजवादी प्रजातंत्र का सारतत्व था। सोवियत यूनियन ने इस प्रजातंत्र की स्थापना का प्रयास नहीं किया। जिसके फलस्वरूप “सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व” सर्वहारा वर्ग पर राज्य व पार्टी में शीर्ष स्थानों पर आसीन नेताओं के अधिनायकत्व में बदल गया। जनता राज्य तथा व्यवस्था के प्रति उदासीन हो गई। उसकी उदासीनता एवं आक्रोश इस सीमा तक पहुँच गई, कि जब व्यवस्था का अंत किया गया तो उसके बचाव में जनता के किसी भी हिस्से से एक स्वर भी नहीं फूटा।

रूस न केवल भौगोलिक दृष्टि से दुनिया का सबसे बड़ा राज्य था बल्कि उसकी आबादी अद्भुत विविधता झलकाने वाली बहुराष्ट्रीय थी। रूसी जारों ने इस विस्तृत साम्राज्य को केन्द्रीय प्रशासन के अधीन करने का कोई प्रयत्न नहीं किया किन्तु सोवियत साम्यवादी पार्टी ने केन्द्रीयकरण करने का प्रयास किया और यह जातीय विविधता सोवियत संघ की राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के लिए खतरा बनी रही। सोवियत साम्यवादी पार्टी इस उलझी गुत्थी का समाधन ढूँढने में असमर्थ रही। शीत युद्ध के वर्षों में पश्चिमी शक्तियों का दुष्प्रचार इस चुनौती को विस्फोटक बनाता रहा।

सोवियत साम्राज्य ने जिन पूर्वी देशों को अपने प्रभाव में लाया था, जैसे- हंगरी, पोलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया, रूमानिया, आदि उन सभी जगहों में स्वाधीनता की ललक सोवियत साम्राज्य के लिए चिंता का विषय बना रहा।

सोवियत संघ की साम्यवादी पार्टी ने आर्थिक विकास का और सामाजिक पुनर्सरचना का जो विकल्प सामने रखा था वह बहुत सफल सिद्ध नहीं हुआ। ट्राटस्की जैसे आलोचकों ने तो बहुत पहले ही स्टालिन की नीति को समाजवाद से विश्वासघात के रूप में प्रचारित किया था और आगे खु्रश्चेव ने भी स्टालिन और स्टालिन वाद की निंदा की। इसी खु्रश्चेव के शासन काल में माओवादी चीन ने भी यह लांछन लगाना शुरू कर दिया कि सोवियत संघ साम्यवादी क्रांतिकारी राज्य नहीं रह गया बल्कि सुधारवादी, प्रतिगामी, अवसरवादी समझौतापरस्त ताकत बन चुका है। इस तरह सोवियत नेतृत्व अपने सहयोगी दूसरे साम्यवादी देशों का विश्वास गँवा चुका था। अपने राष्ट्रहित को सामूहिक, राष्ट्रीय, क्रांतिकारी हितों पर तरजीह देने वाला नजर आने लगा था। सोवियत-चीन विवाद हो या पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों में असंतोष, इन सबका नतीजा सोवियत साम्यवादियों को कमजोर करने वाला ही सिद्ध हुआ।

सोवियत यूनियन के विघटन के लिए वहाँ की साम्यवादी पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भी एक सीमा तक उत्तरदायी रहा। सोवियत संघ में पार्टी तथा राज्य के बीच कोई भेद न रहने के कारण पार्टी तथा राज्य का नेतृत्व उन्हीं के हाथों में था। यह पार्टी नेतृत्व अपने सुविधाभोगी जीवन, भाई-भतीजावाद और भ्रष्ट आचरण के लिए बदनाम हो गया था। फलतः सोवियत नेता जनता के लिए अपने आदर्श रूप को खो चुके थे।

आर्थिक संकट[संपादित करें]

जहाँ तक आर्थिक विकास का प्रश्न है, भले ही सैनिक और सामरिक क्षेत्र में सोवियत उपलब्धियाँ अमेरिकनों के बराबर तथा कभी-कभार उनसे बढ़कर नजर आती रही किन्तु इस उपलब्धि ने सोवियत संघ के आर्थिक वृद्धि दर को बहुत कम कर दिया था। वस्तुतः अंतरित अनुसंधान की प्रतिस्पर्धा, शस्त्र-निर्माण पर बेतहाशा खर्च तथा अपनी प्रभुता बनाए रखने के लिए अन्य देशों की आंतरिक समस्याओं में हस्तक्षेप (अफगानिस्तान, फिलिस्तीन) करने से सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी। इतना ही नहीं पूर्वी यूरोप में जो समाजवादी राज्य स्थापित हो गए थे, उन्हें आर्थिक व सैनिक तथा राजनैतिक मदद करना भी सोवियत यूनियन की नैतिक जिम्मेदारी थी। साथ ही नवस्वतंत्र देशों की अर्थव्यवस्थाओं को आर्थिक सहायता प्रदान करना भी उसकी नीति रही, ताकि वे अमेरिकी खेमे में जाने से बचे रहे। इन सब कारणों से सोवियत संघ की आर्थिक दशा पतनोन्मुख हुई।

सोवियत संघ के 1970-85 की अवधि में वृद्धि दर में 10% की गिरावट हुई। यंत्रों तथा साजोसमान के निर्यात का अंश घटता गया। कृषि उत्पादन, औद्योगिक उत्पादन में कमी आई। फलतः उपभोक्ता वस्तुओं के लिए लम्बी-लम्बी लाइनें लगने लगीं, नागरिकों के जीवन स्तर में गिरावट आई। इस तरह आम उपभोक्ता के लिए अभाव ही आम बात थी।

शीत युद्ध के दौरान पश्चिमी प्रचार का जोर यह प्रमाणित करने में रहा कि उत्पादन और वितरण दोनों ही मामलों में साम्यवादी प्रणाली पूरी तरह असफल हुई है। अभाव के इस माहौल में उपभोक्ताओं के बढे़ असंतोष के साथ-साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अभाव में और मानवधिकारों के उल्लंघन ने सोवियत व्यवस्था को और कष्टदायी बना दिया था।

अमेरिका के साथ परमाणु निर्मित अस्त्र-शस्त्रों में बराबरी की महत्वाकांक्षा ने सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था पर कमरतोड़ बोझ डाल दिया। राष्ट्रपति रीगन के समय घोषित स्टार वार्स परियोजना को प्रभावहीन बनाने के लिए सोवियत संघ को अपने रक्षा बजट में बेतहाशा वृद्धि करनी पड़ी। इसी समय अफगानिस्तान में सोवियत संघ ने सैनिक हस्तक्षेप किया। इस हस्तक्षेप ने न केवल उस पर आर्थिक बोझ डाला बल्कि अलोकप्रिय भी बनाया। इससे सोवियत संघ अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में बिल्कुल अकेला सा पड़ा गया।

इसी समय पूर्वी यूरोप में साम्यवादी सोवियत साम्राज्य को चुनौती देने वाली परिवर्तनकामी हलचल शुरू हो गई। पोलैण्ड में “सॉलिडेटरी” नामक सैनिक संगठन अपने देश की साम्यवादी पार्टी से टकराने के लिए जुझारू तेवर दिखला रहा था और रोमानिया में चेचेस्क्यू के भ्रष्ट शासन को समर्थन देना कठिन होता जा रहा था। मिखाईल गोर्बाच्योब ने इन पिरिस्थतियों में संत्ता संभाली।

गोर्बाच्योव एवं उसकी नीतियाँ[संपादित करें]

सोवियत संघ के विघटन के बाद कौन राष्ट्रपति बना? - soviyat sangh ke vighatan ke baad kaun raashtrapati bana?

11 मार्च 1985 को गोर्बाच्योव ने सोवियत संघ का नेतृत्व ग्रहण किया और इसी के साथ सोवियत साम्यवादी इतिहास का एक नया अध्याय शुरू हुआ। गोर्बाच्योव ने रूस की आर्थिक दशा में सुधार हेतु तथा साम्यवाद को सकारात्मक दृष्टि से मजबूत बनाने के लिए अपनी विशिष्ट नीतियों की घोषण की जिसे उस्कोरेनी (त्वरण) पेरेस्त्रोइका (पुनर्गठन) और ग्लास्नोस्त (खुलापन) के नाम से जाना जाता है।

गोर्बाच्योव का उद्देश्य इन अवधारणाओं के माध्यम से सोवियत व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाना था। उसकी कोशिश साम्यवाद में नवीन परिवर्तन लाकर आधार प्रदान करने की था। इसी कारण उसके द्वारा लाए परिवर्तनों को दूसरी सोवियत क्रांति के आगमन का प्रतीक माना जाता है।

उस्कोरेनी[संपादित करें]

गोर्बाच्योव के अनुसार तत्कालीन सोवियत अर्थव्यवस्था घटिया वस्तुओं, अकुशलता तथा प्रतिद्वंद्विता के अभाव से ग्रसित है। लोगों के सामने प्रस्तुत की जाने वाली वस्तुओं व सेवाओं तथा उनके द्वारा माँग की जाने वाली वस्तुओं व सेवाओं में अंतर था। इस तरह यह माना गया कि उस्कोरेनी (त्वरण) अर्थव्यवस्था के ढाँचे को इस प्रकार परिवर्तिन करेगा कि लोगों की आवश्यकताओं की संतुष्टि अधिक गतिशील, कुशल व समाजोन्मुख हो। इसके तहत् अधिक संसाधनों के इस्तेमाल की अपेक्षा कार्यकुशलता में वृद्धि कर उत्पादन बढ़ाने पर जोर देने की बात की गई।

पेरस्त्रोइका[संपादित करें]

पेरेस्त्रोइका का अर्थ है- पुनर्गठन या पुनर्सरचना इसके माध्यम से समाज मेें ऐसे सुधार लाने का संकल्प लिया जिससे पुरानी कठोरताओं का अंत करके मनुष्य के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व आत्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त्र किया जा सके। इस प्रकार यह एक नए समाज की ओर अग्रसर होने की प्रक्रिया थी। पेरेस्त्रोइका के अंतर्गत निम्नलिखित बाते शामिल है-

(१) सामाजिक-आर्थिक प्रगति में तेजी लाना।

(२) समाज का व्यापक लोकतंत्रीकरण करना।

(३) लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण करना।

(४) व्यक्ति का नैतिक व आध्यात्मिक विकास करना।

(५) समाज की विकृतियों का पर्दाफाश करना।

इस तरह पेरेस्त्रोइका का उद्देश्य एक ऐसे समाज का विस्तार करना था जहाँ मानव की गरिमा और गौरव केन्द्र में हो, मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा हो।

गोर्बाच्योव ने पेरेस्त्रोइका के अंतर्गत कृषि क्षेत्र में सुधार, लीज एवं कॉण्टे्रक्ट के माध्यम से निजी खेती को प्रोत्साहन दिया। कृषि में सहकारी संगठन को सामूहिक संगठन की तुलना में अधिक महत्व दिया क्योंकि इसमें व्यक्ति की काम करने की प्रेरणा बनी रहती है। इसी प्रकार उपभोक्ता उद्योगोंं का विकास किया गया, मजदूरी वेतन को उत्पादकता से जोड़ा गया तथा कार्य कुशल श्रमिकों को अधिक वेतन तथा सुविधाएँ प्रदान की गई। इसी तरह प्रौद्योगिकी एवं निवेश संबंधी नीति में परिवर्तन लाकर अर्थव्यवस्था के गहन संरचनात्मक पुनर्गठन का प्रयास किया। अर्थव्यवस्था को गतिहीनता से निकालकर सुदृढ़ एवं तीव्र विकास के पथ पर चलाने की कोशिश की।

पेरेस्त्रोइका के माध्यम से गोर्बाच्योव सोवियत संघ को नए समाज की ओर ले जाना चाहते थे। इस नए समाज का पुननिर्माण वह लेनिन की विचारधारा के आधार पर करना चाहते थे। इन नीतियों का यथास्थितिवादियों द्वारा व्यापक विरोध किया गया।

ग्लास्नोस्त[संपादित करें]

ग्लास्नोस्त का अर्थ है- 'खुलापन'। ग्लास्नोस्त के तहत खुली बहस को प्रोत्साहन दिया गया जिससे लोकतंत्र की शक्तियाँ सुदृढ हो। गोर्बाच्योव ने इस बात पर बल दिया कि ग्लास्नोस्त का विस्तार सभी कार्याें में नियोजन और प्रशासन में किया जाए तथा देश में प्रादेशिक, आर्थिक, जातीय, युवा वर्ग संबंधी, परिवेश संबंधी सामाजिक व अन्य समस्याओं पर खुली बहस की जाए ताकि लोगों की सही वह सुनिश्चित राय का पता चल सके। गोर्बाच्योव ने कहा भी कि हमें ग्लास्नोस्त की उसी प्रकार आवश्यकता है जैसे हवा का। ग्लास्नोस्त के माध्यम से समाजवाद को लोकतंत्र की राह पर चलना था। वस्तुतः पेरेस्त्रोइका की व्यापक अवधारणा के तहत जिस सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक रूपांतरण की बात की गई और एक ऐसे समाज की पुनर्सरचना का प्रयास किया गया जिसमें लोगों की भागेदारी इस रूपांतरण में हो, उसके लिए जरूरी था ग्लास्नोसत अर्थात खुलापन। इसी कारण यह कहा गया कि बिना ग्लास्नोत के पेरेस्त्रोइका नहीं और लोकतंत्र नहीं। ग्लास्नोस्त की प्रक्रिया वस्तुतः चुनौती भरी थी क्योंकि बंधे समाज को खुले में रहने की आदत नहीं थी।

गोर्बाच्योव की नीतियों का परिणामः

1. ग्लास्नोस्त और पेरेस्त्रोंइका शब्द ही नहीं बल्कि परिवर्तन के प्रतीक बन गए। सोवियत समाज के हर मोड़ पर परिवर्तन आने लगा,राजनैतिक कैदियों को रिहा का दिया गया।

2. देश में खुली बहस होने लगी। बहुदलीय चुनाव का नया अनुभव सोवियत जनता को प्राप्त हुआ।

3. सोवियत नागरिकों को विदेश यात्रा एवं नागरिक आव्रजनों की छूट मिली।

4. विदेश नीति में परिवर्तन लाया गया और शीत युद्ध के स्थान पर तनाव शैथिल्य को महत्व दिया गया।

5. सुधार कार्यक्रमों द्वारा सोवियत समाज को कठोर अनुशासन तथा लौह आवरण की नीति से मुक्ति मिली।

6. इस खुली बहस का सोवियत संघ में दुरूपयोग भी हुआ लोग इसके माध्यम से गुटबाजी और संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति में लग गए। इसी दौरान गणराज्यों ने अधिक स्वायत्तता की माँग रखी। जिनकों मिलाकर सोवियत संघ बना था। कुछ गणराज्य तो पूरी तरह स्वतंत्र होना चाहते थे।

7. जनतांत्रिक तत्वों तथा कट्टरपंथी साम्यवादियों के बीच रस्साकशी में प्रशासन निष्क्रिय हो गया। अलगाववाद हिंसात्मक रूप में भड़क उठा, सोवियत संघ अराजकता की कगार तक पहुँच गया। अगस्त 1991में कुछ कम्युनिस्ट नेताओं ने तख्ता पलटने का असफल प्रयास किया। फलतः सोवियत संघ के विघटन की प्रक्रिया तेज हो गई। और अंततः वह बिखर गया। गोर्बाच्योव ने त्यागपत्र दे दिया। और सोवियत संघ के स्थान पर 15 स्वतंत्र गणराज्य का दिसम्बर 1991 में जन्म हुआ।

सोवियत संघ के विघटन में गोर्बाच्योव की भूमिका[संपादित करें]

जहाँ तक गोर्बाच्योव और उनकी नीतियों के फलस्वरूप सोवियत संघ के विद्यटन का संबंध है तो यह कहा जा सकता है उसकी नीतियों ने सोवियत संघ के विघटन की प्रक्रिया को पूरा किया।उसकी नीति के कारण सोवियत संघ की केन्द्रीय सत्ता कमजोर हो गई, फलस्वरूप सोवियत संघ में केन्द्र के विरूद्ध संघर्ष करने वाली शक्तियों के हौसले बढ़ते गए। गोर्बाच्योव की तथाकथित जनतांत्रिक नीतियों ने गणराज्यों के सोवियत संघ से अलग होने को मान्यता दे दी। फलस्वरूप देखते ही देखते एक के बाद एक करके सोवियत संघ के गणराज्य स्वतंत्र हो गए और सोवियत संघ का विघटन हो गया। यह गोर्बाच्योव की नीतियों का ही परिणाम था कि सोवियत साम्यवादी दल की शक्ति में निरंतर ह्रास होता गया। फलतः सोवियत संघ की एकता के सूत्र में बाँधने वाले सबसे बडे सम्पर्क सूत्र की शक्ति ही घटती गई। इसका परिणाम था साम्यवाद-विरोधी शक्तियों का सिर उठाना। अमेरिका और पाश्चात्य देशों का भी सोवियत संघ को तोड़नेवाली इन शक्तियों को समर्थन प्राप्त था। परिणामस्वरूप ये शक्तियाँ सोवियत संघ की एकता को खोखली करती गई। गोर्बाच्योव ने पूर्वी यूरोप में भी साम्यवाद के दुर्ग को ढहने से रोकने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया, उल्टे उसकी नीतियों के कारण पूर्वी यूरोप में साम्यवाद विरोधी शक्तियाँ हावी होती गई। चेकोस्लोवाकिया, रोमानिया, हंगरी, पूर्वी जर्मनी मेेें साम्यवाद का पतन हो गया और यह पतन ने सोवियत संघ के महाशक्ति की छवि को समाप्त कर दिया।

यह कहना आसान है कि सोवियत संघ का पतन और अवसान की जिम्मेदारी सिर्प गोर्बाच्योव की है। ऐसा करना किसी एक व्यक्ति को ऐतिहासिक प्रवृत्तियों से महत्वपूर्ण समझने की भूल करना होगा। गोर्बाच्योव तो इन ऐतिहासिक प्रवृत्तियों को प्रतिबिम्बत करने वाले दर्पण मात्र थे जो खुद टूट-कर बिखर गए। वास्तव में सोवियत संघ के विघटन के बीच उसकी स्थापना के साथ ही बो दिए गए थे। समाजवादी व्यवस्था को जीवित रखने के लिए यह आवश्यक था कि देश में समाजवादी मनुष्य व संस्कृति को पैदा किया जाए, सोवियत व्यवस्था ऐसा करने में विफल रही। स्टालिन के शासन काल में लगभग दो दशकों तक सोवियत संघ की एकता केन्द्र सरकार की निर्मम बल प्रयोग वाले अनुशासन से ही बरकरार रही थी। देश के विभिन्न हिस्सों को साम्यवाद की रक्षा के लिए राष्ट्रहित में या अंतर्राष्ट्रीय भाईचारे के बहाने कुर्बानी देने के लिए मजबूर होना पड़ता था ऐसा नहीं था कि असंतोष या आक्रोश पैदा ही नहीं होते थे सिर्प दमनकारी नीतियों के कारण इनकी मुखर अभिव्यक्ति कठिन थी। गोर्बाच्योव की उदार नीतियों ने इस आक्रोश को व्यक्त करने की मार्ग उपलब्ध कराया।

सोवियत संघ के विघटन का प्रभाव[संपादित करें]

सोवियत संघ के विघटन के बाद कौन राष्ट्रपति बना? - soviyat sangh ke vighatan ke baad kaun raashtrapati bana?

  • सोवियत संघ के विघटन ने विश्व राजनीतिक परिदृश्य को परिवर्तित कर दिया। महाशक्ति के रूप में सोवियत संघ का अवसान हो गया और अब एकमात्र महाशक्ति के रूप में अमेरिका रह गया और विश्व का स्वरूप एकधु्रवीय (unipolar)हो गया। अमेरिका का पूरी दुनिया पर वर्चस्व स्थापित हो गया।
  • सोवियत संघ के विखंडन से शीतयुद्ध की स्वतः समाप्ति हुई।
  • पूर्वी यूरोपीय देशों में साम्यवाद का अवसान हुआ और बहुदलीय लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की स्थापना हुई।
  • सोवियत विघटन से तृतीय विश्व के देशों को गंभीर आघात का सामना करना पड़ा क्योंकि इन देशों को सोवियत संघ से आर्थिक, सैनिक व तकनीकी सहायता प्राप्त होती थी। अब विघटित गणराज्यों में इतनी क्षमता नहीं रहीं कि वे सहायता कर सके। इसी संदर्भ में तृतीय विश्व को नव उपनिवेशवाद के खतरे का सामना करना पड़ रहा है।
  • विश्व में बाजार अर्थव्यवस्था को बल मिला कि लम्बे समय तक दमन और नागरिक स्वतंत्रता का अपहरण कर शासन नहीं चलाया जा सकता। इस तरह से लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बढ़ावा मिला।

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • सोवियत संघ
  • रूस
  • साम्यवाद
  • साम्यवाद का पतन

सोवियत संघ के विघटन के बाद राष्ट्रपति कौन बने?

Mikhail Gorbachev: सोवियत संघ के आखिरी राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव का निधन हो गया. वो 91 साल के थे. गोर्बाचेव लंबे समय से बीमारी से जूझ रहे थे. गोर्बाचेव वही राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने बिना खून बहाए शीत युद्ध खत्म कर दिया था.

सोवियत संघ के विभाजन के समय राष्ट्रपति कौन था?

तत्कालीन सोवियत संघ के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव ने लंबी बीमारी के बाद 91 वर्ष की उम्र में दुनिया को अलविदा कहा। वो सोवियत संघ के आखिरी राष्ट्रपति थे। उनके काल में ही सोवियत संघ का विभाजन हो गया।

सोवियत संघ से टूटकर कितने देश बने?

सोवियत संघ से टूटकर आर्मीनिया, अजरबैजान, बेलारूस, इस्टोनिया, जॉर्जिया, कजाकिस्तान, कीर्गिस्तान, लातविया, लिथुआनिया, मालदोवा, रूस, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, यूक्रेन और उज्बेकिस्तान आदि देश बने