गुप्तकालीन प्रांतीय प्रशासन के कौन कौन से अंग थे? - guptakaaleen praanteey prashaasan ke kaun kaun se ang the?

गुप्त कला का विकास भारत में गुप्त साम्राज्य के शासनकाल में (२०० से ३२५ ईस्वी में) हुआ।[1] इस काल की वास्तुकृतियों में मंदिर निर्माण का ऐतिहासिक महत्त्व है। बड़ी संख्या में मूर्तियों तथा मंदिरों के निर्माण द्वारा आकार लेने वाली इस कला के विकास में अनेक मौलिक तत्व देखे जा सकते हैं जिसमें विशेष यह है कि ईंटों के स्थान पर पत्थरों का प्रयोग किया गया। इस काल की वास्तुकला को सात भागों में बाँटा जा सकता है- राजप्रासाद, आवासीय गृह, गुहाएँ, मन्दिर, स्तूप, विहार तथा स्तम्भ।

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चीनी यात्री फाह्यान ने अपने विवरण में गुप्त नरेशों के राजप्रासाद की बहुत प्रशंसा की है। इस समय के घरों में कई कमरे, दालान तथा आँगन होते थे। छत पर जाने के लिए सीढ़ियाँ होती थीं जिन्हें सोपान कहा जाता था। प्रकाश के लिए रोशनदान बनाये जाते थे जिन्हें वातायन कहा जाता था। गुप्तकाल में ब्राह्मण धर्म के प्राचीनतम गुहा मंदिर निर्मित हुए। ये भिलसा (मध्य-प्रदेश) के समीप उदयगिरि की पहाड़ियों में स्थित हैं। ये गुहाएँ चट्टानें काटकर निर्मित हुई थीं। उदयगिरि के अतिरिक्त अजन्ता, एलोरा, औरंगाबाद और बाघ की कुछ गुफाएँ गुप्तकालीन हैं। इस काल में मंदिरों का निर्माण ऊँचे चबूतरों पर हुआ। शुरू में मंदिरों की छतें चपटी होती थीं बाद में शिखरों का निर्माण हुआ। मंदिरों में सिंह मुख, पुष्पपत्र, गंगायमुना की मूर्तियाँ, झरोखे आदि के कारण मंदिरों में अद्भुत आकर्षण है।

गुप्तकाल में मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र मथुरा, सारनाथ और पाटिलपुत्र थे। गुप्तकालीन मूर्तिकला की विशेषताएँ हैं कि इन मूर्तियों में भद्रता तथा शालीनता, सरलता, आध्यात्मिकता के भावों की अभिव्यक्ति, अनुपातशीलता आदि गुणों के कारण ये मूर्तियाँ बड़ी स्वाभाविक हैं। इस काल में भारतीय कलाकारों ने अपनी एक विशिष्ट मौलिक एवं राष्ट्रीय शैली का सृजन किया था, जिसमें मूर्ति का आकार गात, केशराशि, माँसपेशियाँ, चेहरे की बनावट, प्रभामण्डल, मुद्रा, स्वाभाविकता आदि तत्त्वों को ध्यान में रखकर मूर्ति का निर्माण किया जाता था। यह भारतीय एवं राष्ट्रीय शैली थी। इस काल में निर्मित बुद्ध-मूर्तियाँ पाँच मुद्राओं में मिलती हैं- १. ध्यान मुद्रा २. भूमिस्पर्श मुद्रा ३. अभय मुद्रा ४. वरद मुद्रा ५. धर्मचक्र मुद्रा। गुप्तकाल चित्रकला का स्वर्ण युग था। कालिदास की रचनाओं में चित्रकला के विषय के अनेक प्रसंग हैं। मेघदूत में यक्ष-पत्नी के द्वारा यक्ष के भावगम्य चित्र का उल्लेख है।[2]

गुप्त सम्राटों के समय में गणतंत्रीय राजव्यवस्था का ह्मस हुआ। गुप्त प्रशासन राजतंत्रात्मक व्यवस्था पर आधारित था। देवत्व का सिद्वान्त गुप्तकालीन शासकों में प्रचलित था। राजपद वंशानुगत सिद्धान्त पर आधारित था। राजा अपने बड़े पुत्र को युवराज घोषित करता था। उसने उत्कर्ष के समय में गुप्त साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंघ्यपर्वत तक एवं पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला हुआ था।


राजस्व के स्रोत

गुप्तकाल में राजकीय आय के प्रमुख स्रोत 'कर' थे, जो निम्नलिखित हैं-

भाग- राजा को भूमि के उत्पादन से प्राप्त होने वाला छठां हिस्सा।

भोग- सम्भवतः राजा को हर दिन फल-फूल एवं सब्जियों के रूप में दिया जाने वाला कर।

प्रणयकर- गुप्तकाल में ग्रामवासियों पर लगाया गया अनिवार्य या स्वेच्छा चन्दा था। भूमिकर भोग का उल्लेख मनुस्मृति में हुआ है। इसी प्रकार भेंट नामक कर का उल्लेख हर्षचरित में आया है।


व्यापार एवं वाणिज्य

गुप्त काल में व्यापार एवं वाणिज्य अपने उत्कर्ष पर था। उज्जैन, भड़ौच, प्रतिष्ष्ठानविदिशाप्रयागपाटलिपुत्रवैशाली, ताम्रलिपिमथुराअहिच्छत्रकौशाम्बी आदि महत्त्वपूर्ण व्यापारिक नगर है। इन सब में उज्जैन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक स्थल था क्योंकि देश के हर कोने से मार्ग उज्जैन की ओर आते थे। स्वर्ण मुदाओं की अधिकता के कारण ही संभवतः गुप्तकालीन व्यापार विकास कर सका।


सामाजिक स्थिति

गुप्तकालीन भारतीय समाज परंपरागत 4 जातियों -

ब्राह्मण,

क्षत्रिय,

वैश्य एवं

शूद्र में विभाजित था।

कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में तथा वराहमिहिर ने वृहतसंहिता में चारों वर्णो के लिए अलग अलग बस्तियों का विधान किया है।

न्याय संहिताओं में यह उल्लेख मिलता है कि ब्राह्मण की परीक्षा तुला से, क्षत्रीय की परीक्षा अग्नि से, वैश्य की परीक्षा जल से तथा शूद्र की विषय से की जानी चाहिए।


धार्मिक स्थिति

गुप्त साम्राज्य को ब्राह्मण धर्म व हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान का समय माना जाता है। हिन्दू धर्म विकास यात्रा के इस चरण में कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए जैसे मूर्तिपूजा हिन्दू धर्म का सामान्य लक्षण बन गई। यज्ञका स्थान उपासना ने ले लिया एवं गुप्त काल में ही वैष्णव एवं शैव धर्म के मध्य समन्वय स्थापित हुआ। ईश्वर भक्ति को महत्त्व दिया गया। तत्कालीन महत्त्वपूर्ण सम्प्रदाय के रूप में वैष्णव एवं शैव सम्प्रदाय प्रचलन में थे।


कला और स्थापत्य

गुप्त काल में कला की विविध विधाओं जैसे वस्तं स्थापत्यचित्रकला, मृदभांड कला आदि में अभूतपूर्ण प्रगति देखने को मिलती है। गुप्त कालीन स्थापत्य कला के सर्वोच्च उदाहरण तत्कालीन मंदिर थे। मंदिर निर्माण कला का जन्म यही से हुआ। इस समय के मंदिर एक ऊँचे चबूतरें पर निर्मित किए जाते थे। चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों ओर से सीढ़ियों का निर्माण किया जाता था। देवता की मूर्ति को गर्भगृह में स्थापित किया गया था और गर्भगृह के चारों ओर ऊपर से आच्छादित प्रदक्षिणा मार्ग का निर्माण किया जाता था। गुप्तकालीन मंदिरों पर पाश्वों पर गंगा, यमुना, शंख व पद्म की आकृतियां बनी होती थी। गुप्तकालीन मंदिरों की छतें प्रायः सपाट बनाई जाती थी पर शिखर युक्त मंदिरों के निर्माण के भी अवशेष मिले हैं। गुप्तकालीन मंदिर छोटी-छोटी ईटों एवं पत्थरों से बनाये जाते थे। भीतरगांव का मंदिरईटों से ही निर्मित है।

गुप्तकालीन महत्त्वपूर्ण मंदिर

विष्णुमंदिर तिगवा (जबलपुर मध्य प्रदेश)

शिव मंदिर भूमरा (नागोद मध्य प्रदेश)

पार्वती मंदिर नचना कुठार (मध्य प्रदेश)

दशावतार मंदिर देवगढ़ (झांसी, उत्तर प्रदेश)

शिव मंदिरखोह (नागौद, मध्य प्रदेश)

भीतरगांव का मंदिर लक्ष्मण मंदिर (ईटों द्वारा निर्मित) भितरगांव (कानपुर, उत्तर प्रदेश)


साहित्य

 मुख्य लेख : गुप्तकालीन साहित्य

गुप्तकाल को संस्कृत साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है। बार्नेट के अनुसार प्राचीन भारत के इतिहास में गुप्त काल का वह महत्त्व है जो यूनान के इतिहास में पेरिक्लीयन युग का है। स्मिथ ने गुप्त काल की तुलना ब्रिटिश इतिहास के एजिलाबेथन तथा स्टुअर्ट के कालों से की है। गुप्त काल को श्रेष्ठ कवियों का काल माना जाता है।

गुप्त काल स्वर्ण काल के रूप में

गुप्त काल को स्वर्ण युग, क्लासिकल युग एवं पैरीक्लीन युग कहा जाता है। अपनी जिन विशेषताओं के कारण गुप्तकाल को स्वर्णकालकहा जाता है, वे इस प्रकार हैं- साहित्य, विज्ञान, एवं कला के उत्कर्ष का काल, भारतीय संस्कृति के प्रचार प्रसार का काल, धार्मिक सहिष्णुता एवं आर्थिक समृद्धि का काल, श्रेष्ठ शासन व्यवस्था एवं महान्सम्राटों के उदय का काल एवं राजनीतिक एकता का काल, इन समस्त विशेषताओं के साथ ही हम गुप्त को स्वर्णकाल, क्लासिकल युग एवं पैरीक्लीन युग कहते हैं। कुछ विद्वानों जैसे आर.एस.शर्माडी.डी. कौशम्बी एवं डॉ. रोमिला थापर गुप्त के स्वर्ण युगकी संकल्पना को निराधार सिद्ध करते हैं क्योंकि उनके अनुसार यह काल सामन्तवाद की उन्नति, नगरों के पतन, व्यापार एवं वाणिज्य के पतन तथा आर्थिक अवनति का काल था।

गुप्त वंश 275 ई. के आसपास अस्तित्व में आया। इसकी स्थापना श्रीगुप्त ने की थी। लगभग 510 ई. तक यह वंश शासन में रहा। आरम्भ में इनका शासन केवल मगध पर था, पर बाद में गुप्त वंश के राजाओं ने संपूर्ण उत्तर भारत को अपने अधीन करके दक्षिण में कांजीवरम के राजा से भी अपनी अधीनता स्वीकार कराई। इस वंश में अनेक प्रतापी राजा हुए। कालिदास के संरक्षक सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय (380-415 ई.) इसी वंश के थे। यही 'विक्रमादित्य' और 'शकारि' नाम से भी प्रसिद्ध हैं। नृसिंहगुप्त बालादित्य (463-473 ई.) को छोड़कर सभी गुप्तवंशी राजा वैदिक धर्मावलंबी थे। बालादित्य ने बौद्ध धर्म अपना लिया था।

गुप्त राजवंशों का इतिहास साहित्यिक तथा पुरातात्विक दोनों प्रमाणों से प्राप्त होता है। गुप्त राजवंश या गुप्त वंश प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंशों में से एक था। इसे भारत का 'स्वर्ण युग' माना जाता है। गुप्त काल भारत के प्राचीन राजकुलों में से एक था। मौर्य चंद्रगुप्त ने गिरनार के प्रदेश में शासक के रूप में जिस 'राष्ट्रीय' (प्रान्तीय शासक) की नियुक्ति की थी, उसका नाम 'वैश्य पुष्यगुप्त' था। शुंग काल के प्रसिद्ध 'बरहुत स्तम्भ लेख' में एक राजा 'विसदेव' का उल्लेख है, जो 'गाप्तिपुत्र' (गुप्त काल की स्त्री का पुत्र) था। अन्य अनेक शिलालेखों में भी 'गोप्तिपुत्र' व्यक्तियों का उल्लेख है, जो राज्य में विविध उच्च पदों पर नियुक्त थे। इसी गुप्त कुल के एक वीर पुरुष श्रीगुप्त ने उस वंश का प्रारम्भ किया, जिसने आगे चलकर भारत के बहुत बड़े भाग में मगध साम्राज्य का फिर से विस्तार किया।

साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में इस अवधि का योगदान आज भी सम्मानपूर्वक स्मरण किया जाता है। कालिदास इसी युग की देन हैं।  अमरकोशरामायणमहाभारतमनुस्मृति तथा अनेक पुराणों का वर्तमान रूप इसी काल की उपलब्धि है। महान् गणितज्ञ आर्यभट्ट तथा वराहमिहिर गुप्त काल के ही उज्ज्वल नक्षत्र हैं। दशमलव प्रणाली का आविष्कार तथा वास्तुकला, मूर्तिकलाचित्रकला ओर धातु-विज्ञान के क्षेत्र की उपलब्धियों पर आज भी लोगों का आनंद और आश्चर्य होता है।



गुप्त साम्राज्य2

गुप्त कालीन कला एवं स्थापत्य

गुप्त काल में कला की विविध विधाओं जैसे वास्तु, स्थापत्यचित्रकला, मृदभांड, कला आदि में अभूतपूर्ण प्रगति देखने को मिलती है। गुप्तकालीन स्थापत्य कला के सर्वोच्च उदाहरण तत्कालीन मंदिर थे। मंदिर निर्माण कला का जन्म यहीं से हुआ। इस समय के मंदिर एक ऊँचे चबूतरें पर निर्मित किए जाते थे। चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों ओर से सीढ़ियों का निर्माण किया जाता था। देवता की मूर्ति को गर्भगृह (Sanctuary) में स्थापित किया गया था और गर्भगृह के चारों ओर ऊपर से आच्छादित प्रदक्षिणा मार्ग का निर्माण किया जाता था। गुप्तकालीन मंदिरों पर पार्श्वों पर गंगा, यमुना, शंख व पद्म की आकृतियां बनी होती थी। गुप्तकालीन मंदिरों की छतें प्रायः सपाट बनाई जाती थी पर शिखर युक्त मंदिरों के निर्माण के भी अवशेष मिले हैं।

गुप्तकालीन मंदिर छोटी-छोटी ईटों एवं पत्थरों से बनाये जाते थे। भीतरगांव का मंदिरईटों से ही निर्मित है।

गुप्तकालीन महत्त्वपूर्ण मंदिर

मंदिर

स्थान

1- विष्णुमंदिर

तिगवा (जबलपुर मध्य प्रदेश)

2- शिव मंदिर

भूमरा (नागोद मध्य प्रदेश)

3- पार्वती मंदिर

नचना-कुठार (मध्य प्रदेश)

4- दशावतार मंदिर

देवगढ़ (झांसी, उत्तर प्रदेश)

5- शिवमंदिर

खोह (नागौद, मध्य प्रदेश)

6- भीतरगांव का मंदिर लक्ष्मण मंदिर (ईटों द्वारा निर्मित)

भितरगांव (कानपुर, उत्तर प्रदेश)


बौद्ध देव मंदिर

ये मंदिर सांची तथा बोधगया में पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त दो बौद्ध स्तूपों में एक सारनाथ का धमेख स्तूप‘ ईटों द्वारा निर्मित है जिसकी ऊंचाई 128 फीट के लगभग है एवं दूसरा राजगृह का जरासंध की बैठककाफ़ी महत्त्व रखते हैं।

गुप्तकालीन मंदिर कला का सर्वात्तम उदाहरण 'देवगढ़ का दशावतार मंदिर' है। इस मंदिर में गुप्त स्थापत्य कला अपने पूर्ण विकसित रूप में दृष्टिगोचर होती है। यह मंदिर सुंदर मूर्तियों से जड़ित है, इनमें झांकती हुई आकृतियां, उड़ते हुए पक्षी व हंस, पवित्र वृक्ष, स्वास्तिक फूल पत्तियों की डिज़ाइन, प्रेमी युगल एवं बौनों की मूर्तियां नि:संदेह मन को लुभाते हैं। इस मंदिर की विशेषता के रूप में इसमें लगे 12 मीटर ऊँचें शिखर को शायद ही नज़रअन्दाज किया जा सके। सम्भवतः मंदिर निर्माण में शिखर का यह पहला प्रयोग था। अन्य मंदिरों के मण्डप की तुलना में दशावतार के इस मंदिर में चार मण्डपों का प्रयोग हुआ है।

मूर्तिकला

गुप्तकालीन कला का सर्वोत्तम पक्ष उसकी मूर्तिकला है। इनकी अधिकांश मूर्तियाँ हिन्दू देवी-देवताओं से संबंधित है। गुप्तकला की मूर्तियों में कुषाणकालीन नग्नता एवं कामुकता का पूर्णतः लोप हो गया था। गुप्तकालीन मूर्तिकारों ने शारीरिक आकर्षण को छिपाने के लिए मूर्तियों में वस्त्रों के प्रयोग को प्रारम्भ किया। गुप्तकालीन बुद्ध की मूर्तियों को सारनाथ की बैठे हुए बुद्ध की मूर्तिमथुरा में खड़े हुए बुद्ध की मूर्ति एवं सुल्तानगंज की कांसे की बुद्ध मूर्ति का उल्लेखनीय है। इन मूर्तियों में बुद्ध की शांत-चिन्तन मुद्रा को दिखाने का प्रयत्न किया गया है। कूर्मवाहिनी यमुना तथा मकरवाहिनी गंगा की मूर्तियों का निर्माण इस काल में ही हुआ।

भगवान शिव के एकमुखीएवं 'चतुर्मुखीशिवलिंग का निर्माण सर्वप्रथम गुप्त काल में ही हुआ था। शिव के अर्धनारीश्वररूप की रचना भी इसी समय की गयी। विष्णु की प्रसिद्ध मूर्ति देवगढ़ के दशावतार मंदिर में स्थापित है। वास्तुकला में गुप्त काल पिछड़ा था। वास्तुकला के नाम पर ईंट के कुछ मंदिर मिले हैं जिनमें कानपुर के भितरगांव कागाज़ीपुर के भीतरी और झांसी के ईंट के मन्दिर उल्लेखनीय है।


चित्रकला

कार्ले चैत्यगृहअजंता की गुफ़ाएंऔरंगाबाद वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार गुप्त काल में चित्रकला उच्च शिखर पर पहुंच चुकी थी। विष्णु धर्मेन्तपुराण में मूर्ति, चित्र आदि कलाओं के विधान प्राप्त होते हैं। वात्सायन के कामसूत्र में 64 कलाओं के अन्तर्गत चित्रकला की जानकारी सम्भान्तक व्यक्ति (नागरिक) के लिए आवश्यक बताई गई है। गुप्तकालीन चित्रों के उत्तम उदाहरण हमें महाराष्ट्र प्रांत के औरंगाबाद में स्थित अजन्ता की गुफ़ाओं तथा ग्वालियर के समीप स्थित वाघ की गुफ़ाओं से प्राप्त होते हैं।


अजन्ता में निर्मित कुल 29 गुफाओं में वर्तमान में केवल 6 ही (गुफा संख्या 1, 2, 9, 10, 17) शेष है। इन 6 गुफाओं में गुफा संख्या 16 एवं 17 ही गुप्तकालीन हैं। अजन्ता के चित्र तकनीकि दृष्टि से विश्व में प्रथम स्थान रखते हैं। इन गुफाओं में अनेक प्रकार के फूल-पत्तियों, वृक्षों एवं पशु आकृति से सजावट का काम तथा बुद्ध एवं बोधिसत्वों की प्रतिमाओं के चित्रण का काम, जातक ग्रंथों से ली गई कहानियों का वर्णनात्मक दृश्य के रूप में प्रयोग हुआ है। ये चित्र अधिकतर जातक कथाओं को दर्शाते हैं। इन चित्रों में कहीं-कही गैर भारतीय मूल के मानव चरित्र भी दर्शाये गये हैं। अजन्ता की चित्रकला की एक विशेषता यह है कि इन चित्रों में दृश्यों को अलग अलग विन्यास में नहीं विभाजित किया गया है।

अजन्ता में फ्रेस्कों तथा टेम्पेरा दोनों ही विधियों से चित्र बनाये गय हैं। चित्र बनाने से पूर्व दीवार को भली भांति रगड़कर साफ़ किया जाता था तथा फिर उसके ऊपर लेप चढ़ाया जाता था। अजन्ता की गुफा संख्या 16 में उत्कीर्ण मरणासन्न राजकुमारीका चित्र प्रशंसनीय है। इस चित्र की प्रशंसा करते हुए ग्रिफिथ, वर्गेस एवं फर्गुसन ने कहा,- ‘करुणा, भाव एवं अपनी कथा को स्पष्ट ढंग से कहने की दृष्टियह चित्रकला के इतिहास में अनतिक्रमणीय है। वाकाटक वंश के वसुगुप्त शाखा के शासक हरिषेण (475-500ई.) के मंत्री वराहमंत्री ने गुफा संख्या 16 को बौद्ध संघ को दान में दिया था।

गुफा संख्या 17 के चित्र को चित्रशालाकहा गया है। इसका निर्माण हरिषेण नामक एक सामन्त ने कराया था। इस चित्रशाला में बुद्ध के जन्म, जीवन, महाभिनिष्क्रमण एवं महापरिनिर्वाण की घटनाओं से संबंधित चित्र उकेरे गए हैं। गुफा संख्या 17 में उत्कीर्ण सभी चित्रों में माता और शिशु नाम का चित्र सर्वोत्कृष्ट है। अजन्ता की गुफाऐं बौद्ध धर्म की महायान शाखा से संबंधित थी।

अजन्ता में प्राप्त चित्र गुफाओं की समय सीमा

गुफा संख्या

समय

9 10

प्रथम शताब्दी (गुप्तकाल से पूर्व)

16 एवं 17

500 ई. (उत्तर गुप्त काल )

1 एवं 2

लगभग 628 ई. (गुप्तोत्तर काल)

बाघ की चित्रकला

ग्वालियर के समीप बाघ नामक स्थान पर स्थित विंध्यपर्वत को काटकर बाघ की गुफाएं बनाई गई । 1818 ई. में डेजरफील्ड ने इन गुफ़ाओं को खोजा जहां से 9 गुफ़ाएं मिली है। बाघ गुफ़ा के चित्रों का विषय मनुष्य के लौकिक जीवन से सम्बन्धित है। यहां से प्राप्त संगीत एवं नृत्य के चित्र सर्वाधिक आकर्षण है। बाघ की गुफ़ाएं मध्य प्रदेश में इन्दौर के पास धार में स्थित हैं। बाघ की गुफ़ाएं प्राचीन भारत के स्वर्णिम युग की अद्वितीय देन हैं। बाघ की गुफ़ाएं इंदौर से उत्तर-पश्चिम में लगभग 90 मील की दूरी पर, बाधिनी नामक छोटी सी नदी के बायें तट पर और विन्ध्य पर्वत के दक्षिण ढलान पर स्थित हैं। बाघ-कुक्षी मार्ग से थोड़ा हटकर बाघ की गुफ़ाएं बाघ ग्राम से पाँच मील दूर हैं। यह स्थल उस विशाल प्राचीन मार्ग पर स्थित है, जो उत्तर से अजन्ता होकर सुदूर दक्षिण तक जाता है। ईसापूर्व तीसरी शताब्दी और ईस्वी सन् की 7वीं शताब्दी के मध्य, जब भारत के पश्चिमी भाग में बौद्ध धर्म अपनी ख्याति की पराकाष्ठा पर था। इसी समय चीन के बौद्ध धर्म के महान् विद्वान् यात्री हुएनसांगफ़ाह्यान और सुआनताई मध्य और पश्चिमी भारत आये थे।


गुप्तकालीन धार्मिक स्थिति

गुप्त साम्राज्य को ब्राह्मण धर्म व हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान का समय माना जाता है। हिन्दू धर्म विकास यात्रा के इस चरण में कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए जैसे मूर्तिपूजा हिन्दू धर्म का सामान्य लक्षण बन गई। यज्ञ का स्थान उपासना ने ले लिया एवं गुप्त काल में ही वैष्णव एवं शैव धर्म के मध्य समन्वय स्थापित हुआ। ईश्वर भक्ति को महत्त्व दिया गया। तत्कालीन महत्त्वपूर्ण सम्प्रदाय के रूप में वैष्णव एवं शैव सम्प्रदाय प्रचलन में थे।

वैष्णव धर्म

यह गुप्त शासकों का व्यक्तिगत धर्म था। अनेक गुप्त राजाओं ने 'परामभागवत्' की उपाधि धारण की। इन राजाओं ने अपनी राजाज्ञाएं गरुड़ध्वज से अंकित करवायीं। चन्द्रगुप्त द्वितीय एवं समुद्रगुप्त द्वारा जारी किए गए सिक्कों पर विष्णु के वाहन गरुड़ की आकृति खुदी मिली है। इसके अतिरिक्त वैष्णव धर्म के कुछ अन्य चिह्न जैसे शंख, चक्रगदा, पद्म, लक्ष्मी का अंकन भी गुप्तकालीन सिक्कों पर मिलता है। गुप्तकालीन महत्त्वपूर्ण अभिलेख स्कन्दगुप्तका 'जूनागढ़' एवं बुधगुप्त का 'एरण अभिलेख' विष्णु स्तुति से ही प्रारम्भ हुए हैं। चक्रपालित नाम से गुप्तकालीन कर्मचारी ने विष्णु के एक मंदिर का निर्माण करवाया था। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने विष्णुपद पर्वत के शिखर पर विष्णुध्वज की स्थापना की। गुप्तकालीन कुछ अभिलेखों ने विष्णु को मधुसूदनकहा गया है। वैष्णव धर्म गुप्त काल में अपने चरमोंत्कर्ष पर र्था। 'अवतारवादवैष्णव धर्म का प्रधान अंग था।


शैव धर्म

गुप्त राजाओं की धार्मिक सहिष्णुता की भावना के कारण ही शैव धर्म का भी विकास इस काल में हुआ, जबकि गुप्तों का व्यक्तिगत धर्म वैष्णव धर्म था। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का सेनापति वीरसेना प्रकांड शैव विद्धान था। उसने उदयगिरि पहाड़ी के अंदर शैवों के निवास के लिए गुफा का निर्माण कराया था। गुप्तों के समय में मथुरा में 'महेश्वर' नाम का शैव सम्प्रदाय निवास कर रहा था। कालिदास के 'मेघदूत' के वर्णन में उज्जयिनी में एक महाकाल के मन्दिर का वर्णन है। शैव धर्म का एक और अनुयायी पृथ्वीषेण, जो कुमारगुप्त प्रथम का सेनापति था, ने करमदण्डा नामक स्थान पर एक शिव की प्रतिमा स्थापित की। सामंत महाराज हस्तिन के खोह अभिलेख में नमो महादेवका उल्लेख है। इस प्रकार से यह स्पष्ट हो जाता है कि गुप्त काल में वैष्णव धर्म के सामने शैव धर्म की अवहेलना नहीं की गयी। गुप्तकाल में भगवान शिव की मूर्तियां मानवीय आकार एवं लिंग के रूप में बनाई गई थी। मानवाकार शिव की मूर्तियों में कोसाम से प्राप्त मूर्ति महत्त्वपूर्ण है। लिंग मूर्तियों में नागोद से प्राप्त एकलिंग मुखाकृति महत्त्वपूर्ण है। शिव के अर्धनारीश्वर रूप की कल्पना एवं शिव तथा पार्वती की एक साथ मूर्तियों का निर्माण सर्वप्रथम इसी काल में आरम्भ हुआ। शैव एवं वैष्णव धर्म के समन्वय को दर्शाने वाले भगवान हरिहरकी मूर्तियों का निर्माण गुप्त काल में ही हुआ। त्रिमूर्ति पूजा के अन्तर्गत इस समय ब्रह्माविष्णु एवं महेश की पूजा आरम्भ हुई। वामन पुराण‘ के वर्णन के अनुसार गुप्त काल में चार शैव सम्प्रदायों का प्रचलन था -

1. शैव

2. पाशुपत

3. कापालिक

4. कालामुख।


सूर्य पूजा

गुप्त काल में सूर्योपासक लोगों का भी सम्प्रदाय था। विक्रम संवत 529 के 'मंदसौर शिलालेख' के प्रारम्भिक कुछ श्लोंकों में सूर्य भगवान की स्तुति की गई है। बुलन्दशहर ज़िले के माडास्यातनामक स्थल पर सूर्य मंदिर होने के साक्ष्य मिले हैं। मिहिरकुल के 'ग्वालियर अभिलेख' से मातृचेट नामक नागरिक द्वारा ग्वालियर में पर्वत श्रृंग पर एक प्रस्तर सूर्य मंदिर बनवाने के साक्ष्य मिले है। सूर्य के अनेक नामों में से अभिलेखों में 'लोकार्क', 'भास्कर', 'आदित्य', 'वरुणस्वामी' एवं 'मार्तण्ड' नाम मिलते हैं।

 

बौद्ध धर्म

यद्यपि गुप्त शासकों ने इस धर्म को अपना संरक्षण प्रदान नहीं किया, फिर भी यह धर्म विकसित हुआ। इनके समय में बौद्ध धर्म के मुख्य केन्द्र के रूप में गयामथुराकौशाम्बी, एवं सारनाथ प्रसिद्ध थे। गुप्तों के समय में ही प्रसिद्ध बौद्ध विहार नालंदा की स्थापना की गई। सांची के एक लेख के अनुसार चन्द्रगुंप्त द्वितीय ने किसी आम्रकट्रब नाम के बौद्ध धर्म के अनुयायी को अपने राज्य में ऊंचे पद पर नियुक्ति किया था। इस व्यक्ति ने काकनादाबार के महाविहार को 25 दीनार दान में दिया था। गुप्त काल के प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य वसुबन्धु, असंग एवं दिङनाग थे। इन आचार्यो ने अपनी विद्वता के द्वारा भारतीय ज्ञान के विकास में सहयोग किया। चीनी यात्री फ़ाह्यान के अनुसार गुप्त काल में बौद्ध धर्म अपने स्वाभाविक रूप में विकसित हो रहा था। बौद्ध धर्म की महायान शाखा के अन्तर्गत माध्यमिक एवं योगचार सम्प्रदाय का विकास हुआ। इसमें योगाचार सम्प्रदाय गुप्तों के समय में काफ़ी प्रचलित था। गुप्त काल में ही आर्यदेव ने चतुश्शतकएवं असंग ने महायान संग्रह‘, योगाचार भूमिशास्त्र तथा महायान सूत्रालंकार जैसे ग्रंथों की रचना की।

 

जैन धर्म

गुप्तकाल में जैन धर्म का विकास हुआ। गुप्तों के समय में ही मथुरा (313 ई.) एवं वल्लभी (453 ई.) में जैन सभाएं आयोजित की गई। इस समय मूर्तियों के निर्माण के अन्तर्गत महावीर एवं अन्य तीर्थंकर की सीधी खड़ी हुई एवं पालथी मारकर बैठी हुई मूर्तियां निर्मित की गई। गुप्तकाल में जैन धर्म मध्यमवर्गीय लोगों एवं व्यापारियों में खूब प्रचलित था। कदंब एवं गंग राजाओं ने इस धर्म को संरक्षण प्रदान किया। 426 ई. के कुमारगुप्त प्रथम के उदयगिरि अभिलेख में किसी शंकर नाम के जैन धर्म अनुयायी द्वारा पार्श्र्वनाथ की मूर्तियों की स्थापना का उल्लेख मिलता है। पहाड़पुर से प्राप्त लेखों में जैन मंदिरों को भूमिदान का उल्लेख मिलता है।

कहौम लेखसे स्पष्ट होता है कि स्कंदगुप्त के समय मद्र नाम के व्यक्ति ने पांच जैन तीर्थंकर- ऋषभनाथ (आदिनाथ)शांतिनाथनेमिनाथपार्श्वनाथ एवं महावीर की मूर्तियों की स्थापना कराई। मथुरा अभिलेख के वर्णन के अनुसार कुमारगुप्त प्रथम के समय में हरिस्वामिनी नाम की जैन मतावलम्बी महिला ने जैन मंदिर को दान दिया। गुप्तों के समय जैन धर्म मगध से लेकर कलिंगमथुरा, उदयगिरितमिलनाडु तक फैला था।

 

षड्दर्शन

सांख्य, योग, न्यायवैशेषिक, पूर्व एवं उत्तर मीमांसा (वेदांत) की महत्त्वपूर्ण कृतियों की रचना गुप्त युग में हुई।


गुप्तकालीन प्रशासन

गुप्त सम्राटों के समय में गणतंत्रीय राजव्यवस्था का ह्मस हुआ। गुप्त प्रशासन राजतंत्रात्मक व्यवस्था पर आधारित था। देवत्व का सिद्वान्त गुप्तकालीन शासकों में प्रचलित था। राजपद वंशानुगत सिद्धान्त पर आधारित था। राजा अपने बड़े पुत्र को युवराज घोषित करता था। उसने उत्कर्ष के समय में गुप्त साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंघ्यपर्वत तक एवं पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला हुआ था।

·         इनके अतिरिक्त कुछ अन्य शासक नरसिंहगुप्त (बालदिल्य)कुमारगुप्त द्वितीयबुधगुप्तवैन्यगुप्तभानुगुप्तकुमारगुप्त तृतीय, विष्णुगुप्त आदि में मिलकर कुल 476 ई. से 550 ई. तक शासन किया।

गुप्त सम्राट न्याय, सेना एवं दीवानी विभाग का प्रधान होता था। प्रजा अपने राजा को पृथ्वी पर ईश्वर के प्रतिनिधि में रूप में स्वीकार करती थी। 'प्रयाग प्रशस्ति' में समुद्रगुप्त को पृथ्वी पर शासन करने वाला ईश्वर का प्रतिनिधि कहा जाता है। साथ ही इसकी तुलना कुबेरवरुणइन्द्र  यमराज से की गई है। गुप्त सम्राट 'परम देवता', 'परभट्टारक', 'महाराजाधिराज', 'पृथ्वीपाल', 'परमेश्वर', 'सम्राट', 'एकाधिकार' एवं 'चक्रवर्तिन', जैसी उपाधियां धाराण करता था। इससे यह संकेत मिलता है कि गुप्त राजाओं ने अपने साम्राज्य के भीतर छोटे-छोटे राजाओं पर शासन किया। मौर्योत्तर काल में उद्धत सामन्तवाद अब ज़ोर पकड़ने लगा। साम्राज्य के अधिकतर भाग सामन्तों के अधीन होते थे। वे सम्राट के दरबार में स्वयं उपस्थित होकर सम्मान निवेदन करते, नज़राना चढ़ाते और विवाहार्थ अपनी पुत्री समर्पित करते। इसके बदले उन्हें अपने क्षेत्र पर अधिकार का सनद मिलता था। गुप्तकालीन रानियों को 'परमभट्टारिकाख', 'परभट्टारिकाराज्ञी' एवं 'महादेवी' जैसी उपाधियाँ दी गई। सम्राट प्रशासन के कुशल संचालन हेतु एक 'मंत्रिमंडल' का गठन करता था। इसमें 'अमात्य', 'सचिव' एवं 'मंत्री' होते थे। गुप्त कालीन अभिलेखों से निम्न मंत्रिमण्डलीय सदस्यों के विषयय में जानकारी मिलती है।

गुप्तकालीन अभिलेखों से प्राप्त केन्द्रीय अधिकारी गण

1. सर्वाध्यक्ष- राज्य के सभी केन्द्रीय विभाग का प्रमुख अधिकारी।

2. प्रतिहार एवं महाप्रतिहार - सम्राट से मिलने की इच्छा रखने वालों को आज्ञापत्र देना इनका मुख्य कार्य था। प्रतिहार अन्तःपुर का रक्षक एवं महाप्रतिहार राजमहल के रक्षकों का मुखिया होता था।

3. कुमारमात्य- पदाधिकारियों का सर्वश्रेष्ठ, वर्ग, इन्हें उच्च से उच्च पद पर नियुक्त किया जा सकता था।

महादण्डनायक

·         समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि हरिषण एक ही साथ कुमारामात्य, संधिविग्रहिक एवं महादण्डनायक का कार्य करता था।

महादण्डनायक

सदस्य

विभाग

1- महासेनापति

सेना का सर्वोच्च अधिकार।

2- महापीलुपति

गजसेना का अध्यक्ष

3- महाश्वपति

अश्वसेना का अध्यक्ष

4- महासन्धिविग्रहिक

युद्ध और शांति का मंत्री

4- दण्ड पाशिक

पुलिस विभाग का मुख्य अधिकारी।

5- विनय स्थिति स्थापक

धार्मिक मामलों का प्रमुख अधिकारी

6- रणभांडागारिक

सैनिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला प्रधान अधिकारी।

7- महाबलाधिकृत

सैनिक अधिकारी।

8- महादण्डनायक

युद्ध एवं न्याय-विभाग का कार्य देखने वाला।

9- महाभंडागाराधिकृत

राजकीय कोष का प्रधान

10- महाअक्षपटलिक

अभिलेख विभाग का प्रधान

11- ध्रुवाधिकरण

कर वसूलने वाले विभाग का प्रधान।

12- अग्रहारिक

दान विभाग का प्रधान।

·          

गुप्तकालीन अभिलेखों से प्राप्त केन्द्रीय अधिकारी गण

1. सर्वाध्यक्ष- राज्य के सभी केन्द्रीय विभाग का प्रमुख अधिकारी।

2. प्रतिहार एवं महाप्रतिहार - सम्राट से मिलने की इच्छा रखने वालों को आज्ञापत्र देना इनका मुख्य कार्य था। प्रतिहार अन्तःपुर का रक्षक एवं महाप्रतिहार राजमहल के रक्षकों का मुखिया होता था।

3. कुमारमात्य- पदाधिकारियों का सर्वश्रेष्ठ, वर्ग, इन्हें उच्च से उच्च पद पर नियुक्त किया जा सकता था।

महादण्डनायक

·         समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि हरिषण एक ही साथ कुमारामात्य, संधिविग्रहिक एवं महादण्डनायक का कार्य करता था।

प्रांतीय प्रशासन

कुशल प्रशासन के लिए विशाल गुप्त सम्राज्य कई प्रान्तों में बंटा था। प्रान्तों को 'देश', 'भुक्ति' अथवा 'अवनी' कहा जाता था। सम्राट द्वारा जो स्वयं शासित होता था उसकी सबसे बड़ी प्रशासनिक ईकाई 'देश' या 'राष्ट्र' कहलाती थी। 'जूनागढ़ अभिलेख' में सौराष्ट्र को एक देश कहा गया है। चन्द्रगुप्त के एक अभिलेख में सुकुती (मध्यभारत) नामक देश का उल्लेख मिलता है। देश का राष्ट्र का प्रशासक 'गोप्ता' कहा जाता था। जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि सौराष्ट्र के गोप्ता पर्णदत्त की नियुक्ति स्वयं गुप्त सम्राट ने की थी। भुक्ति के प्रशासन को उपरिकउपरिक महाराजकहा जाता था। सीमा प्रान्तों के प्रशासक गोष्ठाकहलाये थे। इन पदों पर राजकुमार या राजवंश से सम्बन्धित व्यक्ति को ही नियुक्त किया जाता था। चन्द्रगुप्त द्वितीय का छोटा पुत्र गोविन्दगुप्त तीन भुक्ति का (आधुनिक दरभंगा) तथा कुमारगुप्त का प्रथम पुत्र घटोत्कचगुप्त पूर्वी मालवा का राज्यपाल था। गुप्तकालीन अभिलेखों में कुछ प्रांतीय प्रशासकों का विवरण मिलता है। इन शासकों को प्रान्तों में 5 वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता था।

जनपद शासन

भुक्ति का विभाजन जनपदों में किया गया था। जनपदों को विषयकहा जता था, जिसका प्रधान अधिकारी विषयपतिहोता था। विषयपति को 'कुमारामात्य' भी कहा गया है। कुमारगुप्त प्रथम के मंदसौर अभिलेख में 'लाटा' विषय का उल्लेख मिलता है। हूण शासक तोरमाण के समय के एरण वराह अभिलेख में 'एरिकिरण' विषय का वर्णन मिलता है। 'अंतर्वेदी' विषय की नियुक्ति स्वयं सम्राट स्कंदगुप्त ने की थी।

·         विषयपति के अधीन कर्मचारियों में शामिल थे-

1. शौक्किक- कर वसूलने वाला।

2. गौल्मिक - स्थानीय फ़ौज अथवा जंगलों का अधिकारी।

3. पुस्तपाल, करणिक- दस्तावेज संरक्षण

·         विषयपति का प्रधान कार्यालय अधिष्ठान कहलाता है।

विषयपति के सहयोग हेतु एक समिति होती थी। इनके सदस्यों को विषयमहत्तरकहा जाता था, जिनमें निम्न वर्ग के लोग सदस्य होते थे-

1. नगरश्रेष्ठि (पूंजीपति वर्ग का नेता)

2. सार्थवाह (विषय के व्यापारियों का नेता),

3. प्रथम कुलिक (शिल्पियों व व्यवसायियों का मुखिया),

4. प्रथम कायस्थ (मुख्य लेखक)।


प्रस्तपालअभिलेखों को सुरक्षित रखने वाले अधिकारी को कहते थे। विषय वीथियों में बंटे थे विधि की समिति में भूस्वामियों एवं सैनिक कार्यों से सम्बद्ध व्यक्तियों को रखा गया था। वीथि से छोटी ईकाई पेठ थी। पेठ अनेक ग्राम के समूहों को कहा जाता था। यह ग्राम समूह की छोटी ईकाई थी। इसका उल्लेख संक्षोभ के खोह अभिलेख में मिलता है जहां ओपनी नामक ग्राम को कणनाग पेठ के अंतर्गत बताया गया है।

 

नगर प्रशासन

नगरों का प्रशासन नगर महापालिकाओं द्वारा चलाया जाता था। पुरपालनगर का मुख्य अधिकारी होता था। वह कुमारामात्य के श्रेणी का अधिकारी होता था। जूनागढ़ लेख से ज्ञात होता है कि गिरनार नगर का पुरपाल चक्रपालित था। नगर के शासन के लिए नियुक्ति समिति को सम्भवतः पौरकहा जाता था।

 

ग्राम प्रशासन

ग्रामशासन की सबसे छोटी काई होती थी। ग्राम सभाद्वारा इसका प्रशासन संचालित होता था। ग्राम सभा का मुखिया ग्रामिककहलाता था एवं सदस्यों को महत्तरकहा जाता था जो ग्राम के प्रतिष्ठित एवं कुलीन व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करते थे। कुछ गुप्तकालीन अभिलेखों में ग्राम सभा को ग्राम जनपदएवं पंचमंडलीकहा गया है।


·         गुप्त कालीन प्रशसनिक ईकाई अरोही क्रम में इस प्रकार थे -

देश या राष्ट्रभुक्ति <- विषय <- बीथि <- पेठ <- ग्राम।

 

न्यायप्रशासन

सम्राट साम्राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। इसके अतिरिक्त मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीश होते थे। इस काल में अनेक विधि-ग्रंथ संकलित किए गए। पहली बार दीवानी और फ़ौजदारी क़ानून भली-भांति परिभाषित और पृथक्कृत हुए। चोरी और व्याभिचार फ़ौजदारी क़ानून में आए और सम्पत्ति सम्बन्धी विवाद दीवानी क़ानून में। व्यापारियों एवं व्यवसायियों की श्रेणी होती थी। ये श्रेणियां श्रेणी धर्म के आधार पर अपने विवादों का निपटारा करती थी। पूगनगर में निवास करने वाली विभिन्न जातियों की समिति होती थी। कुलसमान परिवारों के सदस्यों की समिति होती थी। समितियां राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त थीं। ये समितियां आपसी विवाद में निर्णय देती थी। गुप्तकालीन अभिलेखों में न्यायाधीशों का उल्लेख 'महादण्डनायक', 'दण्डनायक' एवं 'सर्वदण्डनायक' के रूप में मिलता है।

सैनिक संगठन

मंत्रिमण्डलीय सदस्य

सदस्य

विभाग

1- हरिषेण

यह समुद्रगुप्त का सन्धिविग्रहिक एवं महादण्डनायक था।

2- शाव (वीरसेन)

चन्द्रगुप्त द्वितीय का सन्धिविग्रहिक

3- शिखरस्वामी

चन्द्रगुप्त द्वितीय का मंत्री एवं कुमारामात्य

4- पृथ्वीषेण

कुमारगुप्त का मंत्री एवं कुमारामात्य





राजा के पास स्थायी सेना थी। सेना के चार प्रमुख अंग थे-

1. पदाति,

2. रथरोही,

3. अश्वारोही

4. गजसेना।

सर्वाच्च सेनाधिकारी 'महाबलाधिकृत' कहलाता था। हाथियों की सेना के प्रधान को 'महापीलुपति' कहते थे। घुडसवारों की सेना के प्रधान को 'भटाश्श्वपति' कहते थे। पदाति समानों की अवस्था करने वाले अधिकारी को 'रणभण्डागरिका' कहते थे। पदाति सेना की टुकड़ी को 'चमूय' कहा जाता था। गजसेना के नायक को 'कटुक' तथा अश्वारोही सेना के प्रमुख को 'अटाश्वपति' कहा जाता था। प्रयाग प्रशस्ति के गुप्तकाल के कुछ अस्त्र-शस्त्रों के नाम मिलते है जैसे- परशु, शर, शंकु, तोमर, मिन्दिपाल, नाराच आदि।

गुप्त काल में प्रशासन की एक मुख्य विशेषता यह थी कि इस समय वेतनों की अदायगी नक़द में न देकर सामान्यतः भूमि अनुदान के रूप में की जाती थी। दो तरह का भूमि अनुदान प्रचलन में था। अग्रहारसिर्फ़ ब्राह्मणों को प्राप्त होने वाला अनुदान होता था। इसके अंतर्गत आने वाली भूमि कर मुक्त होती थी। इस भूमि पर ग्रहीता के वंशानुगत अधिकार के बाद भी राजा यदि ग्रहीता के व्यवहार से संतुष्ठ नहीं है तो वह इस भूमि को वापस ले सकता था। दूसरे प्रकार का भूमि अनुदान वह होता था जिसे राजा अपने अधिकारियों को उनकी सेवा के बदले उपहार के रूप में देता था। 5वीं शती तक भूमिदान की प्रवृत्ति में काफ़ी परिवर्तन हुए और अब भूदान प्राप्तकर्ता को भूमि पर राजस्व प्राप्त करने के अधिकार के साथ-साथ उस भूखण्ड पर प्रशासन का भी अधिकार मिल गया। कालान्तर में इन दोनों अधिकारों से सुरक्षित वर्ग ही 'सामन्त' कहलाया । सातवाहन काल से भूमिदान की प्रथा शुरू हुई। सर्वाधिक भूमि अनुदान गुप्तकाल में दिया गया । ग्रामीण भूमि स्वामी को 'ग्रामिका', 'कुटुम्बिका' और 'नस्तर' कहा जाता था। छोटे किसानों को 'कृषिवाला', 'कृषक' और 'किसान' कहा जाता था।




गुप्तकालीन राजस्व


गुप्त काल 'भारत का स्वर्ण युग' कहा जाता है। गुप्त साम्राज्य में राजपद वंशानुगत सिद्धान्त पर आधारित था। राजा अपने बड़े पुत्र को युवराज घोषित करता था। अपने उत्कर्ष के समय में गुप्त साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्य पर्वत तक एवं पूर्व में 'बंगाल की खाड़ी' से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला हुआ था। गुप्त वंश के कुछ अन्य शासक, जैसे- नरसिंहगुप्त (बालदिल्य), कुमारगुप्त द्वितीय, बुधगुप्त, वैण्यगुप्त, भानुगुप्त,  कुमारगुप्त तृतीय, विष्णुगुप्त आदि में मिलकर कुल 476 ई. से 550 ई. तक शासन किया था।

 

राजकीय आय का स्रोत

'प्रयाग प्रशस्ति' में शक्तिशाली गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त को पृथ्वी पर शासन करने वाला ईश्वर का प्रतिनिधि कहा गया है। साथ ही उसकी तुलना कुबेरवरुण, इन्द्र  यमराज  आदि देवताओं से भी की गई है। गुप्त राजाओं ने अपने साम्राज्य के भीतर अनेक छोटे-छोटे राजाओं पर शासन किया था। साम्राज्य की प्रशासन व्यवस्था और राजस्व आदि की नीति बहुत सुदृढ़ थी। गुप्त काल में राजकीय आय के प्रमुख स्रोत 'कर' थे, जो निम्नलिखित थे-

·         भाग - यह कर राजा को भूमि के उत्पादन से प्राप्त होने वाले भाग का छठा हिस्सा था।

·         भोग - सम्भवतः राजा को हर दिन फल-फूल एवं सब्जियों के रूप में दिया जाने वाला कर।

·         प्रणयकर - गुप्त काल में यह ग्रामवासियों पर लगाया गया अनिवार्य या स्वेच्छा चन्दा था। भूमिकर भोग का उल्लेख 'मनुस्मृति' में भी हुआ है। इसी प्रकार 'भेंट' नामक कर का उल्लेख 'हर्षचरित' में आया है।

·         उपरिकर एवं उद्रंगकर - यह एक प्रकार का भूमि कर होता था। भूमि कर की अदायगी दोनों ही रूपों में 'हिरण्य' (नकद) या 'मेय' (अन्न) में किया जा सकता था, किन्तु छठी शती के बाद किसानों को भूमि कर की अदायगी अन्न के रूप में करने के लिए बाध्य होना पड़ा। भूमि का स्वामी कृषकों एवं उनकी स्त्रियों से बेकार या विष्टि लिया करता था। गुप्त अभिलेखों में भूमिकर को 'उद्रंग' या 'भागकर' कहा गया है। स्मृति ग्रंथों में इसका 'राजा की वृत्ति' के रूप में उल्लेख किया गया है।

·         हलदण्ड कर - यह कर हल पर लगता था। गुप्त काल में वणिकों, शिल्पियों, शक्कर एवं नील बनाने वाले पर राजकर लगता था।


राजस्व के अन्य स्रोत

गुप्त काल में राजस्व के अन्य महत्त्वपूर्ण स्रोतों में भूमिरत्न, छिपा हुआ गुप्त धन, खान एवं नमक आदि थे। इन पर सीधे सम्राट का एकाधिपत्य होता था पर कदाचित यदि इस तरह की खान या गुप्त धन किसी ऐसी भूमि पर निकल आये, जो किसी को पहले से अनुदान में मिली है तो इस पर राजा का कोई भी अधिकार नहीं रह जाता था।

 

भू-राजस्व

संभवतः गुप्त काल में भू-राजस्व कुल उत्पादन का 1/4 से 1/6 तक होता था। स्मृतिकार मनु ने 'मनुस्मृति' कहा है कि- "भूमि पर उसी का अधिकार होता है, जो भूमि को सर्वप्रथम जंगल से भूमि में परिवर्तित करता है।" बृहस्पति और नारद स्मृतियों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति का ज़मीन पर मालिकाना अधिकार तभी माना जा सकता है, जब उसके पास क़ानूनी दस्तावेज हो। इस समय प्रचलन में क़रीब 5 प्रकार की भूमि का उल्लेख मिलता है-

1. क्षेत्र भूमि- ऐसी भूमि जो खेती के योग्य होती हो।

2. वास्तु भूमि- ऐसी भूमि जो निवास के योग्य होती हो।

3. चारागाह भूमि - पशुओं के चारा योग्य भूमि।

4. सिल - ऐसी भूमि जो जोतने योग्य नहीं होती थी।

5. अग्रहत - ऐसी भूमि जो जंगली होती थी।

नोट

अमरसिंह ने 'अमरकोष' में 12 प्रकार की भूमि का उल्लेख किया है, जो निम्नलिखित हैं-

1. उर्वरा

2. ऊसर

3. मरु

4. अप्रहत

5. सद्वल

6. पंकिल

7. जल

8. कच्छ

9. शर्करा

10.    शर्कावती

11.    नदीमातृक

12.    देवमातृक


कृषि की स्थिति

कृषि से जुडे हुए कार्यों को 'महाक्षटलिक' एवं 'कारणिक' देखता था। गुप्त काल में सिंचाई के साधनों के अभाव के कारण अधिकांश कृषि वर्षा पर आधारित थी। वराहमिहिर की 'वृहत्तसंहिता' में वर्षा की संभावना और वर्षा के अभाव के प्रश्न पर काफ़ी विचार विमर्श हुआ है।

वृहत्तसंहिता' में ही वर्षा से होने वाली तीन फ़सलों का उल्लेख है। स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ के अभिलेख से यह प्रमाणित होता है कि इसने 'सुदर्शन झील' की मरम्मत करवाई थी। सिंचाई में 'रहट' या 'घटीयंत्र' या प्रयोग होता था। गुप्त काल में सोनाचाँदीताँबा एवं लोहा जैसी धातुओं का प्रचलन था। पालने योग्य पशुओं में 'अमरकोष' में घोड़े, भैंस, ऊँट, बकरी, भेड़, गधा, कुत्ता, बिल्ली आदि का विवरण प्राप्त होता है।

 

ह्वेन त्सांग का कथन

चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने गुप्त काल की फ़सलों के विषय में बताया है कि पश्चिमोत्तर भारत में ईख (गन्ना) और गेहूँ तथा मगध एवं उसके पूर्वी क्षेत्रों में चावल की पैदावार होती थी। 'अमरकोष' में उल्लिखित कताई-बुनाई, हथकरघा एवं धागे के विवरण से लगता है कि गुप्त काल में वस्त्र निर्माण के क्षेत्र में श्रेणियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। श्रेणियाँ, व्यवसायिक उद्यम एवं निर्माण के क्षेत्र में भी वे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। श्रेणियाँ अपने आन्तरिक मामलों में पूर्ण स्वतंत्र होती थीं। श्रेणी के प्रधान को 'ज्येष्ठक' कहा जाता था। यह पद आनुवंशिक होता था। नालन्दा एवं वैशाली से गुप्त कालीन श्रेष्ठियों, सार्थवाहों एवं कुलिकों की मुहरें प्राप्त होती है। श्रेणियाँ आधुनिक बैंक का भी काम करती थीं। ये धन को अपने पास जमा करती एवं ब्याज पर धन उधार देती थी। ब्याज के रूप में प्राप्त धन का उपयोग मंदिरों में दीपक जलाने के काम में किया जाता था। 437-438 ई के 'मंदसौर अभिलेख' में रेशम बुनकरों की श्रेणी के द्वारा विशाल सूर्य मंदिर के निर्माण एवं मरम्मत का उल्लेख मिलता है।

 

स्कन्दगुप्त का अभिलेख

स्कन्दगुप्त के इंदौर के ताम्रपत्र अभिलेख में इंद्रपुर के देव विष्णु ब्राह्मण द्वारा 'तैलिक श्रेणी' का उल्लेख मिलता है, जो ब्याज के रुपये में से सूर्य मंदिर में दीपक जलाने में प्रयुक्त तेल के खर्च को वहन करता था। गुप्त काल में श्रेणी से बड़ी संस्था, जिसकी शिल्प श्रेणियाँ सदस्य होती थी, उसे 'निगम' कहा जाता था। प्रत्येक शिल्पियों की अलग-अलग श्रेणियाँ होती थी। ये श्रेणियाँ अपने क़ानून एवं परम्परा की अवहेलना करने वालों को सज़ा देने का अधिकार रखती थीं। व्यापारिक नेतृत्व करने वाला 'सार्थवाह' कहलाता था। निगम का प्रधान 'श्रेष्ठीकहलाता था। व्यापारिक समितियों को 'निगम' कहते थे।

 

गुप्तकालीन अभिलेख एवं उनके प्रवर्तक

वृहत्तसंहिता' में ही वर्षा से होने वाली तीन फ़सलों का उल्लेख है। स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ के अभिलेख से यह प्रमाणित होता है कि इसने 'सुदर्शन झील' की मरम्मत करवाई थी। सिंचाई में 'रहट' या 'घटीयंत्र' या प्रयोग होता था। गुप्त काल में सोनाचाँदीताँबा  एवं  लोहा  जैसी धातुओं का प्रचलन था। पालने योग्य पशुओं में 'अमरकोष' में घोड़े, भैंस, ऊँट, बकरी, भेड़, गधा, कुत्ता, बिल्ली आदि का विवरण प्राप्त होता है।

गुप्तकालीन अभिलेख एवं उनके प्रवर्तक

गुप्तकालीन अभिलेख एवं प्रवर्तक

शासक/प्रर्वतक

प्रमुख अभिलेख

1- समुद्रगुप्त

प्रयाग प्रशस्ति, एरण प्रशस्ति, गया ताम्र शासनलेख, नालंदा शासनलेख

2- चन्द्रगुप्त द्वितीय

सांची शिलालेख, उदयगिरि का प्रथम एवं द्वितीय शिलालेख, गढ़वा का प्रथम शिलालेख, मथुरा स्तम्भलेख, मेहरौली प्रशस्ति।

3- कुमार गुप्त

मंदसौर शिलालेख, गढ़वा का द्वितीय एवं तृतीय शिलालेख, विलसड़ स्तम्भलेख, उदयगिरि का तृतीय गुहालेख, मानकुंवर बुद्धमूर्ति लेख, कर्मदाडा लिंकलेख, धनदेह ताम्रलेख, किताईकुटी ताम्रलेख, बैग्राम ताम्रलेख, दामोदर प्रथम एवं द्वितीय ताम्रलेख।

4- स्कन्दगुप्त

जूनागढ़ प्रशस्तिभितरी स्तम्भलेख, सुपिया स्तम्भलेख, कहांव स्तम्भलेख, इन्दौर ताम्रलेख।

5- कुमारगुप्त द्वितीय

सारनाथ बुद्धमूर्ति लेख

6- भानुगुप्त

एरण स्तम्भ लेख।

7- विष्णुगुप्त

पंचम दोमोदर ताम्रलेख।

8- बुधगुप्त

एरण स्तम्भ लेख, राजघाट (वाराणसी) स्तम्भ लेख, पहाड़ ताम्रलेख, नन्दपुर ताम्रलेख, चतुर्थ दामोदर ताम्रलेख।

9- वैण्यगुप्त

टिपरा (गुनईधर) ताम्रलेख।



गुप्त काल में व्यापार एवं वाणिज्य

गुप्त काल में व्यापार एवं वाणिज्य अपने उत्कर्ष पर था। उज्जैन, भड़ौंच, प्रतिष्ष्ठानविदिशाप्रयागपाटलिपुत्रवैशाली, ताम्रलिपिमथुराअहिच्छत्रकौशाम्बी आदि महत्त्वपूर्ण व्यापारिक नगर है। इन सब में उज्जैन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक स्थल था क्योंकि देश के हर कोने से मार्ग उज्जैन की ओर आते थे। स्वर्ण मुदाओं की अधिकता के कारण ही संभवतः गुप्तकालीन व्यापार विकास कर सका।

 

स्वर्ण मुद्रा

गुप्त राजाओं ने ही सर्वाधिक स्वर्ण मुद्राओं ज़ारी की, इनकी स्वर्ण मुद्राओं को अभिलेखों में दीनार‘ कहा गया है। इनकी स्वर्ण मुद्राओं में स्वर्ण की मात्रा कुषाणों की स्वर्ण मुद्राओं की तुलना में कम थी। गुप्त राजाओं ने गुजरातको विजित करने के उपरान्त चांदी के सिक्के चलाए। यह विजय सम्भवतः चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा शकों के विरुद्ध दर्ज की गई थी। तांबे के सिक्कों का प्रचलन गुप्त काल में कम था। कुषाण काल के विपरीत गुप्त काल में आन्तरिक व्यापार में ह्रास के लक्षण दिखते हैं। ह्रास के कारणों में गुप्तकालीन मौद्रिक नीति की असफलता भी एक महत्त्वपूर्ण कारण थी क्योंकि गुप्तों के पास ऐसी कोई सामान्य मुद्रा नहीं थी जो उनके जीवन का अभिन्न अंग बन सकती थी।

फ़ाह्यान ने लिखा है कि गुप्त काल में साधारण जनता दैनिक जीवन के विनिमय में वस्तुओं के आदान प्रदान या फिर कौड़ियों से काम चलाती थी। आन्तरिक व्यापार की ही तरह गुप्तकाल में विदेशी व्यापार भी पतन की ओर अग्रसर था क्योंकि तीसरी शताब्दी ई. में बाद रोमन साम्राज्य निरन्तर हूणों के आक्रमण को झेलते हुए क़ाफी कमज़ोर हो गया था। वह अब इस स्थिति में नहीं था कि अपने विदेशी व्यापार को पहले जैसी स्थिति में बनाये रखे, दूसरे रोम जनता ने लगभग छठी शताब्दी के मध्य चीनियों से रेशम उत्पादन की तकनीक सीख ली थी। चूकिं रेशम व्यापार ही भारत और रोम के मध्य महत्त्वपूर्ण व्यापार का आधार था, इसलिए भारत का विदेशी व्यापार अधिक प्रभावित हुआ।

 

विदेश व्यापार

रोम साम्राज्य के पतन के बाद भारतीय रेशम की मांग विदेशों में कम हो गई जिसके परिणाम स्वरूप 5 वीं शताब्दी के मध्य बुनकरों की एक श्रेणी जो, लाट प्रदेश में निवास करती थीमंदसौर में जाकर बस गयी।

पूर्व में भारत का व्यापार चीन से हो रहा था। इन दोनों के मध्य मध्यस्थ की भूमि सिंहलद्वीपश्रीलंका निभाता था। चीन और भारत के मध्य होने वाला व्यापार सम्भवतः वस्तु विनिमय प्रणाली पर आधारित था जिसकी पुष्टि के लिए यह कहना पर्याप्त है कि न तो चीन के सिक्के भारत में मिले हैं, और न ही भारत के सिक्के चीन में। भारत-चीन को रत्न, केसर, सुगन्धित पदार्थ, सिले-सिलायें सुन्दर वस्त्र आदि निर्यात करता था।

 

समुद्री व्यापार

पूर्वी तट पर स्थित बंदरगाह ताम्रलिप्ति, घंटाशाला एवं कदूरा से शायद गुप्त शासक दक्षिण-पूर्व एशिया से व्यापार करते थे। पश्चिमी तट पर स्थित भड़ौच (ब्रोच), कैम्बे, सोपारा, कल्याण आदि बन्दरगाहों से भूमध्य सागर एवं पश्चिम एशिया के साथ व्यापार सम्पन्न होता था। इस समय भारत में चीन से रेशम (चीनांशुक), इथोपिया से हाथी दांत, अरबईरान एवं बैक्ट्रिया से घोड़ों आदि का आयात होता था। भारतीय जलयान निर्बाध रूप से अरब सागरहिन्द महासागर उद्योगों में से था। रेशमी वस्त्र मलमल, कैलिकों, लिनन, ऊनी एवं सूती था। गुप्त काल के अन्तिम चरण में पाटलिपुत्र, मथुरा, कुम्रहार, सोनपुर, सोहगौरा एवं गंगाघाटी के कुछ नगरों का ह्रास हुआ।


गुप्तकालीन सामाजिक स्थिति

गुप्तकालीन भारतीय समाज परंपरागत 4 जातियों -

1. ब्राह्मण,

2. क्षत्रिय,

3. वैश्य एवं

4. शूद्र में विभाजित था।

·         कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में तथा वराहमिहिर ने वृहतसंहिता में चारों वर्णो के लिए अलग अलग बस्तियों का विधान किया है।

·         न्याय संहिताओं में यह उल्लेख मिलता है कि ब्राह्मण की परीक्षा तुला सेक्षत्रिय की परीक्षा अग्नि सेवैश्य की परीक्षा जल से तथा शूद्र की विषय से की जानी चाहिए। पहले की तरह ब्राह्मणों का इस समय भी समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। गुप्त काल में जाति प्रथा उतनी जटिल नहीं रह गई थी जितनी परवर्ती कालों। ब्राह्मणों ने अन्य जातियों के व्यवसायों को अपनाना आरम्भ कर दिया था।

·         मृच्छकटिकम के उल्लेख से यह प्रमाणित होता है कि चारुदत्त नामक ब्राह्मण वाणिज्य का कार्य करता था। उसे ब्राह्मण का आपद्धर्मकहा गया है। इसके अतिरिक्त कुछ ब्राह्मण वंश जैसे वाकाटक एवं कदम्ब का उल्लेख मिलता है। गुप्त काल के पूर्व ब्राह्मण केवल छः कार्य - अध्ययन, अध्यापन, पूजा-पाठ, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना, माना जाता था।

·         ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ वैश्य शासक जैसे हर एवं सौराष्ट्रअवन्तिमालवा के शूद्र शासकों आदि के विषय में भी जानकारी प्राप्त होती है। स्कन्दगुप्त के इंदौर ताम्रपत्र अभिलेख में कुछ क्षत्रियों द्वारा वैश्य का कार्य करने का उल्लेख मिलता है।

·         [ह्वेनसांग] ने क्षत्रियों के कर्मनिष्ठा की प्रशंसा की है तथा उन्हें निर्दोष, सरल, पवित्र, सीधा और मितव्ययी कहा है। उसके अनुसार क्षत्रिय राजा की जाति थी। कुछ गुप्तकालीन ग्रंथों में ब्राह्मणों को निदेर्शित किया गया है कि वे शूद्रों द्वारा दिए गए अन्न को ग्रहण न करें, जबकि बृहस्पति ने संकट के क्षणों में ब्राह्मणों द्वारा शूद्रों और दासों से अन्न ग्राहण करने की आज्ञा दी। इस काल में शूद्रों द्वारा सैनिक वृत्ति अपनाने हुए इन्हें व्यापारी, कारीगर एवं कृषक होने की अनुमति प्रदान की।

·         ह्नेनसांग के विवरण एवं नृसिंह पुराण के उल्लेख से यह संकेत मिलता है कि शूद्रों ने कृषि कार्य को अपना लिया था। इस प्रकार गुप्त काल में इन्हें रामायणमहाभारत, एवं पुराण सुनने का अधिकार मिल गया।

·         याज्ञवल्क्य ने लिखा है कि शूद्र वर्ग नमः शब्द का प्रयोग कर पंच महायज्ञ कर एकता है।

·         मार्कण्डेय पुराण में दान करना और यज्ञ करना शूद्र का कर्तव्य बताया गया है।

 

मिश्रित जातियाँ

·         गुप्त काल में अनेक मिश्रित जातियों का भी उल्लेख मिलता है जैसे - मूर्द्धावषिक्तअम्बष्ठ, पारशव, उग्र एवं करण। इनमें मुख्य रूप से अम्बष्ठ, उग्र, पारशव की संख्या गुप्तकालीन समाज में अधिक थी।

 

अम्बष्ठ

·         ब्राह्मण पुरुष एवं वैष्य से उत्पन्न संतान अम्बष्ठ कही गई।

·         विष्णु पुराण में इन्हें नदी तट का निवासी माना गया है।

·         मनु ने इनका मुख्य व्यवसाय चिकित्सा बताया है।

पराशव

·         इस जाति की उत्पत्ति ब्राह्मण पुरुष एवं शूद्र स्त्री से हुई है इन्हें निषाद भी कहा जाता है।

·         पुराणों में इनके विषय में जानकारी मिलती है।

उग्र

·         गौतम के अनुसार वैश्य पुरुष एवं शूद्र स्त्री से उत्पन्न जाति उग्र कहलाई पर स्मृतियों का मानना है कि इस जाति की उत्पत्ति क्षत्रिय पुरुष एवं शूद्र जाति की स्त्री से हुई है।

·         इनका मुख्य कार्य था बिल के अन्दर से जानवरों को बाहर निकाल कर जीवन-यापन करना।

·         फ़ाह्यान ने गुप्तकालीन समाज में अस्पृश्य (अछूत) जाति के होने की बात कही है। स्मृतियों में इन्हें 'अन्त्यज' 'चाण्डाल' कहा गया है।

·         पाणिनी ने इसका उल्लेख निरवसितशूद्र के रूप में किया है। सम्भवत इस जाति के उत्पत्ति शूद्र पुरुष एवं ब्राह्मण स्त्री से हुई। यह जाति के बाहर निवास करती थी, इनका मुख्य कार्य था शिकार करना एवं शमशान घाट की रखवाली करना।

·         गुप्त काल में लेखकीय, गणना, आय-व्यय का हिसाब रखने आदि कार्यो को करने वाले वर्ग को कायस्थ कहा गया। सम्भवतः इनकी उत्पत्ति भूमि एवं भू राजस्व के हस्तान्तरण के कारण हुई । गुप्त काल के प्राप्त अभिलेखों में नाम उल्लेख प्रथम कायस्थ या ज्येष्ठ कायस्थ में रूप में हुआ।

 

दास प्रथा

गुप्त काल में दास प्रथा का प्रचलन था। नारद ने 18 प्रकार के दासों का उल्लेख किया है जिनमें मुख्य थे-

1. प्राप्त किया हुआ दास (उपहार आदि से ),

2. स्वामी द्वारा प्रदत्त दास,

3. ऋण का चुकता न करने पाने के कारण बना दास,

4. दांव पर लगाकर हारा हुआ दास (पास आदि खेलों),

5. स्वयं से दासत्व ग्राहण स्वीकार करने वाला दास,

6. एक निश्चित समय के लिए अपने को दास बनाना,

7. दासी के प्रेमजाल में फंस कर बनने वाला दास एवं

8. आत्म-विक्रयी दास (स्वयं को बेचकर)।


·         मनु के सात प्रकार के दासों का उल्लेख किया है। दासियों के बारे में भी जानकारी मिलती है।

·         अमरकोष में दासी समग्र का वर्णन आया है।

इस समय दासों को उत्पादन कार्यो से अलग रखा गया था जबकि मौर्यो के समय में दास उत्पादन के कार्यो में लोग सक्रिय रूप से भाग लेते थे। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि दासों की स्थिति गुप्तों के समय ठीक नहीं थी। अमरकोष में 'दासीसभम्' शब्द के उल्लेख से यह संकेत मिलता है कि गुप्तकाल में दासियों का भी आस्तित्व था। दासों को दासत्व भाव से मुक्त कराने का प्रथम प्रयास नारद ने किया।

 

स्त्रियों की स्थिति

गुप्तकालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति के विषय में इतिहासकार 'रोमिला थापर' ने लिखा है कि 'साहित्य और कला में तो नारी का आदर्श रूप झलकता है पर व्यावहारिक दृष्टि से देखने पर समाज में उनका स्थान गौण था। पितृप्रधान समाज में पत्नी को व्यक्तिगत सम्पत्ति समझा जाता था। पति के मरने पर पत्नी को सती होने के लिए प्रेरित किया जाता था। उत्तर भारत की कुछ सैनिक जातियों के परिवारों में बड़े पैमाने पर सती होने की प्रथा उल्लेख है। प्रथम सती होने का प्रमाण 510 ई. के भानुगुप्त के एरण के अभिलेख से मिलता है जिसमें किसी गोपराज (सेनापति) की मृत्यु पर उसकी पत्नी के सती होने का उल्लेख है। गुप्त काल में पर्दा प्रथा का प्रचलन केवल उच्च वर्ग की स्त्रियों में था।'

 

स्त्रियों के अधिकारों की वृद्धि

·         फ़ाह्यान एवं ह्वेनसांग के अनुसार इस समय पर्दा प्रथा प्रचलन नहीं था।

·         नारद एवं पराशर स्मृति में 'विधवा विवाह' के प्रति समर्थन जताया गया है।

·         गुप्तकालीन समाज में वेश्याओं के अस्तित्व के भी प्रमाण मिलते हैं, पर इनकी वृत्ति की निन्दा की गई।

·         गुप्त काल में वेश्यावृति करने वाली स्त्रियों को गणिकाकहा जाता था। कुट्टनी‘ उन वेश्याओं को कहा जाता था जो वृद्ध हो जाती थी।

·         किन्तु गुप्त काल में स्त्रियों के धन संबधी अधिकारों की वृद्धि हुई। स्त्री धन का दायरा बढ़ा।

·         कात्यायन ने स्त्री को अचल सम्पत्ति की स्वामिनी माना है।

·         गुप्त काल के स्मृतिकारों के अनुसार पुत्र की अचल सम्पत्ति की स्वामिनी माना है।

·         गुप्त काल के स्मृतिकारों के अनुसार पुत्र के अभाव में पुरुष की सम्पत्ति पर उसकी पत्नी का प्रथम अधिकार होता था। (याज्ञवल्क्य स्मृति)

·         अपुत्र पति के मरने पर विधवा पत्नी को उसको उत्तराधिकारी - याज्ञवल्क्य, बृहस्पति और विष्णु मानते हैं।

·         स्त्रियों के स्त्रीधन पर प्रथम अधिकार उसकी पुत्रियों का होता है। (विज्ञानेश्वर)

·         स्त्रियों की सम्पत्ति के अधिकार पर सर्वाधिक व्याख्या याज्ञवल्क्य ने दी है। गुप्तकाल में ब्राह्मण और क्षत्रिय को संयुंक्त रूप से 'द्विज' कहा गया है।

·         याज्ञवल्क्य एवं बृहस्पति ने स्त्री को पति की सम्पत्ति का उत्तराधिकारिणी माना है।

·         इस समय उच्च वर्ग की कुछ स्त्रियों के विदुषी और कलाकार होने का उल्लेख मिलता है।

·         अभिज्ञान शकुन्तलम् में अनुसूया को इतिहास का ज्ञाता बताया गया है।

·         मालवी माधव में मालती को चित्रकला में निपुण बताया गया है।

·         अमरकोष स्त्री शिक्षा के लिए 'आचार्यी', 'अपाध्यायीय' तथा 'उपाध्यया' शब्दों को व्यवहार किया गया है।

·         गुप्तकाल के सिक्कों पर स्त्रियों जैसे - कुमारदेवी, तथा लक्ष्मी के चित्र उच्च वर्ग के स्त्रियों के सम्मानसूचक है।

·         पर्दा प्रथा का प्रचलन था।

·         बाल विवाह एवं बहुविवाह की प्रथा व्यापक हो गई थी।

·         'मेघदूत' में उज्जयिनी के महाकाल मंदिर में कार्यरत देवदासियों का वर्णन मिलता है।

·         मनु के अनुसार जिस स्त्री को पति ने छोड़ दिया हो या जो विधवा हो गई हो, यदि वह अपनी इच्छा से दूसरा विवाह करें तो वह 'पुनर्भू' तथा उसकी संतान 'पनौर्भव' कहा जाता था।



नालन्दा विश्‍वविद्यालय 

प्राचीन भारत में उच्च् शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। बिहार के नालन्दा ज़िले में एक नालन्दा विश्‍वविद्यालय था, जहां देश - विदेश के छात्र शिक्षा के लिए आते थे। आजकल इसके अवशेष दिखलाई देते हैं। पटना से 90 किलोमीटर दूर और बिहार शरीफ़ से क़रीब 12 किलोमीटर दक्षिण में, विश्व प्रसिद्ध प्राचीन बौद्ध विश्वविद्यालय, नालंदा के खण्डहर स्थित हैं। यहाँ 10,000 छात्रों को पढ़ाने के लिए 2,000 शिक्षक थे। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र' का जन्म यहीं पर हुआ था।


अंकोटक एक प्राचीन ऐतिहासिक स्थान है, जिसकी गणना गुप्तकाल में 'लाट देश' के मुख्य नगरों में की जाती थी।

·         इस स्थान से खुदाई में जैन धर्म की अनेक प्राचीन धातु से निर्मित प्रतिमाएँ प्राप्त हुई थीं।

·         इन प्रतिमाओं में से कुछ का परिचय 'जरनल ऑव ओरियंटल इंस्टीट्यूटमें दिया गया है।

·         एक जिनाचार्य की प्रतिमा पर यह अभिलेख उत्कीर्ण है- 'ओं देव धर्मोऽयं निदृत्ति कुले जिनभद्र वाचनाचार्यस्य।'

·         गुजरात के पुरातत्त्व विद्वान् श्री उमाकांत प्रेमानंद शाह का कथन है कि ये जिनभद्र क्षमाश्रमण-विशेषावश्यक भाष्य के रचयिता ही हैं।

·         उमाकांत प्रेमानंद शाह इस प्रतिमा का निर्माणकाल, अभिलेख की लिपि के आधार पर 550-600 ई. मानते हैं।


यशोधर्मन  'यशोधर्मामालवा का राजा था, जिसने 528 ई. के लगभग हूण नेता मिहिरकुल को पराजित किया था। उसने भारतीय इतिहास में अपना ख्यातिपूर्ण स्थान बनाया है। यशोधर्मन ने मन्दसौर में दो कीर्ति स्तम्भ भी स्थापित करवाये थे। उसके पूर्वजों के विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।

·         मिहिरकुल को हराने में सम्भवत: नरसिंहगुप्त बालादित्य ने यशोधर्मन की मदद की थी।

·         यशोधर्मन की निश्चित शासन अवधि ज्ञात नहीं है, किंतु ऐसा विश्वास किया जाता है कि उसने छठी शताब्दी के पूर्वार्ध में शासन किया।

·         मन्दसौर में यशोधर्मन ने दो कीर्ति स्तम्भ स्थापित करवाये थे।

·         कीर्ति स्तम्भों पर अंकित अभिलेखों के अनुसार वह ब्रह्मपुत्र से पश्चिमी समुद्र और हिमालय से त्रावनकोर प्रदेश के पश्चिमी घाट में स्थित महेन्द्रगिरि तक सम्पूर्ण भारत पर शासन करता था।

·         यशोधर्मन की इन प्रशस्तियों में किये गए दावों के अनुपोषण में कोई ऐसा स्वतंत्र एवं पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिसके द्वारा यह सिद्ध होता हो कि वह महान् योद्धा और वीर विजेता राजा था।


अंतर्वेद अथवा 'अंतर्वेदी' से अभिप्राय उस विस्तृत भू-खंड से है, जो गंगा और यमुना के बीच हरिद्वार से प्रयाग तक फैला हुआ था। यह एक समृद्ध दोआब प्रदेश था। 'अंतर्वेदी' नाम प्राचीन संस्कृत अभिलेखों में प्राप्त है।

·         वैदिक काल से बहुत पीछे तक इस दोआब में निरंतर यज्ञादि होते आए थे।

·         अंतर्वेद में वैदिक काल से ही उशीनरपंचाल तथा वत्स अथवा वंश बसते थे।

·         यहाँ से पूर्व की ओर लगे कोसल तथा काशी जनपद थे।

·         अंतर्वेद की पश्चिमी तथा दक्षिणी सीमाओं पर 'कुरु', 'शूरसेन' तथा 'चेदि' आदि का आवास था।

·         ऐतिहासिक युग में इस प्रदेश में कई 'अश्वमेध यज्ञ' सम्पन्न हुए थे, जिनमें समुद्रगुप्त का यज्ञ बड़े महत्व का था।

·         गुप्त काल की शासन व्यवस्था के अनुसार अंतर्वेद गुप्त साम्राज्य का 'विषय' या 'ज़िला' था।

·         स्कंदगुप्त के समय अंतर्वेद का विषयपति शर्वनाग स्वयं सम्राट द्वारा नियुक्त किया गया था। स्कंदगुप्त के इंदौर से प्राप्त अभिलेख में अंतर्वेदिविषय के शासक शर्वनाग का उल्लेख है।

भितरी बनारस से पूर्व गाजीपुर ज़िले में स्थित है।

·         यहाँ पाँचवें गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त (455-67 ई.) ने एक स्तम्भ निर्मित कराया था, जिसके शीर्ष पर विष्णु की मूर्ति थी।

·         इस स्तम्भ की मूर्ति अब लुप्त हो चुकी है, लेकिन स्तम्भ अब भी खड़ा है और इस पर संस्कृत में एक विस्तृत अभिलेख अंकित है।

·         अभिलेख में स्कन्दगुप्त की वंशावली और पुष्यमित्रों तथा हूणों से हुए युद्धों का भी विवरण है।

·         इस अभिलेख के अनुसार स्कन्दगुप्त कुमारगुप्त प्रथम (413-55 ई.) का पुत्र और उत्तराधिकारी था।

·         1889 ई. में कुमारगुप्त द्वितीय की एक मोहर भितरी में मिली थी।

·         इस मोहर पर स्कन्दगुप्त का कोई उल्लेख नहीं है और पुरुगुप्त को कुमारगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी बतलाया गया है।

·         भितरी में प्राप्त अभिलेख तथा मोहर की परस्पर प्रतिकूल बातों का समाधान करने के लिए यह अनुमान किया जाता है कि, पुरुगुप्त, स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई था और वह स्कन्दगुप्त की मृत्यु के उपरान्त सिंहासनारूढ़ हुआ था।


वराह मिहिर (जन्म-ई.स. 499, - मृत्यु ई.स. 587) 

वराह मिहिर का जन्म उज्जैन के समीप 'कपिथा गाँव' में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पिता आदित्यदास सूर्य के उपासक थे। उन्होंने मिहिर को (मिहिर का अर्थ सूर्य) भविष्य शास्त्र पढ़ाया था। मिहिर ने राजा विक्रमादित्य के पुत्र की मृत्यु 18 वर्ष की आयु में होगी, यह भविष्यवाणी की थी। हर प्रकार की सावधानी रखने के बाद भी मिहिर द्वारा बताये गये दिन को ही राजकुमार की मृत्यु हो गयी। राजा ने मिहिर को बुला कर कहा, 'मैं हारा, आप जीते'। मिहिर ने नम्रता से उत्तर दिया, 'महाराज, वास्तव में तो मैं नहीं 'खगोल शास्त्र' के 'भविष्य शास्त्र' का विज्ञान जीता है'। महाराज ने मिहिर को मगध देश का सर्वोच्च सम्मान वराह प्रदान किया और उसी दिन से मिहिर वराह मिहिर के नाम से जाने जाने लगे। भविष्य शास्त्र और खगोल विद्या में उनके द्वारा किए गये योगदान के कारण राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने वराह मिहिर को अपने दरबार के नौ रत्नों में स्थान दिया।

वराह मिहिर की मुलाक़ात 'आर्यभट्ट' के साथ हुई। इस मुलाक़ात का यह प्रभाव पड़ा कि वे आजीवन खगोलशास्त्री बने रहे। आर्यभट्ट वराह मिहिर के गुरु थे, ऐसा भी उल्लेख मिलता है। आर्यभट्ट की तरह वराह मिहिर का भी कहना था कि पृथ्वी गोल है। विज्ञान के इतिहास में वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया कि सभी वस्तुओं का पृथ्वी की ओर आकर्षित होना किसी अज्ञात बल का आभारी है। सदियों बाद 'न्यूटन' ने इस अज्ञात बल को 'गुरुत्वाकर्षण बल' नाम दिया।

रचनाएँ

वेद के एक अंग के रूप में ज्योतिष की गणना होने के कारण हमारे देश में प्राचीन काल से ही ज्योतिष का अध्ययन हुआ था। वेद, वृद्ध गर्ग संहिता, सुरीयपन्नति, आश्वलायन सूत्र, पारस्कर गृह्य सूत्रमहाभारत, मानव धर्मशास्त्र जैसे ग्रंथों में ज्योतिष की अनेक बातों का समावेश है। वराह मिहिर का प्रथम पूर्ण ग्रंथ 'सूर्य सिद्धांत' था जो इस समय उपलब्ध नहीं है। वराह मिहिर ने 'पंचसिद्धांतिक' ग्रंथ में प्रचलित पांच सिद्धांतों - पुलिश, रोचक, वशिष्ठ, सौर(सूर्य) और पितामह का हेतु रूप से वर्णन किया है। उन्होंने चार प्रकार के माह गिनाये हैं -

1. सौर,

2. चन्द्र,

3. वर्षीय और

4. पाक्षिक।

भविष्य विज्ञान इस ग्रंथ का दूसरा भाग है। इस ग्रंथ में लाटाचार्य, सिंहाचार्य, आर्यभट्ट, प्रद्युन्न, विजयनन्दी के विचार उद्धृत किये गये हैं। खेद की बात है कि आर्यभट्ट के अतिरिक्त इनमें से किसी के ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं।

वराह मिहिर के कथनानुसार ज्योतिष शास्त्र 'मंत्र', 'होरा' और 'शाखा' इन तीन भागों में विभक्त था। होरा और शाखा का संबंध फलित ज्योतिष के साथ है। होरा और जन्म कुंडली से व्यक्ति के जीवन संबंधी फलाफल का विचार किया जाता है।[[ शाखा में धूमकेतु, उल्कापात, शकुन और मुहूर्त का वर्णन और विवेचन है। वराह मिहिर की 'वृहत संहिता ' (400 श्लोक) फलित ज्योतिष का प्रमुख ग्रंथ है। इसमें मकान बनवानेकुआँ, तालाब खुदवाने, बाग़ लगाने, मूर्ति स्थापना आदि के शगुन दिए गये हैं। विवाह तथा दिग्विजय के प्रस्थान के समय के लिए भी ग्रंथ लिखे हैं। फलित ज्योतिष पर 'बृहज्जातक' नामक एक बड़ा ग्रंथ लिखा। ग्रह और नक्षत्रों की स्थिति देखकर मनुष्य का भविष्य बताना इस ग्रंथ का विषय है। खगोलीय गणित और फलित ज्योतिष के मिहिर(सूर्य) समान वराह मिहिर का ज्ञान तीन भागों में बंटा हुआ था -

1. खगोल

2. भविष्य विज्ञान

3. वृक्षायुर्वेद

वृक्षायुर्वेद के विषय में सही गणनाओं से समृद्ध शास्त्र उन्होंने लिखा है। बोबाई, खाद बनाने की विधियाँ, ज़मीन का चुनाव, बीज, जलवायु, वृक्ष, समय निरीक्षण से वर्षा की आगाही आदि वृक्ष, कृषि संबंधी अनेक विषयों का विवेचन किया है। वराह मिहिर का संस्कृत व्याकरण पर अच्छा प्रभुत्व था। होरा शास्त्र, लघु जातक, ब्रह्मस्फुट सिद्धांत, करण, सूर्य सिद्धांत, आदि ग्रंथ वराह मिहिर ने लिखे थे, ऐसा उल्लेख देखने को मिलता है।


मृत्यु

इस महान् वैज्ञानिक की मृत्यु ईस्वी सन् 587 में हुई। वराह मिहिर की मृत्यु के बाद ज्योतिष गणितज्ञ ब्रह्म गुप्त ( ग्रंथ- ब्रह्मस्फुट सिद्धांत, खण्ड खाद्य), लल्ल(लल्ल सिद्धांत), वराह मिहिर के पुत्र पृथुयशा (होराष्ट पंचाशिका) और चतुर्वेद पृथदक स्वामी, भट्टोत्पन्न, श्रीपति, ब्रह्मदेव आदि ने ज्योतिष शास्त्र के ग्रंथों पर टीका ग्रंथ लिखे।

तथ्य

·         गुप्त काल के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री वराहमिहिर है।

·         इनके प्रसिद्ध ग्रंथ 'वृहत्संहिता' तथा 'पञ्चसिद्धन्तिका' है।

·         वृहत्संहिता में नक्षत्र-विद्या, वनस्पतिशास्त्रम्, प्राकृतिक इतिहास, भौतिक भूगोल जैसे विषयों पर वर्णन है।

·         राय-चौधरी के अनुसार एरिआके वृहत्संहित में उल्लिखित अर्यक भी हो सकता है।


गढ़वा उत्तर प्रदेश के ज़िला इलाहाबाद के अंतर्गत करछना तहसील के अंतर्गत आता है। इस प्राचीन ऐतिहासिक स्थान से गुप्तकालीन महत्त्वपूर्ण अभिलेख प्राप्त हुये हैं।

·         इस ऐतिहासिक स्थान से चार स्वतंत्र लेख प्राप्त हुये है। ये सभी गुप्तकालीन हैं।

·         गढ़वा से प्राप्त अभिलेखों में एक चन्द्रगुप्त द्वितीय का और दो कुमारगुप्त प्रथम के काल के है। चौथा लेख सम्भवतः स्कन्दगुप्त के काल का है।

·         अभिलेखों में प्रथम तीन में सत्र-संचालन की व्यवस्था के लिए दिये गये दानों का उल्लेख है। अंतिम अर्थात् स्कन्दगुप्तकालीन अभिलेख में अनंतस्वामिनकी मूर्ति की स्थापना की चर्चा है।

·         सभी लेखों से यह भी अनुमानित होता है कि गुप्त काल में वहाँ कोई वैष्णव संस्थान था और इस प्रकार यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि जो उच्चित्र फ़सल यहाँ से प्राप्त हुये हैं, वे इसी संस्थान के भवनों, मन्दिरों आदि के रहे होगें।

·         गढ़वा की कला में गुप्तकालीन कला की सुकुमारता के साथ भरहुत कला का भारीपन भी देखा जा सकता है।


सनकानिक गुप्तकालीन गणराज्य था, जिसकी स्थिति संभवतः मध्य भारत में थी। 

·         सनकानिकों का उल्लेख समुद्रगुप्त की प्रयागप्रशस्ति में है-

'मालवानुर्जनायनयौधेय मद्रकआभीरअर्जुन सनकानिककाक (खाक) खरपरिक...


आम्रकार्द्दव तीसरे गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय (381-413 ई.) का एक सेनापति था।

·         अनेक युद्धों में विजय प्राप्त करने के कारण उसका यश चारों ओर फैला था।

·         चन्द्रगुप्त द्वितीय ने जब पूर्वी मालवा पर हमला किया तो सेनापति आम्रकार्द्दव भी उसके साथ था।

·         उसने सनकानीक महाराज को गुप्तों का सामन्त बनाने तथा पश्चिमी मालवा व काठियावाड़ के शकों का उन्मूलन करने में अपने सम्राट की सहायता की।

·         वह बौद्ध मतावलम्बी था अथवा बौद्ध धर्म में श्रद्धा रखता था।

·         उसने एक बौद्ध विहार को दान दिया था।


गुप्तोत्तर काल में भारत की राजनीतिक स्थिति के निम्नलिखित पहलू विशेष रूप उल्लेखनीय है।

·         दक्षिण भारत के इतिहास के अन्तर्गत चालुक्य एवं पल्लवों के इतिहास का अध्ययन 550 ई. के मध्य।

·         अरबों का सिन्ध पर आक्रमण एवं उसके भारतीय इतिहास पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन।

·         राजपूतों की उत्पत्ति के अन्तर्गत हर्ष के बाद की सभी शक्तियों का अध्ययन।

·         'त्रिपक्षीय संघर्ष' में प्रतिहार, पाल एवं राष्ट्रकूट की भूमिका अध्ययन।

·         9वीं शताब्दी के उपरान्त उत्तरी एवं दक्षिणी भारत के कुछ क्षेत्रीय राज्यों का अध्ययन ।


चंद्र (शासनकाल- 375-415 ई.) नामक सम्राट का ज्ञान मेहरौली में कुतुबमीनार के समीप स्थित लौहस्तंभ के लेख से होता है। इस स्तंभ में सम्राट चंद्र की यशोगाथा उत्कीर्ण है। इससे लगता है कि उन्होंने वंग प्रदेश में एकत्र शत्रुओं को पराजित किया था। सिंधु के सात मुखों को पार कर वाह्लीक को जीता। उनके वीर्यानिल से दक्षिण जलनिधि सुवासित हो रहा था। उन्होंने विस्तृत पृथ्वी पर स्वबाहुबल से एकाधिराज्य स्थापित किया था। अभिलेख लिखे जाने के समय चंद्र स्वयं जीवित नहीं थे। इनके अतिरिक्त लेख के अनुसार वे वैष्णव थे। इस लेख में सम्राट चंद्र के वंश के अनुल्लेख के कारण उनकी पहचान निश्चयपूर्वक करना संभव नहीं है।

चंद्र की पहचान

विभिन्न विद्वानों ने सम्राट चंद्र की पहचान प्राचीन भारत के विभिन्न सम्राटों से करने की चेष्टा की है। इन विद्वानों ने चंद्रगुप्त मौर्यकनिष्क प्रथम, पुष्करण के चंद्रवर्मनचंद्रगुप्त प्रथम, नाग राजाओं- सदाचंद्र या चंद्रांश तथा चंद्रगुप्त द्वितीय के साथ सम्राट चंद्र की पहचान करने की कोशिश की है।

 

विजय का आरंभ

उपरिलिखित राजाओं में चंद्रगुप्त मौर्य के साथ चंद्र की समता स्थापित नहीं की जा सकती, क्योंकि लौहस्तंभ-लेख की लिपि मौर्य युगीन ब्राह्मी से बहुत बाद की है। कनिष्क प्रथम ने अपने साम्राज्यवादी जीवन का आरंभ ही बैक्ट्रिया और उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत से किया, जबकि चंद्र की विजयों का आरंभ बंगाल एवं उसकी परिणति पंजाब और बल्ख में हुई। चंद्रवर्मन एवं नागराजा सदाचंद्र और चंद्रांश छोटे-छोटे स्थानीय शासक थे, जिनके लिये इतनी विस्तृत और साहसिक विजय यात्राएँ संभव न हुई होंगी। चंद्रगुप्त प्रथम स्वयं बल्ख में युद्ध करने की स्थिति में नहीं थे। इसके अतिरिक्त दक्षिण पर उनका प्रभाव भी नहीं था।

 

मेहरौली लेख की बातें

मेहरौली लेख की अधिकांश बातें चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) में उपलब्ध हैं। इसी से अधिकांश विद्वान् चंद्र की पहचान चंद्रगुप्त द्वितीय से करते हैं। गुप्त अभिलेखों से स्पष्ट है कि चंद्रगुप्त द्वितीय को अपने पिता समुद्रगुप्त से एक विस्तृत साम्राज्य उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था। यदि यह माना जाय कि यह लेख चंद्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के उपरांत लिखा गया, तो यह स्वीकार किया जा सकेगा कि लेख खुदवाने वाले व्यक्ति ने अतिरिक्त श्रद्धावश चंद्र को साम्राज्य का संस्थापक कहा होगा। अन्यथा

गुप्त काल की प्रशासनिक व्यवस्था क्या थी?

एक गुप्त शासन प्रणाली प्राक् सामंतीय थी। राजा को रक्षाकर्त्ता तथा पालनकर्त्ता के रूप में सर्वोच्च महत्व दिया जाता था। राजा की सहायता के लिए अधिकारी वर्गों की नियुक्ति की जाती थी जिसमें कुमारामात्य सबसे बड़े अधिकारी थे। इसके अलावा, संधिविग्रह, दंडपाशिक तथा ध्रुवाधिकरण जैसे अधिकारियों का प्रमुख स्थान था।

गुप्तकालीन शासन व्यवस्था की मुख्य विशेषता क्या थी?

गुप्तकालीन शासन व्यवस्था विकेंद्रीकृत थी। समस्त साम्राज्य की शासन-व्यवस्था चार भागों में विभक्त थी-केंद्रीय शासन, प्रांतीय शासन, जिले का शासन और ग्रामीण शासन। इसके अन्तर्गत राजा अर्थात सम्राट का पद वंशानुगत था। अपने सहयोग तथा सत्परामर्श के लिए सम्राट मंत्रिपरिषद का गठन करता था।

कौन सी स्मृति गुप्तकालीन इतिहास के प्रशासन का स्त्रोत है?

कालिदास रचित मालविकाग्निमित्रम्, कुमारसम्भवम्, रघुवंशम् अभिज्ञान-शाकुन्तलम् आदि।

गुप्त काल में प्रान्त को क्या कहा जाता था?

गुप्तकाल में प्रान्त को कहा जाता था- देश, अवनि अथवा युक्ति । भुक्ति के प्रधान को कहा जाता था— उपरिक । सीमान्त प्रदेशों के शासकों को कहा जाता था-गोप्ता । गुप्तकालीन जिलों को कहा जाता था- विषय | विषय के प्रधान को कहा जाता था- विषयपति या कुमारामात्य ।