लोकतंत्र में न्यायपालिका और कार्यपालिका का पृथक्करण क्यों आवश्यक है? - lokatantr mein nyaayapaalika aur kaaryapaalika ka prthakkaran kyon aavashyak hai?

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लोकतंत्र में न्यायपालिका और कार्यपालिका का पृथक्करण क्यों आवश्यक है? - lokatantr mein nyaayapaalika aur kaaryapaalika ka prthakkaran kyon aavashyak hai?

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शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त (principle of separation of powers) राज्य के सुशासन का एक प्रादर्श (माडल) है। शक्तियों के पृथक्करण के लिये राज्य को भिन्न उत्तरदायित्व वाली कई शाखाओं में विभाजित किया जाता है और प्रत्येक 'शाखा' को अलग-अलग और स्वतंत्र शक्तियाँ प्रदान की जाती हैं। प्रायः यह विभाजन - कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका के रूप में किया जाता है।

शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत फ्रेंच दार्शनिक मान्टेस्कयू ने दिया था। उसके अनुसार राज्य की शक्ति उसके तीन भागों कार्यपालिका, विधानपालिका, तथा न्यायपालिका मे बांट देनी चाहिये। यह सिद्धांत राज्य को सर्वाधिकारवादी होने से बचा सकता है तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है। अमेरिका का संविधान पहला ऐसा संविधान था जिसमें यह सिद्धान्त अपनाया गया था।

अनुक्रम

  • 1 परिचय
  • 2 भारतीय संविधान के सन्दर्भ में शक्ति पृथक्करण
  • 3 इन्हें भी देखें
  • 4 बाहरी कड़ियाँ

परिचय[संपादित करें]

लोकतंत्र में न्यायपालिका और कार्यपालिका का पृथक्करण क्यों आवश्यक है? - lokatantr mein nyaayapaalika aur kaaryapaalika ka prthakkaran kyon aavashyak hai?

भारतीय संविधान

शक्ति का पृथक्करण करना एक मौलिक कार्य है जो सभी राज्यों में किया जाता है। आधारभूत रूप में राज्य के तीन कार्य होते हैं - विधायन, नियमन और नियन्त्रण। इन कार्यों को क्रमशः विधायिका, सरकार और न्यायालय करती हैं। शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त पर ये तीनों इकाइयाँ स्वतः ही पृथक हो जाती है। न तो ये किसी दूसरे के अधीन होते हैं न तो कोई दूसरे के हस्तक्षेप को स्वीकार करता है। खासकर इनके समन्वय के लिए शक्ति सन्तुलन का सिद्धान्त अपनाया जाता है। शक्ति पृथक्करण में शक्ति सन्तुलन का वास्तविक अभ्यास संसदीय शासन प्रणाली में होता है। विधायिका सरकार का गठन करती है तो सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित कर उसे हटा भी सकती है। उसी तरह सरकार विधायिका का विघटन कर नये जनादेश के लिए जनता से अपील कर सकती है। विधायिका न्यायमूर्ति के खिलाफ महाभियोग पारित कर सकती है तो न्यायालय विधायिका के निर्णयों को अवैध घोषित कर सकती है। अमेरिकी गणतंत्र ने राष्ट्रपति को असीमित अधिकार दिया है मगर उस पर महाभियोग पारित करने का विशेषाधिकार संसद् (कांग्रेस) को दिया है।

शक्ति विकेन्द्रीकरण भी एक आधारभूत सिद्धान्त है। इसका अधिक प्रयोग एकात्मक शासन प्रणाली में किया जाता है। संघात्मक शासन प्रणाली में शक्ति स्वतः विभाजित होती है और एकात्मक शासन में शक्ति केन्द्र में निहित होती है। इस लिए राज्य (केन्द्र) अपने स्थानीय क्रियाकलाप के संचालन हेतु केन्द्रीय और स्थानीय इकाइयों को शक्ति विकेन्द्रीत करता है। यद्यपि संघीय शासन का भी प्रादेशिक सरकार अपने स्थानीय इकाइयों को शक्ति का विकेन्द्रीकरण करती है। शक्ति का विभाजन और विकेन्द्रीकरण में मूलभूत अन्तर यह है कि विभाजित शक्ति वापस नहीं होती है लेकिन विकेन्द्रीत शक्ति केन्द्र द्वारा ऐच्छिक समय में वापस लिया जा सकता है।

भारतीय संविधान के सन्दर्भ में शक्ति पृथक्करण[संपादित करें]

भारतीय संविधान मे इसका साफ वर्णन न होकर संकेत मात्र है। इस हेतु संविधान मे तीनो अंगों का पृथक वर्णन है। संसदीय लोकतंत्र होने के कारण भारत मे कार्यपालिका तथा विधायिका मे पूरा अलगाव नहीं हो सका है। कार्यपालिका (मंत्रीपरिषद) विधायिका मे से ही चुनी जाती है तथा उसके निचले सदन के प्रति ही उत्तरदायी होती है। अनुच्छेद 50 के अनुसार कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को पृथक होना चाहिए। इसीलिये 1973 मे दंड प्रक्रिया संहिता पारित की गयी जिस के द्वारा जिला मजिस्ट्रेटों की न्यायिक शक्ति लेकर न्यायिक मजिस्ट्रेटों को दे दी गयी थी।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • शक्ति विकेन्द्रीकरण
  • शक्ति-संतुलन (अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध के सन्दर्भ में)

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • Polybius and the Founding Fathers: the separation of powers
  • Arbitrary Government Described and the Government of the Massachusetts Vindicated from that Aspersion (1644)

भारत में कार्यपालिका से न्यायपालिका के पृथक्करण संबंधी प्रावधानों का उल्लेख कहाँ है?

अनुच्छेद 50 के अनुसार कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को पृथक होना चाहिए।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में शक्तियों का पृथक्करण क्यों आवश्यक है?

शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत: चूँकि किसी भी कानून के निर्माण, उसे लागू करने और प्रशासन के लिये इन तीनों शाखाओं की मंजूरी आवश्यक है, ऐसे में यह व्यवस्था सरकार द्वारा मनमानी या ज़्यादतियों की संभावना को कम करती है। इस व्यवस्था के तहत संवैधानिक सीमांकन के चलते सरकार की किसी भी एक शाखा में शक्ति के एकीकरण को रोका जा सकता है।

पृथक्करण का महत्व क्या है?

शक्ति के पृथक्करण से आशय सरकार के कार्यों (विधायी, कार्यकारी और न्यायिक) का विभाजन है। चूँकि किसी भी कानून के निर्माण, उसे लागू करने और प्रशासन के लिये इन तीनों शाखाओं की मंजूरी आवश्यक है, ऐसे में यह व्यवस्था सरकार द्वारा मनमानी या ज़्यादतियों की संभावना को कम करती है।

पृथक्करण के सिद्धांत को और क्या कहते हैं?

शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत का वास्तविक तथा सुचारू प्रतिपादन फ्रेंच दार्शनिक मान्टेस्कयू द्वारा दिया गया था। यह राज्य के सुशासन के लिए उपयोगी एक तंत्र है। यह सिद्धांत "ट्रायस पॉलिटिका के सिद्धांत" पर आधारित है जो शासन की शक्ति को तीन भागो यथा विधायिका , कार्यपालिका तथा न्यायपालिका में विभाजित करता है।