स्वदेशी आंदोलन में महिलाओं की क्या भूमिका थी? - svadeshee aandolan mein mahilaon kee kya bhoomika thee?

स्वदेशी आंदोलन में महिलाओं की क्या भूमिका थी? - svadeshee aandolan mein mahilaon kee kya bhoomika thee?

सावित्री बाई फुले जब दूसरे गांव के स्कूल में बाल विधवाओं को पढ़ाने जाती थीं तो घर से एक अतिरिक्त साड़ी अपने साथ ले जाती थीं। कारण, रास्ते में उनके अपने व दूसरे गांवों के लोग उन पर गोबर, नाली की गंदगी या पत्थर फेंकते थे, जिससे पहनी हुई साड़ी गंदी हो जाती थी या फट जाती थी। बिना कोई प्रतिक्रिया दिखाए वे बिननागा पढ़ाने के लिए जातीं। आगे चलकर वे भारत की पहली प्रशिक्षित महिला शिक्षक बनीं। रूक्माबाई की शादी बचपन में हो गई थी। उसके पिता बंबंई में एक नामी डॉक्टर थे। रूक्मा की शादी उनके चचेरे भाई दादाजी भीखा से कर दी गई। उस समय वह 11 साल की थीं और भीखाजी 19 साल का। शादी इस शर्त पर हुई थी कि पति उन्हीं के घर में रहकर पढ़ाई करेगा। पर वह नहीं आया। रूक्मा पिता के घर पर ही रही और पढ़ाई करती रहीं। बाद में उसने पति के साथ जाने से मना कर दिया। मामला अदालत में चला। जिसमें पति जीत गया। पर रूक्मा तब भी उसके साथ नहीं गई। उसने साफ कह दिया कि वह तीन साल की जेल काट लेंगी पर पति के साथ नहीं जाएंगी। क्योंकि उसने पढ़ाई तो नहीं ही की थी, नशे का भी आदि हो गया था। जिला व उच्च अदालत में चले इस मुकदमे पर सारे देश की निगाहें थीं। बालविवाह और लड़की की सहमति को लेकर समाज सुधारको के नरम व गरम दलों में जमकर बहसें चलीं।

देश में स्वदेशी आंदोलन शुरू हो चुका था और महिला शिक्षा की इस पचास साल की प्रक्रिया में से निकली तमाम महिलाएं अपने बच्चों या दूसरों को समझा रही थीं कि कैसे उन्हें अपने ही आर्थिक संसाधनों पर निर्भर करना है। यही वह काल है जब देश में बड़े व छोटे कारखाने उभर कर आए।

अंतत: 1891 में सहमति की आयु पर अधिनियम बना और यह आयु 10 से बढ़ाकर 12 साल कर दी गई। पर बात यहीं तक नहीं हैं। रूक्मा मेडिकल की पढ़ाई करने इंग्लैंड गईं और डॉक्टर बन कर लौटीं। वे देश की दूसरी महिला डाक्टर थीं। पहली डॉक्टर कुमुदनी व आनंदी गोपाल जोशी ने प्रेक्टिस नहीं की थीं। रूक्मा ने 1895 में यहां आते ही सूरत के महिला अस्पताल में चीफ मेडिकल आॅफिसर का पद संभाला। फिर राजकोट में जनाना अस्पताल में काम करने के लिए अपना तबादला करवाया और वहां रेडक्रास सोसायटी की स्थापना भी की। रमाबाई पंडिता का जन्म महाराष्ट्र के गंगमाल के जंगलों में हुआ था। जंगलों में इसलिए कि उनके पिता अनंतशास्त्री को अपना घर छोड़ देना पड़ा था क्योंकि वे अपनी नौ साल की पत्नी को घर पर खुद ही पढ़ा रहे थे। वे एक सुशिक्षित ब्राह्मण थे और चाहते थे कि उनकी पत्नी भी शास्त्रों का अध्ययन कर ले। घर व बाहर दोनों ही जगह भारी विरोध, खासकर अपने ही समाज से, होने पर उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और गांव के बाहर कुटिया बनाकर रहने लगे। फिर दोनों जंगल जंगल घूमते और विधवाओ व बालविधवाओं को पढ़ाते। तभी रमा का जन्म हुआ। वह भी दूसरों के साथ पढ़ते हुए बड़ी होती चली गई।

और एक दिन ऐसा आया कि भारत में शिक्षा की स्थिति का जायजा लेने के लिए सरकार ने जब एक कमीशन बनाया तो उसमें रमा ने भी अपना प्रस्ताव रखा। इसमें मुख्यत: तीन मांगे थीं। महिलाओं को भी टीचर्स ट्रेनिंग दी जाए। महिला स्कूलों में महिला इंस्पेक्टरों की नियुक्ति की जाए। तीसरा देश के मेडिकल कॉलेजों में महिलाओं को दाखिला दिया जाए ताकि डाक्टरी की पढ़ाई के लिए उन्हें विदेश न जाना पड़े। उस समय भारत में सरकार द्वारा स्थापित तीन मेडिकल कॉलेज थे पर उनमें महिलाओं को दाखिला नहीं दिया जाता था। रमा का तर्क था कि भारत की सामाजिक स्थितियों व सांस्कृतिक परंपराओं के तहत महिला रोगी की जांच ठीक से महिला डॉक्टर ही कर सकती है। यह आखिरी मांग इतनी महत्वपूर्ण थी कि इसकी गूंज महारानी विक्टोरिया तक पहुंची। और सामाजिक कार्यकर्ता लेडी डफरिन ने तो इसके बाद मेडिकल शिक्षा में महिलाओं की मदद के लिए इंग्लैंड में एक कोष ही खड़ा कर दिया। जल्द ही यह मांग मान ली गई और तब कलकत्ता, बंबई व मद्रास तीनों मेडिकल कॉलेजों से महिला डाक्टर व प्रोफेसर दोनों ही निकलने लगीं। इसका लाभ यह हुआ कि जनाना अस्पतालों में महिला डाक्टरों की संख्या तेजी से बढ़ी। कॉलेजो में महिला प्रोफेसर के आ जाने से अधिक छात्राएं मेडिकल क्षेत्र में आने लगीं।

मुत्थुलक्ष्मी रेड्डी मद्रास मेडिकल कॉलेज से निकली देश की पहली महिला सर्जन थीं। जिन्होंने मद्रास के ही सरकारी महिला व बाल अस्पताल में काम किया। कांग्रेस के 1889 के सम्मेलन में एक साथ दस महिलाएं मंच पर दिखाई दीं। इनमें से किसी का भी भाषण वहां नहीं हुआ। पर उस समय एक साथ दस महिलाओं का मंच पर आना भी बहुत बड़ी बात थी। इसके पीछे खुद इन महिलाओं के अपने प्रयास थे। इसके बाद तो कांग्रेस में महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ती गई और महात्मा गांधी के आंदोलनों की तो ढाल ही महिलाएं थीं। तो क्या वह गांधी का करिश्मा था? नहीं। इसके पीछे सावित्री, रूक्मा, व रमा जैसी कर्मठ, दृढ़निश्चयी व संकल्पवान असंख्य महिलाओं और उनके ही जैसे सुधारवादी पुरुषों का पुरुषार्थ था जिन्होंने सारे देश में विधवाओं, बालविधवाओं और लड़कियों को ज्ञान की रोशनी से भर दिया था। उन्हीं की बदौलत दूरदराज गांवों तक में स्कूल व शहरों में कॉलेज खुले जिनमें से बहुत से आज भी चल रहे हैं। इन स्कूलों में महिलाओं को अक्षर ज्ञान ही नहीं दिया गया, गणित व विज्ञान भी पढ़ाया गया। इसके अलावा उन्हें सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, पाक विद्या और हस्तशिल्प भी सिखाए गए ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें। मेरे गांव में बचपन में कितने ही घर ऐसे थे जो महिला की सिलाई पर पलते थे। वह उन्होंने स्कूल में ही सीखी थी।

यह 20वीं सदी के साठवें दशक की बात है। पर इसकी नींव सौ सवा सौ साल पहले इन्हीं महिलाओं ने डाली थी। वह भी भारी विरोध के बावजूद। और विरोध भी दूसरों का नहीं, अपनों का ही। असल में 1830 के आसपास महिलाओं की शिक्षा पर दो तरह से काम हुआ। अंग्रजों ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा की शुरूआत इसलिए की कि उसे अपने प्रशासनिक कार्यों के लिए क्लर्क और अफसर यहीं से मिल जाएं। जल्द ही इन पुरुषों को लगने लगा कि अगर अंग्रजों के बीच में उठना बैठना है तो उन्हें अपनी पत्नियों को भी पढ़ाना होगा। उन्होंने खुद ही उन्हें घर पर पढ़ाना शुरू किया। या फिर ट्यूशन रखवाई। यह उनके लिए आसान नहीं था। उस समय के जज महादेव गोविंद रानाडे अपनी पत्नी को खुद ही घर पर अंग्रेजी, संस्कृत व मराठी पढ़ा रहे थे। पर उनके घर से बाहर निकलते ही पत्नी पर सारा घर ही लांछनों की बौछार करने लगता। कभी कभी तो खुद रानाडे की भी हजामत मलामत हो जाती। पर दोनों ने आपस में तय कर लिया था कि सब कुछ चुप रह कर सहना है और अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ना है। बंगाल में ब्रह्म समाज का तो मानना ही यह था कि अंग्रेजी शासन व अंग्रेजी शिक्षा से भारत के लोगों में सभ्यता व ज्ञान का विकास हुआ है। वे देश में अंग्रेजी शिक्षा के पक्षधर थे। और महिलाओं की भी। लेकिन 1830 के आसपास ऐसे पुरुष भी उभर कर आए, जिनके पास पैसा या पद कुछ नहीं था। बस एक समझ थी कि लड़कियों को भी शिक्षा मिलनी चाहिए।

ज्योतिबा फुले और अनंतराम शास्त्री ऐसे ही पुरुष थे। दोनों ब्राह्मण थे। पर समाज के ब्राह्मणों का कहना था कि शास्त्र स्त्री शिक्षा की इजाजत नहीं देते और न विधवा के पुनर्विवाह की। इसलिए उनका यह कार्य शास्त्रों के विरूद्ध है। उधर मिशनरी संस्थाएं भी लड़कियों को शिक्षा देने के काम में जुटती जा रही थीं। और उनके भी शिक्षा के पक्ष में अपने तर्क थे। मिशनरियों के कारण गरम दल के लोग और ज्यादा सचेत हो गए क्योंकि तब तक यह धारणा पुष्ट हो चुकी थी कि इन संस्थाओं का मुख्य मकसद धर्मपविर्तन कर भारत में इसाइयत का प्रसार करना है। 1870-80 तक महिलाओं की शिक्षा पर पूरे देश में धुंआधार बहस चलती रही। इससे विधवाओं, खासकर बालविधवओं की शिक्षा का काम रुका नहीं। शिक्षा के समर्थक भी अधिकतर ब्राह्मण ही थे इसलिए उन्हें यह स्थापित करने में कठिनाई नही हुई कि आर्यकाल में स़्त्री को हर प्रकार की शिक्षा पाने का अधिकार था और वह पुनर्विवाह भी कर सकती थी। और यह भी कि उस समय बालविवाह की परंपरा नहीं थी। इन लोगों ने आर्यकाल को इस लिहाज से स्वर्णिम काल की संज्ञा दी।

यह धारणा लगातार जोर पकड़ रही थी कि विधवाएं पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो जाएं तो एक सम्मानजनक जीवन गुजार सकेंगी। इस बीच रमा पंडिता ने शारदा सदन नाम से आश्रम ही स्थापित कर दिया जिसमें वहीं रहकर लड़कियां पढ़ाई करती थीं और साथ ही ऐसे हुनर सीखती थीं जो उन्हें आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनाते थे। आर्य समाज के प्रणेता दयानंद सरस्वती की स्त्री शिक्षा के प्रति सोच अब तक चली आ रही धारणाओं से अलग थी। उनका मानना था कि ज्ञान पाना व्यक्ति का अधिकार है और वह अधिकार स्त्री को भी है। ऐसे में उसे गणित व विज्ञान जैसे विषयों से भी महरूम नहीं रखा जाना चाहिए। उनके इस विचार ने शिक्षा पर बहस के पूरे रुख को ही बदल दिया। अब वह पाप पुण्य या परिवार के दायरे से निकलकर उसके अपने वैयक्तिक विकास पर आ खड़ी हुई। रूक्मा का बचपन में हुई शादी को मानने से इनकार कर डाक्टर के व्यवसाय को चुनना इसी दायरे में आता है।

उत्तर भारत में आज भी समस्त प्रांतों में ऐसे आर्य समाज स्कूल व कॉलेज मौजूद हैं, जो 1840-50 के आसपास चार या पांच छात्राओं से शुरू किए गए थे। ऐसे ही बंगाल व महाराष्ट्र में भी। यह पिछले 20 साल की स्त्री शिक्षा के संबंध में की जा रही कोशिशों का ही नतीजा था कि 1860-70 से ही इन स्कलों या महाविद्यालयों की हैडमास्टर, प्रिंसिपल भी भारतीय महिलाएं होने लगी थीं। प्रशिक्षित भारतीय महिलाओं के अभाव में अभी तक इन शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेज महिलाओं को इन पदों पर बिठाया जाता था। इसके अलावा पूरे देश में ऐसी जागरूक महिलाओं की एक खेप तैयार हो चुकी थी जो स्वत: स्फूर्त घर घर जाकर लोगों को अपनी लड़कियों को पढ़ाने के लिए प्रेरित करती थीं। 19वीं सदी का उत्तरार्ध आते आते उच्च वर्ग की शिक्षित महिलाएं अपने स्तर पर फैसले लेने लगी थीं। साहित्य व सामयिक लेखन में उनकी गति बन चुकी थी। ऐसी ही महिलाओं में से एक थी स्वर्ण कुमारी देवी। 31वर्ष की अवस्था में उन्होंने कलकत्ता की नामी पत्रिका भारती के संपादक का पद संभाला।

1886 में एक संस्था शुरू की ‘सखी समिति’। इसका मकसद समाज में बेसहारा, अनाथ व विधवाओं की पूरी जिम्मेदारी लेकर उन्हें पढ़ाना और फिर ऐसे हुनर सिखाना था जिससे वे अपना निर्वाह खुद कर सकें। हर साल महिला शिल्प मेलों का आयोजन किया जाता जिसमें महिलाएं अपना बनाया सामान बेच कर अपना खर्च निकाल लेती थीं। यह मेले इस मायने मे महत्वपूर्ण थे कि अंग्रजों की आर्थिक नीतियों के कारण देश भर में गांवों में रोजगार के साधन खत्म हो रहे थे, किसानों व बुनकरों की हालत बद से बदतर होती जा रही थी। ऐसे में इन मेलों के जरिए महिलाओं को अपने हस्तशिल्प से कुछ आर्थिक संबल मिल जाता था। और वे शिक्षा की प्रचारक प्रसारक तो बनती ही थीं। पंजाब व दिल्ली में भी विधवाओं के लिए ऐसे कई आश्रम शुरू हुए और उन्हें चलाने के लिए समाज में से ही राशि का सहयोग भी मिलने लगा। इन आश्रमों का लक्ष्य था महिलाओं की शिक्षा, प्रशिक्षण और रोजगार। रमाबाई पंडिता ने महाराष्ट्र में खेड़गाव में जमीन खरीदकर टाल्सटॉय हाउस की तर्ज पर आश्रम को खड़ा किया जो अपने आप में हर प्रकार से आत्मनिर्भर था।

शिक्षा संबंधी इन प्रयासों से अब तक महिलाएं सामाजिक व बौद्धिक दृष्टि से तो समाज में काफी ऊपर आ ही चुकी थीं, अब उनकी राष्ट्रीय चेतना भी जोर मारने लगी थी। वे अंग्रजों के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत करने लगी थीं। अंग्रेज सैनिकों व सिपाहियों के आने के बाद से देश में वेश्यावृत्ति काफी बढ़ गई थी। ये जवान गली मोहल्लों में से लड़कियों को उठा ले जाते थे। अदालतें उन्हें उम्र का हवाला देकर छोड़ देती थी। स्वर्णकुमारी की बेटी सरलादेवी घोषाल ने कलकत्ता में युवकों का एक अंतरंग दल बनाया। उन्हें तलवार, लाठी, जिमनाजियम का प्रशिक्षण दिलाया। ये युवक छावनी के आस पास के मोहल्लों पर नजर रखते और जैसे ही कोई जवान किसी महिला से छेड़छाड़ की कोशिश करता, उससे खुद ही निपट लेते। बंगाली युवकों को उन्होंने लड़ाकों के रूप में तैयार किया। इसके लिए स्थानीय सामाजिक व धार्मिक प्रतीक चिह्नों का इस्तेमाल किया। ‘वंदे मातरम’ को पहली बार इसी दल ने राष्ट्रीय संदर्भों में इस्तेमाल किया। 1905 के बंगाल विभाजन के बाद जब अंग्रजों के साथ साथ मुसलमानों से भी हिंदू लड़कियों को बचाने की समस्या खड़ी हो गई, तो इन्हीं युवकों ने लड़कियों के समूह बना उन्हें आत्मरक्षा के गुर सिखाए।

अब तक देश में स्वदेशी आंदोलन शुरू हो चुका था और महिला शिक्षा की इस पचास साल की प्रक्रिया में से निकली तमाम महिलाएं अपने बच्चों या दूसरों को समझा रही थीं कि कैसे उन्हें अपने ही आर्थिक संसाधनों पर निर्भर करना है। यही वह काल है जब देश में बड़े व छोटे कारखाने उभर कर आए। पंजाब में 1890 से ही निजी औद्योगिक उद्यम स्थापित किए जाने लगे थे। निजी स्कूल व कॉलेज भी बड़ी संख्या में उभर कर आए जो सरकारी मदद पर निर्भर न होकर व्यक्तिगत या सामाजिक पूंजी पर निर्भर थे। लाहौर में कृषि व उद्योग प्रदर्शनी में महिलाओं का एक कोना अलग से दिखाई दिया। यह बताता था कि वे भी अपने उत्पाद बना रही हैं। पूर्वी बंगाल में भगिनी निवेदिता गांव गांव में घूम कर राहत कार्यों के साथ साथ औरतों को बता रही थीं कि वे फिर से चर्खा चलाना शुरू करें।

अपने पुराने खो चुके बुनकरी के काम को फिर से शुरू करें। कई जनाना समूहों में तो महिलाओं को चरखा खरीदकर भी दिया गया। स्वर्णकुमारी देवी की सखी समिति का विस्तार बंगाल से बाहर कई राज्यों में हो गया और उनके शिल्पमेले स्वदेशी आंदोलन में भावना व आत्मनिर्भरता दोनों का प्रतीक बनकर सामने आए। स्वदेशी आंदोलन महिलाओं को समूहों में बदलने में कामयाब हुआ। विदेशी माल के बहिष्कार के लिए और अपनी आजीविका के नए स्रोत ढूंढने के लिए अब वे एकजुट होने लगीं। यही वह एकजुटता थी जिससे वे अगले चालीस साल सड़कों पर उतर कर स्वराज की मांग करती रहीं। तो कह सकते हैं कि 19वीं सदी के मध्य से लेकर 20वीं सदी में प्रवेश का महिला शिक्षा का संघर्ष व इतिहास उसका अपना ही नहीं देश की आत्मनिर्भरता के संघर्ष का भी इतिहास है।