निम्नलिखित गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए- Show (क) 'कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफ़ी गहरी पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतर गह्वर से अपना भोग्य खींच लाते हैं।' (ख) 'रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज-सत्य। नाम उस पद को कहते हैं जिस पर समाज की मुहर लगी होती है।
आधुनिक शिक्षित लोग जिसे 'सोशल सैक्शन' कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि-मानव की चित्त-गंगा में स्नात!' (ग) 'रूप की तो बात ही क्या है! बलिहारी है इस मादक शोभा की। चारों ओर कुपित यमराज के दारुण निःश्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध अज्ञात जलस्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है।' (घ) हृदयेनापराजितः! कितना विशाल वह हृदय होगा जो सुख से, दुख से, प्रिय से, अप्रिय से विचलति न होता होगा! कुटज को देखकर रोमांच हो आता है। कहाँ से मिलती है यह अकुतोभया वृत्ति, अपराजित स्वभाव, अविचल जीवन दृष्टि!' Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 2 सुमिरिनी के मनके Textbook Exercise Questions and Answers. RBSE Class 12 Hindi Solutions Antra Chapter 2 सुमिरिनी के मनकेRBSE Class 12 Hindi सुमिरिनी के मनके Textbook Questions and Answers(क) बालक बच गया प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4.
इन सब दृश्यों को देखकर लेखक को लगा कि उसके अभिभावकों एवं अध्यापकों ने मिलकर बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटने का प्रयास किया जो नितांत अनुचित था। बालक ने जब इनाम में लड्डू माँगा तो लेखक की साँस में साँस आई क्योंकि ऐसा करके उसने अपनी मूल प्रवृत्तियों को बचा लिया था। प्रश्न 5. साथ ही जब उससे मन मुताबिक इनाम माँगने को कहा गया तो उसने लड्डू माँगा। उसके द्वारा लड्डू की माँग करना हरे पत्तों की मर्मर ध्वनि जैसी थी जो मधुर थी, स्वाभाविक एवं जीवंत थी, जबकि रटे हुए उत्तर देकर प्रतिभा प्रदर्शन की क्रिया सूखे पेड़ से बनी काठ की अलमारी की खड़खड़ाहट थी, जिसे सुनकर आनंद नहीं मिलता, सिर दुखता था। बालक से. उसके अभिभावक और शिक्षक जो कहलवा रहे थे वह अस्वाभाविक था, जबकि खेल-कूद एवं खाने-पीने की इच्छा बालक की स्वाभाविक प्रवृत्ति थी। लड्डू माँगना इसी स्वाभाविक प्रवृत्ति का बोध कराता है। प्रश्न 6. लर्निंग आउटकम (सीखने के प्रतिफल) राष्ट्रीय स्तर पर संचालित एक शिक्षण विधि है जिसमें बालक की आयु के अनुरूप अपेक्षित स्तर, कौशल विकास एवं गुणवत्तायुक्त शिक्षा को परिभाषित किया है। इन शैक्षिक उद्देश्यों की पूर्ति की सटीक निगरानी भी रखी जाती है। . अतः हम कह सकते हैं कि राष्ट्रीय स्तर की शैक्षिक आकांक्षाओं की क्रियान्विति के लिए सभी को समन्वित प्रयास करने होंगे तभी बालक लर्निंग आउटकम से लाभान्वित होकर अपेक्षित प्रदर्शन कर सकेगा। (ख) घड़ी के पुर्जे प्रश्न 1. ठीक इसी तरह धर्म के बारे में जो बताया जा रहा है उसे चुपचाप सुन लो, उसके बारे में तर्क-वितर्क और प्रश्न मत करो। धर्म का रहस्य पता करना उसी प्रकार तुम्हारा काम नहीं है जैसे घड़ी को खोलकर उसके पुर्जे लगाना तुम्हारे वश की बात नहीं। इसी कारण लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए घड़ी के पुजों का दृष्टात दिया है। प्रश्न 2. धर्म आस्था का विषय है, क्या उचित है और क्या अनुचित इसे जानने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को है किन्तु धर्माचार्य धर्म पर पड़े रहस्य को हटाना ही नहीं चाहते। धर्माचार्य धर्म पर अपना एकाधिकार जताकर सामान्य जन को उससे दूर रखते रहे हैं। इस तरह ये लोगों को अपना दास बनाये रखना चाहते हैं। 'स्त्री शूद्रौ वेदम् नाधीयताम्' का उपदेश इसी प्रवृत्ति को व्यक्त करता है। समाज में धर्म के ज्ञाता बढ़ेंगे तो धर्माचार्यों के उपदेश और आचरण पर प्रश्न खड़े करेंगे। अत: वे अपने अनुयायियों को धर्म-ज्ञान से दूर ही रखना चाहते हैं। प्रश्न 3. बाल विवाह, सती प्रथा जैसी सामाजिक रूढ़ियाँ कभी धर्मसंगत थीं पर आज वे न तो तर्कसंगत हैं और न धर्मसम्मत। स्त्री-पुरुष की समानता आज का युगधर्म है किन्तु पहले ऐसा नहीं माना जाता था। वेदों के अध्ययन का अधिकार स्त्रियों तथा शूद्रों को नहीं था परन्तु आज वे धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ने के अधिकारी हैं। इससे सिद्ध होता है कि धर्म सम्बन्धी मान्यताएँ युग और परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती हैं। प्रश्न 4. प्रश्न 5. पंडे-पुजारी, मुल्ला-मौलवी धर्म को अपने अधिकार में रखकर उससे स्वार्थ सिद्ध करते हैं। वे धर्म के नाम पर आम आदमी को ठगते हैं, जबकि धर्म का मूल उद्देश्य आम आदमी को अच्छा इंसान बनाना और उसे बुराई से दूर रखना है। धर्म के नाम पर होने वाले ढोंग, पाखण्ड, अंधविश्वास से आम आदमी तभी बच पाएगा जब वह धर्म का वास्तविक रहस्य जान लेगा। प्रश्न 6. (ख) 'अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाजी का इम्तहान पास कर आया है, उसे तो देखने दो।' (ग) 'हमें तो धोखा होता है कि परदादा की घड़ी जेब में डाले फिरते हो, वह बंद हो गई है, तुम्हें न चाबी देना आता है, न पुर्जे सुधारना, तो भी दूसरों को हाथ नहीं लगाने देते।' (ग) ढेले चुन लो प्रश्न 1. प्रश्न 2.
प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. बेटी का विवाह, ज्योतिषियों से पूछकर या किसी नाई-पंडित के कहे अनुसार तय कर दिया जाता था। आदिवासियों में अपनी परंपरा के अनुसार जीवन साथी का चयन किया जाता है। वर्तमान में बेटियों के शिक्षित होने पर इस स्थिति में आशानुरूप बदलाव आया है। अब जीवन साथी के चुनाव में उसकी योग्यता, पारिवारिक पृष्ठभूमि के साथ-साथ लड़की की सहमति भी अनिवार्य हो गई है। लेकिन शिक्षा से आए इस बदलाव का क्षेत्र अभी सीमित है। 'बेटी ओ' कार्यक्रम के अंतर्गत अभी बालिका शिक्षा पर और ध्यान दिया जाना आवश्यक है, ताकि बेटियाँ पढ़-लिखकर स्वयं आत्मबल संपन्न तथा स्वावलंबी बन सकें। प्रश्न 6. (ख) आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल की मोहर से। आँखों देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस के तेज पिंड से।' वे ग्रह हमसे लाखों-करोड़ों मील दूर हैं, उनके बारे में हमें कुछ पता नहीं है, उनकी तुलना में कम से कम मिट्टी के वे ढेले श्रेष्ठ हैं जिन्हें हमने अपनी. आँख से देखकर किसी स्थान की मिट्टी से बनाया है। आज का कबूतर कल के मोरं से श्रेष्ठ है। आज का पैसा कल के मोहर से अधिक मूल्यवान् है। अच्छी पत्नी चुनने के लिए वर्तमान में प्रचलित प्रणाली को अपनाना ही सही है। योग्यता विस्तार (क) बालक बच गया प्रश्न 1. प्रश्न 2. (ख) घड़ी के पुर्जे प्रश्न 1. सत्य, प्रेम, सद्भाव, ईमानदारी, नैतिक मूल्यों का पालन, सदाचार आदि धर्म के सामान्य लक्षण हैं। हिन्दू धर्म में सबके सुखी और नीरोग होने की प्रार्थना की गई है। सच्चा भक्त ईश्वर से सुख-समृद्धि नहीं लोगों के कष्ट दूर करने की याचना करता है। धर्म का अंकुश व्यक्ति को समाज विरोधी एवं अनैतिक कार्यों से रोकता है। कुछ स्वार्थी धर्माचार्य धर्म के नाम पर अपने स्वार्थ सिद्ध करते हैं। वोटों की राजनीति ने भी धर्म की मूल भावना को नष्ट कर पारस्परिक विद्वेष बढ़ाया है। धर्म को रूढ़ियों और अंधविश्वासों का रूप नहीं दिया जाना चाहिए। धर्म के जड़तापूर्ण रूप ने विश्व में अनेक संकट उत्पन्न किये हैं। प्रसिद्ध फ्रांसीसी विचारक लॉक ने धर्म की उत्पत्ति भय और लोभ से मानी है। मनुष्य उन शक्तियों की पूजा करता है जिनसे उसे कष्ट होने का भय होता है या कुछ पाने की सम्भावना होती है। समाजवादी विचारधारा में धर्म को मनुष्य का विवेक नष्ट करने वाली अफीम कहा जाता है। प्रश्न 2. (ग) ढेले चुन लो प्रश्न 1. धर्म, आस्था और विश्वास की वस्तु है। यदि मानव की किसी धर्म में आस्था है तो उस धर्म के बताए हुये पथ पर उसे चलना चाहिए। धर्म दूसरों के कल्याण के लिए होता है उसे पतन के गर्त में गिराने के लिए नहीं। धार्मिक व्यक्ति वह है जिसका मन ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ आदि विकारों से रहित है। जो मानवता के कल्याण हेतु अपने जीवन को समर्पित करता है और सबका हित चाहता है वही धर्मात्मा है। धर्म बैर-भाव नहीं सिखाता यह तो जोड़ने का काम करता है। प्रश्न 2. RBSE Class 12 Hindi सुमिरिनी के मनके Important Questions and Answersअतिलघूत्तरात्मक प्रश्न - प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. लघूत्तरात्मक प्रश्न - प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. निबन्धात्मक प्रश्न - प्रश्न 1. वे ग्रह हमसे लाखों-करोड़ों मील दूर हैं, उनके बारे में हमें कुछ पता नहीं है, उनकी तुलना में कम से कम मिट्टी के वे ढेले श्रेष्ठ हैं जिन्हें हमने अपनी आँख से देखकर किसी स्थान की मिट्टी से बनाया है। आज का कबूतर कल के मोर से श्रेष्ठ है। आज का पैसा कल के मोहर से अधिक मूल्यवान् है। अच्छी पत्नी चुनने के लिए वर्तमान में प्रचलित प्रणाली को अपनाना ही सही है। प्रश्न 2. प्रश्नों का स्तर बालक की उम्र के लिहाज से कहीं ऊपर था। बालक को इन प्रश्नों के उत्तर रटा दिए गए थे और वह रटे-रटाए जवाब आँखें नीची करके दे रहा था। तभी एक वृद्ध महाशय ने बालक को आशीर्वाद देते हुए कहा कि यदि तुझे मुँहमाँगा इनाम माँगने को कहा जाए तो क्या लेगा ? अध्यापकों को लगा कि यह किसी किताब का नाम लेगा पर बालक के मुँह से निकला लड्डू। यह सुनते ही गुलेरी जी की साँस में साँस आई और उन्हें लगा कि बालक बच गया। प्रश्न 3. उसके अंदर अभी इतनी समझ विकसित नहीं हुई कि वह इतने गंभीर विषयों को समझे। उसे यह सब रटवाया गया था। उनके इस प्रयास से बालक की बालसुलभ प्रवृत्तियों का पूरी तरीके से ह्रास हो गया है। लेकिन फिर भी उसका लड्डू माँगना इस बात की ओर संकेत करता है कि अब भी कहीं उसमें बच्चों वाली आदतें बची ई हैं ! जो उसे और सभी बच्चों के बराबर का बनाती हैं। लेखक को लग रहा था कि अभी भी इस बालक के कोमल स्वभाव को बचाया जा सकता है। प्रश्न 4. इसी प्रकार लोग प्रायः बिना धर्म को समझे ही उसके जाल में उलझे रहते हैं क्योंकि उनके लिए पुरोहितों ने इस धर्म के जाल को रहस्य बना रखा है। लोग इस रहस्य को जानने की कोशिश भी नहीं करते और धर्मगुरुओं के हाथ की कठपुतली बने रहते हैं। लेखक घड़ी का उदाहरण देते हुए कहता है कि घड़ी को पहनने वाला अलग होता है और ठीक करने वाला अलग। आजकल धर्म के ठेकेदार साधारण लोगों के लिए बेवजह के कुछ कायदे-कानून बना देते हैं और लोग बिना किसी विवेक के इस जाल में उलझे रहते हैं। प्रश्न 5. मगर धर्म की पढ़ाई और चीजें बहुत ही सरल और आसान हैं, जैसे कि गलत न देखना, सत्य बोलना, बड़ों का आदर, गरीबों की मदद, अन्याय का विरोध, न्याय करना धर्म है। चोरी, धोखा, अन्याय, अपने स्वार्थों के लिए लोगों पर अत्याचार करने वाला कभी धार्मिक नहीं हो सकता। सही शब्दों में अधर्म यही कहलाता है। श्रीकृष्ण ने महाभारत में .पांडवों का साथ देना धर्म समझा था। क्योंकि कौरवों ने पांडवों का अधिकार छीनकर अधर्म किया था। श्रीकृष्ण ने कहा है कि यदि धर्म रक्षा में भाई, भाई के विरुद्ध में भी खड़ा हो, तो वह अधर्म नहीं कहलाएगा। प्रश्न 6. हर धर्म का अपना रूप, सबसे अलग मान्यता तय करते हुए एक अर्थ बनाया। धर्मों का मूल स्वभाव परोपकार तथा मानवता पर आधारित था। लेकिन आडंबरों ने इसमें स्थान बनाना शुरू कर दिया। विश्व में विभिन्न धर्मों के लोग और अलग-अलग सम्प्रदायों को मानने वाले विद्यमान हैं। अकेले भारत में ही हिन्दू, ईसाई, बौद्ध, जैन, मुस्लिम न जाने कितने ही धर्म हैं। समय-समय पर अलग-अलग धर्माचार्य हुए, सबने अपनी-अपनी व्याख्या दी। लोग इसे अपनी समझ और विवेकानुसार अलग दिशाओं में ले गये। प्रश्न 7. इन आडंबरों के चक्कर में लोगों ने मानवता लगभग भुला ही दी थी। समाज में अब भी ऐसी कुरीतियों मौजूद हैं किन्तु इस स्थिति में पहले की अपेक्षा बहुत सुधार हुआ है। आजकल धर्म का अर्थ लोगों ने बहुत हद तक समझ लिया है। वह आम आदमी से जुड़ गया है। वह स्वयं को इन आडंबरों से मुक्त करने लगा है। अब धर्म की मान्यताओं, धारणाओं तथा परंपराओं में बदलाव हुए हैं। इसी कारण जहाँ समाज के स्तर में सुधार हुआ है, वहीं विकास भी हुआ है। साहित्यिक परिचय का प्रश्न - प्रश्न : संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ ही लोक प्रचलित शब्दों और मुहावरों को आपकी भाषा में स्थान प्राप्त है। शैली साहित्यकार के नाते गुलेरी जी के विविध रूप हैं। इस कारण आपने विवेचनात्मक, वर्णनात्मक तथा संवादात्मक शैली को अपनाया है। आवश्यकतानुसार आपने समीक्षात्मक तथा नाटकीय शैली का भी प्रयोग किया है। उनकी रचनाओं में यत्र-तत्र व्यंग्य के भी छींटे हैं। प्रमुख कृतियाँ - कहानियाँ - सुखमय जीवन, बुद्ध का काँटा, उसने कहा था। सिर्फ 'उसने कहा था' कहानी से गुलेरी जी हिन्दी कहानीकारों में अमर हो गये हैं। सम्पादन - (1) समालोचक (1903-06 ई.), (2) मर्यादा (1911 से 12 ई.), (3) प्रतिभा (1918-20 ई.), (4) नागरी प्रचारिणी पत्रिका (1920-22 ई.)। सम्मान - गुलेरी जी विद्वान् इतिहासकार थे। इस कारण आपको 'इतिहास दिवाकर' की उपाधि से सम्मानित किया गया था। सुमिरिनी के मनके Summary in Hindiजन्म - सन् 1883 ई.। स्थान - पुरानी बस्ती, जयपुर (राजस्थान)। संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित, बहुभाषाविद्, प्राचीन इतिहास और पुरातत्व वेत्ता, भाषा-विज्ञानी, लेखक और समालोचक। सन् 1904 से 1922 तक अनेक महत्वपूर्ण संस्थानों में प्राध्यापक रहे। पं. मदनमोहन मालवीय के आग्रह पर 11 फरवरी, 1922 ई. को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्य विभाग के प्राचार्य बने। निधन - सन् 1922 ई.। भाषा - संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, ब्रज, अवधी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, बांग्ला (भारतीय भाषा में) के साथ अंग्रेजी, लेटिन और फ्रेंच पर भी गुलेरी जी की अच्छी पकड़ थी। गुलेरी जी ने लेखन के लिए खड़ी बोली हिन्दी को अपनाया। आपने निबन्ध, कहानी, समालोचना, इतिहास आदि पर लेखनी चलाई। उनकी भाषा सरल, सरस तथा विषयानुकूल है। उसमें सहज प्रवाह है। संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ ही लोक प्रचलित शब्दों और मुहावरों को आपकी भाषा में स्थान प्राप्त है। उनके भाषा जगत में विभिन्न भाषाओं के शब्द मिल जाते हैं। उनकी कहानी ‘उसने कहा था' में पंजाबी शब्द ही नहीं पंजाबी वाक्य भी प्रयुक्त हुए हैं। इस प्रकार आपकी भाषा अत्यन्त समृद्ध और. सम्पन्न है। आप वर्णित विषय के अनुरूप शब्द-चयन में निपुण हैं। शैली - साहित्यकार के नाते गुलेरी जी के विविध रूप हैं। इस कारण आपने विवेचनात्मक, वर्णनात्मक तथा संवादात्मक शैली को अपनाया है। आवश्यकतानुसार आपने समीक्षात्मक तथा नाटकीय शैली का.भी प्रयोग किया है। उनकी रचनाओं में यत्र-तत्र व्यंग्य के भी छींटे हैं। 'धर्म' के सम्बन्ध में उपदेशकों के बारे में गुलेरी जी का यह कथन देखने योग्य हैं "हमें तो धोखा होता है कि परदादा की घड़ी जेब में डाले फिरते हो, वह बन्द हो गई है, तुम्हें न चाबी देना आता है न पुर्जे सुधारना तो भी दूसरों को हाथ नहीं लगाने देते।" प्रमुख कृतियाँ कहानियाँ सुखमय जीवन, बुद्ध का काँटा, उसने कहा था। सिर्फ 'उसने कहा था' कहानी से गुलेरी जी हिन्दी कहानीकारों में अमर हो गये हैं। निबन्ध - गुलेरी जी ने निबन्धों (विविध विषयों पर) की रचना की। ये निबन्ध अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। - सम्पादन गुलेरी जी ने चार पत्रिकाओं का सम्पादन किया -
सम्मान - गुलेरी जी विद्वान् इतिहासकार थे। इस कारण आपको 'इतिहास दिवाकर' की उपाधि से सम्मानित किया गया था। पाठसारांश इस पाठ का नाम है सुमिरिनी के मनके, जिसके अन्तर्गत तीन लघु वृत्तांत प्रस्तुत किए गए हैं इनके शीर्षक हैं (क) बालक बच गया, (ख) घड़ी के पुर्जे और (ग) ढेले चुन लो। इनका सारांशं निम्न प्रकार है (क) बालक बच गया - एक पाठशाला के वार्षिक उत्सव में गुलेरी जी को भी बुलाया गया था। उस पाठशाला के प्रधानाध्यापक का आठ साल का इकलौता पुत्र भी वहाँ उपस्थित था। उसका मुँह पीला, आँखें सफेद थीं और वह नीची नजर किए हुए जमीन को देख रहा था। उसकी प्रतिभा की परीक्षा ली जा रही थी। उसे विभिन्न विषय रटू तोते की तरह रटाए गए थे। प्रधानाध्यापक उपस्थित समुदाय पर अपने पुत्र की प्रतिभा की छाप छोड़ना चाहते थे। बालक से नव रस, भूगोला, इतिहास, ज्ञान-विज्ञान सम्बन्धी अनेक प्रश्न पूछे गए। बालक ने इन सभी प्रश्नों के सही जवाब दिए क्योंकि वे उसे पहले से रटाए गये थे। उपस्थित समुदाय बालक की प्रशंसा कर रहा था। एक वृद्ध ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम जो इनाम माँगो वही दूंगा। बालक कुछ सोचने लगा। पिता और अन्य अध्यापकों को यह चिन्ता हुई कि देखें यह क्या जवाब देता है, कौन-सी पुस्तक माँगता है ? बालक के मुख पर तरह-तरह के भाव आ-जा रहे थे अन्त में उसके मुख से शिमला- 'लड्डू'। पिता और अन्य अध्यापक यह सुनकर निराश हो गए किन्तु गुलेरी जी ने सुख की साँस ली। उन्हें लगा कि सब लोग मिलकर बाल प्रवृत्ति का गला घोंट रहे थे, उस पर अपनी इच्छाएँ लाद रहे थे। शिक्षा रटंत विद्या नहीं है और जबर्दस्ती किसी पर नहीं थोपी जा सकती। शिक्षा के क्रम में हम बालकों की मूल प्रवृत्ति का गला घोंट दें यह कतई जरूरी नहीं है। (ख) घड़ी के पुर्जे-घड़ी समय बताती है। यदि आपको समय जानना है तो किसी घड़ी वाले से समय पूछकर अपना काम चला लो। यदि अधिक करना चाहो तो स्वयं घड़ी देखना सीख लो किन्तु घड़ीसाज बनने का प्रयास मत करो। यदि तुम घड़ी खोलकर उसके पुर्जे हटाकर उन्हें फिर से साफ करके लगाना चाहोगे तो यह तुमसे संभव न हो सकेगा, तुम उसके अधिकारी नहीं हो। घड़ी का यह उदाहरण उपदेशक धर्म के सिलसिले में प्रायः देते हैं। धर्म का रहस्य जानने की इच्छा प्रत्येक मनुष्य को नहीं करनी चाहिए। वे कहते हैं कि जो वे कह रहे हैं सुनने वाले चुपचाप उनको मान लें। उन पर तर्क-वितर्क न करें। धर्म का रहस्य जानना उनका काम नहीं है। किन्तु इस दृष्टांत से हमारी जिज्ञासा पूर्ण नहीं हो जाती। यदि हमें घड़ी देखना आता है और दो घड़ियों में समय का भारी अंतर दिखता है तो निश्चय ही हमें घड़ी खोलकर यह देखने की जरूरत है कि इसका कौन-सा पुर्जा सही काम नहीं कर रहा। पुर्जे खोलकर ठीक करना भी जरूरी है। उन उपदेशकों को यह भी समझाना जरूरी है कि वे अपनी जेब में परदादा की जो धर्मरूपी घड़ी डाले फिरते हैं, वह बंद हो चुकी है और उनको न चाबी देना आता है, न पुर्जे सुधारना, फिर भी वे दूसरों को उसमें हाथ नहीं लगाने देते। इस लघु निबंध में लेखक ने धर्म उपदेशकों द्वारा धर्म के रहस्य को जानने पर लगाए गए प्रतिबंधों को घड़ी के दृष्टांत से गलत ठहराया है और उन पर कठोर व्यंग्य-प्रहार किया है। (ग) ढेले चुन लो - अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटककार शेक्सपीयर के नाटक 'मर्चेट ऑफ वेनिस' की नायिका पोर्शिया अपने वर को सुंदर रीति से चुनती है। भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के नाटक 'दुर्लभ बंधु' की नायिका पुरश्री के सामने तीन पेटियाँ हैं सोने की, चाँदी की और लोहे की। इनमें से एक में उसकी प्रतिमूर्ति है। स्वयंवर में भाग लेने वालों को उनमें से एक को चुनना है। सच्चा प्रेमी लोहे की पेटी छूता है और प्रथम पुरस्कार पाता है। लेखक कहता है कि पत्नी चुनने के लिए ऐसी ही लाटरी वैदिक काल के हिन्दुओं में प्रचलित थी। पढ़-लिखकर कोई स्नातक विवाह की इच्छा से किसी कन्या के घर जाता, उसके पिता को गाय भेंट करता और कन्या के सामने कुछ मिट्टी के ढेले रख देता। वह स्नातक उन ढेलों को अलग-अलग जगह से मिट्टी लेकर बनाता था। जैसे-यज्ञवेदी की मिट्टी, गौशाला की मिट्टी, खेत की मिट्टी; चौराहे की मिट्टी, मसान की मिट्टी आदि। वह कन्या से एक ढेला उठाने को कहता। अगर कन्या ने गोबरयुक्त मिट्टी का ढेला चुना तो इसका अर्थ होता था कि उसका पति 'पशुओं का धनी' होगा, खेत की मिट्टी का ढेला चुनने वाली का पति 'जमींदार पुत्र' होगा और यदि मसान की मिट्टी को उसने हाथ लगाया तो तात्पर्य यह लिया जाता कि यह घर को श्मशान बना देगी। यह तो एक प्रकार की लाटरी है जिसका उल्लेख प्राचीन ग्रंथों- आश्वलायन, गोभिल, भारद्वाज आदि में मिलता है। जन्मभर के साथी का चनाव मिट्टी के ढेलों के आधार पर करना कहाँ की बद्धिमत्ता है। व्यक्ति को अपनी बद्धि से चनाव करना चाहिए न कि मिट्टी के ढेलों से। जो रूढ़ियाँ और परम्पराएँ तर्कसंगत और बुद्धिविरोधी हों उन्हें त्याग देना ही श्रेयस्कर है - यही इस लघु निबंध की शिक्षा है। कठिन शब्दार्थ :
महत्त्वपूर्ण व्याख्याएँ - 1. एक पाठशाला का वार्षिकोत्सव था। मैं भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के प्रधान अध्यापक का एकमात्र पुत्र जिसकी अवस्था आठ वर्ष की थी, बड़े लाड़ से नुमाइश में मिस्टर हादी के कोल्हू की तरह दिखाया जा रहा था। उसका मुँह पीला था, आँखें सफेद थीं, दृष्टि भूमि से उठती नहीं थी। प्रश्न पूछे जा रहे थे। उनका वह उत्तर दे रहा था। संदर्भ प्रस्तुत पंक्तियाँ पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी द्वारा लिखे गए निबंध 'सुमिरिनी के मनके' के प्रथम खण्ड 'बालक बच गया' से ली गई हैं। यह पाठ हमारी पाठ्य-पुस्तके 'अतंरा भाग-2' में संकलित है। प्रसंग - एक विद्यालय के वार्षिकोत्सव में आठ वर्ष के बालक से प्रश्न पूछे जा रहे थे और वह रटे-रटाए उत्तर दे रहा था। वास्तव में वहाँ के प्रधानाध्यापक अपने बेटे की तथाकथित प्रतिभा की प्रदर्शनी (नुमाइश) कर रहे थे। व्याख्या - एक विद्यालय में वार्षिकोत्सव का आयोजन था जिसमें लेखक गुलेरी जी को भी बुलाया गया था। वहाँ के प्रधानाध्यापक का आठ वर्षीय बालक मंच पर प्रदर्शित किया जा रहा था ठीक उसी तरह जैसे मिस्टर हादी का कोल्हू नुमाइश में दिखाया जा रहा हो। प्रधानाचार्य जी का मुख्य उद्देश्य यह दिखाना था कि देखो मेरा पुत्र कितना होशियार है। तरह-तरह के प्रश्न उससे पूछे जा रहे थे और वह सिर झुकाए रटे-रटाए उत्तर दे रहा था। बालक का स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। मुँह पीला और आँखें सफेद थीं जो इस बात को व्यक्त कर रही थीं कि वह रटू तोता है तथा उसकी सामान्य बाल प्रवृत्तियों का दमन करके केवल उसकी पढ़ाई पर जोर दिया जा रहा है। विशेष :
2. धर्म के दस लक्षण वह सुना गया, नौ रसों के उदाहरण दे गया। पानी के चार डिग्री के नीचे शीतता में फैल जाने के कारण और उससे मछलियों की प्राणरक्षा को समझा गया, चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक समाधान दे गया, अभाव को पदार्थ मानने न मानने का शास्त्रार्थ कह गया और इग्लैंड के राजा आठवें हेनरी की स्त्रियों के नाम और पेशवाओं का कुर्सीनामा सुना गया। यह पूछा गया कि तू क्या करेगा। बालक ने सीखा सिखाया उत्तर दिया कि मैं यावज्जन्म लोकसेवा करूँगा। सभा वाह-वाह करती सुन रही थी, पिता का हृदय उल्लास से भर रहा था। संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ 'सुमिरिनी के मनके' नामक पाठ के प्रथम खण्ड 'बालक बच गया' से ली गई हैं। पंडित चंद्रधर शर्मा का यह पाठ हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा भाग-2' में संकलित है। प्रसंग : एक विद्यालय के वार्षिकोत्सव में प्रधानाचार्य अपने बालक की योग्यता का प्रदर्शन कर रहे थे। उस पढ़ाकू बालक से विभिन्न विषयों के प्रश्न पूछे जा रहे थे और वह उनका रटा-रटाया उत्तर दे रहा था और लोग वाह-वाह' कर रहे थे किन्तु वास्तविकता यह थी कि ऐसा करके उसकी-बाल प्रवृत्तियों का दमन किया गया था। व्याख्या - बालक से वार्षिकोत्सव में तरह-तरह के प्रश्न पूछे जा रहे थे जिनके रटे-रटाए उत्तर वह दे रहा था। इस प्रकार बालक की प्रतिभा का प्रदर्शन कर उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को दबाया जा रहा था। बालक से धर्म के दस लक्षण बताने को कहा गया, उसने रटे हुए लक्षण सुना दिए। पूछने पर नौ रसों के नाम उदाहरण सहित बता दिएं। विज्ञान और भूगोल से जुड़े प्रश्नों-शीतता, चंद्रग्रहण आदि के कारण भी उसने सही-सही बताये। उसने दर्शनशास्त्र के प्रश्नों के सही उत्तर दिए और यह भी बता दिया कि इंग्लैंड के राजा हेनरी आठवें की स्त्रियों के क्या नाम थे और पेशवाओं का कुर्सीनामा भी उसने सुना दिया। उससे यह भी पूछा गया कि तू क्या बनना चाहता है। इसका रटा-रटाया जवाब भी उसने दिया कि मैं जीवन-पर्यन्त लोक सेवा करूंगा। उसके उत्तर को सुनकर वहाँ उपस्थित लोग वाह-वाह करते हुए उसकी प्रशंसा कर रहे थे तथा पिता का हृदय अपने पुत्र के इस प्रतिभा-प्रदर्शन पर उल्लास से भर रहा था। विशेष :
3. बालक कुछ सोचने लगा। पिता और अध्यापक इस चिंता में लगे कि देखें यह पढ़ाई का पुतला कौन-सी पुस्तक माँगता है। बालक के मुख पर विलक्षण रंगों का परिवर्तन हो रहा था, हृदय में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई की झलक आँखों में दीख रही थी। कुछ खाँसकर, गला साफ कर नकली परदे के हट जाने पर स्वयं विस्मित होकर बालक ने धीरे से कहा, 'लड्डू'। पिता और अध्यापक निराश हो गए। इतने समय तक मेरा श्वास घुट रहा था। अब मैंने सुख से साँस भरी। उन सबने बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कुछ उठा नहीं रखा था। पर बालक बच गया। संदर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'सुमिरिनी के मनके शीर्षक पाठ के प्रथम अंश 'बालक बच गया' से ली गई हैं। इस पाठ के लेखक प्रसिद्ध कहानीकार पं. चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी हैं और यह हमारी पाठ्य-पुस्तक अंतरा भाग 2' में संकलित है। प्रसंग : एक विद्यालय के वार्षिकोत्सव में आठ वर्ष के बालक की प्रतिभा की प्रदर्शनी हो रही थी। उससे तरह-तरह के सवाल पूछे जा रहे थे और वह उनके रटे-रटाए उत्तर देकर सबकी प्रशंसा प्राप्त कर रहा था। एक वृद्ध महाशय ने बच्चे के सिर पर हाथ रखकर जब मनचाहा इनाम माँगने के लिए कहा तो बच्चे के मुख से अनायास निकला--'लड्डू'। लेखक निष्कर्ष निकालता है कि यही बच्चे की स्वाभाविक प्रवृत्ति थी। व्याख्या : जब बालक से मनचाहा इनाम माँगने को कहा गया तो बालक सोच में पड़ गया-'क्या माँगू'। पिता और अध्यापक सोचने लगे कि संभवतः वह किसी किताब को इनाम में माँगेगा। बालक के मुख पर तरह-तरह के भाव आ-जा रहे थे। स्वाभाविक और बनावटी भावों का अन्तर्द्वन्द्व उसके हृदय में चल रहा था। अन्त में कुछ खाँसकर, गला साफ कर बालक ने इनाम में माँगा-'लड्डू'। यह सुनकर उसका पिता और अध्यापक तो निराश हो गए किन्तु लेखक (गुलेरी जी) प्रसन्न हो गए। उन्हें लगा कि इस बालक ने लड्डू कहकर अपनी 'बालवृत्ति' को बचा लिया। स्वाभाविक ही बालक किसी खाने-पीने की चीज के प्रति जो रुचि रखता है, वह पढ़ने के प्रति.या किताबों के प्रति नहीं। परन्तु अभिभावकों और अध्यापकों ने उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को दबाकर पढ़ाई का जो बोझ उसके ऊपर डाल दिया था, उससे उसका बाल स्वभाव दब गया था, पर लड्डू माँगकर उस बालक ने स्वयं को (अपने बालपन को) जैसे बचा लिया। उसके पिता एवं अन्य लोगों ने बालक की सामान्य स्वाभाविक प्रवृत्तियों का गला घोंटने का पूरा प्रयास किया था पर बालक ने अपनी इच्छा से लड्डू माँगकर जैसे अपने को बचा लिया थ। विशेष :
4. धर्म के रहस्य जानने की इच्छा प्रत्येक मनुष्य न करे, जो कहा जाए वही कान ढलकाकर सुन ले, इस सत्ययुगी मत के समर्थन में घड़ी का दृष्टांत बहुत तालियाँ पिटवाकर दिया जाता है। घड़ी समय बतलाती है। किसी घड़ी देखना जाननेवाले से समय पूछ लो और काम चला लो। यदि अधिक करो तो घड़ी देखना स्वयं सीख लो किन्तु तुम चाहते हो
कि घड़ी का पीछा खोलकर देखें, पुर्जे गिन लें, उन्हें खोलकर फिर जमा दें, साफ करके फिर लगा.लें यह तुमसे नहीं होगा। तुम उसके अधिकारी नहीं। यह तो वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है कि घड़ी के पुर्जे जानें, तुम्हें इससे क्या ? संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ पण्डित चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी द्वारा रचित पाठ 'सुमिरिनी के मनके' से ली गई हैं। यह अंश इस पाठ के दूसरे खण्ड 'घड़ी के पुर्जे' से उद्धृत किया गया है जिसे हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा भाग 2' में संकलित किया गया है। प्रसंग : धर्म का उपदेश देने वाले विद्वान घड़ी का उदाहरण देकर धर्म के विषय में बताते हैं। घड़ी में केवल समय देखो। उसको खोलकर मत देखो। धर्म के उपदेश सुनो, उस पर तर्क मत करो। व्याख्या : धर्मोपदेशक प्रायः यह कहा करते हैं कि तुम्हें धर्म के बारे में जो कुछ बताया जाए उसे चुपचाप कान खोलकर सुन लो, उस पर कोई टीका-टिप्पणी मत करो, कोई जिज्ञासा न करो क्योंकि तुम्हें धर्म का रहस्य जानने की कोई आवश्यकता नहीं। इस धर्मरूपी घड़ी का उपयोग तुम्हें केवल समय जानने के लिए करना है न कि घड़ी को पीछे से खोलकर उसके पों को देखने, खोलने, साफ करने या पुनः जोड़ने की जरूरत है। जब धर्मोपदेशक धर्म की तुलना घड़ी से करते हैं तो श्रोता ताली बजाकर उनका समर्थन करते हैं। इस प्रकार तालियाँ पिटवाकर उपदेशक लोगों के मन में धर्म का रहस्य जानने के लिये उठी. जिज्ञासा को बेमानी बताकर उसे शांत करना चाहते हैं। किन्तु वास्तव में ऐसा होता नहीं। हर व्यक्ति के मन में धर्म का रहस्य जानने की कुछ जिज्ञासा रहती है। साथ ही जो शंकाएँ उसके मन में उठती हैं उनका वह समाधान भी करना चाहता है। विशेष :
5. इसी दृष्टांत को बढ़ाया जाए तो जो उपदेशक जी कह रहे हैं उसके विरुद्ध कई बातें निकल आवें। घड़ी देखना तो सिखा दो, उसमें तो जन्म और कर्म की पख न लगाओ, फिर दूसरे से पूछने का टंटा क्यों? गिनती हम जानते हैं, अंक पहचानते हैं, सइयों की चाल भी देख सकते हैं, फिर आँखें भी हैं तो हमें ही न देखने दो, पड़ोस की घड़ियों में दोपहर के बारह बजे हैं। आपकी घड़ी में आधी रात है, जरा खोलकर देख न लेने दीजिए कि कौन-सा पेच बिगड़ रहा है, यदि पुर्जे ठीक हैं और आधी रात ही है तो हम फिर सो जाएंगे, दूसरी घड़ियों को गलत न मान लेंगे पर जरा देख तो लेने दीजिए। संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' द्वारा लिखे गए 'सुमिरिनी के मनके' पाठ के लघु शीर्षक 'घड़ी के पुर्जे' से ली गई हैं। इसे हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा भाग - 2' में संकलित किया गया है। प्रसंग : धर्म के रहस्य को जानने पर धर्मोपदेशक द्वारा लगाये गये प्रतिबंध को लेखक ने अनुचित बताया है। इसको धर्माचार्य तक सीमित रखना धर्म और समाज दोनों के ही हित में नहीं है। व्याख्या : धर्मोपदेशक तो यह चाहते हैं कि धर्म के सम्बन्ध में जो कुछ कहा जाए चुपचाप सुन लो, उसके रहस्य को घडी का काम समय बताना है। यदि घडी खराब हो गई हो तो उसे स्वयं खोलकर देखना ठीक नहीं। घड़ीसाज को ही यह काम करने दो, ऐसा कहकर धर्मोपदेशक यही कहते हैं कि धर्म के रहस्य को जानने की चेष्टा। करना सामान्य व्यक्ति का काम नहीं है किन्तु यदि घड़ी के इस दृष्टान्त को ही आगे बढ़ाया जाए तो धर्माचार्यों के इस प्रतिबंध के विरुद्ध भी कई बातें निकल आएँगी। यदि परमात्मा ने हमें आँखें दी हैं, बुद्धि दी है, हम पढ़े-लिखे हैं, घड़ी देखना हमें आता है तो अपनी घड़ी खराब होने पर उसे खोलकर देखने में क्या हर्ज है ? हम जान तो लें कि कौन-सा पेच खराब है जो घड़ी के कार्य में व्यवधान डाल रहा है ? पुर्जे खोलकर देखने से रोकना ठीक नहीं है। किसी अनाड़ी के हाथ में भले ही घड़ी न दो पर जो घड़ीसाजी की परीक्षा पास कर चुका हो, उसे क्यों मना कर रहे हो ? विशेष :
6. ऐसी ही लाटरी वैदिक काल में हिन्दुओं में चलती थी। इसमें नर पूछता था, नारी को बूझना पड़ता था। स्नातक विद्या पढ़कर, नहा-धोकर, माला पहनकर, सेज पर जोग होकर किसी बेटी के बाप के यहाँ पहुँच जाता। वह उसे गौ भेंट करता। पीछे वह कन्या के सामने कुछ मट्टी के ढेले रख देता। उसे कहता कि इसमें से एक उठा ले। कहीं सात, कहीं कम, कहीं ज्यादा। नर जानता था कि ये ढेले कहाँ-कहाँ से लाया हूँ और किस-किस जगह की मिट्टी इनमें है। कन्या जानती न थी। यही तो लाटरी की बुझौवल ठहरी। संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' द्वारा रचित 'सुमिरिनी के मनके' नामक पाठ से ली गई हैं। इस पाठ में तीन लघु कथाएँ हैं। यह अवतरण तीसरी लघु कथा 'ढेले चुन लो' से अवतरित है। इस पाठ को हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा भाग-2' में संकलित किया गया है। प्रसंग : वैदिक काल में पत्नी चुनने की एक प्रथा थी जिसमें वर अलग-अलग स्थानों से लाए गए मिट्टी के ढेलों को कन्या के सामने रखकर उनमें से एक को चुनने के लिए कहता। कन्या जिस स्थान का ढेला चुनती उसी के आधार पर यह निर्धारित किया जाता कि उसकी संतान कैसी होगी। व्याख्या : वैदिक काल में वधू चुनने की एक प्रथा प्रचलित थी जो एक प्रकार की लाटरी पद्धति पर आधारित थी। इसमें पुरुष प्रश्न पूछता था और नारी उत्तर देती थी। गुरुकुल से पढ़ा कोई स्नातक नहा-धोकर, माला पहनकर विवाह योग्य आयु होने पर किसी बेटी के बाप के घर जा पहुँचता, उसे गौ भेंट में देता और फिर उसकी पुत्री के सामने कई स्थानों से लाई गई मिट्टी के कुछ ढेले रखकर कहता कि इनमें से किसी एक को चुन लो। कन्या जिस स्थान की मिट्टी का ढेला चुनती उसी के आधार पर यह निश्चय किया जाता था कि वह कैसी सन्तान को जन्म देगी। वह वटु तो जानता था कि मिट्टी कहाँ की है पर कन्या नहीं जानती थी। यही इस लाटरी की पहेली होती थी। विशेष :
7. जन्मभर के साथी की चुनावट मट्टी के ढेलों पर छोड़ना कैसी बुद्धिमानी है! अपनी आँखों से जगह देखकर, अपने हाथ से चने हए मटटी के डगलों पर भरोसा करना क्यों बरा है और लाखों-करोडों कोस दर बैठे बड़े-बड़े मट्टी और आग के ढेलों - मंगल और शनैश्चर और बृहस्पति-की कल्पित चाल के कल्पित हिसाब का भरोसा करना क्यों अच्छा है, यह मैं क्या कह सकता हूँ ? बकौल वात्स्यायन के, आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल के मोहर से। आँखों देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस की तेज पिण्ड से। संदर्भ : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा भाग-2' में संकलित पाठ 'सुमिरिनी के मनके' के तीसरे अंश 'ढेले चुन लो' से लिया गया है। इस पाठ के लेखक प्रसिद्ध कहानीकार पं. चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' हैं। प्रसंग : इस अवतरण में लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि हमें अंधविश्वासों के आधार पर अपने जीवन साथी का चयन नहीं करना चाहिए। यह बुद्धिमत्ता नहीं है कि हम आकाशीय पिण्डों या मिट्टी के ढेलों पर विश्वास करके अपने जीवन-साथी का चयन करें। व्याख्या : वैदिक काल में जगह-जगह की मिट्टी से बनाए देले कन्या के सामने रखे जाते थे और उनमें से एक ढेला चुनने के लिए कहा जाता था। कन्या ने किस प्रकार का ढेला चुना, इस आधार पर ही निर्धारित हो जाता था.कि वह 'वर' के लिए उपयुक्त पत्नी होगी या नहीं और उसका भविष्य कैसा होगा ? पत्नी चुनने की इस विधि को लेखक असामयिक तथा अनुचित मानता है। आज हम इस प्रथा के आधार पर जीवन-साथी का चुनाव नहीं कर सकतें क्योंकि यह चयन विधि बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं है। अपनी आँखों से कन्या का रूप-गुण देखकर उसे जीवन साथी के रूप में चुनना ज्यादा उपयुक्त एवं बुद्धिमत्तापूर्ण है। आकाशीय पिण्डों (मंगल, शनैश्चर, बृहस्पति की चाल अर्थात् ज्योतिष) या ढेलों के आधार पर जीवन साथी का चुनाव करना अवैज्ञानिक है। जन्म कुण्डलियों के मिलान से भी जीवन-साथी का चुनाव करना रूढ़िवादिता है। अपने आँख-कान पर विश्वास करके चुनाव करना लाखों-करोड़ों मील दूर स्थित आकाशीय पिण्डों के काल्पनिक हिसाब-किताब (गुणा-भाग) के आधार पर चुनाव करने से लाख गुना बेहतर है। वात्स्यायन का उदाहरण देकर लेखक पही दष्टिकोण रखने पर जोर देता है। उसने आज प्राप्त हए कबतर को कल मिलने वाले मोर से अच्छा माना है। आज मिलने वाला एक पैसा कल मिलने वाले मोहर की आशा से बेहतर है। आशय यह है कि मनुष्य को अपने वर्तमान को सुधारने सँभालने का ही अधिक ध्यान करना चाहिए। उत्तम भविष्य को कल्पना के पीछे नहीं दौड़ना चाहिए। विशेष :
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