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वस्तुओं एवं सेवाओं को किसी देश से दूसरे देशों में भेजना निर्यात (export) कहलाता है। किसी भी तरह के उत्पादों या सेवओं को बाहर के किसी देश को बेंचनें निर्यात को कहते है। निर्यात का उल्टा होता है आयात। इन्हें भी देखें[संपादित करें]
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भारत में आयात एवं निर्यात की प्रवृत्तिविदेशी व्यापार के दो अंग होते हैं- (1) आयात (2) निर्यात। देश में जब भी नये उद्योग स्थापित किये जाते हैं, तो उनके लिए नयी तकनीक तथा नये-नये यंत्रों की आवश्यकता होती है। कभी-कभी इन आवश्यकताओं की पूर्ति देश के अन्दर उत्पादन करके पूरी नहीं हो पाती। अतः इन्हें विदेशों से मंगाया जाता है इन्हें विकास आयात कहा जाता है। मशीनों तथा प्लांटों की स्थापना के बाद इनके उपयोग के लिए कच्ची सामग्री यदि विदेशों से मंगायी जाये तो इसे रख-रखाव आयाता कहा जाता है। प्रारम्भिक योजना काल के समय भारत का आयात निर्यात से अधिक था। औद्योगिकरण की नीति को द्वितीय योजना में अपनाया गया। इससे कलपुर्जों, कच्ची सामग्री, तकनीकी ज्ञान आदि की माँग बढ़ी और इनका आयात करना पड़ा। इसके अतिरिक्त अनेक वर्षों तक खाद्यानों का आयात भी भारत को करना पड़ा। जिसके कारण भारत का आयात निर्यात से अधिक बना रहा। भारत का आयात निर्यात से अधिक होने के निम्न कारण भी थे- (1) मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए खाने के तेल आदि कुछ वस्तुओं का आयात किया गया। (2) उदार आयात नीति के अन्तर्गत कुछ अनावश्यक वस्तुओं का भी आयात कर लिया गया। (3) पेट्रोलियम पदार्थों का अधिक आयात किया गया। (4) भारत में उदारवादी नीति को अपनाने के कारण आयात नियन्त्रण को समाप्त किया गया। 1950-51 में भारत के कुल आयात का मूल्य 608 करोड़ रूपये था जो 1960-61 में बढ़कर 1,122 करोड़ रूपये 1970-71 में 634 करोड़ रूपये, 1980-81 में 12549 करोड़ रूपये तथा 2000-01 में 230 करोड़ रूपये तथा 2010-11 में 275 हजार करोड़ हो गया। 1990-91 में हमारा आयात जी०डी०पी० 8.8 प्रतिशत तथा 1995-96 में 12.3 प्रतिशत 2010-11 में यह आयात जी०डी०पी० का 15 प्रतिशत हो गया। यह नतीजा था परिणात्मक प्रतिबन्ध हटाने और विकास की दर से वृद्धि का। 1950 के दशक तक भारत के आयात का प्रमुख स्रोत ब्रिटेन था परन्तु अब यह स्थान OECD देशों ने ले लिया था। 1990 से 2011 के मध्य इन देशों से भारत का आयात कुल आयात का 43 प्रतिशत था। इसी प्रकार पूर्वी यूरोप से भारत के कुल आयात का 1.4 प्रतिशत OPEC क्षेत्र से 5.8 प्रतिशत रहा। भारतीय निर्यातभारत के निर्यात को 4 भागों में बाँटा जा सकता है- (1) कृषि एवं सम्बद्ध वस्तुओं का निर्यात (2) कच्ची धातु तथा खनिज का निर्यात। (3) निर्मित वस्तुओं का निर्यात। (4) खनिज ईधन तथा स्नेहक (लुब्रीकेन्ट्स) योजनाकाल के प्रारम्भ से ही भारतवर्ष के तेज आर्थिक विकास पर बल दिया गया। प्रारम्भिक काल में भारत केवल कच्चे माल एवं असीमित वस्तुओं तथा खनिजों का ही निर्यात करता था। जैसे-जैसे भारत का औद्योगिक एवं आर्थिक विकास होता गया निर्यात की गति भी धीरे-धीरे बढ़ी लेकिन योजना काल के लगभग 15 वर्षों तक भारतीय निर्यात गति नहीं पकड़ सका इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित थे- (1) प्रारम्भिक काल में भारत द्वारा निर्यात की जाने वाली प्रमुख मदें थी। चाय, कपास तथा रूई से बनी वस्तुये जिनकी विश्व बाजार में माँग काफी बेलोचदार थी। (2) भारत द्वारा निर्यात की जाने वाली वस्तुओं की उत्पादन लागत अधिक होने के कारण विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धा कर पाने में असमर्थता के कारण योजनाकाल के प्रारम्भ के करीब 20 वर्षों के बाद सन् 1966 में रूपये का अवमूल्यन किया गया और इसके बाद से हमारे निर्यातकों को कीमत लाभ मिलने लगा। इसी समय हमारी सरकार ने कई समाजवादी देशों के साथ द्विपक्षीय समझौते किये जिससे हमारे निर्यात को प्रोत्साहन मिला। हमारी सरकार ने निर्यात बढ़ाने के लिए कई प्रयास किये और निर्यात प्रोत्साहन परिषदों की स्थापना की और 1970 के दशक में हमारे निर्यात में तेजी से वृद्धि हुईं 1990 के दशक में निर्यात में काफी सुधार हुआ और 1990-91 में हमारा निर्यात जी०डी०पी० का 5.8 प्रतिशत हो गया। 1995-96 में यह 9.1 प्रतिशत तथा 2001-02 में 9.4 प्रतिशत हो गया। आजादी के बाद 1948 में विश्व व्यापार में भारतीय निर्यात का हिस्सा 2.2 प्रतिशत था जो कि आगे आने वाले वर्षों में निरन्तर घटता रहा और 2001 में भारत के निर्यात का विश्व बाजार में हिस्सा केवल 7 प्रतिशत रह गया। परन्तु 2010.11 में पुन: यह बढ़कर 2.1 प्रतिशत तथा 2012-13 में 2.5% हो गया। इसे भी पढ़े…
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DisclaimerDisclaimer:Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: You may also likeAbout the authorआयात और निर्यात का क्या महत्व है?किसी देश के लिए आयात और निर्यात का उचित संतुलन बनाए रखना महत्वपूर्ण है। किसी देश की आयात और निर्यात गतिविधि किसी देश की जीडीपी, उसकी विनिमय दर और उसके मुद्रास्फीति के स्तर और ब्याज दरों को प्रभावित कर सकती है ।
आयात निर्यात क्या होते हैं?वस्तुओं एवं सेवाओं को किसी देश से दूसरे देशों में भेजना निर्यात (export) कहलाता है। किसी भी तरह के उत्पादों या सेवओं को बाहर के किसी देश को बेंचनें निर्यात को कहते है। निर्यात का उल्टा होता है आयात।
आयात का महत्व क्या है?उन देशों से खाद्य पदार्थ और अन्य सामान आयात करना जो उन्हें अधिक कुशलता से उत्पादित कर सकते हैं, वास्तव में 'स्थानीय खरीदने' की तुलना में ग्रह के लिए बेहतर हो सकता है, भले ही परिवहन लागत अधिक हो । संक्षेप में, मुक्त व्यापार से दोनों पक्षों को लाभ होता है - अन्यथा ऐसा बिल्कुल नहीं होता। इसका मतलब है कि आयात और आयात भी महान हैं।
निर्यात की परिभाषा क्या है?विदेशी व्यापार की दिशा से अभिप्राय है कि भारत किन देशों से आयात करता है तथा किन देशों से निर्यात करता है । स्वतन्त्रता से पूर्व भारत का अधिकतर व्यापार इंग्लैण्ड तथा राष्ट्रमंडल के देशों के साथ होता था।
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