झारखंड में आदिवासियों का पहला संगठित एवं व्यापक विद्रोह कौन सा था? - jhaarakhand mein aadivaasiyon ka pahala sangathit evan vyaapak vidroh kaun sa tha?

झारखण्ड में विद्रोह (Revolt in Jharkhand)

  • झारखण्ड के आधुनिक कालीन इतिहास में यहाँ के निवासियों और अंग्रेजो के मध्य झारखण्ड में विद्रोह (Revolt in Jharkhand) हुए। झारखण्ड में हुए इन विद्रोहों (Revolt in Jharkhand) का विरोध झारखण्ड के क्रांतिकारियों द्वारा किया गया। इस टॉपिक में झारखण्ड के इतिहास का विस्तार से अध्यन करेंगे।

अंग्रेजों के विरुद्ध झारखण्ड में विद्रोह (Revolt in Jharkhand) (1765-1857 ई.)

  1. 1741 ई. में मराठा का आक्रमण हुआ जो 1803 ई. तक चला। जिसके फलस्वरूप यहाँ अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई जो यहाँ के निवासियों को अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
  2. पलामू के जयनाथ सिंह, छोटानागपुर खास के दर्पनाथ शाह, रामगढ़ के मुकुंद सिंह, ढ़ालभूम के जगन्नाथ ढाल तथा संथाल परगना के जमींदार इत्यादि को अंग्रेजों ने उनके प्रभाव क्षेत्र से उखाड़ दिया। फलतः ऐसे लोग कंपनी सरकार के विरुद्ध लोगों को भड़काने का निरंतर प्रयास करने लगे।
  3. मराठा आक्रमणों, जमींदारों द्वारा फैलाई, गई गड़बडि़याँ अंग्रेजों की फौजों के आने-जाने से झारखण्ड के अधिकांश भाग उजड़ गये। आर्थिक कठिनाईयाँ और अन्न के अभाव ने जनता को विद्रोही बना दिया। जिसने झारखण्ड में विद्रोह (Revolt in Jharkhand) को जन्म दिया।
  4. झारखण्ड में विद्रोह (Revolt in Jharkhand) के प्रशासकीय कारण भी थे। सरकारी अधिकारी अधिकांश गैर झारखण्डी थे और ये झारखण्डी से भावनात्मक संबंध नहीं रखते थे। प्रायः इनका शोषण करते थे। न्याय व्यवस्था लाचार थी। पुलिस भी एक शोषक की तरह थी।
  5. झारखण्ड में विद्रोह (Revolt in Jharkhand) का एक कारण मनोवैज्ञानिक भी था, प्राचीन काल से ही जनजातियों का आपस में भी सहयोगात्मक संबंध था। अंग्रेजों ने झारखण्ड में जबरन नई व्यवस्था और संस्कृति को थोपना चाहा जिससे जनजातियों में रोष उत्पन्न हुआ।

झारखंड में आदिवासियों का पहला संगठित एवं व्यापक विद्रोह कौन सा था? - jhaarakhand mein aadivaasiyon ka pahala sangathit evan vyaapak vidroh kaun sa tha?

अन्य कारण
  • राजाओं पर मनचाहा कर लगा देना राजाओं और जमींदारों को नजरअंदाज कर लगान की वसूली सीधे किसानों से करना।
  1. लगान में मनचाही वृद्धि करना।
  2. मनमाने ढंग से बंदोबस्ती करना।
  3. ऊँची बोली वालों के नाम बंदोबस्ती करना।
  4. जंगल व चारागाह में प्रवेश पर रोक लगाना आदि।

ढाल विद्रोह (1767-77 ई.)

  • सिंहभूम-मानभूम के विद्रोह का दमन करने हेतु अंग्रेज कम्पनी ने लेफ्टिनेंट रूक एवं चार्ल्स र्मेगन को भेजा, परन्तु ये असफल रहे। दरसअल 1765 ई. में दीवानी प्राप्त करने के पश्चात् अंग्रेज सिंहभूम क्षेत्र में अपना अधिकार स्थापित करना चाहते थे।
  • फर्ग्युसन ने अपनी सेना लेकर ढ़ालभूम के राजा पर आक्रमण किया तथा 1767 ई. में इस क्षेत्र को विजित कर लिया। झारखण्ड में यह विद्रोह (Revolt in Jharkhand) 10 वर्षों तक चलता रहा।
  • अंग्रेज सरकार ने 1777 ई. में जगन्नाथ ढ़ाल को पुनः ढ़ालभूम का राजा स्वीकार कर लिया तत्पश्चात् जाकर झारखण्ड का यह विद्रोह (Revolt in Jharkhand) शान्त हुआ। जगन्नाथ ढ़ाल ने राजा बनने के बदले में अंग्रेज कंपनी को 3 वर्षों तक वार्षिक कर देने के लिए स्वीकार करा।

चुआर विद्रोह (1769-1805 ई.)

  • बिहार, बंगाल में कंपनी शासन के आरंभ में जंगल महाल की भूमिजों को सरकारी अफसर लोग चुआर कहते थे। जो संपूर्ण इलाके में उपद्रव मचाते रहते थे।
  • जब भी कंपनी सरकार जंगल के महाल क्षेत्र में कुछ कार्य करती तो झारखण्ड में विद्रोह (Revolt in Jharkhand) हो जाता। इस विद्रोह का नेता श्याम गंज था।
  • कैप्टन गुडमार को सरकार ने विद्रोह रोकने के लिए तैयार किया था। और यहाँ यह विद्रोह 1769-1805 ई. तक सक्रिय रहा। इस विद्रोह के कई कारण थे।
  • 1798 ई. में चुआरो का विद्रोह तब हुआ जब लगान नहीं देने के कारण पंचेत राज्य को नीलाम कर दिया गया। अतः चुआरो ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह के कारण कंपनी सरकार को पंचेत राज्य वापस करना पड़ा।
  • झारखण्ड का चुआर विद्रोह (Revolt in Jharkhand) के प्रमुख नेता थे- रघुनाथ महतो, श्यामगंजम, सुबल सिंह, मंगल सिंह, लाल सिंह, जगन्नाथ पातर, मोहन सिंह, दुर्जन सिंह, आदि थे। इस विद्रोह में आगे चलकर बाकुड़ा के चुआर एवं पाइका तथा उड़ीसा के पाइका शामिल हो गए।
  • झारखण्ड का चुआर विद्रोह (Revolt in Jharkhand) को दमन हेतु निम्नवत् अंग्रेज अधिकारियों को नियुक्त किया गया- कैप्टन फोरविस, लेफ्टिनेंट नन एवं लेफ्टिनेंट गुडयार। यह विद्रोह लगभग 30 वर्षों तक इन क्षेत्रें में चलता रहा।
  • अन्नतः अंग्रेज विवश होकर चुआर एवं पाइका सरदारों को उनके द्वारा छीनी गई जमीने एवं समस्त सुविधाएँ वापस देनी पड़ी।

चेरो विद्रोह (1770-1771 ई.)

  • झारखण्ड का यह विद्रोह (Revolt in Jharkhand) किसानों एवं चेरों राजाओं द्वारा अन्य चेरों राजाओं के विरफ़द्ध प्रारम्भ किया गया था। इस प्रकार यह विद्रोह मूलतः पलामू की राजगद्दी के लिए थी।
  • झारखण्ड के इस विद्रोह (Revolt in Jharkhand) का दमन करने हेतु ‘कैप्टेन जैकब कैमक’ को भेजा गया। इसने चेरों को पराजित कर पलामू किले पर अधिकार कर लिया तथा 1771 ई. में गोपालराय को पलामू का राजा घोषित कर दिया।

भोगता विद्रोह (1770-1771 ई.)

  • झारखण्ड के चेरो विद्रोह व भोगता  विद्रोह (Revolt in Jharkhand) एक साथ एक दूसरे की पूरक घटना की तरह हैं। राजा चित्रजीत राय के साथ दीवान के रूप में काम करने वाला जयनाथ सिंह एक भोकता सरदार था। अंग्रेज सीधे-जयनाथ सिंह भोगता से बात करते हैं।
  • 9 जनवरी, 1771 ई. को पटना काउंसिल का पत्र जयनाथ सिंह भोगता को मिला, जिसमें उसे पलामू किला छोड़ देने का आदेश मिला था।
  • अतः भोगता लोगों ने चेरो के साथ मिलकर विद्रोह पर आ गए और जयनाथ, चित्रजीत के साथ अंग्रेजों से संघर्ष किया जिसमें वह पराजित हुए और सुरगुजा को भागना पड़ा और अंग्रेजों ने गोपाल राय को अगला राजा घोषित किया।

चुआर विद्रोह (1772-1773 ई.)

  • पहाडि़यों के घाटों (रास्तों) से महसूल वसूलने वाले को ‘घटवाल’ कहा जाता था। झारखण्ड का यह विद्रोह (Revolt in Jharkhand) सन् 1772 ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध रामगढ़ राज्य के घटवालों द्वारा किए गए विद्रोह को ‘घटवाल विद्रोह’ कहते हैं।
  • अक्टूबर 1772 ई. में मुकुंद सिंह के निष्कासन और 1774 ई. को ठाकुर तेज सिंह को रामगढ़ का राजा बनाये जाने के बाद भी रामगढ़ में सामान्य स्थिति स्थापित नहीं हुई।
  • मुकुंद सिंह के अतिरिक्त उनके अनेक संबंधी भी खोई हुई शक्ति को पुनः प्राप्त करने के लिए सक्रिय थे। प्रारंभ में घटवालों ने मुकुंद सिंह का साथ नहीं दिया था। लेकिन मुकुंद सिंह धीरे-धीरे घटवालों को अपने पक्ष में कर लिया।
  • दूसरी ओर तेज सिंह शासक बनने के बाद भी संतुष्ट नहीं था। क्योंकि इस क्षेत्र में निरंतर मराठा आक्रमण तथा स्थानीय विद्रोहियों से रामगढ़ उजाड़ बन चुका था। राजस्व वसूली नहीं हो पा रही थी।
  • कंपनी पर बकाया राशि बढ़ती जा रही थी। इसी निराशा में तेज सिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र पारसनाथ गद्दी पर बैठा। मुकुंद सिंह पारसनाथ को अपदस्थ कर देना चाहता था और अंग्रेजी सरकार किसी भी कीमत पर पारसनाथ की रक्षा में लगे थे।
  • 18 मार्च, 1778 ई. को अंग्रेजों ने मुकुंद सिंह की रानी सहित सभी प्रमुख संबंधी को पलामू में पकड़ लिया। दूसरी ओर अंग्रेज पारसनाथ सिंह को 71 हजार रु. वार्षिक (1777 ई.) में राजस्व तय कर दिया।
  • 1778 ई. में बढ़ा कर 81 हजार/वार्षिक कर दिया, यह राशि पारसनाथ के लिए बोझ बन गया अतः पारसानाथ सिंह ने जागीरदारों पर भी कर बढ़ा दिया।
  • अतः झारखण्ड के पारसनाथ के क्षेत्र में विद्रोह (Revolt in Jharkhand)  होने लगा और मुकुंद सिंह के समर्थक पारसनाथ के जागीरदारों को बेदखल करने लगे।
  • इस स्थिति को देखते हुए सब कलेक्टर डलाज ने सरकार को कहा कि रामगढ़ राजा को राजस्व वसूली से मुक्त कर दिया जाए और प्रत्यक्ष बंदोबस्त की व्यवस्था की जाए।
  • इस तरह डलाज ने जमींदारों से विशेष बंदोबस्त कर राजा द्वारा उनकी जागीर को जब्त किए जाने पर रोक लगा दिया अर्थात् रामगढ़ राजा की सारी शक्ति क्षीण कर दी गई और अब वह एक शक्तिहीन शासक था।
  • पुनः 1776 ई. में फौजदारी अदालत व 1799 ई. में दीवानी अदालत की स्थापना ब्रिटिशों ने की। इससे राजा और शक्तिहीन हो गया और पूरी शक्ति ब्रिटिश के पास चली गई।

पड़हिया/पहाडि़या विद्रोह (1769-1805 ई.)

  • पहाडियाँ जनजाति झारखण्ड के प्रथम आदिम निवासी है। ये जनजाति संथाल परगना के प्राचीनतम जनजातियों में से है। ये जनजातियाँ राजमहल, गोड्डा एवं पाकुड़ में निवास करती थी। इस जनजाति की तीन उपजातियाँ थी-
  1. माल: ये वांसोलोई नदी के दक्षिण में निवास करते थे।
  2. कुमारभाग: ये बांसोलाई नदी के उत्तरी तट पर निवास करते थे
  3. सौरिया: ये बासोलोई नदी के उत्तर राजमहल पठारों में निवास करते थे।
  • ये जनजातियाँ मुगलकाल में लुटेरे के रूप में विख्यात थी। ये राजमहल क्षेत्र में मनसबदारों के अधीन रहते थे जो खैतोरी-परिवार से संबंधित थे। 18वीं सदी तक मनसूबदारों के साथ मधुर संबंध था।
  • 1772 ई. में पहाडि़याँ जनजाति के प्रधान की नृशंस हत्या कर दी गई जिससे ये लोग विद्रोह पर उत्तर आए। ये लोग जमीदारों के स्थल लकरागढ़ पर आक्रमण किया। उस समय भीषण अकाल पड़ा। इस विपरीत पारिस्थिति में जनजाति लोग कष्ट से गुजरने लगे।
  • इस भीषण अकाल ने झारखण्ड की पहाडि़याँ जनजाति को विद्रोही (Revolt in Jharkhand) बना दिया। ये अकाल के दौरान अपना जीवन यापन करने हेतु फल खाकर व्यतीत किया।
  • अकाल समाप्त होने के पश्चात् पहाडि़याँ जनजाति के लोगों ने पहाड़ों से लूट-पाट मचाना शुरू कर दिया। वॉरेन हेस्टिंग्स के आदेश पर कैप्टन ब्रुक ने इन्हें विश्वास में लेने के लिए कई बार प्रयत्न किया।
  • कंपनी सरकार इन्हें नकद भत्ते भी देने लगी परन्तु पहाड़ी जनजाति के लोग इसे अंग्रेजों का षड्यंत्र 1772 ई. के झारखण्ड के पहाडि़याँ विद्रोही (Revolt in Jharkhand) में सूर्य चंगरू सांवरिया, रमना आहड़ी, करिया फुलहर नायब सूरजा, ने अंग्रेजों से जबर्दस्त विद्रोह करते हुए अंग्रेजों की नींद हराम कर दी।
  • झारखण्ड के पहाडि़याँ विद्रोही (Revolt in Jharkhand) में सूर्य चंगरू सांवरिया, पाचगे डोम्बा पहाडि़याँ, करिया फूलहर आदि विद्रोही शहीद हो गए। सनकरा के महाराज सुमेर सिंह की पहाडि़याँ विद्रोहियों ने हत्या कर दी।
  • 1778 ई. में अंग्रेजों द्वारा नियुक्त ऑगस्टल क्लिवलैण्ड ने अपनी नियुक्ति के नौ माह के अंदर 47 पहाडि़याँ सरदारों को कंपनी की अधीनता स्वीकार कराने में सफलता प्राप्त कर ली।
  • दुभार्ग्य से क्लिवलैण्ड के इस प्रयास को झारखण्ड के पहाडि़याँ विद्रोहियों (Revolt in Jharkhand) ने षड्यंत्र एवं भेदभाव पूर्ण समझा। तथा इन्होंने 1778 ई. में जगन्नाथ देव के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। 1779 ई. में पहाडि़यों ने पुनः विद्रोह कर दिया।
  • 17-81-82 ई. में संथाल परगना के सुल्तानाबाद के महेशपुर राजा की रानी सर्वेश्वरी ने पुनः विद्रोह कर दिया जिसमें पहाडि़याँ सरदारों ने अंग्रेजों के विरुद्ध रानी को खुलकर समर्थन दिया।
  • झारखण्ड के पहाडि़याँ का यह विद्रोह (Revolt in Jharkhand) ‘दामन-ए-कोह’ के विरुद्ध था जिसमें अंग्रेज सभी पहाडि़याँ की भूमि को ‘दामन-ए-कोह’ के रूप में बदलकर उसे सरकारी संपत्ति घोषित कर दिया।
  • दुभार्ग्य से इस विद्रोह में रानी सर्वेश्वरी को कोई सफलता नहीं मिली। भागलपुर के जिलाधीश क्लिवलैण्ड के सलाह पर रानी सर्वेश्वरी की जमींदारी छिन ली गयी एवं इन्हें भागलपुर जेल भेज दिया गया जहाँ इनकी मृत्यु हो गयी।
  • इस प्रकार पहाडि़याँ विद्रोह 1772, 1778, 1779 एवं 1781-82 ई. में जबरदस्त तरीके से लड़ा गया।

तमाड़ विद्रोह (1782-1821 ई.)

  • झारखण्ड के तमाड़ विद्रोह (Revolt in Jharkhand) का प्रारंभ मुंडा आदिवासियों के द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध किया गया क्योंकि अंग्रेजों द्वारा बाहरी लोगों को प्राथमिकता दिया जा रहा था। साथ ही नागवंशी शासकों के द्वारा मुंडाओं का शोषण किया जा रहा था।
  • दरअसल छोटानागपुर खास का राजा दर्पनाथशाह अंग्रेजों के साथ मिलकर तमाड़ क्षेत्र में आतंक फैलाने में फक्र (गर्व) अनुभव कर रहा था। इस काम में उन्हें मराठों से भी समर्थन मिला था। उस समय पंचेत, वीरभूम, रामगढ़ लुटेरों का आश्रय स्थल था।
  • आस-पास के लोग तमाड़ निवासियों को आतंक का पर्याय मानने लगे थे। और इसे दबाने के लिए दर्पनाथ शाह ने 1782 ई. में तमाड़ पर आक्रमण कर दिया। बदले में तमाड़वासियों ने विद्रोह कर दिया।
  • झारखण्ड के तमाड़ विद्रोह (Revolt in Jharkhand) में कई स्थानीय जमींदारों का समर्थन भी मिला। अतः व्यापक मात्र में गड़बड़ी फैल गई। रामगढ़ का गोला क्षेत्र उजाड़ हो गया।
  • फलतः 1783 ई. में अंग्रेजी अधिकारी जैम्स कॉफर्ड को भेजा गया और अगले पाँच वर्षों तक विद्रोह को दबा दिया गया।
  • पुनः 1789 ई. में विष्णु मानकी और मौजी मानकी के नेतृत्व में विद्रोह हुआ व कर नहीं देने का आ“वान हुआ।
  • झारखण्ड के तमाड़ विद्रोह (Revolt in Jharkhand) को दबाने के लिए प्रारंभ में कैप्टन होगन को भेजा गया, लेकिन सफल नहीं हो सका।
  • फिर ले. एल. एफ. टी. कूपर को भेजा गया और यह 1794 ई. तक इस क्षेत्र को शांत कर दिया। फिर 1794 ई. के नवंबर में झारखण्ड के तमाड़ में विद्रोह (Revolt in Jharkhand) उठ खड़ा हुआ।
  • 1796 ई. में 24वीं बटालियन का कप्तान बी. बेन को तमाड़ भेजा गया, लेकिन उसे भी काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा।
  • झारखण्ड के तमाड़ विद्रोह (Revolt in Jharkhand) के समय तमाड़ विद्रोह का नेता ठाकुर भोलानाथ सिंह था तथा सिल्ली का विश्वनाथ सिंह था। भोलानाथ सिंह दबंग व शक्तिशाली था, परंतु 1798 ई. में भोलानाथ कैप्टन बेन सिंह को कैप्टन बेन गिरफ्तार कर लिया। इस तरह तमाड़ क्षेत्र 15 वर्षों तक अशांत बना रहा।
  • इस प्रकार झारखण्ड के तमाड़ विद्रोह (Revolt in Jharkhand) के प्रमुख नेताओं में भोलानाथ सिंह ठाकुर विश्वनाथ सिंह, ठाकुर हीरानाथ सिंह, (बून्डू के) तथा आदिवासी नेताओं में रामशाही मुण्डा एवं उनके भतीजा ठाकुर दास मुण्डा थे।
  • 1807 ई. में दुखन शाही के नेतृत्व में मुंडाओं ने पुनः विद्रोह किया और 1808 ई. में कैप्टन रफसीज के नेतृत्व में दुखन शाही को गिरफ्तार कर लिया गया। 1807 ई. के बाद भी तमाड़ क्षेत्र में छिट-पुट विद्रोह होते रहे।
  • 1810 ई. में नवागढ़ के जागीरदार बख्तर शाह के नेतृत्व में पुनः विद्रोह प्रारंभ हो गया। झारखण्ड के तमाड़ विद्रोह (Revolt in Jharkhand) के दमन हेतु सरकार ने लेफ्टिनेंट एच. ओडोनेल को भेजा गया।
  • नवागढ़ पर अंग्रेजों ने हमला किया। बख्तर शाह भागकर सुरगुजा चला गया। उसके बाद यह विद्रोह कमजोर पड़ गया।
  • 1819 ई. पुनः विद्रोह भड़क उठी। इस समय झारखण्ड के तमाड़ विद्रोह (Revolt in Jharkhand) के प्रमुख नेता थे- मदरा मुण्डा, धुन्सा सरदार, दौलत राय मुण्डा, झुलकारी मुण्डा, कुंटा मुण्डा शिवनाथ मुण्डा, शंकरमानकी, झुलकारी मुण्डा, टेपा मानंकी, चंदन सिंह, गाजीराय मुण्डा, रतनु मानकी, मुचिराय मुण्डा, रुदन मुण्डा, आदि।
  • झारखण्ड के इस विद्रोह (Revolt in Jharkhand) से भयभित राजा गोविद शाही ने कैप्टन रफसीज से सहायता माँगी। इनकी सहायता करने हेतु, कैप्टन रफसीज एवं ए- जे- कोलविन ने पहुँचे एवं साथ मिलकर विद्रोहियों का दमन किया।
  • 1920 ई. आते-आते झारखण्ड के इस विद्रोह (Revolt in Jharkhand) के प्रमुख नेता गिरफ्तार कर लिए गए। केवल दो विद्रोही नेता बाहर बचे हुए थे रुदम मुण्डा एवं कुंटा मुण्डा। अंततः जुलाई, 1920 ई. में रुदन मुण्डा एवं मार्च 1921 ई. में कुंटा मुण्डा गिरफ्तार कर लिए गए। इसके साथ ही तमाड् विद्रोह समाप्त हो गया।

तिलका विद्रोह (1784-1785 ई.)

  • झारखण्ड का तिलका विद्रोह (Revolt in Jharkhand) 1784 ई. में तिलका मांझी के नेतृत्व में आरंभ हुआ। यह आंदोलन अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी जमीन पर परम्परागत अधिकार के लिए, पहाडि़याँ को अधिक सुविधा देकर फूट डालने वाली नीति के विरोध में तथा अगस्टस क्लीन लैंड के दमन के विरुद्ध था।
  • इस प्रकार इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य था आदिवासी स्वायत्तता की रक्षा करना एवं इस क्षेत्र से अंग्रेजों को बाहर करना।
  • संथालों का राजमहल क्षेत्र में प्रवेश 18वीं सदी के अन्त में हुआ किन्तु पहाडि़याँ समुदाय द्वारा इनका जबरदस्त विरोध हुआ। इस प्रकार संथाल आदिवासियों तथा पहाडि़याँ के कुछ मुठभेड़ के पश्चात् संथाल लोग इस क्षेत्र में बस गए।
  • ये लोग पहाड़ों पर रहते थे तथा जब ईस्ट इण्डिया कंपनी की नावें गंगा नदी से गुजरती थी तो वे लोग पहाड़ से उतर कर उसे लुटते थे तथा डाक ले जाने वालों की हत्या कर देते थे।
  • वे ‘गुरिल्ला युद्ध’ करने में बड़े कुशल थे। ये लुटे हुए माल को गरीबों एवं जरुरत मंद व्यक्तियों के बीच बाँट देते थे। तिलका मांझी ने गाँव-गाँव सखुआ पत्ता घुमाकर झारखण्ड के तिलका विद्रोह (Revolt in Jharkhand) का संदेश भेजा।
  • तिलका माझी गोरिल्ला अर्थात् छापामार युद्ध करने में निपुण थे। इन्होंने सुल्तान गंज की पहाडि़यों पर छापामार युद्ध का नेतृत्व किया। 1778 ई. में ऑगस्टल क्लिवलैण्ड को राजमहल क्षेत्र का पुलिस अधीक्षक नियुक्त किया गया।
  • इसने फूट डालने की नीति अपनाकर 47 पहाडि़याँ सरदारों का अपना समर्थक बना लिया। इन 47 पहाडि़याँ सरदारों का प्रमुख जौराह नामक व्यक्ति था।
  • इन पहाडि़याँ सरदारों को कई सुविधाएँ प्रदान की गयी जिसका तिलका मांझी ने विरोध किया। तिलका मांझी अंग्रेजों का विरोध भागलपुर के वनचरीजोर नामक स्थान पर किया।
  • 1784 ई. में तिलका मांझी ने अपने अनुयायियों के साथ भागलपुर पर आक्रमण कर दिया। 13 जनवरी को तिलका मांझी ने अपने तीर से राजमहल क्षेत्र के पुलिस अधीक्षक ऑगस्टल क्लिवलैण्ड को मार गिराया।
  • इससे अंग्रेजों के मध्य दहशत का वातावरण बन गया। इन्हें गिरफ्तार करने एवं अंग्रेजी सेना का सहयोग करने हेतु ‘आयरकूट’ को भेजा गया।
  • इसने पहाडि़याँ सरदार के नेता जौराह के साथ मिलकर तिलका मांझी के अनुयायियों पर धावा बोला। परन्तु तिलका मांझी यहाँ से निकलकर भाग गए तथा सुल्तानगंज की पहाडि़यों में छिप गए।
  • 1785 ई. में तिलका मांझी को धोखे से गिरफ्तार कर लिया गया तथा भागलपुर में बरगद पेड़ पर लटकाकर फाँसी दे दी गई। यह स्थान वर्तमान में ‘तिलका मांझी चौक’ के नाम से जाना जाता है।
  • इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में पहले विद्रोही शहीद तिलका माँझी थे। तिलका मांझी के आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी थी।
तिलका माँझी से संबंधित प्रमुख तथ्य
  1. तिलका माँझी का जन्म : 11 फरवरी, 1750
  2. जन्म स्थान : तिलकपुर
  3. पिता का नाम : सुंदरा मूर्मू
  4. जाति : संथाल
  5. उपनाम : जाबरा पहाडि़याँ
  6. विद्रोह का केन्द्र बिन्दु भागलपुर का वनचरीजोर नामक स्थान
  7. विद्रोह की अवधि : 1784 से 1785 ई. तक
  8. तिलका द्वारा मारे गए अंग्रेज अधिकारी : ऑगस्टल क्लिवलैण्ड
  9. क्लिवलैण्ड को मारने की तिथि : 13 जनवरी, 1784 ई.
  10. विद्रोह में निपुणता : गोरिल्ला (छापामार युद्ध)
  11. जनजातियों में विद्रोह : सखुआ का पत्ता घुमाकर
  12. तिलका मांझी को अंग्रेजों द्वारा सहयोग कर पकड़वाने वाला व्यक्ति : जौराह (पहाडि़याँ सरदार)
  13. तिलका मांझी का शहादत : वर्ष 1785 ई.
  14. तिलका को फाँसी देने का स्थान : भागलपुर में बरगद पेड़ पर लटकाकर दिया गया। आज उसे ‘तिलका मांझी चौक’ के नाम से जानते हैं।
विद्रोह का महत्त्व
  1. लोगों की स्वाधीनता के प्रति जागरूकता
  2. विद्रोह में महिलाओं की भागीदारी

हो विद्रोह (1820-1821 ई.)

  • ‘हो’ जनजाति के निवास क्षेत्र को ‘हो देशम्’ या ‘कोल्हान’ के नाम से जाना जाता है। इन्हें ‘लड़ाका कोल’ के नाम से भी जाना जाता था।
  • झारखण्ड का हो विद्रोह (Revolt in Jharkhand) सन् 1820-21 ई. में छोटानागपुर के ‘हो’ जनजाति के लोगों ने सिंहभूम के राजा जगन्नाथ सिंह के विरुद्ध किया।
  • वस्तुतः हो ‘जनजाति के लोग एवं सिंहभूम के राजा के बीच में त्रिपूर्ण संबंध था। ‘हो’ लोग राजा जगन्नाथ सिंह के प्रति तटस्थ थे। पर जब सिंहभूम के राजा ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली।
  • अंग्रेजों के नीति के फलस्वरूप सिंहभूम के राजा अपने ‘हो’ मित्रें के साथ दुर्व्यवहार करने लगे। इस पर ‘हो’ लोग भड़क उठे। हो लोग यह बात समझ चुके थे कि उनके भोलेपन का लाभ उठाये जा रहा है।
  • जब हो लोगों ने विरोध करना प्रारम्भ किया तो सिंहभूम का राजा समझ गया कि लोग विद्रोही होते जा रहे हैं। इसकी सामान्य झलक चाईबासा के एक वापसी दल को लूटने एवं लोगों की हत्या से मिली।
  • 1820 ई. में सिंहभूम के राजा के निवेदन पर मेजर रफसेज कोल्हान अथवा हो देशम क्षेत्र में प्रवेश किया तथा चाइबासा के रो-रो नदी के तट पर अंग्रेजों से लड़ाई हुई। अंग्रेज विजयी हुए।
  • इस विजय के पश्चात् उत्तरी कोल्हान क्षेत्र के ‘हो’ जनजाति के लोग पोरहट के राजा को कर देने के लिए सहमत हुए जबकि दक्षिण कोल्हान क्षेत्र के ‘हो’ जनजाति के लोग अंग्रेजों का विरोध करना जारी रखे।
  • ये लोग निकटवर्ती इलाकों में उपद्रव एवं लूट-पाट करते रहे। पुनः पोरहट के राजा मेजर रफसेज से सहयोग माँगा।
  • परिणामस्वरूप 1821 ई. में कर्नल रिचर्ड के नेतृत्व में अंग्रेजों ने हो जनजाति का दमन करने हेतु एक बड़ी सेना भेजी।
  • ये दोनों के बीच लगभग एक माह तक युद्ध चला परन्तु ‘हो’ लोग इस युद्ध को व्यर्थ समझकर कंपनी से संधि करने में अपनी भलाई समझा, अन्ततः दोनों के मध्य संधि हो गयी। संधि के तहत निम्नवत् शर्त रखे गए-
  1. हो लोग ने अंग्रेज कम्पनी की अधीनता स्वीकार की।
  2. हो लोग राजाओं एवं जमींदारों को वार्षिक कर देना स्वीकार किया।
  • इस संधि के बाद भी पूर्णतः कोल्हान क्षेत्र में शान्ति स्थापित नहीं हो सका। 1837 ई. में कैप्टन विलकिसन को हो विद्रोह दबाने के लिए भेजा गया था।

चेरो विद्रोह (1800-1819 ई.)

  • झारखण्ड के चेरो का विद्रोह (Revolt in Jharkhand) 1800 ई. में प्रारम्भ हुआ जब पलामू के राजा चूड़ामन राय ने जागीरदारों की जागीरे हड़पने लगा।
  • इसका प्रमुख कारण था कि ये जागीरे, जागीरदारों को उसकी सैनिक सेवा के बदले दी जाती थी परन्तु पलामू के राजा का संबंध अंग्रेजों से हो जाने के कारण अंग्रेज अपनी सैनिक पलामू में रखती थी, इस कारण राजा को अतरिक्त सैनिकों की आवश्यकता नहीं रही।
  • इस प्रकार राजा को अब जागीरदारों की सेवा की आवश्यकता नहीं रही। इस प्रकार राजा के इस नीति के कारण चेरों की जागीरे निकलने लगी साथ ही इनको राजस्व बकाया के नाम पर इनकी जागीरों को बेचा जाने लगा।
  • इस प्रकार पलामू के चेरो जनजाति ने वसूली एवं उपाश्रित जागीर को पुनः अधिग्रहण के खिलाफ 1800 ई. में ‘मूखन सिंह’ के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया जिसे ‘चेरो आंदोलन’ की संज्ञा दी गयी। इस विद्रोह सहयोग माँगा।
  • झारखण्ड के चेरो के विद्रोह (Revolt in Jharkhand) का दमन करने में अंग्रेजों ने कल-छपट एवं चलाकी का सहारा लिया। इस विद्रोह के दमन करने हेतु अंग्रेज ने कर्नल जोन्स के नेतृत्व में सेना की दो बटालियन को भेजा।
  • झारखण्ड के चेरो के विद्रोह (Revolt in Jharkhand) को दमन करने हेतु कर्नल जोन्स लगभग 2 वर्षों तक पलामू एवं सरगुजा क्षेत्र में बना रहा। अन्ततः 1802 में भूषण सिंह गिरफ्रतार कर लिए गए एवं उन्हें फांसी की सजा दे दी गयी।
  • झारखण्ड के इस विद्रोह (Revolt in Jharkhand) के परिणामस्वरूप 1809 ई. में अंग्रेजों द्वारा छोटा नागपुर में शान्ति व्यवस्था बनाए रखने हेतु जमींदारी पुलिस बल का गठन किया गया।
  • 1814 ई. में अंग्रेजी कम्पनी ने राजस्व बकाया के इल्जाम में पलामू के चेरो राजा चूड़ामन राय के राज्य को नीलाम कर अंग्रेज अपने कब्जें में ले लिए तथा यहाँ के शासन का दायित्व भारदेव के राजा धनश्याम सिंह को दे दिया। इससे चेरों के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचा क्योंकि इनके ऐतिहासिक राजवंश को समाप्त कर दिया गया था।
  • साथ ही यहाँ के नवनियुक्त शासक धनश्याम सिंह जागीरदारों के जागीरों को बेचना प्रारम्भ कर दिया जिसके परिणामस्वरूप चेर समुदाय, पुराने राजा एवं उनके अनुयायी तथा जागीरदारों ने आपस में मिलकर अंग्रेज एवं राजा घनश्याम सिंह के विरुद्ध हो गए।
  • पुनः 1817 ई. में ये लोग जनविद्रोह कर दिए। झारखण्ड के इस विद्रोह (Revolt in Jharkhand) का नेतृत्व चैनपुर के ठकुराई सामंत राम बख्श सिंह एवं रंका के शिवप्रसाद सिंह ने किया।
  • अंग्रेज की तरफ से मेजर रफसेज के नेतृत्व में विद्रोह का दमन प्रारम्भ हुआ। इसने विद्रोही नेताओं एवं जागीरदारों को बंदी बना प्रारम्भ किया। परन्तु विद्रोह थम नहीं रहा था।
  • झारखण्ड के चेरो के विद्रोह (Revolt in Jharkhand) का दमन कर्नल जोंस ने किया तथा 1819 ई. में पलामू के शासन व्यवस्था को सीधे तौर पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपने हाथों में ले लिया।

कोल विद्रोह (1831-1832 ई.)

  • कोल विद्रोह झारखंड के प्रथम सुसंगठित तथा व्यापक जनजातीय आंदोलनों में से एक है। झारखण्ड में 1857 ई. के तीन दशकों में तीन महत्त्वपूर्ण विद्रोह हुआ-

(i) कोल विद्रोह,

(ii) भूमिज विद्रोह और

(iii) संथाल विद्रोह।

  • इन तीनों विद्रोह में कोल विद्रोह भयंकर एवं व्यापक था। झारखण्ड में हुए जनजाति विद्रोह में इसका एक विशिष्ट स्थान है, यह विद्रोह मुण्डा जनजातियों का विद्रोह था जिसमें ‘हो’ जनजातियों ने खुलकर मुण्डाओं का साथ दिया।
  • यह विद्रोह नये मालिकों, दिकू (जो बाहरी लोग थे) द्वारा उत्पीडि़त एवं न्याय से वंचित छोटानागपुर के आदिवासियों का विद्रोह था।
  • इस विद्रोह का विस्तार छोटानागपुर खास, सिंहभूम, पलामू, मानभूम के क्षेत्र में फैला। लेकिन हजारीबाग इस विद्रोह में पूर्णतः अछूता रहा।
कोल विद्रोह के कारण
  • कोल विद्रोह को इतिहासकारों ने कई रूपों में देखा है। कुछ इतिहासकार इसे ब्रिटिश शासन के प्रति राष्ट्रीय द्रोह बताया है तो कुछ इतिहासकार इसे स्थानीय उत्पीड़कों के प्रति उत्पन्न आक्रोश।
  • चार्ल्स मेटकॉफ के अनुसार ‘कोल विद्रोह कृषक असंतोष की अभिव्यक्ति मात्र न होकर आदिवासियों की स्वतंत्रता की लड़ाई थी जिसका उद्देश्य ब्रिटिश शासन का उन्मूलन था।
  • कैथबर्ट के अनुसार ‘‘इन जमींदारों ने किसानों पर इतने अत्याचार किए कि गाँव के गाँव उजड़ गए। इस सामंती व्यवस्था में जमींदार शायद ही किसानों की हित का कोई बात सोचता हो और प्रशासनिक वर्ग अलग से इनका खून चूस रहा था।
  • फलस्वरूप आबादी का ”ह्रास हो रहा था और लोग बस किसी प्रकार अपना जीवन-यापन कर रहे थे। डब्लू. डब्लू. बेल्ट के अनुसार ‘‘राजा की शासन व्यवस्था घोर निराशावादी और इन दबे वर्गों के प्रति शोचनीय थी।
  • किसानों की जमीन इनसे जबरन छीनी जा रही थी और बाहरी लोगों (विफूओं) को दी जा रही थी। इनकी शिकायत पर किसी शासक या प्रशासक का रवैया सहानुभूति पूर्ण भी नहीं था। इस लूट दण्ड और उत्पीड़न ने कितनी जाने ले ली।
  • इस प्रकार यह विद्रोह औपनिवेशक नीतियों के विरुद्ध शोषण एवं उत्पीड़न के परिणाम स्वरूप हुआ। इस विद्रोह के निम्नवत् कई कारण थे-
  1. आदिवासी चाहते थे कि उनके परहा पंचायत के जो कानून हैं जिसे बदल दिया गया उसे फिर से लागू किया जाए।
  2. 1765 में दीवानी मिलने के बाद अंग्रेजों ने कई प्रकार से आदिवासी हिताें के विरुद्ध कानून बनाया जिसका आक्रोश 60-65 वर्षों तक सुलगता रहा।
  3. जंगल में प्रवेश पर लगी रोक को हटा लिया जाए।
  4. आदिवासी का परंपरागत पेय पदार्थ हडि़या पर रोक नहीं की जाए।
  5. आदिवासी जमीन क्षेत्र को मनमानी बंदोबस्ती नहीं किया जाए।
  6. जबरदस्ती आदिवासियों पर थाना-कोर्ट को व्यवस्था ना सौंपी जाए।
  7. व्यापारियों साहूकारों, ठेकेदारों एवं अधीनस्थ कर्मचारियों द्वारा इनका शोषण
  8. न्यायालयों द्वारा निराशा क्योंकि निर्णय इनके विरुद्ध आते थे।
  9. जमींदारों एवं जगीरदारों द्वारा इनका शोषण।
अन्य तत्कालीन कारण-
  • छोटानागपुर महाराज के भाई कौर हरनाथ शाही को खोरपोश के रूप में सिंहभूम जिले के सोनपुर परगना में कुछ गाँव दिये गए थे। जिसे उन्होंने मुंडाओं को छोड़कर मुसलमान व सिक्खों को खेती के लिए दिया।
  • इन बाहरी लोगों का प्रवेश अच्छा नहीं था इसी तरह कोल लोगों में विद्रोह सुलग रहा था और घटनाओं के परिणामस्वरूप सिंगरई मानकी सुरगा मुंडा के नेतृत्व में 700 आदिवासीयों ने विद्रोह प्रारंभ कर दिया और विद्रोह धीरे-धीरे चलता रहा।
  • इस विद्रोह को मुंडा, हो, चेरो, खरवार आदि जनजातियों का सहयोग मिलता रहा, इस विद्रोह का प्रमुख नेता बुद्ध भगत/बुद्ध मुंडा था।
  • 1832 में सिंगराई मानकी और सुरग मुंडा ने आत्मसमर्पण कर दिया, लेकिन सरकार इस विद्रोह से बहुत भयभीत हुई और 1833 में दक्षिण-पश्चिम सीमा एजेंसी का गठन किया तथा बाद में मुंडा-मानकी शासन-प्रणाली को वित्तीय व न्यायिक अधिकार मिले दक्षिण-पश्चिम एजेंसी का प्रशासनिक दायित्व विलकिसंन का सौंपा गया।
कोल विद्रोह के परिणाम
  • जन-धन की अपार क्षति हुई। इस विद्रोह के दमन में विल्सन के अनुसार 5000 वर्ग मिल भूमि वीरान हो गयी। दंड का कड़ा प्रावधान नहीं था अर्थात् दण्ड में नरमी बरती गयी।
  • केवल गम्भीर अपराधी को मौत की सजा दी गयी। आत्म समपर्ण करने वाले के साथ नरमी बरती गयी।
  • 1934 में दक्षिण-पश्चिमी सीमांत ऐजेंसी की स्थापना। यह ऐजेंसी 1833 ई. के रेग्यूलेशन ग्प्प्प् के तहत छोटा नागपुर खास, पलामू, खड़गडीहा, रामगढ़ और कोरूड़ा को पूर्व रामगढ़ जिले से अलग कर इन्हें ट्रिब्युटरी महाल एवं जगल महाल के एक नॉन रेगुलेशन प्रान्त के रूप में संगठित किया जिसे दक्षिण-पश्चिमी सीमांत ऐजेंसी नाम दिया गया।
  • संपूर्ण इलाके में शान्ति स्थापित करने हेतु पुलिस चौकियों की स्थापना।
  • जागीरदारों को पुनः पुलिस कार्य करने के अधिकार को वापस किया गया।
  • कोल विद्रोह के कारणों का पता लगाने हेतु कैप्टन विलकिन्सन एवं डब्लू. डेन्ट को छोटानागपुर का संयुक्त आयुक्त बनाया गया।
  • कम्पनी की सहायता करने वाले व्यक्तियों को पुरस्कृत किया गया जिसमें रणबहादुर राय (पलामू), मित्रभान सिंह (देव), शेख अबरूला (टेकारी महाराज), खान बहादुर खान थे। इस पुरस्कार में अंग्रेजों द्वारा ‘खान बहादुर खान’ को ‘दिलावर जंग’ एवं ‘राजा’ की उपाधि प्रदान की गयी।
कोल विद्रोह के अन्य प्रमुख तथ्य
  • कोल विद्रोह का प्रमुख कारण ‘भूमि संबंधी असंतोष’ था।
  • इस विद्रोह के नेतृत्व कर्ता ‘बुद्धुभगत’ थे। ये इस विद्रोह में अपने भाई, पुत्र, भतीजे एवं 100 अनुयायियों के साथ मारे गये।
  • इस विद्रोह के अन्य दो प्रमुख नेता सुर्गा एवं सिंगराई अन्त तक लड़ते रहे। इन्होंने अप्रैल, 1832 में आत्मसमर्पण कर दिया।
  • इस विद्रोह के दमन के पश्चात्-गाँव के मुखिया जिसे मुंडा कहा जाता था तथा पीर के प्रधान (मानकी, जो सात से बारह गाँवों का समूह) की भी लौटा दी गयी।
  • ‘मानकी मुंडा पद्धति’ को न्यायिक एवं वित्तीय अधिकार प्रदान किए गए।
  • छोटानागपुर खास क्षेत्र के प्रमुख विद्रोही नेता- लिंग मुण्डा (हम्टा), मुचिराय मुण्डा (कुडंलू), बुद्धु भगत (सिल्ली गाँव) सिंगराई मानकी (सोनपुर परगना), बहादुर सिंह मुण्डा (सिन्दरी), मोहन सिंह (पतराहत्), गुंसा मुण्डा (कैलादी) धन सिंह मुण्डा (कपडिया), केसा मुण्डा (तेल माछा), कछि राय मुण्डा (चीतुडीह), भैया राम मुण्डा (सुकूहात्) जीत राय मुण्डा (हार्दिमल), शहरी मुण्डा (कुलमा), गोंदल मुण्डा (आमादी), नारायण मुण्डा (करमा) लक्खी दास (कांची) आदि।
  • छोटानागपुर खास क्षेत्र में प्रमुख अंग्रेज दमनकर्ता थे-
  • कैप्टन माल्खी, कैप्टन विलकिन्सन, कैप्टन इम्पे, कैप्टन हार्सबर्ग, कैप्टन जानसन, कर्नल सोवेन, मेजर ब्लैकॉल आदि।
  • कैप्टन इम्पे ने बुद्धुभगत को मारा था।
  • सिंहभूम क्षेत्र के प्रमुख विद्रोही नेताµसुर्गा मुण्डा (बंदगाँव सुईया मुण्डा (गोदरपिरी), कार्तिक सरदार (कोचांग), बिंदराई मानकी (बंदगाँव), दसई मुण्डा (कोचांग), मोहन मानकी, नग पाहन, सागर मानकी, खांदुपातर आदि।
  • सिंहभूम क्षेत्र में प्रमुख अंग्रेज दमनकर्ता थे- कर्नल बोवेन, मेजर ब्लैकॉल आदि।
  • पलामू क्षेत्र के प्रमुख विद्रोही नेता- चँवर सिंह (बरियात्), दुखन शाही, हुक्म सिंह (जेरुआ) हरिल सिंह (जेरुआ), सुरजन सिंह आदि।
  • पलामू क्षेत्र में अंग्रेज कम्पनी का सयोग देने वाले प्रमुख जागीरदारः-
  • रणबहादुर राय, (वसंत सिंह, भवानी बख्स राय, तिलकधारी सिंह, छत्रधारी सिंह, भैया खिरोधर शाही, बाबू शिव बख्श राय, हारिल सिंह आदि।
  • पलामू क्षेत्र में प्रमुख अंग्रेज दमनकर्ता- लेफ्रिटनेंट ड्रामैड़, लेफ्रिटनेंट कर्नल हॉटे, कैप्टन एड्रज, लेफ्रिटनेंट मार्श, लेफ्रिटनेंट हैमिल्टन, डब्लू. लैम्बर्ट, कैप्टन जॉनसन, लेफ्रिटनेंट हैप्टन आदि।

भूमिज विद्रोह (1832-1833 ई.)

  • भूमिज विद्रोह 1832-33 ई. में हुए मानभूम के आदिवासियों का विद्रोह था। इस विद्रोह के नेतृत्व कर्ता वीरभूम (बाड़भूम) के जागीर के दावेदार ‘गंगा नारायण’ ने किया।
  • इसी कारण इस विद्रोह, अंग्रेजों ने ‘गंगनारायण का हंगामा’ संज्ञा प्रदान की। इस विद्रोह का प्रभाव क्षेत्र वीरभूम एवं सिंहभूम में रहा।
  • इस विद्रोह का प्रमुख कारण वीरभूम (बाड़भूम) के राजा, पुलिस अधिकारियों, मुंसिफ, नमक दरोगा एवं अन्य दिकुओं के खिलाफ भूमिजों की शिकायतों का देन था।
  • विद्रोह का दूसरा प्रमुख कारण था- स्थानीय व्यवस्था पर कंपनी की शासन व्यवस्था को थोप जाना साथ-ही-साथ अंग्रेजों की दमनकारी लगान व्यवस्था से उत्पन्न असंतोष। इस प्रकार मूलरूप से यह विद्रोह आदिवासी उत्पीड़न से उपजा था।
  • बाड़भूम (वीरभूम) के जागीर को गंगनारायण से उसके भाई माधव सिंह ने हड़पने का षड्यंत्र रजा था। माधव सिंह दीवान था। यह दीवान बनने के पश्चात् माधव सिंह से व्यक्तिगत खुनस निकालने लगा। उसने जनता का बहुत शोषण किया।
  • जब गंगनारायण ने इसका विरोध किया तो उसने कंपनी की शरण ले ली। गंगनारायण हालात ही गम्भीरता को समझा और उसने इन जमींदार वर्गों से संपर्क किया, जो अंग्रेजी व्यवस्था से त्रस्त थे। उनके साथ गंगनारायण को जनजाति लोगों को समर्थन मिला क्योंकि जनजाति लोग भी इस व्यवस्था से बहुत त्रस्त थे।
  • ‘कोल’ एवं ‘हो’ जनजाति के लोग तो बुरी तरह से नाराज थे। इस प्रकार यह विद्रोह जनजातिय जमींदारों और जनजाति लोगों का संयुक्त विद्रोह था।
  • इस विद्रोह की शुरुआत 26 अप्रैल, 1832 को वीरभूम (बाढ़भूम) के दीवान माधव सिंह की गंगनारायण के द्वारा हत्या से हुई। इसके पश्चात् गंगनारायण ने घरवालों की बड़ी सेना लेकर समस्त राज्य पर कब्जा कर लिया।
  • इस कार्य में इनके प्रमुख सहयोगी-सूरा नायक, मजदूर भूमिज, गर्दी सरदार, बुली महतो आदि थे।
  • 1 मई, 1932 को बाड़ा बाजार (बाढ़भूम की राजधानी) पर चढ़ाई की। इस विद्रोह को देखकर बाढ़भूम के नरेश गंगा गोविद सिंह ने गंगा नारायण की समस्त माँगों को स्वीकार कर लिया।
  • 2 मई, 1932 को बाड़ा बाजार के मुंसिफ की कचहरी, पुलिस थाना एवं नमक- दारोगा की कचहरी में आग लगाकर जला दिया गया।
  • गंगनारायण ने 3,000 से अधिक आदिवासियों को लेकर मजिस्टेªट रसेल के सैनिकों पर धावा बोल दिया। इन आिदवासियों के आक्रमण से कंपनी की सेना एवं जमींदार वर्ग डर गए। इस प्रकार गंगनारायण बाढ़भूम क्षेत्र के एक छत्र राजा बन गए।
  • पुनः गंगनारायण अगस्त, 1832 ई. में अपने समर्थकों के साथ अम्बिकानगर रायपुर, अकरो तथा श्यामसुन्दरपुर की रियासतों को लूट लिया।
  • इस प्रकार इस समय विद्रोह व्यापक रूप ले लिया। इस विद्रोह को दबाने के लिए नवम्बर, 1832 ई. में कंपनी की सेना ने इस विद्रोह को दबाने हेतु लेफ्रिटनेंट ब्रैडन एवं लेफ्रिटनेंट ट्रिमर को भेजा।
  • गंगनारायण ने पुरुलिया के निकट चाकुलतोर में हमला कर दिया लेकिन कंपनी इस हमले को रोकने में सफल रही। इसके पश्चात् अंग्रेजी सेना का जिम्मा डेन्ट ने सम्भाली इसने घोषणा की कि गंगनारायण एवं उनके देश प्रमुख सहयोगियों को छोड़कर आत्मसमर्पण करने पर माफ कर दिया जाएगा।
  • डेन्ट ने विद्रोहियों के कई गढ़ों को नष्ट कर दिया। इस प्रकार डेन्ट को भूमिज विद्रोह के दमन का प्रमुख कर्ता माना जाता है।
  • अब गंगनारायण अपने अनुयायियों के साथ सिंहभूम आ गए तथा कोलो (हो) को अपने पक्ष में मिलाने का प्रयास किए।
  • खरसवाँ के ठाकुर चेतन सिंह कोलों के दुश्मन थे अतः कोल गंगनारायण का साथ इस शर्त पर देने को तैयार हो गए कि खरसवा के ठाकुर चेतन सिंह के विरुद्ध विद्रोह करके आक्रमण करेंगे।
  • गंगनारायण कोलों के इस शर्त को स्वीकार कर लिया तथा चेतन सिंह पर आक्रमण कर दिया। परन्तु गंगनारायण, चेतन सिंह के सैनिकों से 7 फरवरी, 1833 को पराजित हो गए तथा गंगनारायण मारे गए।
  • ठाकुर चेतन सिंह ने गंगनारायण के सिर काटकर अंग्रेज अधिकारी कैप्टन विल्किन्सन के पास उपहार स्वरूप भेजा। इसके बाद विल्किन्सन ने राहत महसूस की। नागनारायण के मृत्यु के पश्चात् भूमिज विद्रोह शिथिल पड़ गया।
  • ‘भूमिज विद्रोह’ यह स्पष्ट कर दिया था कि जंगल महाल में प्रशासकीय परिवर्तन की आवश्यकता है। इस प्रकार कोल व्रिदोह के समान ही भूमिज विद्रोह के बाद कई प्रशासनिक परिवर्तन लाने हेतु अंग्रेज अधिकारी बाध्य हो गए।

संथाल विद्रोह (1855-1856 ई.)

  • इस विद्रोह को संथाल या हुल आंदोलन या सिद्ध-कान्हु विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इसकी शुरुआत सिद्ध कान्हु, चांद-भैरव, फूलो-झानो इत्यादि भाई बहनों ने एक साथ मिलकर किया था।
  • सिद्ध-कान्हु वास्तव में 4 भाई और दो बहने थे। उनके पिता का नाम चुन्नू मांझी था। और संथाल-परगना भगनीडीह के रहने वाले थे।
  • दरअसल संथाल परगना क्षेत्र में 1790 ई. से पूर्व संथाल लोगों का अधिवास नहीं था। इसके पहले संथाल वीरभूम, ढालभूम, सिंहभूम मानभूम, बापुरा इत्यादि क्षेत्रें में रहते थे और यहाँ पर जमींदारों के अत्याचार से स्थानांतरित होकर संथाल परगना में जाकर बसने लगे और बसने की शुरुआत 1790 से शुरू होकर 1815-30 ई- के बीच इनका अधिकाधिक आगमन हुआ।
  • 1818 तक गोड्डा क्षेत्र में अनेक गाँव बस चुके थे। और 1836 तक दामिन-ए-कोह में 427 गाँव संथालों के बस गए। इसके प्रारम्भिक स्थानांतरण में यहाँ पर पहले से रह रहे पहाडि़याँ जनजातियों ने विरोध भी नहीं किया और 1851 तक ये बड़ाईत/बडहैत तक ये फैल गए।
  • दरअसल 1765 में अंग्रेजी पदाधिकारी इन क्षेत्रें में नहीं रहते थे। बल्कि इनका कार्यालय या निवास देवघर हुआ करता था और यहीं से अंग्रेज पदाधिकारी दामिन-ए- कोह क्षेत्र आया जाया करते थे।
  • अंग्रेज दामिन-ए-कोह से सिर्फ राजस्व लेने की रूचि रखते थे। संथालो की सुविधा व मूलभूत आवश्यकता की चिंता अंग्रेजों को नहीं थी। संथालो को न्याय के लिए देवघर या भागलपुर जैसे दूर क्षेत्रें में जाना पड़ता था। और यहाँ के लोगों में कहावत थी-कि न्याय दूर महाजन दरवाजे पर थी।
  • संथाल के लोग कई प्रकार से ब्रिटिश शासक से शोषित थे। और यही शोषणात्मक प्रवृति ने हुल क्रांति को जन्म दिया।
हुल क्रांति के अन्य कई कारण-
  • संथालों के अनुसार संथाली क्षेत्र प्रशासकीय उपेक्षा, महाजनी शोषण सरकारी भ्रष्टाचार और पुलिसिया उत्पीड़न से त्रस्त था।
  • कोर्ट-कचहरी उनके लिए असंभव था। महाजन सूदखोर, झूठा खाता-बही बनाकर संथालो का शोषण करते थे। और इस शोषण में ब्रिटिश सूदखोर, महाजन लोगों का सहयोग करते थे।
  • आरा, छपरा, वीरभूम से आये लोगों ने संथालों को कृषक से बंधुआ मजदूरों में बदल दिया। रेल लाइन बिछाने वाले अंग्रेज पदाधिकारी संथालों का आर्थिक व यौन-शोषण करते रहे।
  • उपरोक्त कारणों से संथाल लोग क्रुद्ध होने लगे और 1855 ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध (अंग्रेज: नीलहो) एक घोषणा-पत्र तैयार किया यह कार्य खेतोरी के राजबीर सिंह, रंगा-खातून, बीरसाही मांझी, कोलाह प्रमाणिक तथा डोमा मांझी जैसे स्थानीय नेताओं द्वारा तैयार किया।
  • इस समय संथाल के दरोगा महेश लाल दत्त ने नेताओं को गिरफ्रतार कर लिया जिससे जनता में रोष उत्पन्न हो गया और 1855 में ही 6-7 हजार संथाल वीरभूम, बाँकुरा छोटानागपुर खास हजारीबाग से एकत्र हुए जिसे सिद्धु-कान्हु चाँद-भैरव ने नेतृत्व प्रदान किया और विद्रोह का बिगुल फूँक दिया।

निम्नलिखित घोषणाएँ:

  1. सरकारी आदेश ना माने।
  2. सरकार को मार भगाओं, लगान देना बंद करें।
  3. दामिन-ए-कोह क्षेत्र में अपनी सरकार बनाने की घोषणा।
  4. अपना राज्य बसाओ, बंगाली महाजनों को मार भगाओ।
  • इन्हीं घोषणाओं के साथ आंदोलन गाँव से राजमहल तक फैल दिया गया। जुलाई में महेश लाल दत्त की हत्या कर दी गई। इसी तरह फुढि़या का दारोगा प्रताप राय चुनाचु में मारा गया।
  • जमींदारों की खोली में आग लगा दी गई। आक्रोश बहुत तीव्र होता चला गया। रिचर्डसन, पोन्टेरेक विगास जैसे अधिकारी शाहशुजा के पुराने किले में शरण लिया, लेकिन भागलपुर का कमीशनर ब्राउन तत्परता से काम किया और विद्रोह को संभालने की कोशिश की।
  • दूसरी ओर संथाल लोग विद्रोह को तीव्र करते रहे थे। सिद्धु-कान्हु ने घोषणा की कि उन्हें ठाकुर गोंगा का दर्शन हुआ है।
  • यह विदेशी सेवा मत लो अतः आंदोलन चरम पर पहुँचने लगा। संथालों ने मेजर बरो को पराजित कर दिया।
  • अतः ब्रिटिश बहरामपुर से जुलाई 1855 ई. को 400 सैनिक को कदमशील में गया। 15 जुलाई को भीषण लड़ाई हुई और 20 संथाल मारे गये।
  • सिद्धु-कान्हु तथा भैरव को भी गोलियाँ लगी और इसी समय पांकुड़ से पश्चिम पाँच हजार संथाली योद्धा पराजित हो गए।
  • 24 जुलाई, 1855 ई. में रघुनाथपुर की लड़ाई हुए जिसमें संथाल पराजित हुए और अंग्र्र्रेजों का बड़डैत पर कब्जा हो गया।
  • सिद्धु-कान्हु को पकड़कर बड़डैत में फाँसी दे दी गई फिर भी विद्रोह चलता रहा। 30 हजार संथाल विद्रोह में संलग्न थे।
  • 10 नवंबर, 1855 को मार्शल लॉ लागू किया गया। इस लॉ के तहत किसी भी क्रांतिकारी को फांसी दी जा सकती थी। 14 हजार सैनिकों ने संथालों को घेर लिया अन्ततः भूखे प्यासे संथाल अंग्रेजों का सामना नहीं कर सके और 1856 तक संथाल विद्रोह दबा दिया गया, इस विद्रोह में 15 हजार से अधिक संथाली मारे गए।
  • यह विद्रोह केवल संथाल में ही सीमित नहीं रहा बल्कि हजारीबाग, वीरभूम, छोटानागपुर बाकुरा क्षेत्रें में भी फैल गया। इसी विद्रोह के परिणामस्वरूप सरकार को प्रशासकीय परिवर्तन करना पड़ा।
  • 1855 का अनुच्छेद 37 के अनुसार संथाल परगना जिले की स्थापना हुई। उस समय इसका आकार बहुत बड़ा रखा गया लेकिन कुछ जमींदारों व अंग्रेजों के विरोध के कारण 1857 के अनुच्छेद 10 के तहत संथाल परगना की नई सीमा निर्धारित की गई।
  • इस तरह संथाल विद्रोह दबा दिया गया लेकिन भारत के लोगों में एक शौर्य उत्पन्न कर गया। इसी कारण कार्ल मार्क्स संथाल विद्रोह को भारत का प्रथम जनक्रान्ति की संज्ञा दी।
संथाल विद्रोह के मुख्य तथ्य
  • विद्रोह के प्रणेता- सिद्धु एवं कान्हू
  • महत्त्वपूर्ण भूमिका (सहयोग में)- सिद्धु- कान्हू के भाई चांद, भैरव, बहन-झानो व फूलों।
  • विद्रोह का आरम्भ- 30 जून, 1855 भगनाडीह (संथाल परगना)
  • नारा- अपना देश अपना राज
  • 7 जुलाई, 1855 को विद्रोह दबाने हेतु जनरल लायड के नेतृत्व में सैन्य टुकड़ी भेजी गयी।
  • 10 जुलाई, 1855 को मेजर बरो परास्त
  • 13 नवम्बर, 1855 को ‘फौजी कानून लागू’
  • हजारीबाग क्षेत्र में संथाल विद्रोह का नेतृत्व- लुबाई मांझी एवं अर्जुन मांझी ने किया।
  • बीरभूम क्षेत्र में संथाल विद्रोह का नेतृत्व- गोरा मांझी
  • संथाल विद्रोह के दौरान दो दरोगा की हत्या- प्रताप नारायण एवं महेश लाल।
  • संथाल विद्रोह के दमन में महत्त्वपूर्ण भूमिका- कैप्टन अलेक्जेडर, ले थॉमसन एवं ले. रीड़
  • सिद्धु- कान्हू को फांसी की सजा दी गयी।
  • चाँद- भैरव गोली का शिकार हुए। इन्हें बाराहाइत में गोली मारी गयी।
  • कान्हु को भगनीडीह के ठाकुरबाड़ी के प्रांगण में फांसी की सजा दी गयी।
  • विद्रोह की व्यापकता- संथाल परगना, हजारीबाग, वीरभूम, छोटानागपुर।
  • संथाल विद्रोह के अन्य नेतृत्व क्षेत्र कर्ता- मोचिया कोमनाजेला, रामा मांझी एवं सुन्दरा मांझी
  • संथाल विद्रोह के दो महत्त्वपूर्ण स्रोत- दिगम्बर चक्रवती और छोटरे मसमन्जी
  • विद्रोह के पश्चात् संथाल क्षेत्र को नॉन-रेगुलेटिंग जिला बनाया।

सरदारी विद्रोह (1831-1832 ई.)

  • 1857 के पहले जनजातीय आंदोलन में आदिवासियों ने जिन समस्याओं को प्रमुख मुद्दा बनाया था इसमें प्रमुख थे-
  1. भूमि संबंधी समस्या एवं उनका शोषण और इन आंदोलनों में भूमि की समस्या का अंत नहीं हुआ। वे बिचौलियों को डराने की माँग करते रहें लेकिन सरकार और रैयत के बीच शोषणात्मक प्रवृत्ति चलती रही जिससे अधिकांश आदिवासी असम-भूटान, बंगाल के चाय बगान में काम करने लगे जिससे इनमें रोष उत्पन्न हो गया और इस तरह इन आदिवासियों ने सरदारी आंदोलन का नींव रखी। एक तरह से कह सकते हैं कि अंग्रेजों के दीवानी मिलते ही आंदोलन का पृष्ठभूमि तैयार होने लगी।
  2. सरदारी आंदोलन अथवा भूमि की लड़ाई जिसे ‘मुल्की (मातृभूमि की) लड़ाई या मिल्की (जमीन की) लड़ाई कहते हैं। इस विद्रोह का नेतृत्व कोल सरदारों ने किया, जिसने कोल विद्रोह के समय अपनी मातृभूमि (मुल्क) एवं जमीनों (मिल्क) को छोड़कर असम चाय बागानों में काम करने के लिए भाग गए थे। जब ये वापस आये तो इनके जमीनों को दूसरे लोग ने कब्जे में ले लिया था तथा वे इनके जमीनों को वापस करने को तैयार नहीं थे। अतः ये अपने मातृभूमि एवं जमीन के लिए आंदोलन कर दिए। यह आंदोलन लगभग 40 वर्षों तक चला।

सरदारी आंदोलन तीन चरणों में संपन्न हुआ-

  1. भूमि आंदोलन (1858-1881 ई.)
  2. पुराने मूल्यों की पुर्नस्थापना का आंदोलन (1881-1890 ई.)
  3. राजनीतिक आंदोलन (1890-1895 ई.)
भूमि आंदोलन (1858-1881 ई.)
  • भूमि आंदोलन की शुरुआत छोटानागपुर खास से होती है। क्योंकि ईसाईयों का केंद्र राँची ही था और इस आंदोलन में बिरसा आंदोलन भी समाहित था।
  • छोटानागपुर खास में 1858 में जो व्यापक उपद्रव हुए उनका संबंध भूमि से था और ये उपद्रव धीरे-धीरे अक्टूबर 1858 ई. तक अनेक गाँव के (सोनपुर, बसिया, दोइसा, दोइसा) तक फैल गया।
  • अनेक गाँव के ईसाईयों ने अपने उत्पीड़क जमींदारों का विरोध किया नवंबर 1558 में कई जमींदारों और उनके रैयतों के बीच लड़ाई हुई संपूर्ण भूईहरि क्षेत्र में आंदोलन फैल गया। इस पर सरकार ने निर्णय लिया कि काश्तो की परिभाषा तैयार करके उनका स्वरूप परिभाषित किया जाए।
  • अधिवक्ता लाल लोकनाथ के माध्यम से यह काम आरंभ हुआ जिसमें अगस्त 1862 तक 427 गाँव के बारे में ही जाँच हो सकी लेकिन लोक नाथ के काम से मुंडाओं में संतोष नहीं था क्योंकि वे समझते गैर मुंडा उनका काम सही ढंग से नहीं कर सकता इसी के चलते जमींदारों और रैयतों के बीच बराबर झड़पे होती रहती थी।
  • इसके विरुद्ध एक याचिका दायर की गई इस याचिका को ध्यान में रखते हुए 1867 में एक नियम जारी किया। जिसके अनुसार पिछले 20 वर्षों में जिन रैयतों से भूईहरि जमीन छिनी गई थी उसे वापस दिये जाने का निर्णय लिया गया।
  • यह प्रक्रिया लौटाने का 1867 से 1880 तक चलता रहा और छोटानागपुर के 25 परगनो के 2482 गाँव में भूईहरि जमीन रैयतों को वापस कर दिया गया जिससे विवाद समाप्त हो गया।
  • उल्लेखनीय छोटानागपुर के जीमनों के कई प्रकार थे जैसे-
  1. खूँट-कट्टी जमीन: मुंडाओं की जमीन जिसे उन्होंने जंगल काटकर बनाया
  2. भूईहरि जमीन: उराँव की जमीन थी जिसे उन्होंने मुंडाओं से लिया था अथवा स्वयं बनाया।
  3. कोडकर जमीन: जिसे सदानों ने स्वयं अथवा आदिवासियों के साथ मिलकर बनाया था।
  4. राजहंस जमीन: राजाओं की जमीन जिसे बाद में रैयतों में, बाँटी गई, बेची गई या दान दी गई।
  5. मंझियस जमीनः जमींदारों की जमीन
  • अतः सरकार उपरोक्त जमीनों में से सर्वप्रथम भुईहरि जमीन के लिए रिकॉर्ड ऑफ राइट बनाना शुरू किया था।
पूराने मूल्यों की पुर्नस्थापना का आंदोलन (1881-1890 ई.)
  • यह आंदोलन सरदारी आंदोलन का दूसरा चरण था। इस चरण में पूराने मूल्यों की पुर्नस्थापना पर बल दिया गया था। इसी कारण इस आंदोलन को ‘पुर्नस्थापना आंदोलन के नाम से जाना जाता है। इस आंदोलन का नेतृत्व जान बेपहिस्ट कर रहे थे।
  • इन्होंने छोटानागपुर खास की राजधानी पुनः दोइसा में स्थापित की तथा छोटानागपुर खास क्षेत्र को स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया।

सफाहोड़ आंदोलन (1831-1832 ई.)

  • इस आंदोलन के जन्मदाता लाल हेम्ब्रम उर्फ लाल बाबा थे। इन्होंने चारित्रिक पवित्रता पर बल दिया क्योंकि इन्होंने संथाल विद्रोह की विफलता को देखा था। इनकी विफलता का सबसे बड़ा कारण धार्मिक भावना तथा आत्मबल की कमी थी।
  • इन्होंने सफाफोड़ आंदोलनकारियों को ‘राम नाम’ का मंत्र प्रदान किया। इन्होंने संथालों को जनेऊ पहानाते थे। इन्हें सफेद झण्डा प्रदान किया। इन आंदोलन कारियों को मांस-मदिरा के सेवन को वर्जित करते थे।
  • इन्होंने आजाद हिन्द फौज की तर्ज पर संथाल परगना में ‘देशोद्वारक दल’ का गठन किया। लाल बाबा के सहयोगियों में पगना मरांडी, रसिक लाल सोरेन, पैका मूर्म एवं भतू सोरेन प्रमुख थे। इन सबसे डर कर अंग्रेजों ने राम-नाम जप एवं तुलसी चौरा बनाने पर पाबंदी लगा दी।

खरवार या खेखाड़ आंदोलन (1874 ई.)

  • 1857 के विद्रोह के बाद भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त कर दिया गया। और भारत का शासन सीधे ब्रिटिश क्राउन के अधीन ले आया गया। इसकी घोषणा 1 नवंबर, 1858 को इलाहाबाद में गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग ने किया।
  • संपूर्ण झारखंड क्षेत्र में सीधे ब्रिटिश शासन आरंभ हो गया जिससे आदिवासियों को और परेशान किया जाने लगा। इन्हीं आदिवासियों में एक खरवार जनजाति के लोग रहते थे।
  • इस आंदोलन का उल्लेख सुधारवादी आंदोलन के अन्तर्गत रखा जाता है, प्रारम्भ में यह आंदोलन एकेश्वरवाद एवं सामाजिक सुधार की शिक्षा देता था परन्तु बाद में राजस्व बंदोबस्ती के विरुद्ध एक अभियान चलाया गया जिसका नेतृत्व खरवार जनजाति के ‘भागीरथ मांझी’ ने किया।
  • भागीरथ मांझी ने आश्वासन दिया कि संथालों की समस्याओं को समाप्त कर देंगे। यद्यपि इस आंदोलन-भू संपदा से जुड़ी समस्याएँ भी थी और यही इस आंदोलन की भौतिक आधारशिला थी। भागीरथ मांझी ने नारा दिया- ‘धरतीपुत्र की धरती एवं धरतीपुत्र और उसकी उपज के सही हकदार’।
  • भागीरथ मांझी ने यह आंदोलन 1874 ई. में आरम्भ की। यह आंदोलन अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ अहिसात्मक संघर्ष था। भागीरथ मांझी ने घोषणा भी उसे सिंगबोंगा सूर्यदेव के दर्शन हुए है।
  • गैर-जनजातीय देवी सिंह वाहिनी दुर्गा के दर्शन हुआ और उसने लोगों को जनजातियों को समझाया कि हमें नया धर्माधारित अहिसंक मार्ग पर चलना है इसमें सुअर मुर्गी को अस्पृश्य तथा मदिरापान तथा नृत्य गायन को अवांछनीय माना गया।
  • इसी नवचेतना के साथ भागीरथ मांझी ने स्वयं को वौंसी गाँव का राजा घोषित कर दिया। उसने ब्रिटिश जमींदारों को कर नहीं देने की घोषणा की। उसने स्वयं लगान निश्चित करके रसीद निकाल दिया और लगान लेने लगा।
  • खरवार आंदोलन में कुछ विचार निश्चित किए गये, जिसे वे प्रचारित करते थे। जैसे-
  1. सूअर, मुर्गा, हडि़या, नाच-गान वर्जित था।
  2. संथाल विद्रोह के सेनानियों विशेषकर सिद्धू कान्हू का जन्म स्थान तीर्थस्थल बनाया गया।
  3. रविवार का दिन विराम का दिन कहा गया।
  4. राजकीय नियंत्रण से पूर्ण मुक्ति प्राप्त किया जाएगा
  5. हिंदू धर्म के अनुपालन के लिए लिखित व मौखिक आदेश वितरित किए जाने लगे।
  6. अवज्ञा करने वालों के लिए देवी-प्रकोप की भविष्यवाणी की जाने लगी।
  • इन्हीं नियमों के साथ आंदोलन संथालो व अन्य आदिवासियों के बीच प्रचारित होने लगा। उधर ब्रिटिश सरकार ने आंदोलन का दमन करने हेतु गिरफ्रतारी का दौर प्रारम्भ किया।
  • खरवार आंदोलन के दो प्रमुख नेता भागीरथ मांझी एवं ज्ञान परगनैत को गिरफ्तार कर लिया गया परन्तु इससे आंदोलन कमजोर नहीं पड़ा अन्ततः दोनों आदिवासी नेताओं को छोड़ना पड़ा।
  • इसके पश्चात् आंदोलन और जोर पकड़ लिया। यह आंदोलन संथाल परगना की सीमा को पार कर हजारीबाग तक विस्तृत हो गया।
  • हजारीबाग परिक्षेत्र में इस आंदोलन के नेतृत्व कर्ता जगेश्वर निवासी ‘दुबु बाबा’ ने किया। किन्तु इनकी भविष्यवाणिया गलत हो गयी जिससे लोगों के मन में निराशा के भाव उत्पन्न हुए। इनके अश्वासन पर की तीन वर्ष में फसल अच्छे हो जाएंगे।
  • एक दिन दुबु बाबादान स्वरूप धन लेकर अदृश्य हो गए और आंदोलन दिशाहीन हो गया। परन्तु इस आंदोलन की व्यापकता गिरीडीह, गोविदपुर एवं राँची जिले तक हो गया था किन्तु यह आंदोलन प्रभावी नहीं हो सका।
  • खरवार आंदोलन पुनः दुविधा गोंसाई के नेतृत्व में 1881 ई. में जनगणना के विरुद्ध खड़ा हुआ किन्तु इन्हें गिरफ्रतार कर लिया गया तथा आंदोलन समाप्त हो गया।

मुण्डा उलगुलान/बिरसा आंदोलन (1899-1900 ई.)

  • बिरसा आंदोलन 19वीं के आदिवासी आंदोलन में सर्वाधिक संगठित एवं व्यापक आंदोलन था जो 1899-1900 ई. के मध्य झारखण्ड के रांची जिले के दक्षिणी भाग में हुआ।
  • यह आंदोलन धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित था। इस आंदोलन की उत्पत्ति सामूहिक भू-स्वामित्व व्यवस्था का जमींदारी या व्यक्तिगत भू-स्वामित्व व्यवस्था में परिवर्तन आंदोलन को ‘मुण्डा उलगुलान’ (मुण्डा महानविद्रोह) कहा जाता है।
आंदोलन उद्भव के कारण
  • बिरसा या मुण्डा उलगुलान आंदोलन के उद्भव के निम्नवत् कारण थे-
  1. प्रचलित सामूहिक भू-स्वामित्व वाली भूमि व्यवस्था जिसे खूँटकट्टी व्यवस्था कहा जाता है, को समाप्त कर उसके स्थान पर व्यक्तिगत भू-स्वामित्व व्यवस्था को लाना। यह कार्य बाहर से आने वाले व्यापारी, साहूकार, जमींदार, ठेकेदार आदि ने किया।
  2. बेठ बेगारी (बधुआ मजदूर) के माध्यम से दिकुओं (बाहरी लोग या गैर आदिवासी) द्वारा मुण्डाओं का शोषण।
  3. मिशनरियों द्वारा झूठा आश्वासन कि ईसाई धर्म में परिवर्तित होने के पश्चात् आदिवासियों के भूमि संबंधी समस्या का समाधान किया जाएगा। किन्तु ऐसा नहीं हुआ अतः आदिवासी वर्ग अपने को ठगा महसूस करते थे।
  4. अदालतों में आदिवासियों हेतु कोई न्याय व्यवस्था का न होना। अदालत के माध्यम से दिकू के खिलाफ इन्हें निराशा हाथ लगती थी।
  5. इस आंदोलन का सर्वाधिक प्रमुख एवं तात्कालिक कारण था 1894 का छोटानापुर वन सुरक्षा कानून जिसके तहत आदिवासियों के निर्वाह के प्रमुख साधन वन से वंचित होना पड़ा। ये भूखे रहने लगे। यही कारण था कि ये आंदोलन करने को विवश को गए। इनके सामने ‘करो या मरो’ की स्थिति थी।
  6. इस आंदोलन के नायक बिरसामुण्डा थे। इस आंदोलन की शुरुआत सामान्यतः 1893-94 में हुआ जब वन विभाग द्वारा गाँवों के बंजर जमीन को अपने कब्जे में अधिग्रहित कर लिया, परन्तु उस समय बिरसा मुण्डा, मुण्डा जनजाति के लोगों को संगठित नहीं कर पाया।
  • विरसा लोगों को संगठित करने हेतु 1895 में एक नए धर्म का प्रतिपादन किया जिसका नाम ‘सिंगबोगा धर्म’ था।
  • इसने सिंगबोंगा धर्म से एकेश्वरवाद की कल्पना की। इसने अनेक देवी-देवताओं (बोंगाओं) के स्थान पर एक देववाद सिंगबोंगा की आराधना करने का संदेश दिया।
  • इस धर्म के आधार पर वह मुण्डा जनजाति के लोगों को संगठित करना चाहता था। इसने इस धर्म के विकास हेतु कुछ सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जिससे लोगों का आत्मशुद्धि हेतु उच्चतर नैतिक आचरण का पालन करना था।
  • इसने अपने को सिंगबोंगा का दूत घोषित किया तथा यह प्रचारित किया कि सिंगबोंगा ने किसी भी व्यक्ति के रोगनिवारण हेतु उसमें चमत्कारिक एवं रहस्यात्मक शक्तियों को प्रदान किया है। इसके धीरे-धीरे बहुत अनुयायी हो गए।
  • इन अनुयायियों को तीर-धनुष, तलवार आदि चलाने के प्रशिक्षण कार्य को ‘गया मुण्डा’ को सौपा। साथ ही गया मुण्डा को सेनाध्यक्ष नियुक्त किया।
  • इसने यथाशीघ्र 6000 मुण्डाओं का दल तैयार कर लिया। इसने इस धार्मिक आंदोलन को किसानों, मजदूरों आदि को राजनीतिक आंदोलन में परिवर्तित कर दिया। इसने मुण्डाओं को लगान न देने का आदेश दिया।
  • सन् 1895 ई. में बिरसा मुण्डा ने शस्त्र विद्रोह की योजना बनायी थी, परन्तु 24 अगस्त, 1895 को अंग्रेज अधिकारी मेयर्स द्वारा ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र करने के आरोप में गिरफ्रतार कर लिया गया।
  • 30 नवम्बर, 1897 को उन्हें ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती मनाने के अवसर पर मुक्त कर दिया गया। इस दौरा विरसा मुण्डा को हजारीबाग जेल में रखा गया था।
  • बिरसा मुण्डा के रिहा होने के पश्चात् अपने अनुयायियों के साथ और अधिक उत्साह के साथ गतिविधियों को तेज कर दिया। इसने डुंबारू बुरू में अपने विश्वासपात्र लोगों, मंत्रियों एवं प्रतिनिधियों की एक सभा बुलाई जिसमें 25 दिसम्बर, 1899 को विद्रोह करने का निर्णय लिया गया।
  • 24 दिसम्बर, 1899 ई. को क्रिसमस की पूर्व संध्या पर मुण्डा जाति के शासन स्थापित करने का घोषणा किया। उसने ईसाईयों, ठेकेदारों, जमींदारों, राजाओं आदि की हत्या करने का आह्वान किया।
  • उसने घोषणा किया की- ‘दिकुओं से अब हमारी लड़ाई होगी तथा उनके रक्त से भूमि इस प्रकार लाल होगा जिस प्रकार लाल झण्डा होता है’। इस आंदोलन में महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। बिरसा के अनुयायियों ने अपने परम्परागत हथियार तीर-धनुष से विद्रोह शुरू कर दिया। ईसाई गिरजाघरों में आग लगाना प्रारम्भ हो गया।
  • यह आंदोलन बिरसा के नेतृत्व में खूंटी, राँची, तमाड़, वसिया, चक्रधरपुर आदि जगहों पर हुआ। इन्होंने ‘दोन्का मुण्डा’ को राजनीतिक एवं ‘सोमा मुण्डा’ को धार्मिक-सामाजिक मामलों का प्रमुख बनाया।
  • इस आंदोलन में बिरसा मुण्डा के प्रमुख सलाहकार के रूप में जोहन मुंडा, रीड़ा मुण्डा, टीपरू मुण्डा, हथेराम मुण्डा, पडु मुण्डा, डेमका मुण्डा आदि थे। इस आंदोलन का मुख्यालय खूंटी था।
  • इस आंदोलन में तोपरा, बुडू, खूंटी, रांची, वसिया, सिसई आदि क्षेत्रें में सैनिक सक्रिय थे। इस आंदोलन को सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने कलकत्ता से प्रकाशित पत्र ‘बंगाली’ में प्रमुखता से प्रकाशित किया।
  • आंदोलनकारियों ने पुलिस बल को अपना निशाना बनाया। इस विद्रोह का दमन करने हेतु कमिश्नर फारबेस एवं डिप्टी कमिश्नर स्ट्रीट फील्ड पहुँचे।
  • इनका एवं आंदोलनकारियों का युद्ध सलैर कब पहाड़ी (डुमरी पहाड़ी) पर लड़ा गया जिसमें आंदोलनकारी पराजित हुए। गया मुण्डा इटकी में मारा गया।
  • 3 फरवरी, 1900 ई. में बदगाँव के जगमोहन सिंह के आदमी वीर सिंह महली आदि ने 500 रुपया इनाम के लालच में बिरसा मुण्डा को गिरफ्तार करवा दिया। बिरसा मुण्डा की 9 जून, 1900 ई. को राँची जेल में हैजा से हुई।
बिरसा मुण्डा आंदोलन के परिणाम
  • इतिहासकार बिरसा आंदोलन को स्वस्थ क्रांतिकारी आंदोलन का दर्जा देते है। इस तरह से कई इतिहासकार बिरसा आंदोलन का प्रथम राष्ट्रीय आंदोलन का दर्जा देते हैं।
  • बिरसा आंदोलन का प्रभाव सिर्फ झारखंड में ही नहीं पूरे देश में ब्रिटिश की शोषणात्मक प्रवृत्ति की आलोचना की गई।
  • 1902-03 में क्रमशः गुमला व खूँटी में अनुमंडल खोले गये और बंगाल कास्तकारी कानून की जगह 11 नवंबर, 1908 को छोटानागपुर काश्तकारी कानून (सीएनटी एक्ट बनाया गया।) लाया गया।
  • इस अधिनियम के तहत सामूहिक काश्तकारी व्यवस्था को पुनर्स्थापित किया गया। बंधुआ मजदूरी (बेठ बेगारी) पर प्रतिबंध लगा दिया गया तथा लगान की दरें कम कर दी गयी।
बिरसा मुण्डा का जीवन
  • सरदारी लड़ाई के रूप में आदिवासियों ने झारखंड में संघर्ष किया। लेकिन कोई लाभ नहीं मिला और पूरे छोटानागपुर में असंतोष व्याप्त रहा।
  • जब सरदारी आंदोलन के प्रथम चरण में लाला लोकनाथ द्वारा भूईहरी सर्वेक्षण चल रहा था। उसी समय 15 नवंबर, 1875 को गुरुवार दिन था।
  • गडेरिया उलिहातू में तमाड़ थाना के अंतर्गत बिरसा का जन्म हुआ। बिरसा की माँ का नाम कदमी था जो अयुबहातु के डिबरमुंडा की सबसे बड़ी बेटी थी। बिरसा के पिता का नाम सुगना मुण्डा था।
  • सुगना एक गरीब किसान था और अपने बेटे का लालन-पालन करने में सक्षम नहीं था। अतः 1881 में 5-6 वर्ष की उम्र वह नानी घर (अयुबहातु) चला गया। वहीं पर बिरसा का लालन-पालन हुआ।
  • अयुबहातु से उसकी छोटी मौसी जोनी उसे अपने ससुराल खरंगा ले गई। जहाँ वह एक ईसाई धर्म प्रचारक के संपर्क में आया और वहीं से पढ़ना लिखना प्रारंभ किया। पढ़ने में बिरसा उर्फ दाउद मुंडा बेहद ही कुशाग्र था। पढ़ने-लिखने में वह लीन हो जाता था।
  • एक बार की कहानी है जब बिरसा बकरी चराने के क्रम एक भेडि़या ने उसके बकरी को खा गया अतः इस घटना से वह बहुत दुःखी हुआ और अपने बड़े भाई कोंता मुंडा के पास चला गया तथा वहीं से बिरसा ज्ञान की खोज करने लगा और ज्ञान की खोज के लिए बिरसा गैड़बेड़ा के आनंद पांडा-नामक ब्राह्मण के घर में काम करने लगा।
  • आस-पास के गाँव के बच्चे आनंद पंडा/पाण्डेय के पास पढ़ने आते अतः बिरसा भी साथ में पढ़ने लगा और यही पर वो राम, कृष्ण, अर्जुन, भीम की कथा सुनी और उससे अत्यधिक प्रभावित हुआ।
  • बिरसा अच्छा बाँसुरी बादक व तीरंदाज था। वह एक अच्छा संगठन कर्ता का गुण भी रखता था क्योंकि गैड़बेड़ा के बाँध के मरम्मत के समय उसने कुशल नेतृत्व का परिचय दिया और अपने गुरु का प्रतिनिधित्व भी किया और इसी समय गुरु ने उसकी महान बनने की संभावना व्यक्त कर दी।
  • जब वह 10 वर्ष का था तो एक आदमी के साथ बारजो चला गया और वहीं पर प्राथमिक शिक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण की।
  • 1886 में वह चाईबासा चला गया और उच्च प्राथमिक स्तर की परीक्षा 1890 में पास किया। इस समय इनकी उम्र 15 वर्ष थी।
  • यहाँ के मिशन स्कूल का वातावरण दमघोट ज्ञान पड़ता था। क्योंकि पादरीगण आदिवासी धर्म व संस्कृति की हमेशा शिकायत करते रहते थे। जल्द ही वह अपने माता पिता के साथ चला गया।
  • वहीं पर वैष्णव साधु से मुलाकात हुई और यह वैष्णव धर्म को अपना लिया और शुद्ध शाकाहारी बन गया। चंदन तिलक लगाने लगे, तुलसी की पूजा करने लगे और उनके अनुयायी समझने लगे कि बिरसा को विष्णु का दर्शन हो गया है। इस तरह बिरसा व्यक्तित्व प्रचारित होने लगा।
  • धीरे-धीरे उसने मुंडा, वैष्णव, ईसाई धर्म के दर्शनों का मिला-जुला एक धर्म चलाया, जिसे बिरसा धर्म कहा गया। इसके प्रथम अनुयायी वयापीरी के आदिवासी लोग थे।
  • बिरसा अब तक धर्म उपदेशक बन गया। इसने अपने उपदेशों व व्याख्यानों में कहने लगे कि:
  1. वह धरती आबा है।
  2. वह संसार की सारी शक्ति प्राप्त कर लिया है।
  3. वह बिमारियों को ठीक कर सकता है।
  4. परोपकार सबसे बड़ा धर्म है।
  5. इस ब्रह्मांड का निर्माण सिंगबोगा।
  6. इंडिया व शराब अच्छा नहीं है।
  • सभी कोई यज्ञोपवीत (जनेउ) धारण करें तथा अपना दृश्य को शुद्ध रखे और केवल सिंगबोंगा को धारण करें।
बिरसा मुंडा से संबंधित प्रमुख तथ्य
  • जन्म: 15 नवम्बर, 1875
  • जन्मस्थान: उलिहात् गाँव (जिला रांची, खूंटी अनुमण्डल)
  • पिता का नाम: सुगना मुण्डा
  • माता का नाम: कादमी मुण्डा
  • नामकरण: वृहस्पतवार को जन्म लेने कारण बिरसा नाम रखा गया।
  • बचपन का नाम: दाउद मुण्डा
  • गुरु का नाम: आनन्द पाण्डेय
  • बड़े भाई का नाम: कोन्ता मुण्डा
  • प्रारम्भिक गुरु: जयपाल नाग
  • प्रारम्भिक शिक्षा: जर्मन एवेजलिक चर्च द्वारा संचालित विद्यालय
  • विद्रोह का नाम: मुण्डा विद्रोह (उलगुलान)
  • प्रारम्भिक संक्रियता: छात्र जीवन में चाईबासा में चल रहे भूमि आंदोलन में शामिल।
  • मुण्डा विद्रोह का क्षेत्र: रांची, सिंहभूम
  • विद्रोह का मुख्यालय: खुंटी
विद्रोह के कारण
  • राजस्व दर ऊँचा होना
  • ईसाई मिशनरियों की दोषपूर्ण नीति।
  • जमींदारों एवं साहूकारों की शोषक नीति
  • बिरसा के सहयोगी
  • गया मुण्डा (सेनापति)
  • सोमा मुण्डा (धार्मिक सामाजिक शाखा के प्रमुख)
  • दोन्का मुंडा (राजनीति शाखा प्रमुख)
विद्रोह का महत्त्व
  • 1908 में छोटानागपुर में टेनेंसी एक्ट बनाना।
  • गुमला एवं खूंटी अलग अनुमण्डल की स्थापना।
  • नये न्यायालय की स्थापना
  • रांची जिले का सर्वेक्षण
बंधुआ मजदूरी (बेठ बेगारी) पर प्रतिबंध
  • बिरसामुण्डा का उपनाम: विरसा भगवान, धरती आबा (धरती के पिता)
  • मुण्डा आंदोलन में संस्कृति का मिश्रण: हिन्दू, इसाई, मुण्डा
  • मुण्डा आंदोलन के गीत: ‘कटोंग बाबा कटोंग’
  • भगवान का दूत: 1895 (सिंगबोंगा का दूत)
  • एकेश्वरवाद का विकास: एकेश्वरवाद के विकास के लिए सिंगबोंगा के आराधना
  • मुण्डा को गिरफ्रतार करने वाला पुलिस: 1895, जी. आर. के. मेयर्स अधिकारी
  • बिरसा मुण्डा आन्दोलन के मुख्य पदाधिकारी: पण्डु मुण्डा, जोहन मुंडा रीढ़ा मुण्डा, दुखन स्वासी, हाथी राम मुण्डा, डेमकी मुण्डा, ठेपरु मुण्डा।
  • बिरसा मुण्डा के जीवन पर आधारित ‘अख्येर अधिकार’ उपन्यास के लेखक: महाश्वेता देवी, 1975 ई.।

ताना भगत आंदोलन (1914 ई.)

  • यह आंदोलन 1895 ई. में सरदारी आंदोलन एवं 1900 ई. में बिरसा आंदोलन की विफलता से जन्मा है। यह एक बहुआयामी आंदोलन था इसके नायक भी अपनी सामाजिक अस्मिता, धार्मिक परंपरा एवं मानवीय अधिकारों के मुद्दे को लेकर आगे आये थे।
  • सरदारी आंदोलन एवं बिरसा आंदोलन कि विफलता के पश्चात् सरकार को सोचने हेतु विवश कर दिया कि जरूर कहीं-न-कहीं गड़बड़ी है जिसके कारण आंदोलन हो रहे हैं।
  • अतः (सीएनटी एक्ट) पारित किया गया लेकिन आदिवासी पर जुल्म शोषण कम नहीं हुआ और इन्हीं क्रांतिकारी तत्त्वों ने ताना भगत आंदोलन को जन्म दिया।
  • ताना भगत आंदोलन की शुरुआत सन् 1914 में हुई। ताना भगत किसी व्यक्ति का नाम नहीं, बल्कि उराँव जनजाति की एक शाखा थी, जिसने कुडुख धर्म अपनाया था। ताना शब्द का अर्थ-तानना या खींचना है। अर्थात् ये भगत अपनी उन्नत अवस्था लाने हेतु गिरी हुई अवस्था को खींच कर फेंकना चाहते थे।
  • यह आंदोलन एक प्रकार से सांस्कृतिक आंदोलन था। इन आदिवासी वर्गों की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी तथा इनसे अधिकांशतः श्रम कार्य ही करवाए जाते थे।
  • इस प्रकार इस आंदोलन के माध्यम से अंग्रेजी राज्य का अत्याचार, जमींदारों की बेगारी, अंधविश्वास आदि से इन आदिवासियों को बचाना था।
  • ताना भगत आंदोलन का प्रारम्भ धार्मिक आर्थिक आंदोलन के रूप में हुआ जो आगे चलकर राजनैतिक आंदोलन (भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गया) हो गया।
  • ताना भगत आंदोलन के जनक जतरा भगत थे। इनका जन्म 2 अक्टूबर, 1888 गुमला जिले के विशुनपुर प्रखंड के अंतर्गत चिगरी नावाडोली में हुआ। इसके पिता का नाम कोहरा भगत, माता-लिबरी भगत, पत्नी, बुधनी भगत थी।
  • जतरा भगत गुरु ग्राम हंसराग के श्री तुरिया भगत से तंत्र-मंत्र विद्या सीखते थे बड़ी बीमारियाँ ठीक हो सकती है लोगों का आत्मविश्वास लौट सकता है तो क्यों नहीं इनके माध्यम से समाज में व्याप्त अत्याचार रूपी बीमारी को भी ठीक किया जाए। इस तरह जतरा उराँव जतरा भगत बन गए।
  • इन्होंने ने 21 अप्रैल 1914 को आंदोलन प्रारम्भ किया तथा अंग्रेजी राजमें व्याप्त भ्रष्टाचार, अंधविश्वास, कुरीतियों, बेगारी आदि से उत्पीडि़त आदिवासियों को सन्मार्ग दिखाने का संकल्प लिया।
  • उन्हें धर्मेश (ईश्वर) के दर्शन हुए है तथा उन्होंने जनजातियों का नेतृत्व सौपा है। इन्होंने आदिवासियों में नैतिक आचरण लाने हेतु एवं धार्मिक भावनाओं को जाग्रत करने के लिए नियम बनाए। इनके अनुसार निम्नवत् नैतिक आचरण को जीवन पद्धति बना है-
  1. इन्होंने एकेश्वरवाद पर बल दिया। इनके अनुसार केवल धर्मेश की आराधना की जाए।
  2. मांस-मदिरा, पशु-बलि का परित्याग किया जाए।
  3. गाय एवं बैल से काम न लिया जाए क्योंकि ये पवित्र है।
  4. गैर आदिवासियों, गैर धर्मावलम्बियों, एवं जमींदारों के यहाँ आदिवासी वर्ग कार्य या मजदूरी न करे।
  5. आदिवासी समुदाय के नृत्य पर पाबंदी लगा दी।
  6. झूम खेती वापस लेने की वकालत की।

जतरा भगत के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे-

  1. स्वशासन का अधिकार।
  2. राजा का पद समाप्त कर दिया जाए।
  3. समानता स्थापित हो।
  4. भूमि ईश्वर प्रदत्त है। इसलिए कर समाप्त किया जाए।
  5. ताना भगत आंदोलन से जुडे़ अन्य व्यक्ति
  6. हनुमान उराँव
  7. देवमनियाँ भगत (महिला)
  8. शिबू भगत
  9. बलराम भगत (गौरक्षणी भगत संप्रदाय)
  10. भिखू भगत (विष्णु भगत संप्रदाय)
  • जतरा भगत द्वारा आरंभ किया गया आंदोलन संपूर्ण उराँव प्रदेश में बहुत तेजी से फैला और लोगों ने जमींदारों और गैर-आदिवासियों का काम बंद कर दिया। अतः भगत पर तथा उसके साथ अनुयायिायों पर गुमला अनुमंडल पदाधिकारी के कचहरी की कक्षा में एक वर्ष की सजा सुनाई गई।
  • 1917 में जतरा भगत जेल से बाहर निकले। लेकिन जेल में मिली प्रताड़ना के कारण बाहर आने के 2 महीने बाद उनकी मृत्यु हो गई इस तरह जतरा भगत नेपथ्य हो गए। परंतु उनका आंदोलन फलता फूलता रहा और इस आंदोलन को कई अनुयायियों ने नेतृत्व प्रदान किया।
  • अतः महात्मा गाँधी 1921 में असहयोग आंदोलन छेड़ा तो कुडु थाना के अंतर्गत सिद्धु भगत के नेतृत्व में ताना भगत पहली बार स्वंतत्रता आंदोलन में शामिल हो गए।
  • ताना भगतों की दृष्टि में गाधी, जतरा भगत तथा भगवान बिरसा मुंडा के मूल उद्देश्यों में विशेष अंतर नहीं था। ताना भगत अब कांग्रेस के कई अधिवेशनों के भाग लेने लगे थे।
  • कई लंबी पैदल यात्र भी की कोलकाता, लाहौर तक पैदल यात्र की ताना मानते थे कि गाँधी के रूप में जतरा भगत का जन्म हुआ है, गाँधी टोपी पहनते शंख व घंटी बजाते थें जो गाँधी को अत्यंत प्रिय लगता था। इस तरह ताना भगत ने देश की आजादी में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
ताना आंदोलन के प्रमुख तथ्य
  • ताना भगत आंदोलन का मुख्य क्षेत्र घाघरा, विशनपुर, चैनपुर, रायडीह, सिसई, कुड्, मारंड आदि था।
  • घाघरा में इस आंदोलन का नेतृत्व बलराम भगत ने किया।
  • किशनपुर में इस आंदोलन का नेतृत्व भिखु भगत ने किया।
  • 1921 ई- में महात्मा गाँधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन में ताना भगतों ने सर्वप्रथम ‘सिद्धु भगत’ के नेतृत्व में भाग लिया।
  • ताना भगतों ने कांग्रेस के 1922 ई. के गया अधिवेशन में तथा 1923 ई. के नागपुर अधिवेशन में भाग लिया।
  • महात्मा गाँधी ने ताना भगतों को 1940 ई. के रामगढ़ अधिवेशन में 400 रु. की थैली भेंट की।

हरि बाबा आंदोलन (1931 ई.)

  • आंदोलन की शुरुआत 1930 के दशक सिंहभूम क्षेत्र में हुआ। इस आंदोलन के नेतृत्वकर्ता ‘दुका हो’ थे जिन्हें हरिहरबाबा के नाम से जाना जाता था। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य था छिन्न-भिन्न होती हुई धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था को सुदृढ़ करना।
  • इस आंदोलन में हो जनजाति के लोगों को बाहरी लोगों के अत्याचार से बचने हेतु संगठित करना, इस आंदोलन में सरना धर्म की प्रचार प्रसार किया गया। इस आंदोलन के अन्य सहयोगी थे-
  1. सिंगराई हो (भूमगाँव)
  2. बामिया हो (भडाहातू क्षेत्र)
  3. बिरजो हो, हरि हो (गाडिया क्षेत्र)
  4. दुला हो
  • हरिहरबाबा इस आंदोलन में गाँधीजी के शस्त्र आत्म शुद्धि एवं त्याग को अपनाया। यह आंदोलन गाँधीजी के प्रभाव में राजनीतिक हो गया।
  • इस आंदोलन कि उग्रता सिंहभूम क्षेत्र में 15 मई, 1931 ई. देखने को मिला जिसके तहत आंदोलनकारियों ने टेलीग्राफ के तारों को उखाड़ फेका। बाद में सरकार आंदोलन का दमन कर दिया।

आदिवासियों के विद्रोह का क्या नाम था?

मुंडा आदिवासीयों ने 18वीं सदी से लेकर 20वीं सदी तक कई बार अंग्रेजी सरकार और भारतीय शासकों, जमींदारों के खिलाफ विद्रोह किये। बिरसा मुंडा के नेतृत्‍व में 19वीं सदी के आखिरी दशक में किया गया मुंडा विद्रोह उन्नीसवीं सदी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण जनजातीय आंदोलनों में से एक है। इसे उलगुलान(महान हलचल) नाम से भी जाना जाता है।

झारखंड का प्रथम जनजातीय विद्रोह कौन सा था?

ढाल विद्रोह - यह झारखण्ड राज्य का पहला जनजाति विद्रोह है जिसकी शुरुआत वर्ष 1767 में हुआ। ढाल विद्रोह का नेतृत्व ढालभूम के राजा जगन्नाथ ढाल ने किया।

झारखंड में सर्वप्रथम विद्रोह कहाँ हुआ था?

आरम्भ Begining Of 1857 Revolt In Jharkhand- झारखंड में सिपाही विद्रोह का आरंभ तत्कालीन संताल परगना जिला के रोहिणी गाँव में हुआ था। यह स्थान आज देवघर जिला के जसीडीह के निकट अजय नदी के किनारे स्थित है। इसकी 12 जून 1857 को 5वीं देशी अनियमित घुड़सवार सेना के कुछ जवानों ने किया था

झारखंड में कुल कितने विद्रोह हुए थे?

अंग्रेजों के समय झारखंड क्षेत्र में कुल 13 विद्रोह हुए जिनमें से कुछ प्रमुख विद्रोहों का उल्लेख किया गया है।