नामवर सिंह के पीएचडी का विषय क्या था - naamavar sinh ke peeechadee ka vishay kya tha

जन-विकल्प

सुप्रसिद्ध भारतीय बौद्धिक, लब्धप्रतिष्ठ हिंदी-साहित्यालोचक और विमर्शकार प्रोफ़ेसर नामवर सिंह पिछले 19 फ़रवरी 2019 की देर रात दिवंगत हो गए। वह उम्र के 93वें वर्ष में थे। पिछले महीने स्नानागार में फिसलकर गिरने से उन्हें जो गहरी चोटें आयी थीं, उसके बाद फिर वह स्वस्थ नहीं हुए। 28 जुलाई 1926 को बनारस के पास जियनपुर में एक ग्रामीण स्कूल शिक्षक के घर जन्मे नामवर ने बनारस विश्वविद्यालय में शिक्षा पायी। जब वह इक्कीस वर्ष के थे, तब देश ब्रिटिश गुलामी से मुक्त हुआ और यहां एक लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था स्थापित हुई। उन्ही दिनों उन्हें सुप्रसिद्ध विद्वान हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का सानिध्य मिला, जो कुछ ही समय पूर्व रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित शिक्षा केंद्र शांति निकेतन से लौटे थे।

नामवर सिंह के पीएचडी का विषय क्या था - naamavar sinh ke peeechadee ka vishay kya tha

द्विवेदी जी में नामवर सिंह ने कुछ देखा और वह उनके केवल अध्यापक नहीं, बल्कि सम्पूर्ण रूप से गुरु बन गए। 1951 में एम.ए. करने के बाद बीएचयू में ही वह अध्यापक बनाए गए और वहीं से 1956 में ‘पृथ्वीराज रासो की भाषा’ विषय पर पीएचडी की उपाधि हासिल की। 1959 में वहीं से लोकसभा उपचुनाव में अविभक्त भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीद्वार के रूप में चुनाव लड़े और हारे। जीवन की मुश्किलों को झेलते हुए 1970 के दशक में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से जुड़े और उसके भारतीय भाषा विभाग को संस्कारित किया। वह एक योग्य अध्यापक, साहित्यालोचक, विमर्शकार और सबसे बढ़ कर लोकप्रिय वक्ता के रूप में रेखांकित हुए। अपने ज़माने को उनने कितना प्रभावित किया, यह तो बहस का विषय होगा, लेकिन उनकी लोकप्रियता असंदिग्ध रूप से आजीवन बनी रही। उनके वक्तव्य, विचार और टिप्पणियों को नज़रअंदाज करना मुश्किल होता था। उन्हें भूलना हिंदी समाज और साहित्य के लिए संभव नहीं होगा।

नामवर सिंह के पीएचडी का विषय क्या था - naamavar sinh ke peeechadee ka vishay kya tha
लब्धप्रतिष्ठ हिंदी-साहित्यालोचक और विमर्शकार प्रोफ़ेसर नामवर सिंह (28 जुलाई 1926-19 फ़रवरी 2019)

वह कौन-सी चीज है, जो नामवर को विशिष्ट या खास बनाती है। हिंदी साहित्य के कितने आलोचक, अध्यापक तो हैं, लेकिन इस उम्र तक उनके द्वारा खींची गयी लकीर को कोई छोटा क्यों नहीं कर सका? उन तमाम मठों और पदों पर अब भी कोई न कोई है, जिन पर वह कभी रहे थे, लेकिन वे नामवर की तरह चर्चित नहीं हुए। इसका कोई तो अर्थ-रहस्य होगा ही। निश्चित ही उन्हें विशिष्ट बनाने वाली चीजें कुछ दूसरी थीं। इसकी खोज कुछ अधिक दिलचस्प हो सकती है। हमें इसके संधान की कोशिश करनी चाहिए।

नामवर सिंह के पीएचडी का विषय क्या था - naamavar sinh ke peeechadee ka vishay kya tha

हज़ारों लोगों की तरह मैंने भी नामवर को देखा-समझा ,सुना और पढ़ा। थोड़ी निकटता भी रही। साहित्य का कभी विधिवत छात्र नहीं रहा, इसलिए स्वाभाविक था कि मैं उन्हें जरा भिन्न नजरिये से देखता। ‘कविता के नये प्रतिमान’, ‘कहानी : नयी कहानी’ और ‘दूसरी परम्परा की खोज’ को मैं उनकी मुख्य निधि मानता हूं। इन तीनों से गुजरते हुए महसूस किया है, हिंदी साहित्य को उन्होंने एक नया मिजाज, नया संस्कार और सबसे बढ़ कर एक नया नजरिया दिया है। वह नया नजरिया या दृष्टिकोण क्या है? इसके जवाब ढूंढने के लिए हमें हिंदी साहित्य, बनारस और नामवर तीनों की मीमांसा करनी होगी। बेहतर होगा, हम उस तरफ ही अग्रसर हों।

देश को आज़ादी मिलने के इर्द-गिर्द के हिंदी साहित्य का अनुमान किया जाना मुश्किल नहीं है। बस दशक भर पूर्व प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रामचंद्र शुक्ल प्रभृति लोग दिवंगत हुए थे। निराला, पंत, जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल आदि सक्रिय थे। छायावाद का दौर समाप्त हो गया था और प्रगतिवाद-प्रयोगवाद की कोंपले खिल रहीं थीं।

 राजनीतिक क्षेत्र में विचारों का कोहराम मचा हुआ था। दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद वैचारिक शीतयुद्ध का दौर शुरू हुआ था। एशियाई समाज में नवजागरण के नए रूप विकसित हो रहे थे और आधुनिकता की परस्पर विरोधी व्याख्याएं प्रस्तुत की जा रही थीं। तीसरी दुनिया के देशों में आज़ादी की लड़ाई तेज हो गई थी। इन सबकी परछाइयां भारतीय मानस पर दृष्टिगोचर हो रही थीं। पूरे देश में समाजवाद को लेकर एक उत्साह दिखलाई पड़ता था।

ऐसे समय में भारत की हिंदी पट्टी का रूढ़िवादी नगर बनारस अपनी वर्णाश्रमी चेतना में ऊंघता दीखता था। गाय, गंगा और गीता की त्रिवेणी इस नगर की चेतना पर हावी तो थी ही, यहां के हिंदी साहित्य को भी घेरने की भरसक कोशिश कर रही थी। कबीर, रैदास और प्रेमचंद को इस नगर ने पैदा जरूर किया था, लेकिन उनके विचारों से दूरी ही बनाये रखी थी। कठमुल्ले लेखकों-प्राध्यापकों का यहां जमावड़ा था। बनारस की जनता, वहां के कारीगर, व्यवसायी और अन्य लोग एक अलग रौ में होते थे और बुद्धिजीवियों का मिजाज अलग होता था। इस द्वैत को कुछ ही लोगों ने समझा था। काशी-बनारस वैचारिक करवट लेने के लिए कसमस कर रहा था। यही वह समय था, जब समाजवादी राममनोहर लोहिया ने बीएचयू परिसर में अपना वह प्रसिद्ध भाषण दिया, जो ‘जाति और योनि के दो कठघरे’ शीर्षक से एक लेख रूप में विनिबंध हो उनकी किताब ‘जाति प्रथा’ में संकलित है। इस बनारस में बांग्ला नवजागरण और रवीन्द्रनाथ टैगोर की चेतना से शिक्षित-दीक्षित होकर हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जब आए तब उन्हें अनेक तरह का विरोध झेलना पड़ा। इसकी झलक नामवर जी की किताब ‘दूसरी परंपरा की खोज’ और विश्वनाथ त्रिपाठी की किताब ‘व्योमकेश दरवेश’ में मिलती है। नामवर सिंह ने ऐसे में यदि द्विवेदी जी को अपने गुरु के रूप में स्वीकार किया तब यह बतलाने की जरूरत नहीं रह जाती कि उनकी विचारधारा क्या थी। नामवर जी को भारतीय चिंतन परम्परा की दो मुख्य धाराओं में से एक को चुनना था, उन्होंने उस धारा को चुना जो बुद्ध, कबीर, टैगोर से होते हुए द्विवेदी जी तक आयी थी। वह किसी वैचारिक दुविधा में नहीं थे।

बनारस ने द्विवेदी जी को भी बहिष्कृत किया और नामवर जी को भी। इसकी कहानी कहने का फ़िलहाल वक़्त नहीं है। लेकिन नामवर जी ने अपने गुरु के वैचारिक ध्वज को कभी नीचे नहीं किया। उसे न केवल थामे रहे,अपितु चारों दिशाओं में घुमाते भी भी रहे, उसे सक्रिय रखा, नयी पीढ़ी को उसकी घुट्टी पिलाते रहे, संस्कारित करते रहे। कभी कोई ‘गुरुडम’ नहीं विकसित किया, सोच की एक धारा, एक परंपरा जरूर विकसित की। यही कारण रहा कि नौजवान लेखकों-कवियों-साहित्यसेवियों के बीच वह चर्चित रहे, सम्मानित रहे।

अपने बौद्ध गुरु भिक्षु जगदीश कश्यप के बाद मैंने नामवर जी को ही इतना उदार देखा कि उनके मंतव्य पर भी यदि कोई आपत्ति की, प्रतिरोध किया तब उसे ध्यान से सुना। यदि मैं गलत हुआ तो उनने समझाया और यदि उनकी स्थापना में कोई खोट हुआ तब उसे भी स्वीकार किया। सम्भवतः 2003 की बात होगी। सारनाथ में ‘संगमन’ का आयोजन था। हिंदी कथा-विधा पर चर्चा हो रही थी, विषय पूरा-पूरा याद नहीं आ रहा। अपने वक्तव्य के दौरान, मैंने उनके भाई काशीनाथ सिंह की दो कहानियों ‘चोट’ और ‘सुख’ को कठघरे में लाने की कोशिश की। मेरी नज़र में ‘चोट’ सामंतवादी मिजाज की कहानी है और ‘सुख’ मशहूर रुसी लेखक चेखब की एक प्रसिद्ध कहानी की फूहड़ पैरोडी। साहित्य में इन दोनों भाइयों का ऐसा प्रभाव था कि मेरे वक्तव्य के बाद हमारे लेखक साथी मुझसे कटने लगे कि कहीं मुझसे निकटता उन्हें सिंह बंधुओं से दूर न कर दे। मुझ पर इन सब का कभी कोई असर नहीं पड़ा है। उस वक़्त भी मैं इस अलगाव के मजे ले रहा था। लेकिन दूसरे दिन नामवर जी ने मुझे बुलाया और मेरी राय से सहमति जताई, यह कहते हुए कि मैंने इन कहानियों को इस रूप में नहीं देखा था। तो यह थे नामवर जी।

मैं नहीं कहूंगा कि उत्तर मार्क्सवादी दौर में विकसित बहुजन चेतना को उन्होंने आत्मसात कर लिया था, लेकिन उनकी दिलचस्पी इस ओर थी। उन्होंने फुले ग्रंथावली कोपूरा पढ़ा था। अपने साथी देशपांडे जी के नाटक ‘सत्यशोधक’ के बारे में विस्तार से उन्होंने ही पहली बार मुझे बतलाया। आंबेडकर की किताब ‘बुद्ध और उनका धर्म’ उन्होंने मनोयोग से पढ़ा था। एक बार उससे सम्बद्ध इतने प्रश्न उठाए कि मैं चकित रह गया। आंबेडकर के इस नजरिये से वह प्रभावित थे कि बुद्ध के गृहत्याग का कारण सामाजिक प्रश्न था, न कि प्रचलित वह कथा जिसमे रोगी, वृद्ध और मृत को देखने की बात कही गयी है। दलित साहित्य पर वह कभी-कभार मजाकिया टिप्पणियां करते रहे, लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि और तुलसी राम की आत्मकथाओं को महत्वपूर्ण माना। हालांकि दलित साहित्य को एक अलग प्रकोष्ठ के रूप में विकसित करने के उनके इरादे से मैं असहमत रहा।

आज वह नहीं हैं, तब स्मृतियों की छतरी धीरे-धीरे खुल रही है। हर इंसान की सीमाएं होती हैं, उनकी भी थीं। नामवर जी ने अपने समय का, अपने हिस्से का सत्य बयां किया है। हिंदी साहित्य को वर्णवादी कुंठा और मार्क्सवादी कठमुल्लेपन से मुक्त करने की उन्होंने भरसक कोशिश की। कुछ वर्ष पूर्व एक साक्षात्कार में उन्होंने कम्युनिस्ट आंदोलन की विफलता पर टिप्पणी करते हुए कम्युनिस्ट नेताओं की तुलना उस ओझा से की थी जिनके भूत भगाने के लिए इस्तेमाल किये गए सरसों में ही भूत छुपा था। भूत भागता तो कैसे! कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर ही गड़बड़ी थी। अपनी, अपने विचारों की गड़बड़ियों या कमियों को स्वीकारने में उन्हें कभी संकोच नहीं हुआ। जितना मैंने समझा वैचारिक मामलों में वह हठी-जिद्दी बिलकुल नहीं थे। हां, इतने कच्चे भी नहीं थे कि कोई उन्हें बरगला दे। डॉ रामविलास शर्मा की लोकप्रियता, सर्वस्वीकार्यता और उनकी गट्ठर की गट्ठर किताबें उन्हें विचलित नहीं कर पायीं। उन्हें कोई आतंकित नहीं कर सकता था।

ज्ञान के आकाश, इस प्रबुद्ध चिंतक मित्र-साथी-गुरु को हम भूल नहीं पाएंगे। हमारी चर्चाओं और स्मृतियों में वह बने रहेंगे, हज़ारों प्रशंसकों के दिलों में धड़कते रहेंगे।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : 

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें

नामवर सिंह के पीएचडी का विषय क्या था - naamavar sinh ke peeechadee ka vishay kya tha

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबीर

चिंतन के जन सरोकार

नाम और सिंह का पीएचडी का विषय क्या था?

1956 में उन्होंने 'पृथ्वीराज रासो की भाषा' विषय पर पीएचडी की और 1959 में चकिया-चंदौली से लोकसभा का चुनाव लड़ा वह भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर. वह यह चुनाव हार गए और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से कार्यमुक्त कर दिए गए.

नामवर सिंह कैसे आलोचक हैं?

इनमें से कई लोग नब्बे वर्ष के परिपक्व और कई उपलब्धियां देख चुके जीवन को पार कर चुके थे, लेकिन उनका न होना प्रकाश स्तंभों के बुझने की तरह है. आधुनिक कविता की व्यावहारिक आलोचना की सबसे अधिक लोकप्रिय किताब 'कविता के नए प्रतिमान' लिखने वाले डॉ. नामवर सिंह कई दशकों तक खुद हिंदी साहित्य के प्रतिमान बने रहे.

नंबर सिंह के पिता क्या थे?

उनके तीन पुत्रों में मेरे पिता मझले थे ठाकुर नागर सिंह

नामवर सिंह का ललित निबंध कौन सा है?

की प्रवृत्तियाँ, छायावाद, पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, कहानी : नई कहानी, कविता के नए प्रतिमान, दूसरी परंपरा की खोज, वाद विवाद संवाद (आलोचना), कहना न होगा ( साक्षात्कारों का संग्रह), आलोचक के मुख से ( व्याख्यानों का संग्रह) एवं अनेक संपादित पुस्तकें । बौद्धिक निपुणता वांछित होती है ।