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एक प्रायोगिक खेत पर सस्य आवर्तन का प्रभाव : बायें खेत में आलू-जई-नीवारिका-मटर सस्यचक्र अपनाकर खेती की जा रही है; दायें खेत में पिछले ४५ वर्षों से केवल नीवारिका ही उगायी जा रही है। फसल चक्रण द्वारा मृदा के पोषणीय स्तर को बराबर रखा जा सकता है गेहूं ,कपास ,मक्का , आलू आदि के लागतार उगाने से मृदा में ह्रास उत्पन होता है इसे तिलहन दलहन पौधे की खेती के द्वारा पुनःप्राप्त किया जा सकता है इस प्रकार हम कह सकते है की फसल चक्रण मृदा संरक्षण में सहायक है| परिचय[संपादित करें]सभ्यता के प्रारम्भ से ही किसी खेत में एक निश्चित फसल न उगाकर फसलों को अदल-बदल कर उगाने की परम्परा चली आ रही है। फसल उत्पादन की इसी परंपरा को फसल चक्र कहते हैं अर्थात् किसी निश्चित क्षेत्र पर निश्चित अवधि के लिए भूमि की उर्वरता को बनाये रखने के उद्देश्य से फसलों को अदल-बदल कर उगाने की क्रिया को फसल चक्र कहते हैं। अथवा, किसी निश्चित क्षेत्रा में एक नियत अवधि में फसलों को इस क्रम में उगाया जाना कि उर्वरा शक्ति का कम से कम हृस हो फसल चक्र कहलाता है। आदिकाल से ही मानव अपने भरण पोषण हेतु अनेक प्रकार की फसले उगाता चला आ रहा है। फसलें मौसम के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है। अधिक मूल्यवान फसलों के साथ चुने गये फसल चक्रों में मुख्य दलहनी फसलें, चना, मटर, मसूर, अरहर, उर्द, मूँग, लोबिया, राजमा, आदि का समावेश जरूरी है। एक ही फसल या एक ही तरह की फसल उगाने से हानि[संपादित करें]किसी खेत में लगातार एक ही फसल उगाने के कारण कम उपज प्राप्त होती है तथा भूमि की उर्वरता खराब होती है। भारत के अनेक भागों में प्रचलित सबसे लोकप्रिय फसल उत्पादक प्रणाली धान-गेहूँ, मृदा-उर्वरता के टिकाऊपन के खतरे का स्पष्ट आभास कराती प्रतीत हो रही है। इसके कारण उपजाऊ भूमि का क्षरण, जीवांश की माता में कमी, भूमि से लाभदायक सूक्ष्म जीवों की कमी, मित्र जीवों की संख्या में कमी, हानिकारक कीट पतंगों का बढ़ाव, खरपतवार की समस्या में बढ़ोत्तरी, जलधारण क्षमता में कमी, भूमि के भौतिक, रासायनिक गुणों में परिवर्तन, क्षारीयता में बढ़ोत्तरी, भूमिगत जल का प्रदूषण, कीटनाशीयों का अधिक प्रयोग तथा नाशीजीवों में उनके प्रति प्रतिरोधक क्षमता का विकास आदि हानियाँ होतीं हैं। आज न तो केवल उत्पाद वृद्धि रूक गई है बल्कि एक निश्चित मात्रा में उत्पादन प्राप्त करने के लिए पहले की अपेक्षा बहुत अधिक मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग करना पड़ रहा है क्योंकि भूमि में उर्वरक क्षमता उपयोग का ह्रास बढ़ गया है। इन सब विनाशकारी अनुभवों से बचने के लिए हमें फसल चक्र, फसल सघनता, के सिद्धान्तों को दृष्टिगत रखते हुए फसल चक्र में दलहनी फसलों का समावेश जरूरी हो गया है क्योंकि दलहनी फसलों से एक टिकाऊ फसल उत्पादन प्रक्रिया विकसित होती है। लाभ[संपादित करें]फसल चक्र से मृदा उर्वरता बढ़ती है, भूमि में कार्बन-नाइट्रोजन के अनुपात में वृद्धि होती है। भूमि के पी.एच. तथा क्षारीयता में सुधार होता है। भूमि की संरचना में सुधार होता है। मृदा क्षरण की रोकथाम होती है। फसलों का बिमारियों से बचाव होता है, कीटों का नियन्त्रण होता है, खरपतवारों की रोकथाम होती है, वर्ष भर आय प्राप्त होती रहती है, भूमि में विषाक्त पदार्थ एकत्र नहीं होने पाते हैं। उर्वरक - अवशेषों का पूर्ण उपयोग हो जाता है सीमित सिंचाई सुविधा का समुचित उपयोग हो जाता है। सस्यचक्र से निम्नलिखित लाभ होते हैं:
4. श्रम, आय तथा व्यय का संतुलन - एक बार किसी फसल के लिए अच्छी तैयारी करने पर, दूसरी फसल बिना विशेष तैयारी के ली जा सकती है और अधिक खाद चाहने वाली फसल को पर्याप्त मात्रा में खाद को देकर, शेष खाद पर अन्य फसलें लाभके साथ ली जा सकती है, जैसे आलू के पश्चात् तंबाकू, प्याज या कद्दू आदि।
फसल चक्र निर्धारण के मूल सिद्धान्त[संपादित करें]फसल चक्र के निर्धारण में कुछ मूलभूत सिद्धान्तों को ध्यान में रखना जरूरी होता है जैसे-
कुछ उपयोगी फसल चक्र[संपादित करें]उत्तर प्रदेश में कुछ प्रचलित फसल चक्र इस प्रकार हैं जैसे -
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
1 वर्ष में किसी भूमि पर एक से ज्यादा फसल पैदा करने की प्रक्रिया को क्या कहते हैं?एक वर्ष में किसी भूमि पर एक से ज्यादा फसल पैदा करने को बहुविध फसल प्रणाली कहते है। यह भूमि के किसी एक टुकड़े में उपज बढ़ाने की सबसे सामान्य प्रणाली है। पालमपुर में सभी किसान कम से कम दो मुख्य फसलें पैदा करते हैं।
1 साल में कितनी भूमि पर एक से ज्यादा फसल उगाने की विधि को क्या कहते हैं?बाजरा की उन्नतशील खेती
कम वर्शा वाले स्थानों तथा रेतीली जमीन पर बाजरा की खेती अच्छी होती है कुल 43.98 हे0 पर बाजरा की खेती की जाती है। कुल उत्पादन 73.62 मै0टन तथा उत्पादकता 16.74 प्रति हे0 है। बाजरा की खेती षाहबाद, सैदनगर एवं चमरव्वा विकास खण्ड में की जाती है। बाजरा के लिए हल्की या दोमट बलुई मिट्टी उपयुक्त होती है।
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