यारडांग बनने का प्रमुख कारण है - yaaradaang banane ka pramukh kaaran hai

अपरदन

  • भू-पृष्ठ की चट्टानों का विखंडित होना, उनकी रचना का शिथिल पड़कर फटना-फूटना और चट्टान-विशेष का घुल-गलकर नष्ट होना जब स्थैतिक क्रिया के रूप में हो तो ‘अपक्षय’ कहलाता है।
  • जब गतिशील बाह्य शक्तियाँ लगकर भूपटल की चट्टानों को घर्षित, अपघर्षित और सिन्नघर्षित कर तोड़ने-हटाने लगती हैं या दाब, घोल आदि द्वारा यांत्रिक और रासायनिक ढंग से खंडित या गलित कर स्थानांतरित करने लगती हैं तो इस क्रिया को ‘अपरदन’ कहते हैं।
  • अपरदन में ख्ंडित/क्षयित चट्टानों का स्थानांरतण/परिवहन निहित है, क्योंकि यह गतिशील क्रिया है। इस तरह, यह अपक्षय से भिन्न है। अपरदन के लिए अपक्षय-क्रिया आवश्यक नहीं। बिना अपक्षय के भी अपरदन हो सकता है। अपक्षय के बाद अपरदन हो ही, यह भी आवश्यक नहीं है।
  • दोनों क्रियाएँ अलग-अलग होते हुए भी साथ-साथ चल सकती हैं। अपरदन में अपक्षय सहायक होता है पर अपक्षय अपरदन का अंश नहीं हैं। अपक्षय से प्राप्त चट्टान-चूर्ण को अपरदन-अभिकर्ता बड़ी आसानी से अपने साथ लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचा देते हैं।
  • स्थानांतरित शैलचूर्ण या मलवों को किसी स्थान पर जमा करने की क्रिया ‘निक्षेपण’ कहलाती है। अपरदन में निक्षेपण भी समाहित या सम्मिलित है। अपरदन पर संरचना का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। संरचना से तात्पर्य भू-पृष्ठ पर उभरा हुआ स्थलरूप है जिसकी रचना चट्टानों से हुई है।
  • सभी स्थलरूपों पर एक-सी चट्टान नहीं मिलती। चट्टानों में खनिजों और रासायनिक मूल तत्त्वों का योग एक-सा नहीं मिलता। यदि कहीं आग्नेय चट्टान है तो कहीं अवसादी।
  • कहीं रूपांतरित चट्टान है तो कहीं मिलीजुली, अर्थात मिश्रित। कहीं की दृश्य-भूमि मैदान है तो कहीं की पर्वतीय। कहीं वलित पर्वत है तो कहीं गुंबदाकार या लावा-निर्मित।
  • विभिन्न प्रकार के स्थल-रूप और उनकी चट्टानों की विभिन्नता का अपरदन पर प्रभाव भी अलग-अलग होता है। क्वार्ट्जाइट, बैसाल्ट आदि कड़ी चट्टानें, चिकनी मृदा बालूपत्थर, शेल आदि अपेक्षाकृत कम कड़ी चट्टानों से कम अपरदित होती हैं।
  • जिन चट्टानों में रंध्रता कम है, जोड़ (संधियाँ) कम हैं, वे संरध्र और संधियुक्त चट्टानों की अपेक्षा कम अपरदित होती हैं।
  • बालूपत्थर और खडि़या चट्टान होने के कारण जल की रासायनिक प्रक्रिया से जल्द अपरदित हो जाती हैं। नदी मार्ग में बेसाल्ट या पिंड मिले तो वह शेल की तरह जल्द नहीं कटता और प्रतिरोधी के रूप में पड़ा रह जाता है।
  • निस्संदेह, प्रत्येक चट्टान का अपरदन पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है, फलस्वरूप प्रत्येक चट्टान एक विशिष्ट प्रकार का भू-दृश्य विकसित करती है।

शैलपात और भूस्खलन

  • पर्वतीय ढालों पर गुरूत्वाकर्षण बल से ख्ंडित चट्टानें (विघटित शैलें) नीचे की ओर गिरती, लुढ़कती या सरकती रहती हैं। इसे ‘शैलपात’ कहते हैं।
  • गिरती या लुढ़कती चट्टानें टूटकर छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटने लगती हैं और जमा जल का समावेश होता है तो वह संश्लिष्ट होकर आधार शैली को अपने स्थान पर बनाए रखने में आंतरिक मजबूती लाती है।
  • मलवे के निरंतर निक्षेप होते रहने और धरातल ढालू बन जाने पर मलवे का प्रत्येक कण ढाल के साथ नीचे सरकने की प्रवृत्ति रखता है।
  • आर्द्र जलवायु वाले पर्वतीय क्षेत्रें में ऐसी भूमि को वर्षाकाल में नीचे सरकते या खिसकते देखा भी जाता है। भूमि का यह संचलन ‘भूस्खलन’ कहलाता है।

अपरदन के कारण एवं प्रक्रियाएं-

अपरदन के प्रकार सक्रिय कारक एकांकी सिर्फ कारक एकांकी सिर्फ कारक चट्टानचूर्ण युक्त कारक केवल चट्टान चूर्ण
घोलन एवं रसायनिक क्रिया यांत्रिक क्रिया परिवहित पदार्थ द्वारा सतह का अपरदन परिवहित पदार्थ द्वारा आपस में चट्टानों का टूटना
वर्षा अपरदन वर्षा जल संक्षारण आस्फाल अपरदन, परत अपरदन स्थानीय संक्षारण निम्न मात्र में सन्निघर्षण
नदी अपरदन नदी संक्षारण जलगति क्रिया द्वारा चट्टान चूर्णो का उत्थान, एवं घर्षण अपघर्षण सन्निघर्षण
हिमनदीय अपरदन हिमनद, हिमचादर हिमनदों के अधः स्तर पर संक्षारण उत्पाटन एवं अपघर्षण अपघर्षण सन्निघर्षण
वायु अपरदन वायु संक्षारण अपवहन, विभिन्न जल दबाब क्रियाएं वायु अपघर्षण रेगमाल कार्य सन्निघर्षण
समुद्री अपरदन तरंग, ज्वार एवं धाराएं संक्षारण जल दबाव क्रिया, चल जलीय क्रिया अपघर्षण सन्निघर्षण
  • उच्च पर्वतों पर सर्दियों में एकत्र हिम जब ग्रीष्म ऋतु आने पर पिघलता है तो उससे भी भूस्खलन होते देखा जाता है। वनों की कटाई से भी नग्न पर्वतीय भूमि को गुरूत्व बल के सहारे घाटी में गिरते या लुढ़कते देखा जाता है।
  • शैलपात और भूस्खलन दोनों क्रियाओं में चट्टानों का स्थानांतरण (परिवहन के साथ निक्षेपण) होता है। चट्टानों का बड़े पैमाने पर स्थानांतरण जिन बाह्य शक्तियों या कारकों द्वारा होता है उनमें चार प्रमुख हैं। इन्हें अपरदन के कारक या अभिकर्ता कहा जाता है।

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अपरदन के चार प्रमुख कारक
  • परिवहन और निक्षेपण प्रक्रियाओं से युक्त धरातल के निम्नीकरण में (या काट-छाँट में) जो कारक लगे हैं, उन्हें अपरदनकर्ता या अपरदन के दूत नाम दिया जाता है।

इनमें प्रधान चार कारक निम्नांकित हैं-

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प्रवाहित जल
  • प्रवाहित जल का विशिष्ट रूप है नदी, जो दो विधियों से स्थल का अपरदन करती है। एक विधि में वर्षा होने पर अपनी द्रोणी (बेसिन) से होकर प्रवाहित होने वाले जल द्वारा विस्तृत क्षेत्र का स्तरीय अपरदन करती है।
  • दूसरी विधि में अपनी सुनिश्चित धारा प्रवाह द्वारा अपनी पेंदी तथा पार्श्वतटों को घिसती-काटती है और अपनी घाटी का निर्माण व विकास करती है।
  • भूपृष्ठीय ढाल का अनुसरण करती हुई नदी तीन परस्पर संबंधित कार्य किया करती है- (i) अपरदन, (ii) परिवहन (iii) निक्षेपण।
नदी अपरदन
  • इस के चार साधन हैं-1. जलदाब क्रिया, अपघर्षण, 3. सन्निघर्षण और 4. विलयन।

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  • जलदाब क्रिया (hydraulic action) से चट्टानों का बंधन ढीला पड़ जाता है और चट्टानें आसानी से कटकर गिर जाती हैं। जलप्रपात के तल पर गढ्डे का बनना या जल गर्त्तिका घटछिद्र से नदी तल कड़ी और चिकनी हो जाती है।
  • नदी तट की मुलायम चट्टानों को भी जलधारा आसानी से काट देती है जिससे नदी की पेटी चौड़ी होने लगती है। खड़ी कटान से नदी-घाटी गहरी होती है और पाश्च कटान से चौड़ी।
  • नदी-अपरदन का यह साधन यांत्रिक घर्षण (mechanical wear) है जिससे धारा के साथ लुढ़कती शिलाएँ खंडित और चिकनी होकर गोलाश्म रूप ले लेती हैं।
  • सन्निघर्षण (attrition) में अपरदित चट्टानें धारा के साथ आगे बढ़ती हुई आपसी रगड़ से टुकड़े-टुकड़े हो जाती हैं, उनका कोणीय आकार घिस जाता है और वे बट्टिकाओं (बजरियों) में परिणत हो जाती हैं। दब-पिसकर वे और भी छोटी हो जाती हैं।
  • विलयन (solution) को ‘रासायनिक अपरदन’ कहा गया है और यह वहीं होता है जहाँ तलीय चट्टानें घुलनशील होती हैं, जैसे चूनापत्थर के क्षेत्र में कैल्सियम कार्बोंनेट (चूना) आसानी से घुलकर वहाँ से हट जाता है।
  • पर्वती भाग में नदी की धारा तेज होती है, प्रवाहित जल का वेग अत्यधिक होता है, अतः तलीय अपरदन या अपघर्षण अधिक होता है जिससे घाटी सँकरी और गहरी होती जाती है।
  • खड्ड और महाखड्ड तक का निर्माण हो सकता है। हिमालय में सिंधु नदी ने गिलगिट के पास 5 हजार मीटर खड्ड का निर्माण किया है।
  • रॉकी पर्वत से गुजरती हुई कोलोरेडो नदी डेढ़ किमी. गहरा महाखड्ड बनाती है। अफ्रीका की जाम्बेजी नदी भी पर्वतीय भाग में महाखड्ड बनाती है।
  • पर्वती भागों में नदियाँ जलप्रपात बनाती हैं और शीर्ष अपरदन द्वारा दूसरी नदी का अपहरण तक करने में समर्थ होती हैं।पर्वतीय भाग छोड़कर मैदान में उतरते समय साथ में लाए मलवों से जलोढ पंख (पंखाकार निक्षेप) का निर्माण करती है।
  • मैदानी भाग में प्रवेश करने पर नदी अपने दोनों किनारों (तटों) को काट कर अपनी घाटी चौड़ी करने में लग जाती है। यहीं नदी का विसर्प (घुमावदार मार्ग) देखने को मिलता है।
  • विसर्पी नदी छोड़ने या परित्यक्त झीलों को जन्म देती है, बाढ़ के समय साथ लाई मृदा के महीन कणों को बिछाकर बाढ़ के मैदान की रचना करती है, अपने तटों पर प्राकृतिक तटबंध का निर्माण करती है और विशाल झील या समुद्र में पहुँचकर डेल्टा (delta) बनाती है। इस तरह, नदी अपरदन कार्य से तथा अपरदित पदार्थों से भू-पृष्ठ पर विभिन्न रूपों का सृजन करती हैं।

नदी परिवहन

नदी घाटी अपरदित पदार्थों का परिवहन तीन तरह से करती है-

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  • हर नदी एक-सा परिवहन नहीं करती। अपरदन हो या परिवहन, यह नदी की ऊर्जा पर निर्भर करती है। नदी को ऊर्जा प्रवाहित जल के आयतन और वेग से प्राप्त होती है।
  • नदी के मध्य भाग में तलीय और तटीय भागों से अधिक परिवहन होता है, क्योंकि नदी की तेज धारा यहीं मिलती है तथा शुष्क ऋतु की अपेक्षा वर्षा ऋतु में नदी की परिवहन-शक्ति बढ़ जाती
  • है। भूमि की ढाल अधिक हो और अपरदित शैलों की उपस्थिति (बोझ) कम हो तो नदी का वेग बढ़ जाता है और परिवहन अधिक होता है।
  • यदि नदी का वेग दोगुना बढ़ जाए तो उसकी परिवहन-शक्ति चौसठ गुना अधिक हो जाती है। यदि जल की मात्र दुगुनी हो जाए तो परिवहन क्षमता केवल दुगुनी ही बढ़ती है।
नदी निक्षेपण
  • यह दो बातों पर निर्भर करता है-1. नदी का वेग घटना और 2. नदी का पर्याप्त बोझ (गाद, मृदा बालू आदि) होना। नदी का वेग तब घटता है जब वह पर्वतीय भाग से मैदानी भाग में आती है।
  • नदी के निक्षेपण से ही जलोढ़ पंख, बाढ़ के मैदान, प्राकृतिक तटबंध, गोखुर झील, नदी-गुंफन, नदी-द्वीप और डेल्टा जैसी गौण स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।

नदी द्वारा निर्मित भू-आकृतियाँ

  • नदी के द्वारा निर्मित विभिन्न, भू-आकृतियों का संक्षिप्त वर्णन निम्न हैं:
गॉर्ज (Gorge)
  • नदी की ‘V’ आकार की गहरी घाटी को गॉर्ज कहते हैं। गॉर्ज प्रायः नदी के पर्वतीय भाग में पाए जाते हैं।
  • भारत में सिन्धु, सतलज, ब्रह्मपुत्र द्वारा क्रमशः निर्मित सिंधु गार्ज, शिपकिला गार्ज तथा दिहांग गार्ज सिंधु ‘V’ आकार घाटी के उदाहरण हैं।
कैनियन (Canyon)
  • नदी का पृथ्वी भाग में विस्तृत महाखण्ड। विश्व में कोलोरेडो नदी का कैनियन सबसे बड़ा है।
क्षिप्रिका (Rapids)
  • पर्वती भागों में नदी के मार्ग में भूमि का ढाल तीव्र होने पर नदी का जल तीव्र गति से नीचे की ओर बहता है। इस प्रकार तेज बहते पानी को क्षिप्रिका कहते हैं।
नदी वेदिका (River Terraces)
  • नदी की घाटी के दोनों ओर नदी के चबूतरे मिलते हैं जिनको नदी-वेदिका कहते हैं। कुछ नदियों की घाटियों में यह चबूतरे सीढ़ीनुमा रूप धारण कर लेते हैं।
जल प्रपात (Waterfalls)
  • जब किसी नदी का जल ऊँचाई से खड़े ढलान पर गिरे तो उसे जल प्रपात कहते हैं। इस प्रकार की भू-आकृतियाँ नदी के पर्वतीय भाग में देखी जा सकती हैं।
जलोढ़ पंख (Alluvial Fans)
  • पर्वतीय ढाल से नीचे उतरती हुई नदी जब गिरिपद के पास समतल मैदान में प्रवेश करती है तो उसका वेग अचानक कम हो जाता हैं, जिस कारण उसके साथ बहने वाले अवसाद एक पंख के रूप में फैल कर जमा हो जाता है। इस प्रकार की भू-आकृति को जलोढ़ पंख कहते हैं।
सरिता अपहरण (River Capture)
  • जब कोई नदी अपने उद्ग्म की ओर अपरदन करती हुई किसी दूसरे नदी के जल को अपने जलमार्ग में खींच लाये उसे नदी या सरिता अपहरण कहते हैं।
बाढ़-मैदान (Flood Plain)
  • किसी नदी के मध्य एवं निचले मार्ग में जहाँ तक बाढ़ के समय नदी का पानी फैलता हो उसका बाढ़-मैदान कहलाता है।
प्राकृतिक तटबंध (Levee)
  • आगे बढ़ने के दौरान नदियां अपरदन के साथ-साथ बड़े-बड़े अवसादों का किनारों पर निक्षेपण भी करती जाती है, जिससे किनारे परबांधनुमा आकृति का निर्माण हो जाता है। इसे ही प्राकृतिक तटबंध कहते हैं।
नदी विसर्प (River Meander)
  • मैदानी क्षेत्रें में नदी की धारा दाएं-बाएं बल खाती हुई प्रवाहित होती है और विसर्प बनाती है। ये विसर्प आकार की होती है। नदियों का ऐसा घूमना अधिक अवसादी बोझ के कारण होता है।
गोखुर अथवा ऑक्सबों झील (Ox-bow Lake)
  • मन्द-ढलान के कारण जब किसी नदी का विसर्प (Meander) जल मार्ग से अलग हो जाता है तो वह झील का रूप धारण कर लेता हैं। ऐसी झील को गोखुर अथवा ऑक्स-बो झील कहते है।
गुंफित जलमार्ग (Braided Stream)
  • नदी के निचले भाग में, धरातल का ढलान बहुत मन्द हो जाता है, जिसके कारण जलमार्ग कई धाराओं में विभाजित हो जाता है।
  • ऐसे जलमार्ग को गुंफित जलमार्ग कहते हैं। भारत में गंडक नदी तथा सोन नदी गुम्फित नदी प्रणाली के अच्छे उदाहरण हैं
डेल्टा (Dalta)
  • जब नदी का भार अत्यधिक तथा ढलान बहुत मन्द हो जाता है तो नदी सागर में मिलने से पहले बहुत-सी भुजाओं में बंट कर एक त्रिभुजाकार आकृति को जन्म देती है। इस आकृति को डेल्टा कहते हैं।
एस्चुअरी (Estuary)
  • जब कोई नदी बहुत-सी भुजाओं में न बँटकर सीधी सागर में जा मिले तो ऐसे मुहाने को एस्चुअरी कहते हैं।
जलोढ़ निक्षेप (Alluvial Deposits)
  • नदियों द्वारा बनाये गये निक्षेपों को जलोढ़ निक्षेप कहते हैं।
समप्राय मैदान (Peneplane)
  • समप्राय मैदान का निर्माण उस समय होता है जब किसी नदी की अन्तिम अवस्था में क्षैतिज अपरदन द्वारा सतह की असमानतायें दूर हो जाती हैं।

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हिमनद या हिमानी

  • सरकती हुई, आगे बढ़ती हुई हिमराशि (गतिशील हिमराशि) को हिमानी या हिमनद कहा जाता है।
  • नदी की तुलना में हिमानी की गति अत्यंत मंद होती है (दिन भर में कुछ ही मीटर)। यह उच्च अक्षांशों में या उच्च पर्वतीय क्षेत्रें में मिला करती है। इसकी उत्पत्ति के लिए आवश्यक है कि
  1. वहाँ पर्याप्त हिमपात हो और
  2. हिमपात की दर उसके पिघलने की दर से अधिक हो।
  • भूमि ढालू हो तो उसे सरकने या आगे बढ़ने में सुविधा होती है। ध्रुवीय प्रदेशों में हिमानी के विस्तृत क्षेत्र मिलते हैं (जैसे ग्रीनलैंड, अंटार्कटिका) और उसकी मोटाई कई किमी. तक होती है।
  • उच्च पर्वतीय प्रदेशों में इसके विस्तार या मोटाई में कमी पाई जाती है, पर इसका अपरदन कार्य प्रभावकारी होता है।
  • हिमालय, आल्प्स, रॉकी आदि पर्वतीय क्षेत्रें में हिमानी सरकती हुई घाटी में आ जाती है और नीचे उतरती हुई पिघल जाती है। पिघलकर यह नदियों को जन्म देती है।
  • आगे बढ़ती हुई हिमानी जिन पत्थरों, रोड़ों या शिलाचूर्णों को साथ ले चलती है, उन्हें ‘हिमोढ़’ (moraine) कहते हैं। ये हिमोढ़ ही हिमानी अपरदन के उपकरण हैं। इनसे आधार तल पर खरोंचें पड़ती हैं।
  • अपघर्षण होता है और मार्ग के पत्थर घिसटाते हुए खंडित होकर चूर-चूर हो जाते हैं। तल में पड़ी खरोंचों या धारियों से हिमानी की प्रवाह-दिशा का आभास होता है।
  • हिमानी में हिमोढ़ों की स्थिति दोनों किनारों पर (पार्श्चों पर) हो सकती है, मध्य में हो सकती है और तलों पर होती है जिन्हें क्रमशः पार्श्विक हिमोढ़, मध्यस्थ हिमोढ़ और तलीय (अंतस्थ या अग्रांतस्थ) हिमोढ़ कहते हैं।
  • मध्यस्थ हिमोढ़ की रचना तब होती है जब दो हिमानियों के पार्श्विक हिमोढ़ आपस में मिलकर बीच में चलने लगते हैं।
  • हिमानी के संचलन से विभिन्न प्रकार के गौण स्थल-रूपों का सृजन होता है जैसे हिमद्रोणी, हिमज गह्नर, सर्क (cirque), पिरामिड की तरह की नुकीली चोटी या गिरि शृंग, हिमघाटी, लटकती या निलंबी घाटी और मेषशिला (बैठी या सोई हुई भेड़ की तरह की चट्टानें)। “U” आकार की घाटी, सर्क, फिायोर्ड।
  • ये सभी अपरदन से निर्मित हैं। निक्षेपण से बने स्थलरूपों में ड्रमलिन, एस्कर, क्रेटर झील और बालू-बजरीयुक्त हिमजलोढ़ मैदान प्रमुख है।
  • पर्वतीय भागों के उच्च शिखरों पर और ढालों पर हिमानी द्वारा अपरदन कार्य मुख्य रूप से देखने को मिलता है। हिमगह्नर और शृंग की रचना वहीं होती है।
  • हिमज गह्नर आरामकुर्सी के आकार की खड़ी ढाल वाला बड़ा और गहरा गढ्डा है जिसकी उत्पत्ति हिमानी से हुई है। ये आगे चलकर हिमानी के पोषणस्थल बन जाते हैं और पूर्णतया पिघल जाने पर वहाँ द्रोणी झील की रचना करते हैं।
  • गिरि शृंग (horn) की रचना तब होती है जब तीन या अधिक हिमज गह्नर एक-दूसरे को काटते हैं और बीच में पिरामिड जैसी चोटी का निर्माण होता है।
  • हिमघाटी U- आकार की होती है। (नदी घाटी से भिन्न, जो V- आकार की होती है)। नदी-घाटी में प्रवेश करने पर हिमानी उसे चौड़ी और गहरी बना देती है।
  • घुमावदार घाटी से होकर गुजरने पर उभरे हुए बाहुकूटों (spurs) को काटकर अपना मार्ग सीधा कर लेती है। इस तरह, हिमानी के अपरदन कार्य से घाटी का विकास होता जाता है।
  • हिमरेखा के नीचे हिमानी पिघल जाती है और इसके द्वारा परिवहित पदार्थ वहाँ एकत्र होकर विशिष्ट स्थलाकृतियों को जन्म देते हैं।
  • ड्रमलिन (हिमोढ़ टब्बे) और एस्कर (मृदाकटक) ऐसी ही स्थलाकृतियाँ हैं। ड्रमलिन अनगिनत उलटी हुई नावों जैसा दृश्य उपस्थित करता है।
  • इसमें गोलाश्म बहिकाओं से युक्त मृदा (बोल्डर क्ले) रहती है। इसे महाद्वीपीय हिमानी के तलस्थ हिमोढ़ का निक्षेप माना जाता है।
  • यूरोप के विभिन्न भागों में यह दृष्टिगोचर होता है। इसके गोलाश्म विभिन्न आकार के और असंबद्ध मिलते हैं। एस्कर (esker) टेढ़ा-मेढ़ा बाँध है जो बालू, कंकड़ और मृदा से बना होता है। इसकी ढाल दोनों ओर खड़ी होती है।

हिमनद के प्रकार

  • हिमनदों को निम्न वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैः
आइस कैप्स

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पर्वत हिमनद अथवा घाटी हिमनद

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गिरिपद हिमनद
  • जब पर्वतीय भाग से कई घाटी हिमनद नीचे उतर कर पर्वत के आधार पर एक-दूसरे से मिल जाते हैं तो उसे गिरिपद हिमनद कहते हैं
  • अलास्का का मेलास्पिना ग्लेशियर इसका मुख्य उदाहरण है।

अपरदित भू-आकृतियाँ

  • हिमनद के द्वारा निर्मित प्रमुख अपरदित भू-आकृतियाँ निम्न है-

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क्रेग एण्ड टेल
  • जब किसी हिमनद के मार्ग में बेसाल्ट अथवा ज्वालामुखी प्लग (Volcanic Plug) ऊपर गाँठ के रूप में निकला रहता है तो जिस ओर से हिमनद आता है उस ओर प्लग के उठे भाग पर स्थित मुलायम मृदा का हिमनद द्वारा अपरदन हो जाता है तथा ढाल तीव्र हो जाती है।
  • ढाल से होकर हिमनद जब बेसाल्ट के उठे भाग पर प्लग को पास करके दूसरी ओर उतरने लगता है, तो प्लग के साथ संलग्न दूसरी ओर की मुलायम चट्टान का अपरदन कम होता हैं, क्योंकि हिमनद के द्वारा यहाँ पर चट्टान को संरक्षण प्राप्त होता है। इस कारण दूसरी ओर की ढाल मन्द हो जाती है।
  • इस प्रकार प्लग या बेसाल्ट वाले ऊँचे भाग को क्रेग (Crag) तथा उसके पीछे वाले भाग को पूँछ (Tail) कहते हैं।
फर्न
  • ऐसी बर्फ जो गर्मी के मौसम में न पिघल सके तथा हिमनद भी न बन सकी हो फर्न कहलाती है।
फियोर्ड
  • ऊँचे अक्षांशों के जलमग्न हिमानीकृत घाटियों को फियोर्ड कहते हैं। फियोर्ड मुख्य रूप से नार्वें, अलास्का, ग्रीनलैंड तथा न्यूजीलैंड में पाये जाते हैं।
श्रृंग
  • हिमनद क्षेत्र में नुकीली चोटी को श्रृंग (Horn) कहते हैं। स्विट्जरलैण्ड में आल्पस पर्वत स्थित मैटर-हॉर्न इसका प्रमुख उदाहरण है।
लटकती घाटी
  • यदि मुख्य हिमनद में कोई सहायक हिमनद ऊँचाई पर आकर मिले तो सहायक हिमनद घाटी को लटकती घाटी कहते हैं।
हिम स्खलन
  • यदि हिमनद का मार्ग ऊबड़-खाबड़ अथवा तीव्र ढाल का हो तो हिम ऊपर से नीचे की ओर गिरने लगती है, जिसे हिम स्खलन कहते हैं।
नीवी
  • फर्न का दूसरा नाम, जो आजकल कम प्रचलित हैं।

नूनाटक

  • विस्तृत हिमनदों के बीच ऊँचे उठे चट्टानी टीले, जो चारों ओर से हिम से घिरे हों। ये हिम से घिरे द्वीप के समान होते है।
रॉश मुटोने अथवा भेड़-पीठ के आकार की चट्टानें
  • हिमनदों के क्षेत्र में कुछ ऐसी हिम अपरदित भू-आकृतियाँ विकसित होती हैं, जो दूर से देखने पर ऐसी लगती हैं, जैसे-किसी खेत में भेड़ों का रेवड़ बैठा हो।
जिह्ना अथवा स्नाऊट
  • हिमनद के अग्रिम भाग को उसकी जिह्ना अथवा स्नाऊट कहते हैं। इसकी ढाल तीव्र होती है।
टार्न
  • सर्क के बेसिन में अधिक हिमभार तथा अधिक गहराई तक हिम के कारण नीचे की तली में अपरदन द्वारा गड्ढा बन जाता है। हिम के नीचे बने गड्ढे में जल एकत्रित हो जाता है, जिसे टार्न कहते हैं।
यू आकार की घाटी
  • हिमनद की घाटी को U-आकार की घाटी कहते हैं। इसके दोनो किनारों की ढाल खड़ी तथा हिमनद मार्ग चपटा होता है जिसमें यू-आकार की घाटी बनती है।

निक्षेपजनित भू-आकृतियाँ

  • हिमनद की निक्षेपजनित भू-आकृतियों में हिमोढ़ एस्कर, केमड्रमलिन तथा सन्दूर मुख्य हैं।
ड्रमलिन
  • हिमनद के निक्षेप द्वारा निर्मित भू-आकृतियों में ड्रमलिन एक प्रकार के रेत, कंकड़ आदि के छोटे-छोटे टीले होते हैं। इनका आकार उल्टी किश्ती की भाँति होता है।
  • इनकी ढलान असमान होती है। हिमनद के मुख की ओर का भाग खड़ी ढाल वाला तथा खुरदरा होता है परन्तु दूसरा पार्श्व मन्द ढाल का होता है।
एस्कर
  • हिम के पिघलने से छोटी-छोटी जलधाराएं उत्पन्न हो जाती हैं। इस जल के साथ बहते हुये अवसाद लम्बे, संकरे, लहरदार, कम ऊँचाई के कटक बनाते हैं, जिनको एस्कर कहते है।
केम
  • हिमनद के सामने अवसाद के छोटे-छोटे टीले निक्षेपित हो जाते हैं, जिनको केम कहते है।
हिमोढ़
  • हिमनद अपने साथ चट्टानों के अपक्षित अवसाद लुढ़काकर लाता है तथा मन्द ढ़लान के क्षेत्रें में उनको छोड़ देता है। इस प्रकार के निक्षेपों को हिमोढ़ कहते हैं, जिनमें अन्तिम हिमोढ़, पार्श्विक हिमोढ़, धरातलीय हिमोढ़, मध्यस्थ हिमोढ़, तथा तलस्थ हिमोढ़ मुख्य हैं। हिमोढ़ में रेत, मृदा, कंकड़, पत्थर आदि मिश्रित होते हैं।
हिमनद अपक्षेप
  • हिमनद का अग्रभाग पिघलने पर जल की धाराएँ हिमनद के सामने के क्षेत्र में बहने लगती हैं, जिनसे एक विशेष प्रकार का मैदान बन जाता है। ऐसे मैदान को अपक्षेप अथवा आऊट-वॉश अवक्षेप (Outwash Plain) कहते हैं।
सन्दूर अथवा सेन्दर
  • हिमनद तथा उसके पिघले जल से बना ऐसा मैदान, जिसमें कंकड़-पत्थर, रेत, मृदा इत्यादि के कण होते हैं। इस मैदान में जल की छोटी नालियाँ बहती हुई देखी जा सकती है। इस मैदान में मलबे तथा अवसादों के विभिन्न स्वरूप देखें जा सकते हैं।
टिल
  • यह एक प्रकार के हिमोढ़ हैं जो हिमनद अग्रिम भाग में एकत्रित होते है। इनको हिमनद अपक्षेप भी कहते है।

आकृति के अनुसार हिमानी के प्रमुख प्रकार-

हिमानी प्रकार विशेषताएं
सर्क हिमानी किसी पर्वत के पार्श्व पर बने कटोरेनुमा अवनमन में निर्मित हिमानी
घाटी हिमानी सर्क से निकलकर आगे घाटी की तली में बहने वाली हिमानी जैसे- हुवार्ड, सियाचिन।
फियोर्ड हिमानी किसी जलमग्न तटवर्ती घाटी में प्रवाहित होती है और इसका आधार सागर तल से नीचे स्थित होता है। इसका अग्र किनारा तीव्र ढाल वाला होता है, जो कैल्विंग के द्वारा टूटकर पृथक हो जाता है, फलतः यह पीछे हटता प्रतीत होता है।
पर्वतपदीय हिमानी किसी पर्वतीय घाटी में आबद्ध न होकर यह खुले ढालों पर पाया जाता है और इसे एक या अधिक वृहत घाटी हिमानियों से हिम की प्राप्ति होती है, जैसे- मेलास्पिना, अलास्का।
हिम टोपी गुम्बद के आकार का बर्फ एवं हिम पिंड, जो पर्वत या उच्च भूमि के शिखर को ढकी रहती है या उच्च अक्षांशों में निम्न भूमि पर भी विकसित हो जाती है। ये हिमटोपियां सामान्यतया बहिर्वर्ती अरीय अपवाह प्रदर्शित करते हैं। जैसे- बैफिन (कनाडा)।
हिम क्षेत्र किसी पर्वतीय क्षेत्र में हिम का व्यापक विस्तार जिसमें अनेक अन्तर्सम्बंधित अल्पाइन हिमनदियां समाहित रहती हैं। इसमें हिम टोपी जैसे गुम्बदाकार आकृति का अभाव रहता है। इसका प्रवाह नीचे स्थित स्थलाकृति द्वारा नियंत्रित होता है।
हिम चादर महाद्वीप के आकार के बर्फ का चादरी विस्तार, जो लगभग समस्त भूमि को अपनी सीमाओं के भीतर आच्छादित कर लेता है, जैसे- अंटार्कटिका, ग्रीनलैंड।
हिम शेल्फ मोटी हिमानी बर्फ, जो सागर पर तैरता रहता है और सामान्यतया तटवर्ती खाड़ी क्षेत्रें में अवस्थित रहता है, जैसे- रॉस फ्रलेशनर शेल्फ।

पवन

  • पवन के प्रभावी क्षेत्र वे होते हैं जो शुष्क या अर्द्धशुष्क हों, साथ ही वनस्पति का जहाँ अभाव हो। विश्व का एक-तिहाई भाग ऐसा ही है और वह पवनों की चपेट में है। वहाँ की नग्न चट्टानें खंडित होती रहती हैं और पवन उनके कणों को आसानी से उठा लेती हैं।
  • मृदा के कणों को धूल और कठोर च्टटानों के कणों को बालू कहते हैं। बालूकण कई किमी. की ऊँचाई तक पहुँच जाते हैं। मरूस्थलों में पवन की गति तेज होती हैं। वहाँ बालू के कण भारी मात्र में मिलते हैं।
  • बालू से युक्त पवन के थपेड़ों से वहाँ की नग्न पहाडि़यां खरोंची जाती हैं, घर्षित होती हैं और कटकर गिर जाती हैं। इस अपघर्षण में सन्निघर्षण भी सम्मिलित है जिससे चट्टानें चूर-चूर हो जाती हैं।
  • बालूकणों की मात्र अधिक होने पर और पवन की गति तेज होने पर अपरदन कार्य में तीव्रता आ जाती है।
  • पवन के झकोरे चारों ओर से आने पर अपरदन एक दिशा में न होकर सब दिशाओं में होने लगता है और वहाँ छत्रक शिला या गारा (gara) जैसी स्थलाकृति बन जाती है।
  • पवन की उड़ाव-क्रिया (अपवाहन) से मरूस्थलों में असंख्य गर्त बन जाते हैं। मंगोलिया में ये पवनगर्त ‘पांगक्यांग’ कहलाते हैं। उनकी गहराई सैकड़ों मीटर तक होती है।
  • सहारा में एक पवनगर्त सागरतल से 128 मीटर गहरा है जिससे स्पष्ट है कि पवन द्वारा अपरदन का आधारतल समुद्रतल से भी नीचा हो सकता है।
  • शुष्क प्रदेशों में कठोर और मुलायम चट्टानें एक साथ रहने पर प्रचलित पवनों से मुलायम भाग के असानी से कटने और कड़े भाग का प्रतिरोधी के रूप में बने रहने पर मेसा (mesa), ज्यूगेन (Zeugen) और यारदांग जैसी आकृतियाँ देखने को मिलती हैं।
  • कुछ मरुस्थलों में अपरदन से पुराना भूतल नष्ट हो जाता है और अवशेष रूप में वहाँ प्रतिरोधी चट्टानों के कुछ एकाकी टीले रह जाते हैं जिन्हें इंसेलबर्ग (inselberg) कहते हैं।
  • बालुका स्तूप (sand dune) पवन के निक्षेपण कार्य का प्रतीक है जिसमें धनुषाकार या अर्द्धचंद्राकार बालू टिब्बा देखने को मिलता है।
  • इस बालू-निक्षेप की ढाल पवन की दिशा में मंद और उत्तल (convex) होती हैं। बालू के ऐसे स्तूप को तुर्किस्तान में बरकान (barchan) कहा जाता है।
  • यह बालुका स्तूप एक स्थान पर स्थिर न रहकर पवन के साथ खिसकता रहता है। थार में इसकी ऊँचाई 60 मीटर और सहारा में 200 मीटर तक देखी जाती है।
  • पवन-दिशा के समानांतर बनने वाले बालुका स्तूप को ‘पवनानुवर्ती या अनुदैर्घ्य बालूका स्तूप’ (टिब्बा) कहते हैं। पवन-दिशा पर समकोण बनाते हुए जब यह विस्तृत होता है तो इसे ‘अनुप्रस्थ बालुका स्तूप’ कहा जाता है ।
  • लोएस धूल और बालू के महीन कणों का निक्षेप है। चीन में लोएस मैदान का निर्माण मंगोलिया के गोबी मरूस्थल से उड़ाकर लाई गई धूल से हुआ है।

निक्षेपित भू-आकृतियां

  • पवन के द्वारा निर्मित भू-आकृतियों पर चट्टानों की संरचना, जलवायु, रेत की मात्र, तथा पवन की गति का गहरा प्रभाव पड़ता है। पवन अपरदन के द्वारा निर्मित कुछ मुख्य भू-आकृतियों का संक्षिप्त वर्णन निम्न हैः
छत्रक शिला
  • मरूस्थलों में किसी चट्टान का ऊपरी भाग कठोर तथा उसके नीचे की चट्टान मुलायम हो तो पवन नीचे की चट्टान को अधिक काटती है। ऊपर की चट्टान में अपरदन कम होता है। फलस्वरूप एक छत्रक भू-आकृति विकसित हो जाती है।
यारडांग

यारडांग बनने का प्रमुख कारण है - yaaradaang banane ka pramukh kaaran hai

भूस्तम्भ
  • मरूस्थलों में जहाँ ऊपर कठोर परत पतली तथा उसके नीचे मुलायम मोटी परत की चट्टान होती है, वहाँ कठोर चट्टान का अपरदन नहीं हो पाता क्योंकि ऊपर की कठोर चट्टान नीचे की मुलायम चट्टान को संरक्षण देती रहती है।
  • परन्तु समीपी कोमल चट्टान का अपरदन होता रहता है। जिस कारण अगल-बगल की चट्टानें कट जाती हैं और भू-स्तम्भ जैसी भू-आकृति विकसित हो जाती है।
ड्राइकान्टर
  • पथरीले मरूस्थलों में पवन कुछ चट्टान के टुकड़ों को रेगमाल की भाँति रगड़कर चिकना कर देती है। ऐसी चिकनी पथरियों को ड्राइकान्टर कहते हैं।
इन्सेलबर्ग
  • इन्सेलबर्ग जर्मन भाषा में एक द्वीपीय पर्वत को कहते हैं। वास्तव में विस्तृत रेगिस्तानी क्षेत्र में कठोर चट्टान के सामान्य से ऊँचे टीले ऐसे लगते हैं जैसे द्वीप हों।
  • इनका ढाल तीव्र होता है तथा इनके आधार पर मृदा आदि का निक्षेप नहीं मिलता है।
  • उत्तरी आस्ट्रेलिया की उलेरू चट्टान (Ayers Rock) इन्सेलबर्ग का एक उदाहरण हैं।
बहाड़ा अथवा बजादा
  • बजादा स्पेनिश भाषा का शब्द है। इस शब्द का अर्थ किसी पर्वत के सामने की ढलान पर हवा के द्वारा कुछ अवसादों को जमा करना है। ऐसे चबूतरे को बजादा कहते हैं।
बरखान
  • बरखान तुर्की भाषा का शब्द है। दूज के चाँद की आकृति के बने रेत के टीलों को बरखान कहते हैं। बरखान-रेत के टीले ऐसे मरूस्थलों में पाये जाते हैं, जिनमें रेत की मात्र कम तथा पवन मध्यम अथवा सामान्य गति से चलती हो।
रेत के टीले अथवा स्तूप
  • गति मद्धिम पड़ने पर पवन अपने रेत और धूल को निक्षेप के रूप में छोड़ने लगती हैं। पवन के इन निक्षेपों को रेत के टीले अथवा रेत के स्तूप कहते हैं।
रेत के इन टीलों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जाता हैः-

यारडांग बनने का प्रमुख कारण है - yaaradaang banane ka pramukh kaaran hai

  • पवन द्वारा उड़ाकर लाई गई धूल यदि निक्षेप का रूप धारण कर ले तो उसे लोयस कहते हैं। लोयस निक्षेप में परतें नहीं होतीं। इसका सबसे बड़ा क्षेत्र उत्तरी चीन के शांसी तथा शांसी राज्यों में पाया जाता है।
  • ह्नांग-हो नदी लोयस क्षेत्र से होकर बहती हैं। मध्य एशिया, यूरोप, अर्जेन्टीना तथा उत्तरी अमेरिका के मैदानों में भी लोयस मृदा के निक्षेप पाये जाते हैं। यह मृदा बहुत उपजाऊ होती है।
पेडीमेंट
  • पेडीमेंट शब्दावली का उपयोग सब से पहले गिल्बर्ट ने किया था। मरूस्थल के मन्द पवर्तीय ढलान पर जहाँ जलोढ़ के निक्षेप पाये जाएं पेडीमेन्ट कहलाते हैं।
रिपिल
  • मरूस्थलों एवं सागर के तटों पर छोटे-छोटे लहरदार निक्षेप को रिपिल कहते हैं।

भूमिगत-जल द्वारा निक्षेप

  • चट्टानों एवं उनके छिद्रों में पाये जाने वाले जल को भूमिगत जल कहते हैं। यद्यपि थोड़ी बहुत मात्र में सभी चट्टानों में जल पाया जाता है।
  • अधिकतर जल परतदार चट्टानों में पाया जाता है। भूमिगत जल द्वारा निर्मित भू-आकृतियाँ विशेष रूप से कार्स्ट क्षेत्र (चूना-पत्थर) में अधिक देखी जा सकती है।
  • कार्स्ट भू-आकृति क्रोएशिया, बोसानिया तथा सर्बिया के कर्स पठार (Kars Plateall) में विस्तृत रूप में पाई जाती है। इस पठार पर भूमिगत जल के द्वारा निर्मित बहुत-सी विचित्र भू-आकृतियाँ देखी जा सकती है।
कार्स्ट भू-आकृति के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ
  • भूमिगत जल द्वारा निर्मित भू-आकृतियों के लिए निम्न परिस्थितियों की आवश्यकता होती हैः
  • धरातल के निकट चूने की चट्टानों की मोटी परत होनी चाहिये। चूने की परतदार चट्टानों में जोड़ पर्याप्त मात्र में होने चाहिये।
  • चूने की परतों में नदियों की विस्तृत तथा गहरी घाटियाँ होनी चाहिये। जलवायु आर्द्र-शीतोष्ण होनी चाहिये जिसमें मूसलाधर वर्षा न होती हो। उस क्षेत्र में औसत वार्षिक वर्षा अधिक न हो बल्कि सामान्य वर्षा के क्षेत्र हों।

कार्स्ट भू-आकृतियां

एवेन
  • यह फ्रेंच भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है शाफ्रट (shaft)। शाफ्रट प्रकार का निकास अथवा द्वार जिस द्वार से किसी गुफा में प्रवेश किया जाये।
कारेन अथवा लैपीज
  • कार्स्ट प्रदेश में घुलन क्रिया के फलस्वरूप ऊपरी सतह अत्यधिक ऊबड़-खाबड़ तथा असमान हो जाती है। इस प्रकार की भू-आकृति को लैपीज अथवा कारेन कहते हैं।
गुफा
  • चूने के पत्थर वाली परतों में पानी के द्वारा बने चैम्बर। ये भू-गर्त चैम्बर कई किमी- लम्बे हो सकते हैं।
प्राकृतिक सेतु
  • कार्स्ट टोपोग्राफी में पानी के द्वारा बने प्राकृतिक पुल। ये किसी नदी को चूने की चट्टानों में लुप्त होने से बनते हैं।
पोनोर
  • एक लम्बवत् छिद्र, जो गुफा को सतह से जोड़ता है।
घोलरंध्र
  • किसी कार्बन के नीचे धंसने से पैदा होने वाले छिद्र, जिनके द्वारा पानी छन कर नीचे जाता है।
युवाला
  • चूने की चट्टानों में निरन्तर घोलीकरण के फलस्वरूप एक बड़े गर्त का निर्माण हो जाता है, जिसको युवाला कहते हैं।

भूमिगत जल द्वारा निक्षेपित भू-आकृतियाँ

गुफा-स्तम्भ
  • कार्स्ट क्षेत्र में स्टैलेक्टाइट एवं स्टेलेगमाइट के जुड़ जाने से बने स्तम्भ गुफा स्तम्भ कहलाते हैं।
स्टैलेक्टाइट
  • भूमिगत कन्दराओं में जब जल रिसाव होता है तो छत में अवसाद के बारीक कण निक्षेप का रूप धारण कर लेते हैं जिनका स्टैलैक्टाइट कहते हैं।
स्टैलेग्माइट
  • कार्स्ट क्षेत्र में यदि छत से रिसने वाले जल की मात्र कुछ अधिक हो तो वह टपक कर कन्दरा के फर्श पर गिरता है। इस प्रकार कन्दरा के फर्श पर निक्षेपात्मक स्तम्भ का निर्माण हो जाता है, जिनको स्टैलेग्माइट कहते हैं।
टैरारोजा
  • कन्दरा के फर्श पर निक्षेपात्मक मृदा जिसका रंग लाल होता है। इसका लाल रंग आयरन-ऑक्साइड (Iron-oxide) के कारण होता जाता है।

समुद्री लहरें (सागरीय तंरगें)

  • समुद्री लहरें या तरंगें समुद्री सतह से पवन के घर्षित होने से उत्पन्न होती हैं। ये दो प्रकार की होती हैं- प्रगामी (progressive) और दोलनी (oscillatory)।
  • प्रगामी तरंगें पवन की दिशा में आगे बढ़ती हैं, जबकि दोलन तरंगों का संचरण ऊपर-नीचे होता है, अर्थात लहरें ऊपर उठती और नीचे गिरती हैं, दोलायमान होती हैं।
  • वृत्ताकार गति से तट की ओर बढ़ती हुई तंरगें तट के निकट बालू, कंकड़ आदि पदार्थ पाकर अपरदन कार्य करने में सशक्त हो जाती हैं।
  • समुद्री तरंगों के दो और प्रकार हैं- अनुप्रस्थ (transverse) एवं अनुदैर्घ्य (ongitudinal)। अनुप्रस्थ तरंगें गहरे जल में उत्पन्न होती हैं जबकि अनुदैर्घ्य तंरगें छिछले जल में।
  • अनुप्रस्थ तरंगें संचरण की दिशा में, धीमी गति से कुछ दूर तक जाती हैं, जबकि अनुदैर्घ्य तरंगों का वेग अधिक होता है और साथ ही लंबाई भी अधिक होती है।
  • जल के अभाव में अनुदैर्घ्य तरंगें अपने शीर्ष पर कुंतल (curl) बनाती हैं जिसके टूटने पर वह फेनिल लहरों में परिवर्तित है। ऐसी टूटती या टकराती लहरों को उद्धावन (swash) कहते हैं और समुद्र की ओर इनके पुनर्संचरण को पश्चधावन (backwash) कहते हैं।
  • स्थलाकृति के विकास में अनुदैर्घ्य तंरगों की भूमिका होती है जबकि अनुप्रस्थ लहरें केवल दोलन उत्पन्न करती हैं।
  • समुद्री लहरों द्वारा तटों का अपरदन (नदियों की तरह) मुख्यतः चार प्रकार से होता है-जलदाब क्रिया, अपघर्षण, सन्निघर्षण और रासायनिक क्रिया द्वारा।
  • लहरें तट से टकराकर अपने भीषण दाब से उसमें दरारें उत्पन्न कर देती हैं। तट पर खड़ी कगार बन जाती है। तटीय चट्टानों के टुकड़ों से युक्त लहरें खड़ी कगार को आघात पहुँचाकर अपघर्षित करती हैं।
  • तटों से टकराकर ये टुकड़ें छोटे होते जाते हैं और फिर आपस में एक-दूसरे से टकराकर (सन्निघर्षण से) महीन होकर बालू और बालुकातट (beach) का निर्माण करते हैं।
  • घुलनशील चट्टानों से टकराकर लहरें वहाँ गढ्डे बना देती हैं जो बढ़कर गुफाओं (sea caves) में परिणत हो जाती हैं। रासायनिक क्रिया सीमित क्षेत्रें में होती है।
समुद्री लहरों द्वारा अपरदन जिन कारकों से प्रभावित होता है वे हैं-

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समुद्री लहरों के अपरदन से बनने वाली महत्त्वपूर्ण आकृतियाँ ये हैं-

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  • भृगु का निर्माण जलदाब क्रिया और अपघर्षण से होता है जिसमें तटीय चट्टानों के निचले भाग के कटकर गिर जाने से खड़ा तट बन जाता है।
  • समुद्री गुफाएँ भी इसी तरह बनती है जब लहरों का कटाव क्रमशः बढ़ता जाता है। समुद्र की ओर निकले पतले स्थल भाग पर जब दो विपरीत दिशाओं से गुफाएँ बनने लगती हैं तो वहाँ समुद्री द्वार बन जाता है।
  • कालांतर में मेहराब के टूटने पर स्थल का खड़ा भाग स्तंभ (stack) की आकृति ले लेता है, जो कट-छँटकर छोटा होने पर स्केरी कहलाता है।
  • भृगु का निर्माण होते ही उसके आधार पर लहरों का आघात जारी रहता है और वहाँ तरंग घर्षित वेदिका के चबूतरे का निर्माण होने लगता है।
  • समुद्री चबूतरे का निर्माण लहरों के निक्षेपण कार्य से भी होता है। लहरों के निक्षेपण से बनने वाली दूसरी महत्त्वपूर्ण आकृति पुलिन या बालुकातट (sea beach) है।
  • तटस्थ बांध या रोधिका (bar) और लैगून (lagoon) का निर्माण भी लहरों द्वारा तटीय क्षेत्र पर अपना प्रभाव बनाए रखती हैं।

अपरदन द्वारा निर्मित भू-आकृतियाँ

मेहराब अथवा आर्च
  • सागर के तट पर आर्च या मेहराब उस समय बनते हैं जब सागर की लहरें तट को काट कर पीछे की ओर धकेल रही हो। यदि ऐसे मेहराब की छत गिर जाये तो वह एक स्तम्भ (सलून) (Stack) का रूप धारण कर लेता है।
तटीय-क्लिफ
  • सागरीय तरंगों के द्वारा निर्मित तट के खड़े ढाल को तटीय क्लिफ कहते हैं।
तटीय गुफा (Sea-Cave)
  • सागर तट पर सागरी लहरों के द्वारा बनी गुफा को तटीय गुफा कहते हैं।
स्टैक
  • सागर के तट पर लहरों के अपरदन से बने मेहराब की यदि छत गिर जाये तो वह स्टैक का रूप धारण कर लेता हैं।
  • इसका निर्माण उस समय होता है, जब चट्टान का कोमल भाग घुल जाये तथा कठोर चट्टान स्टैक के रूप में छोटे हो जाते हैं।
तरंगघर्षित प्लेटफॉर्म
  • सागरीय लहरें तट के खड़े ढाल को काट-छाँट कर पीछे की ओर धकेलती हैं। लहरों के निरन्तरी कटाव से खड़ा ढाल एक प्लेटफार्म में बदल जाता है। इस प्लेटफार्म का ढलान सागर की ओर होता है। इस प्लेटफार्म को सागर की लहरें घर्षित करती रहती हैं।

निक्षेपित भू-आकृतियाँ:-

बीच अथवा पुलिन
  • सागर के तट पर रेत, कंकड़ मृदा के द्वारा निर्मित चबूतरे।
रोधिका तथा बार
  • रोधिका के तट पर सागरी लहरों के द्वारा बने रेत के छोटे कटक अथवा बार। इनका रूप कई प्रकार का होता है
स्पिट
  • जब सागरीय अवसाद का निक्षेप इस तरह हो कि वह रोधिका के रूप में जल की ओर निकला हुआ हो तो उसको स्पिट कहते हैं।
टोम्बोलो
  • यदि तट के सहारे दो रोधिकाओं का विस्तार इतना अधिक हो या जाये कि दो शीर्षस्थलों (Headlands) को या दो द्वीपों को जोड़ दें तो उसे टोम्बोलों कहते हैं।

निक्षेपात्मक स्थलाकृतियां-

स्थलाकृति विशेषताएं उत्पत्ति
पुलिन मंद ढाल वाली, अवतल एवं बजरी के संचयन से निर्मित, जो तटाग्र एवं पश्चतट पर विस्तृत होता है। तरंग घर्षित प्लेटफार्म एवं क्लिफ के पीछे हटने से प्राप्त मलवे के निक्षेपण से निर्मित जो अधिकांशतः खाडि़यों एवं लघु निवेशिकाओं में अवस्थित होता है। अभितटीय (onshore) मलवे के निक्षेपण एवं घटती तरंग ऊर्जा का उत्पाद है।
रोधिका एक जलमग्न निक्षेपणात्मक टीला या कटक। रेत एवं बजरी से निर्मित। धाराओं एवं अवसाद-आपूर्ति पर निर्भर
स्पिट अवसादों के निक्षेप से निर्मित एक लम्बा कटक, जो वेलांचली धाराओं (longshore current) की दिशा में विस्तृत होते हैं। मुख्यतः रेत से निर्मित होते हैं। वेलांचली धाराओं के द्वारा निक्षेपण से निर्मित।
टोम्बोलो अवसादों से निर्मित एक कटक, जो किसी द्वीप को तट से जोड़ता है। मुख्यतः रेत से निर्मित है। द्वीप के चारों ओर तरंगीय वर्तन के कारण होने वाले निक्षेपण से निर्मित।
अवरोधी द्वीप तटरेखा के समानांतर एक लम्बा रैखिक द्वीप। रेत एवं बजरी से निर्मित। स्थानीय भू-विज्ञान पर निर्भर।
लैगून एक अवरोधी द्वीप या कार्बोनेट भित्ति के पीछे एक शांत जल क्षेत्र। तरंग अवरोध अपने विमुखी दिशा पर शांत जल का निर्माण करते हैं।

तटों के प्रकार

  • सागर तट वह क्षेत्र है जिस पर सागर की लहरें अपना अपरदन तथा निक्षेपीकरण करती हैं। कुछ मुख्य तटों के प्रकार निम्न हैं:-
डाल्मेशियन तट
  • ऐसे तट सामान्यतः तटीय रेखा के समानान्तर होते हैं। भूमध्य सागर में एड्रियाटिक सागर का तट इसी प्रकार का है। उत्तरी अमेरिका के पश्चिमी तट भी इसी प्रकार के हैं।
फियोर्ड तट
  • हिमनद की तटीय यू-आकार की घाटियाँ यदि जलमग्न हो जाये तो ऐसे तट को फियोड तट कहते हैं। नार्वें, ग्रीनलैण्ड तथा न्यूजीलैंड के तट इसी प्रकार के हैं।
रिया तट
  • यदि तट के निकट किसी नदी की घाटी जलमग्न हो जाये तो तो उसे रिया तट कहते हैं।
  • ये ‘V’ आकार की घाटी तथा ढलुए किनारे वाली होती है। इनकी गहराई समुद्र की ओर क्रमशः बढ़ती जाती है। प्रायद्वीपीय भारत के पश्चिमी तट का उत्तरी भाग रिया तट का अच्छा उदाहरण है।

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अपरदन का सामान्य चक्र

  • विगत दो शताब्दियों में कुछ भूवेत्ताओं ने ‘अपरदन के सामान्य चक्र’ की परिकल्पना को न केवल जन्म दिया, बल्कि इसका विकास भी किया।
  • ब्रिटिश भूगोलवेत्ता जेम्स हटन को यदि इसका प्रणेता माना जाए तो अमेरिकी भूगोलवेत्ता विलियम मॉरिस डेविस को इसका विधिवत प्रस्तुतकर्ता। भूगोल में अपरदन चक्र की अवधारणा डेविस की ही देन मानी जाती हैं।
  • धरातल पर किसी स्थलाकृति का विकास एकाएक नहीं होता, बल्कि एक विशेष प्रक्रम में होता हैं, अर्थात प्रक्रिया कई अवस्थाओं (stages) से गुजरती है और एक चक्र (cycle) में संपन्न होती है। डेविस ने इसे ‘भौगोलिक चक्र’ (geographical cycle) नाम दिया।
  • पृथ्वी पर आंतरिक शक्ति तो काम करती है, बाह्य शक्ति भी (प्रक्रियाओं के द्वारा) कार्य करती है। भूसंचलन से प्राकृतिक उभार आता है, विषमताएँ बढ़ती हैं तो बाह्य शक्ति (अपक्षय और अपरदन के अभिकर्ताओं द्वारा) उन्हें मिटाने का काम करती है, अर्थात समतल-स्थापन कार्य करती है।
  • यह क्रिया युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था-इन अवस्थाओं से होकर आगे बढ़ने पर ही पूरी होती है। कोई उच्चभूमि अपरदन की इन अवस्थाओं को पारकर समतल भूमि में बदल जाए तो विकास की क्रिया पूरी मानी जाती है।
  • अपरदन चक्र एक अवधि है जिसमें स्थलखंड की सभी विषमताएँ समाप्त हो जाती हैं। अपरदन चक्र भिन्न-भिन्न प्रक्रम दूतों (जैसे- हिमनद, पवन, सागर की लहरें) द्वारा संपन्न होते हैं।
  • इस आधार पर अपरदन चक्रों के कई भेद हैं, किंतु संसार में बहता हुआ जल या नदी सामान्यतः सर्वत्र उपलब्ध प्रक्रम है। इसकी सर्वव्यापकता के कारण इसके अपरदन चक्र को अपरदन का सामान्य चक्र स्वीकार किया गया।

मनोवृत्ति या अभिवृत्ति…