सांख्य दर्शन के सत्कार्यवाद सिद्धांत की व्याख्या कीजिए - saankhy darshan ke satkaaryavaad siddhaant kee vyaakhya keejie

सत्कार्यवाद, सांख्यदर्शन का मुख्य आधार है। इस सिद्धान्त के अनुसार, बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। फलतः, इस जगत की उत्पत्ति शून्य से नहीं किसी मूल सत्ता से है। यह सिद्धान्त बौद्धों के शून्यवाद के विपरीत है। न्यायदर्शन, असत्कार्यवाद को स्वीकार करता है।

कार्य, अपनी उत्पत्ति के पूर्ण कारण में विद्यमान रहता है। कार्य अपने कारण का सार है। कार्य तथा कारण वस्तुतः समान प्रक्रिया के व्यक्त-अव्यक्त रूप हैं। सत्कार्यवाद के दो भेद हैं- परिणामवाद तथा विवर्तवाद। परिणामवाद से तात्पर्य है कि कारण वास्तविक रूप में कार्य में परिवर्तित हो जाता है। जैसे तिल तेल में, दूध दही में रूपांतरित होता है। विवर्तवाद के अनुसार परिवर्तन वास्तविक न होकर आभास मात्र होता है। जैसे-रस्सी में सर्प का आभास होना।

असत्कार्यवाद, कारणवाद का न्यायदर्शनसम्मत सिद्धान्त है। इसके अनुसार कार्य उत्पत्ति के पहले नहीं रहता। न्याय के अनुसार उपादान और निमित्त कारण अलग-अलग कार्य उत्पन्न करने की पूर्ण शक्ति नहीं है किन्तु जब ये कारण मिलकर व्यापारशील होते हैं तब इनकी सम्मिलित शक्ति ऐसा कार्य उत्पन्न होता है जो इन कारणों से विलक्षण होता है। अत: कार्य सर्वथा नवीन होता है, उत्पत्ति के पहले इसका अस्तित्व नहीं होता। कारण केवल उत्पत्ति में सहायक होते हैं।

सांख्यदर्शन इसके विपरीत कार्य को उत्पत्ति के पहले कारण में स्थित मानता है, अतः उसका सिद्धान्त सत्कार्यवाद कहलाता है। न्यायदर्शन, भाववादी और यथार्थवादी है। इसके अनुसार उत्पत्ति के पूर्व कार्य की स्थिति मानना अनुभवविरुद्ध है। न्याय के इस सिद्धान्त पर आक्षेप किया जाता है कि यदि असत् कार्य उत्पन्न होता है तो शशश्रृंग जैसे असत् कार्य भी उत्पन्न होने चाहिए। किन्तु न्यायमंजरी में कहा गया है कि असत्कार्यवाद के अनुसार असत् की उत्पत्ति नहीं मानी जाती। अपितु जो उत्पन्न हुआ है उसे उत्पत्ति के पहले असत् माना जाता है।

सिद्धान्त[संपादित करें]

सत्कार्यवाद, मुख्यतः सांख्य का सिद्धान्त है जिसके अनुसार कार्य (प्रभाव), अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान (सत्) रहता है। इसके अनुसार सत् (जिसका अस्तित्व है वह) असत् (जिसका अस्तित्व नहीं है) से उत्पन्न नहीं हो सकता।

सत्कार्यवाद योग दर्शन से भी सम्बद्ध है। ईश्वरकृष्ण ने अपनी सांख्यकारिका ने कहा है कि-

असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् ।शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥ ९ ॥[1]अर्थ : असदकरण से (असदकारणात् = असत् + अकरणात् ) , उपादानग्रहण से ( उपादानग्रहणात् ), सर्वसम्भवाभाव से ( सर्वसम्भवाभावात् = सर्वसम्भव अभावात्) , शक्त के शक्यकरण से (शक्तस्य शक्यकरणात् ), कारणभाव से (कारणभावत् ) -- कार्य ‘सत्’ है, अर्थात् कार्य अपने कारण में सदा विद्यमान है।

कार्य ‘सत्’ है अर्थात् कार्य अपने कारण में सदा विद्यमान है; क्योंकि

  • असत् को सत् से उत्पन्न नहीं किया जा सकता,
  • जिस कार्य की आवश्यकता होती है उसी कारण को ग्रहण करना पड़ता है,
  • हर कार्य हर जगह विद्यमान नहीं होता,
  • जो कारण जिस कार्य को उत्पन्न कर सकता है, वह उसी को उत्पन्न कर सकता है,
  • कारण जिस प्रकार का होता है, कार्य भी उसी प्रकार का होता है,
  1. असदकरण : जिसका अस्तित्व नहीं है, उसे उत्पन्न नहीं किया जा सकता।
  2. उपादानग्रहण : कुछ उत्पन्न करने के लिये सही उपादान (material) होना चाहिये।
  3. सर्वसम्भवाभाव : किसी वस्तु से सब कुछ उत्पन्न नहीं किया जा सकता। बालू से तेल न्हीं निकाला जा सकता।
  4. शक्तस्य शक्यकरण : कारण केवल वही कर सकता है जो उसकी कर सकने की सीमा में हो।
  5. कारणभाव : कार्य की प्रकृति, कारण जैसी होती है।[2]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "Ishvarakrishna's sAnkhyakArikA" (PDF). sanskritdocuments.org. मूल से 2012-02-23 को पुरालेखित (PDF). अभिगमन तिथि 2020-11-23.
  2. Wihelm Halbfass (1992-07-28). On Being and What There Is. SUNY Press. पपृ॰ 28, 56. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-7914-1178-0.

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • असत्कार्यवाद

सांख्य दर्शन के सत्कार्यवाद सिद्धांत की व्याख्या कीजिए - saankhy darshan ke satkaaryavaad siddhaant kee vyaakhya keejie
"Be educated and let others be educated"

सांख्य दर्शन के सत्कार्यवाद सिद्धांत की व्याख्या कीजिए - saankhy darshan ke satkaaryavaad siddhaant kee vyaakhya keejie
सांख्य दर्शन के सत्कार्यवाद की व्याख्या

नमस्कार दोस्तों हमारी आज के post का शीर्षक है सांख्य दर्शन के सत्कार्यवाद की व्याख्या उम्मीद करतें हैं की यह आपकों अवश्य पसंद आयेगी | धन्यवाद |

सांख्य दर्शन में कार्यकारण सिद्धान्त को सत्कार्यवाद के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक कार्य कारण सिद्धान्त के सम्मुख एक प्रश्न उठता है कि क्या कार्य की सत्ता उत्पत्ति के पूर्व उपादान कारण में वर्तमान रहती है? संख्या का सत्कार्यवाद इस प्रश्न का भावात्मक उत्तर है। सत्कार्यवाद के अनुसार कार्य उत्पत्ति के पूर्व उपादान कारण में अव्यक्त रूप से मौजूद रहता है। यह बात सत्कार्यवाद के शाब्दिक विश्लेषण करने से स्पष्ट हो जाती है। सत्कार्यवाद शब्द सत्, कार्य और वाद के संयुक्त होने से बना है। इसलिये सत्कार्यवाद उस सिद्धान्त का नाम हुआ जो उत्पत्ति के पूर्व कारण में कार्य की सत्ता स्वीकार करता है। यदि ‘क’ को कारण माना जाय और ‘ख’ को कार्य माना जाय तो सत्कार्यवाद के अनुसार‘ख’, ‘क’ में अव्यक्त रूप से निर्माण के पूर्व अन्तर्भूत होगा। कार्य और कारण में सिर्फ आकार का भेद है। कारण अव्यक्त कार्य और कार्य अभिव्यक्त कारण है। वस्तु के निर्माण का अर्थ है अव्यक्त कार्य का, जो कारण में निहित है कार्य में पूर्णतः अभिव्यक्त होना उत्पत्ति का अर्थ अव्यक्त का व्यक्त होना है और इसके विपरीत विनाश का अर्थ व्यक्त का अव्यक्त हो जाना है। दूसरे शब्दों में उत्पत्ति को आविर्भाव और विनाश को तिरोभाव कहा जा सकता है।

न्याय-वैशेषिक का कार्य-कारण सिद्धान्त सांख्य के कार्य-कारण सिद्धान्त का विरोधी है। न्याय-वैशेषिक के कार्य-कारण सिद्धान्त को असत्कार्यवाद कहते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार कार्य की सत्ता उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान नहीं है- असत्कार्यवाद क्या कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान है-नामक प्रश्न आभावात्मक उत्तर है। असत्कार्यवाद, अ, सत्, कार्य, बाद के संयोग से बना है। इसलिए असत्कार्यवाद, अ सत् कार्य वाद के संयोग से बना है। इसलिए असत्कार्यवाद का अर्थ होगा वह सिद्धान्त जो उत्पत्ति के पूर्व कार्य की सत्ता कारण में अस्वीकार करता है। यदि ‘क’ को कारण और ‘ख’ को कार्य माना जाय तो इस सिद्धान्त के अनुसार‘ख’ का ‘क’ में उत्पत्ति के पूर्व अभाव होगा। असत्कार्यवाद के अनुसार कार्य, कारण की नवीन सृष्टि है। असत्कार्यवाद को आरम्भवाद भी कहा जाता है क्योंकि यह सिद्धान्त कार्य को एक नई वस्तु (आरम्भ) मानता है।

सांख्य सत्कार्यवाद को सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित युक्तियों का प्रयोग करता है इन पुत्तियों को सत्कार्यवाद के पक्ष में तर्क कहा जाता है। ये तर्क भारतीय दर्शन में अत्यधिक प्रसिद्ध है –

  • यदि कार्य की सत्ता को कारण में असत् माना जाय तो फिर कारण से कार्य का निर्माण नहीं हो सकता है। जो असत् है उससे सत् का निर्माण असम्भव है। (असदकरणात्) आकाश कुसुम का आकाश में अभाव है। हजारों व्यक्तियों के प्रयत्न के बावजूद आकाश से कुसुम को निकालना असम्भव है। नमक में चीनी का अभाव है। हम किसी प्रकार भी नमक से चीनी का निर्माण नहीं कर सकते। लाल रंग में पीले रंग का अभाव रहने के कारण हम लाल रंग से पीले रंग का निर्माण नहीं कर सकते। यदि असत् को सत् में लाया जाता तो बन्धया-पुत्र की उत्पत्ति भी सम्भव हो जाती। इससे सिद्ध होता है कि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान है। यहाँ पर आक्षेप किया जा सकता है कि यदि कार्य कारण में निहित है तो निमित्त कारण की आवश्यकता क्यों होती है? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि निमित्त कारण का कार्य सिर्फ उपादान कारण में निहित अव्यक्त कार्य को कार्य में व्यक्त कर देना है। अप्रत्यक्ष कार्य को प्रत्यक्ष रूप प्रदान करना निमित्त कारण का उद्देश्य है।
  • साधारणतः ऐसा देखा जाता है कि विशेष कार्य के लिये विशेष कारण की आवश्यकता महसूस होती है। (उपादानग्रहणात्) यह उपादान-नियम है। एक व्यक्ति जो दही का निर्माण करना चाहता है वह दूध की याचना करता है। मिट्टी का घड़ा बनाने के लिये मिट्टी की माँग की जाती है। कपड़े का निर्माण करने के लिए व्यक्ति सूत की खोज करता है। तेल के निर्माण के लिये तेल के बीज को चुना जाता है, कंकड़ को नहीं। इससे प्रमाणित होता है कि कार्य अव्यक्त रूप से कारण में विद्यमान है। यदि ऐसा नहीं होता तो किसी विशेष वस्तु के निर्माण के लिये हम किसी विशेष वस्तु की माँग नहीं करते। एक व्यक्ति जिस चीज से, जिस वस्तु का निर्माण करना चाहता, कर लेता। दही बनाने के लिए दूध की माँग नहीं की जाती। एक व्यक्ति पानी या मिट्टी जिस चीज से चाहता दही का सृजन कर लेता। इससे प्रमाणित होता है कि कार्य अव्यक्त रूप से कारण में मौजूद है।
  • यदि कार्य की सत्ता को उत्पत्ति के पूर्व कारण में नहीं माना जाय तो कार्य के निर्मित हो जाने पर हमें मानना पड़ेगा कि असत् से सत् का निर्माण हुआ। परन्तु ऐसा होना सम्भव नहीं है। जो असत् है उससे सत् का निर्माण कैसे हो सकता है? शून्य से शून्य का ही निर्माण होता है। इसलिए यह सिद्ध होता है कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारण में निहित रहता है। कार्य की सत्ता का हमें अनुभव नहीं होता क्योंकि कार्य अव्यक्त रूप से कारण में अन्तर्भूत है।
  • प्रत्येक कारण से प्रत्येक कार्य का निर्माण नहीं होता है। केवल शक्त कारण में ही अभीष्ट कार्य की प्राप्ति हो सकती है। शक्त कारण वह है जिसमें एक विशेष कार्य उत्पन्न करने की शक्ति हो। कार्य उसी कारण से निर्मित होता है जो शक्त हो। (शक्तस्य शक्यकरणात्) यदि ऐसा नहीं होता तो कंकड़ से तेल निकलता। इससे सिद्ध होता है कि कार्य अव्यक्त रूप से (शक्त) कारण में अभिव्यक्ति के पूर्व विद्यमान रहता है। उत्पादन का अर्थ है सम्भाव्य का वास्तविक होना। यह तर्क दूसरे तर्क (उपादान ग्रहणात्) की पुनरावृत्ति नहीं है। उपादान ग्रहणात् में कार्य के लिये कारण की योग्यता पर जो दिया गया है और इस तर्क अर्थात् शक्तस्य शक्यकारणात् में कार्य की योग्यता की व्याख्या कारण की दृष्टि से हुई है।
  • यदि कार्य को उत्पत्ति के पूर्व कारण में असत् माना जाय तो उसका कारण से सम्बन्धित होना असम्भव हो है। । सम्बन्ध उन्हीं वस्तुओं के बीच हो सकता है जो सत् हों। जाता यदि दो वस्तुओं में एक अस्तित्त्व हो और दूसरे का अस्तित्त्व नहीं हो तो सम्बन्ध कैसे हो सकता है? बन्ध्या-पुत्र का सम्बन्ध किसी देश के राजा से सम्भव नहीं है क्योंकि यहाँ सम्बन्ध के दो पदों में एक बन्ध्या-पुत्र असत् है। कारण और कार्य के बीच सम्बन्ध होता है जिससे यह प्रमाणित होता है कि कार्य उत्पत्ति के पूर्व सूक्ष्म रूप से कारण में अन्तभूत है।
  • कारण और कार्य में अभेद है। (कारणभावात्) दोनों की अभिन्नता को सिद्ध करने के लिये सांख्य अनेक प्रयास करता है। यदि कारण और कार्य तत्त्वतः एक दूसरे से भिन्न होते तो उनका संयोग तथा पार्थक्य होता। उदाहरणस्वरूप, नदी, वृक्ष से भिन्न है इसलिये दोनों का संयोजन होता है। फिर हिमालय को विन्ध्याचल से पृथक् कर सकते हैं क्योंकि यह विन्ध्याचल से भिन्न है। परन्तु कपड़े का सूतों से, जिससे वह निर्मित है, संयोजन और पृथक्करण असम्भव है।

फिर परिणाम की दृष्टि से कारण और कार्य समरूप हैं। कारण और कार्य दोनों का वजन समान होता है। लकड़ी का जो वजन होता है वही वजन उससे निर्मित टेबुल का भी होता है। मिट्टी और उससे बना घड़ा वस्तुतः अभिन्न है। अतः जब कारण की सत्ता है तो कार्य की भी सत्ता है। इससे सिद्ध होता है कि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारण में मौजूद रहता है।

सच पूछा जाय तो कारण और कार्य एक ही द्रव्य की दो अवस्थाएँ हैं। द्रव्य की अव्यक्त अवस्था को कारण तथा द्रव्य की व्यक्त अवस्था को कार्य कहा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि जब कारण की सत्ता है तब कार्य की सत्ता भी उसमें अन्तर्भूत है।

उपरि वर्णित भिन्न-भिन्न युक्तियों के आधार पर साँख्य अपने कार्य-कारण सिद्धान्त सत्कार्यवाद का प्रतिपादन करता है। इस सिद्धान्त को भारतीय दर्शन में सांख्य के अतिरिक्त योग, शंकर, रामानुज ने पूर्णतः अपनाया है। भगवद्गीता के –

“नासतो विद्यते भावो माभावो विधते सत:”

का भी यही तात्पर्य है। इस प्रकार भगवद्गीता से भी सांख्य के सत्कार्यवाद की पुष्टि हो जाती है।

सत्यकार्यवाद के विरुद्ध आपत्तियाँ

सत्कार्यवाद के विरुद्ध अनेक आक्षेप उपस्थित किये गये हैं। ये आक्षेप मुख्यतः असत्कार्यवाद के समर्थकों के द्वारा दिये गये हैं, जिनमें न्याय-वैशेषिक मुख्य हैं।

  • सत्कार्यवाद को मानने से कार्य की उत्पत्ति की व्याख्या करना असम्भव हो जाता है। यदि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारण में व्याप्त है तो फिर इस वाक्य का, कि ‘कार्य की उत्पत्ति में क्या अर्थ है?’ यदि सूतों में कपड़ा वर्तमान है तब यह कहना कि ‘कपड़े का निर्माण हुआ’, अनावश्यक प्रतीत होता है।
  • यदि कार्य की सत्ता उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान है, तो निमित्त कारण को मानना व्यर्थ है। प्रायः ऐसा कहा जाता है कि कार्य की उत्पत्ति निमित्त कारण के द्वारा सम्भव हुई है। परन्तु संख्यि का कार्य-कारण सम्बन्धी विचार निमित्त कारण का प्रयोजन नष्ट कर देता है। यदि तिलहन के बीज में तेल निहित है तो फिर तेली की आवश्यकता का प्रश्न निरर्थक है।
  • यदि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारण निहित है तो कारण और कार्य के बीच भेद करना कठिन हो जाता है। हम कैसे जान सकते हैं कि वह कारण है और यह कार्य है। यदि घड़ा मिट्टी में ही मौजूद है तो घुड़ा और मिट्टी को एक दूसरे से सत्कर्यावाद कारण और कार्य के भेद को नष्ट कर देता है। से अलग करना असम्भव है।
  • सत्कार्यवाद कारण और कार्य को अभिन्न मानता है। यदि ऐसी बात है तो कारण और कार्य के लिए अलग-अलग नाम का प्रयोग करना निरर्थक है। यदि मिट्टी और उससे निर्मित घड़ा वस्तुतः एक हैं तो फिर मिट्टी और घड़े के लिए एक ही नाम का प्रयोग करना आवश्यक है।
  • सत्कार्यवाद का सिद्धान्त आत्मविरोधी है। यदि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारण में ही विद्यमान है तो फिर कारण और कार्य कार में भिन्नता का रहना इस सिद्धान्त का के आकार खंडन करता है। कार्य का आकार कारण से भिन्न होता है। इसका अर्थ है कि कार्य का आकार नवीन सृष्टि है। यदि कार्य का आकर नवीन सृष्टि है तब यह सिद्ध होता है कि कार्य का आकार कारण में असत् था। जो कारण में असत् था उसका प्रादुर्भाव कार्य में मानकर सांख्य स्वयं सत्कार्यवाद का खण्डन करता है।
  • सत्कार्यवाद के अनुसार कारण और कार्य अभिन्न हैं। यदि कारण और कार्य अभिन्न है तब कारण और कार्य से एक ही प्रयोजन पूरा होना चाहिए। परन्तु हम पाते हैं कि कार्य और कारण के अलग-अलग प्रयोजन है। मिट्टी से बने हुए घड़े में जल रखा जाता है, परन्तु मिट्टी से यह प्रयोजन पुरा नहीं हो सकता।
  • यदि उत्पत्ति के पूर्व कार्य कारण में अन्तर्भूत है तो हमें यह कहने की अपेक्षा कि कार्य की उत्पत्ति कारण से हुई, हमें कहना चाहिए कि कार्य उत्पत्ति कार्य से हुई। यदि मिट्टी में ही घड़ा निहित है, तब घड़े के निर्मित हो जाने पर हमें यह कहना चाहिए कि घड़े का निर्माण घड़े से हुआ। इस प्रकार हम देखते हैं कि सत्कार्यवाद का सिद्धान्त असंगत है।

सत्कार्यवाद की महत्ता

सत्यकार्यवाद के विरुद्ध ऊपर अनेक आपत्तियाँ पेश की गई हैं। परन्तु इन आपत्तियों से यह निष्कर्ष निकालना कि सत्कार्यवाद का सिद्धान्त महत्त्वहीन है, सर्वथा अनुचित होगा। सांख्य का सारा दर्शन सत्कार्यवाद पर आधारित है। सत्कार्यवाद के कुछ महत्त्वों पर प्रकाश डालना अपेक्षित होगा।

सत्कार्यवाद की प्रथम महत्ता यह है कि सांख्य अपने प्रसिद्ध सिद्धान्त, ‘प्रकृति’ की प्रस्थापना सत्कार्यवाद के बल पर ही करता है। प्रकृति को सिद्ध करने के लिए सांख्य जितने तकों का सहारा लेता है उन सभी तर्कों में सत्कार्यवाद का प्रयोग है।

डॉ० राधाकृष्णन् का यह कथन कि –

“कार्य-कारण सिद्धान्त के आधार पर विश्व का अन्तिम कारण अव्यक्त प्रकृति को ठहराया जाता है।”

–इस बात की पुष्टि करता है।

सत्कार्यवाद की दूसरी महत्ता यह है कि विकासवाद का सिद्धान्त सत्कार्यवाद की देन है। विकासवाद का आधार प्रकृति है। प्रकृति से मन, बुद्धि, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच महाभूत, इत्यादि तत्त्वों का विकास होता है। ये तत्त्व प्रकृति में अव्यक्त रूप से मौजूद रहते हैं। विकासवाद का अर्थ इन अव्यक्त तत्त्वों को व्यक्त रूप प्रदान करना है। विकासवाद का अर्थ सांख्य के अनुसार नूतन सृष्टि नहीं है। इस प्रकार सांख्य के विकासवाद में सत्कार्यवाद का पूर्ण प्रयोग हुआ है। सत्कार्यवाद के अभाव में विकासवाद के सिद्धान्त को समझना कठिन है। 

आपको हमारी यह post कैसी लगी नीचे कमेन्ट करके अवश्य बताएं |

यह भी जाने

सत्कार्यवाद की महत्ता क्या है ?

सत्कार्यवाद की प्रथम महत्ता यह है कि सांख्य अपने प्रसिद्ध सिद्धान्त, ‘प्रकृति’ की प्रस्थापना सत्कार्यवाद के बल पर ही करता है। प्रकृति को सिद्ध करने के लिए सांख्य जितने तकों का सहारा लेता है उन सभी तर्कों में सत्कार्यवाद का प्रयोग है।

You may also like

About the author

सांख्य के अनुसार सत्कार्यवाद क्या है?

सत्कार्यवाद, मुख्यतः सांख्य का सिद्धान्त है जिसके अनुसार कार्य (प्रभाव), अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान (सत्) रहता है। इसके अनुसार सत् (जिसका अस्तित्व है वह) असत् (जिसका अस्तित्व नहीं है) से उत्पन्न नहीं हो सकता। असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥ ९ ॥

सांख्य दर्शन से आप क्या समझते हैं?

'सांख्य' का शाब्दिक अर्थ है - 'संख्या सम्बंधी' या विश्लेषण। इसकी सबसे प्रमुख धारणा सृष्टि के प्रकृति-पुरुष से बनी होने की है, यहाँ प्रकृति (यानि पंचमहाभूतों से बनी) जड़ है और पुरुष (यानि जीवात्मा) चेतन। योग शास्त्रों के ऊर्जा स्रोत (ईडा-पिंगला), शाक्तों के शिव-शक्ति के सिद्धांत इसके समानान्तर दीखते हैं

सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति की संख्या कितनी है?

सांख्य द्वैतवादी दर्शन है। इसके अनुसार दो मूल तत्व हैं-एक प्रकृति और दूसरा पुरुष, और यह सृष्टि इन्हीं दो तत्वों के योग से बनी है। सांख्य के अनुसार यह प्रकृति सत्, रज और तम, इन तीनों गुणों का समुच्चय है और पदार्थजन्य संसार का उपादान कारण है।

सांख्य दर्शन में कितने तत्व होते हैं?

सांख्य दर्शन में 25 तत्व हैं। इन तत्वों का सम्यक् ज्ञान जीव को जन्म-मरण के बंधन से मुक्त करता है। सांख्य का अर्थ ही है- तत्वों का ज्ञान। जिससे जीव मुक्ति पा सके। गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने सांख्य दर्शन का उपदेश अर्जुन को दिया।