Show श्रीलंका में क्यों एक-दूसरे के दुश्मन हो गए हैं बौद्ध-मुस्लिम-ईसाई
जब श्रीलंका में एक दशक पहले भयावह गृहयुद्ध खत्म हुआ तो एक उम्मीद बंधी थी कि अब यह देश अपने अतीत से बाहर निकल पाएगा लेकिन रविवार को हुए आतंकी हमले ने साबित कर दिया कि देश की शांति क्षणिक थी.
चर्च और होटलों में हुए आतंकी हमले में करीब 290 लोग मारे गए और सैकड़ों लोग घायल हो गए. अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि इस हमले को किसने अंजाम दिया हालांकि देश के रक्षा मंत्री ने कहा है कि इसके पीछे एक समूह जिम्मेदार है. अभी तक 24 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है.
श्रीलंका अपनी प्राकृतिक खूबसूरती के लिए जाना जाता है. 2018 में 20 लाख पर्यटक इस खूबसूरत देश में घूमने पहुंचे. हालांकि, श्रीलंका के खूबसूरत दामन पर लंबे समय से हिंसा के दाग भी रहे हैं.
वैश्विक व्यापार के केंद्र में रहा श्रीलंका हमेशा से विविधता से भरा देश रहा है. बौद्ध श्रीलंका के मूल निवासी माने जाते हैं जो 100 ईसा पूर्व से यहां रह रहे हैं. हिंदू यहां कुछ दशकों बाद पहुंचे. अरब दुनिया के साथ व्यापार के जरिए मध्यकाल में मुस्लिम इस देश में पहुंचे और 16वीं सदी के यूरोपीय साम्राज्यवाद की शुरुआत में ईसाई भी आकर बस गए. श्रीलंका
को 1948 में ब्रिटिश हुकूमत से आजादी मिली और 1972 में श्रीलंका गणराज्य बन गया.
वर्तमान में श्रीलंका में करीब 2.2 करोड़ की आबादी है. देश की 70 फीसदी आबादी बौद्ध है. यहां 10 फीसदी आबादी मुस्लिम, 12 फीसदी हिंदू और 6 फीसदी कैथोलिक है. रविवार को हुए हमले में करीब 3 चर्चों को निशाना बनाया गया. स्पष्ट बहुसंख्यक होने के बावजूद सिंहली बौद्ध राष्ट्रवादी लोगों के बीच यह डर पैदा कर रहे हैं कि देश में अल्पसंख्यकों, खासकर मुस्लिमों की आबादी और उनका प्रभाव बढ़ रहा है.
श्रीलंका में वैसे तो बहुसंख्यक सिंहल समुदाय और अल्पसंख्यक तमिल के बीच ही संघर्ष रहा है लेकिन इस तनाव में एक अहम भूमिका बौद्ध अतिवाद ने भी अदा की. 1959 में एक बौद्ध भिक्षु ने देश के चौथे प्रधानमंत्री की हत्या कर दी थी क्योंकि उन्होंने देश के तमिल अल्पसंख्यकों को सीमित स्वायत्तता देने वाले एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. 2018 में बौद्धों ने मुस्लिमों की दुकानों और
घरों पर हमला बोल दिया था जिसमें करीब 5 लोगों की मौत हो गई थी. (ज्यादातर श्रीलंकाई मुसलमान तमिल ही हैं और ज्यादातर तमिल हिंदू हैं)
ईसाई श्रीलंका की आबादी का 7 फीसदी ही हैं और उन्हें उनके धर्म की वजह से गृहयुद्ध के दौरान कभी निशाना नहीं बनाया गया लेकिन ईस्टर रविवार को हुए हमले ने इस परंपरा को भी तोड़ दिया.
गृहयुद्ध के घाव नहीं भर रहे- अगले महीने सरकार और अलगाववादी तमिलों के बीच संघर्ष के अंत की 10वीं वर्षगांठ होगी. तमिल टाइगर संगठन को एक वक्त दुनिया का सबसे खतरनाक आतंकी संगठन कहा जाने लगा था. करीब तीन दशकों तक तमिल टाइगर्स ने आत्मघाती हमले कराए, श्रीलंका के तत्कालीन राष्ट्रपति और एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या तक करा दी. 2000 में देश के तीन-चौथाई इलाके में इनका नियंत्रण हो गया था और उन्होंने इसे अपना राज्य घोषित कर दिया था. 2009 से पहले तमिल टाइगर्स को रोकने का कोई रास्ता ही नजर नहीं आ रहा था. 2009 में श्रीलंका सेना ने इसका सफाया कर दिया लेकिन इस पर प्रभावित क्षेत्रों में मानवाधिकार उल्लंघन के गंभीर आरोप लगे. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, गृहयुद्ध में करीब 40,000 आम नागरिक मारे गए.
श्रीलंकाई सरकार ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भरोसा दिलाया था कि वह संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों के लोगों को न्याय दिलाएगा लेकिन इस दिशा में सरकार ने कुछ खास नहीं किया. संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार उच्चायोग ने फरवरी 2018 में कहा था कि श्रीलंका में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रही हिंसा की वापसी के पीछे सरकार का अतीत के लिए गैर-जिम्मेदारी से पेश आना है.
कई तमिल परिवार आज भी गृहयुद्ध में लापता हुए परिजनों की तलाश कर रहे हैं और सेना के कब्जे की जमीन पर दावा करने की कोशिश कर रहे हैं.
श्रीलंकाई मुस्लिम भी अधिकांश तमिलभाषी हैं. एलटीटीई के समय 2009 तक सिंघली-तमिल टकराव चलता रहा. एलटीटीई के खात्मे के बाद यह बौद्ध और मुस्लिम टकराव में बदल गया. श्रीलंका में कई राष्ट्रवादी बौद्ध समूहों ने ईसाइयों पर भी धर्मांतरण के आरोप लगाए थे. इसके लिए उन्होंने सरकार से धर्मांतरण के विरुद्ध कानून बनाने की मांग भी की थी. श्रीलंका में हिंदू और
बौद्धों के बीच सद्भाव है लेकिन मुस्लिमों और बौद्धों का टकराव सामने आता रहता है. सिंहल बौद्धों के राष्ट्रवाद में उभार के साथ सामुदायिक संघर्ष और भी तेज हो गया है और देश में हिंसा की एक नई लहर पैदा हो गई है. कुछ बहुसंख्यक सिंहली राजनेताओं के मन में गृहयुद्ध में विजय के भाव ने भी असहिष्णुता बढ़ाने में मदद की है. पिछले साल अधिकारियों ने कैंडी जिले में बौद्ध-मुस्लिम संघर्ष के बीच आपातकाल की घोषणा कर दी थी.
श्रीलंका पिछले कुछ वक्त से राजनीतिक तनाव को भी झेल रहा है. पिछले साल श्रीलंकाई प्रधानमंत्री को सत्ता से बेदखल करने की कोशिश की वजह से राजनीतिक संकट पैदा हो गया था. एक ही वक्त में श्रीलंका के दो घोषित प्रधानमंत्री हो गए थे. अक्टूबर महीने में राष्ट्रपति मैत्रिपाल सिरिसेना ने प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघ को सत्ता से बाहर करते हुए पूर्व राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे को नियुक्त कर दिया था.
रिपोर्ट के मुताबिक, जून 2014 में एलुथगामा दंगे के बाद मुस्लिम विरोधी कैंपेन चलाए गए थे. कुछ बौद्ध समूहों ने आरोप लगाया था कि मुस्लिम जबरन धर्म परिवर्तन करा रहे हैं. 2015 में सत्ता में आने के बाद राष्ट्रपति एम सिरेसेना ने कहा था कि वे मुस्लिम विरोधी हिंसा के मामलों की जांच करवाएंगे. हालांकि, बाद में कुछ खास नहीं हुआ.
जब यह स्पष्ट हो गया कि राजपक्षे के पास संसद में पर्याप्त मत नहीं है तो सिरिसेना ने संसद ही बर्खास्त कर दी थी. करीब दो महीने तक चले इस राजनीतिक संकट की वजह से देश थम गया था. दोनों पक्षों के समर्थक सड़क पर उतर आए थे. श्रीलंका में पैदा हुआ संवैधानिक संकट सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद खत्म हुआ. आखिरकार राजपक्षे पीछे हटे और विक्रमसिंघे प्रधानमंत्री पद पर बने रहे.
हालांकि, यह राजनीतिक अस्थिरता वापस आ सकती है क्योंकि साल के अंत में श्रीलंका में राष्ट्रपति चुनाव है और अगले साल संसदीय चुनाव भी होने हैं.
एक क्षेत्रीय विश्लेषक ने सीएनबीसी से कहा कि चुनाव से पहले अल्पसंख्यकों को फिर से अपना भविष्य असुरक्षित दिख रहा है क्योंकि राजनीतिक पार्टियां बौद्ध राष्ट्रवादी मतदाताओं को लुभाने की कोशिश करेंगी. श्रीलंका का राज्य के धर्म कौन सा है?2011 की जनगणना के अनुसार श्रीलंका के 70.2% थेरावा बौद्ध थे, 12.6% हिंदू थे, 9.7% मुसलमान (मुख्य रूप से सुन्नी) और 7.4% ईसाई (6.1% रोमन कैथोलिक और 1.3% अन्य ईसाई) थे।
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