लखनऊ: रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलियुग आएगा। हंस चुभेगा दाना तिनका ,कौवा मोती खायेगा। यानि जो अच्छे लोग हैं ,उनको दाना नसीब होगी ,और जो कौवे जैसे लोग हैं ,वह मोती खाएंगे ,यानि धन -दौलत उनके पास होगी ,कौवे की तरह काले कमाई की। Show
यह पढ़ें...जिद्दी, गुस्सैल या प्यार में मासूम, जानें कैसे होते हैं मई में जन्मे लोगचाहे धर्म कोई भी हो, उसमें पाप और पुण्य का लेखा-जोखा रहता है। जैसे देव-कार्य और दानव-कार्य होता है, जैसे सुख-दुख का अनुभव होता है, उसी प्रकार पाप और पुण्य भी मन के भाव हैं। मतलब ये कि जो काम खुलेआम किया जाए, वह पुण्य है और जो काम छिपकर किया जाए, वह पाप है। प्राचीन इतिहास, धर्मग्रंथ नहीं विद्वान लोग कहते हैं कि जीवन को धर्मग्रंथ अनुसार ढालना चाहिए। इन्हें जानकर धर्मग्रंथों वेदों का संक्षिप्त है उपनिषद और उपनिषद का संक्षिप्त है गीता। स्मृतियां उक्त तीनों की व्यवस्था और ज्ञान संबंधी बातों को स्पष्ट तौर से समझाती है। पुराण, रामायण और महाभारत हिंदुओं का प्राचीन इतिहास है धर्मग्रंथ नहीं। धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥-मनु स्मृति 6/92
इन धर्म ग्रंथों के अनुसार पाप और पुण्य कुछ ऐसे है जिन्हें जानना हर मनुष्य का कर्तव्य हैं। *मन से पाप जो लोग पाप करते हैं ,तो वह सबसे बड़ी पाप मानी जाती है। लोग जो मन से दूसरों को बद्दुआ देते हैं या जो व्यक्ति इस तरह का भाव अपने अंदर रखता है ,वह दुनिया का सबसे बड़ा पापी है। *वचन से पाप इसका अर्थ है ,किसी को अपने बोली से दुःख देना। जैसे किसी को गाली दे दिया ,झूठ बोल दिया ,मज़ाक उड़ाना ,बेइज्जत करना इत्यादि। तो वो भी पापी की श्रेणी में आते हैं *कर्म से पाप ऐसे काम करना जिससे लोगों को हानि होती हो ,दुःख पहुंचता हो। जैसे किसी की हत्या कर देना ,चोरी करना ,लूटमार करना ,बलात्कार करना इत्यादि। तो वो भी महापापी होते हैं। यह पढ़ें...आओ बनें सुख-दु:ख में भागीदारक्या है पुण्य ऐसा काम जिससे लोगों को सुख मिलता हो और खुद की आत्मा प्रसन्न होती है, वह काम पुण्य कहलाता है। *मन से पुण्य मतलब मन से सभी के प्रति दुआ ही निकले। जैसे -सबका कल्याण हो ,दुश्मन को भी दुआ देना ,इत्यादि। वो लोग धार्मिक होते हैं सब का अच्छा सोचते हैं। *वचन से पुण्य सबके प्रति एक जैसी बोली बोलना। ना बोली में कठोरता हो और ना तेज़। कम बोलना ,धीरे बोलना ,मीठा बोलना यह पुण्य कर्म करने वालों की निशानी है। क्योंकि बोली दुनिया का सबसे बड़ा हथियार है आप इस हथियार से किसी को भी जीत सकते हैं। *कर्म से पुण्य ऐसा व्यक्ति हमेशा सच्चा ही बोलेगा ,और ईमानदारी से अपना काम करेगा। उसके लिए पैसा नहीं ईमान बड़ा होगा। वह जो भी कार्य करेगा ,उससे लोगों की भलाई जरूर होगी। पाप - पुण्य में अंतर पाप पश्चिम है तो पुण्य पूरब ,पाप आकाश है तो पुण्य पृथ्वी।मतलब ये कि पाप और पुण्य में बड़ा अंतर है ,पुण्य लोगों को अच्छा बनाती है , पुण्य दुनिया को खराब बनाती है। यह पढ़ें...शास्त्रों में लिखा है जानिए जरूर, मौत से पहले ये चीजें हो पास तो नहीं मिलता यमदंडकलयुग में आज के समय में 90 % लोग पाप कर रहे हैं। सभी लोग भ्रष्ट हो गए हैं। चाहे पुलिस हो या जज हो ,सब पैसे के आगे सर झुकाये हुए हैं। जिधर देखो उधर बुराई की परछाई दिखाई देती है। पाप और पुण्य यह आधार है कुछ लोग जीने के लिए पाप पसंद करता है तो कोई पुण्य , कोई पाप का साथ देता है तो कोई पुण्य का। ऐसे तो पाप के कई प्रकार है। और इसकी सजा भी भयावह है। इन सभी पापों में सबसे खराब पाप जीव हत्या है।जिसके लिए धर्मशास्त्रों में कहा गया है -जीव हत्या महापाप है। और इस पाप की सजा भी सबसे खतरनाक है कोई तिथि नहीं लेकिन वह उस पाप का फल कब भोगता है इसकी कोई तिथि नहीं है, जब भी वह पाप का फल भोगेगा तब उसे एहसास हो जायेगा , कि आज दुख, वह उसके पुराने पापों का परिणाम है। ऐसा लोग मानते हैं कि पाप की सजा भगवन देते है लेकिन भगवान कहते हैं स्वयं मनुष्य की प्रकृति बनाते हैं और जो जैसा कर्म करेगा उसको वैसा ही फल मिलता है। जैसे ये प्रकृति स्वयं चलती है , आप जैसा प्रकृति को करेंगे तो प्रकृति भी आपको वैसा ही देगी। उसी तरह पाप और पुण्य भी है ,आप जैसा करेंगे उसके अनुसार ही आपके पाप और पुण्य बनेंगे। हैरोनिमस बॉश कि द सेवेन डेडली सिंस ऐंड फोर लास्ट थिंग्स "जीव हत्या" सबसे बड़ा पाप हैं , अनावश्यक हरे पेड़ों को काटना भी पाप हैं। इसके बाद इन्सान की मानसिकता के सात घातक पाप जो प्रधान पापाचरणों या कार्डिनल पापों के रूप में भी जाने जाते हैं, सर्वाधिक आपत्तिजनक बुराइयों का एक वर्गीकरण है जो मानवता की पाप के प्रति (अनैतिक) झुकाव की प्रकृति से संबंधित अनुयायियों को शिक्षित करने तथा उपदेश देने के लिए क्रिश्चियन समय से ही प्रयुक्त होता रहा है। सूची के अंतिम संस्करण में क्रोध, लोभ, आलस, अभिमान, वासना, ईर्ष्या एवं लालच निहित हैं। कैथोलिक चर्च ने पाप को दो प्रमुख वर्गों में विभक्त किया है: "क्षम्य पाप", जो अपेक्षाकृत क्षुद्र होते हैं और किसी भी प्रकार के संस्कारिक नियमों अथवा चर्च के परम प्रसाद संस्कार ग्रहण के माध्यम से क्षमा किए जा सकते हैं एवं जितने अधिक "घातक" या नश्वर पाप होंगे उतने ही अधिक संगीन होंगे. ऐसा मानना है कि नश्वर पाप जीवन की गरिमा को नष्ट कर देते है और अनंत निगृहित नरकवास का आतंक तब तक बनाए रखते हैं जब तक कि पाप स्वीकारोक्ति संस्कार के अथवा परिपूर्ण पश्चाताप के माध्यम से क्षमा प्रदान न कर दी जाए. 14वीं सदी की शुरुआत के प्रथम चरण में, उस समय के यूरोपीय कलाकारों में सात घातक पापों की विषय वस्तु की लोकप्रियता ने अंततः सामान्य रूप से विश्वभर में व्याप्त कैथोलिक संस्कृति तथा कैथोलिक चेतना को आत्मसात करने में सहायता प्रदान की है। आत्मसात करने के माध्यमों में से ऐसा ही एक स्मरक सृष्टि "SALIGIA" थी जो लैटिन में सात घातक पापों: सुपर्बिया, एवारिसिया, लक्सुरिया, इनविदिया, गुला, इरा, एसेडिया पर आधारित थी।[1] बाइबिल में सूचियां[संपादित करें]कहावतों की पुस्तक में यह उल्लिखित है कि "प्रभु" विशेष रूप से छः बातों से घृणा करते हैं और सातवां उनकी आत्मा को गंवारा नहीं है।[2]
हालांकि उनमें से सात ही यहां प्रस्तुत हैं, यह सूची परंपरागत सूची से उल्लेखनीय रूप से भिन्न है, अहंकार ही एकमात्र पाप है जो दोनों सूचियों में शामिल है। इस बार गैलेशियन द्वारा प्रदत्त पपत्र में अन्य बुरी बातों की सूची में, पारंपरिक सात पापों से अधिक पाप शामिल हैं, हालांकि यह सूची वस्तुतः लम्बी है: व्यभिचारिता, परस्त्रीगमन, अस्वच्छता, कामुकता, मूर्ति-पूजा, जादू-टोना, घृणा, मतभेद, यंत्रानुकरण, क्रोध, कलह, राजद्रोह, मतान्तर, इर्ष्या, हत्याएं, नशाखोरी, रंगरेलियां एवं इसी "प्रकार के और भी पाप".[3] पारंपरिक सात पापों का विकास[संपादित करें]सात घातक पापों की आधुनिक अवधारणा का संबंध चौथी सदी के सन्यासी एवाग्रियस पोंटिको, की रचनाओं से हैं, जिन्होनें ग्रीक में आठ बुरे विचारों की सूची तैयार की थी जो निम्न प्रकार हैं:[4]
इन्हें रोमन कैथोलिक आध्यात्मिक भक्तों (या कैथोलिक श्रद्धालुओं) द्वारा भाषांतरित किया गया, जो निम्न हैं:[5]
ये बुरे विचार तीन श्रेणियों में विभाजित किए जा सकते हैं:[5]
ईस्वी सन् 590 में, इवाग्रियस पोप ग्रेगोरी प्रथम के कुछ वर्षों पश्चात् इस सूची को संशोधित कर अधिक आम सात घातक पापों की सूची तैयार की गई, निराशा की श्रेणी में विषाद/हतोत्साह अहंकार की श्रेणी में अहम्मन्यता और अंसयम तथा ईर्ष्या को अतिरिक्त शामिल कर धनलोलूपता को सूची से निकाल दिया गया है। पोप ग्रेगोरी और दांते अलिग्हियरि ने अपनी महाकाव्यात्मक रचना द डिवाइन कॉमेडी में धर्मसंख में व्यवहृत सात घातक पापों को निम्न अनुक्रम में रखा हैं:
सात घातक पापों की पहचान और परिभाषा के इतिहास की प्रक्रिया निरंतर प्रवाहमान है और इन सातों पापों में से प्रत्येक पाप समय-समय पर विकसित हुए हैं। अतिरिक्त रूप से अर्थान्तर, (सिमेंटिक चेंज) के फलस्वरूप:
दांते इसी परिवर्द्धित सूची का व्यवहार करते हैं। (हालांकि, अपव्यय पर कोई अंकुश नहीं लगाया गया है - दांते के अनुसार अनावश्यक व्यय की सजा नरक के चौथे चक्र में है). अर्थपरिवर्तन की प्रक्रिया इस तथ्य के कारण प्रयोग में लाई गई है क्योंकि व्यक्तित्व के लक्षण न तो सामूहिक रूप से, न ही सुसंगत तरीके से और न ही विधिवित रूप से, लागू होते हैं, खुद बाइबल के द्वारा ही अन्य साहित्यिक एवं गिरजे-संबंधी रचनाओं की सहायता उन सूत्रों की तलाश के लिए ली गई जहां से परिभाषाएं ली जा सकती हैं। पुनर्जागरण के बाद से दांते की डिवाइन कॉमेडी का द्वितीय खंड पुर्गाटोरियो को लगभग सर्वमान्य सुनिश्चित सूत्र माना जाता रहा है। आधुनिक रोमन कैथोलिक धर्मशास्त्र की प्रश्नोत्तरी में पापों की सूची में: अहंकार, धनलोलुपता, ईर्ष्या, क्रोध, वासना, लालसा तथा आलस्य/निराशा शामिल हैं .[6] इन सातों घातक पापों में से प्रत्येक पाप का अब सातों पवित्र गुणों (जिन्हें कभी-कभी विपरीत गुणों के रूप में भी सन्दर्भित किया जाता है) के तदनुसार विपरीत अर्थ निकलता है। जिन पापों का वे विरोध करते हैं, उनके समानांतर अनुक्रम में सात गुण; विनम्रता, दान, दया, धैर्य, संयम, मिताहार और श्रम हैं। घातक पापों की ऐतिहासिक और आधुनिक परिभाषाएं[संपादित करें]अपव्यय[संपादित करें]अपव्यय (लैटिन में, luxuria) अनियंत्रित आधिक्य है। अपव्ययी आचरण में विलासिता की वस्तुओं की बारबार खरीद, तथा भ्रष्टाचार के रूप में किए जाने वाले आचरण शामिल हैं। रोमांस की भाषाओं में, लक्सुरिया (पाप का लैटिन शब्द) के समानार्थियों में व्यापक यौन अर्थ समाहित है; पुरानी फ्रांसीसी समानार्थी को इंग्लिश में लक्ज़री के रूप में अपना लिया गया, लेकिन 14वीं सदी तक इसने यौन अर्थ खो दिया.[7] वासना[संपादित करें]मुख्य लेख: हवस वासना या व्यभिचार को आमतौर पर यौन प्रकृति की इच्छाओं अथवा अत्यधिक विचारों के रूप में जाना जाता है। अरस्तू की कसौटी दूसरों के प्रति अत्यधिक प्यार था, जिस कारण ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति भाव को गौण मान लिया गया। दांते के पुर्गाटोरियो में, पश्चातापी लपटों के भीतर अपने अन्दर के कामुक विचारों और भावनाओं को परिष्कृत करने के लिए चलता है। दांते की "आग" में, वासना के पाप की अक्षम्य आत्माएं जलकर अविराम तूफ़ान में उनकी आर्थिक जीवन की वासनात्मक इच्छाओं की प्रतीकात्मक हवाओं में उड़ जाती हैं। लालसा[संपादित करें]"अधिक"(अल्बर्ट एंकर, 1896) लैटिन ग्लुट्यर ' से व्युत्पन्न ''ग्लूट्नी ', जिसका अर्थ गटक जाना या निगल जाना है, ग्लूट्नी (लैटिन,gula) का अर्थ नष्ट होने की अंतिम सीमा तक किसी वस्तु के प्रति अतिशय-आसक्ति एवं उसका अति-उपयोग है। ईसाई धर्म में, इसे पाप समझा जाता है क्योंकि भोजन की अत्यधिक इच्छा जरूरतमंद को भोजन पाने से वंचित कर देती है।[8] संस्कृति के आधार पर इसे या तो पाप अथवा हैसियत का प्रतीक समझा जाता है। अन्न का जहां अपेक्षाकृत अभाव है, अधिक खाने की क्षमता पाकर कईयों को गर्व बोध हो सकता है। लेकिन कुछ क्षेत्रों में जहां अन्न की प्रचुरता है, इसे अतिशय-आसक्ति की लालसा को नियंत्रित करने के लिए आत्म-संयम का प्रतीक समझा जाता है। मध्ययुगीन चर्च के रहनुमाओं (यथा, थॉमस अकिनास) ने लालसा के प्रति व्यापक दृष्टिकोण अपनाया,[8] इस सन्दर्भ में उनका तर्क था, कि भोजन के प्रति जुनूनी प्रत्याशा एवं सुस्वाद व्यंजनों तथा महंगे भोजनों को पाने और खाने की लगातार ललक बनाए रखना शामिल है।[9] अकिनास ने लालच में फंसने के छः तरीकों की एक सूची तैयार की है, जिनमें शामिल हैं:
लालच[संपादित करें]ग्रीड (लैटिन, avaritia) जिसे लोलुपता अथवा धनलोलुपता के रूप में भी जाना जाता है, कामुकता और लालसा के रूप में ही, अतिशयता का पाप समझा जाता है। हालांकि, लालच (चर्च की दृष्टि से देखने पर) बहुत ही अधिक अथवा अतिरेक इच्छा एवं सम्पति, हैसियत और ताकत के पीछे भागने पर भी लागू होता है। सेंट थॉमस अकिनास ने लिखा कि लालच "परमेश्वर के विरूद्ध किया जाने वाला पाप है, जो सभी पार्थिव पापों की तरह ही हैं और जो उतना ही अधिक होता जाता है जितना मनुष्य नश्वर वस्तुओं को पाने के लिए चिरस्थायी वस्तुओं का निरादर करता जाता है।" दांते की पुर्गेटरी में, अनुतापियों को अपने चेहरों को जमीन में गाड़ लेना पड़ता है चूंकि उनलोगों ने पार्थिव चिंताओं पर अपने ध्यान अधिक केन्द्रित किए हैं। "एवेरिस" व्यंजित शब्दावली है जो अन्य अनेक लालची प्रकृतियों का वर्णन करने में अधिक सार्थक है। इनमें विश्वासघात, इच्छाकृत बेवफाई, या देशद्रोह शामिल है, जो निजी लाभ के लिए किए जाते हैं,[कृपया उद्धरण जोड़ें] उदाहरण के लिए, रिश्वत के माध्यम से किया जाने वाला पाप. कूड़ा-कर्कट बटोरना[कृपया उद्धरण जोड़ें] एवं सामानों या वस्तुओं की जमाखोरी चोरी और डकैती, खासकर जो हिंसा, प्रवचना, कपट या अधिकार का दुरूपयोग, ये सभी ऐसे कर्म हैं जो लालच से प्रेरित हो सकते हैं। ऐसे कुकर्म धर्म-विक्रय के अन्दर अंतर्भुक्त किए जा सकते हैं जहां कोई चर्च के यथार्थ अन्तर्निहित सामानों का प्रलोभन देकर लाभ उठाता है। अनासक्ति[संपादित करें]एसिडिया (लैटिन, लापरवाही) (ग्रीक ακηδία से व्युत्पन्न) किसी को जो कुछ करना या ध्यान देना चाहिए उसके प्रति लापरवाही या निरादर है। इसका अनुवाद उदासीन निरुत्साहित, आनंदहीन अवसाद किया गया है। यह विषाद के समान है, हालांकि अनासक्ति (एसिडिया) आचरण अथवा व्यवहार की व्याख्या करता है, जबकि विषाद (मेलनकॉलि) उसे उत्पन्न करने वाली भावना को अभिव्यक्त करता है। आरंभिक इसाई विचारधारा में, आनंद के अभाव को प्रभु द्वारा सृष्ट अच्छाई का आनंद उपभोग की इच्छाकृत अस्वीकृति है; इसके विरोधामास में, उदासीनता को आध्यात्मिक मनस्ताप के रूप में माना गया है जो लोगों को उनकें धार्मिक कार्यों के प्रति निरुत्साहित करता है। जब थॉमस अकिनास ने अपनी अनुसूची को प्रतिपादित करने के लिए 'अनासक्ति की व्याख्या की तो कम पापों जैसे कि बेचैनी और अस्थिरता के पूर्वज होने के कारण उन्होंने इसे दिमागी अशांति का ही एक रूप स्वीकार किया। दांते ने इस परिभाषा को और भी परिमार्जित करते हुए एसिडिया को प्रभु के प्रति पूरे मन से लगाव में असफलता, जिसमें मन और आत्मा एक दूसरे में लीन हो जाय, के रूप में व्याख्याचित किया; उनके अनुसार यह मध्यक्रम का पाप है, जिसे प्रेमाभाव अथवा प्रेम की अनुपस्थिति के रूप में वर्गीकृत किया गया है। विषाद[संपादित करें]विषाद (डेस्पेयर) (लैटिन, Tristitia) असंतुष्टि अथवा अतृप्ति के अनुभव का वर्णन करता है, जो किसी की मौजूदा स्थिति के प्रति दुःख का कारण बनता है, खासकर निराशा के विचारों में अपने आप को व्यक्त कर. चूंकि पाप का आतंरिक प्रतिफलन दुःख है इसलिए पाप को कभी-कभी उदासीनता से भी सन्दर्भित किया जाता रहा है। चूंकि उदासीनता अक्सर विषाद में भी प्रतिफलित होती है इसलिए पोप ग्रेगरी की सूची के संशोधन में डेस्पेयर को अनासक्ति में ही अंतर्भुक्त कर लिया गया है। सुस्ती (काहिली)[संपादित करें]धीरे-धीरे निराशा के परिणामों पर ही न कि कारणों पर बात आकर केन्द्रित हो गई और इसीलिए 17वीं सदी तक आते-आते, वास्तव में घातक पाप को किसी की प्रतिमा अथवा उपहारों को व्यवहार में न ला पाने की असफलता के रूप में माना जाने लगा.[कृपया उद्धरण जोड़ें] आचरण अथवा व्यवहार में, एकेडिया की तुलना में यह (लैटिन, Socordia) स्लॉथ के करीब माना जाने लगा. यहां तक कि दांते के समय में भी ऐसे परिवर्तनों के लक्षण दीख रहे थे; क्योंकि उन्होंने अपनी पुर्गाटोरियो में विषाद के अनुताप स्वरूप लगातार तेज रफ़्तार में दौड़ते जाने के रूप में चित्रित किया हैं। आधुनिक दृष्टिकोण इससे आगे आलस्य और उदासीनता को विषय वस्तु की आन्तरिकता के लिहाज से पाप ही मानता है। चूंकि इसका इच्छाकृत असफलता के साथ अधिक विरोधाभास है, उदाहरणार्थ प्रभु और उनके कार्यों से प्रेम करो, सुस्ती को कभी-कभी अन्य पापों की तुलना में कम संगीन समझा जाता है, आचरण की तुलना में अनाचरण का पाप अधिक माना जाता है। क्रोध[संपादित करें]रैथ (लैटिन, ira) को रोष या "आक्रोश" के रूप में भी माना जाता है जिसे घृणा और क्रोध की अनियंत्रित उत्तेजना भी मान सकते हैं। ये उत्तेजनाएं सत्य की एक दूसरे को [[आत्म-अस्वीकृति|आत्म-अस्वीकृति]] और विधि व्यवस्था के प्रति असहिष्णुता के रूप में प्रबल रूप से नकारने की प्रतिरूपी हैं तथा न्यायिक प्रणाली के कार्यक्रमों के बाहर प्रतिशोध तलाशने की चाह (जैसे कि, चौकसी में व्यस्त रखना) तथा आमतौर पर दूसरों को हानि पहुंचाने की हमेशा इच्छा रखना. प्रतिशोध की भावना से पनपे अतिक्रमण (उल्लंघन) सर्वाधिक संगीन हैं जैसे कि, हत्या, हमला, तथा चरम मामलों में नरसंहार. रोष ही एक मात्र पाप है जो अनावश्यक रूप से स्वार्थपरता अथवा खुदगर्जी संबंध है (हालांकि कोई निश्चित रूप से अपने खुद के कारणों से क्रुद्ध अथवा कुपित हो सकता है जैसे कि जलन का ईर्ष्या के पाप के साथ गंभीर रिश्ता है). दांते ने प्रतिशोध को "न्याय के प्रति प्यार प्रतिशोध और विद्वेष की विकृति ही है". यह अपने मौलिक आकार में रोष के पाप में क्रोध बाह्य की अपेक्षा आन्तरिक रूप से अधिक केन्द्रित है। अतः आत्महत्या को चरम पर त्रासद, रोष की अंतर्मुखी अभिव्यक्ति मानी गई है जो प्रभु के उपहार की अंतिम अस्वीकृति है। ईर्ष्या[संपादित करें]लालच की ही तरह, ईर्ष्या (लैटिन, invidia) को भी अतृप्त इच्छा के रूप वर्गीकृत किया जा सकता है; हालांकि दो मुख्य कारणों से उनमें अंतर हैं। पहला कारण तो यह है कि लालच व्यापक रूप से भौतिक सामानों से सम्बद्ध है, जबकि ईर्ष्या का अधिक साधारण और आमतौर पर सब पर लागू होती है। दूसरा कारण है, वे जो ईर्ष्या का पाप करते हैं, वे इस बात से कुढ़ते रहते हैं कि किसी और के पास जो कुछ है उसका अभाव उनके पास क्यों है और वे दूसरों को भी इससे वंचित बने रहने देना चाहते हैं। दांते ने इसे दूसरों को उनकी वस्तुओं से वंचित बने रहने देने की इच्छा के रूप में परिभाषित किया।" दांते की पुर्गाटोरि में ईर्ष्यालु का दण्ड, उनकी आंखो की तार से सिलाई कर बंद कर देना है क्योंकि उन्होंने दूसरों को नीचा गिराकर देखते हुए पाप से भरे आनंद-उपभोग किए हैं। अकिनास ने ईर्ष्या को "दूसरों के सामानों के कारण दुखी होना" कहकर वर्णित किया है।[10] अहंकार[संपादित करें]लगभग सभी सूचियों में अहंकार (लैटिन, superbia) या अक्खड़पन को सात घातक पापों में मौलिक तथा सर्वाधिक गंभीर संगीन समझा जाता है और सचमुच यही चरम स्रोत है जिससे अन्य पाप उभरते हैं। इसे दूसरों से अधिक महत्वपूर्ण अथवा अधिक आकर्षक दिखने की इच्छा के रूप में रेखांकित किया गया है ऐसे लोग दूसरों के अच्छे कामों की सराहना करने में असफल होते हैं, तथा अपने आप से इतना अधिक लगाव रखते है (विशेषकर प्रभु की उचित सत्ता और महत्ता से बाहर को स्थापित करना). दांते की परिभाषा इस प्रकार थी, "स्वतः से प्यार घृणा को जन्म देता है तथा अपने पड़ोसी की अवमानना करता है।" जैकॉब बिडरमैन की मध्यकालीन चमत्कारिक नाटक सेनोडॉक्सस में अहंकार को सर्वाधिक मारात्मक और घातक पापों में से एक माना गया है जिसमें उपाधिधारी ख्यातिप्राप्त डॉक्टर को सीधे नरकवास का दण्ड दिया जाता है। शायद अधिक जाना-पहचाना उदाहरण लुसीफर की कहानी है, अहंकार (ईश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा करने की उसकी इच्छा) ही स्वर्ग से नीचे गिरने और सेटन में परिणामी रूपांतरण कारण बना. दांते की डिवाइन कॉमेडी में अनुतापियों को पत्थर की पट्टियों को पीठ पर बांधकर चलने को बाध्य किया जाता है ताकि उनमें अवमानना की अनुमति को उत्प्रेरित किया जा सके. गुमान[संपादित करें]वेनग्लोरी (लैटिन, vanagloria) बेजा शेखी (अनुचित आत्मश्लाघा) है। पोप ग्रेगरी ने इसे एक प्रकार का अहंकार माना है, इसीलिए वेनग्लोरी गुमान को पापों की अनुसूची बनाते वक्त अहंकार की श्रेणी में ही अंतर्भुक्त किया है। लैटिन शब्दावली ग्लोरिया या आत्मश्लाखा, हालांकि इसका अंग्रेजी समानार्थी शब्द - ग्लोरी है - जिसका व्यापक तौर पर सकारात्मक अर्थ में ही व्यवहार होता रहा है; ऐतिहासिक तौर पर, वेन का मोटे तौर पर अर्थ है - फ्युटाइल अर्थात् व्यर्थ या निरर्थक, लेकिन 14वीं सदी तक असंगत परिशुद्धि को दरकिनार रखते हुए इससे सशक्त आत्मशक्ति अन्तर्निहित हो गई जो अब तक बरकरार है।[11] इन धार्मिक अर्थगत परिवर्तनों के कारण, गुमान अपने आप में बहुत ही कम प्रयुक्त होने वाला शब्द है और अब आमतौर पर (अपने आधुनिक आत्मशक्ति के अर्थ में) आत्मप्रदर्शन के शाब्दिक सन्दर्भ में प्रयुक्त होने लगा है। कैथोलिक सद्गुण[संपादित करें]रोमन कैथोलिक चर्च भी सात सद्गुणों को मान्यता प्रदान करता है, सात घातक पापों में से प्रत्येक का विपरीतार्थी सादृश्यता वहन करता है:
दुष्ट आत्माओं के साथ संसर्ग[संपादित करें]सन् 1589 में, पीटर बिन्सफेल्ड ने, प्रत्येक घातक पाप को दुष्ट आत्मा के साथ जोड़ा है, जो लोगों को पापों से कि जुड़ने के लिए लुभाते हैं। [[बिन्सफेल्ड के दुष्ट आत्माओं|बिन्सफेल्ड के दुष्ट आत्माओं]] के वर्गीकरण के अनुसार युगलबंदी निम्न प्रकार हैं:
प्रतिमान[संपादित करें]सन् 2009 में किए गए एक जेसुइट विद्वान के अनुसार, पुरषों द्वारा आमतौर पर लालसा को ही सर्वाधित घातक स्वीकृत पाप स्वीकृत किया गया है और नारियों द्वारा अहंकार को.[12] यह अस्पष्ट था कि ये अंतर क्या आचरण की भिन्न दरों के कारण थे, या पापों में किसे परिगणित किया जाए ऐसे दृष्टिकोणों के अंतर के कारण भी कन्फेस किया भी जाय अथवा नहीं.[13] सांस्कृतिक सन्दर्भ[संपादित करें]मध्युगीन नैतिक आदर्शवादी कथाओं से लेकर आधुनिक मंगा सीरिज तथा वीडियो जेम्स तक सात घातक पाप कलाकारों और लेखकों के लिए लंबे अरसे से प्रेरणा-स्रोत रहें हैं। एन्नीग्राम एकता[संपादित करें]द एन्नीग्राम ऑफ़ पर्सनालिटी सात को दो अतिरिक्त "पापों" छल-कपट तथा भय के साथ एकात्म करती है। एन्नीग्राम का विवरण परंपरिक क्रिश्चयन व्याख्या की तुलना में विस्तारित है तथा व्यापक मानचित्र पर प्रस्तुत की गई हैं।[14][15] सात घातक पापों से प्रेरित साहित्यिक रचनाएं[संपादित करें]
कला और संगीत[संपादित करें]
फिल्म, टेलीविज़न, रेडियो, कॉमिक बुक्स एवं विडियो गेम्स[संपादित करें]
विज्ञान[संपादित करें]
इन्हें भी देखें[संपादित करें]
सन्दर्भ[संपादित करें]नोट्स
आगे पढ़ें[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
इंसान का सबसे बड़ा पाप क्या है?"जीव हत्या" सबसे बड़ा पाप हैं , अनावश्यक हरे पेड़ों को काटना भी पाप हैं।
10 प्रकार के पाप कौन कौन से हैं?दस पाप कर्म-. दूसरों का धन हड़पने की इच्छा।. निषिद्ध कर्म (मन जिन्हें करने से मना करें) करने का प्रयास।. देह को ही सब कुछ मानना।. कठोर वचन बोलना।. झूठ बोलना।. निंदा करना।. बकवास (बिना कारण बोलते रहना)।. चोरी करना।. पाप पाप कितने प्रकार के होते हैं?हिंसा (किसी की हत्या या कष्ट पहुँचाना) स्तेय (चोरी) अन्यथा काम (अवैध रिति से मैथुन) पैशुन्य (चुगलखोरी) निष्ठुर भाषण, झूठा व्यवहार,भेद युक्त बातों से दिल दुखाना, अविनय (अशिष्टता) नास्तिकता और अवैध आचरण ये दस प्रकार के पाप कर्म है। इन्हें शरीर, वाणी और मन से छोड़ देना उचित है।
पाप से कौन बचाता है?जब से मनुष्य ने होश संभाला है तभी से उनमें पाप-पुण्य, भलाई-बुराई, नैतिक-अनैतिक जैसे आध्यात्मिक विचार मौजूद हैं. सारे धर्म और हर क्षेत्र में इसका प्रचलन किसी न किसी रूप में ज़रूर है.
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