मनुष्य और किस्सागोई के नजदीकी संबंध के तीस-चालीस हजार वर्ष पुराने पुख्ता प्रमाण आज मौजूद हैं. बावजूद इसके कहानी कला के उद्गम की खोज के लिए यह अवधि बहुत नई है. हिमयुग की दहलीज पर ही मनुष्य समय बिताने, अनुभव साझा करने तथा संघर्षपूर्ण जीवन में मनोरंजन की भरपाई के लिए किस्से-कहानियों का सहारा लेने लगा था. तब तक वह अक्षर-ज्ञान से अनभिज्ञ था. बाकी कलाएं भी अल्प-विकास की अवस्था में थीं. खेती करना तक उसे नहीं आता था. पूरी तरह प्रकृति-आधारित जीवन में भोजन जुटाने का एकमात्र रास्ता था—शिकार करना. किसी कारण उसमें सफलता न मिले तो प्राकृतिक रूप से उपलब्ध भोजन यथा कंद-मूल-फल आदि पर निर्भर रहना. प्राकृतिक आपदाओं, वनैले जीवों से भरपूर घने जंगलों में जैसे भी संभव हो, अपनी सांगठनिक एकता एवं संघर्ष के बल पर खुद की रक्षा करना. अपने संगठन-सामथ्र्य एवं परिस्थितिकीय सामंजस्य के हुनर के दम पर प्राचीन मनुष्य उन चुनौतियों से जूझता था. कभी सफल होता था, कभी असफल. प्राचीन वनाधारित यायावरी जीवन की वे सामान्य विशेषताएं थीं. उसमें जीत-हार लगी ही रहती थी. जीवन का हर नया अनुभव उसे रोमांचित करता. यदा-कदा हताशा के क्षण भी आते, किंतु मानवीय जिजीविषा के आगे उनका लंबे समय तक ठहर पाना संभव न था. या यूं कहो कि बुरे सपने की तरह उन्हें भुलाकर वह यायावर कर्मयोगी तुरंत आगे बढ़ जाता था. कठोर संघर्षमय जीवन तथा अनूठेपन से भरपूर अनिश्चित-सी स्थितियां मानवीय कल्पनाओं के नित नए वितान तैयार करती थीं. उन्हें सहेजकर दूसरों तक पहुंचाने, उनके माध्यम से समूह का मनोरंजन करने की चाहत ने किस्से-कहानियों को जन्म दिया. Show उस समय तक मनुष्य का स्थिर ठिकाना तो बना नहीं था. धरती का खुला अंचल और प्रकृति की हरियाली गोद उसे शरण देने को पर्याप्त थी. जंगल में शिकार का पीछा करते हुए आखेटी दल का यदा-कदा दूर निकल जाना; अथवा लौटते समय रास्ता भटककर जंगलों में खो जाना बहुत सामान्य बात रही होगी. फिर भी आखेट के लिए गए लोगों के वापस लौटने तक उनके वे परिजन जो बीमारी, वृद्धावस्था अथवा किसी अन्य कारण से आखेट पर न जा पाए हों, उनकी प्रतीक्षा में परेशान रहते होंगे. आकुल मनस्थितियों में समय बिताने के लिए समूह के सदस्यों के साथ अनुभव बांटना, धीरे-धीरे एक लोकप्रिय चलन बनता गया. मनोरंजन की उत्कट चाहत, जो उस संघर्षशील जीवन की अनिवार्यता थी, उत्प्रेरक का काम करती थी. आखेटी दल के लौटने पर समूह के बीच हर बार नए अनुभवों के साथ कुछ नए किस्से भी जुड़ जाते थे. अभियान सफल हो या असफल, आखेट से लौटे सदस्यों के पास अपने परिजनों को सुनाने के लिए भरपूर मसाला होता था. उनमें से कुछ वर्णन निश्चय ही दुख और हताशा से भरे होते होंगे, जिन्हें सुनकर समूह के सदस्यों की आंखें नम हो आती होंगी. फिर भी वे उनके यायावर जीवन का जरूरी हिस्सा थे और परिवार नामक संस्था के अभाव में, उन्हें एक होने की प्रतीति कराते थे. इसलिए शाम को भोजन के बाद अथवा फुर्सत के समय दिन-भर के रोमांचक अनुभवों का पिटारा समूह के सदस्यों के आगे खोल दिया जाता. उन्हें सुनने के लिए बूढ़ों-बच्चों सभी में होड़ मच जाती होगी. वर्णन को मनोरंजक एवं रोमांचपूर्ण बनाने के लिए कल्पना का सहारा भी लिया जाता था. जो आदमी घटनाओं को लुभावने अंदाज में सुनाने में सिद्ध होता, समूह में उसका सम्मान होता था. लंबे संघर्षपूर्ण जीवन के पश्चात, वृद्धावस्था को प्राप्त लोगों के लिए भी अपने पिछले जीवन के शौर्यपूर्ण किस्से सुनाना समय बिताने का एकमात्र जरिया रहा होगा. किस्सागोई की नींव ऐसे ही अनुभव-सिद्ध लोगों द्वारा रखी गई. मनोरंजन की जरूरत के चलते लोग उनके पास आते. चूंकि उनके पास अनुभवों का विशाल खजाना होता था, इसलिए वे उनके साथ ससम्मान पेश आते थे. उस समय तक मनुष्य का जीवन स्वेच्छाचारी था. समाज का विधिवत गठन अभी नहीं हो पाया था. लेकिन किस्से-कहानी तथा दूसरी विकासमान कलाओं के प्रभाव में रागात्मक संबंध स्थायी रूप लेने लगे थे. इससे समूह की, बाद में जब समूह के सदस्यों की संख्या बढ़ने लगी तो परिवार की संकल्पना ने जन्म लिया. स्पष्ट है कि किस्से-कहानियां मनुष्य के समाजीकरण के न केवल साक्षी, बल्कि उत्पे्ररक और सहायक भी बने थे. फिर जैसे-जैसे समाज बढ़ा, वैसे-वैसे किस्से-कहानियों के रूप-कलेवर में भी बदलाव आता गया. आरंभिक कहानियां व्यक्ति के रोजमर्रा के अनुभवों से उपजी सत्य-कथाएं अथवा थोड़ी-बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गईं कल्प-कथाएं ही थीं. उनमें रहस्य-रोमांच, हर्ष-विषाद, सुख-दुख, करुणा-मैत्री, मिलन-बिछोह, साहस-उत्साह के साथ-साथ मनुष्य की आदिम जिज्ञासाओं, प्रवृत्तियों, भावनाओं और कल्पनाशीलता की सहज और युगानुकूल अन्विति थी. कह सकते हैं कि कहानी कला दुनिया-भर की उन आरंभिक कलाओं में से है जो सभ्यता के एकदम आदिम छोर पर, जीवन की धड़कनों के बीच स्वाभाविक तौर पर विकसीं थीं. उसकी उत्त्पत्ति के मूल में यद्यपि मनोरंजन प्रमुख तत्व था, तथापि कहानी सहित विभिन्न कलाभिव्यक्तियों के विकास का एकमात्र वही अभिप्रेत नहीं था. उन कलारूपों के विकास के पीछे मनुष्य की ज्ञान की ललक, अपनी मौलिक कल्पना द्वारा उन्हें नए कलेवर में ढालकर अगली पीढ़ी तक पहुंचाने की दृढ़ इच्छाशक्ति तथा उनसे कुछ सीखने, सिखाने एवं स्वयं को दैनदिंन के समर हेतु तैयार रखने की कामना सन्निहित थी—
प्राकृतिक घटनाओं में एक नैरंतर्य एवं तारतम्यता रहती है. आरंभिक कहानियां उसी से अनुप्रेत थीं. प्रकृति की भांति कहानी के भी कई रंग थे. सुख हो या दुख, कहानी जीवन में प्रत्येक क्षण मनुष्य के साथ थी. उथल-पुथल भरे उसके जीवन में नए किस्से-कहानी का बानक बन ही जाता था. घने जंगल तथा मौसम की विकट परिस्थतियों में, लंबे आखेट के उपरांत ठिकाने पर सकुशल लौट आना भी कम उत्सव-धर्मी घटना न थी. हर्ष अथवा शोक के ऐसे सम-विषम क्षणों में आखेट-कुशल पूर्वजों की वीरता, साहस, विपत्ति एवं त्रासदियों के किस्से खासे लोकप्रिय होते होंगे. स्वाभाविक रूप से ऐसे किस्सों को बार-बार सुना-सुनाया जाता होगा. सुनाते समय प्रत्येक व्यक्ति उन्हें अपनी तरह से प्रस्तुत करता. प्रस्तुतीकरण के दौरान वह श्रौत कथानक में अपनी रुचि के अनुसार कुछ न कुछ जोड़ता-घटाता रहता था. फलस्वरूप समय के साथ उनमें कल्पना का पुट बढ़ता गया. कल्पना को गति देने में वातावरण एवं प्रकृति का योगदान कम न था. खुले, तारों से भरे आसमान, तरह-तरह की वन-वनस्पतियों, जंगली जानवरों, नदियों, पहाड़ों, झरनों आदि से भरे भूमांचल में बहुत-सी बातें मनुष्य को प्रभावित करती थीं. आरंभिक कहानियां सत्यकथाओं के करीब थीं. रोजमर्रा के अनुभवों में मनुष्य को जो भी विचित्र लगता, उसे सहेजने के लिए वह कहानी-किस्सों में ढाल लेता था. उसको धीरे-धीरे एहसास हुआ होगा कि सीधे-सपाट ढंग से कहने की अपेक्षा प्रतीकों के रूप में बयान की गई घटना अधिक संप्रेषणीय होती है. उसका प्रभाव दीर्घ-कालिक होता है. उसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक, एक समाज से दूसरे भिन्न परिस्थितियों में रह रहे समाज तक, पहुचाने में आसानी रहती है. पात्रों एवं घटनाओं का प्रतीकीकरण इसलिए भी आवश्यक था, क्योंकि सुनिश्चित ठिकाने के अभाव, मौसम की मार और भोजन की जरूरत के चलते उसके यायावरी जीवन में प्रायः परिवर्तन होता रहता था. अतएव ऐसे पात्रों और घटनाओं का समावेश जरूरी था, जिनकी विभिन्न परिस्थितियों तथा कबीलाई समूहों के बीच अधिकतम स्वीकार्यता हो. इसके लिए नए कल्पनालोक गढ़े गए, ताकि मनुष्य के भौतिक आवत्र्तन-प्रत्यावर्त्तन का उसके द्वारा गढ़े गए किस्से-कहानियों, जो तब तक उसकी जीवन-संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बन चुके थे, की विश्वसीनयता पर कोई संकट न पड़े. समाजीकरण के आरंभिक दौर में मनुष्य यह भी समझ चुका था कि समूह की एकता को बनाए रखने हेतु जीवन-मूल्यों में स्थायित्व होना चाहिए. इसके लिए भी किस्से-कहानी मददगार बने. बढ़ते अनुभवों एवं कल्पनाशक्ति के फलस्वरूप मानव-अभिव्यक्ति में प्रतीकात्मकता एवं गुणवत्ता में निखार आता गया. संघर्षपूर्ण जीवन में कल्पना और प्रतीकात्मकता से भरे किस्सों की अपनी उपयोगिता थी. प्रतीकों ने वर्णन को रोचक बनाया. उनके माध्यम से बात समझाना आसान था. एक कहानी के माध्यम से इसको आसानी से समझा जा सकता है —
जाहिर है कि कहानीकला के विकास के साथ उसके स्थूल कथानक का महत्त्व घट रहा था. धीरे-धीरे लोग यह समझने लगे थे कि कहानी के पात्रों और घटनाओं की महत्ता सामान्यतः मनोरंजन तत्व को विस्तार देने तक सीमित है, असली चीज वह संदेश है, जिसे लोककल्याण के वास्ते सहेजना जरूरी है. कालांतर में समाज में ऐसी कहानियों तथा प्रतीकों का महत्त्व बड़ता ही गया. नए-नए प्रतीकों को जोड़ने के लिए मनुष्य ने अपनी कहन की कला का विस्तार किया. मनुष्य की आदिम सहयोगी बनीं वे कहानियां इतनी उपयोगी और महत्त्वपूर्ण मानी गईं कि मनुष्य उन्हें न केवल सुनता-सुनाता था, बल्कि उन्हें सहेजने का भी प्रयत्न करता था. फ्रांस और स्पेन की सीमा पर मौजूद लेस्काक्स की रहस्यमयी कंदराओं में बनीं अनूठी चित्रमालाओं से सिद्ध होता है कि अपने अनुभवों और कल्पनाओं को स्थायी बनाने के लिए प्राचीन मनुष्य कितना सजग था. उन चित्रमालाओं के अध्ययन से यह भी सामने आया है कि उन कलाभिव्यक्तियों का उद्देश्य केवल मनःरंजन तक सीमित नहीं था. बल्कि उनका उपयोग नवांतुक पीढ़ी को जंगल की परिस्थितियों का बोध कराने तथा किशोर शिकारियों को आखेटकला में प्रवीण बनाने के लिए किया जाता था. जिन दीवारों पर ये चित्रमालाएं हैं, वहां कुछ निशान भी पाए गए हैं, जो तीर, भाले अथवा किसी नुकीले हथियार के हो सकते हैं. उनसे प्रतीत होता है कि आदिमानव समूह के सदस्य उनका उपयोग निशाना साधने के लिए भी करते थे. आदिमानव द्वारा वे चित्र गुफाओं में, चट्टानों तथा ऐसे सुरक्षित एवं बहुगंतव्य ठिकानों पर बनाए गए, जिधर आदिम-समूहों का निरंतर आना-जाना था. उद्देश्य यही था कि कबीले के सदस्य तथा नवांतुक कबीले वहां ठहरकर मनःरंजन के साथ-साथ आखेटकला की भी एकांत-साधना कर सकें. वन्य जीवों से भरे जंगल में, जहां कदम-कदम पर खतरनाक स्थितियां और जीवन की चुनौतियां हों, आखेट हेतु निर्विघ्न अभ्यास के लिए ऐसे सुरक्षा प्रबंध अपरिहार्य थे. लेस्काक्स और आसपास की पहाडि़यों में बने पांच सौ से अधिक चित्रों से पता चलता है कि कभी वहां पर अलग-अलग कालखंड के दौरान प्राचीन मनुष्य की अनेक टुकडि़यों ने बसेरा किया था. आखेट के अभ्यास के अलावा वे भित्तिचित्र उनके मनोरंजन की कमी को भी पूरा करते होंगे. उन पहाडि़यों में कहन के माध्यम से भावाभियक्ति के 35000 वर्ष तक पुराने प्रमाण सुरक्षित हैं. ये सभ्यता के उभार के एकदम आरंभिक दौर को सामने लाती हैं, जब मनुष्य ने अपनी स्मृति और कलाओं को सहेजने के प्रयास संभवतः शुरू ही किए थे.
स्पष्ट है कि कहानीकला मनुष्य की प्राचीनतम खोज है. वह तब से मनुष्य के साथ है, जब तक मनुष्य किसी ज्ञात सभ्यता के प्रभाव से दूर था. वह मनुष्य के सभ्यताकरण की साक्षी, उसकी प्रेरक और अनुगामिनी रही है. कहानीकला को विस्तार देने, कहानियों को और अधिक रोचक एवं कल्पनाप्रधान बनाने की कोशिश में मनुष्य अपनी रचना के साथ नित नए प्रयोग करता गया. आरंभिक किस्से-कहानियों के पात्र मनुष्य के अनुभव जगत से सीधे जुड़े पशु-पक्षी तथा वन्य-प्राणी होते होंगे. उनमें भी ऐसे पशु-पक्षियों-वन्य प्राणियों की संख्या अधिक रहती होगी, जो किसी न किसी प्रकार उनके सहयोगी थे अथवा जिनसे खतरे की संभावना होने के कारण बचाव की जरूरत थी. उस समय तक लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था. अतएव तत्कालीन भावाभियक्तियों के स्वरूप का सटीक अनुमान लगा पाना तो असंभव है, तथापि भित्ति-चित्रों तथा उस समय की अन्य कलाभिव्यक्तियों द्वारा हम आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि वे सब विपरीत परिस्थितियों में हिम्मत न खोने, चुनौतियों में साहस और धैर्य बनाए रखने, खुद पर भरोसा करने तथा सतत संघर्ष की प्रेरणा देने वाली रही होंगी. हालांकि इसका कोई प्रमाण नहीं है, फिर भी कुछ विद्वानों का मानना है कि अभिव्यक्ति के क्षेत्र में पद्य का आगमन गद्य की अपेक्षा पहले हुआ था. इसमें पूरी सचाई भले न हो, मगर एक बात पद्य के पक्ष में अवश्य जाती थी. जब तक लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था, भाषाभिव्यक्तियों को सहेजने के लिए स्मृति ही एकमात्र माध्यम थी. भारत में वेदादि ग्रंथों को श्रुति ग्रंथ इसीलिए कहा जाता है. चूंकि पद्य को गद्य की अपेक्षा आसानी से याद किया जा सकता था, वह सुनने-सुनाने में भी प्रिय लगता था और उसमें दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता अधिक थी, अतएव कहानी का प्रथम सहेजा गया रूप पद्यात्मक हो सकता है. प्रख्यात अमेरिकी लेखिका रुथ सा॓वयर इस बारे में सुनिश्चित हैं— ‘कहानी गढ़ने का सर्वप्रथम प्रयास, आदिम समूहों द्वारा चक्की चलाते, किश्ती खेते, शिकार अथवा युद्ध के लिए हथियारों की धार चढ़ाते या पर्व-उत्सव के बहाने समय-समय पर सामूहिक रूप से गए-गुनगुनाए जा सकनेवाले गीतों के माध्यम से हुआ होगा. आदि-गायक या किस्सागो अपनी अद्वितीय वीरता पर इतरानेवाला, आत्माभिमानी तथा विजयोल्लास में डूबकर स्वच्छंद आनंद मनानेवाला पहला इंसान रहा होगा. अपनी पुस्तक ‘दि वे आफ स्टोरीटेलिंग’ में सावयर ने कनाडा के तटीय क्षेत्र में बसने वाले आदिवासियों के एक प्राचीनतम गीत को उद्धृत किया है—
यह कविता दर्शाती है कि प्रारंभिक अभिव्यक्तियां जीवन से जुड़ी थीं. उनमें कल्पना का योग कम से कम था. लेकिन इससे यह मान लेना कि आरंभिक अभिव्यक्तियां केवल पद्यात्मक रही होंगी, उचित न होगा. दिन-भर जंगल की परिस्थितियों से जूझने के बाद शाम को घर लौटने वाले आदिम मनुष्य के लिए समूह के सदस्यों के साथ अपने अनुभव साझा करने के लिए यह संभव न था कि वह उन्हें पद्य में तत्काल अभिव्यक्त कर सके. क्योंकि अनुभवों के पद्य रूपांतरण के लिए ज्यादा समय और काव्यात्मक प्रतिभा की आवश्यक थी. दूसरे सीधे-सरल गद्य का आनंद बच्चे भी ले सकते थे. इसलिए अधिकांश सदस्यों के लिए अनुभवों की सीधी गद्यात्मक प्रस्तुति आसान रहती होगी. उनमें वह आवश्यकतानुसार कल्पना का प्रयोग भी करता होगा. पद्य का विकास कदाचित फुर्सत और एकांत के क्षणों में, आगत की कल्पना, अनुभवों को सहेजने की लालसा अथवा समूह के सदस्यों का मनोरंजन करने की कामना के साथ हुआ होगा. आज इस बात के पुरातात्विक प्रमाण मौजूद हैं कि मानव-सभ्यता का विकास पृथ्वी के अलग-अलग हिस्सों में हुआ. सिंधु घाटी, मेसोपोटामिया(इराक), मिस्र, चीन, बेबीलोन, आदि क्षेत्रों में लगभग एक ही समय में अलग-अलग संस्कृतियां पनपीं. समय के साथ-साथ वे एक-दूसरे के संपर्क में आईं. उनमें आर्थिक-सामाजिक लेन-देन बढ़ा. आपसी व्यापार में तेजी के फलस्वरूप उनमें सांस्कृतिक आदान-प्रदान की भी शुरुआत हुई. फलस्वरूप कला और संस्कृति के दूसरे उपकरणों के आदान-प्रदान में तेजी आई. इसलिए यह भी संभव है कि अपनी भावाभियक्तियों को सहेजने के लिए अलग-अलग सभ्यताओं ने अलग-अलग पद्धतियों को खोजकर उन्हें अपनाया हो. लिपि के आविष्कार का श्रेय बेबीलोन वासियों का जाता है. उससे पहले कलाभिव्यक्तियों को सहेजने का एकमात्र आधार स्मृति थी. यद्यपि चित्र-लिपि और प्रस्तर कला का आविष्कार बहुत पहले, हिम युग में ही हो चुका था, लेकिन उसको दूसरे स्थान पर ले जाना संभव न था. इसलिए आरंभिक चित्र गुफाओं में, ऐसे सुरक्षित ठिकानों पर बनाए गए, जहां जीवन अधिक सुरक्षित था और जिधर से मानव-समूहों का आना-जाना लगा रहता था. लिपि का आविष्कार होने के पश्चात कलाभिव्यक्तियों को नए प्रारूप में सहेजना संभव हुआ. आरंभिक यायावरी जीवन में मनुष्य एक स्थान से दूसरे स्थान तक विचरता रहता था. एक-दूसरे से संपर्क के समय जहां संघर्ष की संभावना थी, वहीं व्यक्तिगत अनुभवों और कलारूपों को साझा करने के अवसर भी मिलते होंगे. इसलिए आरंभिक कलारूपों में वैविध्य के साथ-साथ एक किस्म की एकरूपता भी नजर आती है. भारतीय उपमहाद्वीप में कहानी लेखन की परंपरा बहुत पुरानी है. ऋग्वेद जिसे संसार के सबसे पुराना ग्रंथ होने का गौरव प्राप्त है, में अनेक कहानियां आई हैं. प्रत्येक कहानी का कोई न कोई उद्देश्य है. उसके माध्यम से उद्गाता ऋषि पाठकों-श्रोताओं तक एक नैतिक संदेश पहुंचाना चाहता है. इससे उस समय कहानी कला के विकास का अनुमान लगाया जा सकता है. महाभारत तो
छोटी-छोटी सैंकड़ों कहानियां मिलकर बड़े ग्रंथ का रूप ले लेती हैं. उन्हीं कहानियों के बल पर वह जीवन और समाज का समग्र दस्तावेज बन जाता है. वे उसकी ‘जय’ से ‘विजय’ फिर ‘भारत’ और अंततः ‘महाभारत’ तक की यात्रा का बानक बनी हैं. वेदों के अलावा उपनिषद्, रामायण, कथासरित्सागर, जातक कथाओं आदि में भी सैकड़ों कहानियां संकलित हैं. उन सभी में गजब की एकरूपता है. इससे अनुमान लगा सकते हैं, कि उन ग्रंथों में पंक्तिबद्ध होने से पूर्व वे कहानियां लोकसाहित्य के रूप में समाज में बहुत पहले से विद्यमान रही होंगी.
लोकसाहित्य के रूप में ही वे धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक की यात्रा करती रही हैं. विश्व-सभ्यताओं में नागरीकरण की शुरुआत ईसा से सात-आठ वर्ष हजार पहले हो चुकी थी. ईसापूर्व 3000 वर्ष पहले तक धरती के अलग-अलग कोनों में विकसित संस्कृतियों के बीच व्यापारिक संबंध विकसित हो चुके थे. उनके बीच आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी बढ़ा था. उनके आपसी संपर्क को प्रगाढ़ बनाने, संबंधों में आत्मीयता का विस्तार करने में इन कहानियों का बड़ा योगदान था. एक क्षेत्र की लोकप्रिय कहानियां दूसरे हिस्से
में जाकर न केवल लोकप्रिय हुईं, बल्कि उनमें वहां के क्षेत्रवासियों ने अपनी रुचि एवं परिस्थितियांे के अनुसार आवश्यक परिवर्तन भी किया. आशय है कि ईसा पूर्व दूसरी सहòाब्दी तक कहानीकला काफी विकसित हो चुकी थी. उससे पहले तक कहानी या तो ठेठ अनुभवाधारित होती थी, अथवा अनुभव और कल्पना का सम्मिश्रण. आगे की कुछ शताब्दियों में इसमें परिवर्तन आया, फलस्वरूप कल्पना के आधार पर नए-नए कथानक गढ़े जाने लगे. कहानी की बढ़ती लोकप्रियता को देखकर प्रतिभाशाली किस्सागो इस क्षेत्र से जुड़े थे, जो श्रोताओं की रुचि को समझते हुए कहानियां गढ़ने में माहिर थे. उन्हीं के फलस्वरूप कहानी में कल्पना का अनुपात बढ़ता गया. विशुद्ध कल्पना पर केंद्रित कथानक और कहानी कला की कसौटी पर सही पाए जानेवाली मिस्र की पुरानी ‘राजकुमार और उसके तीन नसीब’ (दि प्रिंस एंड दि थ्री फेट) का उल्लेख प्रायः होता है. इस कहानी में जहां लोककथा के भरपूर तत्व हैं, वहीं इसमें कल्पना का भी भरपूर इस्तेमाल किया गया है. इस कहानी का 1500 वर्ष पुराना का लिखित प्रारूप उपलब्ध है.1 इस बात की भी प्रबल संभावना है कि लिखित रूप में आने से पहले यह कहानी लोकसाहित्य का हिस्सा रही होगी. अनूठी परिकल्पना और कथातत्व के आधार पर हम इसे विश्व की आदि परीकथा भी कह सकते हैं. इसमें कांचघर, बड़ी समुद्र जैसी नाव की अनूठी कल्पना है. कुछ विद्वान इसे कल्पना पर आधारित पहली कहानी मानते हैं. जो अस्वीकार्य है, क्योंकि वेदों, उपनिषदों तथा यूनानी ग्रंथों के अनुसार कल्पना-आधारित कहानियों के सृजन की शुरुआत 3000 वर्ष पहले ही हो चुकी थी. भारतीय परंपरा में ऋग्वेद में, जो विश्व की पहली कृति है, में अनेक उपकथाएं भी आई हैं. वे कल्पना के द्रष्टिकोण से भी अत्यंत विलक्षण हैं. निरे मनोरंजन के बजाय वे विशेष उद्देश्य को लेकर गढ़ी गई हैं, इसलिए कथारस के साथ-साथ उनमें लक्ष्य की प्रधानता है. वस्तुतः ऋग्वेद के मनस्वी विद्वानों का ध्येय कहानी लिखना न होकर जीवन-मूल्यों से भरपूर धर्मिक-आध्यामिक संदेश को आनेवाली पीढि़यों के लिए सहेजना था. केवल मनोरंजन के लिए लेखन उनकी वृत्ति नहीं थी. इसलिए वेदों में आई प्रत्येक उपकथा का विशिष्ट उद्देश्य है. वहां कथातत्व मुखर न होकर प्रच्छन्न रूप में आया है. यहां ऋग्वेद से दो उदाहरण देना प्रासंगिक होगा. दो इसलिए क्योंकि आगे चलकर कहानी की जो यात्रा चलती है, दोनों कथासूत्र उसके आदि प्रतिनिधि अथवा दिशावाहक कहे जा सकते हैं. इनमें पहली कहानी जुआरी की है. उल्लेखनीय है कि जुआ वैदिक काल में ही एक बुराई के रूप में पनप चुका था. जुए की बुराई और उसके जुआरी के परिवार पर पड़नेवाले दुष्प्रभाव को दर्शाती हुआ एक अत्यंत मार्मिक कथा-संकेत ऋग्वेद में आए हैं. उसके दशम मंडल का 34वां सूक्त जुआरी की मनोदशा का वर्णन करता है. स्थितियां यथार्थपरक और दिल को छू लेनेवाली हैं. कहानी के अनुसार एक जुआरी है. वह बार-बार जुआ न खेलने की शपथ लेता है. लेकिन पासों की ध्वनि उसकी व्याकुलता को बढ़ा देती हैं. वह उसकी ओर खिंचा चला जाता है. निकट संबंधी उसकी आलोचना करते हैं. जुआरी के पिता, माता और भाई उससे दूरी बनाए रखते हैं, ‘हम उसको नहीं जानते, जुआरियो! इसे पकड़कर ले जाओ—कहकर अपना पीछा छुड़ा लेते हैं.’ एकमात्र जुआरी की पत्नी उसको प्यार करती है. जुआरी भी उसको भरपूर प्रेम करता है. लेकिन जुए के अपने शौक के कारण एक दिन वह पत्नी को ही दांव पर लगा देता है. अपनी भार्या को दूसरों की बांहों में देखकर वह विगलित हो जाता है. इस दुर्दशा पर उसके अपने उसको दुत्कारते हैं. संपत्ति-विहीन होते ही उसके साथी जुआरी भी उसको त्याग देते हैं. अपनी प्रिय भार्या को जीते हुए जुआरियों के अधीन देखकर वह बिलख उठता है. इसके बावजूद जुए का चस्का अपनी जगह है. सबकुछ गंवा देने के बावजूद जो बाकी है, वह है जीत की संभावना. सबकुछ खोकर पुनः सबकुछ पा लेने की भ्रांति. यह उम्मीद कि अगला दांव शायद सबकुछ वापस दिला दे उसको बार-बार जुआघर ले जाती है. वहां पहुंचते ही हार की संभावना उसको डराने लगती है. वह लौट आना चाहता है. परंतु पासों की आवाज सुनकर उसका हृदय मचलने लगता है. वह रुक नहीं पाता और ‘जारिणी की भांति’ द्यूत-स्थल की ओर दौड़ पड़ता है. उद्गाता ऋषि द्वारा जुआरी की मनोदशा का वर्णन देखिए—
उपर्युक्त कहानी या दृष्टांत के माध्यम से वैदिक ऋषि जुए की बुराइयों को सामने लाकर उसको व्यक्ति लिए एक अभिशाप सिद्ध करना चाहता था. इसमें वह कामयाब भी हुआ है. वेदों को मुख्यतः आध्यात्मिक ग्रंथ के रूप में देखा जाता है. इसलिए उनमें सामाजिक संदेश युक्त कहानियों को अपेक्षित लोकप्रियता नहीं मिल पाई. कहानी में जुए के दुष्प्रभाव पर जोर दिया गया है. ऋग्वेद का जुआरी अपनी पत्नी को जुए में दांव पर लगाकर खिन्न है. इस कथानक का वास्तविक प्रस्फुटन महाभारत में देखने को मिलता है. वहां जुआरी स्वयं युधिष्ठर हैं, ज्येष्ठ पांडव पुत्र धर्मराज, जो अपनी लत के कारण अपना राज-पाट-पत्नी सबकुछ गंवा देते हैं. वहां कहानी कला और नाटकीयता के संयोग से जो कथा निखरकर आती है, उसका प्रभाव शताब्दियों तक पाठकों-श्रोताओं के दिलो-दिमाग पर बना बना रहता है. कहानियों की यह धारा आचार-विचार, आचरण की शुद्धता और सामाजिक नैतिकता का पाठ पढ़ाती थी. इस धारा का विस्तार रामायण, महाभारत, कथासरित्सागर की कहानियों में खुलकर सामने आया. ऋग्वेदकाल में ही कहानियों की दूसरी धारा, जो कदाचित पहली से भी पुरानी थी, जन्म ले चुकी थी. इस धारा में पात्रों की उपस्थिति प्रतीकात्मक होती थी. इस धारा का प्रमुख उद्देश्य था, पशु-पक्षी अथवा काल्पनिक पात्रों के माध्यम से पाठकों तक नैतिक संदेश पहुंचाना. पात्रों की प्रतीकात्मक उपस्थिति होने के कारण कहानी के समापन पर मनोमस्तिष्क पर उनका प्रभाव गौण हो जाता था. रह जाता केवल वह नीति-संदेश, जिसे रचनाकार अपने पाठकों तक पहुंचाना चाहता है. ऋग्वेद में ऐसे भी प्रसंग हैं जहां मानवेत्तर जीवों को मनुष्यता के लिए कल्याणकारी कर्म करते हुए दिखाया गया है. अवसर आने पर वे रूढि़यों पर कटाक्ष करने से भी नहीं चूकते. सातवें अध्याय के 103वें सूक्त में तालाब में टर्राते हुए मेंढकों की तुलना वेदपाठ करते ब्राह्मणों से की गई है. दशम मंडल(108) में इंद्र की सरमा नामक कुतिया कृपण पणियों को उपदेश देती है. यह भी अपने आप में बहुत रोचक प्रसंग है—
भारत में वेदों को 3500—4000 वर्ष पुरानी रचना माना जाता है. उन्हें हिंदुओं के धार्मिक ग्रंथ होने का सम्मान प्राप्त है. विद्वानों का यह भी मानना है कि वेदादि ग्रंथों में वर्णित छोटी-छोटी कहानियां, द्रष्टांत उनके रचनाकाल से भी कई शताब्दी पुराने हैं. श्रुति के रूप में वे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक अंतरित होते रहे हैं. निरुक्त में यास्क ‘इत्यैतिहासकाः’ कहकर इंद्र और वृत्रासुर संग्राम को कथारूप में ढालते हैं. ऐतरेय ब्राह्मण(7—13) में कथा के साथ नीति-संबंधी आख्यान भी समाहित हैं. उपनिषदों में तो न जाने कितने दृष्टांत हैं जिनकी कहानियां लोकजीवन में भी प्रचलित रही हैं. छांदोग्योपनिषद में एक अद्भुत कहानी आई है जो उस समय की परंपरा से हटकर है. इसलिए कि गंभीर मानी जानेवाली संस्कृत में व्यंग्य की छटा कम ही देखने को मिलती है. मगर वह कहानी व्यंग्य में लिखी गई है. उसमें कुत्ते भोजन के लिए अपना एक नेता चुन लेते हैं. कहानी को पढ़ते समय आधुनिक राजनीति में व्याप्त अवसरवाद सहसा याद आने लगता है. रैक्व, सत्यकाम पुत्र जाबाल की सुप्रसिद्ध कहानियां भी इसी उपनिषद में हैं. एक कथा में बैल, हंस और मद्गु(जलचर पक्षी) ब्रह्मविद्या का उपदेश देते हैं. वैदिक कहानियों की खूबी उनकी प्रतीकात्मकता है. उनमें पशु-पक्षियों को पात्र बनाकर बड़ी गंभीर बातें कही गई हैं. उनमें शेर, चूहा, बिल्ली, कबूतर, बैल, कुछआ आदि को पात्र बनाकर नैतिकता, आचार-विचार एवं व्यवहार संबंधी संदेह दिया गया है. फलस्वरूप वे प्रत्येक वयस् के पाठक को उपयोगी जान पड़ती हैं. उनमें कथातत्व की अमूमन सभी विशेषताओं यथा कौतूहल, विनोद, हास-परिहास, रहस्य, उल्लास-शोक आदि का उपयोग किया गया है. धर्म, नीति, सदाचार, व्यवहार, कूटनीति के प्रसंग उन कहानियों में भरे पड़े हैं. जिससे वे कोरी कहानी न होकर दृष्टांत जान पड़ती हैं. इसलिए आवश्यकता पड़ने पर उन्हें उद्धरण की भांति उपयोग किया जाता रहा है. महाभारत तक आते-आते भारत में कहानीकला काफी विकसित रूप ले चुकी थी. विशेषकर पशु-पक्षी और प्रतीकों को केंद्र बनाकर कहानियां गढ़ने की कला. महाभारत में सोने के अंडे देने वाले पक्षी की कहानी है. धार्मिक बिल्ली की कहानी है जो चूहों को विश्वास दिलाकर उन्हें अपने काबू में कर लेती है. एक कथा चतुर शृगाल की है जो अपने मित्रों को भी धोखा देने से बाज नहीं आता. आदि पर्व में हाथी और कछुए की कथा, कुत्ते की कथा तथा वनपर्व में मनु और मत्स्य की कहानी है. तत्कालीन राजनीतिक-व्यावहारिक दर्शन को समझाने के लिए शांतिपर्व में अनेक नीतिकथाएं हैं—जो आगे चलकर भारतीय कथा साहित्य की प्रेरणा बनीं. कतिपय स्थलों पर यक्ष, गंदर्भ, अप्सरा, किन्नर जैसे विचित्र पात्र भी कहानियों में आए हैं, जो उस समय अभिव्यक्ति के क्षेत्र में नए-नए काल्पनिक प्रयोगों की ओर इशारा करते हैं. यक्ष मनुष्य और देवता का मिला-जुला रूप हैं. पृथ्वी पर उनकी उपस्थिति कदाचित शापित देवता के रूप में है. गंदर्भ नृत्य-गायन-वादन आदि विभिन्न लोककलाओं में इतने प्रवीण थे कि सांस्कृतिक इतिहास में उनकी उपस्थिति चमत्कार के रूप में दर्ज है. महाभारत में यक्ष की परिकल्पना एवं संवाद जिसके माध्यम से वह युधिष्श्ठिर को लोकनीति एवं व्यवहार की सीख देता है, अज्ञातवास के दौरान भीम का असुर हिडिंब से युद्ध तथा उसकी बहन हिडिंबा से विवाह, लाक्षागृह, खांडव वन जैसी अनेक घटनाएं तथा महाप्रयाण के समय कुत्ते द्वारा पांडवों के साथ हिमालयारोहण करना, परीकथाओं जैसा अजूबापन और रोमांच लिए हुए हैं. ये प्राचीन मनुष्य के कल्पना-सामथ्र्य को दर्शाती हैं. महाभारत जहां भारतीय समाज, राजनीति और जनजीवन का विस्तृत लेखा है, वहीं रामायण में कथानक मुख्यतः राम के इर्द-गिर्द पसरा हुआ है. वहां आस्था-भाव प्रबल है. फिर भी उसमें नीतिकथाओं का यत्र-तत्र समावेश है. कहानियों की लोकप्रियता इससे भी आंकी जाती है कि गौतम बुद्ध जैसा दार्शनिक विचारक अपने संदेशों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए कहानी-कला की शरण लेता है. जातक कथाओं में गौतम बुद्ध के जीवन-प्रसंगों के माध्यम से बौद्ध धर्म का नीति-संबंधी चिंतन भी समाया हुआ है. जातक कथाओं का संकलन आरंभ ईसा से चार शताब्दी पहले हो चुका था. उनमें पशु-पक्षी संबंधी पात्रों का विशेष स्थान मिला. उनका ध्येय था, पशु-पक्षी जैसे लोकप्रिय कथापात्रों के माध्यम से बोधिसत्व की शिक्षाओं को जन-जन तक पहुंचाना. इनमें हाथी, वानर, मृग, हंस आदि को पात्र बनाकर कथाएं रची गई हैं. पतंजलि(150 ईसा पूर्व) ने ‘कथा-सूचक लोकोक्तियों, अजाकृपाणीय, काकतालीय आदि तथा जन्म शत्रुता के उदाहरण रूप में अहिनकुलम्, काकोलूकीयम् जैसी नीति कथाओं का उल्लेख किया है.’ महाभाष्य, पणिनि के सूत्र 2/1/3/, 2/4/9 तथा 5/3/106 आदि, संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास, डा॓. कपिलदेव द्विवेदी, पृष्ठ 573. इन कथाओं की लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि चीनी विश्वकोश(668) में 200 से अधिक बौद्ध-ग्रंथों से चुनकर नीतिकथाएं प्रकाशित की गईं. भरहुत में ईसापूर्व तीसरी शताब्दी का बौद्धकालीन स्तूप प्राप्त हुआ है, उसपर उत्क्रीडि़त संदेश में पशुकथाओं का उल्लेख है. बौद्ध मतावलंबियों की देखा-देखी जैन मतावलंबियों ने भी अपने-संदेश को जनसाधारण तक पहुंचाने के लिए कहानी-कला का सहारा लिया था. बौद्ध अनुयायियों की भांति उन्होंने भी पशु-पक्षी को केंद्र बनाकर नीतिकथाएं रचीं. हरिषेण के बृहत्कथाकोश(992 ईस्वी) में जैन धर्म-संबंधी विचारों को नीतिकथाओं के माध्यम से समझाया गया है. गूढ़ विचारों की व्याख्या के लिए आवश्यकतानुसार एकाधिक नीतिकथाओं की भी सहायता ली गई है. कहानी की ऐसी प्रतीकात्मकता, कथा-तत्व का ऐसा ही प्रस्फुटन परिवर्ती बौद्ध एवं जैन ग्रंथों, पंचतंत्र, कथासरित्सागर, जातक आदि में और भी निखरकर सामने आता है. उपनिषदों में भी गूढ़ विषयों को समझाने के लिए यत्र-तत्र दृष्टांत रूप में कहानियों का सहारा लिया गया है. चूंकि वेदादि ग्रंथों, कथासरित्सागर, जातक, पंचतंत्र आदि में संग्रहित कहानियां व्यक्ति-विशेष की रचना न होकर लोकसमाज में पहले से ही प्रचलित कहानियां थीं. इसलिए कहानी के इतिहास को वेदों या उनके परिवर्ती ग्रंथों के लेखनकाल से जोड़ना अनुचित होगा. तत्कालीन मनस्वियों ने जीवनमूल्य को आधार देने के लिए समाज से ही कथानकों को चुना था. इसके माध्यम से उसका ध्येय रहा होगा, लोक-विश्वासों को शास्त्रीयता में ढालना. शब्द को मानवीयकरण का हथियार बना देना. ऐसी कोशिशें प्रायः सभी संस्कृतियों में थोड़े-बहुत परिवेशगत अंतर के साथ एक ही साथ जारी थीं. पृथ्वी पर अलग-अलग समूहों में विचरने वाले कबीलों ने अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न संस्कृतियों को जन्म दिया था. उनकी भौगोलिक परिस्थितियों में अंतर था, तथापि मनुष्य की सामान्य जिजीविषा, परिस्थितियों से जूझने की चाहत, विकास की लालसा कमोबेश एकसमान थी. इसलिए आरंभिक अभिव्यक्तियों में आंतरिक समानता है. तत्कालीन जीवन प्रकृति के नियंत्रण में था. मनुष्य खेती करना सीख चुका था. चूंकि कृषिकर्म पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर था, इसलिए प्रकृति और जीवन के बीच तालमेल बेहद आवश्यक था. चीन की एक लोककथा प्रकृति और मानव-जीवन की अंतनिर्भरता और उनके संबंधों पर प्रकाश डालती है. कहानी शिकारी ‘ई’ की है—
चीनी किवदंति है कि सूरज आज भी शिकारी ‘ई’ के भय से उबर नहीं पाया है. वह डरता-डरता पूरब से उदय होता है. पहले केवल दिन ही दिन था. उस घटना के बाद से सूरज दिन-भर पश्चिम की ओर भागते रहने के बाद शाम को पुनः बैंसबाड़ी के पीछे दुबक जाता है. इसी से दिन-रात होते हैं. सूरज रात को छिप जाता है, इससे प्राणियों को सोने का अवसर मिल जाता है. इसके लिए चीनी लोग महान शिकारी ‘ई’ का आभार मानते हैं. यह कहानी जहां सृष्टि के विकास के बारे में एक चीनी मिथ को सामने रखती है, साथ में यह भी समझाती है कि गुस्सा महान व्यक्ति को भी चूक करने को बाध्य कर देता है. यह भी दर्शाती है कि उस समय तक विश्व के अनेक कोनों में कहानी कला का विस्तार हो चुका था. ग्रीक परंपरा में होमर प्रख्यात कथावाचक हैं. उसने महान ग्रंथ ‘इलियाड’ और ‘ओडिसी’ की लोगों के बीच, उन्हें सुनाते हुए की थी. ईसा से आठ सौ वर्ष पहले जन्मा वह महाकवि लोकश्रुति के अनुसार जन्मांध था. वह लोगों को घूम-घूम कर अपनी रची हुई कविताएं सुनाता था. जिसको होमर के प्रशंसक उसके शिष्य लिखते जाते थे. ईसा से ढाई-तीन शताब्दी पहले जन्मे ईसप का नाम भी दुनिया के चर्चित किस्सागो में शामिल है. एक दास के रूप में जन्मा ईसप अपनी बोधकथाओं के माध्यम से चर्चित हुआ. उसके दृष्टांतों पर पंचतंत्र का प्रभाव साफ तौर पर नजर आता है. प्राचीन यूनान और भारत के बीच जिस प्रकार का अंतसंबंध था, नियमित यात्राएं होती थीं, उसको देखते हुए लोककथाओं का सहज-आदान-प्रदान असंभव न था. यही कारण है कि यदि विश्व के अलग-अलग देशों से वहां की बहुचर्चित लोककथाएं लेकर उनकी परस्पर तुलना की जाए तो पाएंगे कि उनके कथानक में असीमित समानता है. उनमें यदि कुछ अंतर है तो केवल परिवेश और भाषा का. लेकिन विचित्र पात्रों, काल्पनिक चरित्रों और कथानकों के आधार पर नीति-आख्यान गढ़ने में भारतीय मनीषियों का कोई सानी नहीं था. इस मामले में बाकी दुनिया के अपने समकालीन आचार्यों से वे बहुत आगे थे. भारत में कहन की कला की लोकप्रियता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि यहां बड़े-बड़े महाकाव्यों का प्रणयन किस्सागोई के माध्यम से हुआ है, जिनमें एक मिथ दूसरे मिथ का जन्मदाता है. इससे कहानी में तारतम्यता बनी रहती है. रामायण की कहानी के बारे में कहा जाता है कि इसको पहले शिव ने पार्वती को सुनाया था. फिर शिव के आदेश पर काकभुसुंडि उसको वाल्मीकि को सुनाते हैं. महाभारत भी कहन की परंपरा का एक ग्रंथ है, जिसको व्यास ने सूतजी के मुख से कहलवाया है. उपनिषद का तो अर्थ ही है, गुरु के आगे बैठकर बैठकर चिंतन-मनन, श्रवणादि करना. लोकसाहित्य की तो पूरी की पूरी परंपरा कहन पर टिकी हुई है. आज भी किसी को कोई बात समझानी हो तो लोग किसी कहानी या दृष्टांत का उद्धरण देने लगते हैं. © ओमप्रकाश कश्यप बाज और सांप कहानी कितनी कहानियों के सहयोग से मिलकर बनी है?उत्तर : बाज और सांप कहानी दो कहानियों के योग से मिलकर बनी है।
बाज और सांप की कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है?मित्र 'बाज और साँप' पाठ मनुष्य को शिक्षा देता है कि उसको जीवन में स्वतंत्रता और संघर्ष के मूल्य को समझना चाहिए। जो मनुष्य जीवन में अपनी स्वतंत्रता के प्रति जागरूक रहता है और संघर्ष करने से डरता नहीं है, वह आगे चलकर समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत बन जाता है।
बाज और साँप पाठ के आधार पर बताइए कि लेखक नेइस कहानी मेंबाज और साँप को ही क्यों चनु ा होगा?इस कहानी में लेखक ने बाज और साँप को इसलिए चुना, क्योंकि दोनों के स्वभाव में बहुत बड़ा अन्तर है। बाज साहसी और शिकारी पक्षी है। आकाश असीम है और बाज उस असीम का प्रतीक है जो स्वतन्त्र भाव से आकाश की ऊँचाइयों को छूना चाहता है और अपने साहस व वीरता के बल पर आकाश में उड़ते हुए पक्षियों का भी शिकार करना चाहता है।
बाज ने सांप से क्या कहा?पूरे आसमान में उसने खुब उड़ाने भरी है, ऊँचाइयों को अपने पंखों से नापा है। तुम्हारा बड़ा दुर्भाग्य है कि तुम जिंदगी भर आकाश में उड़ने का आनंद कभी नहीं उठा पाओगे।'' साँप बोला- ''आकाश! आकाश को लेकर क्या मैं चाटूँगा! बाज साँप को कहता है कि साँप बहुत भाग्यहीन है क्योंकि वह आकाश में कभी नहीं उड़ सकता।
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