संप्रभुता से आप क्या समझते हैं - samprabhuta se aap kya samajhate hain

संप्रभुता को हिन्दी में राजसत्ता अथवा प्रभुसत्ता भी कहा जाता है। अंग्रेजी में इसको सावरेन्टी कहा जाता है जो लैटिन भाषा के 'सुप्रेनस' (Suprenus) शब्द से निकला है जिसका अर्थ सर्वोच्च शक्ति होता है। राजसत्ता, राज्य का विशेष लक्षण होता है और राज्य को बनाने वाले चार तत्त्वों में से सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व है।

samprabhuta meaning in hindi;संप्रभुता राज्य की सर्वोच्च इच्छा शक्ति का दूसरा नाम है। राज्य के सभी व्यक्ति और संस्थाएं संप्रभुता के अधीन है। संप्रभुता बाहरी तथा आंतरिक दोनों दृष्टि से सर्वोपरारि होति है। 

सम्प्रभुता से तात्पर्य राज्य की उस शक्ति से है, जिसके कारण राज्य अपनी सीमाओं के अंतर्गत कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र है। राज्य के अंदर कोई भी व्यक्ति अथवा समुदाय राज्य के ऊपर नही है। बाहरी दृष्टि से संप्रभुता का अर्थ है राज्य किसी बाहरी सत्ता के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष नियंत्रण से स्वतंत्र होता है। 

राज्य के आवश्यक तत्वों में संप्रभुता सबसे अधिक महत्वपूर्ण तत्व हैं। इसके कारण ही राज्य को अन्य संस्थाओं से अलग विशिष्ट स्थान प्राप्त होता हैं। राज्य के तीन अन्य तत्व तो दूसरे संगठनों में भी पाये जा सकते हैं, किन्तु संप्रभुता केवल राज्य का ही तत्व हैं।

प्रभुसत्ता या संप्रभुता की संकल्पना राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में अपनी विशेष महत्ता रखती हैं। यूनान के विचारक इस शब्द से परिचित नही थे। हम इस तथ्य को देख सकते है कि अरस्तु ने राज्य की 'सर्वोच्च शक्ति' पदबन्ध का प्रयोग भिन्न अर्थ में किया। मध्य युग में विधिविदों, धर्माचार्यों तथा अन्य लेखकों ने राज्य की सर्वोच्च शक्ति अथवा राज्य की परम सत्ता जैसी शब्दावली का उससे भिन्न अर्थ में किया जो अब सम 'संप्रभुता' शब्द के बारे में लगाते है। इस शब्द का प्रयोग करने तथा इसे परिभाषित करने का श्रेय फ्रांस के जीन बोंदा को प्राप्त है जिसने 1576 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में एक फ्रेंच शब्द सोवरेनिटे का प्रयोग किया जिसका अंग्रेजी समानार्थक शब्द सोवारेनटी बना। उसके शब्दों में, प्रभुसत्ता नागरिकों तथा प्रजाननों पर राज्य की सर्वोच्च शक्ति हैं जो कानून के नियंत्रण से परे हैं।

संप्रभुता की परिभाषा (samprabhuta ki paribhasha)

बोदां के अनुसार " संप्रभुता राज्य की अपनी प्रजा तथा नागरिकों के ऊपर वह सर्वोच्च सत्ता है जिस पर किसी विधान का प्रतिबंध नही है। "

ग्रोसियस के अनुसार " सम्प्रभुता किसी को मिली हुई वह सर्वोच्च शक्ति है जिसके ऊपर कोई प्रतिबंध नही है, और जिसकी इच्छा की उपेक्षा कोई नही कर सकता है। 

सोल्टाऊ के अनुसार " राज्य द्वारा शासन करने की सर्वोच्च कानूनी शक्ति सम्प्रभुता है। " 

बर्गेस के अनुसार " राज्य के सब व्यक्तियों व व्यक्तियों के समुदायों के ऊपर जो मौलिक, सम्पूर्ण और असीम शक्ति है, वही संप्रभुता है।" 

डुग्वी के शब्दों मे " सम्प्रभुता राज्य की वह सर्वोच्च शक्ति है जो राज्य-सीमा क्षेत्र मे निवास करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी बन्धन के आज्ञा प्रदान करती है। 

विलोबी के अनुसार," प्रभुसत्ता राज्य की सर्वोत्तम इच्छा होती हैं।" 

जेंक्स के अनुसार," सम्प्रभुता वह अन्तिम व अमर्यादित अधिकार है जिसकी इच्छा द्वारा ही नागरिक कुछ कर सकते हैं। 

पोलक के अनुसार," प्रभुसत्ता वह शक्ति है जो न तो अस्थायी होती है, न किसी अन्य द्वारा प्रदान की हुई होती हैं, न किन्ही ऐसे विशिष्ट नियमों द्वारा बंधी हुई होती है जिन्हें वह स्वयं न बदल सके और न जो पृथ्वी पर अन्य किसी शक्ति के प्रति उत्तरदायी होती हैं। 

लास्की के अनुसार," राज्य अपने प्रदेश में स्थित सभी व्यक्तियों तथा व्यक्ति-समुदाय को आदेश देता है परन्तु वह इनमें से किसी के द्वारा आदेश प्राप्त नहीं करता।" 

प्रभुसत्ता संबंधी उपर्युक्त परिभाषाओं का सार यही हैं कि एक निश्चित क्षेत्र में राज्य की सर्वोपरि शक्ति होती हैं। किन्तु इनमें से अधिकांश परिभाषाएं एक पक्षीय हैं। वे प्रभुसत्ता के केवल एक पक्ष-आन्तरिक प्रभुसत्ता का ही विमोचन करती हैं, जबकि प्रभुसत्ता के दो पक्ष-आन्तरिक प्रभुसत्ता तथा बाहरी प्रभुसत्ता होते हैं। यहाँ प्रभुसत्ता के दोनों पक्षों पर संक्षिप्त विचार किया जा सकता है--

आंतरिक संप्रभुता 

आंतरिक संप्रभुता से तात्पर्य केवल इतना है कि राज्य की भौगोलिक सीमा में निवास करने वाले कोई भी व्यक्ति समुदाय वं संगठन, चाहे वे कितने ही बड़े, पुराने व शक्तिशाली क्यों न हो, राज्य की संप्रभुता के ऊपर नही हो सकते। 

लास्की ने लिखा है कि," राज्य प्रदेश के सभी मनुष्य व समुदायों को आज्ञा प्रदान करता है और उसे इनमें से कोई भी आज्ञा नहीं देता। 

गार्नर के शब्दों में," संप्रभुता राज्य के संपूर्ण क्षेत्र में विस्तृत होती है और एक राज्य के अंतर्गत स्थित सभी व्यक्ति और समुदाय इनके अधीन होते हैं।"

बाहरी संप्रभुता 

प्रभुसत्ता के बाहरी पक्ष से तात्पर्य यह है कि कोई भी संप्रभु राज्य अपनी विदेश नीति बनाने व विदेशों से संबंध स्थापित करने में पूर्णतः स्वतंत्र होता हैं। लास्की प्रभुसत्ता को स्वतंत्र राष्ट्रों की इच्छा व्यक्त करने वाली शक्ति बतलाता हैं, जिस पर किसी बाहरी शक्ति का कोई प्रभाव पड़ने की आवश्यकता नही हैं। 

निष्कर्ष 

प्रभुसत्ता या संप्रभुता राज्य की वह सर्वोच्च शक्ति हैं जिसके द्वारा राज्य के निश्चित क्षेत्र के अंतर्गत स्थित सभी व्यक्तियों एवं समुदायों पर नियंत्रण रखा जाता है और जिसके फलस्वरूप एक राज्य अपने ही समान अन्य राज्यों के साथ संबंध स्थापित कर सकता हैं।

संप्रभुता की विशेषताएं या लक्षण (samprabhuta ki visheshta)

संप्रभुता की विशेषताएं निम्नलिखित हैं--

1. असीमता 

सम्प्रभुता का पहला और अंतिम लक्षण उसका सर्वोच्च और असीम होना है। राज्य की संप्रभुता निरंकुश और असीम होती है। इसका तात्पर्य यह है कि वह विधि के द्वारा भी सीमित नही की जा सकती है। संप्रभुता के ऊपर अन्य किसी शक्ति का प्रभुत्व या नियंत्रण नही होता है। वह आन्तरिक और बाहरी विषयों मे पूर्णतया स्वतंत्र है। वह किसी अन्य शक्ति की आज्ञाओं का पालन करने के लिये बाध्य नही है, वरन् देश के अंतर्गत निवास करने वाले समस्त व्यक्ति उसकी आज्ञाओं का पालन करते है। यदि कोई शक्ति संप्रभुता को सीमित करती है तो सीमित करने वाली शक्ति ही संप्रभुता बन जाती है।

2. स्थायित्व 

संप्रभुता कुछ समय के लिए रहती है और कुछ समय के लिए नही रहती ऐसा नही होता। राज्य की संप्रभुता मे स्थायित्व होता है। प्रजातांत्रिक राज्यों मे सरकार के बदलने से संप्रभुता पर कोई अंतर नही आता क्योंकि संप्रभुता राज्य का गुण है सरकार का नही। संप्रभुता के अंत का अभिप्राय राज्य के अंत से होता है।

3. मौलिकता 

संप्रभुता की तीसरी विशेषता यह की संप्रभुता राज्य की मौलिक शक्ति है अर्थात् उसे यह शक्ति किसी अन्य से प्राप्त नही होती, बल्कि राज्य स्वयं अर्जित करता है और स्वयं ही उसका प्रयोग भी करता है। जबकि संप्रभुता ही सर्वोच्च शक्ति होती है। वह न तो किसी को दी जा सकती है और न ही किसी से ली जा सकती है।

4. सर्वव्यापकता 

देश की समस्त शक्ति एवं मानव समुदाय संप्रभुता की अधीनता मे निवास करते है। कोई भी व्यक्ति इसके नियंत्रण से मुक्त होने का दावा नही कर सकता। राज्य अपनी इच्छा से किसी व्यक्ति विशेष को कुछ विशेष अधिकार प्रदान कर सकता है अथवा किसी प्रान्त को स्वायत्त-शासन का अधिकार दे सकता है। राज्य विदेशी राजदूतों से विदेशी राजाओं को राज्योत्तर संप्रभुता प्रदान करता है, किन्तु इससे राज्य के अधिकार व उसकी शक्ति परिसीमित नही हो जाती। वह ऐसा करने के उपरांत भी उतना ही व्यापक है जितना कि वह इससे पूर्व था।

5. अदेयता 

संप्रभुता चूँकि अखण्ड और असीम होती है, इसलिए यह किसी और को नहीं सौंपी जा सकती। यदि प्रभुसत्तासम्पन्न राज्य अपनी संप्रभुता किसी और को हस्तान्तरित करना चाहे तो उसका अपना अस्तित्व ही मिट जायेगा। 

दूसरे शब्दों में, राज्य के हाथ से संप्रभुता निकल जाने पर वह राज्य ही न रह जायेगा। यदि एक राज्य अपने क्षेत्र का कोई हिस्सा किसी राज्य को अर्पित कर देता है तो उस हिस्से पर उसकी से अपनी संप्रभुता समाप्त हो जाएगी और दूसरे राज्य की संप्रभुता स्थापित हो जाएगी। यदि कोई संप्रसत्ताधारी सिंहासन या सत्ता का त्याग करता है तो ऐसी हालात में सरकार बदल जाती है, संप्रभुता का स्थान नहीं बदलता। 

गार्नर ने कहा है कि," सम्प्रभुता राज्य का व्यक्तित्व और उसकी आत्मा है। जिस प्रकार मनुष्य का व्यक्तित्व अदेय है और वह उसे किसी दूसरे को नहीं दे सकता, इसी प्रकार राज्य की सम्प्रभुता भी किसी अन्य को नहीं दी जा सकती।" 

रूसो कहता है कि," प्रभुसत्ता में सामान्य इच्छा का अनुष्ठान होने के कारण उसका भी विच्छेद नहीं किया जा सकता ... ..शक्ति हस्तान्तरित की जा सकती है, पर इच्छा नहीं।" 

लीवर ने कहा है, " जिस प्रकार आत्महत्या के बिना मनुष्य अपने जीवन को या वृक्ष अपने फलने-फूलने के गुण को पृथक् नहीं कर सकता है, उसी प्रकार प्रभुसत्ता को भी राज्य से पृथक् नहीं किया जा सकता है।"

6. अविभाज्यता

 संप्रभुता चूंकि पूर्ण और सर्वव्यापक होती है, इसलिए इसके टुकड़े नहीं किए जा सकते। यदि संप्रभुता के टुकड़े कर दिए जाएँ तो राज्य के भी टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगें। अन्य समूह या संस्थाएँ अपने सदस्यों के सन्दर्भ में जिस सत्ता का प्रयोग करती हैं, वह उन्हें राज्य की संप्रभुता में से काटकर नहीं दी जाती, बल्कि वह राज्य की प्रभुसत्ता की देन होती है। राज्य की प्रभुसत्ता के सामने अन्य सब व्यक्तियों और संस्थाओं की सत्ता गौण होती है। संघीय व्यवस्था (Federal System) के अन्तर्गत भी संप्रभुता संघ और इकाइयों में बँट नहीं जाती बल्कि निर्दिष्ट विषयों के सन्दर्भ में उनके अधिकार क्षेत्र बंटे होते हैं। अधिकार क्षेत्रों का यह वितरण या उनमें कोई संशोधन भी प्रभुसत्ता के प्रयोग से ही सम्भव होता है। 

काल्होन के अनुसार, " सर्वोच्च सत्ता एक पूर्ण वस्तु है। इसको विभक्त करना, इसको नष्ट करना है। यह राज्य की सर्वोच्च शक्ति है। जिस प्रकार हम अर्द्ध वर्ग अथवा अर्द्ध-त्रिभुज की कल्पना नहीं कर सकते, उसी प्रकार अर्द्ध सर्वोच्च सत्ता की भी कल्पना नहीं की जा सकती है।" 

गेटेल ने भी कहा है, " अगर संप्रभुता पूर्ण नहीं होती है तो किसी भी राज्य का अस्तित्व नहीं रह सकता अगर प्रभुसत्ता विभाजित है, तो इसका अर्थ एक से अधिक राज्यों का अस्तित्व है। 

7. अनन्यता 

संप्रभुता अनन्य मानी गई है। इसका अर्थ यह है कि राज्य मे केवल एक ही संप्रभुता शक्ति हो सकती है, दो नही। संप्रभुता का अपने क्षेत्र मे कोई प्रतिद्वंद्वी नही होता है। क्योंकि यदि एक राज्य में दो प्रभुसत्ताधारी (Sovereign) मान लिये जाएँ तो उससे राज्यों की एकता नष्ट हो जाती है। एक प्रभुत्वसम्पन्न राज्य (Sovereign State) के अन्दर दूसरा प्रभुत्व सम्पन्न राज्य नही रह सकता।

संप्रभुता एक नजर ऐतिहासिक संदर्भ  पर

सामन्ती और धार्मिक अस्पष्टता के कारण दुविधा उत्पन्न हुई। इसके कारण उत्पन्न गड़बड़ी से जिस धर्म निरपेक्ष राजतंत्र का उदय हुआ उसी में संप्रभुता की आधुनिक अवधारणा ने अलग स्वरूप ग्रहण किया। इस सिद्धांत को प्रमुख रूप से बोदिन, हॉब्स और ऑस्टिन ने प्रतिपादित किया। उन्होंने जो सैद्धान्तिक अवधारणाएँ प्रस्तुत की उनमें संप्रभुता की "एकात्मवादी" संकल्पना के महत्व को पूरी तरह नहीं आँका। इसमें सर्वोच्च सत्ता एक केन्द्रीय प्राधिकार को सौंपी गयी जिसे कानून बनाने का सर्वोच्च अधिकार था। समाज के अन्य सभी संघ राज्य के संप्रभु सत्ता के अधीन होते हैं। यहाँ हम बोदिन, हॉब्स और ऑस्टिन द्वारा प्रतिपादित विशिष्ट सिद्धान्तों पर विचार करेंग-- 

बोदिन का संप्रभुता सिद्धांत 

बोदिन और हॉब्स की रचनाओं और लेखों में संप्रभुता के आधुनिक सिद्धान्त के निहित हैं। बोदिन ने "कानून" को संप्रभुता का आदेश कहा है। उनके अनुसार संप्रभुता संपूर्ण होती है, उसकी कोई सीमा नहीं होती, इसका पहला अधिकार सभी प्रजाजनों को उनकी सहमति लिए बिना ही, कानून देना होता है। यह संपूर्ण और सतत् प्राधिकार का परिचायक होता है, ऐसा प्राधिकार जो न तो अस्थायी होता है, न दूसरे को सौंपा जा सकता है, न किसी ऐसे नियम के अधीन होता है जिसे वह बदल न सकता हो और न वह पृथ्वी पर किसी अन्य प्राधिकार या सत्ता के प्रति उत्तरदायी होता है। बोदिन का यह भी कहना था कि संप्रभुता सम्पन्न शासक स्वयं अपने बनाए हुए नियमों से भी ऊपर होता है। लेकिन उसने यह स्वीकार किया है कि वह "दैवी विधान", "प्रकृति के नियम" और राष्ट्रों के कानून से बंधा हुआ है ये ऐसे विचार हैं जिन्हें बोदिन ने स्पष्ट रूप में परिभाषित नहीं किया है। 

उस समय धार्मिक और राजनीतिक प्राधिकरणों के बीच संघर्ष चल रहा था। बोदिन राज्य के प्राधिकार को इस संघर्ष से ऊपर रखना चाहता था, क्योंकि वह यह महसूस करता था कि धार्मिक प्राधिकार के बराबर हस्तक्षेप से राज्य का प्राधिकार कमजोर हो गया है। इसलिए एक समुदाय विशेष में सर्वप्रमुख राजनीतिक संस्था के रूप में राज्य की सर्वोच्चता स्थापित करने के लिए ही बोदिन ने संप्रभुता का एक विशिष्ट सिद्धान्त प्रतिपादित किया बोदिन का कहता है कि," संप्रभुता नागरिकों और प्रजाजनों के ऊपर की सर्वोच्च सत्ता है, जो कानून की सीमाओं से बाधित नहीं होती।"

आइए अब हम हॉब्स के "संप्रभुता  के सिद्धांत' पर विचार करते हैं।

हाॅब्स का संप्रभुता सिद्धांत 

"संप्रभुता" की परिभाषा करते हुए हॉब्स ने इसे ऐसा व्यक्ति या ऐसी सभा कहा है जिसका आदेश माना ही जाए। अपनी कृति "लेवियाथन" में "संप्रभुता" के सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुए इस आशय की बात कही है कि राज्य को एकजुट रखने के लिए, संप्रभुता सम्पन्न शासक की इच्छा की सर्वोच्चता अनिवार्य मानी गई है। उनका मत है कि इंग्लैंड के गृह युद्ध में धार्मिक और राजनीतिक वर्गों के झगड़ों से मुक्ति दिलाने वाले के रूप में धर्म-निरपेक्ष शासक सत्ता में आया हॉब्स ने लिखा है," हमारा राजा हमारे लिए विधायक है- साविधिक कानून का और सामान्य कानून का भी; तथा समस्त चर्च सरकार, राज्य पर और राज्य की सत्ता पर निर्भर करती है जिसके बिना चर्च में एकता नहीं हो सकती।" 

इस तरह हॉब्स द्वारा प्रतिपादित संप्रभुता के सिद्धांत में संप्रभुता के एकात्मवादी सिद्धांत को अपेक्षाकृत अधिक प्रखर रूप मिला; विशेष रूप से इस दृष्टि से कि एक राज्य में सर्वोच्च प्राधिकार कहां या किसमें निहित हैं? इसके अनुसार विभिन्न प्रकार की वफादारियों और परस्पर विरोधी क्षेत्राधिकारों को एक सामान्य नियंत्रण के अधीन संगठित करना होगा और ऐसा करके राजनीतिक समुदाय में जनता के सामान्य हित कल्याण को सुनिश्चित करना होगा। इससे यह संकेत मिला है कि धर्म निरपेक्ष शासक के नियंत्रण में अराजकता के स्थान पर व्यवस्था आएग। असल में हॉब्स का विचार यह स्थापित करना था कि एक बार अगर लोग राज्य के आधारभूत कानूनों को स्वीकार कर लें तो संप्रभुता सम्पन्न शासक को प्रजाजनों पर शासन करने का सहज स्वाभाविक और अहरणीय अधिकार होता है। 

ऑस्टिन का संप्रभुता सिद्धांत 

संप्रभुता के विषय में जान ऑस्टिन के विचार मौटे तौर पर हॉब्स के विचारों पर ही आधारित हैं। ऑस्टिन के अनुसार, एक वरिष्ठ द्वारा कनिष्ठ को दिया गया "आदेश" ही कानून है। ऑस्टिन ने निम्नलिखित शब्दों में संप्रभुता के सिद्धांत को प्रस्तुत किया है--

"अगर किसी विशिष्ट समाज के अधिकांश लोग किसी व्यक्ति विशेष की आज्ञा का पालन सहज रूप में करते हों और वह व्यक्ति विशेष अपने स्वभाव से अपने समकक्ष किसी अन्य श्रेष्ठ व्यक्ति की आज्ञा का पालन न करता हो, तो वह व्यक्ति विशेष अपने उस समाज में संप्रभुता संपन्न होता है।"

ऑस्टिन की कृति "लेक्चर्स आन जूरिसप्रूडेंस" (विधिशास्त्र पर व्याख्यान) से निम्नलिखित बातें सामने आती हैं--

1. समस्त सृजनात्मक कानून का स्रोत एक निश्चित संप्रभुता सम्पन्न प्राधिकरण होता है जो प्रत्येक स्वतंत्र राजनीतिक समुदाय में विद्यमान रहता है। इसमें वस्तुतः और विधितः सर्वोच्च प्राधिकार निहित रहता है जबकि यह स्वयं किसी निश्चित कानून की सीमा में बंधा नहीं होता। 

2. कानून एक ऐसा आदेश है जो नागरिकों के आचरण के सामान्य नियम निर्धारित करता है। अगर इन आदेशों का उल्लंघन हो तो संप्रभुता सम्पन्न शासक की शक्तियाँ यानी पाबन्दियाँ लागू होंगी। 

3. समुदाय के अधिकांश लोग सामान्यतः और सहज रूप में संप्रभुता सम्पन्न शासक की आज्ञा का पालन करते हैं। इस तरह संप्रभुता सम्पन्न शासक की आज्ञा का बिना किसी हस्तक्षेप के नियमित रूप से और हमेशा पालन होता है। शब्द "सहज" या "स्वाभाविक" से मतलब यह है कि संप्रभुता सम्पन्न शासक ऐसा वैध प्राधिकरण या सत्ता है जिसकी आज्ञा का बिना बल प्रयोग के नियमित रूप से पालन किया जाता है। 

4. संप्रभुता सम्पन्न अधिकार अविभाज्य होता है। संप्रभुता के खण्डन का अर्थ होता है संप्रभुता का विनाश जिससे राज्य का पतन हो जाता है। 

5. संप्रभुता निश्चित और ठोस होती है, यह सूक्ष्म, अशरीरी या अस्पष्ट अस्तित्व नहीं है।

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सम्प्रभुता से आप क्या समझते है?

क्या इसका मतलब किसी सर्वोच्च वैधानिक प्राधिकार से होता है या फिर इसका संबंध एक ऐसी राजनीतिक सत्ता से है जिसे चुनौती न दी जा सके? सम्प्रभुता के अर्थ संबंधी इसी तरह के विवादों के कारण उन्नीसवीं सदी से ही इसे दो भागों में बाँट कर समझा जाता रहा है : विधिक सम्प्रभुता और राजनीतिक सम्प्रभुता।

संप्रभुता कितने प्रकार की होती है?

संप्रभुता के प्रकार या स्वरूप.
नाममात्र की अथवा वास्तविक संप्रभुता.
कानूनी और राजनीतिक संप्रभुता.
लोकप्रिय संप्रभुता.
यथार्थ संप्रभुता.
विधि-सम्मत और वास्तविक संप्रभुता.
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संप्रभुता की विशेषताएं क्या क्या है?

संप्रभुता (Sovereignty) की इस विशेषता का रूसो ने पर्याप्त समर्थन किया है। रूसो के अनुसार, “शक्ति स्थानांतरित की जा सकती है पर इच्छा नहीं है।” गार्नर के अनुसार, “राज्य अपने को नष्ट किए बिना प्रभुसत्ता को किसी दूसरे को नहीं सौंप सकता। प्रभुसत्ता को त्यागना आत्महत्या के समान है।”

संप्रभुता के जनक कौन है?

जीन बोंदा ने 1756 में अपनी किताब Six Book Concerning Republic में संप्रभुता शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया था। उन्होंने फ्रांसीसी राजा की ताकत को और को मजबूत करने के लिए संप्रभुता की नई अवधारणा का प्रयोग किया था। किसी राज्य की सर्वोच्च सत्ता संप्रभुता कहलाती है।