कार्नेलिया किस रचना की पात्र है क्या वह भारतीय? - kaarneliya kis rachana kee paatr hai kya vah bhaarateey?

कल्याणी परिणय (नाटक): जयशंकर प्रसाद

Kalyani Parinaya (Play) : Jaishankar Prasad

पात्र-परिचय : कल्याणी परिणय

चाणक्य

चन्द्रगुप्।

इन्दुशर्मा

चण्डविक्रम

सिल्यूकस

मेगास्थिनीज

साइबर्टियस

दौवारिक

चर

कार्नेलिया : कल्याणी

एलिस

तरलिका, चार नर्तकियां

पहला दृश्य : कल्याणी परिणय

[सिंधु तट-कानन। चाणक्य टहलता हुआ दिखाई देता है।]

चाणक्य - वाह ! प्रभात का समय भी कैसा सुन्दर होता है, देखो ।

अन्धकार हट रहा जगत जागृत हुआ।
रजनी का भी स्तब्ध भाव अपसृत हुआ।।
नीलाकाश प्रशान्त स्वच्छ भाव होने लगा।
दक्षिण-पवन-स्पर्श सुखद होने लगा।।
क्लान्त निशा जो जगी रात भर मोद में।
चली लेटने आप नींद की गोद में।
उषा का पट ओढ़ लिया अति चाव से।
अन्तरिक्ष में सोने को शुचि भाव से।।
पर जीवों को जगा दिया कलनाद से।।
जो तन्द्रा-सुख भोग रहे आह्लाद से।।

(कुछ ठहर कर) पर मुझे भी दिन-रात राज-काज के झगड़ों ने दूसरा ही बना डाला। चाणक्य ! तेरी वह शान्ति कहाँ गयी ? इस क्रूर कार्य में क्यों तूने हाथ डाला ? हाय, सब कहते हैं कि चाणक्य बड़ा ही दुष्ट है पर उन्हें यह ध्यान ही नहीं कि यह कार्य ही ऐसा है ! संसार ! संसार !! तेरी लीला अपरम्पार है। मनुष्य को ध्यान भी नहीं रहता कि वह क्या से क्या हो गया। अनिर्वचनीय शक्ति तूने -

छाया-सा अस्पष्ट चित्र दिखला दिया।
भ्रममय अनुसंधान हमें सिखला दिया।।

नहीं तो कहाँ मैं, और कहाँ यह दुस्तर कुहेलिका-समुद्र संसार !
आह !

(स्मरण करके गद्गद कण्ठ से आंखें बन्द किए हुए)

दूर छोड़ कर देश किस जगह आ गया।
यात्री का पद कहो कहाँ से पा गया ?
नये-नये हैं साथ राह भी है नयी।
नव विस्मृति के साथ व्यथा नव हो गयी।।
सुख समुद्र के बीच प्रेम का द्वीप था।
चन्द्रदेव का रजत-बिम्ब ही दीप था।।
पवन-सुरभि आनन्दपूर्ण सुख शीत था।
नव वसन्त का राग शान्ति-संगीत था।।
चिर वसन्त-मय काम्य कुसुम के कुञ्ज थे।
जिनमें विहरणशील रसिक अलिपुञ्ज थे।।
इतना था सौहार्द सभी हम एक थे।।
एक अकेले हमीं रहे, न अनेक थे।।
करुणा का था राज्य, प्रेम ही धर्म था।
युद्धानन्द विनोद एक ही कर्म था।।
न था किसी में मोह, कभी न विवाद था।
मिलता अविरत स्वच्छ सुधा का स्वाद था।।
भीति शीत की भी, न मार्ग की यन्त्रणा।
यह कुचक्र-मय चाल न थी, न कुमन्त्रणा।।

सैनिक - (प्रवेश करते, स्वगत) रंग-ढंग तो आज निराला है, बाप रे बाप ! किसके लिए कुमन्त्रणा की चक्की तैयार हो रही है ? किसका सिर पीसकर यन्त्रणा दी जायगी? कह दें, साहस ही नही होता कि कह दें। अच्छा ठहर जायँ। -

चाणक्य - (निःश्वास लेकर आँख खोलता हुआ)

तप्त हृदय का उष्ण नहीं निःश्वास था।
शुद्ध प्रेम-मय भाव सत्य विश्वास था।।

सैनिक - (जल्दी से) मन्त्रिवर ! ग्रीक शिविर से एक ब्राह्मण आये हैं।

चाणक्य - (झिड़क कर) चला जा यहाँ से। तुझे किसने यहाँ आने को कहा है ?

सैनिक - (घबराकर काँपता हुआ) उसी ब्राह्मण ने। जाने लगता है -

चाणक्य - (रोक कर) उसने अपना नाम भी कुछ बताया है (कुछ सोचकर) अच्छा, जाओ बुला लाओ। (सैनिक जाता है)

इन्दुशर्मा - (प्रवेश कर) नमस्कार !

चाणक्य - नमस्कार ! कहो जी क्या समाचार है ?

इन्दुशर्मा - अमात्य ! हमारा चन्द्रगुप्त के शिविर में आना आज यवनों पर विदित हो गया, आज मैं किसी तरह वहाँ से चला आया पर अब न जाऊँगा। (पुरजा देकर) यह लीजिये यह ग्रीक शिविर का पूरा विवरण इसी में लिख दिया है, इसे आप स्वस्थ होकर पढ़ लीजिये।

चाणक्य - मित्र ! हम तुम्हारे कृतज्ञ हैं। पर क्या एक बात जानने में तुम हमारी कुछ सहायता कर सकोगे ? क्या यह बता सकते हो कि यवन शिविर में से कुछ स्त्रियाँ जो बाहर निकलकर घूमती थीं, वे कौन थीं।

इन्दुशर्मा - (कुछ सोचकर) वह तो यवन सम्राट सिल्यूकस की कन्या थी जिसे मैं पढ़ाया करता था।

चाणक्य - ठीक है। मुझे भी यही सन्देह था। अच्छा अब विश्राम करें (इन्दुशर्मा जाता है चाणक्य फिर टहलने लगता है। कुछ सोचकर) हूँ, तभी चन्द्रगुप्त की यह अवस्था है। अच्छा पर क्या इतना परिश्रम व्यर्थ होगा। तलवार से नहीं, बुद्धि से नहीं, लक्ष्मी की झलक से नहीं, केवल एक क्षुद्र कटाक्ष से कौटिल्य का कूटचक्र टूट जायगा। कभी नहीं, कभी नहीं। कोई कवि होता तो अवश्य कहता -

कृष्ण केसर से भरे नव नील सरसीरूह अहो।
देखकर किसका मधुप-मन धैर्य धरता है कहो।।
पड़ गयी माला गले जिसके सरस नलिनाक्ष की।
कंटकों की है लड़ी तैयार कुटिल कटाक्ष की।।
चुभ गये काँटे जिसे वह एक पग चलता नहीं।
दलित अपने हृदय को निज हाथ से मलता वहीं।।

पर मुझे तो ऐसी कपोल कल्पनाएं अच्छी नहीं लगतीं। चन्द्रगुप्त ! क्या ग्रीक कुमारी के भोगे सुख ने तुझे भुला दिया कि तूने किस कठिनाई से राज्य पाया है। हूँ, मैं समझ गया। यवनों की एक चाल यह भी है। मछली फँसाने के लिये वंशी फेंक दी गयी है, चारा भी मुँह में लग चुका है। पर अभी बारा-न्यारा नहीं हुआ। (हँसकर) अरे चाणक्य ! तिमिगिल और बंसी सहित अहेरी खिंचा चला आये तब तो नाम, नहीं तो ये भी क्या जानेंगे। (घूमकर नेपथ्य की ओर देखकर) उधर देखो, चन्द्रगुप्त चला आ रहा है, मुखमण्डल सन्ध्या के कमल-सा हो गया है, अहा। इसका मलिन मुख हमसे नहीं देखा जाता। सम्भवतः यह प्राभातिक वायु सेवन करके शिविर की ओर लौटा जा रहा है। मैं भी अपना आर्थिक-कृत्य समाप्त कर चुका हूँ। चलूँ, अभी बहुत-सा कार्य करना है। प्रभात में जो थोड़ी शान्ति मिली थी, इन झंझट के कामों से वह फिर जाती रहेगी। (जाता है)

[पटाक्षेप]

दूसरा दृश्य : कल्याणी परिणय

(शिविर में चन्द्रगुप्त और चण्डविक्रम)

चन्द्रगुप्त - अजी जाकर महामंत्री से कह दो कि मैं अस्वस्थ हूं, इससे थोड़ी देर में मन्त्रणगृह में आऊँगा। (स्वगत) इन झंझटों से घड़ी भर भी अवकाश नहीं।

चण्डविक्रम - किन्तु महाराज ! ऐसे रण-प्रांगण में आप क्यों सुस्त हो रहे हैं कुछ समझ में नहीं आता ? आज पाँच दिन से समस्त सैनिक लोग व्यग्रमुख से आप से आज्ञा कर रहे हैं।

चन्द्रगुप्त - वयस्य चण्डविक्रम। युद्ध कुछ खिलवाड़ तो है नहीं, कि अब इच्छा हुई अकारण सैनिकों का नाश कर दिया जाय। यह तो शत्रु की विशेष गति-विधि पर ध्यान रखकर किया जाता है जिसमें अपनी हानि न हो।

चण्डवि. - (धीरे-से) पर मैं देख रहा कि महाराज के हृदय-पट पर कोई अलक्षित चित्रकार नया रंग भर रहा है।

चन्द्रगुप्त - (चौंककर) क्या कहा, क्या ? तुम तो व्यर्थ ही शंका कर रहे हो।

चण्डवि. - (हंसकर) महाराज शंका किसलिये करूँ।

चन्द्रगुप्त- - (छिपाते हुए) कुछ नहीं, हमने समझा कि तुम कुछ दूसरी बात समझ रहे हो।

चण्डवि. - महाराज।

नव धन जल सींची जा चुकी जो धरा है।
हृदय सरस जिसका भाव ही से भरा है।।
वह प्रगट न वैसी आदर्य देती लखाई।
तृण हरित बताते हो गयी है सिंचाई।।

चन्द्रगुप्त - इस कविता का भाव मेरी समझ में नहीं आया।

चण्डवि. - (पद्य)

वसन्त के कानन में खिला जो।
मलिन्द से प्रेम भरा मिला जो।।
गुलाब वो गन्ध छिपा सके नहीं।
समीर-निःश्वास कहे जहाँ तहीं।।

चन्द्रगुप्त - (मुस्कराकर) यह तो तुमने अच्छा मघवा का अर्थ बिड़ौजा किया।

चण्डवि. - क्षमा कीजिये, अब मुझे प्रगट कहना पड़ा। अच्छा, कल आप मृगया खेलते-खेलते किधर चले गये थे ? हम लोगों से जब आप अलग हुए तब मालूम होता है कि मृग तो आपके हाथ लगा नहीं वरन् आप ही किसी मृगनयनी के बरूनी के जाल में फँस गये। मैं तो यही समझ सका, आगे जो कुछ हो।

चन्द्रगुप्त - अब तुम से क्या छिपाएं, सुनो। जब मृग के पीछे मैं बहुत दूर निकल गया, तब मुझे मालूम हुआ कि मैं जंगल की सीमा पर चला आया हूँ। अस्तु मैं थोड़ी देर तक वहाँ ठहर गया क्योंकि मृग झाड़ी में छिप गया था और मैं भी शांत हो गया था। अभी थोड़ी देर भी नहीं हुई थी कि मृग घोड़ों की टाप सुनकर झाड़ी में से निकलने लगा। मैंने भी अपना धनुष चढ़ाकर ज्यों ही ती छोड़ना चाहा कि, हाय, मैं घायल हो गया। (चुप हो जाता है।)

चण्डवि. - हाँ फिर क्या हुआ ? कहिये न, इसी से तो मैं समझता हूँ कि आप छिपाना चाहते है।

चन्द्रगुप्त - क्या कहें उसी समय मेरे सामने से सुन्दरियों का एक झुण्ड अपने घोड़ों को दौड़ाता हुआ निकल गया। चण्डविक्रम ! मैं तो अवाक्-सा रह गया। मुझे मालूम हुआ कि नन्दनकानन से भूलकर अप्सराएं इस घोर कानन में चली आयी हैं। अहा ! उसका लावण्य तो मैं कह नहीं सकता जो सबके आगे काले घोड़े पर सवार होकर नीलघन की चपला को लजा रही थी।

(पद्य लावनी)

वे खुले अलक मारूत से क्रीड़ा करते।
मुखरूप-सिन्धु में लहरों को अनुहरते।।
था रूप मिला परिमल से प्रेम-भरा था।
वर्षा-कानन सा निर्मल हुआ हरा था।।
राका वसन्त-सा मधुर, तीक्ष्ण दिनकर-सा।
गम्भीर शान्ति-संगीत सुधामय स्वर-सा।।
आकर्षण था उस चन्द्रकान्त में ऐसा।
खिंच जाय हृदय लोहा का भी हो कैसा।।
अहा, वह नैसर्गिक सौन्दर्य क्या फिर भी देखने को मिलेगा ?

(नेपथ्य में कोलाहल। सैनिक का प्रवेश)

सैनिक - महाराज की जय हो। शत्रुओं ने अचानक आक्रमण कर दिया है। सेनापति सिंहनाद सेना लेकर अग्रसर हो रहे हैं !

चन्द्रगुप्त - (शीघ्रता से) जल्दी घोड़ा खींचने के लिए कहो। चण्डविक्रम ! चलो देखें तो आज ग्रीक लोग कितने वीर हैं। शीघ्र प्रस्तुत हो।

(सैनिक और चण्डविक्रम जाते है)

आवें लड़े ग्रीक, हम वीर निर्भीक,
प्रण में रहें ठीक, सब वीर मेरे।
देखे सबल हाथ, रण बीच कर साथ,
अर्पण करें माथ, पहुँचे न डेरे। आवें...

(चन्द्रगुप्त जाता है। चाणक्य का प्रवेश चाणक्य सीटी बजाता है, गुप्तचर का प्रवेश)

चर - क्या आज्ञा है ?

चाणक्य - कठिन कार्य है। आज तुम्हारी कठिन परीक्षा है।

चर - आप कहिए, मैं अवश्य करूँगा।

चाणक्य - यह तो मुझे दृढ़ विश्वास है कि चन्द्रगुप्त का पराक्रम ठीक है पर उस पराक्रम की अग्नि में घी डालने का काम तुम्हारा है। जिस समय चन्द्रगुप्त विजयी हो रहा हो उस समय तुमको उसके पास पहुँचकर यवनकुमारी का ध्यान दिलाना होगा और शिविर भी बतलाना होगा। यदि तुम कृतकार्य हुए तो समझ लेना कि चाणक्य तुम्हें यथेष्ट पुरस्कार देगा।

चर - जो आज्ञा ! (जाता है)

[पटा-क्षेप]

तृतीय दृश्य : कल्याणी परिणय

[सिंधु तट पर चन्द्रगुप्त की सेना,

(समवेतस्वर)

जय जय जय आदि भूमि, जय जय जय भरत भूमि।
जय जय जय जन्म भूमि, अपने सम प्यारी।।
निखिल-विश्व-गुरु समान, जिसका गौरव महान्।
प्रति कण में निहित ज्ञान, प्राण देह धारी।।
हिमगिरि सम धीर रहें, सिन्धु सम गँभीर रहें।
जननी ब्रतधारी।।
हम सब है महाप्राण, भारत के शिरस्त्रण।
असि शरधुन धारी।।

(चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

सेना - जय ! महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त की जय !

चन्द्रगुप्त - वीरगण ! आज जो परिश्रम आप लोगों ने किया वह अकथनीय है। आज ही मुझे मालूम हुआ कि मैं अकेला नहीं हूँ। भारत के अगणित वीरपुत्र सच्चे हृदय से मेरा साथ दे रहे है।

सिंहनाद - सब महाराज के चरण का प्रभाव है।

चन्द्रगुप्त - वीरगण ! तुम्हारे ऐसे कर्मण्य वीरों के शौर्य, मेरे साहस और ईश्वर की कृपा के मिल जाने से आज सिल्यूकस की विजयिनी ग्रीकवाहिनी को हम लोगों से पराजित होना पड़ा है।

सेना - जय, सम्राट् चन्द्रगुप्त की जय !

(चर आकर चन्द्रगुप्त से कुछ धीरे से कहता है और इंगित पाकर चला जाता है)

चन्द्रगुप्त - (सैनिकों से) वीरगण ! हम लोगों को अभी और कुछ करना है। ग्रीक नरपशुओं को भारतीय पवित्र धरा से बाहर हाँक देना चाहिए। जिसमें ये फिर हमारी शस्यश्यामला धरा की ओर लोलुप दृष्टि से न देखें।

सैनिक - जैसी महाराज की आज्ञा।

(चाणक्य का प्रवेश)

चाणक्य - विजयताँ भारत सम्राटः।

चन्द्रगुप्त - आर्य। अभिवादन करता हूँ।

चाणक्य - वत्स ! विजयलक्ष्मींलभस्व।

चन्द्रगुप्त - आर्य ! इच्छा होती है कि ग्रीक शिविर पर अचानक आक्रमण करके कूट-युद्धकारी ग्रीकों को बता दें कि भारत का विजय करना दुःसाध्य ही नहीं किन्तु और कुछ भी है।

चाणक्य - ग्रीक शिविर में, सेना और सेनापति दोनों को विशेष लाभ की सम्भावना है।

चन्द्रगुप्त - (प्रसन्न होकर) आर्य का आशीर्वाद सादर ग्रहण करता हूँ।

चाणक्य - अभीष्ट-सिद्धि हो।

(चन्द्रगुप्त आगे होता है और सैनिक पीछे-पीछे ‘जय जय जय आर्य भूमि’ इत्यादि गाते हुए जाते हैं)

[पटाक्षेप]

चौथा दृश्य : कल्याणी परिणय

(राजकीय कानन)

कठिन कुहक कल्पनामयी, प्रतिक्षण-सी नित्य नयी।
कल-कल नाद सुनाती है यह मृग-मरीचिका-मयी।।
छाया-सी छोड़ती न छन भर ऐसी ढीठ, भयी।
अंक सदृश बढ़ती है इसकी प्रतिभा प्रभा नयी।।

कार्नेलिया - पिता ! वृद्ध पिता ! तुम्हें आशा कब तक दौड़ाया करेगी ? क्या तुम्हारा पहला शासनविस्तार कम है जो इस पिशाची की छलना में पड़ लाखों जीवों का नाश करा रहे हो। अहा हा ! इस शस्य श्यामला धरा को रक्तरंजित करने वाले हिंस्र पशु नहीं तो क्या है ? ये नर पशु ग्रीक-सैनिक मारी की तरह देश का नाश कर रहे हैं। भारत की पवित्र भूमि केवल हत्या, लूट, रक्त और युद्ध से बीभत्स बनायी जा रही है। वह कैसा सुन्दर देश है! मुझे इस भूमि से जन्मभूमि का-सा प्रेम होता जा रहा है। जिधर देखो नया दृश्य-

श्यामल कुञ्ज घने कानन ऊँचे शैलों की माला है।
सिन्धुधार बह रही स्वच्छ जैसे फूलों की माला है।।
सतत हिमावृत श्रंग बहाते इसमें सरिता धारा है।
स्नेहमयी जननी के मन में जैसे करुणा धारा है।।
सुखद सूर्य उत्ताप शीत में वर्षा में जल धारा है।
शरद गगन में रजत चन्द्रमा घनीभूत ज्यों पारा है।।
हरे भरे सब खेत, सरल मानव, सरला सब बाला है।
देव समान उदार-वदन तब इनका ढंग निराला है।।

(एलिस का प्रवेश कार्नेलिया को देखकर)

एलिस - (स्वगत) वाह नया रंग है। पतंग बाढ़ पर है। (प्रगट) राजकुमारी !

कार्ने. - कौन ? एलिस, तू, आ गयी। देख इस दृश्य के देखने में मैं ऐसी तन्मय थी कि तेरा आना मुझे मालूम नहीं हुआ।

एलिस - कुमारी ! सन्ध्या का दृश्य तो यों ही मनोहर होता है -

अस्त हुये दिन-नाथ पीत कर कान्ति को।
सरला सन्ध्या लगी बुलाने शान्ति को।।
सांसारिक कलनाद शान्त होने लगा।
विभु का विमल विनोद व्यक्त होने लगा।।

कार्ने. - क्रमशः तारापुञ्ज प्रकट होने लगे।
सुधा कन्द के बीज विमल बोने लगे।
उज्ज्वलतारे शान्त गगन भी नील है।
प्रकृति ढाल में जड़े हीर के कील हैं।।

एलिस - किन्तु कुमारी समय का भी क्या ही प्रभाव है -

हुआ काकरव क्लान्त, कोकिला खुल पड़ी।
लगी बुलाने उसे आँख जिससे लड़ी।।
मलयानिल भी मधुर कथा का भार ले।
चला मचलता हुआ सुमन का सार ले।।

कार्ने. - (बात बदलते हुए) सखी, वह सब क्या दिखायी पड़ रहा है ?

एलिस - तरूश्रेणी में सौध सुशैल समान ये।
नागरिकों के हैं प्रमोद उद्यान ये।।
क्यारी में हैं कुसुम विटप मन भावने।
आरोपित हैं यथास्थान काटे, बने।।

कार्ने. - क्यों सखी ? क्या उनको काट-छाँट देने से उनका स्वाभाविक सौंदर्य बिगाड़ा नहीं जाता क्या वे उसी तरह नहीं भले मालूम होते ?

एलिस - नागरिकों के है प्रमोद की वस्तु ये।
बढ़ सकते है नहीं यथेप्सित अस्तु ये।।
उल्लासित हो जिसने हाथ बढ़ा दिया।
यथास्थान रहने को वह काटा गया।

कार्ने. - प्यारी सखी -

प्रकृति उदार करों से जो पाले गये।
नीरद से जल-बिन्दु जहाँ डाले गये।
उन बधिंत तरुवृन्द प्रफुल्ल सुबास से।
कर सकते समता न अहो ! ये दास से।।

एलिस - कुमारी ! एक बात कहना तो मैं भूल ही गयी, अच्छा न कहूँगी।

कार्ने. - क्या-क्या ? कह दे, तुझे कहना ही होगा।

एलिस - उस दिन सिन्धु तट के शिविर के बाहर जब हम लोग घूमने गयी थी तब वहाँ एक युवक दिखायी पड़ा था, जिसे तुम बहुत घूम-घूमकर देख रही थीं -

कार्ने. - (रोक कर) मैं क्यों देखने लगी। तूनी ही कहा कि कोई शत्रुपक्ष का सैनिक है। हम लोगों को बढ़ चलना चाहिए।

एलिस - (हँसकर) हाँ हाँ, तो फिर इतना क्रोध क्यों करती हो सुनो, वही भारतवर्ष का राजा चन्द्रगुप्त था, शिकार खेलते-खेलते उधर आ गया था।

कार्ने. - (अनमनी होकर) होगा। क्या कोई शिविर से दूत आया है?

एलिस - हाँ ! कहता था कि शहंशाह सिल्यूकस को कुछ चोट आ गयी है।

कार्ने. - हाय ! सखी मैं बाबा को देखने शीघ्र जाऊँगी। तू भी चल।

एलिस - चलूँगी क्यों नहीं, अच्छा तैयारी करने की आज्ञा दे दें। (जाती है)

[पटाक्षेप]

पञ्चम दृश्य : कल्याणी परिणय

(सिल्यूकस का शिविर)

कार्ने. - बाबा ! क्षमा करना। मेरा हृदय नहीं मानता था। युद्ध का समाचार सुनकर मैं न ठहर सकी, आपने मुझे क्यों हटा दिया था, अब मैं कहीं न जाऊँगी।

सिल्यूकस - बेटी ! तू आ गयी, इससे मैं क्रोधित नहीं हूँ। मेरे हृदय को तुमसे ढाढस मिलेगा।

कार्ने - बाबा ! क्या विजेता सिल्यूकस को भी चन्द्रगुप्त ने पराजित किया।

(सिल्यूकस चुप रह जाता है ! नेपथ्य में कोलाहल ! रणवाद्य)

सिल्यूकस : हैं ! यह क्या

कार्ने - बाबा मैं बाहर देखती हूँ, क्या है। (जाती है।)

(चन्द्रगुप्त के साथ सैनिकों का प्रवेश। सिल्यूकस को घेरकर तलवार छीन लेते हैं वह निश्चेष्ट खड़ा रह जाता है)

चन्द्रगुप्त - क्यों ग्रीक सम्राट् ! क्या युद्धि-पिपासा अभी नहीं मिटी ? भारत को क्या आप लोगों ने मृगया का स्थान समझ लिया है। यह नहीं जानते कि मृगेन्द्र भी उसी कानन में रहता है।

(सिल्यूकस चुप रह जाता है। कार्नेलिया का प्रवेश दौड़कर वह सिल्यूकस से लिपट जाती है)

चन्द्रगुप्त - (स्वगत) आह ! यह तो वही सुन्दरी है। चर ने ठीक ही कहा था।

सिल्यूकस - बेटी ! तू इन लोगों से मेरे लिए कुछ प्रार्थना मत करना। यह सदैव ध्यान रखना कि ग्रीक-रक्त तेरे अंग में है।

कार्ने. - बाबा ! क्या मैं सिल्यूकस की कन्या नहीं हूँ ! क्या आप वीरों की तरह मरना नहीं जानते ? (चन्द्रगुप्त को देखकर) सुन्दर युवक !

चन्द्रगुप्त - (स्वगत) सिंह के योग्य सिंहिनी है। (प्रगट) मैं इस का परिणाम तुम्हारे ही ऊपर छोड़ता हूँ। ग्रीक-सम्राट क्या फिर आर्य वीरों से लड़ेंगे ? आशा है कि तुम इसे बड़ी सरलता से हल कर सकती हो और तुम से दो-एक दिन में उत्तर मिलेगा। (सिल्यूकस से) आप मुक्त हैं। अब मैं जाता हूँ।

षष्ठ दृश्य : कल्याणी परिणय

(दुर्ग का उद्यान। सिल्यूकस)

सिल्यूकस - आह ! बड़ी वेदना ! घोर अपमान ! क्या इसका प्रतिशोध नहीं लिया जा सकता !

(साइबर्टियस और मेगस्थिनीज़ का प्रवेश)

साइबर्टियस - (अभिवादन करके) सम्राट् ! चन्द्रगुप्त की सेना ने चारों ओर से ऐसी व्यूह रचना की है कि इस दुर्ग को भी आप घिरा समझिये।

सिल्यूकस - क्यों ? उसने तो हम लोगों को मुक्त कर दिया था। फिर अवरोध क्यों?

मेगस्थिनीज़ - यह उसके मंत्री चाणक्य की चाल है। उसने प्रसिद्ध कर रखा है कि ‘यह सेना आप लोगों को रोकने के लिए नहीं प्रत्युत आपकी रखवाली के लिये है।’

सिल्यूकस - उन लोगों का तात्पर्य क्या है ? जब एक बार मैत्री हो गयी फिर ऐसा क्यों ?

मेगस्थिनीज - सम्भव है कि वह कुछ नियम स्वीकार कराना चाहता हो।

सिल्यूकस - क्यों ? क्या ग्रीक इतने कायर हो गये ?

साइबर्टियस - आपको अपने उस रक्षित साम्राज्य का भी ध्यान रखना चाहिए।

सिल्यूकस - क्या कोई नया समाचार उधर से आया है।

साइबर्टियस - आण्टिगोनस शीघ्र ही सीरिया पर चढ़ाई किया चाहता है (पत्र देकर) इसे पढ़ लीजिये उसका ध्यान करके चन्द्रगुप्त से सन्धि कर लेना ही ठीक होगा। क्योंकि यह आपका प्रबल शत्रु है जो आपके समीप है।

सिल्यूकस - (पत्र पढ़कर) अच्छा मैं यह कार्य तुम दोनों आदमियों के ऊपर छोड़ता हूँ। इसे जैसा ठीक समझो, करो। (दोनों जाते है) कार्नेलिया से भी तो पूछूँ वह क्या कहती है। (जाता है)

[पटाक्षेप]

सप्तम दृश्य : कल्याणी परिणय

[प्रकष्ठ - कार्नेलिया गाती है]

(पद्य सोहनी)

कैसी कड़ी रूप की ज्वाला।
पड़ता है पतंग-सा इसमें, मन का ढंग निराला।
सान्ध्य गगन-सी रागमयी यह बड़ी कड़ी है हाला।।
काँटे छिपे गुँथे हैं इसमें है फूलों की माला।
चुभने पर नहिं अलग हृदय से, मन होगा मतवाला।।

श्रृंगार और वीर का कैसा सुन्दर समावेश है। अहा कैसी वीरत्व व्यंजक मुखाकृति है! वह एक बार, केवल एक बार देखकर भुलायी जा सकती थी। पर यह दूसरा दर्शन दुबारा खींची हुई मदिरा की तरह हृदय को उन्मत्त बनाये देता है। (ठहरकर) किन्तु बाबा को उसने पराजित किया। बन्दी बनाया। फिर मेरा हृदय क्यों उसकी ओर इतना आकर्षित होता है। कभी नहीं, कभी नहीं। मैं अपने हृदय को उसकी ओर से फेरूँगी। (ऊपर देखकर) कौन, तू मुझे भुलाने आयी है क्या ? वह मुक्त कर देना याद दिलाती हैं, हाँ, हाँ मैं उसे न भूलूँगी, उसके लिए मैं कृतज्ञ हूँ पर इसका परिणाम भी तो मेरे ऊपर छोड़ा गया है (ठहरकर) क्या करूँ ? हाँ, क्या कहा था कि ‘आप मुक्त है, अब मैं जाता हूँ।’ अहा क्या ही सुरीला कण्ठस्वर था ! कैसा उन शब्दों का प्रभाव था। (गाती है)

(पद्य विहाग)

जैसी मधुर मुरलिया श्याम की।
तैसी गूँज रही है बोली प्यारे मुख अभिराम की।
हुए चपल मृग नैन मोह वश बची विपञ्ची काम की।।
फैल रही है मधुर माधवी गन्ध अंग छविधाम की।
रूप सुधा के दो प्याले दृग ने ही मति बे काम की।।

आह ! आलोक ! छाया ! सौन्दर्य ! संगीत ! सुगन्ध ! सब चन्द्रगुप्त ! क्या करें वह नहीं हटा है, मेरी आँखों का तारा हो रहा है (बैठ जाती है। सिल्यूकस का प्रवेश। एक और खड़ा हो जाता है)

कार्ने. - चन्द्रगुप्त ! मैं ग्रीक-सम्राट् की कन्या, तुम हिन्दू राजकुमार। क्या किया जाय। बाबा ! क्या तुम मेरा आन्तरिक भाव बिना कहे नहीं समझ सकते ?

सिल्यू. - (प्रकट होकर) क्या है बेटी, क्यों उदास हो, क्या मेरे सोचे ने तुम्हें जगा रखा था, तेरा स्वास्थ्य तो ठीक है न ?

कार्ने - (घबराकर) नहीं बाबा ! अब कब यहाँ से चलियेगा ?

सिल्यू. - शीघ्र चलूँगा, बेटी क्या तुम्हारी राय है कि मैं चन्द्रगुप्त से सन्धि कर लूँ, जिस तरह वह कहे।

कार्ने. - हाँ, बाबा। शीघ्र चलिये।

सिल्यू. - जाओ सो रहो, तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक नहीं मालूम होता।

(दोनों का प्रस्थान)

[पटाक्षेप]

अष्टम दृश्य : कल्याणी परिणय

(उद्यान में मेगस्थिनीज और सिल्यूकस)

सिल्यू. - कोई अच्छा समाचार तुम ले आये होगे, शीघ्र कहो।

मेगा. - सम्राट ! सन्धि करने पर तो हिन्दू लोग प्रस्तुत हैं, पर नियम बड़े कड़े है। वे कहते हैं कि ‘सिन्धु के उस तट के कुछ देश हम लोग लेंगे और ...’

सिल्यू. - चुप क्यों हो गये, कहो, वे नियम चाहे कितने ही कड़े हों पर मैं उन्हें ध्यान से सुनना चाहता हूँ।

मेगा. - सुनिये, चन्द्रगुप्त का प्रधान मंत्री चाणक्य ब्राह्मण है, उसने कहा कि यदि सन्धि-बन्धन दृढ़ रखना चाहें तो ग्रीक सम्राट् अपनी कन्या का विवाह महाराज चन्द्रगुप्त से कर दें। तब, सम्भव है कि महाराज चन्द्रगुप्त भी उपस्थित ग्रीस-विप्लव में तुम्हारी कुछ सहायता करें।

सिल्यू. - क्या चन्द्रगुप्त को मालूम हो गया कि आण्टिगोनस से और हमसे शीघ्र कोई लड़ाई होने वाली है।

मेगा. - इतना ही नहीं, उसका मंत्री चाणक्य कहता था कि ‘सिकन्दर’ के साम्राज्य में जो भावी ग्रीस-विप्लव है उसे मैं अच्छी तरह समझ रहा हूँ। ऐसी अवस्था में सिल्यूकस भारत की आशा छोड़ें। उनको सीरिया मिलना भी कठिन हो जायगा। इस कारण ग्रीक-सम्राट् यदि चन्द्रगुप्त को अपना बन्धु बनायेंगे तो उनको बहुत-कुछ सहायता मिलेगी। इसके अतिरिक्त इस विशाल भारत की सम्राज्ञी भी तो उन्ही की कन्या होगी। मनुष्य सन्तान के लिए ही सब कुछ करता है, इस सम्बन्ध से भारत का साम्राज्य भी आपके प्रेम-बन्धन में बँधा रहेगा।

सिल्यू. - मेगस्थिनीज़, इन हिन्दुओं में केवल बाहुबल की ही प्रधानता नहीं हैं बल्कि ये बड़े तीक्ष्ण बुद्धि भी होते हैं। (ठहरकर) क्या इन भीमकाय हाथियों का झुण्ड सीरिया युद्ध में कुछ काम दे सकता है ?

मेगा. - सम्राट। मेरी समझ में तो ये अवश्य आपको विजय दिलायेंगे।

सिल्यू. - किन्तु, दो भिन्न जातियों में विवाह किस प्रकार हो सकता है।

मेगा. - क्या आप उस पारस-कुमारी का ध्यान भूल गये जो राजकुमारी की गर्भधारणी थीं।

सिल्यू. - (स्वगत) बेटी की अनुमति तो एक प्रकार से मिल चुकी है। वह तो चन्द्रगुप्त पर अनुरक्त हुई है। (प्रगट) क्या तुम्हारी इच्छा है कि यह सन्धि जिस प्रकार हो अवश्य कर ली जाय।

मेगा. - भारत-सम्राट से ग्रीक-सम्राट् यदि सम्बन्ध रखें तो यह अच्छी बात है, क्योंकि यह सर्वथा उपयुक्त है।

सिल्यू. - अच्छा। (दोनों जाते हैं)

[पटाक्षेप]

नवम् दृश्य : कल्याणी परिणय

(चन्द्रगुप्ता-बैठा है। तरलिका पान ले आती है। दरबार)

चन्द्रगुप्त - तरलिके ! आज पान तो बहुत ही अच्छा लगाया है। बहुत दिनों से इधर ऐसा स्वाद पान का नहीं मिला था।

तरलिका - प्रभु की रुचि विचित्र है। मैं इतनी प्रशंसा के योग्य नहीं हूँ।

चन्द्रगुप्त - तरलिके ! मैं सच कहता हूँ।

तरलिका - नाथ ! जब चित्त को प्रसन्नता मिलती है तब बुरी वस्तु भी भली मालूम होती है।

चन्द्रगुप्त - तरलिके ! मैं तुम्हें देखकर बहुत प्रसन्न होता हूँ।

तरलिका - महाराज, बहुत दिनों के बाद आज मैंने एक माला बनायी है, उसे आप स्वीकार करें।

(माला पहना देती है)

चन्द्रगुप्त - (हँसकर) इन फूलों का रस तो भँवरे ले चुके हैं।

तरलिका - (हँसकर) महाराज। यह तो भँवरों की ही घृष्टता है, कलियों का क्या दोष ?

(गाती है - राग माँड़)

पाया जिसमें प्रेम-रस सौरभ और सोहाग,
अली उसी ही कली से मिलता सह-अनुराग।
अली नहिं एक कली का है।
कुसुम धूलि से पूर हो चलता है उस पन्थ।
डरे न कण्टक को अली पढ़े प्रेम का ग्रन्थ।
अली नहिं एक गली का है।
रजनी में सुख केलि को किया कमलिनी पास।
भयी मुद्रिता तब तुरत अली चमेली पास।
पढ़े यह पाठ छली का है।
चाहे होय कुमोदिनी या मल्ली का पुञ्ज।
अलि को केवल चाहिए सुखमय क्रीड़ा कुञ्ज।।
सुप्रेमी रंगरली का है।
अली नहिं एक कली का है।

चन्द्रगुप्त - तरलिके ! कविता नयी है।

तरलिका - (हँसकर) महाराज समय ही नया है।

चन्द्रगुप्त - तरलिके ! मैं तुमसे इस समय बहुत प्रसन्न हुआ अच्छा जाओ।

(तरलिका का प्रस्थान। दौवारिक का प्रवेश)

दौवारिक - महाराजधिराज की जय हो। महामात्य चाणक्य जी आ रहे हैं।

(चाणक्य का प्रवेश चन्द्रगुप्त उठकर उन्हें बिठाता है)

चन्द्रगुप्त - गुरुदेव ! सन्धि क्या स्वीकृत हो गई ? (हँसकर) आपकी मन्त्रणा बड़ी गूढ़ होती है। कुछ समझ में नहीं आती।

चाणक्य - वत्स ! तुम राजा ठहरे, तुम्हीं सोचो कि शत्रु को पाकर भी तुमने क्यों छोड़ दिया ? वह भी क्या हमारी मन्त्रणा से किया गया था ?

चन्द्रगुप्त - गुरुदेव ! एक वार एक ग्रीक-सम्राट् ने महाराज पुरु के साथ ऐसा ही व्यवहार किया था।

चाणक्य - अस्तु, अब तुम्हें मालूम हो जाता है चाणक्य ने क्या किया।

(तूय्र्यनाद दौवारिक के साथ सिल्यूकस, कार्नेलिया, साइबर्टियस और मेगास्थिनीज़ का प्रवेश। चाणक्य सबको यथास्थान बिठाता है)

सिल्यूकस - महाराज चन्द्रगुप्त ! आपके शौर्य से हम बहुत प्रसन्न है।

चन्द्रगुप्त - यह आपकी महानुभावता है।

सिल्यूकस - मैं आपसे सहर्ष मैत्री करूँगा !

मेगास्थिनीज - और यह बन्धन दृढ़ होवे इसीलिए राजकुमारी का विवाह भी महाराज चन्द्रगुप्त से हो जाये तो अच्छा है।

चाणक्य - हाँ ठीक है। दो बालू के करारों को यथास्थान ठीक रखने के लिए एक सरला सरिता की आवश्यकता है।

चन्द्रगुप्त - (सलज्ज) जैसी गुरुवर की आज्ञा।

(सिल्यूकस-कार्नेलिया को साथ में लिये बढ़ता है। चाणक्य, चन्द्रगुप्त से कल्याणी का हाथ मिला देता है। दोनों साथ बैठते है, चन्द्रगुप्त उसे माला पहनाता है और वह सादर ग्रहण करती है)

सिल्यूकस - बेटी ! इससे उपयुक्त वर तुम्हारे लिए मैं नहीं खोज सकता था। और पिता का कन्या के लिये यही प्रधान कर्तव्य है।

कल्याणी - जैसी पिता की आज्ञा।

सिल्यूकस - और तुम्हें उपहार स्वरूप में आरकोसिया और जैड्रोसिया आदि प्रदेश देता हूँ।

कल्याणी - बाबा ! क्या आप मुझे यहाँ छोड़ देंगे।

सिल्यूकस - नहीं बेटी ! मेगास्थनीज बराबर यहाँ आया करेगा।

चाणक्य - तो क्या आप शीघ्र स्वदेश की ओर प्रस्थान कीजियेगा।

सिल्यूकस - मुझे अपने एक प्रबल शत्रु से सामना करना होगा।

चाणक्य - सेनानी चण्डविक्रम एक बड़ी सेना हाथियों की लेकर आपकी सहायता को जायँगे।

सिल्यूकस - अच्छी बात है।

(नर्तकीगण आकर गाती हैं)

("पपीहा काहे" की धुन)

सखी सबही विधि मंगल आज।
सब मिलके आनन्द मनावें अचल रहे यह राज!
अपने भुजबल से किया, अर्जित नव साम्राज।
ऐसे श्री सम्राट् का, अविचल हो यह राज।।
गौरव लक्ष्मी ग्रीस की, अर्द्धांगिनी सी वाम।
कल्याणी को देखकर पूर्ण हुआ मन काम।।
जिसके बल के सिन्धु में, गज सम थके अराति।
चंद्रगुप्त-भुज वे सदा, सबल रहें सब भाँति।।
रहे आनन्दित राज समाज,
आवें गावें विमल कीर्ति सब देवांगना समाज।
जिसकी प्रतिभा -नदी में, शत्रु-विघ्न द्रुम-मल।
उन्मज्जित हों, सो जयति, विष्णुगुप्त अनुकूल।
सुखी हो भारत विज्ञ समाज,
भारत की यह कथा विजयिनी रहे सदा सिरताज।
सखी सबही विधि मंगल आज।
जय महाराज श्री चन्द्रगुप्त की जय !!

[पटाक्षेप]

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  • कार्नेलिया किस रचना का पात्र है क्या वह भारतीय थे?

    जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित नाटक 'चंद्रगुप्त' से यह कविता ली गई है ! कार्नेलिया सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस की बेटी है ! इस गीत में कार्नेलिया भारत देश की सुंदरता को देखकर खुश होती है और भारत की विशेषता बताती है !

    कार्नेलिया का गीत के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि जयशंकर प्रसाद ने भारत की कौन कौन सी विशेषताओं का वर्णन किया है?

    प्रसाद जी ने भारत की इन विशेषताओं की ओर संकेत किया है- भारत पर सूर्य की किरण सबसे पहले पहुँचती है। यहाँ पर किसी अपरिचित व्यक्ति को भी घर में प्रेमपूर्वक रखा जाता है। यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य अद्भूत और आदित्य है। यहाँ के लोग दया, करुणा और सहानुभूति भावनाओं से भरे हुए हैं।

    कार्नेलिया का गीत में किसका वर्णन है?

    ये काय्रक्रम पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद की कविता "कार्नेलिया के गीत" पर चर्चा करता है। "कार्नेलिया का गीत" एक नाटक चंद्रगुप्त से लिया गया है।

    कार्नेलिया के गीत में किसका मानवीकरण किया गया है?

    स्वप्न को मानवी रूप में दर्शाया गया है। इन पंक्तियों में देवसेना की पीड़ा स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। प्रश्न 14. 'कार्नेलिया का गीत' कविता में कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा प्रस्तुत भारत की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।