पूज्य पिता के सहज सत्य पर, वार सुधाम, धरा, धन को, सीता बोलीं कि "ये पिता की, आज्ञा से सब छोड़ चले, "क्या कर्तव्य यही है भाई?" लक्ष्मण ने सिर झुका लिया, चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में, पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना, किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये, मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है, कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता; क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध
निशा; है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर, |