संप्रभुता के सिद्धांत के जनक कौन है? - samprabhuta ke siddhaant ke janak kaun hai?

B.A. I, Political Science I / 2021

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प्रश्न 11. बहुलवादी किन आधारों पर राज्य के प्रभुसत्ता सम्बन्धी परम्परागत सिद्धान्त का खण्डन करते हैं ? उनका दृष्टिकोण कहाँ तक उचित है ?

अथवा ''ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त की बहुलवादी आलोचना कीजिए तथा सम्प्रभुता के बहुलवादी सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।

अथवा ''प्रभुसत्ता के बहुलवादी सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। सम्प्रभुता का बहुलवादी दृष्टिकोण कहाँ तक व्यावहारिक है ?

अथवा "यदि सम्प्रभुता का सारा विचार ही सदैव के लिए समाप्त कर दिया जाए तो राजनीति विज्ञान के प्रति यह एक बहुत बड़ी सेवा होगी।" लास्की के इस कथन को स्पष्ट कीजिए और आलोचना कीजिए।

उत्तर -सम्प्रभुता की अद्वैतवादिता की धारणा के विरुद्ध जिस विचारधारा का उदय हुआ, उसे हम राजनीतिक बहुलवाद या बहुसमुदायवाद कहते हैं। इस प्रकार बहुलवाद को सम्प्रभुता की अद्वैतवादी धारणा के विरुद्ध एक ऐसी प्रतिक्रिया कहा जा सकता है जो यद्यपि राज्य के अस्तित्व को बनाए रखना चाहती है, किन्तु राज्य की सम्प्रभुता का अन्त करना श्रेयस्कर मानती है।

इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक लास्की, बार्कर, ड्यूगी, कोल, मैकाइवर आदि हैं। लास्की पहला विद्वान् था जिसने 'Pluralism' अर्थात् 'बहुलवाद' शब्द का प्रयोग किया। इस विचारधारा के अनुसार राजसत्ता सम्प्रभु और निरंकुश नहीं है। इनके अनुसार समाज में विद्यमान अन्य अनेक समुदायों का अस्तित्व राजसत्ता को सीमित कर देता है । व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए केवल राज्य कीही सदस्यता स्वीकार नहीं करता, वरन् राज्य के साथ-साथ दूसरे अन्य समुदायों की भी सदस्यता को स्वीकार करता है। ऐसी स्थिति में एकमात्र राज्य को सम्पूर्ण सत्ता प्रदान नहीं की जा सकती। हेसियो के शब्दों में,“बहुलवादी राज्य एक ऐसा राज्य है जिसमें सत्ता का केवल एक ही स्रोत नहीं है, यह विभिन्न क्षेत्रों में विभाजनीय है और से विभाजित किया जाना चाहिए।" 

संप्रभुता के सिद्धांत के जनक कौन है? - samprabhuta ke siddhaant ke janak kaun hai?


ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त की बहुलवादी आलोचना

बहुलवादी विचारकों ने अनेक आधारों पर सम्प्रभुता के परम्परागत सिद्धान्त (गॉस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त) का खण्डन किया है। उनके द्वारा सम्प्रभुता के परपरागत सिद्धान्त पर प्रमुख रूप से निम्नलिखित आक्षेप किए गए हैं

(1) समाज की वर्तमान स्थिति के आधार पर- 

बहुलवादियों के अनुसार समाज की वर्तमान स्थिति इस प्रकार की है कि अकेला राज्य मानवीय जीवन की विविध आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ है ।

लास्की विचारो मे, आवश्यकताओं को दृष्टि से पूर्ण होने के लिए सामाजिक संगठन के ढांचो का स्वरूप संघीय होना चाहिए।"

वर्तमान स्थिति में अन्य समुदाय भी राज्य के समान ही और कुछ अंशों में तो उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली हैं। राज्य द्वारा प्रमुख रूप से राजनीतिक क्षेत्र में कार्य किए जाते हैं और अन्य समुदायों द्वारा सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और मनोरंजन सम्बन्धी कार्य किए जाते हैं। इनमें से बहुत-से समुदाय तो राज्य से भी पूर्व मानव की आवश्यकताओं को पूर्ण करते थे। इसलिए समुदाय भी राज्य से कम महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य नहीं है।

(2) ऐतिहासिक दृष्टिकोण के आधार पर - 

बहुलवादियों के अनुसार इतिहास इस बात का साक्षी है कि ऑस्टिन के पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राज्य की सत्ता कभी नहीं रही। प्राचीन काल में भारत अथवा यूनान में इस प्रकार कोई राज्य नहीं था। प्राचीन भारत में धर्म का स्थान राजा की आज्ञा से ऊपर था । मध्यकालीन राज्यों पर भी अनेक प्रकार के धार्मिक और सामाजिक बन्धन हुआ करते थे। अतः ऐतिहासिक दृष्टि से भी कहा जा सकता है कि सम्प्रभुता का सिद्धान्त राज्य के लिए आवश्यक नहीं है।

(3) कानून के स्वरूप के आधार पर -

ऑस्टिन ने कानून का एकमात्र स्रोत राज्य को माना था और यह कहा था कि कानून सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य का आदेश मात्र होता है। किन्तु सर हेनरी मेन, डिग्विट, क्रैब आदि विद्वानों ने कानून के स्वरूप की गहराईके साथ व्याख्या करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि कानून के विभिन्न स्रोत हैं। राज्य तो केवल उनको घोषित करके मान्यता प्रदान करता है। अतः राज्य को कानून का निर्माता और कानून से उच्च समझना सर्वथा भ्रान्त कल्पना है और इसके आधार पर राज्य को प्रभुसत्ता सम्पन्न मानना यथार्थ एवं सत्य नहीं है।

(4) व्यक्ति के विकास के आधार पर - 

बहुलवादियों के अनुसार सम्प्रभुता का विचार व्यक्ति के विकास में बाधक है,क्योंकि यह राज्य को चरम साध्य और व्यक्ति को साधन मात्र बना देता है,जो वास्तविक स्थिति के नितान्त विपरीत है।

बहुलवादियों के अनुसार व्यक्ति को अपने बहुमखी विकास के लिए राज्य के साथ समुदायों के प्रति भी आस्था रखनी पड़ती है। ऐसी स्थिति में राज्य ही प्रभुसत्ताधारी कैसे हो सकता है। लास्की के शब्दों में,  मैं केवल उसी राज्य के प्रति राजभक्ति और निष्ठा रखता हूँ, उसी के आदेशों का पालन करता हूँ,जिस राज्य में मेरा नैतिक विकास पर्याप्त रूप से होता है। मेरा प्रथम कर्तव्य अपने अन्तकरण के प्रति सच्चा रहना है।"

(5) लोकतन्त्र के आधार पर -

सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य में नहीं, वरन् बहुलवादी व्यवस्था में ही सम्भव है। वर्तमान लोकतन्त्र में वास्तविक शासन नौकरशाल चलाती है,जनता नहीं । सच्चे लोकतन्त्र की व्यवस्था तो बहुलवादी समाज में ही हो सकती है, जो विकेन्द्रीकरण पर बल देती है। सत्ता का विकेन्द्रीकरण होने पर ही व्यक्ति शासन के कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेता है।

(6) अन्तर्राष्ट्रीयता के आधार पर -

बहुलवादेयों के अनुसार सम्प्रभुता का सिद्धान्त ही संघर्षों एवं युद्धों का जनक है और विश्व-शान्ति बनाए रखने के लिए सम्प्रभुता के सिद्धान्त का त्याग एक अनिवार्य आवश्यकता है। लास्की सम्प्रभुता की धारणा को अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के लिए बहुत अधिक भयावह मानता है। उसके शब्दों में, “असीमित एवं अनुत्तरदायी सम्प्रभुता का सिद्धान्त मानवता के हितों से मेल नहीं खाता और जिस प्रकार राजाओं के दैवी अधिकार समाप्त हो गए, वैसे ही राज्य की सम्प्रभुता भी समाप्त हो जाएगी। यदि सम्प्रभुता का सारा विचार ही सदैव के लिए समाप्त कर दिया जाए, तो राजनीति विज्ञान के प्रति यह एक बहुत बड़ी सेवा होगी।"

बहुलवाद के सिद्धान्त

बहुलवाद के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं

(1) राज्य केवल एक समुदाय है - 

आदर्शवादियों की भाँति बहुलवादी राज्य को सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान तथा नैतिक संस्था के रूप में स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार समाज की वर्तमान स्थिति और रचना के आधार पर राज्य अन्य समुदायों की भाँति ही एक समुदाय के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।

 (2) बहुलवादी राज्य और समाज में अन्तर करते हैं -

आदर्शवादियों की भाँति बहुलवादी राज्य और समाज को एक नहीं मानते हैं। वे उन्हें विभिन्न इकाइयों के रूप रखीकार करते हैं।

(3) बहुलवादी नियन्त्रित राज्य सभा में विश्वास करते हैं - 

बहुलवाद असीमित पभुता के सिद्धान्त के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है। यह असीमित प्रभुसत्ता का खण्डन करता है और आन्तरिक व बाह्य,दोनों ही क्षेत्रों में सम्प्रभुता को सीमित करता है।

(4) बहुलवाद के अनुसार कानून राज्य से स्वतन्त्र और उच्च है - 

बहुलवादी सम्पभुता के परम्परागत प्रतिपादकों के विपरीत कानून को राज्य से स्वतन्त्र और उच्च मानते हैं। विधि राज्य को सीमित करती है,राज्य विधि को सीमित नहीं करता।

(5) बहुलवादी विकेन्द्रीकरण में विश्वास करते हैं -

आदर्शवादी दर्शन की भाँति बहुलवादी दर्शन भी केन्द्रित राज्य में विश्वास नहीं करता,वरन् वह विकेन्द्रीकरण को ही राज्य की वास्तविक उपयोगिता का आधार मानता है। बहुलवाद के अनुसार स्थानीय शासन केन्द्रीकरण की पद्धति से नहीं किया जा सकता है।

(6) बहुलवाद राज्य के अस्तित्व का विरोधी नहीं है -

बहुलवादी राज्य की निरंकुश सत्ता का तो खण्डन करते हैं,किन्तु अराजकतावाद या साम्यवाद की भाँति वे उनको समूल नष्ट करने के पक्ष में नहीं हैं। राज्य का अन्त करने के स्थान पर वे राज्य की शक्तियों को सीमित करना चाहते हैं।

(7) बहुलवाद एक जनतन्त्रात्मक विचारधारा है - 

बहुलवाद राज्य के वर्तमान स्वरूप का विरोधी होने पर भी जनतन्त्रात्मक विरोधी नहीं है। बहुलवाद अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कहीं भी हिंसात्मक प्रणाली का प्रयोग स्वीकार नहीं करता है। वास्तव में बहुलवाद का उद्देश्य तो सर्वाधिकारवादी राज्य के स्थान पर एक ऐसे जनतन्त्रात्मक राज्य की स्थापना करना है जिसमें शासन व्यवस्था का संगठन नीचे से ऊपर की ओर हो।

(8) बहुलवाद व्यावसायिक प्रतिनिधित्व में विश्वास करता है - 

बहुलवादी विचारक जी. डी. एच. कोल प्रजातन्त्र में व्यावसायिक प्रतिनिधित्व के विशेष समर्थक हैं। प्रतिनिधित्व की वही पद्धति उचित कही जा सकती है जिसका आधार व्यवसाय हो । एक कृषक के हित का प्रतिनिधित्व उसके पास रहने वाला वकील उतनी अच्छी प्रकार से नहीं कर सकता जितना कि दूर स्थित क्षेत्र का निवासी एक कृषक,जो उसकी कठिनाइयों को समझता है। इसी कारण बहुलवादियों के अनुसार चुनाव क्षेत्र व्यवसाय के आधार पर ही निश्चित किए जाने चाहिए।

बहुलवाद की आलोचना

बहुलवाद की अग्रलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है

 (1) बहुलवाद का तार्किक निष्कर्ष अराजकतावाद है - 

'बहुलवाद के विरुद्ध आलोचना का सबसे प्रमुख आधार यह है कि बहुलवादी विचारधारा को स्वीकार करने का स्वाभाविक परिणाम अराजकता की स्थिति होगी। यदि प्रत्येक समुदाय को राज्य के समान मान लिया जाए और उसे सम्प्रभुता का आनुपातिक अधिकार भी समर्पित कर दिया जाए, तो समाज में कानून विहीन स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।

(2) बहुलवाद कतिपय प्रामक धारणाओं पर आधारित है - 

बहुलवाद कुछ मिथ्या धारणाओं पर आधारित है। यह समझना गलत है कि प्रत्येक समुदाय का कार्यक्षेत्र एक-दूसरे से पृथक् होता है और मानवीय कार्यों को ऐसे विभागों में विभक्त किया जा सकता है जिनका कि दूसरों के साथ कोई सम्बन्ध न हो । समाज के वर्तमान संगठन में विभिन्न हित और आस्थाओं का पारस्परिक संघर्ष नितान्त आवश्यक है। ऐसी स्थिति में यदि समाज में कोई अन्तिम वैधानिक सत्ता न हो,तो विभिन्न समुदायों के पारस्परिक संघर्ष के कारण एक अस्वस्थ वातावरण उत्पन्न हो जाएगा, जिसमें मानवीय प्रगति लगभग असम्भव हो जाएगी।

(3) सभी समुदाय समान स्तर के नहीं हैं - 

बहुलवाद के विरुद्ध एक महत्त्वपूर्ण तर्क यह है कि इस विचारधारा में समाज के सभी समुदायों को समान स्तर का मान लिया गया है। प्रत्येक समुदाय को राज्य के समान मान लेना बहुलवादियों की एक भारी भूल है । वास्तव में राज्य के अपने विशेष कार्यों के कारण उसकी स्थिति अन्य सभी समुदायों से भिन्न और विशेष होती है।

(4) बहुलवाद अन्तर्विरोधों से भरा है - 

बहुलवाद के विरुद्ध एक गम्भीर बात यह है कि बहुलवादी विचारधारा अन्तर्विरोधों से भरी पड़ी है। बहुलवादी सैद्धान्तिक रूप से तो राज्य की शक्तियों को कम करके उसे अन्य समुदायों के साथ समता प्रदान करते हैं, किन्तु जब वे व्यवहार पर आते हैं तो यह स्वीकार करते हैं कि कि..ी एक संस्था को सम्प्रभु बनाए बिना राजनीतिक समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है।

(5) राज्य संघों का संघ नहीं हो सकता - 

राज्य और अन्य समुदायों की स्थिति में आधारभूत अन्तर है, जबकि अन्य समुदायों का सम्बन्ध उसके सर्वमान्य या व्यापक हितों के साथ होता है । इसी कारण राज्य के अतिरिक्त अन्य कोई समुदाय मनुष्य के पूर्ण व्यक्तित्व का प्रतीक होने का दावा नहीं कर सकता। बहुलवादी विचारक मिस फोलेट के अनुसार भी राज्य का निर्माण समुदायों से नहीं हो सकता।

(6) बहुलवाद देशभक्ति विरोधी है -

प्रभुसत्ता तथा राज्य के महत्त्व को कम करने व अपनी विचारधारा में अन्तर्राष्ट्रीय होने के कारण बहुलवाद नागरिकों की देशभक्ति की भावना का विरोध करता है,जिसे उचित और व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता। राज्य की सत्ता के विरुद्ध चाहे कुछ भी क्यों न कहा जाए और चाहे अन्तर्राष्ट्रीयविचारों का कितना महत्त्व माना जाए, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान समय के राज्यों में देशभक्ति का अपना स्थान और महत्त्व है।

(7) अन्तर्राष्ट्रीयता के आधार पर प्रभुसत्ता का विरोध उचित नहीं -

राज्य को अन्तर्राष्ट्रीय आचार-विचार और कानूनों का आदर करना चाहिए, लेकिन वैधानिक दृष्टि से राज्य इन सीमाओं का पालन करने के लिए बाध्य नहीं है। यदि जनमत अथवा नैतिकता के दबाव से राज्य उनका पालन करता है, तो इससे उसकी सम्प्रभुता समाप्त नहीं हो जाती है। वास्तविकता यही है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से राज्य की बाहरी सम्पभुता पूर्ण है,व्यवहार में उस पर कुछ प्रतिबन्ध हैं।

बहुलवाद का महत्त्व

बहुलवाद अराजनीतिक संघों के बढ़ते हुए महत्त्व पर जोर देता है, इन समुदायों के उचित कार्यक्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप के प्रति सचेत करता है और इस बात का प्रतिपादन करता है कि राज्य के द्वारा न केवल इन समुदायों को मान्यता, बल्कि स्वायत्तता प्रदान की जानी चाहिए। वर्तमान समय में मानव की बहुमुखी आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए बहुलवाद के इस विचार को प्रशंसनीय कहा जा सकता है। उचित रूप में बहुलवाद के विचार को स्वीकार कर लेने से न केवल व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सहायता मिलेगी,वरन् राज्य की कार्यक्षमता में भी आवश्यक रूप से वृद्धि होगी।

बहुलवाद का मूल्यांकन

बहुलवाद का समर्थन और आलोचना समान रूप से की जाती है।

गैटेल ने बहुलवाद की प्रशंसा में लिखा है,“बहुलवाद कठोर और सैद्धान्तिक कानूनवाद तथाऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त के विरुद्ध एक सामयिक और स्वागत योग्य प्रतिक्रिया है।"

दूसरी ओर बहुलवाद के विरुद्ध गार्नर का कथन है, इससे राज्य की शक्ति समाप्त हो जाएगी और वह भली प्रकार से शान्ति व सुरक्षा का प्रबन्ध न कर सकेगा ''



संप्रभुता सिद्धांत के जनक कौन है?

'जन-इच्छा' के आधार पर रचे गये कानून के पालन का मतलब था स्वयं अपनी इच्छा का पालन करना। रूसो द्वारा प्रवर्तित 'जन-इच्छा' का सिद्धांत आगे चल कर आधुनिक लोकतांत्रिक सिद्धांत का आधार बना।

संप्रभुता का सिद्धांत क्या है?

सम्प्रभुता राज्य के व्यक्तित्व का मूल तत्व है और उसे अलग करना आत्महत्या के समान है। गार्नर ने कहा है कि “संप्रभुता राज्य का व्यक्तित्व और उसकी आत्मा है। जिस प्रकार मनुष्य का व्यक्तित्व अदेय(unpaid) है और वह किसी दूसरे को दे नहीं सकता, उसी प्रकार राज्य की सम्प्रभुता भी किसी अन्य को नहीं दी जा सकती है।”

संप्रभुता का मूल शब्द क्या है?

पूर्णता, सार्वभौमिकता, आदेयता स्थायित्व, अविभाज्यता Q.

संप्रभुता का मतलब क्या है?

संप्रभुता का अर्थ (samprabhuta kya hai) सम्प्रभुता से तात्पर्य राज्य की उस शक्ति से है, जिसके कारण राज्य अपनी सीमाओं के अंतर्गत कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र है। राज्य के अंदर कोई भी व्यक्ति अथवा समुदाय राज्य के ऊपर नही है।