क्या हार में क्या जीत में किंचित नहीं भयभीत में किस कविता की पंक्ति है? - kya haar mein kya jeet mein kinchit nahin bhayabheet mein kis kavita kee pankti hai?

होम /न्यूज /साहित्य /जन्मदिन विशेष: शिवमंगल सिंह 'सुमन'- 'क्या हार में क्या जीत में, किंचित नहीं भयभीत मैं'

क्या हार में क्या जीत में किंचित नहीं भयभीत में किस कविता की पंक्ति है? - kya haar mein kya jeet mein kinchit nahin bhayabheet mein kis kavita kee pankti hai?

शिवमंगल सिंह 'सुमन' को‘मिट्टी की बारात’ के लिए 1974 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार और 1974 में पद्मश्री तथा 1999 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया.

शिवमंगल सिंह 'सुमन' ने 1968-78 के दौरान उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में काम किया. सुमन जी ने उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष, भारतीय विश्वविद्यालय संघ के अध्यक्ष, कालिदास अकादेमी के कार्यकारी अध्यक्ष आदि के रूप में अपनी सेवा दीं.

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  • News18Hindi
  • Last Updated : August 05, 2022, 15:02 IST

हिंदी काव्यधारा के बड़े हस्ताक्षर शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की आज जयंती है. प्रगतिशील लेखन के अग्रणी कवि सुमन जी का जन्म 5 अगस्त 1915 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में हुआ था. उनके पिता का नाम ठाकुर बख्श सिंह था. उनका परिवार कई पीढ़ियों से देश की सेवा में समर्पित रहा है. शिवमंगल सिंह सुमन के दादा ठाकुर बलराज सिंह रीवा सेना में कर्नल थे और परदादा ठाकुर चन्द्रिका सिंह 1857 की क्रांति में वीरगति को प्राप्त हुए थे.

शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ अपनी रचनाओं के माध्यम से सीधे-सपाट शब्दों में संवाद करते हैं.

इस जीवन में बैठे ठाले ऐसे भी क्षण आ जाते हैं
जब हम अपने से ही अपनी बीती कहने लग जाते हैं।

तन खोया-खोया-सा लगता मन उर्वर-सा हो जाता है
कुछ खोया-सा मिल जाता है कुछ मिला हुआ खो जाता है।

लगता; सुख-दुख की स्‍मृतियों के कुछ बिखरे तार बुना डालूं
यों ही सूने में अंतर के कुछ भाव-अभाव सुना डालूं।

कवि की अपनी सीमाएं है कहता जितना कह पाता है
कितना भी कह डाले, लेकिन-अनकहा अधिक रह जाता है।

यों ही चलते-फिरते मन में बेचैनी सी क्‍यों उठती है?
बसती बस्‍ती के बीच सदा सपनों की दुनिया लुटती है।

जो भी आया था जीवन में यदि चला गया तो रोना क्‍या?
ढलती दुनिया के दानों में सुधियों के तार पिरोना क्‍या?

जीवन में काम हजारों हैं मन रम जाए तो क्‍या कहना!
दौड़-धूप के बीच एक-क्षण, थम जाए तो क्‍या कहना!

कुछ खाली खाली होगा ही जिसमें निश्‍वास समाया था
उससे ही सारा झगड़ा है जिसने विश्‍वास चुराया था

फिर भी सूनापन साथ रहा तो गति दूनी करनी होगी
सांचे के तीव्र-विवर्त्‍तन से मन की पूनी भरनी होगी।

जो भी अभाव भरना होगा चलते-चलते भर जाएगा
पथ में गुनने बैठूंगा तो जीना दूभर हो जाएगा।

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शिवमंगल सुमन की कविताओं की अभिव्यंजनता भी कविता के सौन्दर्य का एक गुण है. साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से सुमन जी खुद को एक प्रगतिशील कवि के रूप में प्रस्तुत करते हैं-

मैं बढ़ा ही जा रहा हूं, पर तुम्हें भूला नहीं हूं।
चल रहा हूं, क्योंकि चलने से थकावट दूर होती,
जल रहा हूं क्योंकि जलने से तिमिस्रा चूर होती,
गल रहा हूं क्योंकि हल्का बोझ हो जाता हृदय का,
ढल रहा हूं क्योंकि ढलकर साथ पा जाता समय का।

सुमन जी की रचनाएं दलित, उत्पीड़ित, शोषित और बेसहारा मजदूर वर्ग के पक्ष में न केवल खड़ी नजर आती हैं बल्कि उनमें ऊर्जा का नया संचार करती हैं-

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज हृदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी न मानी हार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

सागर की अपनी क्षमता है
पर मांझी भी कब थकता है
जब तक सांसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

शिवमंगल सुमन अपनी कविताओं में समसामयिक मुद्दों पर चर्चा करते नजर आते हैं. उनकी रचनाओं में मजबूत आस्था और विश्वास का स्वर है-

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाएंगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाएंगे।

हम बहता जल पीनेवाले
मर जाएंगे भूखे-प्‍यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,

स्‍वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।

ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।

होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सांसों की डोरी।

नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्‍न-भिन्‍न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्‍न न डालो।

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शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ जी ने हिंदी साहित्य की लगभग हर विधाओं में साहित्य सृजन किया है. गद्य और कविता के साथ उन्होंने नाटक भी लिखे हैं. उनका कविता संग्रह हिल्लोल (1939), जीवन के गान (1942), युग का मोल (1945), प्रलय सृजन (1950), विश्वास बढ़ता ही गया (1948), विध्य हिमालय (1960), मिट्टी की बारात (1972), वाणी की व्यथा (1980), कटे अंगूठों की वंदनवारें (1991) बहुत चर्चित हुए हैं.

मिट्टी की बारात काव्य संग्रह की एक कविता ‘इनको चूमो’-

कीचड़-कालिख से सने हाथ
इनको चूमो
सौ कामिनियों के लोल कपोलों से बढ़कर
जिसने चूमा दुनिया को अन्न खिलाया है
आतप-वर्षा-पाले से सदा बचाया है।

श्रम-सीकर से लथपथ चेहरे
इनको चूमो
गंगा-जमुना की लोल-लहरियों से बढ़कर
मां-बहनों की लज्जा जिनके बल पर रक्षित
बुन चीर द्रौपदी का हर बार बढ़ाया है।

कुश-कंटक से क्षत-विक्षत पग
इनको चूमो
जो लक्ष्मी-ललित क्षीर-सिंधु के
चर्चित चरणों से बढ़कर
जिनका अपराजित शौर्य
धवल हिम-शिखरों पर महिमा-मण्डित
मानवता का वर्चस्व सौरमण्डल स्पंदित कर आया है।

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अपने भाषणों में अक्सर शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की कविताओं का उल्लेख किया करते थे. अटल बिहारी वाजपेयी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने थे उनकी सरकार केवल 13 दिन दिन ही चल पाई. मई,1996 में सदन में बहुतमत साबित करने के दौरान उन्होंने अपने भाषण में शिवमंगल सिंह सुमन जी पंक्तियों को दोहराया था- ‘क्या हार में क्या जीत में, किंचित नहीं भयभीत मैं। संघर्ष पथ में जो मिले, यह भी सही, वह भी सही।’

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Tags: Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Literature, Poem

FIRST PUBLISHED : August 05, 2022, 14:21 IST

क्या हार में क्या जीत में किसकी कविता है?

शिवमंगल सिंह 'सुमन' : क्या हार में क्या जीत में किंचित नहीं भयभीत मैं

क्या हार में क्या जीत में किंचित नहीं भयभीत मैं कर्तव्य पथ पर जो भी मिला?

क्या हार में, क्या जीत में किंचित नहीं भयभीत मैं कर्तव्य पथ पर जो मिला यह भी सही वो भी सही वरदान नहीं मांगूंगा हो कुछ, पर हार नहीं मानूँगा।” — #अटल_बिहारी_वाजपेयी #जन्मदिवस की ढेरों शुभकामनायें अटल जी!! #AtalBihariVajpayee ji.

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