देश में चार गुना उत्पादन बढ़ने के बाद भी लोगों की रोटी का सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ है। हम अब भी लोगों की खाद्यान्न संबंधी जरूरतों को पूरा कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। स्वाभाविक रूप से देख का अनुभव यह सिद्ध करता है कि खाद्य उत्पादन की वृद्धि का सीधा सम्बन्ध समाज की खाद्य सुरक्षा की स्थिति में नहीं है खाद्य सुरक्षा की अवधारणा व्यक्ति के मूलभूत अधिकार को परिभाषित करती है। अपने जीवन के लिये हर किसी को निर्धारित पोषक
तत्वों से परिपूर्ण भोजन की जरूरत होती है। महत्वपूर्ण यह भी है कि भोजन की जरूरत नियत समय पर पूरी हो। इसका एक पक्ष यह भी है कि आने वाले समय की अनिश्चितता को देखते हुये हमारे भण्डारों में पर्याप्त मात्रा में अनाज सुरक्षित हों, जिसे जरूरत पड़ने पर तत्काल जरूरतमंद लोगों तक सुव्यवस्थित तरीके से पहुँचाया जाये। हाल के अनुभवों ने सिखाया है कि राज्य के अनाज गोदाम इसलिये भरे हुए नहीं होना चाहिए कि लोग उसे खरीद पाने में सक्षम नहीं हैं। इसका अर्थ है कि सामाजिक सुरक्षा के नजरिये से अनाज आपूर्ति की सुनियोजित
व्यवस्था होना चाहिए। यदि समाज की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित रहेगी तो लोग अन्य रचनात्मक प्रक्रियाओं में अपनी भूमिका निभा पायेंगे। इस परिप्रेक्ष्य में सरकार का दायित्व है कि बेहतर उत्पादन का वातावरण बनाये और खाद्यान्न के बाजार मूल्यों को समुदाय के हितों के अनुरूप बनाये रखें। • मानव अधिकारों की वैश्विक घोषणा (1948) का अनुच्छेद 25 (1) कहता है कि हर व्यक्ति को अपने और अपने परिवार को बेहतर जीवन स्तर बनाने, स्वास्थ्य की स्थिति प्राप्त करने, का अधिकार है जिसमें भोजन, कपड़े और आवास की सुरक्षा शामिल
है। उत्पादन- वितरण- आपाताकालीन व्यवस्था में खाद्य सुरक्षा समय की अनिश्चितता उसके चरित्र का सबसे महत्वपूर्ण है। प्राकृतिक
आपदायें समाज के अस्तित्व के सामने अक्सर चुनौतियां खड़ी करती हैं। ऐसे में राज्य यह व्यवस्था करता है कि आपात कालीन अवस्था (जैसे- सूखा, बाढ़, या चक्रवात) में प्रभावित लोगों को भुखमरी का सामना न करना पड़े। आर्थिक पहुँच- भौतिक पहुँच- खाद्यान्न और दाल की सकल उपलब्धता प्रति व्यक्ति एकल उपलब्धता (ग्राम प्रतिदिन) खाद्य तेल (किलोग्राम) वनस्पति (किलोग्राम) शक्कर (किलोग्राम) अनाज दालें कुल खाद्यान्न 1951 334.2 60.7 394.9 2.5 0.7 5.0 1961 399.2 69.0 468.7 3.2 0.8 4.8 1971 417.3 51.2 468.8 3.5 1.0 7.4 1981 417.3 37.5 454.8 3.8 1.2 7.3 1991 435.3 41.1 476.4 5.3 1.1 12.3 1992 468.5 41.6 510.1 5.5 1.0 12.7 1993 434.5 34.3 468.8 5.4 1.0 13.0 1994 427.9 36.2 464.1 5.8 1.0 13.7 1995 434.0 37.2 471.2 6.1 1.0 12.5 1996 457.6 37.8 495.4 6.3 1.0 13.2 1997 443.4 32.8 476.2 7.0 1.0 14.1 1998 448.2 37.3 505.5 8.0 1.0 14.6 1999 417.3 33.0 450.5 6.2 1.0 14.6 2000 433.5 36.9 470.4 8.5 1.3 14.6 2001 426.0 32.0 458.0 9.1 1.3 15.6 2002 390.6 26.4 417.0 8.0 14 15.8 (स्रोत: भारत सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण) 2003 सरकार ने 21 करोड़ टन अनाज उत्पादन होने के बाद पूरी दुनिया के सामने घोषणा कर दी थी कि भारत खाद्यान्न के मामले में अब आत्मनिर्भर हो गया है। परन्तु इसी दौर में कुछ चौंकाने वाले आंकड़े भी सामने आते हैं। 1980 की तुलना में 1990 के दशक में कृषि उत्पादन में कमी दर्ज की गई। जहां 1980 के दशक में उत्पादन वृद्धि की दर 3.54 प्रतिशत थी वहां 1990 के दशक में घटकर 1.92 प्रतिशत पर आ गई। इतना ही नहीं उत्पादक की दर पर भी
नकारात्मक प्रभाव पड़ा, यह दर 1980 के 3.3 प्रतिशत से घटकर 1990 के दशक में 1.31 प्रतिशत हो गई है। बहुत संक्षेप में यह जान लेना चाहिये कि 1960 के दशक में हरित क्रांति के दौर में किसानों ने उच्च उत्पादन क्षमता वाले बीजों, रासायनिक ऊर्वरकों, कीटनाशकों और मशीनों का उपयोग करके प्रगति की तीव्र गति का जो रास्ता अपनाया था अब उसके नकारात्मक परिणाम आने शुरू हो गये हैं। इन साधनों से न केवल मिट्टी की उर्वरता कम हुई बल्कि कृषि की पारम्परिक व्यवस्था का भी विनाश हुआ है। अगर हमने इतना विकास किया है कि उत्पादन 5
करोड़ टन से बढ़कर 20.11 करोड़ टन हो गया तो प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्ध 1951 में 394.9 ग्राम प्रति व्यक्ति से बढ़कर केवल 417.0 ग्राम तक ही क्यों पहुँच पाई? 1972-73 से 1999-2000 की समयावधि में अनाज के प्रति व्यक्ति उपभोग में कमी आई है। जहां 1972-73 में प्रति व्यक्ति प्रतिमाह 15.3 किलोग्राम अनाज को उपभोग होता था, अब वह घटकर 12.22 किलोग्राम प्रतिमाह आ गया है। अब सवाल केवल यहीं तक सीमित नहीं है। एक वर्ग दावा कर सकता है कि आज लोग अण्डे और मांस खा रहे हैं और दूध पी रहे हैं तो अनाज उपभोग में
गिरावट चिन्ता का विषय नहीं होना चाहिए, पर अब भी एक पक्ष अभी उल्लेखनीय है और वह पक्ष है कैलोरी उपभोग का, जिससे तय होता है कि व्यक्ति को कितना पोषण आहार मिल रहा है। (ग्रामीण इलाकों में प्रति व्यक्ति कैलोरी उपभोग) 19972-73 1977-78 1983-84 1993-94 1999-2000 निम्न वर्ग 1504 1630 1620 1678 1626 मध्यम वर्ग 2170 2296 2144 2119 2009 उच्च वर्ग 3161 3190 2929 2672 2463 कुल 2268 2364 2222 2152 2030 खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ाना आवश्यक है।
आंकड़ों से स्पष्ट है कि 1995-96 के दौरान खाद्यान्नों का औसत वार्षिक आयात 23 लाख टन था, जो 1961-62 से 1965-66 के दौरान बढ़कर 51 लाख टन हो गया और 1966-67 से 1970-71 के दौरान अपने चरम स्तर तक पहुँच कर 64 लाख टन हो गया। इसके पश्चात 1971-72 से 1975-76 के दौरान यह कम होकर 36 लाख टन हो गया। इसके बाद के 21 वर्षों में खाद्य आयात नाम मात्र रहे अर्थात 5 से 18 लाख टन के बीच कुल शुद्ध देशीय उपलब्धि के 1 से 1.5 प्रतिशत। 1996-97 के पश्चात भारत अनाजों का शुद्ध निर्यातक बन गया। अनाजों और दालों की प्रति
व्यक्ति उपलब्धि के आंकड़ों से संकेत मिलता है कि 1950-51 से 1955-56 के दौरान खाद्यान्नों की प्रति व्यक्ति उपलब्धि 419 ग्राम प्रतिदिन थी जो 1996-97 और 2000-01 के दौरान बढ़कर 451 ग्राम हो गई। इससे स्पष्ट होता है कि 50 वर्षों की अवधि में खाद्यान्नों की प्रति व्यक्ति उपलब्धि में लगभग 15 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसके दो अंग हैं- अनाज और दालें -अनाजों की प्रति व्यक्ति उपलब्धि जो 1950-51 और 195-56 के दौरान 34 ग्राम प्रतिदिन थी बढ़कर 1996-97 और 2000-2001 के दौरान 418 ग्राम हो गई। इस प्रकार 50 वर्षों की
अवधि में प्रति व्यक्ति अनाज उपलब्धि मे 22 प्रतिशत की वृद्धि हुई। किन्तु दालों के संदर्भ में प्रति व्यक्ति उपलब्धि जो 1950-51 और 1955-56 के दौरान 65 ग्राम प्रतिदिन थी गिरकर 1996-97 और 2000-2001 के दौरान 3.3 ग्राम हो गई। जाहिर है कि 50 वर्षों की अवधि में दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धि में 49 प्रतिशत की गिरावट हुई। नौंवी पंचवर्षीय योजना ने इस बात पर बल देते हुए उल्लेख किया कि 'दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धि में कमी के परिणामस्वरूप प्रोटीन के उपभोग पर दुष्प्रभाव पड़ सकता है। मोटे अनाज जो कम मंहगे
हैं उतनी ही लागत के लिए कहीं अधिक कैलॉरी उपलब्ध करा सकते हैं। यदि इन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर रियायती दरों पर उपलब्ध कराया जाए तो वे स्वयं-लक्षित बन सकेंगे और इनसे कैलोरी उपभोग उन्नत हो सकता है और इससे जनसंख्या के निर्धनतम भाग में 'भूख' कम की जा कसती है। इस वितरण से स्पष्ट है कि भारत खाद्य सुरक्षा की ओर बढ़ता हुआ अनाजों के रूप में तो सफल हुआ है किन्तु बढ़ती हुई जनसंख्या की दालों संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने में बुरी तरफ विफल हुआ हैं। खाद्य सुरक्षा की स्थिति का प्रत्यक्ष जुड़ाव रोजगार और आजीविका के साधनों से है। मध्यप्रदेश में आजीविका और रोजगार करने वाली जनसंख्या का वर्गीकरण इस तरह से है - • मध्यप्रदेश में कुल कार्यशील जनसंख्या - 25,794000 मध्यप्रदेश में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और वंचित समुदायों के सामने रोजगार की एक व्यापक अनिश्चितता छाई रहती है। प्रदेश में जिस तेजी से कृषि क्षेत्र का औद्योगिकी और मशीनीकरण हुआ है उससे यह असुरक्षा और ज्यादा बढ़ी है। खाद्य असुरक्षा की प्रदेश में स्थिति कितनी गंभीर है उसका
अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि यहां अलग-अलग हिस्सों में भूख और कुपोषण से मौतें हुई हैं, सबसे ज्यादा शिशु मृत्यु मध्यप्रदेश में होती है और महिलाओं में एनीमिया का स्तर भी बहुत ज्यादा है और ये समस्यायें प्रमाण हैं खाद्य असुरक्षा की स्थिति की। खान सुरक्षा क्या है?खाद्य सुरक्षा (food security) से तात्पर्य खाद्य पदार्थों की सुनिश्चित आपूर्ति एवं जनसामान्य के लिये भोज्य पदार्थों की उपलब्धता से है। पूरे इतिहास में खाद्य सुरक्षा सदा से एक चिन्ता का विषय रहा है। सन १९७४ में विश्व खाद्य सम्मेलन में 'खाद्य सुरक्षा' की परिभाषा दी गयी जिसमें खाद्य आपूर्ति पर बल दिया गया।
7 खाद्य सुरक्षा किसे कहते हैं भारत में खाद्य सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाती है?आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त और पौष्टिक भोजन खरीदने के लिए धन उपलब्ध हो। किसी देश में खाद्य सुरक्षा केवल तभी सुनिश्चित होती है जब (1) सभी लोगों के लिए पर्याप्त खाद्य उपलब्ध हो, (2) सभी लोगों के पास स्वीकार्य गुणवत्ता के खाद्य पदार्थ खरीदने की क्षमता हो और (3) खाद्य की उपलब्धता में कोई बाधा नहीं हो।
भारतीय खाद्य सुरक्षा के दो घटक कौन कौन से हैं?14 वर्ष तक की आयु के बच्चे भी निर्धारित पोषण मानकों के अनुसार भोजन प्राप्त करने के हकदार हैं। हकदारी के खाद्यान्नों अथवा भोजन की आपूर्ति नहीं किए जाने की स्थिति में लाभार्थी खाद्य सुरक्षा भत्ता प्राप्त करेंगे। इस अधिनियम में जिला और राज्य स्तरों पर शिकायत निपटान तंत्र के गठन का भी प्रावधान है।
भारत में खाद्य समस्या का कारण क्या है?भारत में इस समस्या के 3 पहलू हैं। पहला यह है कि हमारे यहां अभी हाल तक खाद्यान्नों की कमी रही है, जो अधिकांश भारतीयों का मुख्य भोजन है। दूसरा, यहां जो आहार उपलब्ध होता है, वह असंतुलित है। तीसरा, बहुत से लोग क्रय शक्ति के अभाव में निम्नतम मात्रा में भी अनाज या पोषक आहार प्राप्त करने में रहते हैं।
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