भक्ति आंदोलन में महिलाओं की भूमिका क्या थी? - bhakti aandolan mein mahilaon kee bhoomika kya thee?

भक्ति आंदोलन में महिलाओं की भूमिका

भक्ति आन्दोलन प्रश्न | Bhakti Movement Question

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भक्ति आंदोलन नोट्स | Bhakti Movement Notes

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Bhakti Movement In Hindi भारत में भक्ति आंदोलन : नमस्कार दोस्तों आज हम भक्ति आंदोलन के बारे में जानेंगे, क्या था भक्ति आंदोलन, उत्तरी और दक्षिणी भारत के भक्ति आंदोलन का उदय मुख्य संतों के बारे में इस लेख में विस्तार से जानेगे.

भक्ति आंदोलन में महिलाओं की भूमिका क्या थी? - bhakti aandolan mein mahilaon kee bhoomika kya thee?

Bhakti And Sufi Movement In Hindi भारतीय धर्म, समाज एवं संस्कृति प्राचीन काल से ही अत्यधिक सुद्रढ़, सम्रद्ध और गौरवपूर्ण रही है. अनेक विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत पर आक्रमण किये जब जब भी भारत पर विदेशी आक्रमण हुए या विदेशियों का शासन रहा, भारतीय संस्कृति और धर्म को बहुत ही आघात पंहुचा लेकिन हमारी संस्कृति का स्वरूप इन आक्रमणों के बाद भी अक्षुण्ण बना रहा.

इस कारण उत्पन्न अव्यवस्था के कारण जब जब भारतीय धर्म और समाज में रूढ़ीवाद, आडम्बर, सामाजिक बुराइयों आदि ने प्रवेश किया, तब तब धर्म सुधार नायकों ने एक आंदोलन के रूप में उन बुराइयों को दूर करने का संदेश समाज को दिया. चाहे वह मध्यकाल का भक्ति आंदोलन हो या 19 वीं शताब्दी का सामाजिक व धार्मिक पुनर्जागरण. भारत में भक्ति आंदोलन के बारे में जानकारी इस आर्टिकल में दी गई हैं.

भारत में भक्ति की एक लम्बी और सुदृढ परम्परा रही है. भक्ति की शुरुआत सर्वप्रथम दक्षिण भारत से हुई और इसमें विष्णु के उपासक संतो की महत्वपूर्ण भूमिका रही. भारत में मध्यकाल व पूर्व मध्यकाल में भक्ति आंदोलन के तीन मत अस्तित्व में थे.

भक्ति आंदोलन क्या था ( What Is Bhakti Movement In India)

ईश्वर का सानिध्य प्राप्त करने के लिए अनेक तरीके अपनाएं जाते हैं. इसके लिए लोग मंदिर मस्जिद या गिरजाघर जैसे धार्मिक स्थल पर जाकर पूजा आराधना करते हैं. हम कह सकते है कि ये लोग भक्ति कर रहे हैं. इस तरह भगवान की भक्ति करने का, भगवान को याद करने का एक तरीका हैं.

समय समय पर भारत में अनेक धार्मिक महापुरुष हुए जिन्होंने लोगों को भक्ति मार्ग का अनुसरण करने का उपदेश दिया. मध्यकाल में भी विभिन्न संतों द्वारा भारत में भक्ति आंदोलन की धारा बहाई गई.

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भक्ति आंदोलन का तात्पर्य (bhakti sufi andolan in hindi)

भक्ति शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के भज शब्द से हुई हैं, जिसका अर्थ हैं भजना अथवा उपासना करना हैं. जब व्यक्ति सांसारिक कार्यों से विरक्त होकर एकांत में तन्मयता के साथ ईश्वर का स्मरण करता हैं, तो उसे भक्ति कहा जाता हैं एवं भक्ति करने वाले को भक्त कहा जाता हैं.

भारत में भक्ति आंदोलन की शुरुआत बाहरवी शताब्दी के लगभग दक्षिण भारत में हुई. इससे संबंध संत आलवार (विष्णु भक्त) तथा नायनार या अड्यार (शिव भक्त) कहे जाते थे. भक्ति आंदोलन के संतों ने जातिवाद की निंदा की, कर्मकांडों तथा यज्ञों का परित्याग करने पर बल दिया, महिलाओं के सशक्तिकरण पर बल दिया तथा आम बोलचाल की भाषा में लोगों तक अपने संदेश पहुचाएं. उत्तर मध्य भारत में महाराष्ट्र में सर्वप्रथम भक्ति आंदोलन का उदय हुआ.

भक्ति आंदोलन की शाखाएं

  • निर्गुण- इस विचार के अनुसार ईश्वर निराकार हैं, उसका कोई रंग रूप आदि नही होता हैं और वह हर प्रकार के भावों से मुक्त हैं. कबीर तथा नानक निर्गुण परम्परा के सर्वाधिक प्रसिद्ध व लोकप्रिय संत थे. वे निराकार ईश्वर में आस्था रखते थे. तथा वैक्तिक साधना और तपस्या पर बल दिया.
  • सगुण- इस विचारधारा के अनुसार ईश्वर शरीर धारी हैं. वह रंग रूप आकार, आनन्द, दया, क्रोध जैसे भावों से युक्त हैं. वल्लभाचार्य, तुलसी, सूरदास, मीरा, चैतन्य आदि इस परम्परा के प्रमुख संत थे. इन्होने राम अथवा कृष्ण की पूजा पर बल दिया. इन्होने मूर्तिपूजा, अवतारवाद, कीर्तन द्वारा उपासना इत्यादि का प्रयास किया.

भक्ति आंदोलन के प्रमुख भक्ति मत/सम्प्रदाय

शैव मत (shaivism in hindi)

शिव के उपासक शैव कहलाएँ थे. एक समय था जब हिन्दू धर्म में शैव मत सर्वाधिक प्रबल था. पाल, सेन, चन्देल राजाओं के अभिलेख में ‘ओम नमः शिवाय” से प्रार्थना आरम्भ होती है. दक्षिण में शैव के अनुनायियों को नयनार कहा जाता था. जिनकी संख्या 63 थी. 12 वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में वीर शैव मत की शुरुआत हुई. इसके अनुयायी लिंगायत कहलाते थे. ये अहिंसा में विश्वास करते थे.

हिन्दू धर्म आंदोलन के नेतृत्व में शन्कराचार्य का नाम उल्लेखनीय है. जिन्होंने बद्रीनाथ, पुरी, द्वारिका व श्रंगेरी मैसूर में चार मठ स्थापित किये थे. कालान्तर में शैव मत- वीर शैव, पाशुपत, कापालिक आदि सम्प्रदायों में विभाजित हो गया.

वैष्णव मत (Vaishnavism)

मध्यकालीन भारत में वैष्णव मत काफी लोकप्रिय था. भगवान विष्णु के उपासक वैष्णव तथा विष्णु के अनुयायी दक्षिण भारत में आलवार कहलाये थे. इनकी संख्या 12 थी. आलवार संतो ने दक्षिण भारत में भक्ति के सिद्धांत का अधिक प्रचार किया. ये संत यदपि सामान्य वर्ग से संबंधित थे. लेकिन उनमे उच्च गुणों का समावेश था. इनकी शिक्षाओं में कर्मज्ञान तथा भक्ति का समिश्रण था. ये सगुण भक्ति के उपासक थे.

इन्होने तमिल भाषा में साहित्य की रचना की बाद में भक्ति आंदोलन का प्रचार उत्तरी भारत में भी हुआ जिसे आगे बढ़ाने में रामानंद, वल्लभाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बाकाचार्य, रामानुजाचार्य तथा चैतन्य महाप्रभु आदि है. राजस्थान में भी वैष्णव सम्प्रदाय के अंतर्गत विश्नोई सम्प्रदाय, जसनाथी सम्प्रदाय, रामस्नेही सम्प्रदाय, दादू सम्प्रदाय, निरंजन सम्प्रदाय, चरणादासी सम्प्रदाय व लालदासी आदि का अभ्युदय एवं विकास हुआ.

ये सभी संत निर्गुण सम्प्रदाय के थे. सामाजिक व धार्मिक पुनर्जागरण में इन सभी संतो का महत्वपूर्ण योगदान रहा.

सूफी मत (Sufism)

इस्लामिक रहस्यवाद को सूफीवाद कहा जाता है. सूफ का अर्थ ऊन है. सूफी सन्त ऊन की तरह सफ़ेद वस्त्र पहनते थे. इसी से उन्हें सूफी कहा गया. सूफी मत तथा हिन्दू विचारधारा विश्वास और रीती रिवाजों में काफी समान थी. सूफियों के अनुसार विभिन्नता में ईश्वर की एकता निहित है. सूफी वाद के दो प्रमुख लक्ष्य है. परमात्मा से सीधा संवाद और इस्लाम के प्रति मानवता की सेवा करना.

सूफी सम्प्रदायों में चिश्ती सम्प्रदाय, सुहरावर्दी, कादरी, एक नक्शबंदी मुख्य सम्प्रदाय थे. प्रमुख सूफी संतो में शेख मुइनुद्दीन चिश्ती, शेख हमिदुद्दीन चिश्ती नागौरी, बखित्यार काकी, निजामुदीन ओलिया, शेख सलीम, बहाउद्दीन जकारियाँ, सदुद्दीन आरिफ, सुर्ख बुखारी आदि प्रमुख थे.

मध्यकाल में इन तीनों मतों ने सामाजिक एवं धार्मिक पुनर्जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. आगे चलकर 19 वीं एवं 20 वीं शताब्दी में भी धार्मिक व समाज सुधार आंदोलन प्रारम्भ हुए. इन आंदोलनों ने भी पुनर्जागरण में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया. एक ओर इन आंदोलनों ने भारत की सामाजिक एवं धार्मिक बुराइयों को दूर किया, वही दूसरी ओर भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में इस पुनर्जागरण ने नई जान फुकी.

भक्ति आंदोलन का उद्भव (When was Bhakti movement started)

भारत में भक्ति की परम्परा अनादि काल से चली आ रही हैं. कहा जाता हैं कि भक्ति परम्परा का प्रचलन महाभारत के समय भी था. जब गीता में अर्जुन से भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि तुम सभी धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जाओं, तब अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण भक्ति मार्ग पर चलने का उपदेश दे रहे होते हैं.

यदि भक्त सच्चे मन से भक्ति करे तो ईश्वर कई रूपों में भक्त को मिल सकता हैं. भक्ति के लिए ईश्वर के कई रूप देखने को मिलते हैं. कहीं मनुष्य के रूप में तो कही प्रकृति के विविध रूपों में.

भक्ति आंदोलन के उदय के प्रमुख कारण निम्न थे.

इस्लामी शासकों के अत्याचार

मुस्लिम आक्रमणकारियों ने हिन्दुओं पर तरह तरह के अत्याचार किये. उन्होंने बड़ी संख्या में हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया और हजारों हिन्दुओं को मुस्लिम धर्म स्वीकार करने के लिए मजबूर कर दिया और हजारों हिन्दुओं को मुस्लिम धर्म को स्वीकार करने के लिए मजबूत कर दिया.

इसके फलस्वरूप हिन्दुओं के ह्रदय में निराशा का संचार हुआ, परन्तु इसी समय भक्ति आंदोलन के प्रादुर्भाव से हिन्दुओं में प्रभु आराधना फिर से जागृत हुई और हिन्दुओं में फिर से भगवान के प्रति आस्था व प्रेम का संचार हुआ.

आश्रय की खोज

इस युग में हिन्दू अपनी राजनैतिक स्वतंत्रता खोकर पूर्ण रूप से इस्लामी शिकंजे में फंस चुके थे. ऐसे समय वे पराधीनता के बंधन से मुक्त होने के लिए नये मार्ग की तलाश में थे. वह मार्ग उन्हें भक्ति आंदोलन के रूप में प्राप्त हुआ.

सरल मार्ग

मध्य युग के धार्मिक विचारकों ने भक्ति मार्ग का प्रतिपादन किया, जो अद्वैतवाद की अपेक्षा सरल था. अतः इस मार्ग की ओर साधारण जनता ही आकृष्ट हो गई.

वैदिक धर्म की जटिलता

वैदिक धर्म व ब्राह्मणवाद की शिक्षाएँ अव्यावहारिक होने के साथ साथ सिद्धांतों पर आधारित थीं जो जनसाधारण की समझ के बाहर थी, इसके अलावा इस धर्म में आडम्बरों और कर्मकांडों का ही बोलबाला था. इसलिए जनता वैदिक धर्म से उब गई थी. ऐसी परिस्थिति में प्रेम मिश्रित ईश्वर भजन के आंदोलन को प्रोत्साहन मिला.

नये मार्ग की खोज की आवश्यकता

मुस्लिम साम्राज्य में हिन्दुओं की प्रगति के मार्ग में अवरुद्ध हो गये थे. परिणामस्वरूप हिन्दुओं में निष्क्रियता छाई. ऐसे समय में हिन्दुओं को नये मार्ग की खोज की आवश्यकता थी. परिणामस्वरूप उन्होंने भगवत भजन और आत्म चिंतन का मार्ग ढूंढ निकाला, जिसके माध्यम से उन्होंने काफी शक्ति संचित की.

धर्म और समाज की जटिलता

तत्कालीन समय में हिन्दू धर्म और समाज अनेक कुरीतियों, आडम्बरों एवं अंधविश्वासों का शिकार बना हुआ था. इसके अलावा समाज में जाति पांति की जटिलता बहुत अधिक बढ़ गई थी, तथा शूद्रों की स्थिति अत्यंत शोचनीय हो गई थी, परिणामस्वरूप अनेक धार्मिक चिंतकों व समाज सुधारकों ने भक्ति आंदोलन का प्रतिपादन कर धार्मिक व सामाजिक जटिलताओं को दूर करने का प्रयास किया गया.

भक्ति आंदोलन की विशेषताएं (features of bhakti movement)

इस युग के भक्ति आंदोलन के संतों की यह विशेषता रही थी कि ये स्थापित जाति भेड़, समाज में फैली असमानताओं एवं कुप्रथाओं पर सवाल उठाते थे. अपने प्रभु से प्यार करने में, लोगों के साथ मिल बैठकर रहने में ही सार हैं, ये समझाते थे.

वें अपने अनुयायियों को सीख देते थे कि हमे परमात्मा द्वारा बताएं गये मार्ग का अनुसरण करना चाहिए. भक्ति परम्परा से जुड़े हुए सभी संत हर किसी से प्यार करने पर जोर देते थे. इनकी रचनाओं में बार बार यह कहा गया हैं कि न कोई ऊँचा और न कोई नीचा सभी मानव बराबर हैं.

भक्ति आंदोलन की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अंतर्गत किया गया हैं.

ईश्वर की एकता पर बल देना

भक्ति आंदोलन के अनुयायियों का विश्वास था कि ईश्वर एक है जिसे लोग विष्णु, राम, कृष्ण, अल्लाह आदि नामों से पुकारते है. इस सम्बन्ध में कबीर नानक आदि संतों ने भी यही उपदेश दिया कि हिन्दुओं के ईश्वर व मुसलमानों के अल्लाह को अलग अलग विभाजित नहीं किया जा सकता हैं. अर्थात वे तो एक ही है सिर्फ नाम अलग अलग हैं.

ईश्वर की भक्ति पर बल देना

भक्ति आंदोलन के संतों ने ईश्वर भक्ति पर बल दिया हैं. भक्ति मार्ग के विचारकों का मत था कि यदि मनुष्य को मोक्ष प्राप्त करना है तो एकाग्रचित होकर श्रद्धा से ईश्वर की भक्ति में लग जाना चाहिए.

आत्म समर्पण को बल देना

भक्ति मार्ग में आत्म समर्पण के सिद्धांत को मान्यता दी गई हैं. भक्ति आंदोलन के प्रचारकों ने यह मत प्रकट किया कि मनुष्य को ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपने आप को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए. मनुष्य को यही सोचना चाहिए कि ईश्वर जो कुछ कर रहा है, अच्छा ही कर रहा हैं अर्थात मनुष्य को ईश्वर की इच्छा के सामने सिर झुका देना चाहिए.

गुरु की महत्ता पर बल देना

भारत में भक्ति आंदोलन के सभी संतों ने गुरु की महत्ता पर बल दिया. उनका मानना था कि बिना गुरु के मनुष्य को ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती. गुरु मनुष्य की सोई हुई आत्मा को जगाकर उसे प्रेम, सेवा तथा भक्ति के मार्ग पर चलाता हैं गुरु की कृपा से ही इस भवसागर को पार किया जा सकता हैं.

पाखंडों तथा आडम्बरों का खंडन

भक्ति आंदोलन के संतों ने पाखंडों तथा आडम्बरों का विरोध किया तथा शुद्ध आचरण एवं विचारों की पवित्रता पर बल दिया. उन्होंने धार्मिक पाखंडों तथा आडम्बरों को निरर्थक बताया तथा नैतिकता एवं ह्रदय की शुद्धता पर बल दिया.

जाति प्रथा तथा वर्ग भेद भाव का खंडन करना

भक्ति आंदोलन के संतों ने जाति प्रथा तथा ऊँच नीच के भेदभावों का खंडन कर सामाजिक समानता पर बल दिया. इन संतों ने निम्न जाति के लोगों के को भी मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी बताया. उन्होंने घोषित किया कि भगवान के दरबार में पहुंचने के लिए उच्च जाति का होना आवश्यक नहीं हैं.

बल्कि भक्तिमय ह्रदय वाला कोई भी निम्न जाति का व्यक्ति भगवान से साक्षात्कार कर सकता हैं. जात पांत पूछे नहीं कोई हरि को भजे सो हरि का होई. यह भक्ति आंदोलन का लोकप्रिय नारा था.

हिन्दू मुस्लिम एकता पर बल

भक्ति आंदोलनों के संतों ने हिन्दू मुस्लिम एकता पर बल दिया. उन्होंने राम और रहीम तथा ईश्वर और अल्लाह में कोई भेद नहीं बताया. उन्होंने हिन्दू मुस्लिम संस्कृतियों में समन्वय स्थापित करने पर बल दिया.

साम्प्रदायिकता का विरोध

भक्ति आंदोलन के संतों ने साम्प्रदायिकता का विरोध किया. उन्होंने धार्मिक कट्टरता तथा संकीर्णता का खंडन कर उदार दृष्टि कोण अपनाने पर बल दिया. उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया.

जन भाषाओं का प्रयोग

भक्ति आंदोलन के संतों ने अपनी शिक्षाओं का प्रचार जन भाषाओं में किया. ताकि जनसाधारण उन्हें सरलता से ग्रहण कर सके. जन साधारण की भाषा का प्रयोग करने के कारण भक्ति आंदोलन के सिद्धांतों का प्रचार तीव्रता से हुआ.

प्राणिमात्र की एकता पर बल देना

भक्ति मार्ग के अनुयायियों ने मानव समाज के भेद भाव को भुलाकर प्राणिमात्र की एकता पर बल दिया हैं. भक्ति मार्ग के विचारकों का मानना है कि जाति पांति व भेद भाव को भुलाकर बन्धुत्व की भावना से रहने में ही मानवता का कल्याण हो सकता हैं.

शुभ कर्मों एवं सद्गुणों के विकास पर बल देना

भक्ति आंदोलन के संतों ने शुभ कर्मों तथा सद्गुणों के विकास पर बल दिया, उन्होंने सत्य, अहिंसा, दयालुता, उदारता, परोप कार, दानशीलता आदि सद्गुणों को ग्रहण करने तथा काम, क्रोध, मोह, लाभ, अहंकार आदि का परित्याग करने का उपदेश दिया उनके अनुसार ईश्वर की प्राप्ति के लिए मनुष्य को शुद्ध आचरण करना आवश्यक है और साथ ही कर्म, वचन व मन की पवित्रता भी आवश्यक हैं.

निवृत्ति मार्ग का विरोध

भक्ति आंदोलन के अधिकांश संतों ने निवृत्ति मार्ग का विरोध किया. उनका कहना था कि भक्ति के लिए घर गृहस्थी को छोड़कर सन्यासी होना आवश्यक नहीं हैं, मनुष्य गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों का पालन करता हुआ भी शुद्ध आचरण तथा भक्ति के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त कर सकता हैं.

जन आंदोलन

भक्ति आंदोलन राज्याश्रय रहित आंदोलन था. भक्ति आंदोलन वास्तव में जन आंदोलन था जिसके द्वार सभी लोगों के लिए खुले हुए थे. इसके अधिकांश संत और प्रचारक निम्न जाति से थे. वे राजदरबार की कृपा पर आश्रित नहीं थे. सामान्य जनता ने भक्ति आंदोलन को पूरा पूरा सहयोग दिया.

भक्ति काव्य (bhakti kavya)

अपनी बात ये सीधी सरल और बोलचाल की भाषा में कहते थे. अधिकांश भक्त संत अपनी बात काव्य के जरिये कहते थे. जो लोगों को आसानी से समझ आ जाती थी. चौदहवी सदी आते आते भारत के अनुरूप उत्तर भारत में भी भक्ति परम्परा की धारा बहने लगी. भक्त संतों द्वारा रचित काव्य कही भगवान के प्रति प्रेम को प्रदर्शित करते, कही ईश्वर के अनेक रूपों की कथा सुनाई जाती. समाज में फैली बुराइयों पर कटाक्ष होता, आडम्बरों को नष्ट करने की बात आती और जाति भेद के खिलाफ आवाज उठाई जाती.

संत कबीर और संत गुरु नानक आदि से जिस विचारधारा का उद्भव हुआ उसकी लहर आज भी दिखाई देती हैं. मीराबाई के गीत आज भी लोगों को भगवत प्रेम के लिए प्रेरित करते हैं. आज भी भक्ति संतों की रचनाओं को लोग पढ़ते हैं, गाते है और उन पर नाचतें हैं.

दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन (bhakti movement in south india history)

भक्ति आंदोलन की लोकप्रियता दक्षिण भारत में सातवीं और नवीं सदी के बिच देखने को मिली. इसका श्रेय वहां के घुम्मकड साधुओं को जाता हैं. इन घुम्म्कड़ों में शिव के भक्त नयनार के नाम से जाने जाते थे. कुछ विष्णु भक्त थे इन्हें अलवार कहा जाता था. इन घुम्म्कड़ी साधुओं की विशेषता यह थी कि ये गाँव गाँव जाते और देवी देवताओं की प्रशंसा में सुंदर काव्य लिखते और उन्हें संगीत बद्ध करते.

नयनार और अलवार संतों में अनेक जातियों के लोग शामिल थे. नयनार और अलवार संतों में कई ऐसे थे जो कुम्हार, किसान, शिकारी, सैनिक, ब्राह्मण, मुखिया जैसे वर्गों में पैदा हुए थे. तथापि वे अपने उच्च विचारों एवं नैतिक मूल्यों की शिक्षा देने के कारण देश में समान रूप से प्रसिद्ध हुए.

  • प्रमुख नयनार संतों के नाम- अप्पार, संबंदर, सुन्दरार, मनिक्कवसागार
  • प्रमुख अलवार संतों के नाम- पीरियअलवार, पेरियअलवार की बेटी अंडाल, नम्माल्वार, तोंडरडिप्पोडी अलवार.

महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन | Maharashtra Bhakti Movement In Hindi

महाराष्ट्र में ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम और समर्थ गुरु रामदास जैसे संत हुए. यही पर सखूबाई नामक महिला और चोखामेला का परिवार भी लोकप्रिय था. महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन के काल में पंढरपुर नामक स्थान की बहुत बड़ी मान्यता थी.

यहाँ आकर भक्तगण विट्ठल की पूजा करते थे. विट्ठल को विष्णु का रूप माना जाने लगा. यहाँ भी अनेक जाति और समुदायों के लोग इकट्ठे होकर अपने आराध्य की भक्ति करते थे.

आजकल तो पंढरपुर की यात्रा पर हजारों लोग हर साल पैदल चलकर जाते हैं. इन संतों के विचार आज भी समाज में जीवित हैं. भक्ति धारा से सम्बन्धित स्थानों पर आज भी बड़ी तादाद में यात्रा करने के लिए जाते हैं.

राज्य में भक्ति आंदोलन को फैलाने का कार्य मुख्य रूप से दों पंथों द्वारा किया गया था. वारकरी सम्प्रदाय जो कि पंढरपुर के विट्ठल भक्तों का पन्थ था, दूसरा धरकरी सम्प्रदाय जिसके अनुयायी भगवान श्री राम को अपना आराध्य देव मानकर पूजा करते थे.

सन्तकाल
नामदेव 1270-1350 ई.
ज्ञानेश्वर (ज्ञानदेव) 1271-1296 ई.
एकनाथ 1533-1598 ई.
तुकाराम 1599-1650 ई.
रामदास 1608-1681 ई.

महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन के मुख्य संत (bhakti movement saints)

  • बहिनाबाई– ये महाराष्ट्र राज्य में भक्ति आंदोलन की मुख्य संत महिला थी, जो तुकाराम जी को अपना गुरु मानती थी. इनके बारे में अधिक वर्णन उपलब्ध नही हैं.
  • ज्ञानेश्वर या ज्ञानदेव (1271-1296 ई.)– इन्हें महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन का प्रवर्तक माना जाता हैं. इन्होने मराठी भाषा में ज्ञानेश्वरी (भावार्थ दीपिका) नामक टीका लिखी थी.
  • नामदेव (१२७०-१३५० ई.)– संभवत ये ज्ञानेश्वर के शिष्य थे. इन्होने महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन को लोकप्रिय बनाया, ये जाति से दर्जी थे तथा प्रारम्भ में डाकू थे. इन्होने ब्राह्मणों को चुनोती दी तथा जाति प्रथा, मूर्ति प्रथा तथा आडम्बरों का विरोध किया. इनके कुछ पद गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित हैं.
  • रामदास- इन्होने परमार्थ सम्प्रदाय की स्थापना की. ये शिवाजी के समकालीन थे तथा शिवाजी पर इनका अच्छा प्रभाव था. इन्होने द्शाबोध नामक ग्रंथ की रचना की और कर्मयोग पर जोर दिया.

महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन का प्रभाव

  1. भक्ति आंदोलन के कारण प्रांतीय भाषाओं और साहित्य का विकास हुआ, जो मराठी भाषा के लिए भी महत्वपूर्ण दौर था.
  2. हिन्दू मुसलमानों के मध्य प्रेमभाव उत्पन्न हुआ और वैरभाव कम हो गया.
  3. लोगों में धर्म के प्रति सहिष्णुता की भावना उत्पन्न हुई.
  4. सामाजिक कुरूतियों एवं अंधविश्वासों में कमी आई.

भक्ति आंदोलन के प्रमुख मत एवं उनके प्रवर्तक

  • अद्वैतवाद- शंकराचार्य
  • विशिष्टाद्वैतवाद- रामानुजाचार्य
  • द्वैताद्वैतवाद- निम्बार्काचार्य
  • शुद्धादैवतवाद- वल्लभाचार्य
  • द्वैतवाद- माधवाचार्य

राजस्थान में भक्ति आंदोलन | Rajasthan Me bhakti Movement In Hindi

राजस्थान में प्रारंभिक काल में ब्रह्मा और सूर्य की पूजा लोकप्रिय रही हैं. विष्णु के अवतार के रूप में राम और कृष्ण की पूजा का काफी प्रचलन हैं. साथ ही शिव शक्ति व विष्णु तथा गणेश, भैरव, कुबेर, हनुमान, कार्तिकेय, सरस्वती आदि की पूजा होती थी.

राजस्थान में जैन धर्म का काफी प्रचलन हैं. राजस्थान के राजपूत शासक हिन्दू धर्म के अनुयायी थे व शक्ति की उपासना करते थे. शेष हिंदुस्तान के समान ही, यहाँ भी धार्मिक सहिष्णुता रही हैं. सभी धर्म बराबरी से, शान्ति के साथ रहते आए हैं. राजस्थान में भक्ति आंदोलन से जुडी उपलब्ध जानकारी नीचे दी गई हैं.

भक्ति आन्दोलन का समय मध्यकालीन भारत ८०० से १७०० इसवी तक माना जाता हैं, जो भारत के इतिहास का एक महत्वपूर्ण पडाव था. विभिन्न राज्यों में अलग अलग संतो तथा समाज सुधारकों द्वारा भिन्न भिन्न तरीके से ईश्वर की आराधना की पद्धतियों को लाया गया. इस लिहाज से यह मौन क्रांति की एक धारा थी जो सम्पूर्ण भारत में समान रूप से बही.

हिन्‍दुओं, मुस्लिमों और सिक्‍खों के संतों, गुरुओं, महात्माओं तथा सूफी संतों द्वारा भारत में नये रीती रिवाज तथा विश्वासों को जन्म दिया. सिक्खों द्वारा गुरबानी का गायन, हिन्‍दू मंदिरों में कीर्तन, मुसलमानों द्वारा दरगाह में कव्‍वाली आदि भक्ति आंदोलन की ही देन हैं.

राजस्थान में भक्ति आंदोलन (Bhakti Movement In Rajasthan)

राजस्थान में भक्ति आंदोलन को फैलाने का श्रेय संत दादू जी को दिया जाता हैं. वैसे तो भारत में भक्ति आंदोलन के प्रतिपादक रामानुज आचार्य को माना जाता हैं. राजस्थान में भक्ति आन्दोलन के जनक संत धन्ना का जन्म 1415 ई. में टोंक जिले के धुवन गांव में हुआ था। ये रामानन्दजी के शिष्य थे।

भक्ति आंदोलन का प्रभाव (Impact Of bhakti movement In Hindi)

Social And Religious Significance Of bhakti movement: भक्ति आंदोलन एक देशव्यापी व लोकप्रिय जन आंदोलन था. इसने जन साधारण को  अत्यधिक प्रभावित किया. सुधारकों व भक्ति आंदोलन के उपदेशों ने अपने प्रगतिशील विचारों से भारत में चेतना की एक नई लहर पैदा कर दी. डी एल श्रीवास्तव का कथन है कि भक्ति आंदोलन एक देशव्यापी आंदोलन था जिसका सारे देश में प्रसार हुआ था. इस भक्ति आंदोलन के अलावा भारत के गम्भीर पतन के बाद भी इतना व्यापक तथा लोकप्रिय अन्य कोई आंदोलन नहीं हुआ, भक्ति आंदोलन के निम्नलिखित प्रभाव पड़े.

धार्मिक सहिष्णुता का उदय

इस आंदोलन ने विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों में धार्मिक सहिष्णुता का भाव पैदा किया. इस आंदोलन के परिणामस्वरूप ही हिन्दू और मुसलमान अपनी कट्टरता को त्याग कर आपस में समीप आने लगे और दोनों धर्मों में प्रेम भावना का संचार हुआ व दोनों धर्मों में समन्वय के भाव पैदा हुए.

सामाजिक समानता

भक्ति आंदोलन के परिणामस्वरूप हिन्दू समाज में दीर्घकाल से चले आ रहे जाति पांति व ऊँच नीच की भावनाओं पर भी कुठाराघात हुआ और जाति पांति के बंधन ढीले पड़े और समाज में समानता के भावों का निर्माण हुआ. इस आंदोलन ने निम्न जाति के लोगों व शूद्रों के लिए भी मुक्ति के द्वार खोल दिए. उनमें आत्म विश्वास व आत्म सम्मान की भावनाएं जागृत हुई.

धार्मिक पाखंडों व कर्म कांडों में शिथिलता

भक्ति आंदोलन के फलस्वरूप ही धार्मिक पाखंडों व कर्मकांडों में शिथिलता आई. इस आंदोलन ने हिन्दू समाज में फैली कुरीतियों और अंधविश्वासों को दूर करने का प्रयास किया जिससे जनसाधरण फालतू धार्मिक कर्म कांडों और अंध विश्वासों को त्याग कर शुद्ध आचरण करने लगा.

निराश हिन्दू जनता में शक्ति का संचार

भक्ति आंदोलन ने निराश हिन्दू जनता में नवीन शक्ति की एक लहर पैदा कर दी. इसने पुरे शोषित वर्ग को मिलाकर एक कर दिया और उनमें एक अद्भूत सहन शक्ति पैदा कर दी. इस आंदोलन के फलस्वरूप ही हिन्दू धर्म अपनी रक्षा करने में सफल हो सका.

एक स्वस्थ समाज का निर्माण

इस आंदोलन के फलस्वरूप मूर्ति पूजा, अन्धविश्वास, बाल हत्या, सती प्रथा, दासता, धार्मिक कर्मकांडों इत्यादि का प्रबल रूप से खंडन हुआ जिससे समाज अधिक स्वस्थ बना.

राजनैतिक प्रभाव

इस आंदोलन ने मराठों और सिखों जैसी सैनिक जातियों को जन्म दिया जिन्होंने मुगलों का सामना किया. इसी आंदोलन के सहारे विजयनगर जैसे सबल हिन्दू साम्राज्य का निर्माण सम्भव हो सका.

प्रांतीय भाषाओं को प्रोत्साहन

इस आंदोलन के द्वारा प्रांतीय भाषाओं को बड़ा प्रोत्साहन मिला. संस्कृत साहित्य का स्रजन हुआ. बंगला, गुजराती, मराठी, हिंदी, राजस्थानी आदि क्षेत्रीय भाषाएँ मुखरित हो उठीं. विद्यापति ने मैथिलि में मीरा ने राजस्थानी में, चंडीदास ने बंगला में, एकनाथ ने मराठी में, कबीर व जायसी ने हिंदी नव जागृति उत्पन्न कर दी. तुलसी और सूर ने तो हिंदी को अथाह सम्रद्धि प्रदान की.

हिन्दू मुस्लिम एकता को प्रोत्साहन

भक्ति आंदोलन ने हिन्दू मुस्लिम एकता पर बल दिया. इस आंदोलन के परिणामस्वरूप हिन्दू तथा मुस्लिम संस्कृतियों में समन्वय के लिए अनुकूल परिस्थतियाँ उत्पन्न हुई.

नवीन सम्प्रदायों का उदय

भक्ति आंदोलन के संतों के नामों पर अनेक धार्मिक सम्प्रदायों की स्थापना हुई जो आज तक जीवित हैं. इन सम्प्रदायों के अंतर्गत कबीर पंथ, दादू पंथ तथा सिख सम्प्रदाय आदि उल्लेखनीय हैं.

कला को प्रोत्साहन

भक्ति आंदोलन ने कला को प्रोत्साहन दिया, भक्ति आंदोलन के परिणामस्वरूप अनेक मूर्तियों एवं मन्दिरों का निर्माण किया गया जिससे वास्तुकला का विकास हुआ.

समाज सेवा को प्रोत्साहन

भक्ति आंदोलन ने समाज सेवा को भी प्रोत्साहन दिया. तालाब मन्दिर, धर्म शालाएँ, कुँए आदि का निर्माण करने तथा गरीबों ब्राह्मणों दीन दुखियों आदि को दान देने पर बल दिया.

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भक्ति आंदोलन का भारतीय इतिहास में विशेष महत्व हैं. इसने भक्ति का अक्षय स्रोत खोल दिया जिसके कारण हिन्दू जाति के हताश ह्रदय में सरलता और आशा का संचार हुआ.

इसने सामाजिक कुरीतियों का नाश कर समाज को संगठित और दृढ़ बनाया. संस्कृत तथा क्षेत्रीय भाषाओं में इसके कारण अभूतपूर्व उन्नति हुई. इस प्रकार भक्ति आंदोलन आधिपत्य के काल में उतरी भारत में हिन्दू धर्म की घायल आत्मा के लिए एक प्रकार का मरहम था.

भक्ति आंदोलन के संत पर निबंध (Bhakti Andolan History In Hindi)

भक्ति आंदोलन में प्रमुख संतों का योगदान– भक्ति आंदोलन सर्वप्रथम दक्षिण भारत में प्रारम्भ हुआ और धीरे धीरे सारे देश में फ़ैल गया. भक्ति आंदोलन के प्रवर्तक प्रमुख संतों का परिचय व योगदान निम्न प्रकार हैं.

शंकराचार्य

भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि शंकराचार्य ने तैयार की. इनका जन्म 788 ई में मालाबार में कालड़ी नामक स्थान पर हुआ था. वे एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे. वे वेदांत तथा उपनिषद के प्रबल समर्थक थे. ब्राह्मण धर्म को पुनर्जीवित करने में उनका महान योगदान था. ब्रह्मा के सम्बन्ध में उनका दृष्टिकोण एकेश्वरवाद अथवा अद्वैतवाद का था.

उन्होंने देश के विभिन्न भागों में चार मठ स्थापित किये. ये मठ पूर्व में जगन्नाथपुरी, पश्चिम में द्वारिका, उत्तर में बद्रीनाथ और दक्षिण में श्रंगेरी नामक स्थानों पर बनवाएं. हिन्दू धर्म की सेवा करते हुए 32 वर्ष की अल्पायु में अमरनाथ कश्मीर नामक स्थान पर देहावसान हो गया.

रामानुजाचार्य

रामानुजाचार्य को मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन का जन्मदाता कहा जाता हैं. उनका जन्म मद्रास के समीप तिरुपति अथवा पेरुम्बर नामक स्थान पर 1016 ई में हुआ था. रामानुजाचार्य सगुण ईश्वर के उपासक थे. वह एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे. उनके अनुसार परमात्मा एक है और अनन्य भक्ति ही मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र साधन हैं. रामानुजाचार्य ने उपदेश दिया कि भगवान के आगे आत्म समर्पण करके एक शुद्र भी मोक्ष प्राप्त कर सकता हैं.

उनके द्वारा दिया गया समानता का उपदेश उस युग में बहुत ही महत्वपूर्ण था. रामानुजाचार्य ने विशिष्टद्वैत का प्रतिपादन किया. जिसके अनुसार ईश्वर, जगत और जीव तीनों सत्य तथा अनादि हैं और जीव तथा जगत ईश्वर पर आश्रित हैं.

रामानंद

इनका जन्म 1299 ई में एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ. उन्होंने राम व सीता की उपासिका पर बल दिया. इन्होने उत्तरी भारत में वैष्णव धर्म का प्रचार किया. इन्होने सीता व राम के पवित्र रूप को जनसाधारण के सामने प्रस्तुत कर उन्हें नैतिकता व सामाजिक मर्यादा का पाठ पढाया.

रामानन्द ने अपने सिद्धांतों का प्रचार हिंदी भाषा में किया जिससे जनसाधारण ने इनके सिद्धांतों को आसानी से ग्रहण कर लिया. इन्होने जाति पांति के भेद भावों का खंडन किया और मनुष्य की समानता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया, रामानंद ने स्त्रियों की दशा सुधारने व उन्हें ऊँचा उठाने के लिए महत्वपूर्ण कार्य किये.

निम्बार्क

निम्बार्क आंध्रप्रदेश के रहने वाले थे और बाद में वृंदावन में जाकर बस गये थे. निम्बार्क ने द्वैताद्वैतवाद के सिद्धांत का प्रतिपा दन किया. उनके अनुसार जीव तथा ईश्वर व्यवहार में भिन्न हैं परन्तु सिद्धान्तः अभिन्न हैं. उन्होंने राधाकृष्ण की भक्ति पर बल दिया. उनके अनुसार कृष्ण के प्रति प्रेमपूर्ण भक्ति और आत्म समर्पण की भावना से मोक्ष की प्राप्ति सरल हो जाती हैं. उनके अनुसार श्रीकृष्ण अवतार नहीं, साक्षात ब्रह्मा हैं तथा राधा उनकी शक्ति हैं. निम्बार्क द्वारा प्रतिपादन मत सनक सम्प्रदाय कहलाता हैं.

मध्वाचार्य

मध्वाचार्य का जन्म 12 वीं शताब्दी में हुआ. उनके ऊपर भगवत दर्शन का प्रभाव था. मध्वाचार्य का विचार था कि सुख दुःख की स्थिति क्रमानुसार होती हैं. अतः मनुष्य को सुख व दुःख दोनों का अनुभव करना चाहिए. इन्होने भगवान को ही सबसे बड़ा माना हैं. भगवान को ही पुरे संसार का माता पिता माना हैं. अतः प्रत्येक कार्य जो मनुष्य करता है उसी को अर्पण करना चाहिए, उन्होंने द्वैतवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया.

वल्लभाचार्य

इनका जन्म 1479 ई के लगभग हुआ था. इन्होने कृष्ण भक्ति पर बल दिया. यह भगवान कृष्ण को अपना ईश्वर मानते थे. इन्होने वैराग्य और संसार के त्याग का उपदेश दिया. उनका मानना था कि मनुष्य ज्ञान एवं भक्ति से ही मोक्ष प्राप्त कर सकता हैं. उन्होंने शुद्धाद्वैतवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया. उन्होंने जाति प्रथा और छुआछूत का विरोध किया और कहा कि शुद्र निम्न नहीं हैं, अन्य वर्गों की सेवा करके वे ईश्वर की सेवा करते हैं.

रैदास

रैदास निम्न जाति के थे तथा काशी में इनका निवास स्थान था और यह कबीर के समकालीन थे. यह निर्गुण ईश्वर के उपासक थे. इन्होने जाति पांति का कड़ा विरोध किया. इन्होने बाह्यआडम्बरों का खंडन किया व आत्मा की शुद्धता पर बल दिया. रैदास रामानंद के प्रमुख शिष्यों में गिने जाते थे. इन्होने मानव समानता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया.

चैतन्य महाप्रभु

इनका जन्म 1486 ई में बंगाल में हुआ था. इन्होने जाति पांति के बन्धनों का खंडन किया. इन्होने कहा कि भक्ति मार्ग सिर्फ जाति विशेष के लिए ही नहीं, बल्कि सभी के लिए खुला हैं. उनका मानना था कि मानव मात्र में भेदभाव तो मनुष्यकृत हैं इसका भक्ति के मार्ग में कोई स्थान नहीं हैं. उन्होंने विश्व बन्धुत्व की भावना पर बल दिया. उन्होंने ऊंच नीच के भेद भाव का भी खंडन किया व निम्न जाति के व्यक्तियों को अपना शिष्य बनाया.

नामदेव

इनका जन्म महाराष्ट्र में एक दर्जी परिवार में हुआ था. प्रत्येक जाति व धर्म के लोग इनके अनुयायी थे. इन्होने एकेश्वरवाद पर बल दिया. इन्होने मूर्तिपूजा का खंडन किया व धार्मिक कर्मकांडों का विरोध किया. इन्होने मोक्ष का प्रमुख साधन ईश्वर में श्रद्धा को ही बताया.

ज्ञानदेव

ज्ञानदेव महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध संत थे. वे अद्वैतवादी होते हुए भी जगत और जीव की मिथ्या को नहीं मानते थे, वे जाति प्रथा , ऊँच नीच की भेदभाव के कटु आलोचक थे. उनका कहना था कि ईश्वर के साथ समरसता भक्ति और प्रेम से सम्भव हैं.

मीरा

मीरा का जन्म राजस्थान के राठौड़ वंश में हुआ था. मीरा वैष्णव संतों में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती थी. मीरा का विवाह मेवाड़ के सिसोदिया वंश में हुआ था. परन्तु मीरा कृष्ण भक्ति में मग्न हो गई और अपने राजमहलों के सुखों का त्याग कर दिया. उसे साधुओं का संग अच्छा लगता था और अपना जीवन साधू संतों में रहकर ही व्यतीत किया. मीरा ने जाति प्रथा के बन्धनों का खंडन किया व कृष्ण भक्ति को ही मुक्ति का सर्वोपरि मार्ग बताया.

तुलसीदास

तुलसीदास भक्ति आंदोलन के एक प्रमुख संत थे. उन्होंने हिन्दू धर्म में व्याप्त पाखंडों तथा आडम्बरों का विरोध किया तथा हिन्दू धर्म के मूल गुणों परोपकार, दया, अहिंसा तथा नैतिकता पर बल दिया. उन्होंने रामभक्ति को श्रेष्ठ बतलाया. उन्होंने सभी धर्मों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया.

उन्होंने साम्प्रदायिकता का विरोध किया तथा धार्मिक सहिष्णुता पर बल दिया. तुलसीदास एक महान समाज सुधारक थे, यदपि वे परम्परागत वर्णाश्रम व्यवस्था को बनाए रखना चाहते थे, परन्तु फिर भी उन्होंने भक्ति के आधार पर सामाजिक समानता पर बल दिया.

तुलसीदास हिन्दू संस्कारों के समर्थक थे. उन्होंने पवित्र तीर्थस्थलों एवं मूर्ति पूजा के महत्व को स्वीकार किया. उन्होंने साधुओं की संगत पर बल दिया. उन्होंने भी कबीर की भांति गुरु के महत्व पर बल दिया. उनका कहना था कि बिना गुरु की कृपा के कोई भी व्यक्ति इस भवसागर को पार नहीं कर सकता.

सूरदास

सूरदास भी भक्ति आंदोलन के एक प्रमुख संत थे. सूरदास सगुण भक्त थे तथा श्रीकृष्ण उनके आराध्य देव थे. उनकी तीन रचनाएं प्रसिद्ध हैं. सूरसारावली, साहित्य लहरी, सूरसागर. उनके काव्य में भक्ति, वात्सल्य तथा श्रृंगार तीनों रसों की सुंदर अभिव्यक्ति हुई हैं. सूरदास के पदों में कृष्ण लीला के अतिरिक्त ब्रह्म, जीव, संसार, माया आदि विषयक विचार भी मिलते हैं. सूरदास ने ब्रजभाषा में अपनी रचनाएं की.

गुरु नानक

इनका जन्म सन 1469 ई में पंजाब के तलवंडी में एक खत्री परिवार में हुआ था. गुरु नानक ने सिख धर्म की स्थापना की थी. इन्होने उपनिषद के विरुद्ध एकेश्वरवाद के सिद्धांत को पुनः जागृत किया. इन्होने मूर्तिपूजा का खंडन किया व एकेश्वरवाद का ही उपदेश दिया. इसके अलावा उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों के कर्म कांडों का भी बड़ा विरोध किया. ये विभिन्न धर्मों के आपसी संघर्ष को समाप्त कर समाज में समन्वय स्थापित करना चाहते थे. इन्होने हिन्दू मुसलमानों की एकता का समर्थन किया.

दादू

इन्होने अन्य संतों के समान मूर्तिपूजा का खंडन किया और तीर्थयात्रा, जाति पांति, व्रत और अवतार आदि का विरोध किया. उन्होंने अलग अलग सम्प्रदायों के मानने वालों को भ्रातत्व और प्रेम में बांधकर एक करने का प्रयास किया. इसके लिए उन्होंने एक अलग पंथ का निर्माण किया जो दादू पंथ के रूप में जाना जाता हैं. दादू का ईश्वर से साक्षात्कार में विश्वास था. अतः उन्होंने उपदेश दिया कि मनुष्य को अपने आपकों पूर्ण रूप से ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए.

कबीर

अधिकांश विचारकों का मत हैं कि कबीर का जन्म 1440 ई के लगभग हुआ था. जब वे बड़े हुए तो रामानंद स्वामी के शिष्य हो गये. इन्होने हिन्दू मुस्लिम एकता स्थापित करने पर विशेष बल दिया. कबीर ने हिन्दुओं एवं मुसलमानों के धार्मिक पाखंडों और कर्मकांडों की आलोचना हैं. उन्होंने जाति प्रथा तथा ऊंच नीच के भेद भाव का खंडन किया. और सामाजिक समानता पर बल दिया. उन्होंने शुद्ध कर्मों एवं आचरण की पवित्रता और प्रेम भाव पर बल दिया.

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भक्ति आंदोलन में महिलाओं की क्या स्थिति थी?

भक्ति आंदोलन ने महिलाओं की बेहतर स्थिति को वापस हासिल करने की कोशिश की और प्रभुत्व के स्वरूपों पर सवाल उठाया। एक महिला संत-कवयित्री मीराबाई भक्ति आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण चेहरों में से एक थीं। इस अवधि की कुछ अन्य संत-कवयित्रियों में अक्का महादेवी, रामी जानाबाई और लाल देद शामिल हैं।

भक्ति आंदोलन की क्या भूमिका है?

बारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में रामानंद द्वारा यह आंदोलन दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लाया गया। इस आंदोलन को चैतन्‍य महाप्रभु, नामदेव, तुकाराम, जयदेव ने और अधिक मुखरता प्रदान की। भक्ति आंदोलन का उद्देश्य था- हिन्दू धर्म एवं समाज में सुधार तथा इस्लाम एवं हिन्दू धर्म में समन्वय स्थापित करना।

भक्ति आंदोलन के जनक कौन है?

भक्ति आन्दोलन का आरम्भ दक्षिण भारत में आलवारों एवं नायनारों से हुआ जो कालान्तर में (800 ई से 1700 ई के बीच) उत्तर भारत सहित सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में फैल गया। इस हिन्‍दू क्रांतिकारी अभियान के नेता शंकराचार्य थे जो एक महान विचारक और जाने माने दार्शनिक रहे।

भक्ति आंदोलन के प्रथम संत कौन थे?

भक्ति आंदोलन के प्रथम प्रचारक और संत शंकराचार्य थे। केरल में आठवीं शताब्दी में जन्मे संत शंकराचार्य द्वारा भारत में व्यापक स्तर पर भक्ति मत को ज्ञानवादी रूप में प्रसारित किया गया। शंकराचार्य के दर्शन का आधार वेदांत अथवा उपनिषद था। उनका सिद्धांत 'अद्वैतवाद' कहलाया।