स्मृति पाठ से क्या सीख मिलती है? - smrti paath se kya seekh milatee hai?

सामान्यतः स्मृति का अर्थ है किसी ज्ञान या अनुभव को याद करना। स्मृति के सम्बन्ध में प्रचलित ‘अनोखी शक्ति विषयक धारणा धीरे-धीरे मानसिक प्रक्रिया में परिवर्तित हो गयी; अतः स्मृति का अर्थ समझने के लिए इस प्रक्रिया का सार तत्त्व समझना आवश्यक है।

मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अर्जित उत्तेजना (अथवा अनुभव या ज्ञान) उसके मस्तिष्क में संस्कार के रूप में अंकित हो जाती है और इस भाँति वातावरण की प्रत्येक उत्तेजना का मानव-मस्तिष्क में एक संस्कार बन जाता है। ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त विभिन्न संस्कार आगे चलकर संगठित स्वरूप धारण कर लेते हैं और चेतन मन से अर्द्ध-चेतन मन में चले जाते हैं। ये संस्कार/अनुभव या ज्ञान, वहीं अर्द्ध-चेतन मन में संगृहीत रहते हैं तथा समयानुसार चेतन मन में प्रकट भी होते रहते हैं। अतीत काल के किसी विगत अनुभव के अर्द्ध-चेतन मन से चेतन मन में आने की इस प्रक्रिया को ही स्मृति कहा जाता है। उदाहरणार्थ-बहुत पहले कभी मोहन ने नदी के एक घाट पर व्यक्ति को डूबते हुए देखा था। आज पुनः नदी के उस घाट पर स्नान करते समय उसे डूबते हुए व्यक्ति को स्मरण हो आया और भूतकाल की घटना का पूरा चित्र उसकी आँखों के सामने आ गया।

विद्वानों के मतानुसार सीखने की क्रियाओं को स्मृति की क्रियाओं से पृथक् नहीं किया जा सकता। अच्छी स्मृति या स्मरण शक्ति से हमारा अर्थ-सीखना, याद करना अथवा पुनःस्मरण (recall) से है।

स्मृति की परिभाषा

अनेक मनोवैज्ञानिकों ने स्मृति को परिभाषित करने का प्रयास किया है। उनमें से कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. स्टाउद के अनुसार, “स्मृति एक आदर्श पुनरावृत्ति है जिसमें अनुभव की वस्तुएँ यथासम्भव मौलिक घटना के क्रम तथा ढंग से पुनस्र्थापित हैं।”
  2. वुडवर्थ के शब्दों में, “बीते समय में सीखी हुई बातों को याद करना ही स्मृति है।”
  3. जे० एस० रॉस के अनुसार, “स्मृति एक नवीन अनुभव है जो उन मनोदशाओं द्वारा निर्धारित होता है जिनका आधार एक पूर्व अनुभव है, दोनों के बीच का सम्बन्ध स्पष्ट रूप से समझा जाता है।”
  4. मैक्डूगल के मतानुसार, “घटनाओं की उस भाँति कल्पना करना जिस भाँति भूतकाल में उनका अनुभव किया गया था तथा उन्हें अपने ही अनुभव के रूप में पहचानना स्मृति है।”
  5. चैपलिन के अनुसार “पूर्व में अधिगमित विषय के स्मृति-चिह्नों को धारण करने और उन्हें वर्तमान चेतना में लाने की प्रक्रिया को स्मरण कहते हैं।”
  6. रायबर्न के अनुसार, “अनुभवों को संचित रखने तथा उन्हें चेतना के केन्द्र में लाने की प्रक्रिया को स्मृति कहा जाता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन एवं विश्लेषण से ज्ञात होता है कि स्मृति यथावत् प्राप्त पूर्व-अनुभवों को उसी क्रम से पुनः याद करने से सम्बन्धित है। यह एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है। जिसके अन्तर्गत संस्कारों को संगठित करके धारण करना तथा हस्तान्तरित अनुभवों को पुन:स्मरण करना शामिल है जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य के पुराने अनुभव उसकी चेतना में आते हैं। दूसरे शब्दों में, “पूर्व अनुभवों को याद करने, दोहराने या चेतना के स्तर पर लाने की मानसिक क्रिया स्मृति कहलाती है।”

स्मृति के तत्त्व

स्मृति के चार प्रमुख तत्त्व हैं-सीखना, धारणा, पुन:स्मरण या प्रत्यास्मरण तथा प्रत्यभिज्ञा या पहचान। इनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

(1) सीखना (Learming)-‘सीखना या अधिगम’ स्मृति का आधारभूत तत्त्व है। स्मृति की क्रियाएँ सीखने से उत्पन्न होती हैं। वुडवर्थ ने स्मृति को सामान्य रूप से सीखने का एक अंग माना है ,तथा स्मरण को सीखे गये तथ्यों का सीधा, उपयोग बताया है। जब तक कोई ज्ञान, अनुभव यर तथ्य मस्तिष्क में पहुँचकर अपना संस्कार नहीं बनायेगा तब तक स्मरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो ही नहीं सकती। सीखी हुई बातें पहले अवचेतन मन में एकत्र होती हैं और बाद में याद की जाती हैं; अतः। सीखना स्मरण के लिए सबसे पहली शर्त है।

(2) धारणा (Retention)- सीखने के उपरान्त किसी ज्ञान या अनुभव को मस्तिष्क में धारण कर लिया जाता है। किसी समय-विशेष में जो कुछ सीखा जाता है, मनुष्य के मस्तिष्क में वह स्मृति चिह्नों या संस्कारों के रूप में स्थित हो जाता है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से आये सभी संस्कार एक संगठित अवस्था में अवचेतन मन में संगृहीत होते हैं। वस्तुतः स्मृति-चिह्नों या संस्कारों के संगृहीत होने की क्रिया ही धारणा है। आवश्यकतानुसार इन संगृहीत संस्कारों को पुनः दोहराया जा सकता है।

(3) पुनःस्मरण या प्रत्यास्मरण (Recall)- सीखे गये अनुभवों को पुनः दोहराने या चेतना में लाने की क्रिया पुन:स्मरण या प्रत्यास्मरण कहलाती है। यह क्रिया निम्नलिखित चार प्रकार की होती है-

  1. प्रत्यक्ष पुनःस्मरण- प्रत्यक्ष पुन:स्मरण में विगत की कोई सामग्री, बिना किसी दूसरे साधन अथवा अनुभव का सहारा लिये, हमारे चेतन मन में आ जाती है।
  2. अप्रत्यक्ष पुनःस्मरण- अप्रत्यक्ष पुन:स्मरण में विगत की कोई सामग्री, किसी अन्य वस्तु या अनुभव के माध्यम से, हमारे चेतन मन में उपस्थित हो जाती है; जैसे-मित्र के पुत्र को देखकर हमें अपने मित्र की याद आ जाती है।
  3. स्वतः पुनःस्मरण- स्वतः पुन:स्मरण में व्यक्ति को बिना किसी प्रयास के अनायास ही किसी सम्बन्धित वस्तु, घटना या व्यक्ति का स्मरण हो आता है; जैसे-बैठे-ही-बैठे स्मृति पटल पर मित्र-मंण्डली के साथ नैनीताल की झील में नौकाविहार का दृश्य उभर आना।
  4. प्रयासमय पुनःस्मरण- जब भूतकाल के अनुभवों को विशेष प्रयास करके चेतन मन में लाया जाता है तो वह प्रयासमय पुन:स्मरण कहलाएगा।

(4) प्रत्यभिज्ञा या पहचान (Recognition)- प्रत्यभिज्ञा या पहचान, स्मृति का चतुर्थ एवं अन्तिम तत्त्व है जिसका शाब्दिक अर्थ है-‘किसी पहले से जाने हुए विषय को पुनः जानना या पहचानना। जब कोई भूतकालीन अनुभव, चेतन मन में पुन:स्मरण या प्रत्याह्वान के बाद, सही अथवा गलत होने के लिए पहचान लिया जाता है तो स्मृति का यह तत्त्व प्रत्यभिज्ञा या पहचान कहलाएगा। उदाहरणार्थ–राम और श्याम कभी लड़कपन में सहपाठी थे। बहुत सालों बाद वे एक उत्सव में मिले। राम ने श्याम को पहचान लिया और अतीतकाल के अनुभवों की याद दिलायी जिनका प्रत्यास्मरण करके श्याम ने भी राम को पहचान लिया।

प्रश्न 2
स्मृति के तत्त्वों (सीखना, धारणा, प्रत्यास्मरण तथा प्रत्यभिज्ञा) को प्रभावित करने वाले कारकों का उल्लेख कीजिए।
या 
स्मृति प्रक्रिया के लिए कौन-कौन सी अनुकूल परिस्थितियाँ हैं? विस्तार से बताइए। (2010)
या
धारणा को प्रभावित करने वाले कारकों का विस्तार से वर्णन कीजिए। (2009)
उत्तर

स्मृति की अनुकूल परिस्थितियाँ 

हम जानते हैं कि स्मृति के चार तत्त्व हैं-सीखना, धारणा, प्रत्यास्मरण तथा प्रत्यभिज्ञा। स्मृति की अनुकूल परिस्थितियों अथवा प्रभावित करने वाले तत्त्वों को जानने के लिए इन चारों कारकों को प्रभावित करने वाले कारकों को जानना अभीष्ट होगा।

प्रथम तत्त्व ‘अधिगम या सीखना’ का वर्णन हम पिछले अध्याय में कर चुके हैं; अत: यहाँ हम इन चार तत्त्वों में से सिर्फ धारणा, प्रत्यास्मरण तथा प्रत्यभिज्ञा की अनुकूल परिस्थितियों का वर्णन करेंगे।

धारणा को प्रभावित करने वाली परिस्थितियाँ

बहुत-सी शारीरिक एवं मानसिक परिस्थितियाँ धारणा की प्रक्रिया में सहायक और अनुकूल सिद्ध होती हैं। इन परिस्थितियों का संक्षिप्त विवेचन अग्र प्रकार है-

(1) सामग्री का स्वरूप- धारणा पर याद की जाने वाली विषय-सामग्री के स्वरूप का कफी प्रभाव पड़ता है। धारणा की प्रक्रिया से सम्बन्धित विषय-सामग्री के स्वरूप में निम्नलिखित विशेषताओं की प्रभावपूर्ण भूमिका रहती है-

(i) उत्तेजना का अर्थ- मनोवैज्ञानिकों द्वारा समय-समय पर किये गये प्रयोगों से ज्ञात हुआ है कि सार्थक उत्तेजनाओं को व्यक्ति का मस्तिष्क लम्बे समय तक धारण करता है जबकि निरर्थक उत्तेजनाओं को धारण करने की प्रवृत्ति बहुत कम पायी जाती है। याद किये जाने वाला विषय सार्थक होना चाहिए अर्थात् याद करने वाला व्यक्ति उसका अर्थ भली-भाँति समझता हो।

(ii) उत्तेजना की स्पष्टता- उत्तेजना की स्पष्टता भी धारणा की सहायक दशा है। स्पष्ट उत्तेजनाओं को मस्तिष्क अधिक देर तक धारण रख पाता है, किन्तु अस्पष्ट उत्तेजनाएँ मस्तिष्क में अधिक समय तक नहीं रुक पातीं। किसी वाक्य का जितना अधिक अर्थ स्पष्ट होगा उतने ही अधिक समय तक वह स्मृति में भी रहेगा।

(iii) उत्तेजना की तीव्रता- तीव्र उत्तेजनाओं का स्मृति की धारण-शक्ति पर गहरा प्रभाव होता है। तीव्र प्रकाश, सौन्दर्य की तीव्र अनुभूति, तीव्र मादक सुगन्ध तथा दुर्घटना का तीखा अनुभव लम्बे समय तक स्मृति में बने रहते हैं।

(iv) उत्तेजना का काल- विषय-सामग्री से सम्बन्धित उत्तेजना जितने अधिक समय तक उपस्थित रहती है, मस्तिष्क में उसकी धारणा भी उतनी ही अधिक गहरी होती है।।

(v) उत्तेजना की ताजगी- ताजा या हाल की उत्तेजना मस्तिष्क पर नये संस्कार छोड़ती है और उसकी धारणा अधिक होती है। पुरानी होती जाती उत्तेजना के संस्कार पुराने पड़ते जाते हैं। जिससे धारण-शक्ति कम होती जाती है।

(vi) उत्तेजना की पुनरावृत्ति- बार-बार मस्तिष्क के सामने आने वाली उत्तेजना का प्रभाव गहरा तथा दीर्घकालीन होता है। इसी कारण पाठ की पुनरावृत्ति (बार-बार दोहराना) पर बल दिया जाता है।

(2) सामग्री की मात्रा– सामग्री की मात्रा, धारणा को प्रभावित करने वाली एक महत्त्वपूर्ण दशा है। अधिक मात्रा वाली सामग्री को याद करने में व्यक्ति को अधिक श्रम करना होता है तथा वह उससे सम्बन्धित विभिन्न भागों के बीच अच्छी तरह सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। परिणामतः याद की गई विषय-सामग्री स्थायी होती है। क्योंकि कम मात्रा वाली सामग्री मस्तिष्क के सामने कम समय तक रहती है; अतः उसकी धारणा अधिक समय तक स्थिर नहीं रह पाती।

(3) सीखने की विधियाँ- सीखने की विधियाँ भी मस्तिष्क की धारण शक्ति को प्रभावित करती हैं। प्रभावपूर्ण स्मृति के लिए मनोवैज्ञानिक विधियों की सहायता ली जाती है। सक्रिय, व्यवधान एवं पूर्ण विधि के माध्यम से सीखना श्रेयस्कर माना जाता है। सीखने की विधियों में अभिरुचि का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है।

(4) सीखने की मात्रा- अधिक मात्रा में सीखी गई सामग्री अधिक समय तक तथा कम मात्रा में सीखी गई सामग्री कम समय तक प्रभाव रखती है। इसी कारणवश लोग अच्छी स्मृति के लिए विषय-सामग्री के अतिशिक्षण (Over learning) पर जोर देते हैं। लुह, ठूगर तथा एबिंगहास नामक मनोवैज्ञानिकों के प्रयोगों से ज्ञात हुआ है कि अतिशिक्षण अच्छी स्मृति एवं स्थायी धारणा के लिए अनुकूल व सहायक दशा है।

(5) सीखने की गति- सीखने की गति धारणा को प्रभावित करती है। तीव्र गति से सीखे जाने वाले ज्ञान अथवा विषय की धारण-शक्ति, मन्दगामी सीखने की क्रिया से कम होती है; अतः सीखने की तीव्र गति धारण के लिए एक अनुकूल दशा है।

(6) प्रयोजन या उद्देश्य- याद करने का कोई न कोई प्रयोजन या उद्देश्य अवश्य होता है। उद्देश्य के साथ याद की जाने वाली विषय-सामग्री न केवल शीघ्र ही याद हो जाती है अपितु देर तक याद भी रहती है। उदाहरणार्थ-परीक्षा या प्रतियोगिता की दृष्टि से याद किये गये. पाठ अधिक स्थायी होते हैं। इसके विपरीत निरुद्देश्य सीखे गये विषयों को मस्तिष्क अधिक समय तक नहीं सँजो पाता।

(7) मानसिक तत्परता- मानसिक तत्परता का धारण-शक्ति पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। अच्छी तैयारी और रुचि के साथ यदि व्यक्ति विषय को सीखने के लिए तत्पर है तो धारणा अधिक होगी। किन्तु बिना तैयारी और रुचि के अनायास ही सीखी गई सामग्री के संस्कार जल्दी ही विलुप्त हो जाते हैं।

(8) स्वास्थ्य- शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का धारणा से गहरा सम्बन्ध है। शरीर या मन के अस्वस्थ होने पर धारण-शक्ति कम हो जाती है, किन्तु स्वस्थ, श्रमरहित तथा ताजा मस्तिष्क किसी पाठ को अधिक सीख सकता है, धारण कर सकता है। शाम को थका हुआ विद्यार्थी विषय को उतना अच्छा याद नहीं कर पाता जितना कि प्रातःकाल के समय।

(9) नींद- नींद धारणा के लिए अनुकूल परिस्थिति है। नींद की अवस्था में मन शान्त रहता है; अत: किसी पाठ को याद करने के उपरान्त यदि तत्काल ही नींद ले ली जाए तो अर्जित ज्ञान स्थायी हो जाता है।

(10) मस्तिष्क की संरचना– मस्तिष्क की संरचना (बनावट) भी धारणा को प्रभावित करती है। विकसित मस्तिष्क स्मृति-चिह्नों को आसानी से ग्रहण कर लेता है तथा उन्हें स्थायी रूप से धारण कर लेता है। छोटा, कम संवेदनशील और अविकसित मस्तिष्क सीखी गई बातों को देर तक धारण नहीं कर पाता।

(11) अवधान- सीखने या याद करने की क्रिया में सामग्री पर जितना अधिक अवधान (ध्यान) दिया जाएगा, उतनी ही देर तक वह याद रहेगा। कम अवधान के साथ सीखी गई अथवा याद की गई सामग्री की धारणा भी कम स्थायी होती है।

(12) चिन्तन– चिन्तनविहीन अवस्था में याद की गई सामग्री की मस्तिष्क पर अच्छी पकड़ नहीं होती। किन्तु चिन्तन और मनन के साथ याद की जाने वाली सामग्री की धारणा अधिक स्थायी होती है।

(13) अनुभूति– प्रसिद्ध मनोविश्लेषणवादी फ्रॉयड के अनुसार, व्यक्ति सुखद अनुभूति वाली सामग्री को, दुःखद अनुभूति वाली सामग्री की अपेक्षा, लम्बे समय तक धारण करता है। इस प्रकार सुख या दुःख की अनुभूति स्मृति को प्रभावित करती है। | (14) अनुभव की व्यापकता-अनुभव जितना अधिक व्यापक या अधिक महत्त्व वाला होगा, मस्तिष्क भी उसे उतने ही अधिक समय तक धारण करेगा। मस्तिष्क में किसी अनुभव की धारण शक्ति इस बात पर निर्भर करती है कि उस अनुभव का मूल्य कितना है। मूल्यवान अनुभवों की अपेक्षा कम मूल्य के अनुभव मस्तिष्क से असर खोते रहते हैं।

(15) लैगिक विकास- समझा जाता है कि चौदह वर्ष तक की लड़कियों का विकास लड़कों की तुलना में अधिक तेजी से होता है और इसी कारण उनकी धारण शक्ति भी अपेक्षाकृत अधिक ही होती है।

प्रत्यास्मरण को प्रभावित करने वाली परिस्थितियाँ

स्मृति के तीसरे प्रमुख तत्त्व प्रत्यस्मरण या पुन:स्मरण को प्रभावित करने वाली कुछ सहायक परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं-

(1) धारणा की प्रकृति- धारणा की प्रकृति, प्रत्यस्मरण की सम्भावनाओं को प्रभावित करती है। अच्छी एवं स्थायी धारणा से उत्तम प्रत्यास्मरण की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। वस्तुतः धारणा की। अनुकूल परिस्थितियाँ प्रत्यास्मरण पर भी अच्छा प्रभाव डालती हैं।

(2) अनुकूल शारीरिक-मानसिक अवस्था– व्यक्ति की स्वस्थ शारीरिक-मानसिक अवस्था शीघ्र, सही एवं यथार्थ प्रत्यास्मरण में सहायता करती है। अस्वस्थ तथा थकी हुई अवस्था में स्फूर्ति कम हो जाती है जिसका प्रत्यास्मरण की क्रियाओं पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

(3) साहचर्य संकेत- सहकारी संकेतों की प्रत्यास्मरण की क्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। प्रत्यास्मरण के दौरान विषय-वस्तु की वास्तविक उत्तेजनाएँ तो उपस्थित नहीं होतीं किन्तु ये संकेत ही प्रत्यास्मरण के उत्तेजक बनते हैं। परीक्षा देते समय परीक्षार्थी को पुनःस्मरण किये जाने वाले पाठ की पहली लाइन, शीर्षक या शब्द याद आ जाए तो पूरी सामग्री याद आ जायेगी। वस्तुतः मस्तिष्क में ज्ञान तथा विचार सम्बन्धित होकर रहते हैं। इन सम्बन्धों या साहचर्यों की प्रबलता प्रत्यास्मरण के लिए अनुकूल दशा है।

(4) प्रसंग- प्रसंग से बीते काल के विचारों की श्रृंखला प्रारम्भ होती हैं। अनुकूल प्रसंग के आने पर उससे सम्बन्धित घटनाएँ स्मरण हो आती हैं। यही कारण है कि अक्सर पुन:स्मरण के समय लोग तत्सम्बन्धी प्रसंग पर ध्यान केन्द्रित करते हैं।

(5) प्रयास- प्रत्यास्मरण काफी कुछ प्रयास पर भी आधारित है। अधिक प्रयास से अधिक प्रत्यास्मरण तथा कम प्रयास से कम प्रत्यास्मरण होता है।

(6) प्रेरणाएँ- प्रेरणाएँ प्रत्यास्मरण को प्रभावित करती हैं। किसी विशेष प्रकार की प्रेरणा से तत्सम्बन्धी घटनाओं का पुन:स्मरण होता है अर्थात् जैसी प्रेरणा होगी वैसी-ही बातें व्यक्ति को याद आएँगी। शब्द-साहचर्य परीक्षण के अन्तर्गत प्रयोगों से ज्ञात होता है कि जैसे-जैसे शब्द बोले गये वैसी ही प्रेरित बातें याद आती गयीं।

(7) मनोवृत्ति- व्यक्ति की मनोवृत्ति का प्रत्यास्मरण पर भी प्रभाव है। वैज्ञानिक प्रवृत्ति वाले व्यक्ति को विज्ञान सम्बन्धी बातें तथा धार्मिक प्रवृत्ति वाले व्यक्ति को धार्मिक विषयों का पुनःस्मरण जल्दी होगा। दार्शनिक मनोवृत्ति वाले व्यक्ति को क्रीड़ा से सम्बन्धी बातों का शीघ्र स्मरण नहीं होगा।

(8) अवरोध- अवरोध प्रत्यास्मरण की क्रिया में बाधा पहुँचाते हैं। क्रोध, चिन्ता, भय तथा निराशा जैसी मानसिक अवस्थाएँ याद की जाने वाली विषय-सामग्री के लिए अवरोध बनती हैं तथा प्रत्यास्मरण को मन्द करती हैं। अवरोध की अनुपस्थिति में प्रत्यास्मरण अच्छा होता है।

(9) अनुभूति– जीवन में सुख-दुःख की अनुभूति अनिवार्य है और इनको प्रत्यास्मरण पर प्रभाव पड़ता है। उदासीन अनुभवों की अपेक्षा सुख-दुःख के रंग में रंगे अनुभव जल्दी याद आते हैं।

प्रत्यभिज्ञा को प्रभावित करने वाली परिस्थितियाँ

प्रत्यभिज्ञा को भी अधिकांशतः वही परिस्थितियाँ प्रभावित करती हैं जो सामान्यतः धारणा एवं प्रत्यास्मरण में भी सहायक होती हैं। अतः सभी का विवेचन न करके सिर्फ उन परिस्थितियों को दिया जा रहा है, जो अपरिहार्य हैं|

(1) मानसिक तत्परता- मानसिक तत्परता प्रत्यभिज्ञा में एक महत्त्वपूर्ण सहायक परिस्थिति है। जिस मनुष्य की जिस ओर अधिक मानसिक तत्परता होती है, वह उसी प्रकार की वस्तुओं की पहचान भी करता है। रात हो गयी, किन्तु मोहन के पापा ऑफिस से लौटकर नहीं आये, प्रतीक्षारत मोहन ने। दरवाजे पर आहट होते ही पापा के आगमन को पहचान लिया। किन्तु इसमें त्रुटिपूर्ण प्रत्यभिज्ञा भी हो सकती है।

(2) आत्म-विश्वास-आत्म- विश्वास प्रत्यभिज्ञा के लिए एक अनुकूल दशा है, क्योंकि आत्म-विश्वास खोकर सही पहचान नहीं की जा सकती। इसका अभाव सन्देह को जन्म देता है, किन्तु अतीव (यानी आवश्यकता से अधिक) भी अनुचित ही कहा जायेगा।

प्रश्न 3
कण्ठस्थीकरण अथवा स्मरण करने की विभिन्न विधियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर

कण्ठस्थीकरण अथवा स्मरण कण्ठस्थीकरण

अथवा स्मरण करना एक मानसिक प्रवृत्ति है। मानव की स्मरण शक्ति यद्यपि प्रकृति की उसे एक अनुपम देन है, किन्तु यदि इसे समुचित रूप से प्रयोग में लाया जाए तो समय एवं शक्ति, दोनों की ही पर्याप्त रूप से बचत की जा सकती है। किसी विषय-सामग्री को स्मरण करने में लाघव तथा मितव्ययिता लाने के उद्देश्य से मनोवैज्ञानिकों ने सतत प्रयास किये हैं। इसके परिणामस्वरूप स्मरण करने की कुछ मितव्ययी विधियों की खोज सम्भव हुई, जिनकी सहायता से कम समय में अधिक-से-अधिक सामग्री याद की जा सकती है।

कण्ठस्थीकरण या स्मरण की मितव्ययी विधियाँ

स्मरण या कण्ठस्थीकरण की मितव्ययी विधियाँ निम्नलिखित हैं।

(1) पुनरावृत्ति अथवा दोहराना (Repetition)- स्मरण करने की यह एक पुरानी तथा प्रचलित विधि है। सरल होने के कारण यह लोकप्रिय भी है। इस विधि में याद की जाने वाली सामग्री या पाठ को अनेक बार दोहराया जाता है। बार-बार दोहराने से वह पाठ स्मृति में गहराता जाता है। जितनी ही अधिक बार उसे दोहराया जायेगा, उतने ही गहरे स्मृति-चिह्न या संस्कार मस्तिष्क पर बन जाते हैं। आवृत्ति अर्थात् विषय-सामग्री को मन-ही-मन दोहराने से उसे स्थायित्व प्राप्त होता है; अतः कण्ठस्थीकरण करने वाले को चाहिए कि वह पाठ को कई बार पढ़े तथा अनेक बार मन-ही-मन दोहराए। इस विधि से कोई भी विषय-सामग्री कम-से-कम समय में दीर्घकाल के लिए याद हो जाती है। पुनरावृत्ति विधि का प्रयोग करते समय ध्यान रहे कि सामग्री सार्थक हो, तभी उसके वांछित परिणाम सामने आएँगे। छोटे बालकों को कविताएँ, दोहे तथा पहाड़े याद करने में यह विधि बहुत लाभप्रद है।

(2) पूर्ण विधि (Whole Method)- पूर्ण विधि में सम्पूर्ण विषय या पाठ को एक ही बार में एक साथ याद किया जाता है। यदि बालक किसी कविता या कहानी को कण्ठस्थ करना चाहता है तो पूर्ण विधि के अनुसार वह समूची सामग्री को एक ही बार में याद करेगा। समय-समय पर होने वाले प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि कठिन एवं लम्बे पाठों की तुलना में सरल एवं छोटे पाठ पूर्ण विधि से सुगमतापूर्वक याद किये जा सकते हैं। इसके अलावा यह विधि मन्द-बुद्धि के बालकों की अपेक्षा तीव्र-बुद्धि के बालकों के लिए अधिक लाभप्रद मानी जाती है। यहाँ यह बात भी उल्लेखनीय है कि सीखने की अल्पकालीन अवधि में इस विधि के परिणाम अधिक अच्छे नहीं आते, इसके लिए लम्बा समय उपयुक्त है। पूर्ण विधि के अन्तर्गत याद की जाने वाली सामग्री के अधिक लम्बा होने पर उसे खण्डों में बाँटेकर याद किया जा सकता है, किन्तु इससे पहले समूची सामग्री को आदि से अन्त तक भली-भाँति पढ़ लेना आवश्यक है।

(3) आंशिक या खण्ड विधि (Part Method)- स्मरण की आंशिक या खण्ड विधि के अन्तर्गत पहले पाठ अथवा सामग्री को पृथक्-पृथक् अंशों/खंडों में विभाजित कर लिया जाता है, फिर एक-एक खण्ड को याद करके समूची विषय-सामग्री को कण्ठस्थ कर लिया जाता है। इस प्रकार यह विधि पूर्ण विधि के एकदम विपरीत है। मान लीजिए, बालक को एक लम्बी कविता याद करनी है तो वह पहले उसके एक पद को याद करेगा तब बारी-बारी से कविता के दूसरे तीसरे :: :: चौथे पदों पर ध्यान केन्द्रित करता जायेगा।

(4) मिश्रित विधि (Mixed Method)– मिश्रित विधि में विशेषकर जब विषय-सामग्री काफी लम्बी हो, पूर्ण एवं आंशिक दोनों विधियों को एक साथ लागू किया जाता है। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत एक बार समूची याद की जाने वाली सामग्री को पूर्ण विधि की सहायता से याद करने का प्रयास किया जाता है, फिर उसे छोटे-छोटे खण्डों में करके याद किया जाता है। स्मरण के दौरान विभिन्न खण्डों का सम्बन्ध एक-दूसरे से जोड़ना श्रेयस्कर है। बहुधा देखने में आया है कि पूर्ण एवं आंशिक विधि की अपेक्षा मिश्रित विधि अधिक उपयोगी सिद्ध हुई है।

(5) व्यवधान सहित या सान्तर विधि (Spaced Method)- व्यवधान सहित या सान्तर जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, स्मरण करने की इस विधि में विषय-सामग्री को कई बैठकों में याद किया जाता है। दिन में थोड़े-थोड़े समय का व्यवधान (अन्तर) देकर पाठ को दोहराकर कंठस्थ किया जाता है। यह विधि स्थायी स्मृति के लिए काफी उपयोगी है।।

(6) व्यवधान रहित या निरन्तर विधि (Unspaced Method)– सान्तर विधि के विपरीत निरन्तर या व्यवधान रहित विधि में विषय-सामग्री को एक ही बैठक में कंठस्थ करने का प्रयास किया जाता है। इसमें पाठों को बिना किसी व्यवधान के दोहराकर याद किया जाता है।

(7) सक्रिय विधि (Active Method)– सक्रिय विधि का दूसरा नाम उच्चारण विधि है। इसमें किसी विषय-सामग्री को बोलकर, आवाज के साथ पढ़कर याद किया जाता है। एबिंगहास तथा गेट्स आदि मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रयोगों के माध्यम से यह निष्कर्ष निकाला कि कण्ठस्थीकरण की सक्रिय विधि अत्यधिक उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण विधि है। इस विधि द्वारा स्मरण करने से व्यक्ति के मस्तिष्क में याद की जाने वाली सामग्री का ढाँचा तैयार हो जाता है, विषय का अर्थ अधिक स्पष्ट होता है, सामग्री के विविध खण्डों का लयबद्ध समूहीकरण होता है, उनके बीच सार्थक सम्बन्ध स्थापित होते हैं तथा याद की गई सामग्री का आभास होता रहता है। उच्चारण के साथ याद करने में व्यक्ति रुचि लेकर प्रयास करता है तथा उसकी सक्रियता में वृद्धि होती है। बहुधा सक्रिय विधि के दौरान शरीर के अंगों में गति (हिलना-डुलना) देखा जाता है।

(8) निष्क्रिय विधि (Passive Method)- निष्क्रिय विधि में किसी विषय-सामग्री को बिना बोले मन-ही-मन याद किया जाता है। सक्रिय विधि के लाभों को जानकर यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि निष्क्रिय विधि अनुपयोगी या कुछ कम उपयोगी है। उच्च कक्षाओं में जहाँ शिक्षार्थियों को अधिक पढ़ना पड़ता है, सिर्फ सक्रिय विधि से काम नहीं चल सकता-वहाँ तो निष्क्रिय विधि ही उपयोगी सिद्ध होती है। निष्क्रिय विधि में शरीर के अंगों में गति नहीं होती और विषय को शान्तिपूर्वक गहन अवधान के साथ पढ़ा जाता है। इस विधि की न केवल गति तीव्र होती है अपितु इसमें थकान भी अपेक्षाकृत काफी कम महसूस होती है।

विद्वानों का मत है कि नवीन सामग्री को याद करने की प्रक्रिया में पहले उसे निष्क्रिय विधि से एक बार मन-ही-मन पढ़ लिया जाये, फिर उच्चारण सहित कंठस्थ कर लिया जाये तो स्मृति (ज्ञान) स्थायी होगी।

(9) बोधपूर्ण विधि (Intelligence Method)- बोधपूर्ण विधि में विषय-सामग्री या पाठ को सप्रयास समझ-बूझकर याद किया जाता है। इस विधि से याद की हुई सामग्री के स्मृति-चिह्न या संस्कार मस्तिष्क पर स्थायी होते हैं। सामग्री पुष्ट होकर स्मृति में लम्बे समय तक बनी रहती है।

(10) यान्त्रिक या बोधरहित विधि (Rote Method)– यान्त्रिक या बोधरहित विधि के माध्यम से बिना समझे विषय-सामग्री को कंठस्थ किया जाता है। विषय को समझे बिना तोते की तरह रटने के कारण याद की हुई सामग्री अधिक समय तक मस्तिष्क में नहीं टिक पाती है। इसका कारण स्पष्ट है। कि प्रस्तुत सामग्री की मन के विचारों से साहचर्य स्थापित नहीं हो पाता है। शिक्षार्थी यन्त्र के समान पाठ को रटकर याद कर लेता है।

(11) समूहीकरण तथा लय (Grouping and Rhythm)- समूहीकरण तथा लय के माध्यम से भी कण्ठस्थीकरण में सहायता मिलती है। याद की जाने वाली सामग्री को समूहों में बाँट देने से स्मरण की क्रिया आसान हो जाती है। इसी प्रकार पद्यात्मक सामग्री को लयबद्ध करके तीव्र गति एवं सुगमतापूर्वक याद किया जाता है। प्राथमिक स्तर पर शिक्षा की सामग्री को कविता के रूप में बच्चों को सुविधापूर्वक याद कराया जाता है।

(12) साहचर्य (Association)- कण्ठस्थीकरण की क्रिया में साहचर्य का बड़ा योगदान है। साहचर्य बनाकर स्मरण करने से धारणा स्थायी होती है। साहचर्य बनाने के लिए व्यक्ति स्वतन्त्र है, स्वयं के बनाये हुए साहचर्य अधिक लाभकारी व सहायक होते हैं। इसके लिए याद करते समय सामग्री से सम्बन्धित विभिन्न बातों का अन्य बातों से सम्बन्ध स्थापित करके उसे याद कर लिया जाता है।

प्रश्न4
साहचर्य (Association) से क्या आशय है? साहचर्य के प्राथमिक एवं गौण नियमों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

साहचर्य का अर्थ एवं परिभाषा

स्मृति की प्रक्रिया में साहचर्य (Association) का विशेष महत्त्व है। साहचर्य से स्मरण करने की प्रक्रिया में पर्याप्त सहायता प्राप्त होती है। साहचर्य में किन्हीं दो विषय-वस्तुओं के पारस्परिक सम्बन्ध को ध्यान में रखा जाता है तथा उस सम्बन्ध के आधार पर स्मृति की प्रक्रिया को सुचारु रूप प्रदान किया जाता है। व्यवहार में हम प्राय: देखते हैं कि किसी एक व्यक्ति या वस्तु को देखकर किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु की याद आ जाती है तो याद आने की यह क्रिया साहचर्य के कारण ही होती है। उदाहरण के लिए दो सदैव साथ-साथ रहने वाली सहेलियों में से किसी एक को देखकर दूसरी की

भी याद आ जाना साहचर्य का ही परिणाम है। इसी प्रकार एक विधवा को देखकर उसके स्वर्गीय पति की याद आ जाना भी साहचर्य का ही परिणाम है। इस प्रकार स्पष्ट है कि स्मृति की प्रक्रिया में साहचर्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। साहचर्य के अर्थ को जान लेने के उपरान्त साहचर्य को परिभाषित करना भी आवश्यक है।

प्रो० बी०एन०झा ने साहचर्य को इन शब्दों में परिभाषित किया है, “विचारों का साहचर्य एक विख्यात सिद्धान्त है, जिसके द्वारा कुछ विशिष्ट सम्बन्धों के कारण एक विचार दूसरे से सम्बन्धित हाने की प्रवृत्ति रखता है।”

साहचर्य की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि साहचर्य मस्तिष्क में स्थापित होने वाली एक प्रक्रिया है। वास्तव में, व्यक्ति के मस्तिष्क में एक विशेष क्षेत्र होता है, जिसे साहचर्य-क्षेत्र कहते हैं। मस्तिष्क का यह क्षेत्र व्यक्ति के विभिन्न संस्कारों को परस्पर जोड़ने का कार्य करता है। इस प्रकार विभिन्न संस्कारों या विचारों का परस्पर सम्बद्ध होना ही साहचर्य है।

साहचर्य के प्राथमिक एवं गौण नियम

साहचर्य अपने आप में एक व्यवस्थित प्रक्रिया है। विचारों में साहचर्य की स्थापना कुछ नियमों के आधार पर होती है। साहचर्य की प्रक्रिया का सम्बन्ध अनेक नियमों से है। इन समस्त नियमों को दो वर्गों में बाँटा जाता है। ये वर्ग हैं-क्रमशः साहचर्य के प्राथमिक नियम तथा साहचर्य के गौण नियम। साहचर्य के दोनों वर्गों के नियमों का सामान्य विवरण निम्नलिखित है–

(1) साहचर्य के प्राथमिक नियम– साहचर्य की स्थापना में सहायक मुख्य नियमों को साहचर्य के प्राथमिक नियम कहा गया है। कुछ विद्वानों ने साहचर्य के इन नियमों को साहचर्य के मौलिक नियम माना है। साहचर्य के चार प्राथमिक नियमों का उल्लेख किया गया है। ये नियम हैं-समीपता का नियम, सादृश्यता का नियम, विरोध का नियम तथा क्रमिक रुचि का नियम। साहचर्य के इन चारों प्राथमिक नियमों का सामान्य विवरण निम्नलिखित है

(i) समीपता का नियम– साहचर्य का प्रथम प्राथमिक नियम है–‘समीपता का नियम’। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है; साहचर्य के इस नियम में विषय-वस्तुओं की स्वाभाविक समीपता को साहचर्य स्थापना का आधार माना जाता है। इस नियम के अनुसार सामान्य रूप से एक-दूसरे के समीप पायी जाने वाली विषय-वस्तुओं का ज्ञान हमें एक साथ प्राप्त होता है। वास्तव में, एक साथ पायी जाने वाली विषय-वस्तुओं में समीपता का साहचर्य सम्बन्ध स्थापित हो जाता है तथा इसी सम्बन्ध के आधार पर हम उनका ज्ञान प्राप्त करने लगते हैं। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि समीपता भी दो प्रकार की हो सकती है अर्थात् कालिक समीपता तथा देशिक समीपता। कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो एक के बाद एक क्रमिक रूप से प्रस्तुत होती हैं, इन घटनाओं में पायी जाने वाली समीपता को कालिक समीपता कहते हैं। उदाहरण के लिए, बादल के गरजने तथा वर्षा होने में कालिक समीपता पायी जाती है। इसी प्रकार कुछ वस्तुओं में देशिक समीपता भी पायी जाती है; जैसे कि कप एवं प्लेट या मेज एवं कुर्सी में पायी जाने वाली समीपता। दोनों ही प्रकार की समीपता के कारण सम्बन्धित विषय-वस्तुओं में साहचर्य की स्थापना की जाती है।

(ii) सादृश्यता का नियम– साहचर्य का एक प्राथमिक नियम ‘सादृश्यता का नियम’ कहलाता है। इस नियम के अनुसार कुछ विषय-वस्तुओं में पायी जाने वाली सादृश्यता के कारण उनमें साहचर्य की स्थापना हो जाती है। वास्तव में, जब हम दो समान दिखाई देने वाली वस्तुओं का प्रत्यक्षीकरण करते हैं तो हमारा मस्तिष्क उन वस्तुओं के बीच में एक प्रकार का सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। इस प्रकार की सम्बन्ध-स्थापना के उपरान्त यदि व्यक्ति उन दोनों वस्तुओं में से किसी एक को कहीं देखता है तो उसे तुरन्त उसके सदृश अन्य वस्तु की भी याद आ जाती है। हम जानते हैं कि जुड़वा बहनों अथवा भाइयों में अत्यधिक सादृश्यता पायी जाती है। इस स्थिति में उनमें से किसी एक को देखते ही दूसरी बहन की याद आ ही जाती है। यह क्रिया सादृश्यता का ही परिणाम है। रूप की सादृश्यता के अतिरिक्त प्रायः नामों की सादृश्यता भी स्मृति का एक कारण बन जाया करती है।

(iii) विरोध का नियम–साहचर्य को एक अन्य प्राथमिक नियम विरोध के नियम के नाम से जाना जाता है। इस नियम के अनुसार सम्बन्धित वस्तुओं में पाया जाने वाला स्पष्ट विरोध भी प्रायः साहचर्य-स्थापना का कारण बना जाता है। प्रायः गोरे एवं काले रंगों, सुख एवं दु:ख के भावों, मिलन एवं वियोग आदि में पाये जाने वाले विरोध के कारण उनमें एक प्रकार का साहचर्य सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। विरोध के नियम के अनुसार, परस्पर विरोधी गुण-धर्म वाले एक तत्त्व के प्रत्यक्षीकरण के साथ-ही-साथ दूसरे तत्त्व की भी याद आ जाती है।

(iv) क्रमिक रुचि का नियम- साहचर्य का एक अन्य प्राथमिक नियम है ‘क्रमिक रुचि का नियम’। इस नियम के अनुसार व्यक्ति की रुचि भी उसकी स्मृति को प्रभावित करती है। रुचि के अनुसार प्राप्त होने वाले अनुभव परस्पर सम्बद्ध हो जाते हैं तथा इन अनुभवों से व्यक्ति के मानसिक संस्कार निर्मित हो जाते हैं। उदाहरण के लिए-शास्त्रीय संगीत में रुचि रखने वाला व्यक्ति यदि किसी राग का नाम सुनता है तो उसे तुरन्त उस राग के गायक का नाम याद आ जाता है।

उपर्युक्त विवरण द्वारा साहचर्य के चारों प्राथमिक नियमों का परिचय प्राप्त हो जाता है। हम कह सकते हैं कि साहचर्य के इन चारों प्राथमिक नियमों में पारस्परिक घनिष्ठ सम्बन्ध है तथा ये नियम एक-दूसरे पर किसी-न-किसी रूप में आश्रित भी हैं।

(2) साहचर्य के गौण नियम- साहचर्य के द्वितीय वर्ग के नियमों को साहचर्य के गौण नियम कहा गया है। साहचर्य के गौण नियम पाँच हैं—प्राथमिकता का नियम, नवीनता का नियम, पुनरावृत्ति का नियम, स्पष्टता का नियम तथा प्रबलता का नियम। साहचर्य के इन गौण नियमों का सामान्य परिचय निम्नलिखित हैं

(i) प्राथमिकता का नियम- प्राथमिकता के नियम के अनुसार, हमारे स्मृति पटल पर जिस विषय-वस्तु के संस्कार सर्वप्रथम पड़ते हैं, वे सामान्य रूप से प्रबल तथा अधिक स्थायी होते हैं। इसी नियमको आधार मानते हुए कहा जाता है कि बाल्यावस्था में याद किये गये विषयों की स्मृति अधिक स्पष्ट स्थायी होती है।

(ii) नवीनता का नियम– साहचर्य के इस नियम के अनुसार, हम जिस विषय के निकट भूतकाल में सीखते या याद करते हैं, उसकी धारण प्रबल होती है। यही कारण है कि देखी गयी फिल्म का अन्त प्रायः याद रहता है।

(iii) पुनरावृत्ति का नियम– साहचर्य के एक गौण नियम को पुनरावृत्ति का नियम कहा गया है। इस नियम की मान्यता यह है कि यदि किसी विषय को सीखने या याद करने में अधिक आवृत्ति होती अर्थात् उसे बार-बार दोहराया जाता है तो उस विषय की स्मृति उत्तम एवं स्थायी होती है।

(iv) स्पष्टता का नियम- इस नियम के अनुसार अस्पष्ट विषय की तुलना में स्पष्ट विषय की धारणा प्रबल होती है तथा ऐसा विषय अधिक दिनों तक याद रहता है।

(v) प्रबलता का नियम- कुछ विषयों का सम्बन्ध किसी प्रबल संवेग से होता है। इन विषयों के गहरे संस्कार हमारे मस्तिष्क पर पड़ जाते हैं तथा इन विषयों को अधिक समय तक याद रखा जाता है।

प्रश्न 5
स्मृति के विभिन्न प्रकार कौन-कौन से हैं?
या
संवेदी, अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन स्मृति के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
या
अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन स्मृति को स्पष्ट कीजिए।(2015)
उत्तर
स्मृति के मुख्य प्रकार
व्यक्ति एवं समाज के सन्दर्भ में स्मृति का अत्यधिक महत्त्व है। स्मृति के आधार पर ही जीवन की निरन्तरता बनी रहती है। स्मृति की प्रक्रिया का मनोविज्ञान में व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन के अन्तर्गत स्मृति के प्रकारों का भी निर्धारण भिन्न-भिन्न आधारों पर किया गया है। स्मृति के एक प्रकार को संवेदी स्मृति (Sensory Memory) के रूप में वर्णित किया गया है। संवेदी स्मृति से आशय उस स्मृति से है जिसके अन्तर्गत ज्ञानेन्द्रियों के स्तर पर पंजीकृत सूचनाओं को कुछ क्षणों के

लिए ज्यों-का-त्यों भण्डारित किया जाता है। इसके अतिरिक्त स्मृति के प्रकारों का निर्धारण धारणा के आधार पर भी किया गया है। इस आधार पर स्मृति के दो प्रकार निर्धारित किये गये हैं। ये प्रकार हैं-क्रमशः अल्पकालीन स्मृति तथा दीर्घकालीन स्मृति। जब किसी विषय को याद करने के अल्प समय अर्थात् कुछ मिनट के उपरान्त धारणा को परीक्षण द्वारा ज्ञात किया जाता है तो धारणा की उस मात्रा को अल्पकालीन स्मृति के रूप में जाना जाता है। जब किसी विषय को याद करने के कुछ अधिक समय अर्थात् कुछ घण्टों या कुछ दिनों के उपरान्त धारणा का मापन किया जाता है, तब प्राप्त निष्कर्ष अर्थात् धारणा की मात्रा को दीर्घकालीन स्मृति के रूप में जाना जाता है। सामान्य रूप से अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन स्मृति में स्पष्ट अन्तर होता है। वैसे कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन स्मृति में केवल मात्रा का अन्तर होता है। उनमें किसी प्रकार का मौलिक अन्तर नहीं होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्मृति के तीन प्रकार हैं—संवेदी स्मृति, अल्पकालीन स्मृति तथा दीर्घकालीन स्मृति। स्मृति के इन तीनों प्रकारों का सामान्य परिचय एवं विवरण निम्नलिखित है–

(1) संवेदी स्मृति (Sensory Memory)- स्मृति के एक प्रकार को संवेदी स्मृति के नाम से जाना जाता है। जब स्मृति की प्रक्रिया के दैहिक सक्रियता के स्तर को ध्यान में रखा जाता है, तब स्मृति को संवेदी स्मृति कहा जाता है। संवेदी स्मृति के अन्तर्गत उस स्मृति को स्थान दिया जाता है जो विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों के स्तर पर पंजीकृत सूचनाओं को ज्यों-का-त्यों कुछ क्षण के लिए भण्डारित किया जाता हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनसारे, व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियों के स्तर पर बाहरी उद्दीपकों के माध्यम से प्राप्त सूचनाओं के पंजीकरण एवं इस प्रकार से पंजीकृत सूचनाओं के ज्ञानेन्द्रियों में अल्प समय के लिए रुके रहने को प्रत्यक्षीकरण का आधार माना गया है। यह भी स्पष्ट किया गया है कि सांवेदिक भण्डार में पंजीकृत सूचनाएँ अपने मौलिक रूप में केवल अल्प समय अर्थात् कुछ क्षणों के लिए ही संचित रहती। हैं। कुछ विद्वानों ने तो इस अवधि को मात्र एक सेकण्ड ही माना है। संवेदी स्मृति के स्वरूप के स्पष्टीकरण के लिए हम एक उदाहरण भी प्रस्तुत कर सकते हैं।

जब किसी ठोस धातु पर किसी अन्य ठोस वस्तु से प्रहार किया जाता है तो इस प्रहार के परिणामस्वरूप एक तीव्र ध्वनि उत्पन्न होती है। इस ध्वनि की गूंज हमारे कानों में कुछ समय तक बनी रहती है। इसी को हम संवेदी स्मृति के रूप में जानते हैं। प्रस्तुत उदाहरण में पायी जाने वाली संवेदी स्मृति को श्रवण सम्बन्धी संवेदी स्मृति माना जाएगा। इसी प्रकार अन्य ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न प्रकार की संवेदी स्मृति भी पायी जाती है। जहाँ तक मनोवैज्ञानिक अध्ययनों का प्रश्न है, उनमें सामान्य रूप से चाक्षुष संवेदी स्मृति तथा श्रवणात्मक संवेदी स्मृति का ही मुख्य रूप से व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है। नाइस्सेर नामक मनोवैज्ञानिक ने चाक्षुष संवेदी स्मृति को प्रतिचित्रात्मक स्मृति (Iconic Memory) तथा श्रवणात्मक संवेदी स्मृति की। प्रतिध्वन्यात्मक स्मृति (Echoic Memory) कहा है। |

(2) अल्पकालीन स्मृति (Short-term Memory)- धारणा के आधार पर किये गये स्मृति के वर्गीकरण में स्मृति के एक प्रकार को अल्पकालीन स्मृति कहा गया है। सामान्य रूप से व्यक्ति द्वारा सम्बन्धित विषय को सीखने अथवा स्मरण करने के अल्प समय के उपरान्त यदि उसकी धारणा का परीक्षण किया जाए तो उस दशा में धारणा की जो मात्रा ज्ञात होती है, उसी को मनोविज्ञान की भाषा में अल्पकालीन स्मृति कहा जाता है। यहाँ अल्पकाल से आशय एक या कुछ मिनट ही होता है। इस प्रकार की स्मृति का सम्बन्ध एक बार के अनुभव यो सीखने से संचित होने वाली सामग्री से होता है। अल्पकालीन स्मृति को मनोवैज्ञानिकों ने एक प्रकार की जैव-वैद्युतिक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया है। उन्होंने इसका स्थायित्व अधिक-से-अधिक 30 सेकण्ड माना है।

(3) दीर्घकालीन स्मृति (Long-term Memory)- धारणा के आधार पर किये गये स्मृति के वर्गीकरण के अन्तर्गत स्मृति के दूसरे प्रकार को दीर्घकालीन स्मृति कहा गया है। दीर्घकालीन स्मृति से आशय उस पुन:स्मरण से है जो किसी विषय के स्मरण के दीर्घकाल के उपरान्त होता है। यह काल या. अवधि कुछ मिनट, कुछ घण्टे, कुछ दिन या कुछ वर्ष भी हो सकती है। दीर्घकालीन स्मृति के अन्तर्गत धारणा के ह्रास की दर कम होती है। हम कह सकते हैं कि इस स्मृति के सन्दर्भ में विस्मरण देर से तथा अपेक्षाकृत रूप से कम होता है। इस तथ्य का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि स्मरण

की गयी विषय-सामग्री का व्यक्ति के मन में होने वाला संचय, जैव-रसायन प्रतिमानों पर आधारित होता है। यह भी स्पष्ट किया गया है कि दीर्घकालीन स्मृति का सम्बन्ध मस्तिष्क के सेरिबेलट काटेंक्स के भूरे पदार्थ के गैगलिओनिक कोशों से होता है। यहाँ यह भी उल्लेख कर देना आवश्यक है कि जैसे-जैसे अधिगम में अभ्यास की वृद्धि होती है, वैसे-वैसे व्यक्ति की धारणा में होने वाला ह्रास घटता जाता है। इसका कारण यह है कि अभ्यास के परिणामस्वरूप व्यक्ति की धारणा क्रमशः सब होती रहती है।

प्रश्न 6
स्मृति अर्थात् धारणा के मापन के लिए अपनायी जाने वाली मुख्य विधियों का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए। या स्मृति मापन की विधियाँ बताइए। (2017)
उत्तर
यह सत्य है कि सभी व्यक्तियों की स्मरण-क्षमता समान नहीं होती। कुछ व्यक्ति सीखे गये विषयों को ज्यों-का-त्यों याद रखते हैं, जबकि कुछ व्यक्ति ऐसा नहीं कर पाते। वास्तव में, इस भिन्नता का कारण व्यक्तियों की धारणा (Retention) शक्ति का भिन्न-भिन्न होना है। प्रबल धारणा वाले व्यक्ति सीखे गये विषय को अधिक समय तक ज्यों-का-त्यों याद रखते हैं। इससे भिन्न यदि व्यक्ति की धारणा-क्षमता कमजोर होती है तो वह सम्बन्धित विषय को अधिक समय तक याद नहीं रख पाता है। ऐसे व्यक्तियों की स्मृति प्रायः उत्तम भी नहीं होती है। स्मृति के मापन के लिए धारणा को मापने करना ही अभीष्ट होता है। स्मृति अथवा धारणा के मापन के लिए अपनायी जाने वाली मुख्य विधियों का विवरण निम्नलिखित है

स्मृति अर्थात् धारणा के मापन की विधियाँ स्मृति के मापन के लिए अर्थात् धारणा-मापन के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित विधियों को अपनाया जाता है।

(1) धारणामापन की पहचान विधि- धारणा-मापन के लिए अपनायी जाने वाली एक मुख्य विधि है-‘पहचान विधि’ (Recognition Method)। इस विधि द्वारा धारणा के मापन के लिए सम्बन्धित व्यक्ति द्वारा स्मरण किये गये विषयों में कुछ अन्य ऐसे विषयों को भी सम्मिलित कर दिया जाता है, जिनसे उनको पूर्व-परिचय नहीं होता। इसके उपरान्त व्यक्ति के सम्मुख नये जोड़े गये विषयों तथा पूर्व-परिचित विषयों को सम्मिलित रूप से प्रस्तुत किया जाता है।

इन समस्त विषयों को एक साथ प्रस्तुत करने के उपरान्त व्यक्ति को कहा जाता है कि वह उनमे से पूर्व-परिचित विषयों को पहचान कर बताये। सामान्य रूप से बाद में सम्मिलित किये गये विषय भी पूर्व-परिचित विषयों से मिलते-जुलते ही होते हैं। इस परीक्षण के अन्तर्गत यह जानने का प्रयास किया जाता है कि व्यक्ति कुल विषयों में सम्मिलिते पूर्व-परिचित विषयों में से कुल कितने विषयों को ठीक रूप में पहचान लेता है। इन निष्कर्षों के आधार पर व्यक्ति की धारणा को मापन कर लिया जाता है। धारणा के मापन के लिए निम्नलिखित सूत्र को अपनाया जाता है

स्मृति पाठ से क्या सीख मिलती है? - smrti paath se kya seekh milatee hai?


(2) धारणा- मापन की पुनःस्मरण विधि- स्मृति (धारणा) मापन की एक अन्य विधि है। ‘पुन:स्मरण विधि।’ इस विधि को धारणा-मापन की अन्य विधियों की तुलना में एक सरल विधि माना जाता है; अतः यह विधि अधिक लोकप्रिय भी है। धारणा-मापन की इस विधि को सक्रिय पुनःस्मरण विधि भी कहा जाता है। धारणा-मापन की इस विधि के अन्तर्गत सम्बन्धित व्यक्ति को किसी विषय को याद करने के लिए कहा जाता है तथा याद कर लेने के कुछ समय उपरान्त याद किये गये विषय को सुनाने के लिए कहा जाता है। अब यह देखा जाता है कि वह व्यक्ति पहले याद किये गये विषय के कितने भागों को ज्यों-का-त्यों सुना पाया। उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति को 20 भिन्न-भिन्न देशों की राजधानियों के नाम याद करवाये गये तथा एक सप्ताह के उपरान्त उसे यही नाम सुनाने के लिए कहा गया, परन्तु वह व्यक्ति केवल 12 देशों की राजधानियों के ही नाम सुना पाया। इस स्थिति में कहा जाएगा कि व्यक्ति की धारणा 60% है।

(3) धारणा-मापन की पुनर्रचना विधि- धारणा के मापन के लिए अपनायी जाने वाली एक विधि ‘पुनर्रचना विधि’ भी है। इस विधि के अन्तर्गत सम्बन्धित व्यक्ति को पहले कोई एक विषय दिया जाता है जिसे समग्र रूप से सीखना या स्मरण करना होता है। व्यक्ति अभीष्ट विषय को भली-भाँति याद कर लेता है। व्यक्ति द्वारा विषय को समग्र रूप से याद कर लेने के उपरान्त उसके सम्मुख उसी विषय को मूल क्रम को भंग करके विभिन्न अंशों में अस्त-व्यस्त रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसके उपरान्त व्यक्ति को कहा जाता है कि वह इस प्रकार के अक्रमित रूप से उपलब्ध सामग्री को उसके मूल रूप में व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत करे। वह अपनी धारणा के आधार पर विषय को व्यवस्थित करता है। व्यक्ति जिस अनुपात में विषय को मूल रूप में प्रस्तुत करने में सफल होता, उसी के आधार पर धारणा की माप कर ली जाती है।

(4) धारणा-मापन की बचत विधि- धारणा (स्मृति) मापन के लिए अपनायी जाने वाली एक विधि को ‘बचत, विधि’ (Saving Method) के नाम से जाना जाता है। धारणा-मापन की इस विधि को पुनः अधिगंम विधि’ भी कहा जाता है। धारणा के मापन के लिए इस विधि के अन्तर्गत प्रथम चरण में व्यक्ति को चुने गये विषय को भली-भाँति स्मरण करवाया जाता है। इस प्रकार से विषय को याद करने में व्यक्ति द्वारा किये गये कुल प्रयासों को लिख लिया जाता है। द्वितीय चरण कुछ समय (काल) उपरान्त प्रारम्भ किया जाता है। इस चरण में व्यक्ति को वही विषय पुन:स्मरण करने के लिए दिया जाता है। इस चरण में अभीष्ट विषय को भली-भाँति स्मरण करने के लिए जितने प्रयास करने पड़े हों उन्हें भी लिख लिया जाता है। यह स्वाभाविक है कि द्वितीय चरण में उसी विषय को याद करने में कम प्रयास करने पड़ते हैं। दोनों चरणों में किये गये प्रयासों के अन्तर को ज्ञात करके लिख लिया जाता है। इन समस्त तथ्यों के आधार पर धारणा को मापन कर लिया जाता है। इसके लिए निम्नलिखित सूत्र को अपनाया जाता है

स्मृति पाठ से क्या सीख मिलती है? - smrti paath se kya seekh milatee hai?

प्रश्न 7
विस्मरण से आप क्या समझते हैं? विस्मरण के कारणों को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए। (2011)
या
विस्मरण का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। ‘विस्मरण’ के मुख्य सामान्य कारणों को भी स्पष्ट कीजिए।
या
विस्मरण के कारणों पर विस्तार से प्रकाश डालिए। (2015, 17)
या
विस्मरण के तिन्हीं दो कारणों को स्पष्ट कीजिए। (2018)
उत्तर
विस्मरण का अर्थ यदि भूतकालीन अनुभव या याद की गई सामग्री का वर्तमान चेतना में पुन: प्रकट होना ‘स्मरण है, तो उसके प्रकट न होने की मानसिक प्रक्रिया ‘विस्मरण’ कही जाएगी। समय व्यतीत होने के साथ ही व्यक्ति का स्मरण की हुई वस्तु से धीरे-धीरे सम्पर्क कम होता जाता है, फलस्वरूप विस्मृति की क्रिया सक्रिय होती है जिससे स्मृति-चिह्न कमजोर होने लगते हैं; अन्ततः सीखने की क्रिया में ह्रास होता है। और व्यक्ति उस वस्तु को भूल जाता है। विस्मरण की यह महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति प्रत्येक व्यक्ति में पायी जाती है।

विस्मरण (भूलना) से अभिप्राय स्मरण की गई विषय-सामग्री को चेतना में पूर्ण या आंशिक रूप से न ला सकने से है। यदि चेतना में विद्यमान वस्तु की पहचान नहीं हो पा रही है तो भी विस्मरण कहलाएगा। यह एक विरोधी एवं नकारात्मक मानसिक क्रिया है। व्यक्ति के लिए स्मरण जितना आवश्यक है, विस्मरण भी ठीक उतना ही आवश्यक है, क्योंकि जीवन के अरुचिकर एवं दु:खद प्रसंगों को भूलने में ही भलाई है। मनुष्य का मन ऐसी बातों से हटता है जो उसे पीड़ा देती हैं। वह तो केवल सुखद, रुचिकर एवं उपयोगी बातों से सम्बन्ध रखना चाहता है। स्पष्टत: विस्मरण ऐसी अप्रिय बातों से मानव-मन को सुरक्षा प्रदान करता है, किन्तु, आवश्यक एवं उपयोगी बातों को समय पड़ने पर भूल जाना किसी भी दशा में हितकर नहीं कहा जा सकता।

विस्मरण की परिभाषाएँ

विस्मरण की प्रमुख परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं

  1. मन के अनुसार, “जो कुछ अर्जित (सीखा) किया गया है, उसे धारण न कर सकना ही विस्मरण है।”
  2. फ्रॉयड के अनुसार, “जो कुछ अप्रिय है, उसे स्मृति से दूर करने की प्रवृत्ति ही विस्मरण है।”
  3. जेम्स ड्रेवर के अनुसार, “प्रयास करने के पश्चात् भी पूर्व-अनुभवों का स्मरण न हो पाना ही विस्मरण है।”
  4. इंगलिश एवं इंगलिश के अनुसार, “विस्मरण वह स्थायी या अस्थायी हानि है जिसका सम्बन्ध पूर्व सीखी गई सामग्री से रहता है। यह पुन:स्मरण एवं पहचान-जैसी योग्यताएँ नष्ट कर देता है।

निष्कर्षत: विस्मरण या भूलना वह मानसिक प्रक्रिया है जिसमें स्मरण या सीखने की प्रक्रिया के अन्तर्गत बने सम्बन्ध क्षीण हो जाते हैं।

विस्मरण के दो प्रकार हैं-सक्रिय विस्मरण एवं निष्क्रिय विस्मरण। सक्रिय विस्मरण में व्यक्ति स्मरण की गई सामग्री को भूलने के लिए प्रयास करता है, जबकि निष्क्रिय विस्मरण में वह बिना प्रयास के ही भूल जाता है।

विस्मरण के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए एबिंगहास ने लिखा है, “जब अभ्यास के अभाव में किसी पूर्व सीखी हुई सामग्री या घटना के स्मृति-चिह्न धुंधले एवं अस्पष्ट हो जाते हैं, जिसके फलस्वरूप किसी सीखी हुई सामग्री का विस्मरण हो जाता है। इस प्रकार एबिंगहास के अनुसार, विस्मरण एक निष्क्रिय प्रक्रिया है। इससे भिन्न फ्रॉयड ने विस्मरण को एक सक्रिय प्रक्रिया माना है तथा माना है कि व्यक्ति कुछ विषयों को जान-बूझकर तथा सप्रयास ही भूल जाया करता है।

विस्मरण या भूलने के सामान्य कारण

कोई मनुष्य अवसर पड़ने पर, प्रयास करने के बावजूद भी किसी पूर्व अनुभव को याद करने में क्यों असफल रह जाता है? इसका उत्तर आसानी से नहीं दिया जा सकता, क्योंकि विस्मरण के लिए

कोई एक नहीं, बल्कि अनेकानेक कारकै जिम्मेदार होते हैं। इनमें से अनेक कारकों की तो खोज भी काफी कठिन है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों द्वारा विस्मरण के सम्बन्ध में पर्याप्त अध्ययन से, विस्मरण के निम्नलिखित सामान्य कारणों का पता चलता है|

(1) अभ्यास का अभाव– विस्मरण का एक प्रमुख कारण अनभ्यास अर्थात् अभ्यास का न होना है। यदि सीखी गई वस्तुओं का समुचित एवं निरन्तर अभ्यास नहीं किया जाता है तो वे शनैः-शनैः विस्मृत हो जाती हैं।

(2) समय का प्रभाव प्रत्येक अनुभव मस्तिष्क में एक स्मृति- चिह्न या संस्कार का निर्माण करता है। समय बीतने के साथ-साथ नये अनुभव तथा तथ्य प्रकट होते रहते हैं जिनके प्रभाव से पुराना संस्कार धूमिल पड़ जाता है। दीर्घकाल में इसका पूरी तरह लोप भी हो सकता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार विस्मरण की क्रिया समय द्वारा प्रभावित अवश्य होती है, किन्तु स्मृति को प्रमस्तिष्क के सीधे उद्दीपन द्वारा फिर से जीवित किया जा सकता है।

(3) नींद का अभाव- प्रयोगों से ज्ञात होता है कि नींद और आराम के अभाव में सीखी हुई सामग्री द्वारा निर्मित-चिह्नों के संयोजक दुर्बल पड़ जाते हैं और धीरे-धीरे टूट जाते हैं। इसके विपरीत नींद एवं आराम की अवस्था में स्मृति-चिह्नों में मजबूती आती है और विस्मरण का कम प्रभाव पड़ता है।

(4) संवेग- संवेगावस्था में मनुष्य को स्नायु-संस्थान उत्तेजित होकर असामान्य स्वरूप धारण कर लेता है जिसका शारीरिक संरचना पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि किसी सामग्री को याद करने के उपरान्त व्यक्ति संवेगावस्था का शिकार हो जाए तो सीखा गया विषय विस्मृत हो सकता है।

(5) दमन- प्रसिद्ध मनोविश्लेषणवादी फ्रॉयड के अनुसार, किसी बात को मनुष्य इसलिए भूलता है क्योंकि वह उसे भूलना चाहता है। हमें ज्ञात है कि मनुष्य, अचेतन मन की क्रियाओं को प्रत्यावाहित नहीं कर पाता और इसी कारण ये क्रियाएँ याद नहीं आतीं। मनुष्य के अप्रिय तथा कष्टदायी अनुभव उसके अचेतन मन की ओर ठेल दिये जाते हैं, जहाँ वे जाकर दमित तथा विस्मृत हो जाते हैं।

(6) सीखने की मात्रा तथा विषय का आकार- जब सीखने की मात्रा कम होती है तथा विषय का आकार छोटा होता है तो विस्मरण जल्दी होता है। मनुष्य अधिक मात्रा तथा लम्बे आकार वाली विषय-सामग्री को जल्दी नहीं भूल पाता।

(7) सीखने की गति- द्रुतगति से सीखा हुआ ज्ञान शीघ्र विस्मृत नहीं होता, किन्तु धीरे-धीरे और मन्दगति से सीखा गया ज्ञान शीघ्र एवं अधिक विस्मृत होता है।

(8) दोषपूर्ण पद्धति- यदि सीखने की पद्धति दोषपूर्ण है तो स्मृति पटल पर सीखी गई वस्तु को दुर्बल संस्कार बनता है और वह जल्दी ही लुप्त हो जाता है। सीखने की मनोवैज्ञानिक पद्धति शीघ्र एवं स्थायी स्मरण में सहायक होती है।

(9) अर्थहीन विषय-सामग्री- याद की जाने वाली अर्थहीन विषय-सामग्री के स्मृति-चिह्न मस्तिष्क पर गहरे नहीं बनते; अतः ऐसी सामग्री को भूलने की गति भी तीव्र होती है।

(10) मानसिक तत्परता का अभाव- सीखने की प्रक्रिया के दौरान मानसिक तत्परता एवं रुचि का योग रहने से स्मरण को स्थायित्व मिलता है। मानसिक तत्परता का अभाव रहने से मस्तिष्क पर संस्कार कम स्थायी होता है जिससे भूलने की क्रिया में वृद्धि होती है।

(11) मस्तिष्क आघात- बहुधा देखने में आता है कि मस्तिष्क पर आघात या चोट लगने से स्मृति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे या तो स्मृति कम हो जाती है या लुप्त हो जाती है। गहरी चोट के कारण विस्मरण की मात्रा बढ़ जाती है।

(12) चिन्तन एवं मनन की कमी- सीखने की प्रक्रिया में मानसिक चिन्तन एवं मनन की कमी के कारण सीखे गये तथ्यों के हल्के स्मृति-चिह्न बनते हैं जिसके परिणामतः विस्मृति अधिक होती है।

(13) भावना ग्रंथियाँ– सीखते समय व्यक्ति के अचेतन मन की भावना ग्रन्थियाँ संस्कारों के निर्माण में बाधा उत्पन्न करती हैं जिससे व्यक्ति भूलने लगता है।

(14) वृद्धावस्था– वृद्धावस्था में व्यक्ति के शरीर के अंग कमजोर होने लगते हैं तथा उसको विविध क्षमताएँ दुर्बल हो जा हैं जिसके फलस्वरूप उसकी स्मरण शक्ति भी क्षीण पड़ जाती है।

(15) मादक पदार्थ– मादक पदार्थों का सेवन भी विस्मरण का एक कारण है। शराब, अफीम, गाँजा, भाँग, चरस आदि का नशा करने वाले लोगों की स्नायु क्षीण हो जाती हैं। इसके फलस्वरूप वे बातों को अधिक समय तक स्मरण नहीं रख पाते तथा उन्हें भूल जाते हैं।

(16) गम्भीर रोग- गम्भीर शारीरिक एवं मानसिक रोग; जैसे-टाईफॉइड, मनोविदलता आदि स्मरण शक्ति पर बुरा प्रभाव डालते हैं। इनसे पीड़ित व्यक्ति में विस्मरण तेजी से होता है।

(17) पूर्वोन्मुख अवरोध- इसे आन्तरिक या भूताभिमुख अवरोध (Retroactive Inhibition) भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत हर नया ज्ञान पुराने ज्ञान के प्रत्यास्मरण में रुकावट डालता है। प्रयोगों से पता चलता है कि सीखी गयी नई क्रियाएँ पुरानी क्रियाओं के मार्ग में तुरन्त अवरोध (रुकावट) पैदा करने लगती हैं जिससे पूर्व ज्ञान का स्मरण कठिन हो जाता है।

(18) अग्रोन्मुख अवरोध- अग्रोन्मुख अवरोध (Proactive Inhibition) में पुरानी क्रियाएँ नई सीखी क्रियाओं के प्रत्यास्मरण के मार्ग को बाधित करती हैं। इस भाँति नये ज्ञान का प्रत्यास्मरण पुरानी सीखी क्रियाओं की उत्तेजना से रुक जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
अच्छी स्मृति की मुख्य विशेषताओं अथवा लक्षणों का उल्लेख कीजिए। या अच्छी स्मृति की दो विशेषताएँ बताइए। (2015, 17) उत्तर
अच्छी स्मृति की मुख्य विशेषताओं अथवा लक्षणों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

(1) तीव्र गति से सीखना-सीखना (Learning) स्मृति का प्रथम एवं महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। स्मृति का ज्ञान सीखने की तीव्रता से होता है। अच्छी स्मृति वाला व्यक्ति शीघ्रता से सीखता है और उसके मस्तिष्क पर सीखी गई सामग्री को शीघ्र प्रभाव पड़ता है।

(2) स्थायी धारण शक्ति– अच्छी स्मृति की दूसरी विशेषता विषय-सामग्री का देर तक धारण करना है। किसी सामग्री को लम्बे समय तक धारण करने के लिए दो बातें आवश्यक हैं-एक, व्यक्ति की मानसिक संरचना (बनावट) तथा दो, सामग्री के विषय में बार-बार सोचना। इससे मस्तिष्क में स्थित संस्कार जल्दी नहीं मिटते।

(3) व्यर्थ बातों का विस्मरण- अच्छी स्मृति के लिए व्यर्थ की बातों का विस्मरण (भूलना) भी आवश्यक है। जितना आवश्यक एवं उपयोगी बातों को मस्तिष्क में सँजोकर रखना है उतना ही आवश्यक व्यर्थ बातों को भूल जाना भी है।

(4) यथार्थ पुनःस्मरण- अच्छी स्मृति में यथार्थ पुन:स्मरण पाया जाता है अर्थात् आवश्यकता पड़ने पर भूतकालीन अनुभव ठीक-ठीक तथा पूरी तरह याद आ जाने चाहिए। एक शिक्षक के व्याख्यान की सफलता उसके यथार्थ एवं शीघ्र पुन:स्मरण पर निर्भर करती है।

(5) स्पष्ट एवं शीघ्र पहचान- अच्छी स्मृति के लिए वस्तु के स्पष्ट एवं शीघ्र पहचान की पर्याप्त आवश्यकता होती है।

(6) उपादेयता– सीखा गया ज्ञान तभी उत्पादक या उपादेय होगा जब कि वह समय पड़ने तथा उपयुक्त अवसर पर याद आ जाए। अन्त्याक्षरी प्रतियोगिता के अवसर पर यदि याद की गई कविताएँ सही समय पर याद न आयें तो वे अनुपयोगी ही कहलाएँगी।

प्रश्न 2
कण्ठस्थीकरण (याद करने) की कौन-सी विधि को आप सर्वोत्तम मानते हैं? लम्बी कविता को किस विधि द्वारा याद करना चाहिए?
उत्तर
हम जानते हैं कि कण्ठस्थीकरण अथवा याद करने की विभिन्न विधियाँ हैं। विभिन्न विधियों को ध्यान में रखते हुए स्मरण की क्रिया के सम्बन्ध में निष्कर्षतः हम कह सकते हैं-एक, स्मरण एक व्यक्तिगत प्रक्रिया है तथा दो, स्मरण पर विषय की प्रकृति का प्रभाव पड़ता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से

व्यक्तिगत भिन्नताएँ देखने को मिलती हैं। प्रत्येक व्यक्ति की रुचि, अभिरुचि, बुद्धि, मनोवृत्ति, योग्यता एवं क्षमता अलग होती है। इसी प्रकार कुछ विषय सरल तो कुछ कठिन, ‘कुछ छोटे तो कुछ लम्बे, कुछ रुचिकर तो कुछ अरुचिकर हो सकते हैं। किस व्यक्ति के लिए स्मरण की कौन-सी विधि सर्वोत्तम होगी, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः स्मरण की सभी विधियों का सापेक्षिक (ग्नि) महत्त्व दृष्टिगोचर होता है। याद करने वाला व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं तथा विषय की प्रकृति के अनुसार किसी भी एक उपयुक्त विधि या दो को मिलाकर मिश्रित विधि का उपयोग कर सकता है।

एक लम्बी कविता को कण्ठस्थ करने के लिए सबसे पहले समूची कविता को एक साथ याद किया जाना चाहिए। कुछ अन्तर से थोड़े समय बाद, कविता को इसके पदों में खण्डित करके अलग-अलग कण्ठस्थ किया जाएगा, किन्तु विभिन्न खण्डों या अंशों को परस्पर एक-दूसरे से अवश्य जोड़ते जाना चाहिए। इसकी स्मृति सर्वोत्तम समझी जाती है। स्पष्टत: इसके लिए पूर्ण एवं आंशिक खण्ड विधि को मिलाकर मिश्रित विधि का उपयोग किया जाएगा।

प्रश्न 3
विस्मरण को रोकने के उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
विस्मरण की जीवन में विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण भूमिका है, किन्तु सीमा से अधिक भूल/विस्मृति का होना हानिकारक है और उस समय इसे रोकना अपरिहार्य हो जाता है। विस्मरण को रोकने के उपाय निम्नलिखित से हैं

(1) दोहरांना— याद की जाने वाली किसी विषय-सामग्री को स्थायी करने की दृष्टि से, उसे याद करने के एक घण्टे के भीतर अवश्य दोहरा लेना चाहिए।

(2) स्वास्थ्य– विस्मरण से बचने के लिए शरीर और मन के स्वास्थ्य पर भी ध्यान देना आवश्यक है। जिन लोगों का मस्तिष्क दुर्बल हो जाता है, उन्हें मानसिक दुर्बलता दूर करने के लिए पौष्टिक भोजन ग्रहण करना चाहिए।

(3) विश्राम- विषय को याद करने के उपरान्त कुछ देर विश्राम करना अच्छा है, इससे स्मृति दृढ़ हो जाती है तथा विस्मरण नहीं होगा।

(4) अर्तिशिक्षण– विषय को आवश्यकता से अधिक याद कर लेने तथा पुन: उसे बार-बार दोहराने से भूलने पर नियन्त्रण रहता है। इसे अतिशिक्षण कहते हैं।

(5) इच्छा-शक्ति– विषय को इच्छा-शक्ति के साथ याद करना चाहिए। इससे वह मस्तिष्क में स्थायी होगा तथा विस्मृति कम होगी।

(6) साहचर्य स्थापना- विचार साहचर्य के नियम का पालन करने से स्मरण को स्थायित्व मिलता है। इस नियम के अनुसार याद करते समय नवीन ज्ञान को पुराने ज्ञान से जोड़ते हुए चलना चाहिए।

(7) सस्वर पाठन- बोल-बोलकर (सस्वर) पाठ याद करने से विस्मरण की प्रवृत्ति कम। होती है।

(8) निद्रा— याद करने के उपरान्त थोड़ी देर तक सो लेने से विषय का संस्कार मस्तिष्क में * गहरा हो जाता है तथा भूलना कम हो जाता है।

(9) नशे से बचाव- नशाखोर लोगों को नशीले पदार्थों का सेवन छोड़ देना चाहिए। इससे विस्मरण की मात्रा कम होगी।

(10) लम्बी छुट्टियों में अध्ययन– बहुत-से विद्यार्थी लम्बी छुट्टियों में अध्ययन कार्य बन्द कर देते हैं। परिणामतः वे सीखा गया ज्ञान भूल जाते हैं। अत: लम्बी छुट्टियों (जैसे—ग्रीष्मावकाश) में भी अध्ययन की प्रवृत्ति बनाये रखनी चाहिए।विस्मरण के उपर्युक्त उपाय अपनाने पर भूलने की अस्वाभाविक प्रवृत्ति पर अंकुश लगता है।

प्रश्न 4
अल्पकालीन स्मृति की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
स्मृति के एक मुख्य प्रकार के रूप में अल्पकालीन स्मृति की मुख्य विशेषताओं को संक्षिप्त विवरण अग्रलिखित है

(1) धारणा के ह्रास की दर अधिक— अल्पकालीन स्मृति की धारणा को ह्रास तीव्र गति से होता है अर्थात् धारणा के पास की दर अधिक होती है। हम यह भी कह सकते हैं कि अल्पकालीन स्मृति के सन्दर्भ में सम्बन्धित विषय का विस्मरण तीव्र गति से होता है। इस विषय में पीटरसन एवं पीटरसन ने कुछ परीक्षण किये तथा निष्कर्ष स्वरूप बताया कि अल्पकालीन स्मृति के सन्दर्भ में विषय को याद करने के उपरान्त 12 सेकण्ड में प्रायः याद किये गये विषय का 75% विस्मरण हो जाता है। तथा 18 सेकण्ड के उपरान्त लगभग 90% विस्मरण हो जाती है।

(2) अधिगम की मात्रा कम होती है— अल्पकालीन स्मृति के सन्दर्भ में अधिगम कम मात्रा में होता है। अधिगम की मात्रा कम होने का मुख्य कारण यह होता है कि इस विधि में अनुभव की मात्रा भी कम होती है।

(3) अग्रोन्मुखी तथा पृष्ठोन्मुखी व्यतिकरण- अल्पकालीन स्मृति पर सामान्य रूप से अग्रोन्मुखी तथा पृष्ठोन्मुखी दोनों प्रकार के व्यतिकरणों का प्रभाव अवश्य पड़ता है।

प्रश्न 5
अल्पकालीन स्मृति के अध्ययन की प्रविधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
अल्पकालीन स्मृति के अध्ययन के लिए विभिन्न प्रविधियों को अपनाया जाता है, जिनमें से मुख्य इस प्रकार हैं

(1) अध्ययन की विक्षेप प्रविधि तथा
(2) अध्ययन की छानबीन प्रविधि। इन दोनों प्रविधियों का सामान्य विवरण अग्रलिखित है|

(1) अल्पकालीन स्मृति के अध्ययन की विक्षेप प्रविधि– पीटरसन एवं पीटरसन नामक मनोवैज्ञानिकों ने अल्पकालीन स्मृति के अध्ययन के लिए ‘विक्षेप प्रविधि’ (Distraction Technique) को अपनाया था। इस विधि के अन्तर्गत स्मृति के अध्ययन के लिए सम्बन्धित व्यक्ति के सम्मुख अभीष्ट विषय को एक बार प्रस्तुत किया जाता है अर्थात् विषय को सीखने या याद करने का एक अवसर प्रदान किया जाता है तथा उसके उपरान्त व्यक्ति को तुरन्त कोई अन्य विषय सीखने में लगा दिया जाता है। इस प्रकार की व्यवस्था के कारण व्यक्ति को पूर्व स्मरण किये गये विषय को मन-ही-मन दोहराने का अवसर प्राप्त नहीं होता। द्वितीय विषय में संलग्न रहने के उपरान्त व्यक्ति को पुन: पहले स्मरण किये गये विषय को सुनाने के लिए कहा जाता है अर्थात् उसकी धारणा के मापन का कार्य किया जाता है। पीटरसन एवं पीटरसन ने अपने परीक्षणों के आधार पर निष्कर्ष स्वरूप बताया कि 18 सेकण्ड के व्यवधान के उपरान्त पूर्व स्मरण किये गये विषय की धारणा केवल 10% रह जाता है।

(2) अल्पकालीन स्मृति के अध्ययन की छानबीन प्रविधि- अल्पकालीन स्मृति के अध्ययन की एक विधि छानबीन प्रविधि’ (Probe Technique) भी है। इस प्रविधि के अन्तर्गत व्यक्ति के सम्मुख कुछ सार्थक, निरर्थक या युग्मित सहचर पद क्रमिक ढंग से प्रस्तुत किये जाते हैं। कुछ समय के उपरान्त उन्हीं क्रमिक ढंग से प्रस्तुत किये गये पदों में से किसी एक पद को प्रस्तुत किया जाता है। तथा व्यक्ति को कहा जाता है कि पहले प्रस्तुत की गयी पद-श्रृंखला में उस पद के उपरान्त आने वाला पुद बतायें। इस प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्ति की धारणा को ज्ञात कर लिया जाता है।

प्रश्न 6
टिप्पणी लिखिए–असामान्य स्मृतियाँ उत्तर सामान्य या अच्छी स्मृति से प्रत्येक व्यक्ति परिचित है, परन्तु कुछ स्मृतियाँ असामान्य स्मृतियाँ (Abnormal Memories) भी होती हैं। असामान्य स्मृति के मुख्य रूप से तीन प्रकार या स्वरूप हैं, जिनका संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है|
(1) स्मृति हास- असामान्य स्मृति का एक रूप स्मृति ह्रास (Amnesia) है। इस स्थिति में स्मृति नष्ट हो जाती है। प्राय: सभी सीखी गई क्रियाओं या विषयों का विस्मरण होने लगता है। गम्भीर स्मृति ह्रास के व्यक्ति के व्यक्तित्व का भी विघटन हो सकता है। इस स्थिति के लिए जिम्मेदार मुख्य कारक हैं-ध्यान, प्रत्यक्षीकरण संवेग तथा सीखने की कमी। अनेक बार शारीरिक आघात, व्यक्तिगत संघर्ष तथा मानसिक रोगों के कारण भी स्मृति हास की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

(2) तीव्र स्मृति- असामान्य स्मृति का एक रूप तीव्र स्मृति (Hypermnesia) भी है। ऐसा देखा गया है कि किसी २ किस्मिक घटना के कारण व्यक्ति में स्मृति की प्रबलता आ जाती है। इस स्थिति में विभिन्न घटनाएँ क्रमबद्ध होकर याद आती हैं। प्रायः सम्मोहन अथवा सन्निपात की अवस्था में तीव्र स्मृति हो जाती है।

(3) मिथ्या स्मृति- असामान्य स्मृति का तीसरा रूप मिथ्या स्मृति (Paramnesia) है। इस असामान्य स्थिति में व्यक्ति उन घटनाओं का पुन:स्मरण करता हुआ देखा गया है, जो घटनाएँ पहले कभी घटित हुई ही नहीं थीं। इसी प्रकार कभी-कभी व्यक्ति पुरानी घटनाओं को नई कल्पनाओं से जोड़कर एक भिन्न रूप में प्रस्तुत करता है। यह मिथ्या स्मृति ही है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
स्मरण करने की पूर्ण तथा आंशिक विधियों में से कौन-सी विधि अच्छी मानी जाती है?
उत्तर
पूर्ण और आंशिक दोनों विधियों में से कौन-सी विधि अधिक अच्छी है, इस समस्या को सुलझाने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने समय-समय पर विभिन्न प्रयोग किये हैं। पेखस्टाइन (Pechstein) नामक विद्वान् ने अपने प्रयोग से निष्कर्ष निकाला कि आंशिक विधि, पूर्ण विधि से बेहतर है, किन्तु एल० स्टीफेन्स (L. Steffens) के प्रयोगों से सिद्ध होता है कि स्मरण की क्रिया में आंशिक विधि की तुलना में पूर्ण विधि में 12% समय की बचत होती है। पिनर एवं साइण्डर (Pyner and Synder) के प्रयोगों से ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण रूप से याद करने वाली विधि 240 लाइनों वाली कविता के लिए अत्यन्त प्रभावकारी है लेकिन इससे लम्बी कविता को खण्डों या उप-समग्रों में बाँटकर याद किया जा सकता है।

वस्तुतः याद की जाने वाली सामग्री के लिए विधि का चयन; विषय की मात्र, प्रकार तथा याद करने वाले की बुद्धि व क्षमता पर आधारित है। जहाँ पूर्ण विधि सरल, छोटी सामग्री तथा तीव्र बुद्धि के बालकों के लिए उपयुक्त है; वहीं दूसरी ओर, आंशिक विधि कठिन, लम्बी सामग्री तथा मन्द बुद्धि के बालकों के लिए बेहतर समझी जाती है।

स्मृति कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है?

मित्र हमें स्मृति पाठ से शिक्षा मिलती है कि संकट के समय धैर्य से काम लेना चाहिए। यदि हम किसी मुसीबत में फँस जाए तो बुद्धिमानी से उस मुसीबत का सामना करना चाहिए। लेखक का मानना है कि कर्म करना मनुष्य का कर्तव्य है। उसे परिणाम ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए।

स्मृति पाठ को पढ़ने से हमें क्या पता चलता है?

Expert-Verified Answer. स्मृति पाठ पढ़ने से बच्चो के बारे में पता चलता है कि बच्चे नासमझ , दुस्साहसी तथा शरारती होते हैं। स्मृति पाठ पढ़ने से बच्चो के बारे में पता चलता है कि बच्चे नासमझ , दुस्साहसी तथा शरारती होते हैं। सही विकल्प है (d) उपर्युक्त सभी कथन सत्य हैं।

स्मृति पाठ से आपने क्या समझा?

उत्तर- 'स्मृति' पाठ से यह बात उभरकर सामने आती है कि बच्चे अत्यन्त साहसी होते हैं। उन्हें मृत्यु का भय नहीं होता है। इस उम्र में वे बड़े-बड़े साहसिक कार्य कर बैठते हैं।

स्मृति पाठ में लेखक ने क्या वर्णन किया है?

स्मृति पाठ प्रवेश इस पाठ में लेखक अपने बचपन की उस घटना का वर्णन करता है जब वह केवल ग्यारह साल का था और उसके बड़े भाई ने उससे कुछ महत्वपूर्ण चिठियों को डाकघर में डालने के लिए भेजा था और उसने गलती से वो चिठियाँ एक पुराने कुऍं में गिरा दी थी।