वन विनाश का पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है? - van vinaash ka paryaavaran par kya prabhaav padata hai?

वनों के लगातार विनाश से गहरा रहा पर्यावरण संकट

गोड्डा, संसू: दिनों दिन बिगड़ता पर्यावरण आज के समय की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। विभिन्न स्तर पर लोग पर्यावरण समस्या से जूझ रहे है। जिसका तात्पर्य वायु, जल जमीन का लगातार हो रहे प्रदूषण से है। प्राकृतिक रूप से इन तीनों को प्रदूषण से रोकने वाला एक ही कारक है पेड़-पौधे। लेकिन लगातार वनों के ह्रास से स्थिति विकट होती जा रही है।

संतुलन के लिए 33 फीसदी वन जरूरी

पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार पर्यावरण संतुलन के लिए आवश्यक है। पृथ्वी के 33 फीसदी हिस्सों पर वनों का होना। लेकिन देश में जहां करीब 24 फीसदी व राज्य में 28 फीसदी वन क्षेत्र है। वही जिले में मात्र 8.5 फीसदी ही वन क्षेत्र है।

पूरा नहीं हुआ लक्ष्य

सरकार ने 2012 तक 33 प्रतिशत वन क्षेत्र पूरा करने का लक्ष्य रखा था लेकिन यह लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया। भले ही कारण जो हो पर्यावरण से जुड़े जानकार मानते है कि अगर राज्य में कोशिश की जाए तो समस्त विकास के साथ जंगल का अधिकतम औसत 46 फीसदी तक किया जा सकता है। लेकिन स्थिति उलट है। जितने वन लग नहीं रहे उतने वन कटते जा रहे है।

गंभीर हो रही जल संकट की समस्या

देश व राज्य ही नहीं जिला भी लगातार जल संकट से जूझ रहा है। पिछले एक दशक में स्थिति और भी भयावह हुई है। भूजल स्तर लगातार गिर रहा है। अंधाधुंध बोरिंग हो रहे है। कभी जिले में वर्ष भर में 18 सौ से दो हजार मिमी वर्षा हुआ करती थी। आज यह घटकर आठ सौ से एक हजार किमी तक रह गई है। कारण स्पष्ट है लगातार जंगलों का ह्रास होना।

शुद्ध पेयजल मिलना गंभीर चुनौती

पर्यावरण संबंधी समस्या में जो बड़ी समस्या है, वह है शुद्ध पेयजल प्राप्त करना। लेकिन जिले के शहरी व ग्रामीण क्षेत्र में आज भी लोगों को शुद्ध पेयजल नहीं मिल पा रहा है। भारत में 1860 भारतीय दंड संहिता में जल प्रदूषण को रोकने का प्रावधान है। 1974 में पहली बार जल प्रदूषण(निरोध व नियंत्रण) कानून बना इसके तहत 1986 में केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड की स्थापना की गयी लेकिन इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता है की पेयजल उपलब्ध कराने की दिशा में क्रांतिकारी बदलाव आया। आम लोगों के लिए पानी मिलना आज भी गंभीर चुनौती है। पर्यावरण के लिए वायु प्रदूषण भी एक गंभीर समस्या है। इससे भी लोग कई बीमारी से ग्रसित हो रहे है।

कारगर नहीं वन संरक्षण अधिनियम

1980 में सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया। पर्यावरण के इतिहास में इसे महत्वपूर्ण माना गया लेकिन इसके बावजूद वनों का ह्रास रोकने में बहुत बड़ा बदलाव नहीं आया। जिला राज्य व देश के वन क्षेत्र आज भी जलावन व इमारती लकड़ी आम लोगों की जरूरत को पूरा करता है। इसकी मजबूरी भी है लेकिन उस अनुपात में वन नहीं लग रहे।

नहीं होता पर्यावरण दिवस का प्रचार प्रसार

पांच जून को पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। लेकिन इस महत्वपूर्ण दिवस पर खानापूर्ति ही होती है। दो, चार, दस पौधे लगा दिए काम खत्म हो गया है। वन विभाग भी उसके प्रति गंभीर नहीं है।

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उत्तर : वन किसी भी देश की अमूल्य सम्पदा तथा पर्यावरण का एक प्रमुख अंग है। वनों से न सिर्फ उपयोगी वस्तुएं जैसे इमारती लकड़ी, ईधन की लकड़ी,रबड़,सेल्योलाज, कत्था, लाख, गोंद, उपयोगी जड़ी–बूटियाँ आदि प्राप्त होती हैं, वरन् इनसे जलवायु सन्तुलित रहती है, वन्य जीवन संरक्षित रहते हैं एवं मृदा का कटान नहीं होता है । अनुकूल परिस्थितियाँ मिलने पर वन स्वतः पल्लवित होते रहते हैं तथा अगर उनकी सीमित कटाई भी की जाय तो वह हानिकारक नहीं होती। पर जनसंख्या में वृद्धि, लकड़ी का विविध उपयोगों में प्रयोग तथा व्यावसायिक एवं व्यापारिक उद्देश्य से जब वनों की कटाई शुरू हुई तो वनों का क्षेत्र लगातार कम होने लगा। वनों के क्षेत्र में कमी आना एवं अनियमित कटाई को ही दूसरे शब्दों में वन विनाश अथवा वनोन्मूलन कहते हैं,जो पर्यावरण को असन्तुलित करने या उसके स्तर को गिराने अथवा अवकर्षित करने का मुख्य कारण है । सभ्यता की दौड़ में अन्धा हुआ मानव वनोन्मूलन कर न सिर्फ स्वयं की हानि कर रहा है वरन् अपने भविष्य को भी अन्धकार पूर्ण बना रहा है।

अकेले दक्षिणी तथा दक्षिणी पूर्वी एशिया से 1950–75 के मध्य करीब 12 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र से वनों को काटा जा चुका है एवं इस शताब्दी के अन्त तक इनके विनाश की सीमा 20 करोड़ हेक्टेयर तक पहुंच जायेगी तथा यही क्रम चलता रहा तो 40–50 वर्षों में ये खत्म हो सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो न सिर्फ असंख्य वनस्पति समूहों तथा जीव–जन्तुओं का विनाश होगा वरन् प्राकृतिक वातावरण पर इनका जो विपरीत प्रभाव होगा वह मानव जाति हेतु सर्वाधिक विनाशकारी सिद्ध होगा। यही नहीं अपितु आज विश्व के हर भाग में जो वनों का विनाश हो रहा है उसका प्रभाव क्षेत्रीय तथा स्थानीय स्तर पर देखा जा रहा है।

वनोन्मलन के कारण

वनोन्मूलन मानव की विकास यात्रा का परिणाम है, हालांकि यदा–कदा प्राकृतिक कारण अथवा वनाग्नि भी इन्हें नष्ट करती है पर यह उतनी हानिकारक नहीं जितना कि मानव द्वारा विनाश । वन विनाश के मुख्य कारण निम्न हैं–

1. कृषि के लिए– नि:स्सन्देह विश्व में आज हमें जो कृषि क्षेत्र दृष्टिगत होता है उसमें से ज्यादातर वनों को साफ कर प्राप्त किया गया है। यह जरूरी भी था क्योंकि भोजन मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकता है। पर जब जनसंख्या में वृद्धि हुई तथा वर्तमान में यह वृद्धि तीव्रतम होती जा रही है तो वनोन्मूलन का प्रारम्भ हुआ जो आज एक समस्या बन गया है। कृषि अवश्य होनी चाहिये पर यदि इसके लिये वनों को समाप्त किया जायेगा तो कृषि पर भी विपरीत प्रभाव होगा।

2. निर्माण कार्यों के लिए वनोन्मूलन–जनसंख्या वृद्धि, नगरों का फैलाव, आवासीय भूमि की आवश्यकता में वृद्धि, उद्योगों, रेल–लाइनों, सड़कों का विस्तार एवं नदियों पर बड़े बाँधों का निर्माण भी वनोन्मूलन का मुख्य कारण है,क्योंकि ज्यादा क्षेत्र की आवश्यकता वनों को साफ करके ही पूरी की जा सकती है।

3. काष्ठ, ईंधन तथा अन्य उपयोग के लिए वनोन्मूलन– वनों से प्राप्त लकड़ी के विभिन्न उपयोग करना मानवीय प्रवृत्ति रही है तथा सभ्यता के विकास के साथ–साथ यह प्रवृत्ति कम होने के स्थान पर अधिक से अधिकतम होती जा रही है । ईधन हेतु लकड़ का प्रयोग मानव शुरू से करता आ रहा है। विकसित देशों में अन्य ऊर्जा के स्त्रोतों का विकास हो जाने से इनका प्रयोग खत्म हो गया है, पर विकासशील देशों में ईंधन के रूप में लकड़ी का प्रयोग आज भी होता है तथा यह वनोन्मूलन का मुख्य कारण है। इसी तरह लकड़ी का उपयोग भवन निर्माण, फर्नीचर, जहाज, रेल के डिब्बे, रेल लाइनों के स्लीपर, कागज, सेल्योलाज, आदि के निर्माण हेतु किया जाता है । इनके लिये विशाल मात्रा में व्यापारिक वन कटाई होती है । कनाड़ा,स्केन्डिनेविया, सोवियत रूस में एवं उष्ण कटिबन्धीय वनों का व्यापारिक स्तर पर शोषण आज पर्यावरण संकट का कारण बन गया है। कई उद्योगों जैसे कागज, दियासलाई, धागे, रबड़, पेन्ट वार्निश, रेजिन, कत्था, प्लाईवुड, लाख आदि के लिये भी वनों को काटा जाता है। अनुमान है कि विश्व में लकडी उत्पादों से प्रति वर्ष 216 अरब रुपयों की आय होती है । निश्चित है कि यह वनोन्मूलन का प्रमुख कारण है।

4. खनिज खनन हेतु वनोन्मूलन– खनिजों हेतु विस्तृत भूमि की खुदाई की जाती है, फलस्वरूप उन क्षेत्रों में वनों का खत्म होना निश्चित है। विश्व के ज्यादातर देशों में जहाँ व्यापारिक खनन होता है वनों के क्षेत्र में कमी आ जाती है। भरात में उड़ीसा, प. बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश के खनिज प्रदेश इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । स्थानीय तथा क्षेत्रीय स्तर पर भी इसका प्रभाव वन विनाश के रूप में पड़ता है, पर खनिजों से होने वाले लाभ ज्यादा होने से यह विनाश अवश्यंभावी हो जाता है।

उपर्युक्त कारणों के अलावा पशु–चारण द्वारा तथा औद्योगिक कच्चे माल के लिए भी वन विनाश होता है । भू–स्खलन, हिम–स्खलन, वनों में लगने वाली आग भी इनके विनाश का कारण होती है । संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि वनोन्मूलन हेतु मानव की लकड़ी उत्पादन की जरूरत में लगातार वृद्धि ही मूल कारण है।

वनोन्मलन के दुष्प्रभाव

वनोन्मूलन के मुख्य दुषभाव निम्न हैं–

1. जुलवायु का असन्तुलित होना – वन जलवायु के नियन्त्रक होते हैं अर्थात् वन आर्द्रता में वृद्धि करते हैं, वर्षों में सहायक होते हैं, वर्षा में सहायक होते हैं एवं तापमान को नियन्त्रित रखते हैं। जैसे ही उनका विनाश होता है वायु–मण्डल में नमी की कमी आ जाती है, परिणामस्वरूप वर्षा की मात्रा लगातार कम होती जाती है, तापमान में वृद्धि होने लगती है, शुष्कता का विस्तार होता है अर्थात् मरुस्थलीकरण शुरू हो जाता है।

2. मृदा–अपरदन में वृद्धि–वन मृदा के संरक्षक होते हैं अर्थात् वृक्षों की जड़ें भूमि को जकड़े रहती हैं, जिससे वह संगठित रहती है तथा अपरदन नियन्त्रित रहता है । दूसरी तरफ वनों के कट जाने से मृदा–अपरदन ज्यादा हो जाता है । हिमालय के निचले ढालों पर वनों के लगातार कट जाने से यह समस्या बहुत हो गई है। इसी तरह वनस्पति के अभाव में मरुस्थलीकरण तीव्रता से विस्तृत होता जाता है।

3. बाढ़–प्रकोप में वृद्धि–वन जल को नियन्त्रित रखते हैं तथा पर्याप्त मात्रा में उपयोग भी करते हैं। वनोन्मूलन से जल ढालों पर तीव्र गति से प्रवाहित होकर मैदानी भागों में बाढ़ के प्रकोप का कारण बनता है। बिहार की नदियों में बाढ़ का ज्यादा प्रकोप इसका उदाहरण है।

4. प्राकृतिक जल स्त्रोतों का सूखना तथा भूमिगत जल स्तर का गिरना–वनों के विनाश से कई प्राकृतिक जल स्त्रोत खत्म होते जा रहे हैं तथा इसके कारण भूमिगत जल स्तर नीचे जा रहा है । वर्षा की कमी तथा तापमान में वृद्धि एवं वृक्षों द्वारा वाष्पीकरण रोकने की प्रक्रिया खत्म होने से इसका दुष्प्रभाव बढ़ रहा है।

5. वन्य जीवों का विनाश–वर्तमान विश्व में वनों के खत्म होने से अनेक वन्य जीव विलुप्त हो गये हैं एवं कई प्रजातियों की संख्या में बहुत कमी आ गई है।

उपर्युक्त दुष्प्रभावों के अलावा पशुचारण क्षेत्रों की कमी, प्राकृतिक सुरम्यता में कमी, प्रदूषण की वृद्धि, मरुस्थलीकरण की वृद्धि,बंजर भूमि का विकास, आदिवासी जातियों के आवास की समस्या, आदि प्रभाव भी वन–विनाश के हैं । असल में वन पारिस्थितिक–तन्त्र को परिचालित करते हैं एवं पर्यावरण को नियन्त्रित रखते हैं, इनका उन्मूलन उसे असन्तुलित कर देता हैं जो पर्यावरण अवकर्षण का मुख्य कारण है।

जंगलों के विनाश के क्या क्या प्रभाव पड़ते हैं?

जंगलों को वायुमंडल में मिलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड गैस के अवशोषण का सबसे बड़ा माध्यम माना जाता है, पर इन्ही जंगलों के कटने से प्रतिवर्ष जितनी कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंडल में मिल रही है उसकी मात्रा लगभग उतनी है, जितनी कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन पूरा यूरोप करता है, या फिर दुनिया भर की कारें सम्मिलित तौर पर जितने ...

वनों के विनाश का मुख्य कारण क्या है?

स्थानीय , प्रादेशिक और विश्वस्तरों पर वन विनाश के निम्न कारण बताये जा सकते है – वनभूमि का कृषिभूमि में परिवर्तन , झूम कृषि , वनों का चारागाहों में रूपांतरण , वनों की अत्यधिक चराई , वनों में आग लगना , लकड़ियों की कटाई , बहुउद्देशीय योजनायें , जैविक कारक आदि।

यदि हमारे जंगल नष्ट हो जाए तो पर्यावरण पर किस का क्या प्रभाव पड़ेगा?

इसी लिए जंगलों की कटान से विश्व स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में 13 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है. इसके अलावा ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव से भी कार्बन उत्सर्जन 23 प्रतिशत तक का योगदान देता है. दुनिया के सभी पेड़ों का ख़ात्मा होने से कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ जाएगा. जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया बहुत तेज़ हो जाएगी.

वनों के विनाश से आप क्या समझते हैं?

यदि किसी क्षेत्र में वन काटे जाएं किंतु उसी अनुपात में यदि वनों की पुनर्स्थापना एवं विकास नहीं हो तो उसे वन विनाश कहते हैं, अर्थात वन विनाश का तात्पर्य (Meaning) वनों में होने वाली कमी से है। यह कमी मानवीय गतिविधियों (Activities) के कारण वनों की कटाई से होती है।

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