सत्कार्यवाद, सांख्यदर्शन का मुख्य आधार है। इस सिद्धान्त के अनुसार, बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। फलतः, इस जगत की उत्पत्ति शून्य से नहीं किसी मूल सत्ता से है। यह सिद्धान्त बौद्धों के शून्यवाद के विपरीत है। न्यायदर्शन, असत्कार्यवाद को स्वीकार करता है। Show
कार्य, अपनी उत्पत्ति के पूर्ण कारण में विद्यमान रहता है। कार्य अपने कारण का सार है। कार्य तथा कारण वस्तुतः समान प्रक्रिया के व्यक्त-अव्यक्त रूप हैं। सत्कार्यवाद के दो भेद हैं- परिणामवाद तथा विवर्तवाद। परिणामवाद से तात्पर्य है कि कारण वास्तविक रूप में कार्य में परिवर्तित हो जाता है। जैसे तिल तेल में, दूध दही में रूपांतरित होता है। विवर्तवाद के अनुसार परिवर्तन वास्तविक न होकर आभास मात्र होता है। जैसे-रस्सी में सर्प का आभास होना। असत्कार्यवाद, कारणवाद का न्यायदर्शनसम्मत सिद्धान्त है। इसके अनुसार कार्य उत्पत्ति के पहले नहीं रहता। न्याय के अनुसार उपादान और निमित्त कारण अलग-अलग कार्य उत्पन्न करने की पूर्ण शक्ति नहीं है किन्तु जब ये कारण मिलकर व्यापारशील होते हैं तब इनकी सम्मिलित शक्ति ऐसा कार्य उत्पन्न होता है जो इन कारणों से विलक्षण होता है। अत: कार्य सर्वथा नवीन होता है, उत्पत्ति के पहले इसका अस्तित्व नहीं होता। कारण केवल उत्पत्ति में सहायक होते हैं। सांख्यदर्शन इसके विपरीत कार्य को उत्पत्ति के पहले कारण में स्थित मानता है, अतः उसका सिद्धान्त सत्कार्यवाद कहलाता है। न्यायदर्शन, भाववादी और यथार्थवादी है। इसके अनुसार उत्पत्ति के पूर्व कार्य की स्थिति मानना अनुभवविरुद्ध है। न्याय के इस सिद्धान्त पर आक्षेप किया जाता है कि यदि असत् कार्य उत्पन्न होता है तो शशश्रृंग जैसे असत् कार्य भी उत्पन्न होने चाहिए। किन्तु न्यायमंजरी में कहा गया है कि असत्कार्यवाद के अनुसार असत् की उत्पत्ति नहीं मानी जाती। अपितु जो उत्पन्न हुआ है उसे उत्पत्ति के पहले असत् माना जाता है। सिद्धान्त[संपादित करें]सत्कार्यवाद, मुख्यतः सांख्य का सिद्धान्त है जिसके अनुसार कार्य (प्रभाव), अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान (सत्) रहता है। इसके अनुसार सत् (जिसका अस्तित्व है वह) असत् (जिसका अस्तित्व नहीं है) से उत्पन्न नहीं हो सकता। सत्कार्यवाद योग दर्शन से भी सम्बद्ध है। ईश्वरकृष्ण ने अपनी सांख्यकारिका ने कहा है कि- असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् ।शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥ ९ ॥[1]अर्थ : असदकरण से (असदकारणात् = असत् + अकरणात् ) , उपादानग्रहण से ( उपादानग्रहणात् ), सर्वसम्भवाभाव से ( सर्वसम्भवाभावात् = सर्वसम्भव अभावात्) , शक्त के शक्यकरण से (शक्तस्य शक्यकरणात् ), कारणभाव से (कारणभावत् ) -- कार्य ‘सत्’ है, अर्थात् कार्य अपने कारण में सदा विद्यमान है।कार्य ‘सत्’ है अर्थात् कार्य अपने कारण में सदा विद्यमान है; क्योंकि
सन्दर्भ[संपादित करें]
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"Be educated and let others be educated" नमस्कार दोस्तों हमारी आज के post का शीर्षक है सांख्य दर्शन के सत्कार्यवाद की व्याख्या उम्मीद करतें हैं की यह आपकों अवश्य पसंद आयेगी | धन्यवाद | सांख्य दर्शन में कार्यकारण सिद्धान्त को सत्कार्यवाद के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक कार्य कारण सिद्धान्त के
सम्मुख एक प्रश्न उठता है कि क्या कार्य की सत्ता उत्पत्ति के पूर्व उपादान कारण में वर्तमान रहती है? संख्या का सत्कार्यवाद इस प्रश्न का भावात्मक उत्तर है। सत्कार्यवाद के अनुसार कार्य उत्पत्ति के पूर्व उपादान कारण में अव्यक्त रूप से मौजूद रहता है। यह बात सत्कार्यवाद के शाब्दिक विश्लेषण करने से स्पष्ट हो जाती है। सत्कार्यवाद शब्द सत्, कार्य और वाद के संयुक्त होने से बना है। इसलिये सत्कार्यवाद उस सिद्धान्त का नाम हुआ जो उत्पत्ति के पूर्व कारण में कार्य की सत्ता स्वीकार करता है। यदि
‘क’ को कारण माना जाय और ‘ख’ को कार्य माना जाय तो सत्कार्यवाद के अनुसार‘ख’, ‘क’ में अव्यक्त रूप से निर्माण के पूर्व अन्तर्भूत होगा। कार्य और कारण में सिर्फ आकार का भेद है। कारण अव्यक्त कार्य और कार्य अभिव्यक्त कारण है। वस्तु के निर्माण का अर्थ है अव्यक्त कार्य का, जो कारण में निहित है कार्य में पूर्णतः अभिव्यक्त होना उत्पत्ति का अर्थ अव्यक्त का व्यक्त होना है और इसके विपरीत विनाश का अर्थ व्यक्त का अव्यक्त हो जाना है। दूसरे शब्दों में उत्पत्ति को
आविर्भाव और विनाश को तिरोभाव कहा जा सकता है। न्याय-वैशेषिक का कार्य-कारण सिद्धान्त सांख्य के कार्य-कारण सिद्धान्त का विरोधी है। न्याय-वैशेषिक के कार्य-कारण सिद्धान्त को असत्कार्यवाद कहते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार कार्य की सत्ता उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान नहीं है- असत्कार्यवाद क्या कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान है-नामक प्रश्न आभावात्मक उत्तर है। असत्कार्यवाद, अ, सत्, कार्य, बाद के संयोग से बना है। इसलिए असत्कार्यवाद, अ सत् कार्य वाद के संयोग से बना है। इसलिए
असत्कार्यवाद का अर्थ होगा वह सिद्धान्त जो उत्पत्ति के पूर्व कार्य की सत्ता कारण में अस्वीकार करता है। यदि ‘क’ को कारण और ‘ख’ को कार्य माना जाय तो इस सिद्धान्त के अनुसार‘ख’ का ‘क’ में उत्पत्ति के पूर्व अभाव होगा। असत्कार्यवाद के अनुसार कार्य, कारण की नवीन सृष्टि है। असत्कार्यवाद को आरम्भवाद भी कहा जाता है क्योंकि यह सिद्धान्त कार्य को एक नई वस्तु (आरम्भ) मानता है। सांख्य सत्कार्यवाद को सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित युक्तियों का प्रयोग करता है इन पुत्तियों को सत्कार्यवाद के पक्ष में तर्क कहा जाता है। ये तर्क भारतीय दर्शन में अत्यधिक प्रसिद्ध है –
फिर परिणाम की दृष्टि से कारण और कार्य समरूप हैं। कारण और कार्य दोनों का वजन समान होता है। लकड़ी का जो वजन होता है वही वजन उससे निर्मित टेबुल का भी होता है। मिट्टी और उससे बना घड़ा वस्तुतः अभिन्न है। अतः जब कारण की सत्ता है तो कार्य की भी सत्ता है। इससे सिद्ध होता है कि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारण में मौजूद रहता है। सच पूछा जाय तो कारण और कार्य एक ही द्रव्य की दो अवस्थाएँ हैं। द्रव्य की अव्यक्त अवस्था को कारण तथा द्रव्य की व्यक्त अवस्था को कार्य कहा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि जब कारण की सत्ता है तब कार्य की सत्ता भी उसमें अन्तर्भूत है। उपरि वर्णित भिन्न-भिन्न युक्तियों के आधार पर साँख्य अपने कार्य-कारण सिद्धान्त सत्कार्यवाद का प्रतिपादन करता है। इस सिद्धान्त को भारतीय दर्शन में सांख्य के अतिरिक्त योग, शंकर, रामानुज ने पूर्णतः अपनाया है। भगवद्गीता के – “नासतो विद्यते भावो माभावो विधते सत:” का भी यही तात्पर्य है। इस प्रकार भगवद्गीता से भी सांख्य के सत्कार्यवाद की पुष्टि हो जाती है। सत्यकार्यवाद के विरुद्ध आपत्तियाँसत्कार्यवाद के विरुद्ध अनेक आक्षेप उपस्थित किये गये हैं। ये आक्षेप मुख्यतः असत्कार्यवाद के समर्थकों के द्वारा दिये गये हैं, जिनमें न्याय-वैशेषिक मुख्य हैं।
सत्कार्यवाद की महत्तासत्यकार्यवाद के विरुद्ध ऊपर अनेक आपत्तियाँ पेश की गई हैं। परन्तु इन आपत्तियों से यह निष्कर्ष निकालना कि सत्कार्यवाद का सिद्धान्त महत्त्वहीन है, सर्वथा अनुचित होगा। सांख्य का सारा दर्शन सत्कार्यवाद पर आधारित है। सत्कार्यवाद के कुछ महत्त्वों पर प्रकाश डालना अपेक्षित होगा। सत्कार्यवाद की प्रथम महत्ता यह है कि सांख्य अपने प्रसिद्ध सिद्धान्त, ‘प्रकृति’ की प्रस्थापना सत्कार्यवाद के बल पर ही करता है। प्रकृति को सिद्ध करने के लिए सांख्य जितने तकों का सहारा लेता है उन सभी तर्कों में सत्कार्यवाद का प्रयोग है। डॉ० राधाकृष्णन् का यह कथन कि – “कार्य-कारण सिद्धान्त के आधार पर विश्व का अन्तिम कारण अव्यक्त प्रकृति को ठहराया जाता है।” –इस बात की पुष्टि करता है। सत्कार्यवाद की दूसरी महत्ता यह है कि विकासवाद का सिद्धान्त सत्कार्यवाद की देन है। विकासवाद का आधार प्रकृति है। प्रकृति से मन, बुद्धि, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच महाभूत, इत्यादि तत्त्वों का विकास होता है। ये तत्त्व प्रकृति में अव्यक्त रूप से मौजूद रहते हैं। विकासवाद का अर्थ इन अव्यक्त तत्त्वों को व्यक्त रूप प्रदान करना है। विकासवाद का अर्थ सांख्य के अनुसार नूतन सृष्टि नहीं है। इस प्रकार सांख्य के विकासवाद में सत्कार्यवाद का पूर्ण प्रयोग हुआ है। सत्कार्यवाद के अभाव में विकासवाद के सिद्धान्त को समझना कठिन है। आपको हमारी यह post कैसी लगी नीचे कमेन्ट करके अवश्य बताएं | यह भी जानेसत्कार्यवाद की महत्ता क्या है ?सत्कार्यवाद की प्रथम महत्ता यह है कि सांख्य अपने प्रसिद्ध सिद्धान्त, ‘प्रकृति’ की प्रस्थापना सत्कार्यवाद के बल पर ही करता है। प्रकृति को सिद्ध करने के लिए सांख्य जितने तकों का सहारा लेता है उन सभी तर्कों में सत्कार्यवाद का प्रयोग है। You may also likeAbout the authorसांख्य के अनुसार सत्कार्यवाद क्या है?सत्कार्यवाद, मुख्यतः सांख्य का सिद्धान्त है जिसके अनुसार कार्य (प्रभाव), अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान (सत्) रहता है। इसके अनुसार सत् (जिसका अस्तित्व है वह) असत् (जिसका अस्तित्व नहीं है) से उत्पन्न नहीं हो सकता। असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥ ९ ॥
सांख्य दर्शन से आप क्या समझते हैं?'सांख्य' का शाब्दिक अर्थ है - 'संख्या सम्बंधी' या विश्लेषण। इसकी सबसे प्रमुख धारणा सृष्टि के प्रकृति-पुरुष से बनी होने की है, यहाँ प्रकृति (यानि पंचमहाभूतों से बनी) जड़ है और पुरुष (यानि जीवात्मा) चेतन। योग शास्त्रों के ऊर्जा स्रोत (ईडा-पिंगला), शाक्तों के शिव-शक्ति के सिद्धांत इसके समानान्तर दीखते हैं।
सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति की संख्या कितनी है?सांख्य द्वैतवादी दर्शन है। इसके अनुसार दो मूल तत्व हैं-एक प्रकृति और दूसरा पुरुष, और यह सृष्टि इन्हीं दो तत्वों के योग से बनी है। सांख्य के अनुसार यह प्रकृति सत्, रज और तम, इन तीनों गुणों का समुच्चय है और पदार्थजन्य संसार का उपादान कारण है।
सांख्य दर्शन में कितने तत्व होते हैं?सांख्य दर्शन में 25 तत्व हैं।
इन तत्वों का सम्यक् ज्ञान जीव को जन्म-मरण के बंधन से मुक्त करता है। सांख्य का अर्थ ही है- तत्वों का ज्ञान। जिससे जीव मुक्ति पा सके। गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने सांख्य दर्शन का उपदेश अर्जुन को दिया।
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