ग्रामीण स्थानीय शासन की व्यवस्था स्वतंत्र भारत में प्रथम बार कब हुई? - graameen sthaaneey shaasan kee vyavastha svatantr bhaarat mein pratham baar kab huee?

ग्रामीण स्थानीय शासन की व्यवस्था स्वतंत्र भारत में प्रथम बार कब हुई? - graameen sthaaneey shaasan kee vyavastha svatantr bhaarat mein pratham baar kab huee?

History of Local Self-Government in India: भारत गांवों का देश है। यहां आज भी लगभग 65% जनसंख्या गांवों में निवास करती है। गांव हमारी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति का केंद्र रहे हैं। प्राचीन धर्मग्रन्थों में ग्रामसभाओं की बैठकों का विस्तार से वर्णन मिलता है।

तो आइए, आज इस ब्लॉग में अपने पूर्वजों की स्थानीय व्यवस्था को विस्तार से जानें। इस ब्लॉग में हम भारत में स्थानीय स्वशासन का इतिहास को भी जानेंगे। 

गौरतलब है कि प्राचीन काल में गांवों का जैसे-जैसे विकास होता गया,  गांव का प्रशासन चलाने के लिए लोगों को प्रशासन की जरुरत महसूस हुई। इसी आवश्यकता को पूरा करने के लिए गांवों में स्वतंत्र शासन-व्यवस्था की स्थापना हुई जिसे स्वशासन (self-government) की संज्ञा दी गई।

प्राचीन स्थानीय स्वशासन की विशेषताएं (Features of ancient local self-government)

गांव के स्वशासन (self-government) के मुखिया विभिन्न नामों जैसे- ग्रामणी, ग्रामधिपति, रेड्डी और पंचमंडली से जाना जाता था। शासन से जुड़े रोजमर्रा के निर्णय ग्रामसभा में ही होते थे। राजा भी ग्रामसभाओं के निर्णयों का सम्मान करता था। 

मनुस्मृति के अनुसार मनु ने शासन व्यवस्था के सुचारू रूप से संचालन के लिए एक गाँव, दस गाँव, सौ गाँव और एक हजार गाँवों के अलग-अलग संगठन बनाए, जिन्हें आज के संदर्भ में क्रमशः ग्राम, ब्लॉक, तहसील और जिला स्तर के समकक्ष माना जा सकता है।

ग्रामीण स्थानीय शासन की व्यवस्था स्वतंत्र भारत में प्रथम बार कब हुई? - graameen sthaaneey shaasan kee vyavastha svatantr bhaarat mein pratham baar kab huee?

वैदिक काल में स्वशासन (Self-government in the Vedic period)

वैदिक काल में ग्रामीण शासन महत्वपूर्ण माना जाता था। गांव की पंचायतें गांव के लोगों द्वारा संगठित होती थी। प्रशासकीय और न्याय संबंधित कार्य भी इन्हीं द्वारा संपन्न होती थी। वैदिक मंत्रों में भी गांवों की समृद्धि के लिए अनेक प्रार्थनाओं का जिक्र है।

वेदों में ग्राम अधिकारी को ‘ग्रामणी’ (‘Gramani’) कहा गया है। वैदिक काल में राज्य छोटे-छोटे होते थे, इस कारण ग्रामों का महत्व और भी बढ़ गया था।

वैदिक काल में गांव के शासन को ‘सभा’ या ‘समिति’ के नाम से जाना जाता था। गांव के मुखिया को ‘ग्रामणी’ या ग्रामाधिपति’ कहते थे। गांव की शासन व्यवस्था को इन्हीं के माध्यम से चलाया जाता था।

ग्रामणी‘Gramani’ के चयन के बारे में वेदों में स्पष्ट रुप से उल्लेख तो नहीं मिलता है, लेकिन इतिहासकारों का कहना है कि ग्रामणी की नियुक्ति राजा के द्वारा की जाती थी। यह पद प्रायः वंशानुगत ही होता था। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि ग्रामणी का चुनाव ग्राम-परिषद द्वारा किया जाता था।

मनुस्मृति में ग्राम परिषद के सम्बन्ध में स्पष्ट और विस्तृत नियम मिलते हैं। वैदिक काल में लोग प्रतिनिधित्व के सिद्धांत का आदर करते थे। राज्याभिषेक के अवसर पर गांव का मुखिया प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित रहता था।

‘ग्रामणी’ के माध्यम से ही राजा ‘राज्य के कानूनों’ को गांव में लागू करवाता था। गांव के मुद्दों का निर्णय करना भी उसी का उत्तरदायित्व था। इस प्रकार वैदिक युग में राज्य-शासन में ‘ग्रामाधिपति’ 'Village President' का महत्वपूर्ण स्थान था।

बौद्ध काल में स्वशासन (Self-government in the Buddhist period)

बौद्ध काल में गांवों की शासन-व्यवस्था सुगठित और सुदृढ़ थी। गांव के शासक को ग्राम-योजक कहते थे। ग्राम-योजक का पद बहुत ही महत्वपूर्ण था। ग्राम संबंधित सभी मामले को सुलझाने का काम ग्राम-योजक के ऊपर था। वह गांव की सभी छोटी-बड़ी समस्याओं को अपने स्तर पर सुलझाने का प्रयत्न करता था। यदि ग्राम-योजक अपने क्षेत्र में स्वेच्छाचारी शासक बन जाता था तो उसके कार्यों के विरूद्ध राजा के पास अपील भी की जा सकती थी।

गांव के मुखिया(mukhiya) की सहायता के लिए एक मुनीम की व्यवस्था होती थी जो गांव के कार्यों आदि का लेखा-जोखा तैयार करता था। इस काल में कई गांवों को मिलाकर ग्राम-परिषद बनती थी, जिसमें महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा होती थी।

इस काल की दिलचस्प बात है कि मुखिया का स्थान ग्रामीण प्रशासन में महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ राजा की सभा में महत्वपूर्ण था। ग्राम पंचायतों को ग्रामसभा कहा जाता था और इसका मुखिया ग्राम-योजक कहलाता था, जिसका चुनाव ग्रामीणों द्वारा होता था।

मौर्य काल में स्वशासन (Self-government in the Maurya period)

मौर्य शासन में प्रत्येक गांव में एक सभा होती थी जो गांव के सभी मामलों देखती थी। एक गांव में सौ से पांच सौ परिवार होते थे। पूरे समुदाय के लिए कानून बनाए जाते थे। नियमित न्याय-प्रक्रिया और जांच में अपराधियों को दंडित किया जाता था। 

गांव की विविध गतिविधियों का केंद्र ग्रामसभा होती थी जिसमें गांव के परिवारों के प्रतिनिधि, वृद्ध और अनुभवी लोग हिस्सा लेते थे। ग्रामसभा या पंचायतें सार्वजनिक हित की योजनाएं भी बनाती थी। ये सभाएं सिंचाई की नहरों और तालाबों का निर्माण व देख-रेख का काम भी करती थी। ग्राम सभाओं को अतिरिक्त कर और चुंगी लगाने का भी अधिकार था।

यहां यह भी जिक्र करना आवश्यक है कि ग्रामसभा की महत्ता देखते हुए सभी राजाओं ने शासन-प्रणाली को सुविधाजनक बनाने के लिए स्थानीय प्रशासन हेतु विकेंद्रीकरण की निति को अपनाया। यहाँ दिलचस्प बात है कि इतिहास में बिम्बसार की सभा में 80 हजार ग्रामधिपतियों को आमंत्रित किए जाने का भी जिक्र है।

मौर्य काल में प्रशासन में बीस गांवो का मुखिया बीसाती, सौ ग्रामों का शत-ग्रामधिपति और इसके ऊपर सहस्र ग्रामधिपति कहा जाता था। इन सभी की नियुक्ति राजा के द्वारा होती थी।

गुप्तकाल में स्वशासन (Self-government in the Gupta period)

गुप्तकाल के दौरान भी मौर्य कालीन जैसी ही ग्रामसभा थी परन्तु इस दौरान पंचायतों के नाम में परिवर्तन किए गए, इसके अन्तर्गत जिला ग्रामों में विभाजित किया। ग्राम प्रशासन हेतु प्रत्येक ग्राम में एक मुखिया होता था जिसे ‘ग्रामिक’, ‘ग्रामपति’ अथवा ‘ग्रामहत्तर’ आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता था। गुप्त काल में ग्राम परिषद, ग्रामसभा, ग्राम पंचायत और पंचमंडली अथवा ग्राम जनपद होती थी।

ग्रामीण प्रशासन सार्वजनिक उपयोग के कामों के साथ-साथ गांव की सुरक्षा, झगड़ों का निर्णय, राजस्व वसूली, सिंचाई एवं परिवहन की व्यवस्था करता था। गांव की भूमि और अन्य चल-अचल संपत्ति ग्रामसभा एवं ग्राम पंचायत की स्वीकृति से ही बेची अथवा दान दी जा सकती थी। 

इस काल के दौरान स्वयं चन्द्रगुत द्वितीय के सेनापति अम्रकादेव को एक गाँव का दान करने के लिए ग्राम पंचायत की अनुमति लेनी पड़ी थी। ग्राम-सभा उद्यान, सिंचाई और मंदिर आदि की व्यवस्था हेतु उपसमितियों का गठन करती थी।

गुप्त काल में ‘ग्रामसभा’(Gram Sabha) की निगरानी के लिए राजा द्वारा शाही अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी। ये शाही अधिकारी राजा के फरमान को ग्रामसभाओं में सुनाते थे। ग्रामसभा की सहायता से शाही अधिकारियों द्वारा न्याय किया जाता था। कुछ मामलों में तो ग्रामसभा की न्याय संबंधित कार्यों को संपादित करती और सजा सुना देती थी।  न्याय-व्यवस्था का पंचायतों में अनुभवी और वृद्धजनों को वरीयता दी जाती थी।

मध्य काल(मुगलकाल) में स्वशासन (Self-government in Mughal period)

मध्यकालीन भारत में विदेशी आक्रमणों से युद्ध और विनाश, विद्रोह और उनके क्रूर दमन का माहौल रहा। नए विदेशी शासक मुख्य रुप से सैन्य शक्तियों पर निर्भर करते थे किन्तु ग्रामीण स्थानीय स्वशासन की निरंतरता बनी रही। किन्तु कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इस काल की शासन व्यवस्था में नगरों पर अधिक ध्यान दिया गया जिससे पंचायतों की शक्तियां कम हो गई।

इस काल में जमींदारी प्रथा के विकास से ग्राम पंचायतों का पतन हुआ। इस व्यवस्था में समृद्ध किसान या तो स्वयं कर लेकर या अपने मुनीमों से कर वसूल कर गाँव के लोगों पर नियंत्रण किया करते थे। लेकिन मध्य काल में हिन्दू राजाओं ने ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय शासन को ही विकसित किया। मराठा शासक शिवाजी के शासन काल में स्थानीय शासन व्यवस्था में काफी सुधार हुआ।

फिर भी मुगल और मराठा काल में भी किसी न किसी प्रकार की पंचायत व्यवस्था चलती रही और प्रत्येक गाँव आत्मनिर्भर बना रहा। फिर भी इस काल में शहरों को बसाने पर ज्यादा ध्यान दिया गया।

ब्रिटिश काल में स्थानीय स्वशासन (Local self-government during the British period)

भारत लगभग 250 वर्ष तक अंग्रेजों की दासता में रहा। इस काल में गांवों की दशा सुधारने की दिशा में कोई विशेष प्रयास नहीं किए गए, इसलिए गाँवों की दशा पहले से अधिक बदतर हो गई।

ब्रिटिश शासनकाल में पंचायत-व्यवस्था को सबसे अधिक धक्का पहुंचा। आरंभ से ही अंग्रेजों की नीति थी कि शासन का काम, अधिकाधिक राज्य कर्मचारियों के हाथों में ही रहे। इसके परिणामस्वरूप फौजदारी और दीवानी अदालतों की स्थापना,  नवीन राजस्व नीति, पुलिस व्यवस्था आदि कारणों से गाँवों का स्वावलंबी जीवन और स्थानीय स्वायत्तता धीरे-धीरे समाप्त हो गई। पंचायतें स्थानीय शासन के रूप में कार्य करती थी। परंतु यह कार्य सरकारी नियंत्रण में होता था।

परंतु आगे चलकर अंग्रेजों ने भी अनुभव किया कि उनकी केंद्रीकरण की नीति से शासन में जटिलता दिन-प्रति-दिन बढ़ती ही जा रही है। सन् 1882 ई. में स्थानीय स्वशासन के विकास में एक नए अध्याय का शुभारंभ हुआ। 1882 ई. में लॉर्ड रिपन द्वारा प्रस्तुत ‘स्थानीय स्वशासन प्रस्ताव’ को भारत में आधुनिक स्थानीय स्वशासन का प्रारंभ माना जाता है। जिसे ‘स्थानीय स्वशासन’ संस्थाओं का ‘मैग्नाकार्टा’ भी कहते हैं। 

लार्ड रिपन ने भारत में स्थानीय स्वशासन (local self government in india) में को एक नई दिशा दी। इसीलिए लॉर्ड रिपन को आधुनिक स्थानीय स्वशासन का जनक (father of local self-government) कहा जाता है।

बीसवीं सदी के शुभारंभ में भारत शासन अधिनियम 1909, 1919 और 1935 में स्वशासन (self-government) व्यवस्था को अपनाने हुए प्रांतो को स्थानीय स्वशासन के क्षेत्र में कई अधिकार दिए गए। 1908 ई0 में विकेन्द्रीकरण के लिए गठित ‘राजकीय आयोग’ की रिपोर्ट ने स्थानीय स्वायत शासन के लिए महत्वपूर्ण सिफारिशें प्रस्तुत की। 

आयोग ने जिला बोर्ड तथा जिला नगरपालिकाओं के कार्यों को विभाजित करने के लिए ग्राम पंचायत और उपजिला बोर्डों के विकास पर बल दिया। उसने सुझाव दिया कि ग्राम पंचायतों को अधिक शक्तियों मिलनी चाहिए।

1919 के ‘भारत सरकार अधिनिमय’ के लागू होने के पश्चात स्थानीय स्वायत्त शासन एक हंस्तातरित विषय के अंतर्गत आ गया। जिसका नियंत्रण जनता द्वारा निर्वाचित लोकप्रिय मंत्रियों का हो गया।

1935 के अधिनियम के अनुसार प्रान्तीय स्वशासन के प्रचलन से स्थानीय स्वायत संस्थाओं को और भी अधिक गति मिली जो 1947 में भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति तक इसी व्यवस्था के तहत शासन प्रणाली चली। 1947 के बाद भारत में ग्रामीण विकास के लिए कई कार्यक्रम चलाए गए, लेकिन पंचायत को संवैधानिक दर्जा प्राप्त नहीं था।

ये तो थी भारत में स्थानीय स्वशासन का इतिहास (History of Local Self-Government in India) की बात। लेकिन, The Rural India पर आपको कृषि एवं मशीनीकरण, सरकारी योजनाओं और ग्रामीण विकास जैसे मुद्दों पर भी कई महत्वपूर्ण ब्लॉग्समिलेंगे, जिनको पढ़कर अपना ज्ञान बढ़ा सकते हैं और दूसरों को भी इस लेख को शेयर सकते हैं।

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भारत में पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत कब हुई?

आधुनिक भारत में प्रथम बार तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा राजस्थान के नागौर जिले के बगधरी गांव में 2 अक्टूबर 1959 को पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई।

भारत में स्थानीय शासन की शुरुआत किसने और कब की?

लॉर्ड रिपन ने 1880 से 1884 तक भारत के वायसराय के रूप में कार्य किया। उन्हें भारत में लोकप्रिय वायसराय के रूप में जाना जाता है। उन्होंने भारत में स्थानीय स्वशासन की प्रणाली की शुरुआत की। लॉर्ड रिपन ने 1882 में स्थानीय स्वशासन अधिनियम पारित किया।

स्थानीय शासन की शुरुआत कब हुई?

बाद में, सन् 1992 में संविधान के 73वें और 74वें संशोधन को संसद ने पारित किया। संविधान का 73वाँ संशोधन गाँव के स्थानीय शासन से जुड़ा है। इसका संबंध पंचायती राज व्यवस्था की संस्थाओं से है। संविधान का 74वाँ संशोधन शहरी स्थानीय शासन (नगरपालिका) से जुड़ा है।

पंचायती राज व्यवस्था के जन्मदाता कौन थे?

सही उत्तर बलवंत राय मेहता है। बलवंत राय मेहता को पंचायती राज संस्थाओं के जनक के रूप में जाना जाता है। बलवंत राय मेहता समिति (1957):