रस की परिभाषा क्या होती है? - ras kee paribhaasha kya hotee hai?

रस : रस का शाब्दिक अर्थ है ‘आनन्द’। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है। काव्य में रस का वही स्थान है, जो शरीर में आत्मा का है। जिस प्रकार आत्मा के अभाव में प्राणी का अस्तित्व सम्भव नहीं है, उसी प्रकार रसहीन कथन को काव्य नहीं कहा जा सकता। इसीलिए रस को ‘काव्य की आत्मा’ या ‘प्राण तत्व’ माना जाता है। रस, छंद और अलंकार काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं।

‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति : ‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘रस्’ धातु में अच्’ प्रत्यय के योग से हुई है अर्थात् ‘रस् + अच् = रस’। जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘आनंद देने वाली वस्तु से प्राप्त होने वाला सुख या स्वाद।’ कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी काव्य रचना को पढ़ने या सुनने से जिस आनंद की प्राप्ति होती है, उसे ही रस कहते हैं।

रस की व्युत्पत्ति के संबंध में निम्न दो सूत्र भी प्रचलित हैं:-

  1. “रस्यते आस्वाद्यते इति रसः।” अर्थात् जिसका आस्वादन किया जाता है या स्वाद लिया जाता है, उसे ही ‘रस’ कहते हैं।
  2. “सरते इति रसः।” अर्थात् जो प्रवाहित होता है उसे रस कहते हैं।

यहाँ ‘प्रवाहित होना’ अर्थ को प्रकट करने के लिए ‘सर’ शब्द का वर्ण-विपर्यय करके अर्थात् परस्पर स्थान परिवर्तन करके ‘रस’ शब्द की रचना हुई मानी जाती है।

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है।

रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। पाठक या श्रोता के हृदय में स्थित स्थायीभाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस के रूप में परिणत हो जाता है।

भरतमुनि द्वारा रस की परिभाषा-

रस उत्पत्ति को सबसे पहले परिभाषित करने का श्रेय भरत मुनि को जाता है। उन्होंने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में रास रस के आठ प्रकारों का वर्णन किया है। रस की व्याख्या करते हुए भरतमुनि कहते हैं कि सब नाट्य उपकरणों द्वारा प्रस्तुत एक भावमूलक कलात्मक अनुभूति है। रस का केंद्र रंगमंच है। भाव रस नहीं, उसका आधार है किंतु भरत ने स्थायी भावों को ही रस माना है।

भरतमुनि ने लिखा है– “विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगद्रसनिष्पत्ति” अर्थात विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। अत: भरतमुनि के ‘रस तत्त्व’ का आधारभूत विषय नाट्य में रस (Ras) की निष्पत्ति है।

काव्य शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वानों ने काव्य की आत्मा को ही रस माना है।

भरतमुनि रचित नाट्यशास्त्र के आठ रस– श्रृंगार रस, हास्य रस, रौद्र रस, करुण रस, वीर रस, अद्भुत रस, वीभत्स रस और भयानक रस। नाट्य में शांत रस का प्रयोग उन्होंने अनुचित माना है। परंतु उन्होंने इसे रस के रूप में स्वीकार किया है। नाट्यशास्त्र में वात्सल्य रस का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है।

इस प्रकार नवरस की संकल्पना निकलती है। जिसमें 9 रस हैं: श्रृंगार रस, हास्य रस, रौद्र रस, करुण रस, वीर रस, अद्भुत रस, वीभत्स रस, भयानक रस और शांत रस। भरतमुनि ने भक्ति रस को केवल एक भाव माना है।

अन्य विद्वानों के अनुसार रस की परिभाषाएं

आचार्य धनंजय के अनुसार रस की परिभाषा

विभाव, अनुभाव, सात्त्विक, साहित्य भाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से आस्वाद्यमान स्थायी भाव ही रस है।

साहित्य दर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने रस की परिभाषा देते हुए लिखा है:

विभावेनानुभावेन व्यक्त: सच्चारिणा तथा।
रसतामेति रत्यादि: स्थायिभाव: सचेतसाम्॥

अर्थात– जब हृदय का स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव का संयोग प्राप्त कर लेता है तो रस रूप में निष्पन्न हो जाता है।

डॉ. विश्वम्भर नाथ के अनुसार रस की परिभाषा:

भावों के छंदात्मक समन्वय का नाम ही रस है।

आचार्य श्याम सुंदर दास के अनुसार रस की परिभाषा:

स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों के योग से आस्वादन करने योग्य हो जाता है, तब सहृदय प्रेक्षक के हृदय में रस रूप में उसका आस्वादन होता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार रस की परिभाषा-

जिस भांति आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है। उसी भांति हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है।

रस के अंग (अवयव)

रस के चार अंग या अवयव होते हैं- स्थायीभाव, संचारी भाव, अनुभाव और विभाव।

  1. स्थायीभाव
  2. विभाव
  3. अनुभाव
  4. संचारी भाव अथवा व्यभिचारी भाव

1. रस का स्थायी भाव

स्थायी भाव का अर्थ है प्रधान भाव। प्रधान भाव वही हो सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचता है। स्थायीभाव व्यक्ति के हृदय में हमेशा विद्यमान रहते हैं। यद्यपि वे सुप्त अवस्था में रहते हैं, तथापि उचित अवसर पर जाग्रत एवं पुष्ट होकर ये रस के रूप में परिणत हो जाते हैं। परंतु काव्य या नाटक में एक स्थायी भाव शुरू से आख़िर तक होता है। रस में स्थायी भावों की संख्या 9 मानी गई है। स्थायी भाव ही रस का आधार है। एक रस के मूल में एक ही स्थायी भाव रहता है। अतएव रसों की संख्या भी 9 हैं, जिन्हें नवरस कहा जाता है। बाद के आचार्यों ने दो और भावों- ‘वात्सल्य’ और ‘देवविषयक रति’ को स्थायी भाव की मान्यता दी है। इस प्रकार स्थायी भावों की संख्या 11 तक पहुँच जाती है, और तदनुरूप रसों की संख्या 11 हो जाती हैं।

स्थायी भाव की सूची परिभाषा सहित:

स्थायी भावरसपरिभाषा
रति श्रृंगार रस स्त्री-पुरुष की एक-दूसरे के प्रति उत्पन्न प्रेम नामक चित्तवृत्ति को ‘रति’ स्थायी भाव कहते हैं।
हास हास्य रस रूप, वाणी एवं अंगों के विकारों को देखने से चित्त का विकसित होना ‘हास’ कहलाता है।
क्रोध रौद्र रस असाधारण अपराध, विवाद, उत्तेजनापूर्ण अपमान आदि से उत्पन्न मनोविकार को ‘क्रोध’ कहते हैं।
शोक करुण रस प्रिय वस्तु (इष्टजन, वैभव आदि) के नाश इत्यादि के कारण उत्पन्न होनेवाली चित्त की व्याकुलता को ‘शोक’ कहते हैं।
उत्साह वीर रस मन की वह उल्लासपूर्ण वृत्ति, जिसके द्वारा मनुष्य तेजी के साथ किसी कार्य को करने में लग जाता है, ‘उत्साह’ कहलाती है। इसकी अभिव्यक्ति शक्ति, शौर्य एवं धैर्य के प्रदर्शन में होती है।
आश्चर्य/विस्मय अद्भुत रस अलौकिक वस्तु को देखने, सुनने या स्मरण करने से उत्पन्न मनोविकार ‘आश्चर्य’ कहलाता है।
जुगुप्सा/घृणा वीभत्स रस किसी अरुचिकर या मन के प्रतिकूल वस्तु को देखने अथवा उसकी कल्पना करने से जो भाव उत्पन्न होता है, वह ‘जुगुप्सा’ कहलाता है।
भय भयानक रस हिंसक जन्तुओं के दर्शन, अपराध, भयंकर शब्द, विकृत चेष्टा और रौद्र आकृति द्वारा उत्पन्न मन की व्याकुलता को ही ‘भय’ स्थायी भाव के रूप में परिभाषित किया जाता है।
निर्वेद/निर्वेद शांत रस सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य की उत्पत्ति ‘निर्वेद’ कहलाती है।
वत्सलता वात्सल्य रस माता–पिता का सन्तान के प्रति अथवा भाई–बहन का परस्पर सात्त्विक प्रेम ही ‘वत्सलता’ कहलाता है।
देवविषयक रति/भगवद विषयक रति/अनुराग भक्ति रस ईश्वर में परम अनुरक्ति ही ‘देव–विषयक रति’ कहलाती है।

इनमें से अन्तिम दो स्थायी भावों (वत्सलता तथा देवविषयक रति) को श्रृंगार रस के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है।

रस-निष्पत्ति में स्थायी भाव का महत्त्व: स्थायी भाव ही परिपक्व होकर रस-दशा को प्राप्त होते हैं; इसलिए रस-निष्पत्ति में स्थायी भाव का सबसे अधिक महत्त्व है। अन्य सभी भाव और कार्य स्थायी भाव की पुष्टि के लिए ही होते हैं।

2. रस का विभाव

जो कारण (व्यक्ति, पदार्थ आदि) दूसरे व्यक्ति के हृदय में स्थायी भाव को जाग्रत तथा उद्दीप्त करते हैं, उन्हें ‘विभाव’ कहते हैं। इनके आश्रय से रस प्रकट होता है यह कारण निमित्त अथवा हेतु कहलाते हैं। विशेष रूप से भावों को प्रकट करने वालों को विभाव रस कहते हैं। इन्हें कारण रूप भी कहते हैं।

विभाव के भेद: ‘विभाव’ आश्रय के हृदय में भावों को जाग्रत करते हैं और उन्हें उद्दीप्त भी करते हैं। इस आधार पर विभाव के निम्नलिखित दो भेद हैं-

  1. आलंबन विभाव
  2. उद्दीपन विभाव

(1) आलंबन विभाव

जिस व्यक्ति अथवा वस्तु के कारण कोई भाव जाग्रत होता है, उस व्यक्ति अथवा वस्तु को उस भाव का ‘आलम्बन विभाव’ कहते हैं। जैसे- नायक और नायिका का प्रेम। आलंबन विभाव के दो पक्ष होते हैं-

  1. आश्रयालंबन
  2. विषयालंबन

जिसके मन में भाव जगे वह आश्रयालंबन तथा जिसके प्रति या जिसके कारण मन में भाव जगे वह विषयालंबन कहलाता है। उदाहरण : यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय।

(2) उद्दीपन विभाव

जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त तथा तीव्र होने लगता है ‘उद्दीपन विभाव’ कहलाता है। जैसे- चाँदनी, कोकिल कूजन, एकांत स्थल, रमणीक उद्यान, नायक या नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ आदि।

रस में स्थायी भाव के प्रकट होने का मुख्य कारण आलम्बन विभाव होता है। इसी की वजह से रस की स्थिति होती है। जब प्रकट हुए स्थायी भावों को और ज्यादा प्रबुद्ध , उदीप्त और उत्तेजित करने वाले कारणों को उद्दीपन विभाव कहते हैं।

रस-निष्पत्ति में विभाव का महत्त्व: हमारे मन में रहनेवाले स्थायी भावों को जाग्रत करने तथा उद्दीप्त करने का कार्य विभाव द्वारा होता है। जाग्रत तथा उद्दीप्त स्थायी भाव ही रस का रूप प्राप्त करते हैं। इस प्रकार रस–निष्पत्ति में विभाव का अत्यधिक महत्त्व है।

3. रस का अनुभाव

आश्रय की चेष्टाओं अथवा रस की उत्पत्ति को पुष्ट करनेवाले वे भाव, जो विभाव के बाद उत्पन्न होते हैं, ‘अनुभाव’ कहलाते हैं। भावों को सूचना देने के कारण ये भावों के ‘अनु’ अर्थात् पश्चातवर्ती माने जाते हैं।

अनुभाव के भेद: अनुभावों के मुख्य रूप से चार भेद किए गए हैं- कायिक, मानसिक, आहार्य तथा सात्त्विक अनुभाव।

  1. कायिक अनुभाव– प्रायः शरीर की कृत्रिम चेष्टा को ‘कायिक अनुभाव’ कहा जाता है।
  2. मानसिक अनुभाव– मन में हर्ष-विषाद आदि के उद्वेलन को ‘मानसिक अनुभाव’ कहते हैं।
  3. आहार्य अनुभाव– मन के भावों के अनुसार अलग-अलग प्रकार की कृत्रिम वेश-रचना करने को ‘आहार्य अनुभाव’ कहते हैं।
  4. सात्त्विक अनुभाव– हेमचन्द्र के अनुसार ‘सत्त्व’ का अर्थ है ‘प्राण’। स्थायी भाव ही प्राण तक पहुँचकर ‘सात्त्विक अनुभाव’ का रूप धारण कर लेते हैं।

अनुभावों की संख्या निश्चित नहीं है। जो अन्य आठ अनुभाव सहज और सात्विक विकारों के रूप में आते हैं उन्हें सात्विक भाव कहते हैं। ये अनायास सहजरूप से प्रकट होते हैं। इनकी संख्या आठ होती है-

  1. स्तंभ
  2. स्वेद
  3. रोमांच
  4. स्वर-भंग
  5. कम्प
  6. विवर्णता
  7. अश्रु
  8. प्रलय

रस-निष्पत्ति में अनुभावों का महत्त्व: स्थायी भाव जाग्रत और उद्दीप्त होकर रस-दशा को प्राप्त होते हैं। अनुभावों के द्वारा इस बात का ज्ञान होता है कि आश्रय के हृदय में रस की निष्पत्ति हो रही है अथवा नहीं। इसके साथ ही अनुभावों का चित्रण काव्य को उत्कृष्टता प्रदान करता है।

4. रस का संचारी भाव

जो भाव, स्थायी भावों के साथ संचरण करते हैं, उन्हें ‘संचारी भाव’ कहते हैं। इससे स्थायीभाव की पुष्टि होती है। संचारी भाव स्थायीभावों के सहकारी कारण होते हैं, यही उन्हें रसावस्था तक ले जाते हैं और स्वयं बीच में ही लुप्त हो जाते हैं। इसलिए इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहते हैं।

भरतमुनि ने संचारी भावों का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि ये वे भाव हैं, जो रसों में अनेक प्रकार से विचरण करते हैं तथा रसों को पुष्ट कर आस्वादन के योग्य बनाते हैं। जिस प्रकार समुद्र में लहरें उत्पन्न होती हैं और उसी में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार स्थायी भाव में संचारी भाव उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं।

संचारी भावों के भेद: संचारी भाव अनगिनत हैं,  फिर भी आचार्यों ने इनकी संख्या 33 निश्चित की है।

रस के संचारी भाव की सूची:

  1. निर्वेद
  2. आवेग
  3. दैन्य
  4. श्रम
  5. मद
  6. जड़ता
  7. उग्रता
  8. मोह
  9. विबोध
  10. स्वप्न
  11. अपस्मार
  12. गर्व
  13. मरण
  14. आलस्य
  15. अमर्ष
  16. निद्रा
  17. अवहित्था
  18. उत्सुकता
  19. उन्माद
  20. शंका
  21. स्मृति
  22. मति
  23. व्याधि
  24. सन्त्रास
  25. लज्जा
  26. हर्ष
  27. असूया
  28. विषाद
  29. धृति
  30. चपलता
  31. ग्लानि
  32. चिन्ता
  33. वितर्क

रस-निष्पत्ति में संचारी भावों का महत्त्व: संचारी भाव स्थायी भाव को पुष्ट करते हैं। वे स्थायी भावों को इस योग्य बनाते हैं कि उनका आस्वादन किया जा सके। यद्यपि वे स्थायी भाव को पुष्ट कर स्वयं समाप्त हो जाते हैं, तथापि ये स्थायी भाव को गति एवं व्यापकता प्रदान करते हैं।

रस के प्रकार, Ras Ke Bhed

  1. श्रृंगार रस
  2. हास्य रस
  3. रौद्र रस
  4. करुण रस
  5. वीर रस
  6. अद्भुत रस
  7. वीभत्स रस
  8. भयानक रस
  9. शांत रस
  10. वात्सल्य रस
  11. भक्ति रस

विस्तार से Hindi में Ras

हिन्दी के सभी रस एक पेज पर रस के सभी भेदों को विस्तार से समझा पाना आसान नहीं था, इसलिए सभी रस उदाहरण सहित आसान भाषा में अलग अलग पेज पर दिये गये है। आपको जिस रस के बारे में जानना है उस रस पर क्लिक करें।

श्रृंगार रस, हास्य रस, रौद्र रस, करुण रस, वीर रस, अद्भुत रस, वीभत्स रस, भयानक रस, शांत रस, वात्सल्य रस, भक्ति रस।

यदि आपको संक्षेप में रस के सभी भेद देखने हैं तो पेज को नीचे स्क्रोल करें।

Ras Ke Udaharan

रस की परिभाषा क्या होती है? - ras kee paribhaasha kya hotee hai?

Ras in Hindi

हिन्दी में मूल रस की संख्या नौ हैं – वात्सल्य रस को दसवाँ एवं भक्ति रस को ग्यारहवाँ रस भी माना गया है। विवेक साहनी द्वारा लिखित ग्रंथ “भक्ति रस- पहला रस या ग्यारहवाँ रस” में इस रस को स्थापित किया गया है। इस तरह हिंदी में रसों की संख्या 11 तक पहुंच जाती है। Hindi में रस निम्नलिखित 11 Ras हैं-

  1. श्रृंगार रस – Shringar Ras in Hindi
  2. हास्य रस – Hasya Ras in Hindi
  3. रौद्र रस – Raudra Ras in Hindi
  4. करुण रस – Karun Ras in Hindi
  5. वीर रस – Veer Ras in Hindi
  6. अद्भुत रस – Adbhut Ras in Hindi
  7. वीभत्स रस – Veebhats Ras in Hindi
  8. भयानक रस – Bhayanak Ras in Hindi
  9. शांत रस – Shant Ras in Hindi
  10. वात्सल्य रस – Vatsalya Ras in Hindi
  11. भक्ति रस – Bhakti Ras in Hindi

1. श्रृंगार रस – Shringar Ras

नायक नायिका के सौंदर्य तथा प्रेम संबंधी वर्णन को श्रंगार रस कहते हैं श्रृंगार रस को रसराज या रसपति कहा गया है। इसका स्थाई भाव रति होता है।

Example

बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करै भौंहनि हँसै, दैन कहै नहि जाय।

2. हास्य रस – Hasya Ras

हास्य रस का स्थायी भाव हास है। इसके अंतर्गत वेशभूषा, वाणी आदि कि विकृति को देखकर मन में जो प्रसन्नता का भाव उत्पन्न होता है, उससे हास की उत्पत्ति होती है इसे ही हास्य रस कहते हैं।

उदाहरण

बुरे समय को देख कर गंजे तू क्यों रोय।
किसी भी हालत में तेरा बाल न बाँका होय।

3. रौद्र रस – Raudra Ras

इसका स्थायी भाव क्रोध होता है। जब किसी एक पक्ष या व्यक्ति द्वारा दुसरे पक्ष या दुसरे व्यक्ति का अपमान करने अथवा अपने गुरुजन आदि कि निन्दा से जो क्रोध उत्पन्न होता है उसे रौद्र रस कहते हैं।

Example

श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे।
सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे॥
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े।
करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े॥

4. करुण रस – Karun Ras

इसका स्थायी भाव शोक होता है। इस रस में किसी अपने का विनाश या अपने का वियोग, द्रव्यनाश एवं प्रेमी से सदैव विछुड़ जाने या दूर चले जाने से जो दुःख या वेदना उत्पन्न होती है उसे करुण रस कहते हैं।

Easy Example

रही खरकती हाय शूल-सी, पीड़ा उर में दशरथ के।
ग्लानि, त्रास, वेदना – विमण्डित, शाप कथा वे कह न सके।।

5. वीर रस – Veer Ras

इसका स्थायी भाव उत्साह होता है। जब किसी रचना या वाक्य आदि से वीरता जैसे स्थायी भाव की उत्पत्ति होती है, तो उसे वीर रस कहा जाता है। इस रस के अंतर्गत जब युद्ध अथवा कठिन कार्य को करने के लिए मन में जो उत्साह की भावना विकसित होती है उसे ही वीर रस कहते हैं।

सरल उदाहरण

बुंदेले हर बोलो के मुख हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।।

6. अद्भुत रस – Adbhut Ras

इसका स्थायी भाव आश्चर्य होता है। जब ब्यक्ति के मन में विचित्र अथवा आश्चर्यजनक वस्तुओं को देखकर जो विस्मय आदि के भाव उत्पन्न होते हैं उसे ही अदभुत रस कहा जाता है।

उदाहरण

देख यशोदा शिशु के मुख में, सकल विश्व की माया।
क्षणभर को वह बनी अचेतन, हिल न सकी कोमल काया॥

7. वीभत्स रस – Veebhats Ras

इसका स्थायी भाव जुगुप्सा होता है। घृणित वस्तुओं, घृणित चीजो या घृणित व्यक्ति को देखकर या उनके संबंध में विचार करके या उनके सम्बन्ध में सुनकर मन में उत्पन्न होने वाली घृणा या ग्लानि ही वीभत्स रस कहलाती है।

उदाहरण

आँखे निकाल उड़ जाते, क्षण भर उड़ कर आ जाते,
शव जीभ खींचकर कौवे, चुभला-चभला कर खाते।
भोजन में श्वान लगे मुरदे थे भू पर लेटे,
खा माँस चाट लेते थे, चटनी सैम बहते बहते बेटे।

8. भयानक रस – Bhayanak Ras

इसका स्थायी भाव भय होता है। जब किसी भयानक या बुरे व्यक्ति या वस्तु को देखने या उससे सम्बंधित वर्णन करने या किसी दुःखद घटना का स्मरण करने से मन में जो व्याकुलता अर्थात परेशानी उत्पन्न होती है उसे भय कहते हैं उस भय के उत्पन्न होने से जिस रस कि उत्पत्ति होती है उसे भयानक रस कहते हैं।

उदाहरण

अखिल यौवन के रंग उभार, हड्डियों के हिलाते कंकाल,
कचो के चिकने काले, व्याल, केंचुली, काँस, सिबार।

9. शांत रस – Shant Ras

इसका स्थायी भाव निर्वेद (उदासीनता) होता है। मोक्ष और आध्यात्म की भावना से जिस रस की उत्पत्ति होती है, उसको शान्त रस नाम देना सम्भाव्य है। इस रस में तत्व ज्ञान कि प्राप्ति अथवा संसार से वैराग्य होने पर, परमात्मा के वास्तविक रूप का ज्ञान होने पर मन को जो शान्ति मिलती है। वहाँ शान्त रस कि उत्पत्ति होती है जहाँ न दुःख होता है, न द्वेष होता है।

उदाहरण

जब मै था तब हरि नाहिं अब हरि है मै नाहिं,
सब अँधियारा मिट गया जब दीपक देख्या माहिं।

10. वात्सल्य रस – Vatsalya Ras

इसका स्थायी भाव वात्सल्यता (अनुराग) होता है। माता का पुत्र के प्रति प्रेम, बड़ों का बच्चों के प्रति प्रेम, गुरुओं का शिष्य के प्रति प्रेम, बड़े भाई का छोटे भाई के प्रति प्रेम आदि का भाव स्नेह कहलाता है यही स्नेह का भाव परिपुष्ट होकर वात्सल्य रस कहलाता है।

उदाहरण

बाल दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि पुनि नन्द बुलवाति,
अंचरा-तर लै ढ़ाकी सूर, प्रभु कौ दूध पियावति।

11. भक्ति रस – Bhakti Ras

इसका स्थायी भाव देव रति है। इस रस में ईश्वर कि अनुरक्ति और अनुराग का वर्णन होता है अर्थात इस रस में ईश्वर के प्रति प्रेम का वर्णन किया जाता है।

छोटा उदाहरण

अँसुवन जल सिंची-सिंची प्रेम-बेलि बोई,
मीरा की लगन लागी, होनी हो सो होई।

Frequently Asked Questions (FAQ)

1. रस किसे कहते हैं?

रस का शाब्दिक अर्थ है ‘आनन्द’। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है। रस को काव्य की आत्मा माना जाता है।

2. रस की परिभाषा क्या है?

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है।

3. हिन्दी में मूल रस कितने हैं?

हिन्दी में मूल रस की संख्या 9 हैं- शृंगार, हास्य, रौद्र, करुण, वीर, अद्भुत, वीभत्स, भयानक और शांत रस।

4. रस के कुल कितने भेद हैं?

रस के भेद 11 होते हैं- श्रृंगार रस, हास्य रस, रौद्र रस, करुण रस, वीर रस, अद्भुत रस, वीभत्स रस, भयानक रस, शांत रस, वात्सल्य रस, और भक्ति रस। हिन्दी में मूल रस की संख्या नौ होती हैं। भरतमुनि के बाद के आचार्यों ने 2 रस- भक्ति और वात्सल्य रस इस सूची में जोड़ दिए। इस प्रकार रसों की कुल संख्या 11 हो जाती हैं।

5. रसों की कुल संख्या कितनी है?

रसों की कुल संख्या 11 है- श्रृंगार रस, हास्य रस, रौद्र रस, करुण रस, वीर रस, अद्भुत रस, वीभत्स रस, भयानक रस, शांत रस, वात्सल्य रस, भक्ति रस

6. रस के उदाहरण लिखो?

बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करै भौंहनि हँसै, दैन कहै नहि जाय। – श्रंगार रस।

बुरे समय को देख कर गंजे तू क्यों रोय।
किसी भी हालत में तेरा बाल न बाँका होय। -हास्य रस।

7. नौ रस क्या कहलाते हैं?

नौ रस को नवरस कहा जाता है; अर्थात जिसमें 9 रस होते हैं: शृंगार, हास्य, रौद्र, करुण, वीर, अद्भुत, वीभत्स, भयानक और शांत रस।

8. नवरस में कितने रस होते हैं?

नवरस का अर्थ है नौ रस; अर्थात जिसमें 9 रस हैं: शृंगार, हास्य, रौद्र, करुण, वीर, अद्भुत, वीभत्स, भयानक और शांत रस।

9. काव्य में रस की परिभाषा क्या है?

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है।

10. काव्य में रस की अवधारणा क्या है?

काव्यशास्त्री शुभंकर ने अपने संगीत ‘दामोदर‘ में लिखा है कि एक समय देवराज इन्द्र ने ब्रह्मा से प्रार्थना की कि वे एक ऐसे वेद की रचना करें जिसके द्वारा सामान्य लोगों का भी मनोरंजन हो सके। इन्द्र की प्रार्थना सुनकर ब्रह्मा ने समाकर्षण कर नाट्य वेद की सृष्टि की। सर्वप्रथम देवाधिदेव शिव ने ब्रह्मा को इस नाट्य वेद की शिक्षा दी थी और ब्रह्मा ने भरतमुनि को। और भरत मुनि ने मनुष्य लोक में इसका इसका प्रचार प्रसार नाट्यशास्त्र के रूप में किया। जिसके छठे और सातवें अध्याय में क्रमशः रस और रस के भावों का भरतमुनि ने विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। वहीं से रस की अवधारणा उत्पन्न हुई। नाट्यशास्त्र को पंचमवेद की संज्ञा दी गई है।

11. काव्य में रस का क्या महत्व है?

काव्य में रस एक महत्वपूर्ण एवं आवश्यक अंग है। एक प्रसिद्ध सूक्त है- “रसौ वै स:” अर्थात् वह परमात्मा ही रस रूप आनन्द है। भरतमुनि ने कहा है कि, “रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्” अर्थात रस युक्त वाक्य ही काव्य कहलाते है। काव्य शास्त्र के जानकार विद्वानों ने भी काव्य की आत्मा को ही रस माना है।

काव्य के सौन्दर्य-तत्व चार होते हैं: भाव-सौन्दर्य, विचार-सौन्दर्य, नाद-सौन्दर्य और अप्रस्तुत-योजना का सौन्दर्य। इनमें से भाव सौन्दर्य के अंतर्गत रसों का वर्णन किया गया है। भाव-सौन्दर्य में प्रेम, करुणा, क्रोध, हर्ष, उत्साह आदि का विभिन्न परिस्थितियों में चित्रण मर्मस्पर्शी होता है। काव्य में भाव-सौन्दर्य को ही साहित्य-शास्त्रियों ने रस कहा है।

हिन्दी व्याकरण

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रस क्या होता है रस की परिभाषा?

रस की परिभाषा (Ras Ki Paribhasha) रस का शाब्दिक अर्थ होता है आनन्द। काव्य के पढ़ने, सुनने से जो आनन्द की अनुभूति होती है, उसे ही रस कहते हैं। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है

रस की परिभाषा और रस कितने प्रकार के होते हैं?

प्रत्येक रस का एक स्थाई भाव होता हैं। अर्थात कुल स्थाई भाव की संख्या 9 हैं क्योंकि रसों की संख्या भी 9 हैं। भरतमुनि के अनुसार मुख्य रसों की संख्या 8 थी शांत रस को इनके काव्य नाट्य शास्त्र में स्थान नहीं दिया गया। मूल रूप से रसों की संख्या 9 मानी गई है जिसमें श्रृंगार रस को रस राजा कहा गया।