ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम क्या है इसके गणितीय? - ooshmaagatikee ka pratham niyam kya hai isake ganiteey?

chemistry April 25, 2019

सब्सक्राइब करे youtube चैनल

(first law of thermodynamics in hindi) ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम : यह नियम रोबर्ट मेयर तथा हेल्महोल्टज द्वारा प्रतिपादित किया गया था।
यह नियम ऊर्जा संरक्षण का नियम कहलाता है।
इस नियम के अनुसार ऊर्जा को न तो उत्पन्न किया जा सकता है तथा न ही नष्ट किया जा सकता है परन्तु ऊर्जा को एक रूप से दुसरे रूप में परिवर्तित किया जा सकता है , अर्थात ब्रह्माण्ड की कुल ऊर्जा स्थिर रहती है।

निष्कर्ष

  • ब्रह्माण्ड की कुल ऊर्जा स्थिर रहती है लेकिन उर्जा का रूपांतरण संभव है।
  • एक ऐसी शाश्वत गति मशीन बनाना संभव नहीं है जिसमें बिना ऊर्जा खर्च किये कार्य प्राप्त किया जा सके।
  • किसी प्रक्रम में ऊर्जा के एक रूप की निश्चित मात्रा लुप्त होती है तो उसके तुल्य दुसरे प्रकार की ऊर्जा प्रकट अवश्य होती है।

ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम का गणितीय रूपांतरण

माना एक गैसीय तंत्र अपने परिवेश से ऊष्मा की कुछ मात्रा q अवशोषित करता है , इसके फलस्वरूप प्रारंभिक अवस्था की ऊर्जा E1 परिवर्तित होकर अंतिम अवस्था की ऊर्जा E2 के बराबर होती है तथा अवस्था परिवर्तन के कारण तंत्र अपने परिवेश पर w कार्य करता है।

तंत्र की अवस्था परिवर्तन के कारण तन्त्र की आंतरिक ऊर्जा में परिवर्तन :-

△E = E2
– E
1

तंत्र द्वारा अवशोषित ऊष्मा की मात्रा = तंत्र की आंतरिक ऊर्जा में वृद्धि + तंत्र द्वारा किया गया कार्य

q = △E + w

या

△E = q – w

नोट : q तथा w अवस्था फलन नहीं है लेकीन इन दोनों का अंतर (q – w) एक अवस्था फलन (△E) है।

नोट 2 : यदि तंत्र में अन्नत सूक्ष्म परिवर्तन हो तो ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम को निम्नानुसार व्यक्त किया जा सकता है –

dq =  dE + dW

या

dq = dU + dW

q तथा w के चिन्ह

  • यदि तंत्र ऊष्मा ग्रहण करता है तो q का मान धनात्मक तथा यदि तंत्र ऊष्मा त्यागता है तो q का मान ऋणात्मक होता है।
  • यदि तंत्र द्वारा परिवेश पर कार्य किया जाता है तो w का मान धनात्मक होता है तथा यदि तंत्र पर परिवेश द्वारा कार्य किया जाता है तो w का मान ऋणात्मक होता है।

ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम की सीमाएँ

  • जब दो अलग अलग ताप वाली वस्तुएं पास पास में रहती है तो उनमें से एक वस्तु ऊष्मा त्यागती है तथा दूसरी वस्तु उष्मा ग्रहण करती है।
  • ऊष्मा हमेशा उच्च ताप वाली वस्तु से निम्न ताप वाली वस्तु की ओर जाती है परन्तु जब दो वस्तुओं का ताप मालूम नहीं होता है तो इस नियम द्वारा यह नहीं बताया जा सकता कि कौनसी वस्तु ऊष्मा त्यागती है तथा कौनसी वस्तु ऊष्मा ग्रहण करती है।
  • किसी अभिक्रिया में पूर्णतया क्रिया के बाद ऊर्जा समान मात्रा में होती है परन्तु क्रिया अग्र दिशा में स्वत: घटित क्यों होती है।
  • सभी प्रकार की ऊर्जाओं को ऊष्मा ऊर्जा में बदला जा सकता है परन्तु बिना किसी बाह्य सहायता के ऊर्जा को पूर्णतया कार्य ऊर्जा में नहीं बदला जा सकता है।

Solution : ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम ऊर्जा संरक्षण का नियम है, इस नियम के अनुसार, ऊर्जा को न तो उत्पन्न किया जा सकता है और न ही नष्ट किया जा सकता है, तो केवल एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित किया जा सकता है । <br> दूसरे शब्दो में, जब कभी ऊर्जा की कोई निश्चित मात्रा एक रूप में अदृश्य या विलुप्त होती है तो ऊर्जा की तुल्य मात्रा दूसरे रूप में प्रकट हो जाती है । <br> गणितीय व्यंजक- माना किसी निकाय की आंतरिक ऊर्जा `U_(1)` है तथा यह परिपाशर्व से q ऊष्मा ऊर्जा अवशोषित करता है अतः इसकी आंतरिक ऊर्जा बढ़कर `U_(1)+q` हो जायेगी। यदि निकाय पर W कार्य किया जाता है तो आंतरिक ऊर्जा बढ़कर `U_(1)+q+W` हो जायेगी तथा यह `U_(2)` के बराबर है। <br> `U_(2)=U_(1)+q+W` <br> या `U_(2)-U_(1)=q+W` <br> या `DeltaU=q+W," "(":'U_(2)-U_(1)=DeltaU)`

उष्मागतिकी के शून्यवें सिद्धांत में ताप की भावना का समावेश होता है। यांत्रिकी में, विद्युत् या चुंबक विज्ञान में अथवा पारमाण्वीय विज्ञान में, ताप की भावना की कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत होती। उष्मागतिकी के प्रथम सिद्धांत द्वारा ऊष्मा की भावना का समावेश होता है। जूल के प्रयोग द्वारा यह सिद्ध होता है कि किसी भी पिंड को (चाहे वह ठोस हो या द्रव या गैस) यदि स्थिरोष्म दीवारों से घेरकर रखें तो उस पिंड को एक निश्चित प्रारंभिक अवस्था से एक निश्चित अंतिम अवस्था तक पहुँचाने के लिए हमें सर्वदा एक निश्चित मात्रा में कार्य करना पड़ता है। कार्य की मात्रा पिंड की प्रारंभिक तथा अंतिम अवस्थाओं पर ही निर्भर रहती है, इस बात पर नहीं कि यह कार्य कैसे किया जाता है। यदि प्रारंभिक अवस्था में दाब तथा आयतन के मान p0 तथा V0 हैं तो कार्य की मात्रा अंतिम अवस्था की दाब तथा आयतन पर निर्भर रहती है, अर्थात् कार्य की मात्रा p तथा V का एक फलन है। यदि कार्य की मात्रा का W हैं तो हम लिख सकते हैं कि

W = U - U0 (4)

यह समीकरण एक राशि U की परिभाषा है जो केवल उस पिंड की अवस्था पर ही निर्भर रहती है न कि इस बात पर कि वह पिंड उस अवस्था में किस प्रकार पहुँचा है। इस राशि को हम पिंड की आंतरिक ऊर्जा कहते हैं। यदि कोई पिंड एक निश्चित अवस्था से प्रारंभ करके विभिन्न अवस्थाओं में होते हुए फिर उसी प्रारंभिक अवस्था में आ जाए तो उसकी आंतारिक ऊर्जा में कोई अंतर नहीं होगा, अर्थात्

f dU = 0 (5)

और (dU) एक यथार्थ अवकल (परफ़ेक्ट डिफ़रेन्शियल) है।

यदि कोई पिंड एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाए तो (U-U0-W) का मान सर्वदा शून्य के बराबर नहीं होगा। यदि प्रत्येक अवस्था के लिए U का मान ज्ञात कर लिया गया है तो यह अंतर ज्ञात किया जा सकता है। यदि पिंड की दीवारों का कोई भाग उष्मागम्य है तो सर्वदा इस अंतर के बराबर उष्मा उस पिंड को देनी पड़ेगी। यदि उष्मा की मात्रा Q है तो

Q = U - U0 - W (6)

इस समीकरण में Q उन्हीं एककों में नापा जाएगा जिसमें W, परंतु यदि हमने Q का एकक पहले ही निश्चित कर लिया है तो हम इस समीकरण द्वारा इन दोनों एककों का अनुपात ज्ञात कर सकते हैं। इस प्रकार जूल के प्रयोग द्वारा हम उष्मा का यांत्रिक तुल्यांक निकाल सकते हैं। इस प्रयोग में Q शून्य के बराबर होता है और (U-U0) का मान उष्मा के एककों में ज्ञात किया जाता है।

समीकरण (6) उष्मागतिकी के प्रथम सिद्धांत का गणितीय रूप है। इसमें W वह कार्य है जो बाहर से उस पिंड पर किया जाता है। यदि यह पिंड स्वयं कार्य करे, जिसका परिणाम dW हो और किसी प्रक्रम (प्रोसेस) में निकाय की आंतरिक ऊर्जा जिस परिमाण में बढ़े वह dU हो तो गिनती उष्मा उस निकाय को दी जाएगी वह तो dQ होगी और

dQ = dU + dW (7)

और आगे बढ़ने के पहले हम एक ऐसे प्रक्रम का वर्णन करेंगे जिसका उपयोग उषमागतिकी में बहुत किया जाता है। इसे प्राय: स्थैतिक (सिस्टम) के आयतन को एक अत्यणु परिमाण dV से परिवर्तित करें तो इसका ताप भी थोड़ा परिवर्तित हो जाएगा। साम्यावस्था प्राप्त होने पर इसके आयतन में मान ले हम थोड़ा और अत्यणु परिवर्तित करें। इस तरह हम धीरे धीरे अवस्था 1 से अवस्था 2 में पहुँच जायँगे। यदि हमारे परिवर्तनों का परिमाण धीरे-धीरे शून्य की ओर बढ़े तो अंत में 1 से 2 तक परिवर्तन कहते हैं। ऐसे प्रक्रम का यह भी लक्षण है कि विस्थापनों, किए गए कार्य एवं अवशोषित उष्मा के चिह्नों को उलटकर इस निकाय को अवस्था 2 से कारण इन प्रक्रमों को उत्क्रमणीय प्रक्रम कहते हैं। जो प्रक्रम उत्क्रमणीय नहीं होते उन्हें अनुत्क्रमणीय प्रक्रम कहते हैं।

यह सरलता से सिद्ध किया जा सकता है कि यदि किसी निकाय की दाब p हो तो एक उत्क्रमणीय प्रक्रम में यह जो कार्य करेगा वह pdV के बराबर होगा। अतएव उष्मागतिकी के प्रथम सिद्धांत को हम इस तरह भी लिख सकते हैं :

dQ = dU + pdV (8)

विशेष स्थितियाँ[संपादित करें]

ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम क्या है इसके गणितीय? - ooshmaagatikee ka pratham niyam kya hai isake ganiteey?

स्टर्लिंग चक्र का निरूपण ; गैस के दाब का उसके आयतन के साथ परिवर्तन का ग्राफ

ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम के समीकरण में आने वाले चरों के मान, कुछ विशेष स्थितियों में, नीचे दिए गये हैं-

ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम का गणितीय रूप कौन सा है?

और (dU) एक यथार्थ अवकल (परफ़ेक्ट डिफ़रेन्शियल) है। इस समीकरण में Q उन्हीं एककों में नापा जाएगा जिसमें W, परंतु यदि हमने Q का एकक पहले ही निश्चित कर लिया है तो हम इस समीकरण द्वारा इन दोनों एककों का अनुपात ज्ञात कर सकते हैं।

ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम क्या है इसका गणितीय समीकरण लिखिए?

ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम Cp, Cu से बडा़ होता है - जब स्थिर आयतन पर किसी गैस को ऊष्मा दी जाती है तो सम्पूर्ण ऊष्मा उसके ताप बढ़ाने में व्यय होती है। परन्तु जब स्थिर दाब पर किसी गैस को ऊष्मा दी जाती तो उसका कुछ भाग आयतन बढ़ाने में व्यय होता है एवं बाकी भाग उसके ताप वृद्धि में व्यय होता है। अत: Cp, Cu से बडा़ होता है

ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम क्या है Chemistry?

अर्थात जब किसी निकाय को बाहर से ऊष्मा दी जाती है तो निकाय द्वारा अवशोषित ऊष्मा का मान निकाय की आंतरिक ऊर्जा में आई वृद्धि और निकाय द्वारा किये गए कार्य के योग के बराबर होती है इसे ही ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम कहते है।

ऊष्मागतिकी का प्रथम और द्वितीय नियम क्या है?

ऊष्मागतिकी के प्रथम नियमानुसार, प्रथम प्रकार की शाश्वत मशीन असम्भव हैऊष्मागतिकी के द्वितीय नियमानुसार, ऊष्मा को पूर्णत: कार्य में परिवर्तित करना असम्भव है अथवा एक ही स्रोत से निरन्तर कार्य को प्राप्ति असम्भव है