सब्सक्राइब करे youtube चैनल चीन में गृहयुद्ध कब शुरू हुआ ? चीनी क्रांति कब हुई , कारण और प्रभाव क्या हुए | चीन की क्रान्ति 1949 , 1911 ? chinese revolution of 1911 in hindi चीनी क्रांति एवं विचारधारा संरचना उद्देश्य उद्देश्य
ऽ चीन के आधुनिक इतिहास का पता लगाने में, प्रस्तावना इस इकाई में हम सर्वप्रथम विदेशी आक्रमणों एवं इस विषय पर चर्चा करेंगे कि उन्होने चीन को किस प्रकार तबाह किया था एवं किस प्रकार वहाँ की जनता को क्रोध उन्मुक्त किया था। उसके बाद हम उन आन्दोलनों का अध्ययन करेंगे जिनके फलस्वरूप मंच, राज्यवंश का पतन हुआ था। उसके बाद हम राष्ट्रवादी लोकतांत्रिक दलों की शक्ति का मूल्यांकन करेंगे। उसके बाद हम कम्युनिस्टों के उत्थान पर ध्यान केन्द्रित करके क्रांन्तिकारी गृहयुद्धों से पूर्व की गई कार्यवाहियों का पता लगायेंगे। शेष में हम उन सिद्धान्तों का विश्लेषण करेंगे जिनके कारण यहाँ की जनता को क्रान्तिकारी गृहयुद्धों में भाग लेने हेतु प्रोत्साहन प्राप्त हुआ था । चीनी क्रान्ति की पृष्ठभूमि मंचू शासन काल करीब 268, वर्ष तक चला। इस काल. में विज्ञान एवं संस्कृति के क्षेत्रों में बहुत महान उपलब्धियाँ हुई थी। मंचुओं की अधीनता में चीन में काफी लम्बे काल तक शान्ति रही एवं आर्थिक रूप में काफी सम्पन्नता प्राप्त हुई। फिर भी उन्नीसवीं सदी के आरंम्भिक काल में विदेशी शक्तियों के आगमन के बाद से समस्याएं उत्पन्न होनी शुरू हो गयी थी। बार-बार के विदेशी आक्रमणों के साथ ही कृषि सम्बन्धी आर्थिक व्यवस्था में गतिहीनता आ जाने के कारण दीर्घकालीन आर्थिक रूपी समस्याएं उत्पन्न हो गई थी। क्रमानुगत रूप से अंकुश शासकों द्वारा राज्य अधिकार प्राप्त करने, राजमहलों के षड्यंत्रों, एवं सुधार आन्दोलनों के प्रति एक धनी विधवा सिक्सी के नेतृत्व में रूढ़िवादी दलों द्वारा की गई प्रतिकूल गतिविधियों के कारण परिस्थितियां और अधिक खराब हो गई थी। सन् 1840 में हुए अफीम युद्ध से चीन में विदेशियों द्वारा अंतः प्रवेश की शुरुआत हुई थी। चीन के सीमान्त प्रदेशों में अंग्रेजों द्वारा अवैध रूप के अफीम के व्यापार को काफी लम्बे काल से किये जाने के मुद्दे पर चीन एवं ब्रिटेन के बीच युद्ध हुआ था। इस युद्ध में चीन की पराजय हुई थी और सन् 1841 में चीन को एक अपमानजनक संधि पर हस्ताक्षर कर के अपने पाँच बन्दरगाह ब्रिटेन के लिये व्यापार हेतु खोलने पड़े थे एवं होगकांग को अंग्रेजों के अधिकार में देने के पश्चात् एक बहुत बड़ी धनराशि हरजाने के रूप में देनी पड़ी थी। अंग्रेजों की सफलता को देखकर अन्य विदेशी ताकतों ने भी अधिकार प्राप्त करने हेतु अभियान शुरू कर दिये। सन् 1844 में यू.एस.ए. एवं फ्रांस ने चीन को । इस प्रकार के लाभ देने हेतु बाध्य कर दिया, जिस प्रकार के लाभ ब्रिटेन को प्रदान किये गये थे। इसके पश्चात् चीन में अंतः प्रवेश की छीना-झपटी में रूस एवं जापान भी सम्मिलित हो गये। एक । या दो असमान रूप की संधियों पर हस्ताक्षर कर देने के पश्चात् भी विदेशी ताकतों की अनुचित माँगों को समापन नहीं हुआ। चीन की धन सम्पन्नता को हड़पने हेतु उनकी छीना-झपटी का अभियान निरन्तर रूप से चलता रहा जिससे कभी-कभी चीन एवं विदेशी ताकतों (अकेले या सबको मिलाकर) के साथ युद्ध होने लगे। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम काल में यू.एस.ए. न मुक्त व्यापार की नीति का सुझाव दिया था जिसे अन्य बड़ी ताकतों ने तुरन्त स्वीकार कर लिया था। इस प्रकार खुली व्यापार नीति के संदर्भ में चीन, बड़ी ताकतों के प्रभाव में आकर विभाजित हो गया था। ब्रिटेन एवं अन्य बड़ी ताकतों द्वारा चीन पर दबाव डालने के प्रति स्वरूप, चीन में अनेक आन्तरिक समस्याएं उत्पन्न हो गई थी। कृषि के क्षेत्र में गतिहीनता आ जाने के कारण एवं भूमि पर बढ़ती हुई जनसंख्या के दबाव के कारण किसानों का जीवनस्तर काफी नीचे गिर गया और उनके अन्दर दुखों के प्रति जागरुकता का और अधिक विकास हुआ। सन् 1846 से 1848 के काल में क्रमानुगत रूप में अपने वाली बाढ़ों एवं अकालों के कारण आर्थिक व्यवस्था और खराब हो गई, जिसके कारण प्रायरू छितरे रूप में स्थानीय उपद्रव होने शुरू हो गये। इन उपद्रवों ने मिलकर एक बहुत बड़े रूप के राष्ट्रीय विद्रोह का रूप धारण कर लिया था। जिसको इतिहास में टाईपिन्ग (महान क्रान्ति) विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इस विद्रोह में सैनिकों के सशक्त जत्थों को विकसित किया गया, अनेक शहरों एवं कस्बों पर कब्जा कर लिया गया, अपनी स्वयं की सरकार की स्थापना की गई एवं सन् 1851 से देश के विशाल क्षेत्रों पर अपना शासन लागू कर दिया। विद्रोही ने विदेशियों एवं आन्तरिक शोषण करने वाले दलों दोनों पर हमले करना शुरू कर दिया। उन्होने स्वतंत्र होने की माँग की एवं राष्ट्रीय सम्पत्ति को आम जनता में वितरित करने का भी दावा किया। उस समय शासन करने वाले मंचू राजा एवं विदेशी ताकतों के संयुक्त दलों ने मिलकर इस विद्रोह को कुचल दिया था। उनके नेताओं एवं समर्थकों के मध्य आन्तरिक रूप से तीव्र मतभेदों के कारण विद्रोहियों की सम्पन्नता में काफी गिरावट आ गई। फिर भी, टाईपिन्ग का आन्दोलन करीब एक दशक तक चलता रहा था और चीनी समाज में विद्रोही गतिविधियों हेतु उत्साह जागृत कर के अपनी छाप छोड़ गया था। उन्नीसवीं सदी के आखिरी काल में चीन के अन्दर पश्चिम द्वारा हस्तक्षेप करने से देश के अनेक भागों में आधुनिक उद्योगों का विकास हुआ था। इसके फलस्वरूप एक छोटे से व्यापारी वर्ग एवं मजदर वर्ग का उदगमन हआ। इस वर्ग से, उदारवादी विचारों से प्रेरित होकर, एक बहुत बड़ी संख्या में सुधारकों के दल का विकास हुआ। उन्नीसवीं सदी का प्रतिभासम्पन्न समाज इन उदारवादी लोकतांत्रिक सिद्धान्तों से प्रभावित हुआ एवं पुरानी मृतप्रायरू आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था में सुधार किये जाने की माँग करने लगा। सुधार आन्दोलन सन् 1897-98 के सुधार आन्दोलन की विफलता, चीन में दमन करने वाली बड़ी ताकतों की ताकत एवं ईसाई पादरियों की ग्रामीण क्षेत्रों में धर्म परिवर्तन हेतु किये जाने वाली भूमिका ने चीनी जनता को क्रोध उन्मुक्त कर दिया। इस शताब्दी के अन्तिम क्षणों में यीहेटुआन आन्दोलन या बौक्स विद्रोह: के रूप में जनता का रोष भड़क उठा। कठोर दमन के बावजूद इस आन्दोलन ने शीघ्र ही राष्ट्र स्तर पर विदेशी विरोधी आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। इसके प्रतिस्वरूप विदेशी ताकतों ने गठबंधन कर के मंजू सेनाओं की सहायता से बौक्सर विद्रोह को कुचल दिया। सन् 1901 में बौक्सर प्रोटोकेल नामक अपमानजनक संधि पर चीनियों को बाध्य होना पड़ा था। इस संधि पर हस्ताक्षर कर देने से मंचू सरकार का स्तर गिर कर सामाज्यवादियों के प्रतिनिधि (दलाल) के रूप में हो गया था। साम्राज्यवादियों द्वारा निरन्तर रूप से किये जाने वाले आक्रमणों एवं साम्राज्यवादियों से युद्ध करने हेतु मंचू राज्यवंश की उदासीनता ने मिल कर चीन में विद्रोह हेतु आदर्श परिस्थितियों का लाभ उठाया एवं विद्रोह की तैयारी करने हेतु अपनी सारी शक्ति लगा दी थी। सन-यात-सैन (1866-1925) एक सिद्धान्तवादी एवं विद्रोही आन्दोलन के नेता के रूप में उभर कर आया। सन् 1894 में उस में चीनी पुनरुद्धार समाज की स्थापना की थी। उसके बाद क्रमानुगत रूप से उदारवादी लोकतांत्रिक सिद्धान्तों का प्रचार करने हेतु अनेक संगठनों का उद्गमन हुआ। इन संगठनों का मुख्य उद्देश्य मंचू राज्यवंश को उखाड़ फेंकना एवं एक लोकतांत्रीय व्यवस्था की सरकार को स्थापित करना था। सन-याल-सैन शीघ्र ही सब उदारवादियों का मिलन केन्द्र बन गया और सन् 1905 में उन सब ने मिलकर सुन-यात-सेन की अध्यक्षता में चीनी क्रान्तिकारी संघ की स्थापना की। इस संघ का उद्देश्य मंचू राज्यवंश को उखाड़ फेंकना, विदेशियों के चंगुल से चीन का पुनरुद्वार करवाना, गणतंत्र की स्थापना करना एवं भूमि पर समान स्वामित्व प्रदान करवाना था। संघ ने धीरे-धीरे अपनी संगठन सम्बन्धी गतिविधियों का विस्तार सारे चीन में कर लिया था एवं ष्पीपुल्स जनरलश्श् नामक अपने एक मुखपत्र की स्थापना की थी। इस पत्र के सर्वप्रथम सम्पादन में ही सुन-यात-सेन ने अपने मशहूर “जनता की तीन सिद्धान्तों’’ का विकास किया था – राष्ट्रवाद का नियम, लोकतंत्रवाद का नियम एवं जीवनयापन का नियम, जिनको मिलाकर बीसवीं सदी के प्रारंम्भिक दशकों में हुए चीन के विद्रोहों को सैद्धान्तिक रूपी मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ था। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु इसने अनेक सशस्त्र अभियानों का नेतृत्व किया था। प्रारंम्भिक स्तरों पर अनेकों प्रकार की रुकावटों एवं शासन करने वाले राज्यवंश द्वारा किये गये कठोर दमन के बावजूद संघ ने सन् 1911 में अनेक लड़ाइयों में विजय प्राप्त की थी। इन विजयों द्वारा प्रोत्साहित होकर अनेक प्रौन्त मंचू राज्यवंश के अधिकार से निकल गये। सन् 1911 के क्रिसमस सप्ताह में मुक्त किये गये प्रान्तों के नेतागण नानजिना में, एक अन्तरिम रूप की केन्द्रीय सरकार का गठन करने हेतु एकत्रित हुए। सुन-यात-सेन को नई सरकार का अध्यक्ष चुना गया था। सन् 1912 के नये वर्ष के अवसर पर शपथ ग्रहण करने के पश्चात डा. सुन-यात-सेनं ने चीन के लिये एक उदारवादी लोकतांत्रिक संविधान की घोषणा की थी। मई का आन्दोलन सन् 1917 की क्रांति का प्रभाव चीन की कम्युनिस्ट
पार्टी (सी.सी.पी.) स्थापना के तुरन्त बाद से ही दल ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति ट्रेड यूनियनों के संगठन हेतु लगा दी थी। मजदूर वर्गों के आन्दोलनों का संचालन करने हेतु केन्द्र के रूप में चीनी ट्रेड यूनियन सचिवालय का गठन किया गया था। साम्यवादियों के नेतृत्व में सन् 1922 एवं 1923 के काल में मजदूरों ने अनेक बार हड़तालें की थी। हालाँकि वहाँ की सरकार ने इसका तीव्र विरोध किया एवं आन्दोलन को कुचल दिया। इससे यह आन्दोनल कुछ समय के लिये ढीला पड़ गया था। बोध
प्रश्न 1 बोध प्रश्न 1 प्रथम क्रॉन्तिकारी गृहयुद्ध: सुन-यात-सैन द्वारा सी.पी.सी. से सहयोग जून सन् 1923 में चीन के साम्यवादी दल का तीसरा सम्मेलन हुआ था जिसमें कुआमिन्टाँग को सहयोग प्रदान करने एवं उसके साथ संगठन करने की नीति को समर्थन प्रदान किया गया था। कुआमिन्टाँग ने अपने प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन जनवरी सन् 1924 में किया था। इस सम्मेलन में साम्यवादियों को व्यक्तिगत रूप से दल के सदस्यों के रूप में सम्मिलित किये जाने को भी समर्थन प्रदान किया गया था। अब कुओमिन्टाँग की मुख्य नीतियाँ ‘‘रूस समर्थक, साम्यवादी दल समर्थन एवं किसानों ओर मजदूरों को सहायता प्रदान करने वाली’’ बन गई थी। रूस एवं चीनी साम्यवादी दल की सहायता से सुन-यात-सैन ने मई सन् 1924 में कुआमिन्टांग में हुआनाए सैनिक अकादमी की स्थापना की। इस अकादमी के राजनीतिक विभाग के संचालक के रूप में जाऊ-एन-लाई की नियुक्ति की गई और कुछ अन्य साम्यवादियों को निर्देशकों के रूप में सम्मिलित किया गया। चियांग-काई-शेक को इस अकादमी का संचालक बनाया गया। सुन-यात-सैन चीनी क्राँति का अग्रदूत बनाया गया था। रोग अवस्था में भी, उसने युद्ध सामन्तों को उन्मूलन करने एवं विदेशी ताकतों के साथ की गई असमान संन्धियों को समाप्त करने हेतु कार्यक्रम तैयार किया था। सन् 1925 के प्रारंम्भिक काल में सुन-यात-सैन का निधन हो गया था। अपनी वसीयत में, उसने इस बात पर ध्यान दिलाया था कि स्वतंत्रता प्राप्त करने हेतु एवं अन्य राष्ट्रों के साथ चीन को समानता दिलवाने हेतु ‘‘हमको अपनी जनता को पूर्ण रूप से जागृत करने की आवश्यकता है एवं विश्व के उन व्यक्तियों, के साथ एकजुट होकर इस संघर्ष में सम्मिलित होने की आवश्यकता है, जो चीन के साथ बराबरी के आधार पर व्यवहार करते हैं’’। 30 मई का आन्दोलन साम्यवादियों ने शीघ्र ही गुआँगडोन्ग (कैन्टन) प्रान्त के युद्ध सामन्तों का सफाया कर दिया एवं सारे प्रान्त का एकीकरण करके, उसे राष्ट्रीय सरकार के अधीन कर लिया, जिसकी स्थापना 1 जुलाई सन् 1925 को गुआन्गजाऊ में की जा चुकी थी। हुआँगपू सैनिक अकादमी के विद्यार्थी सैनिकों की सहायता से राष्ट्रीय सरकार के सैनिक दस्तों का विकास किया। जाऊ-एन-लाई को सैना के राजनीतिक विभाग का संचालक नियुक्त किया गया। सेना की प्रत्येक इकाई में एक दल के प्रतिनिधि एवं राजनीतिक विभाग की व्यवस्था की गई। प्रत्येक सैनिक इकाई के राजनीतिक कार्य का संचालन करने हेतु दल के व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती थी। जापान विरोधी संयुक्त मोर्चा जापानी साम्राज्यवाद के विरुद्ध यह आन्दोलन चीन के अनेक भागों में जंगल की आग की तरह फैल गया। यहाँ तक कि कुआमिन्टॉन्ग की सेना के अन्तर्गत भी विरोधाभास होना शुरू हो गया। उत्तर-पूर्व एवं उत्तर-पश्चिम के क्षेत्रों में जिन सैनिक दलों को साम्यवादियों से लड़ने के लिये भेजा गया था, उन्होंने उनपर गोली चलाने से इन्कार कर दिया। चियाँन्ग-काई-शेक को साम्यवादियों के विरुद्ध सेना की बागडोर सम्भालने के लिये स्वयं जियान आना पड़ा। परन्तु 12 दिसम्बर 1936 को विद्रोह कर रही सेना ने उसको गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद सेना के सेनापतियों ने सारे चीन में समाचार भेजकर गृह-युद्ध समाप्त करने एवं जापान के विरुद्ध संघर्ष करने हेतु सी.पी.सी के साथ संधि करने का निवेदन किया। इसी बीच सत्ता हथियाने की अपनी आकाँक्षा की पूर्ति करने हेतु ही यिगिन ने जापान से सहायता माँगी और सी.पी.सी. के विरुद्ध गृह-युद्ध जारी रखने का निश्चय किया। जियान के पूर्व में स्थित टोन्गआन पर हमला करने के लिये उसने अपने दलों को भेजा। इसी समय सी.पी.सी. ने चियाँग काई शेक के पास शान्ति बनाये रखने का प्रस्ताव भेजा था। जापान ने जुलाई सन् 1937 में लगाऊगियाओ पर आक्रमण किया था। इस हमले को पराभूत कर दिया गया था परन्तु इस आक्रमण से चीन द्वारा जापान के विरुद्ध प्रतिरोधक युद्ध कि शुरुआत हो गई थी। सी.पी.सी. ने जनता से इस प्रतिरोधक युद्ध में सम्मिलित होने हेतु आग्रह किया। दल ने जाऊ-एवं-लाई को चियाँन्ग-काई-शेक, से बात करने के लिये भी भेजा, जो अभी भी जापान के विरुद्ध युद्ध में भाग लेने में हिचकिचा रहा था। जापानी दलों ने शंघाई पर हमला कर दिया एवं नानजिंग के लिये खतरा उत्पन्न कर दिया। चियाँन्ग-काई-शेक ने भी अब अस्थिरता महसूस करना शुरू कर दिया था। पश्चिमी ताकतों ने भी खतरा महसूस करना शुरू कर दिया था। चियाँन्ग-काई-शेक की. कुओमिन्टाँना सरकार ने अब औपचारिक रूप से जापान के विरुद्ध युद्ध में भाग लेने का निर्णय किया एवं संयुक्त रूप से प्रतिरोध करने हेतु सी.पी.सी. के साथ एक समझौते पर हस्तक्षर किये। समझौते की शर्तों के अनुसार किसान सेना का नाम बदल कर राष्ट्रीय क्रान्तिकारी सेना की आठवें मार्ग की। सेना रखा जाना था। उसके बाद छापामार दलों का पुनर्गठन करके उसे यी टिंग के सेनापतित्व के अधीन नई चैथी सेना का रूप दिया गया। कुओमिन्टाँन्ग द्वारा सी.पी.सी. को वैधानिक स्तर प्रदान किया गया एवं कुओमिन्टाँग एवं साम्यवादियों के मध्य सहयोग करने हेतु वचन-बद्धता की घोषणा की गई। इस प्रकार जापान विरोधी राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चे का औपचारिक रूप से अस्तित्व हुआ एवं सी.पी. सी. को अपने कार्यक्रम चलाने हेतु वैधता प्रदान हुई। जापान के विरुद्ध कुओमिन्टॉग मोर्चे की असफलता सी.पी.सी. के जापान विरोधी आधार क्षेत्र कठिन था। इस तथ्य को महसूस करते हुए सी.पी.सी. ने दीर्घकालिक छापामार युद्ध की नीति को अपनाया था। मई सन् 1938 में “दीर्घ कालिक युद्ध पर’’ नामक पुस्तिका में माओ ने बलपूर्वक कहा था कि चीन यदि इस युद्ध को दीर्घकाल तक चला कर इसे जनता के युद्ध का स्वरूप प्रदान करने की स्थिति में होगा तो अवश्य ही इस युद्ध में विजयी होगा। उसने लिखा था कि ‘‘सेना एवं जनता विजय की पृष्ठभूमि होते हैं’’ और ‘‘युद्ध लड़ने हेतु सबसे अच्छे साधन जन समूहों में पाये जाते हैं’’। चीन के अन्तर्गत लाल श्आधार क्षेत्रों के विकास एवं दूसरे विश्व युद्ध के शुरू हो जाने से जापान ने ‘‘स्टिक एवं कैरट’’ की नई नीति को अपनाया। इस नीति को अपनाकर जापान ने कुओमिन्टाँग के एक गुट को अपने साथ मिला लिया, जिसने जापान के समर्थन द्वारा बाँन्ग जिन्गवाल की अध्यक्षता में नानजिंग में अपना शासन स्थापित किया था। चियाँन्ग-काई-शेक का गुट, हालाँकि एन्गलो-अमरीकन गुट के साथ था परन्तु जापान की अपेक्षा साम्यवादियों के साथ संघर्ष को अधिक महत्व प्रदान करता था। सन् 1939 से सन् 1943 के काल में चियाँन्ग-काई-शेक ने साम्यवादियों के ऊपर तीन बार हमला किया था। सी.पी.सी. ने इन सब हमलों को विफल कर दिया था। संयुक्त मोर्चे के प्रति. इसका रवैया एकता एवं संघर्ष करने का था। युद्धों को लड़ते समय इसने आत्म-रक्षा की नीति को अपनाया था: “जब तक हमारे ऊपर आक्रमण नहीं होगा तब तक हम आक्रमण नहीं करेंगे-यदि हमारे ऊपर आक्रमण किया गया तो हम निश्चित रूप से प्रति-आक्रमण करेंगे।’’ मुक्त किये गये क्षेत्रों की समस्याएँ जापान पर विजय सी.पी.सी. का सातवाँ सम्मेलन का आयोजन यानान में 23 अप्रैल से 23 जून सन् 1945 तक हुआ। सारे देश में फैले हुए दल के सदस्यों की संख्या बढ़ कर बारह लाख से भी अधिक हो गई थी। सदस्यों द्वारा नियमित रूप से चुने गये 752 प्रतिनिधियों ने सम्मेलन में भाग लिया था। इस सम्मेलन में जापानी आक्रमणकारियों को पराजित करने हेतु जनता का संगठन करने एवं एक नये चीन का निर्माण करने का निर्णय लिया गया था। एक नया संविधान तैयार किया गया था और माओ जीडांग की अध्यक्षता में एक नई केन्द्रीय समिति चुनी गई थी। बोध प्रश्न 2 बोध प्रश्न 2 उत्तर तीसरा (अन्तिम) क्रांतिकारी गृहयुद्ध: द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का चीन 26 जून सन् 1946 को कुओमिन्टाँग के सैनिक दलों ने मुक्त किये क्षेत्रों के सब मोर्चों पर आक्रमण करने हेतु चढ़ाई कर दी और इस प्रकार सी.पी.सी. के सैनिक दलों और कुओमिन्टाँग के मध्य सम्पूर्ण स्तर का युद्ध छिड़ गया। मुक्त किये गये क्षेत्रों में भूमि सुधार के कार्यक्रम लोकतांत्रिक संयुक्त मोर्चे का विस्तारीकरण 1) समान्ती भू-स्वामियों की भूमि जब्त करना एवं किसानों के बीच उसको पुनरू वितरित मुख्य भूमि की मुक्ति शुरू हुई थी एवं 15 दिनों के वार्तालाप के पश्चात् आठों शर्तों के आधार पर शान्ति समझौते पर सहमति व्यक्त की गई थी। परन्तु ली.जोगिन ने समझौते को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। शान्ति हेतु आखिरी प्रयास का इस प्रकार अन्त हुआ था। इसके बाद पी.एल.ए. के दस लाख सशक्त सैनिकों ने दक्षिण की तरफ बढ़ने के लिये याँनगजे नदी को पार करना शुरू कर दिया था। शीघ्र ही इसने कुओमिन्टाँग शासन के केन्द्रीय स्थल नानजिंन्ग पर अपना अधिकार कर लिया। इसने कुओमिन्टाँग के गढ़ों को एक-एक करके अपने अधिकार में ले लिया। थोड़े से काल में, तिब्बत्त, ताईवान एवं कुछ समुन्द्री किनारों के द्वीपों को छोड़ कर सारे चीन को मुक्त करा लिया गया था। इस प्रकार इस क्रॉन्ति का समापन, साम्यवादियों की विजय द्वारा हुआ था। 7 दिसम्बर सन् 1949 को चियाँन्ग-काई-शेक भाग कर ताईवान चला गया था। चीन में जनवादी गणतंत्र की स्थापना चीन की जनता की राजनीतिक परामर्शात्मक सम्मेलन ने उपने प्रथम समय सत्र का आयोजन 22 सितम्बर सन् 1949 को बीजिंग में किया था। अनेकों कुओमिन्टाँग विरोधी राजनीतिक शक्तियों सी.पी. सी. अल्पसंख्यक राष्ट्रिकताओं एवं विदेशों में रहने वाले चीनियों के 662 प्रतिनिधियों ने इस सत्र में भाग लिया था। इस सत्र ने चीन के सर्वोच्च राजनीतिक संस्थान, राष्ट्रीय पीपुल्स काँग्रेस के रूप में कार्य किया एवं प्राधिकरों का उपयोग किया। इस सम्मेलन में “चीनी जनता की राजनीतिक परामर्शात्मक सम्मेलन के सामान्य कार्यक्रम’’ को पारित किया गया। इस कार्यक्रम ने अंतरिम संविधान के रूप में कार्य किया। इसने मजदूरों एवं किसानों की बीच संधि के आधार पर मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जनता की लोकतांत्रिक तानाशाही के रूप में चीन के जनवादी गणतंत्र की स्थापना की थी। पी.आर.सी. की राजधानी के रूप में बीजिन्ग (पीकिन्ग) को चुना गया था। माओ को चुनाव द्वारा, जनता की केन्द्रीय सरकार का अध्यक्ष बनाया गया था एवं जाऊ-एन-लाई को चीन का प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था। 1 अक्टूबर सन् 1949 को लाखों की संख्या में जनता उस समाराहों में भाग लेने हेतु ध्यानमान स्क्वायर बीजिंग में एकत्रित हुई थी जिसके द्वारा पी.आर.सी. की औपचारिक रूप से शुरुआत की गई थी। माओ जीडांग ने नये राज्य का उद्घाटन किया था, विश्व के एक चैथाई इन्सानों ने माओं जीडांग के साथ प्रत्युत्तर स्वरूप नारे लगाये थे एवं चीन ने एक नये युग में प्रवेश किया था। पी.आर.सी. की घोषणा एक ऐसी घटना थी जिसने चीन के इतिहास में एक नये अध्याय को खोल दिया था। पूर्व में जापानी सैनिकवाद की पराजय, एवं यू.एस. द्वारा समर्थन प्राप्त कुओमिन्टाँग बलों से चीन के मुक्तीकरण के कारण चीनी क्रॉन्ति की विजय और भी सुगम हो गई थी। बोद्य प्रश्न 3 बोध प्रश्न 3 2) भू-स्वामियों की भूमि को जब्त करना एवं जब्त की गई भूमि को ग्रामीण किसानों के बीच वितरित करना। (के.एम.टी.) कुआमिन्टाँग द्वारा किये गये शान्ति प्रस्तावों के प्रति सी.पी.सी. ने सदैव साकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। चीनी दर्शन में भैतिकवादी रूझान चीन में मार्क्सवाद का आगमन विशेषतौर से पहले विश्व युद्ध के काल में एतं उसके बाद हुए औद्योगीकरण के विस्तारीकरण के बोध प्रश्न 4 बोध प्रश्नों के उत्तर सारांश विदेशियों का अंतरूप्रवेश केवल आर्थिक रूप के शोषण तक ही सीमित नहीं था। इसने सांस्कृतिक एवं प्रजात्मक रूप के प्रभाव क्षेत्रों में भी अंतरू प्रवेश कर लिया था। विज्ञान, टैकनोलौजी एवं सरकार की प्रणाली के क्षेत्रों में यूरोप के विकसित देशों द्वारा उपलब्ध की गई प्रगति के बारे में चीन के । प्रतिभा सम्पन्न जन समुदाय को जानकारी प्राप्त हो गई थी। प्रतिभा सम्पन्न जन समुदाय ने तुरन्त ही अपने पड़ोसी देश जापान के अनुरूप पश्चिमी रूपरेखा पर चीन का पुनर्निमाण करने की माँग करना शुरू कर दिया था। परन्तु शासक वर्ग में शामिल मंचू राजाओं, दरबार के कर्मचारियों, सामन्ती भू-स्वामियों एवं अन्य परम्परागत रूप के रूढ़िवादी तत्वों ने मिलकर उभरते हुए सुधार आन्दोलनों का दमन कर दिया था। हालाँकि लोकतांत्रिक राष्ट्रवादियों ने सन् 1911 में मंचू शासन का समापन कर दिया था, परन्तु वे रूढ़िवादी प्रतिक्रियाशील तत्वों के जाल में फंस गये थे, जो अपनी सत्ता एवं सुविधाओं को बनाये रखने हेतु विदेशी ताकतों से भी सहायतार्थ निवेदन करने में नहीं चूके थे। रूसी साम्यवादियों द्वारा बताये मार्ग पर चलते हुए, चीन के सुधारवादियों ने चीनी साम्यवादी दल की स्थापनी की। चीनी साम्यवादी दल ने, विदेशी ताकतों एवं आंतरिक प्रतिक्रियावादी दलों से संघर्ष करने हेतु जनता को संगठित किया एवं युद्ध रणनीति को सूचित किया था। क्रॉन्ति की विजय को सुनिश्चित करने के लिये इसको एक दीर्घकालिक गृहयुद्ध में संघर्षरत होना पड़ा था। शब्दावली कुछ उपयोगी पुस्तकें |