Advertisement Show KABIR KE DOHE: कबीरदास ज्ञानमार्गी शाखा के प्रतिनीधी कवि माने जाते है | कबीर का जन्म 1398 ई. में काशी में हुआ | कहां जाता है कि इनका जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था और वह लोक-लाज के डर से कबीर को लहरतारा नामक तालाब के निकट छोड़ आई थी | कबीर को नीमा और नीरू जुलाहा दम्पंती ने स्वीकारा और इनका पालन पोषण किया | कहां जाता है इनके पत्नी का नाम लोइ था जिससे उनको कमाल और कमाली दो संताने थी | कबीरजी के गुरु रामानंद थे | कबीर जी की मृत्यु 1518 ई. में महनगर में हुई | कबीर अनपढ़ थे | उनके शिष्यों ने उनके दोहों को लिखित स्वरुप में संग्रहीत करके रखा था | Kabir Das
पहला दोहा धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय | [शब्द का अर्थ- माली-बागवान, सींचे-पानी देना ] भावार्थ- किसी भी ध्येय को प्राप्त करने के लिए हमे सब्र की जरूरत होती है | हमने किसी चीज़ की कामना की तो वह कभी भी तुरंत प्राप्त नहीं होती है | उसे प्राप्त करने के लिए हमें कड़े मेहनत, धीरज और परिश्रम की जरूरत होती है | जिस तरह से किसी बाग़ का माली अगर पेड़ को एक साथ सौ घड़ा पानी अर्पण करता है तो भी उस पेड़ को फल ॠतु आने पर ही लगते है | कितने भी घड़े पानी से पेड़ को सींचे, जिस तरह से उसे ॠतु आने से पहले फल नही लग सकते कबीर कहते है उसी तरह से कोइ भी कार्य धीरे धीरे ही सफल होता है | दुसरा दोहा धर्म किए धन ना घटे, नदी न घटे नीर | [शब्द का अर्थ:- घटे-कम होना, नीर–जल,पाणी, आंखन-आँख] भावार्थ- कबीर जी कहते है, जो व्यक्ती धर्म के लिए, समाज के परोपकार के लिए अपने धन को खर्च करता है उसका धन, उसकी प्रसिद्धी, लोकप्रियता कभी भी कम नहीं होती, उल्टा उसके धन, उसकी प्रसिद्धी, लोकप्रियता में निरंतर वृद्धी ही होती है | जिस तरह से नदी अपने जल से अगणीत लोगो की प्यास बुझाकर भी उसके जल का भंडार में कमी नहीं होती | अर्थात अच्छे कर्म हमेशा मनुष्य के उन्नती में सहायक होते है | अच्छे कर्मोंका फल हमेशा अच्छा ही होता है | KABIR KE DOHE तिसरा दोहा रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय | [शब्द का अर्थ:- सोय-सोना, नींद, खाय-भोजन करना] भावार्थ- हमे हिरे जैसा अनमोल जीवन मिला है इसे अगर हम रात भर सोने में और दिनभर सिर्फ खाते हुए गुजार देंगे तो यह जीवन व्यर्थ हो जायेंगा | हमें इस हीरे जैसे अनमोल जीवन का आदर करते हुए इसे सार्थक कर देना चाहिए, प्रभु की भक्ती करनी चाहिए, परोपकार करना चाहिए अन्यथा हमारा जीवन कवडीमोल हो जायेगा | अर्थात इश्वर द्वारा हमें जो ये जो जीवन दिया गया है, यह सिर्फ आराम करने के लिए नहीं दिया है | परिश्रम करके जींवन को हीरे जैसा अनमोल बनाने के लिए दिया है | चौथा दोहा माया
मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर | [शब्द का अर्थ- माया-इच्छा, मरी-मृत्यु, तृष्णा-प्यास] भावार्थ- कबीर जी कहते है, मनुष्य की भले ही संपती नष्ट हो जाये, ऐश्वर्य नष्ट हो जाये, किर्ती नष्ट हो जाये या उसका अनमोल शरीर भी नष्ट हो जाये परन्तु उसकी भोग भोगने की आसक्ती, मोह, लोभ, आशा कभी भी नहीं मरती है | मनुष्य भोग भोगने में इतना अधीर होता है, रममान होता है के उसे अपने नष्ट होने का भी डर नहीं लगता है | भोग भोगना ही उसे जीवन का उद्देश रह जाता है जो उसको विनाश की तरफ ले जाता है | KABIR KE DOHE पांचवा दोहा बडा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर | [शब्द का अर्थ- पंथी-राहगीर, मुसाफीर] भावार्थ- समाज का प्रतिष्टित, धनवान व्यक्ती अगर लोगोंके सुख दुःख में काम नहीं आता है तो यह व्यक्ती खजूर के उस पेड जैसा ही है जो कद में बड़ा जरूर होता है, पर वह राह चलते मुसाफीर को न तो छाया प्रदान करता है और फल ऊँचाई पर होने के कारण न तो उसकी भूख मिटा सकता है | ऐसे बड़े कद का कोइ उपयोग नही अगर वह किसीके काम न आ सके | छठा दोहा दुःख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय | [शब्द का अर्थ- सुमिरन-याद करना, कोय-कोई, होय-होना ] भावार्थ- जब मनुष्य के जीवन में सुख होता है, समाधान होता है ऐसे वक्त में वह प्रभु का, इश्वर का नामस्मरण करना भूल जाता है | पर जैसे ही जीवन में दुःख का प्रवेश होता है उसे इश्वर की याद आती है वह उसकी पूजा करने लगता है, नामस्मरण करता है | र्अथात अगर सुख के दिनों में ही इश्वर का स्मरण किया जाये तो जीवन में दुःख आएगा ही नही | सातवा दोहा जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय | [शब्द का अर्थ- बानी-वाणी] भावार्थ- मनुष्य अपने जीवन में जिस तरह के भोजन, पाणी आदी का समावेश करता है, उसका मन और वाणी उसी तरह की हो जाती है | अगर मनुष्य सात्विक भोजन करता है तो उसका मन और वाणी सात्विक हो जाती है | अगर अपने आहार में वह तामसी भोजन का समावेश करता है तो तामसी प्रवृती का हो जाता है | अर्थात जीवन में अगर आप सत्य मार्ग पर चलोगे तो सज्जन कहलाओंगे और बुराई के पथ पर चलोगे तो दुर्जन कहलओंगे | KABIR KE DOHE आठवा दोहा मसि कागद छुयौ नहीं, कलम गही ना हाथ | [शब्द का अर्थ-मसी-मैंने, कागद- कागज ] भावार्थ- कबीरजी स्वयं के बारे में कहते है के में एक फकीर हूँ जिसने औपचारिक तौर पर किसी भी तरह शिक्षा नही ली है और कभी कागज और कलम को छुआ ही नही l पर मुझे जो कुछ भी ज्ञान प्राप्त है वह सब साधू संगती का परिणाम है | मैं चारो युगों के महात्मय की बात मुहजबानी बताता हूँ | कबीरजी ने स्वयं ग्रन्थ नहीं लिखे उनके मूँह से जो अनमोल वचन निकले उसे उनके शिष्योने लिख लिया | नववा दोहा पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार | [शब्द का अर्थ:- पाहन-पत्थर, हरी-इश्वर, पहार-पहाड़, चाकी-अनाज पिसने वाली चक्की] भावार्थ- अगर पत्थर पूजने से इश्वर की प्राप्ती होती है तो में बड़े से पहाड़ को ही क्यों न पूजू इससे मुझे जल्दी से इश्वर मिल जायेगा l दरअसल कबीर यह व्यंग में कह रहे है और लोगों के कर्मकांडो पर प्रहार कर रहे है | उनका कहना है की अगर सच में पत्थर पुजके भगवान मिल जाते है तो में उस अनाज पिसने वाले चक्की के पत्थर को पुजूंगा जिससे मिलने वाले अन्न को ग्रहण करके समस्त मानव जाती का कल्याण हो जाता है | KABIR KE DOHE दसवा दोहा बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिलिया कोय | [शब्द का अर्थ:- देखन-देखने, आपनो-अपना ] भावार्थ- में जगत में बुराई ढूँढने निकल पड़ा और मैंने सब प्रकार की बुराइयां देखी | जब मैंने अपने दिल के भीतर झाँका तो मुझे पता चला की मैंने अब तो जो भी बुराइयां देखी उससे ज्यादा बुराइयां तो मेरे अन्दर समाई हुयी है, मतलब मुझसे ज्यादा बुरा तो जगत में दुसरा कोइ नही | तात्पर्य यह है की अगर हर मनुष्यने सबसे पहले अपने अन्दर की बुराइयां समाप्त की तो यह दुनिया अपने आप ही सुन्दर बन जायेगी | People also read this: 🎁 कबीर के विश्व-प्रसिद्ध दोहे 🎁 कबीरजी के ज्ञान प्रदान करने वाले दोहे 🎁 कबीरजी की अद्भुत जीवनी 🎁 कबीर साहीब की अद्भूत तस्वीरें ग्यारहवा दोहा पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय | [शब्द का अर्थ :– पोथी– धार्मिक किताबे, मुआ–मृत्यु, पंडित–विद्वान, भया-हुआ, आखर–अक्षर ] भावार्थ- कबीर कहते है बड़ी बड़ी किताबे और ग्रन्थ जीवन में पढ़ते पढ़ते कई लोगों की मृत्यु हो गयी पर वह विद्वान अरथात पंडित बन न सके | पर अगर किसी ने सबसे प्यार करना सिख लिया तो साधारणसा व्यक्ती भी पंडीत कहलाता है | कहने का तात्पर्य यह है की आप कितनी भी किताबे पढ़ लीजिये अगर आपके मन में प्रेम नहीं है, स्वभाव में विनम्रता नही है तब तक आपके किताबी ज्ञान का कोइ मूल्य नही | प्रेम ही आपके स्वाभाव को विनम्र बनाता है| प्रेम से ही मानव जाती का कल्याण और इश्वर प्राप्ती की जा सकती है | बारहवा दोहा एकही बार परखिये, ना वा बारम्बार | [शब्द का अर्थ :– परखिये-जांच करना, छानै- छानना, बालू-रेत ] भावार्थ- किसी भी व्यक्ती के साथ दोस्ती करनी हो, रिश्ता बढ़ाना हो या किसी भी प्रकार का व्यवहार करना हो तो उस व्यक्ती को पहली मुलाकात में ही अच्छे तरहसे परख लेना चाहिए | उसके गुण, अवगुण, अच्छाई, बुराइयाँ को समझ लेना चाहिए | जिस प्रकार यदि रेत को अगर सौ बार भी छाना जाए तो भी उसकी किरकिराहट दूर नहीं होती, इसी प्रकार दुर्जन व्यक्ती को बार बार भी परखो तब भी वह हमें दुष्टता से भरा हुआ ही मिलेगा | जबकि सज्जन व्यक्ती की परख एक बार में ही हो जाती है । KABIR KE DOHE तेरहवा दोहा जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान | [शब्द का अर्थ :– मोल-कीमत, तरवार-तलवार] भावार्थ- जगत में ज्ञान महत्व रखता है न किसी व्यक्ति की जाति | किसी भी व्यक्ती की जाती से हम उसके ज्ञान का अनुमान नहीं लगा सकते और न ही किसी सज्जन की सज्नता का अनुमान | इसलिए किसी से उसकी जाति पूछना व्यर्थ है उसका ज्ञान और व्यवहार ही अनमोल होता है | जिस तरह तलवार और म्यान में तलवार का अधिक महत्व है, क्यों की म्यान महज़ उसका उपरी आवरण होता है | उसी तरह से जाति मनुष्य का केवल एक शाब्दिक नाम है उसका ज्ञान और सज्जनता से कोइ लेनादेना नही | चौदहवा दोहा गारी ही से उपजै, कलह कष्ट औ मीच
। [शब्द का अर्थ :– गारी-अपशब्द, गाली, उपजै-उत्पन्न होना, कलह-लड़ाई, झगडा ] भावार्थ- लड़ाई झगड़े, दुःख एवम् हत्या के क्रूर विचार व्यक्ति के दिलो-दिमाग में केवल किसी के कहे गए गाली-गलौच और अपशब्द के कारण ही उत्पन्न होते है | जो व्यक्ती इन सबसे हार मानकर अपना मार्ग बदलता है वही सच्चा संत हो जाता है और जो इसी दलदल में रहकर अपना जीवन व्यतित करता है, वह नीच होता है | अर्थात मनुष्य को अगर अच्छा जीवन जीना है तो उसे लढाई झगड़े का मार्ग छोड़कर प्रभु के शरण में जाना चाहिए | KABIR KE DOHE पंधरहवा दोहा ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची न होय | [शब्द का अर्थ :– जनमिया–जनम लेना, करनी-कर्म, सुरा- मद्य ] भावार्थ- सिर्फ ऊँचे कूल में पैदा होने से कोइ ऊँचा नही कहलाता, उसके लिए कर्म भी ऊँचे होने चाहिए | जिस तरह से सुवर्ण कलश में अगर मद्य या जहर भरा होगा तो उस सुवर्ण कलश की चारों ओर निंदा ही होती है | ऐसे ही अगर ऊँचे कूल में जन्मे हुए किसी व्यक्ती के कर्म अगर अच्छे नही होते है तो वह भी समाज में निंदा का पात्र होता है | सोलहवा दोहा कबीर घास न निंदिए, जो पाऊ तली होई
| [शब्द का अर्थ :– निंदिए–किसीकी निंदा करना, पाऊ -पाँव, तली- नीचे, दुहेली-दर्द होना] भावार्थ- कबीर जी कहते है के उस घास की निंदा कभी भी नहीं करनी चाहिए जो हमारे पाँव में निचे होती है | क्योंकी इसी घास का तिनका जब हवा में उडकर हमारे आँख में चला जाता है तो असहनीय दर्द होता है | अर्थात कबीरजी का कहना है की हमें छोटी चीजों को महत्त्वहीन नहीं समझना चाहिए| जिस तरह छोटासा घास का टुकड़ा हमें दर्द दे सकता है वैसे ही हमें महत्वहीन लगने वाले लोग हमें बड़ी परेशानी में दाल सकते है | इस दोहे में माध्यम से कबीरजी समाज में समानता का सन्देश देना चाहते है | सतरहवा दोहा जग में बैरी कोइ नहीं, जो मन सीतल होय | [शब्द का अर्थ :– मन –दिल, होय–होता है, आपा- अहंकार,घमंड, डारी दे-त्याग देना, डाल देता है, निचे कर देता है, गीरा देता है] भावार्थ- उस मनुष्य का दुनिया में कोइ भी शत्रु या बैरी नहीं होता है जिसका मन शांत होता है, शीतल होता है | जो अपने अहंकार को त्याग देता है और हो सभी पर दया करता है | अर्थात वही मनुष्य बिना शत्रु के होता है जिसके मन में अहंकार नही होता है | अहंकार मनुष्य को नष्ट करता है | KABIR KE DOHE अठरहवा दोहा माला तो कर में फिरे, जीभि फिरे मुख माही | [शब्द का अर्थ :– माला-जप माला, कर-हाथ, जीभि-जीभ, जुबान, मनुवा-मन, दहूँ-दस, दिसि-दिशा, सुमिरन-स्मरण] भावार्थ- कबीरजी कहते है की जपमाला हाथ में घूमाई जा रही है और मुख से प्रभु का नाम लिया जा रहां है | पर मन किसी और ही विचारों में डूबा हुआ है यह इश्वर का सच्चा स्मरण नही है | सिर्फ दिखावे के लिए भगवान का स्मरण नही करना चाहिए | इससे कुछ भी लाभ नहीं होता है | अर्थात मनुष्य जो भी काम कर रहां है वह उसे मन लगाकर करना चाहिए अन्यथा ऐसा काम का बिगड़ने की बहुत ज्यादा संभावना रहती है | उन्नीसवा दोहा काल करै सौ आज कर, आज करै सौ अब | [शब्द का अर्थ :– काल-कल, परलै-प्रलय, पल-क्षण, बहुरि-शुरुआत] भावार्थ- जो काम हमें कल करना है उसकी शुरुआत हम आज से कर सकते है | जो काम हमें आजसे करना है उसकी शुरुआत हम अभी से कर सकते है | कौन जनता है किसी भी क्षण प्रलय हो सकता है, तुम काम के शुरुआत कब करोगे | अर्थात हमें काम को टालना नहीं चाहिए | जो काम हमें करना है उसकी शुरुआत हमें जल्द से जल्द करनी चाहिए इसीमे हमारी भलाई होती है | KABIR KE DOHE बिसवा दोहा माटी कहे कुम्हार को, तू क्या रोंदे मोहे | [शब्द का अर्थ :– माटी-मिटटी, मोहे-मुझे, आवेगा-आयेगा, तोहे-तुझे] भावार्थ- कबीरजी ने इस दोहे में जीवन का शाश्वत सत्य बताया है जो हर एक मनुष्य को मालूम होता है पर वह उसे मानने के लिए तैयार नहीं होता है | उन्होंने कुम्हार और माटी का उदाहरन लेके इस बात को समझाया है | माटी कुम्हार को कहती है तू आज मुझे जरूर रौंद रहा है पर याद रखना इक दीन ऐसा आएगा के में तुझे रौंद दूंगी | अर्थात हे मनुष्य एक दीन तेरी मृत्यु अवश्य होने वाली है और तू मिटटी में मिल जाने वाला है इसीलिए ज्यादा अहंकार मत कर | इक्कीसवा दोहा आए हैं सो जायेंगे, राजा रंक फकीर | [शब्द का अर्थ :– रंक-गरीब व्यक्ती] भावार्थ- इस दुनिया में जो भी व्यक्ती जनम लेता है वो राजा हो, फकीर हो, अमीर हो या गरीब हो हर एक की मृत्यु निश्चित है | मृत्यु के सामने सब समान है, पर मृत्यु के पश्चात वही सिहासन पर सवार हो के जाएगा जिसने अपने जीवन में अच्छे कर्म किये है | जिनके कर्म अच्छे नहीं है उनको जंजीर में बाँध के ले जाया जायेगा| मृत्य के पश्चात सिर्फ आपके कर्मों का हिसाब होता है आपकी दौलत, शौहरत या रुतबे का नही | बाईसवा दोहा अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप | [शब्द का अर्थ :– अति-जरूरत से ज्यादा] भावार्थ- जरूरत से ज्यादा बोलना भी अच्छा नहीं होता और ना ही ज्यादा चुप रहना भी अच्छा होता है | जिस तरह से ज्यादा बारिश अच्छी नहीं होती उसी तरह से ज्यादा धूप भी अच्छी नहीं होती | जीवन में हर एक क्रिया में संतुलन होना आवश्यक है तभी जीवन सुखमय गुजरता है | KABIR KE DOHE तेईसवा दोहा दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार | [शब्द का अर्थ :– दुर्लभ-मूल्यवान, असाधारण, मानुष-मनुष्य, तरुवर-पेड़, डार-डाल, बारम्बार-बारबार ] भावार्थ- मनुष्य का जन्म बहुत मूल्यवान है, असाधारणसा है | यह मनुष्य शरीर किसी भी व्यक्ती को बारबार नही मिलता | जिस तरह किसी वृक्ष से कोइ पत्ता झड जाता है, टूट के गिर जाता है तो वह फिर से उस डाल से जुड़ नहीं सकता | उसी प्रकार से एक बार मनुष्य के शरीर त्याग देने पर उसे मानव शरीर दुबारा नही मिलता है | इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है । यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता | चौबिसवा दोहा हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास | [शब्द का अर्थ :– हाड़-हड्डी, जलै-जलना, ज्यूं-जैसे, तन-शरीर] भावार्थ- मनुष्य के मृत्यु के पश्चात जब अन्त्यविधि करके उसके शरीर को जलाया जाता है l तब मनुष्य के नश्वर देह को अग्नी जलाने लगती है | उसकी हड्डियाँ किसी लकड़ी की तरह जल उठती है तो उसके बाल किसी सूखे घास की तरह जलते है | अंत समय में मानव के निचेत पड़े सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, कबीर का मन उदासी से भर जाता है | अर्थात मनुष्य देह नश्वर है, इसका कोइ भरोसा नही है, यह आज है कल नहीं है | KABIR KE DOHE पच्चीसवा दोहाकरता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय | [शब्द का अर्थ :– करता-कर्म करने वाला, पछिताय-पछताना, अम्ब-आम ] भावार्थ- संत कबीर कहते है की मनुष्य किसी काम को करने से पहले नही सोचता है | परन्तु जब वह काम गलत हो जाता है तो बाद में पछताता है | जिस प्रकार से बबुलका पेड लगाकर आम नहीं खा जाया सकते, वैसे ही किसी काम को करने के बाद पछताना नहीं चाहिए और उसे करने से पहले उसके विषय में गंभीरता से सोच लेना चाहिए | अर्थात कोइ भी काम करने से पहले उसके परिणामोंका विचार करना चाहिए | छब्बीसवा दोहा जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ | [शब्द का अर्थ :– खोजा-ढूढना, पाईया-मिलना, बपुरा-बेचारा] भावार्थ- जीवन में जो परिश्रम करते है, मेहनत करते है, कर्म करते है वो अनेक कठिनाइओंका सामना करके भी अपने मंजिलोको, लक्ष्यको जरूर प्राप्त कर लेते है | जैसे कोइ गोताखोर गहरे पानी की पर्वा न करते हुए पानी में गोता लगाता है और पाणी में से जरूर कुछ न कुछ लेके आता है | लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते है जो पानी में डूबने के भय से किनारे पे ही बैठे रहते है और जीवन में कुछ भी नहीं प्राप्त करते है | अर्थात जीवन में जो लोग संकटों से बिना डरे अपना कर्म करते है वो जरूर सफल होते है | सत्ताईसवा दोहा चाह गई, चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह | [शब्द का अर्थ :– चाह-इच्छा, ख़्वाहिश, मनवा-मन] भावार्थ- जिस मनुष्य के मन से, दिल से इच्छा, ख्वाहीशे समाप्त हो जाती है, उस मनुष्य के जीवन से अपने आप ही चिंता मिट जाती है और मन मस्त मौला, आनंदी हो जाता है | क्योंकी इच्छा ही सब दुखों का मूल है और जब वही समाप्त हो जाती है तो कबीर कहते है उस व्यक्ती का जीवन किसी राजा या शेनशाह के सामान होता है | KABIR KE DOHE अट्ठाईसवा दोहा ऐसी
बाँणी बोलिये, मन का आपा खोई | [शब्द का अर्थ :– बाँणी- बोली, आपा-अहंकार, खोई-त्याग करना, सीतल-शीतल, औरन कौ-दूसरों को ] भावार्थ- हमे अपने मन का अहंकार त्याग कर ऐसी भाषा, बोली का प्रयोग करना चाहिए | जिससे हमारा अपना तनमन भी स्वस्थ रहे और दूसरों को भी कोई कष्ट न हो मतलब दूसरों को भी सुख प्राप्त हो | इन्सान को विनम्रता से बोलना चाहिए ताकी सुनने वाले के मन को भी अच्छा लगे और आपका मन भी प्रसन्न हो | उनतीसवा दोहा कस्तूरी कुंडली बसै, मृग ढूंढे बन माँही | [शब्द का अर्थ :– कस्तूरी-एक सुगन्धित पदार्थ, कुंडली-नाभि, मृग-हीरण, घटीघटी-कण-कण, बन-जंगल] भावार्थ- हीरण कस्तुरी के सुगंध को ढूंढते हुए पुरे जंगले में भटक रहा है | पर वह इस बात से अनजान है की कस्तुरी स्वयम उसके नाभि में ही बसी हुयी है| उसी तरह से दुनिया के जो लोग हे उन्हें राम नही दिख रहे है, इश्वर नहीं दिख रहे है, वो उन्हें मंदिर, तीर्थस्थान, देवालायोंमे ढूंढते है जब की इश्वर दुनिया के हर एक कण-कण में बसा है | इश्वर स्वयंम उनके मन में ही बसा है और वो उसे जगह जगह कस्तुरी मृग की तरह ढूंढते फिर रह है | KABIR KE DOHE तीसवा दोहा जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी हैं मैं नाहि | [शब्द का अर्थ :–मैं–अहंकार, हरी-इश्वर, अँधियारा-अंधकार ] भावार्थ- जब तक मुझमे अहंकार था तब तक मुझे भगवान के दर्शन प्राप्त नहीं हो सके| पर जैसे ही मेरा अहंकार समाप्त हो गया मुझे भगवान के सीवाय, उस परम पीता के बगैर कुछ भी दिखाई नही पड़ रहा है| कबीर दास कहते है यह ठीक वैसे ही हुआ जिस प्रकार से दीप प्रज्वल्लीत होते ही समस्त अँधियारा समाप्त हो जाता है | ऐसे ही हमारे अंतर्मन में जो अहंकार था वह जैसे ही समाप्त हो गया तो संपूर्ण जगत दृश्यमान हो जाता है इसी तरह से मुझे संपूर्ण दिशाओमें इश्वर के दर्शन हो गए | एकतिसवा दोहा गुरु गोबिंद दोऊँ खड़े, काके लांगू पाँय | [शब्द का अर्थ :–गोविन्द-भगवान, इश्वर, दोऊँ-दोनो, काके-किसके, पाँय-पाँव, बलिहारी-धन्य हो ] भावार्थ- अगर गुरु और इश्वर दोनों एक साथ खड़े है तो पहले किसके चरण स्पर्श करने चाहिए | कबिरदासजी कहते है, में पहले गुरु को ही प्रणाम करूँगा क्यों की गुरु ही है जिन्होंने मुझे इश्वर तक पहुचने का मार्ग बताया है | बिना गुरु के तो मैं कभी भी इश्वर को मील नहीं सकता था | भले ही इश्वर तीनो लोक के स्वामी है, पर उनसे मुझे गुरु ने मिलवाया इसीलिये मैं पहले गुरु के चरण स्पर्श करूंगा | अर्थात कबीरजी इस दोहे द्वारा कह रहे है की जो शिक्षा और ज्ञान देने वाला गुरू हैं वो इश्वर से भी बड़ा है | बत्तीसवा दोहा साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय | [शब्द का अर्थ :– साई-इश्वर, भगवान, कुटुम-कुटुंब ] भावार्थ- कबीरदास जी कहते है की हे प्रभू तुम मुझे केवल इतना ही धन धान्य देना जितने में, मैं और मेरे परिवार का गुजारा चल जाए | में खुद भी कभी भूखा ना रहूँ और मेरे घर में जो अतीथी आये उन्हें कभी भी भूखा वापस न जाना पड़े | कबीरजी कहते है की मानव को कोइ लोभ नहीं करना चाहिए जो कुछ उसके पास है वो सब उस इश्वर का दीया है उसमे ही संतोष करना चाहिए ज्यादा इच्छाएं नहीं बढ़ानी चाहिए | क्यों की इच्छाएं जब बढ़ती है तो मुसीबतें भी बढ़ती है | KABIR KE DOHE तेहतीसवा दोहा निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय | [शब्द का अर्थ :– निन्दक-निंदा करनेवाला, नियरे- करीब, सुभाय-स्वभाव ] भावार्थ- कबीरदासजी कहते है, जो व्यक्ती हमारी निंदा करता है, जो हमारा निंदक है ऐसे व्यक्ती को हमेशा अपने करीब ही रखना चाहिए | क्यों की उसके द्वारा हमें हमारे कमियों के बारे में पता चलता रहता है | हमें हमारे शरीर को साफ़ करने के लिए पानी और साबुन की जरूरत होती है | पर अगर हमारी निंदा करने वाला अगर हमारे पड़ोसी होगा तो हमें हमारे कमियों के बारे में पता चलता रहेगा और हम अपने आप में सुधार ला सकेंगे, और बिना पानी साबुन के ही हम हमारे स्वभाव को साफ़ रख सकते है | चौंतीसवा दोहा पानी कर बुदबुदा, अस मानुष की जात | [शब्द का अर्थ :– बुदबुदा- बुलबुला, मानुष-मनुष्य, दीना-दिन, परभात-सुबह, प्रभात] भावार्थ- जिस तरह पानी का बुलबुला कुछ ही क्षण में पाणी के सतह पर आकर समाप्त हो जाता है वैसे ही मनुष्य का देह भी क्षणभंगुर है | इस मनुष्य शरीर की कोइ शाश्वती नहीं है और यह एक दीन समाप्त होने वाला है | जिस तरह से रात को आसमान में दीखने वाले तारे सुबह होते ही छीप जाते है वैसे ही यह शरीर भी एक दीन नष्ट हो जायेगा | KABIR KE DOHE पैंतीसवा दोहा यह तन काचा कुम्भ है, लिया फिरे था साथ | [शब्द का अर्थ :– कुम्भ-मटका, काचा-कच्चा, ढबका-चोट, फूटीगा-टूटना ] भावार्थ- कबीर कहते है जिस शरीर को तूने जिन्दगी भर सजाया, सवारा जिसकी देखभाल की, जिससे बेहद प्यार किया और जिसे जिन्दगी भर साथ लिए घूमता रहा दरअसल यह एक कच्चा घड़ा है | जरा सी चोट लगने पर यह फूट गया और तेरे हाथ में कुछ भी न आया | अर्थात मनुष्य जिस देह से अपार प्रेम करता है और जिसे सजाये-सवारे, संभाले फिरता है यह एक नश्वर देह है जो एक दिन त्याग देना है | इसीलिए मनुष्य ने अपने जीवन में अच्छे कर्म करने चाहिए वही उसकी असली पूंजी है| छतीसवा दोहा यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान | [शब्द का अर्थ :– तन-शरीर, बेलरी-बेल, खान-खजाना, सीस -शीर, मस्तक ] भावार्थ- कबीरजी कहते है की यह शरीर विष की लता (बेल) है और इसमें विष के फल अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मद यही फलेंगे | हमारे जीवन में गुरु किसी अमृत के खजाने समान है जो हमें अच्छाई का मार्ग बतातें है और हमारा उद्धार करते है | अपना शीर चढ़ा देने पर भी अगर ऐसे सद्गुरु से हमारी भेट हो जाये तो हमें यह सस्ता सौदा ही समझना चाहिए | इस दोहे में कबीरजी ने मनुष्य के जीवन में गुरु के महत्व का वर्णन किया है | सैंतीसवा दोहा माला फेरत जुग गया, मिटा न मन का फेर | [शब्द का अर्थ :– माला-जपमाला, फेरत-घूमाते हुए, जुग-युग, मिटा-समाप्त, मन का फेर-मन की अशांतता, करका-हाथ का, डारी के-छोड देना ] भावार्थ- कोइ व्यक्ती -अगर लम्बे समय तक हाथ में मोती की जप माला लेकर घूमाता है, इश्वर का स्मरण करता है और फिर भी इससे उसके मन का भाव नहीं बदलता और उसके मन की हलचल भी शांत नहीं होती | कबीर ऐसे व्यक्ती को कहते है की हाथैसे माला को फेरने का पाखण्ड छोड़कर अपने मन में शुद्ध विचारों को भरना चाहिए तथा सच्चे मन से सब का भला करना चाहिए | अर्थात माला फेरते फेरते युग बिता दिए लेकिन अब तक मन शांत नही हुआ| हाथ की माला छोड़ दे और मन की माला फेरना शुरू कर | हमें हाथ की माला का फेरना छोड़कर अच्छे कर्म करने चाहिए जिससे हमसे हमारे भगवान प्रसन्ना हो | KABIR KE DOHE अड़तीसवा दोहा प्रेम न बाडी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय | [शब्द का अर्थ :-बाडी- खेत, ऊपजै-उपजना, हाट-बाजार, बिकाय-बिकता हैं, परजा-प्रजा, सीस-शीर ] भावार्थ- प्रेम किसी खेत में नहीं उपजता, और नहीं प्रेम कोइ बाजार में खरीदने बेचने वाली वस्तु है | अगर कोइ प्रेम पाना चाहता हे वह राजा हो या कोइ सामान्य आदमी, प्रेम पाने के लिए उसे त्याग और बलीदान देना ही पड़ता है | त्याग और बलिदान के बिना प्यार को पाया नही जा सकता| कबीर जी कहते है प्रेम यह एक गहरी भावना है जो खरीदी या बेची नहीं जा सकती | उनतालीसवा दोहा बृच्छ कबहूँ नहीं फल भखै, नदी न संचै नीर
| [शब्द का अर्थ :– बृच्छ-वृक्ष, पेड़, भखै-भक्षण करना, नीर-पानी, जल, परमारथ-परमार्थ, सरीर-शरीर ] भावार्थ- पेड़ कभी अपना फल नहीं खाते ,नदियां कभी अपना पानी स्वयं नहीं पीती, यह तो परहित अर्थात दूसरों के लिए सब कुछ न्योछावर कर देते हैं | उसी प्रकार से साधू-संत का जीवन भी दूसरों के परोपकार और कल्याण के लिए ही होता है | हमें भी अपने जीवन को आदर्शवादी बनाते हुए परोपकारी बनना चाहिए | इस दोहे में हमें परोपकारी बनने सदाचारी बनने का उपदेश दिया है| KABIR KE DOHE चालीसवा दोहा दुर्बल को न सताइए, जाकी लम्बी हाय | [शब्द का अर्थ :– मुई खाल- मरे हुए पशु का चमडा, हाय-बद्दुवा, लोह-लोहा, भसम-ख़त्म हो जाना ] भावार्थ-शक्तिशाली व्यक्ती को अपने बल का उपयोग करकर किसी कमजोर व्यक्ती पर अत्याचार नहीं करना चाहिए, क्यों की दुखी व्यक्ती के ह्रदय की बद्दुवा बहुत ही हानिकारक होती है | जैसे मरे हुए पशु के चमड़े से लोहा तक जल के राख हो जाता है वैसे ही दुखी व्यक्ती की बद्दुवाओंसे समस्त कूल का नाश हो जाता है | अर्थात दुर्बलों पर अन्याय करने से अन्याय करने वाले का सर्वनाश हो जाता है | इकतालिसवा दोहा जाको राखे साईयाँ, मारि सके ना कोय | [शब्द का अर्थ :– साईयाँ-इश्वर, बैरी-दुश्मन, मारि-मार देना, कोय-कोई ] भावार्थ- कबीर जी कहते है जिस मनुष्य पर इश्वर की कृपा होती है उसे कोइ भी नुकसान पहुंचा नहीं सकता | ऐसे मनुष्य का कोइ बाल भी बाका नहीं कर सकता चाहे सारा संसार ही उसका दुश्मन ही क्यों न हो जाये जिसपर इश्वर की कृपा होती है | अर्थात जो मनुष्य इश्वर की शरण में जाता है, इश्वर उसका सदैव रक्षण करता है | बयालीसवा दोहा मन के हारे हार है, मन के जिते जीत | [शब्द का अर्थ :–हरी –इश्वर] भावार्थ-जीवन में जय और पराजय केवल मन ही पर निर्भर करती है | यदी मनुष्य मन से हार गया तो पराजय निश्चीत है और यदी उसने मन को जीत लिया तो जीत निश्चित है | इश्वर को भी आप मन के विश्वास से ही प्राप्त कर सकते है, यदी मन में विश्वास है तो वोह जरूर मिलेगा और मन में विश्वास नहीं है तो कभी नहीं मिलेगा | KABIR KE DOHE तैंतालीसवा दोहा कबीर तन पंछी भया, जहाँ मन तहां उडी जाई | [शब्द का अर्थ :- तन-शरीर, पंछी-पक्षी, पाई-मिलना, प्राप्त होना] भावार्थ- कबीर कहते है के संसार के माहौल में रहने वाले व्यक्ती का शरीर पंछी जैसा बन गया है और जहाँ उसका मन जाता है उसका शरीर भी उड़कर वही पहुँच जाता है | जो जैसे लोगों के साथ रहता है वो वैसे ही बन जाता है और वैसे ही फल पाता है | अर्थात आपको हमेशा अच्छे लोगों के संगत में ही रहना चाहिए | चौवालीसवा दोहा गुरु
कुम्हार सीष कुंभ है, गढ़ी-गढ़ी काढे खोट | [शब्द का अर्थ :- कुंभ-घडा, सीष-शिष्य, गढ़ी-गढ़ी- घड़ी घड़ी, बाहै-करे, सहार-सहारा ] भावार्थ- गुरु कुम्हार के सामान है और शिष्य घड़े के समान है| गुरु शिष्य के अन्दर जो कमियां होती है उन्हें घड़ी घड़ी निकालता रहता है | कबीर कहते है की गुरु शिष्य को घड़े के सामान गढ़ता है और ठोक–ठोक कर उसके दोषों को दूर करता है | जिस प्रकारसे कुम्हार मिटटी के कच्चे घड़े में हाथ डालकर उसे सहारा देता है और उसे बाहर से चोट मारता है उसी प्रकार गुरु बाहर से तो डांट फटकार करता है पर अन्दर से शिष्य के साथ प्रेममय व्यवहार करता है | अर्थात गुरु शिष्य को कठोर अनुशासन में रखकर अंतर से प्रेम भावना रखते हुए शिष्य की बुराईयोंको दूर करके संसार में सन्माननीय बनता है | KABIR KE DOHE पैंतालीसवा दोहा सब धरती कागद
करूँ, लेखनी सब बनराय | [शब्द का अर्थ :- कागद-कागज, बनराय- जंगल, समुंद- समुद्र, समुन्दर, मसि-स्याही, गुन-गुण ] भावार्थ- कबीर कहते है गुरु के गुणों का बखान करना उनके सामर्थ्य के बाहर है | सारे धरती को मैं कागज बना दूं और जंगले की सारी लकड़ियों को लेखनी कर दूं और सातों समुन्दर के जल को मैं स्याही कर दूं उसके बाद भी हम गुरु के गूण को नहीं लिख सकते अर्थात गुरु के गुण अनंत है | अर्थात गुरु के गुणों के वर्णन करने के लिए तीनो लोको में कोइ भी समर्थ नहीं है | छियालीसवा दोहा जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई | [शब्द का अर्थ :– गाहक-ग्राहक, खरीदने वाला, बिकाई-बेचना, कौड़ी-बिना मोल के-कीमत के ] भावार्थ- जब गुण को परखने वाला ग्राहक मिल जाता है तो उस गुण की कीमत बहुत ज्यादा हो जाती है और जब गुण को कोइ ग्राहक नहीं मिलता अर्थात परखने वाला नहीं मिलता है तो गुण कौड़ी के भाव चला जाता है | इसीलिए अपने गुणोकों लोगों को पहचानने दो इनमेसे ऐसा तो कोइ होगा जो आपके गुणों को पहचान के आपको सही राह दिखाएगा और आपकी किस्मत खुल जायेगी | सैंतालीसवा दोहा कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस | [शब्द का अर्थ :– गरबियो-गर्व, मारिसी- मार देगा, प्राण लेगा ] भावार्थ- हे मानव तू क्या घमंड करता है काल अपने हाथों में तेरे केश पकडे हुए है | तू चाहे घर में हो या परदेस में तेरा मरना तय है | इसीलिए अपनी किसी भी चीज़ पर कभी भी घमंड नहीं करना चाहिए क्यों की एक न एक दीन सबको मरना है, यहाँ किसीको नहीं रहना हैं तो क्यूँ न सबके दिल में जगह बनाकर जाया जाए | अर्थात धनवान हो या गरीब, राजा हो या रंक सबकी मृत्यु निश्चित है तो व्यर्थ हा अहंकार क्यों करना | KABIR KE DOHE अड़तालीसवा दोहा दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त | [शब्द का अर्थ :– दोस-दोष, पराए-दूसरों के, हसन्त-हसते हुए ] भावार्थ- कबीर जी कहते है की, यह मनुष्य का स्वभाव है के जब उसके सामने किसी की बुराई हो रही होती है तो वह बहुत खुश होकर उसे सून रहां होता है| वह यह भूल जाता हैं की उसके अन्दर भी ऐसी लाखों बुराइयाँ है जिनकी न तो कई शुरुवात दिखाई देती है और न ही उसका कही अंत दिखाई देता है | अर्थात किसी के दोषों पर और कमियों पर हमें हसना नहीं चाहियें | हमें यह नहीं भुलाना चाहिए की संसार में कोइ भी व्यक्ती बिना दोषों का नही है वह स्वयं भी | उनचासवा दोहा मौको कहाँ ढूंढे बन्दे, मैं तो
तेरे पास में | [शब्द का अर्थ :– मौको-मुझे, देवल-मंदिर, बन्दे-मनुष्य ] भावार्थ- इन्सान भगवान को ढूंढने के लिए मंदीर, मस्जीद, पहाड़ों और तीर्थक्षेत्र में घूमता है | मन की शांती के लिए माला फेरता है, व्रत करता है | कबीरजी कहते है के इश्वर हमारे मन में वास करता है, यदी हमारा मन अच्छा हैं तो समझ लीजिये इश्वर हमारे साथ है | इश्वर को ढूंढने के लिए हमें ना तो मंदिर, मस्जीद, काबुल और ना तो कैलाश मैं जाने की जरूरत है, इश्वर हमारे साथही होता हैं हमे बस उसे पहचानना होता है | KABIR KE DOHE पचासवा दोहाप्रेमभाव एक चहिए, भेष अनेक बनाए | [शब्द का अर्थ :- भेष-रूप ] भावार्थ- ह्रदय में हमेशा इश्वर के प्रती एक प्रेमभाव होना चाहिए | चाहे कौनसा भी रूप धारण करो या कोनसा भी वेष बना लो | चाहे संसारिक बन्धनों में बंधकर गृहस्थ जीवन बिता रहे हो या फिर वन के एकांत वातावरण में वैराग्यपूर्ण जीवन बिता रहे हो | जीवन का कोनसा भी स्वरुप हो वहा प्रेमभाव सदा बना रहना चाहिए | ऐसा प्रेमभाव जो हर स्थिती, हर रूप, हर उम्र में एकसमान बना रहे, वो सिर्फ परम पिता परमात्मा से ही स्थापित हो सकता है | इक्यावनवा दोहा जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जानू मसान | [शब्द का अर्थ :- घट-मन, ह्रदय, संचरे-संचार करना, मसान-शमशान, खाल लुहार की- लुहार का आग को हवा देनेवाला अवजार (धौकनी), साँस-श्वास ] ] भावार्थ- जिस मनुष्यके ह्रदय में, मन में प्रेमभाव का संचार नहीं होता उसे शमशान के भांती समझना चाहिए | जैसे मृत जानवर के खाल से बनी लोहार की धौकनी भी यूं तो साँस लेती है किन्तु उसमे प्राण नहीं होते | इसी तरह जिस मनुष्य के ह्रदय में इश्वर के प्रती सच्चे प्रेम का भाव नहीं है वह सांस तो ले रहा है पर प्राण विहीन है | अर्थात जिस मनुष्य के मन में इश्वर के प्रती प्रेम भाव नहीं है उस का जीवन व्यर्थ है | बावनवा दोहा लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट
| [शब्द का अर्थ :- पाछे-बाद में, जाहि-जाएंगे ] भावार्थ- कबीरजी कहते हैं की हमारे जीवन में सुख शांती, समृद्धी और जीवन का उद्धार करने के लिए एक राम का नाम ही काफी है | तो क्यूँ न हम जब तक जीवीत है हर समय राम नाम का जाप करके खुद का उद्धार कर ले | अन्यथा अपने जीवन के अंतिम क्षण में हम खेद महसूस करेंगे की मैंने जीवन भर राम का नाम नही लिया और मेरा सारा जीवन व्यर्थ गया | अर्थात वक्त रहते ही हमें प्रभु की भक्ती करनी चाहिए वरना अंतिम समय में पछताने से कुछ लाभ नहीं होगा | KABIR KE DOHE तिरेपनवा दोहा आठ पहर चौसंठ घड़ी, लगे रहे अनुराग | [शब्द का अर्थ :- आठ पहर चौसंठ घड़ी-दिन के चौबीस घंटे, अनुराग- भक्ति, निष्ठा, लगन, प्रेम, प्यार ] भावार्थ- हर पल, हर श्वांस, हर घड़ी जब उस बनाने वाले इश्वर के प्रती ह्रदय में भक्ती बनी रहे तब समझो की हमें उससे सच्चा प्रेम है | हर क्षण ऐसे समर्पण से प्रेम करने वाला ही, सद्गुरु और ह्रदय में बसे इश्वर से असीम प्रेम का पात्र बन सकता है | चौवनवा दोहा जो आवे तो जाये नहीं, जाये तो आवे नाही | [शब्द का अर्थ :- अकथ-अकथनीय, आवे- आएगा ] भावार्थ- सच्चे प्रेम की कहानी अकथनीय है | इसलिए परम पिता परमेश्वर का सच्चा अनुग्रह प्राप्त करने वाले प्रेमियों को प्रेम के इस गुण के बारें में अपने मन को भली भांती समझा लेना चाहिए | क्यों की उस बनानेवाले (इश्वर) का सच्चा प्रेम जिसको भी प्राप्त हो जाता है तो सदैव उसपर परमेश्वर की कृपा बनी रहती है | किन्तु जब परमेश्वर द्वारा श्वांस के रूप में मिला हूवा प्रेम प्रसाद चला जाता है तो फिर कभी वापिस नहीं आता | इसीलिए परमेश्वर के इस प्रेम को ह्रदय से स्वीकार करना चाहिए | KABIR KE DOHE पचपनवा दोहा पिय का मार्ग सुगम है, तेरा चलन अनेड | [शब्द का अर्थ :- सुगम-आसान, चलन-आचरण, अनेड-उचित, टेढ़-टेढ़ा, आंगना-आंगण ] भावार्थ- इश्वर से मिलन का मार्ग एकदम आसान है जो सच्चे प्रेम और ह्रदय से होकर गुजरता है | जो इसे कठिन बताते है उनका स्वयंम का आचरण ही उचित नहीं है | वो स्वयं ही उल्टा मार्ग चुनते है और कहते है परमेश्वर की प्राप्ती कठिन है | यह तो वही वाली बात हुयी नाच स्वयंम नहीं जानते और आँगन टेढ़ा बताकर अपनी गलती का दोष आँगन को दे देते है | छप्पनवा दोहा नाम ना रटा तो क्या हुआ, जो अंतर है हेत | [शब्द का अर्थ :- रटा-उच्चारण, भजै-पूजा करना ] भावार्थ- अगर ह्रदय में इश्वर के लिए सच्ची लगन, भक्ती है तो ऐसा मनुष्य मुख से इश्वर का नाम भी ना ले तो उससे क्या फर्क पडता है | यह ठीक वैसे ही जैसे कोइ पतिव्रता स्त्री कभी भी अपने मुख से अपने पती का नाम उच्चारण नहीं करती किन्तु मन ही मन अपने पती का नित्य स्मरण ही करती है | उसी प्रकार से मुख से परमेश्वर का नाम लेने का दिखावा इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना की उस परमेश्वर का ह्रदय से स्मरण करना | सत्तावनवा दोहा मेरा मुझमे कुछ नही, जो कुछ है सो तेरा | [शब्द का अर्थ :- सौपता-अर्पण करना, लौटा देना ] भावार्थ- कबीर जी कहते है, हे परमेश्वर मेरे पास जो भी है वो सब कुछ तेरा दिया हुआ है, इसपर मेरा कुछ भी अधिकार नहीं है | यहाँतक के मेरी सांसो से लेकर मेरे जीवन पर भी तेरा ही अधिकार है | हे परमेश्वर अगर तूने दिया हुआ सबकुछ मैं तुझको लौटा देता हूँ तो मेरे पास कुछ भी नहीं रहेगा क्यों की यह सब कुछ तेरा है और इसपर तेरा ही अधिकार है मैं तो नाममात्र हूँ | KABIR KE DOHE अट्ठावनवा दोहा माखी गुड में गाडी रहे, पंख रहे लिपटाये | [शब्द का अर्थ :-माखी-मक्खी, गाडी रहे-लिपटे रेहना, बलाय-बला, लालच-लोभ ] भावार्थ- पहले तो मक्खी गुड में लिपटी रहती है, अपने सारे पंख और सर गुड में चिपका लेती हैं | लेकिन जब उड़ने का प्रयास करती है तो उड़ नहीं पाती है और तब उसे अपने लोभी स्वाभाव पर अफ़सोस होता है | ठीक उसी तरह से इन्सान भी अपने सांसारिक सुखों में सर से पाँव तक लिपटा रहता है और जब अंत समय नजदीक आता है तो उसे अपने आचरण पर अफ़सोस होता है लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती हैं | उनसठवा दोहा नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय | [शब्द का अर्थ :- मीन-मछली, बास-दुर्गन्ध, मैल-गंदगी ] भावार्थ- कबीरजी कहते है आप कीतना भी नहा धो लीजिये, लेकिन अगर आपका मन साफ़ नहीं हुआ तो उस नहाने का क्या फायदा | जैसे मछली हमेशा पानी में रहती है फिर भी वो साफ़ नहीं होती और उससे बदबू आती रहती है | अर्थात उपरी साफ सफाई से ज्यादा आंतरिक साफ सफाई महत्वपूर्ण है | मन का साफ़ होना, निर्मल होना बहुत जरूरी है बजाय के बाहरी सौन्दर्यता | मनुष्य शरीर की कितनी भी स्वछता करले पर अगर उसका मन कुलशीत है, पापी है तो बाहरी साफ़ सफाई अर्थहीन है| KABIR KE DOHE साठवा दोहा कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ती ना होय | [शब्द का अर्थ :- सूरमा-शूरवीर, खोय-त्याग करना ] भावार्थ- कबीर कहते है, कामी मनुष्य विषय वासनाओमें लिप्त रहता है, क्रोधी मनुष्य दूसरों का द्वेष करता है और लालची मनुष्य निरंतर संग्रह करने में व्यस्त रहता है, इन लोगोंसे भक्ती नही हो सकती | भक्ती तो कोई शूरवीर और पुरुषार्थी कर सकता है, जो जाती, वर्ण, कूल और अहंकार का त्याग कर सकता है | अर्थात परमेश्वर की भक्ती गुणवान और त्यागी मनुष्य ही कर सकता है, दुर्जन मनुष्य नही | इकसठवा दोहा भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त की हरषाय | [शब्द का अर्थ :- हरषाय-खुशी होना ] भावार्थ- भक्ति मुक्ति की वह सीढी है, जिसपर चढ़कर भक्त को अपार खुशी मिलती है | दूसरा कोई भी मनुष्य जो सच्ची भक्ति नहीं कर सकता इस पर नहीं चढ़ सकता है यह समझ लेना चाहिए | अर्थात भक्ति की सीढी को सच्चा भक्त ही चढ़ सकता है क्योंकि यह मुक्ति का द्वार दिखाने वाली होती है, यह मन में निश्चित कर लो की भक्त के अलावा अन्य कोई यह सीढ़ी नहीं चढ़ सकता है। भक्ति मार्ग पर बढ़ने के लिए अभिमान का त्याग करना पड़ता है इसलिए यह कोई आसान कार्य भी नहीं है। बासठवा दोहा भक्ति बिन नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय | [शब्द का अर्थ :- बिन-बगैर, कोय-कोई ] भावार्थ- किसी भी मनुष्य के लिए भक्ति के बिना मुक्ति संभव नही हैं, चाहे वह लाख कोशिश कर ले | पर जो मनुष्य सद्गुरुके वचनों को अर्थात शब्दोको ध्यान से सुनता है और उनके बताये मार्ग पर चलता है, वे ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है | KABIR KE DOHE तिरेसठवा दोहा काह भरोसा देह का, बिनसी जाय छिन मांहि | [शब्द का अर्थ :- काह-क्या, देह-शरीर, सुमिरन-स्मरण, सांस-साँस, श्वास ] भावार्थ- कबीर कहते है, इस शरीर का क्या भरोसा है, किसी भी क्षण यह नश्वर शरीर हमसे छिन सकता है | इसलिए हर साँस में, हर पल में उस परम पीता परमेश्वर को याद करो, वही है जो तुम्हे मुक्ती दिला सकता है | इसके आलावा मुक्ती का कोइ दूसरा मार्ग नहीं है | चौंसठवा दोहा हिन्दू कहे मोहि राम पियारा, तुर्क कहे
रहमाना | [शब्द का अर्थ :-मोहि-मुझे, पियारा-प्यारा, तुर्क-मुसलमान, रहमाना-अल्ला, दोउ-दोनों, मुए-मर गए, मरम-मर्म] भावार्थ- कबीरजी कहते है, हिन्दू कहते है की उसे राम प्यारा है और मुसलमान कहता है के उसे रहमान (अल्ला) प्यारा है | इसी विषय पर बहस कर करकर दोनो आपस में लड लड़कर मर जाते है | पर दोनों मे से सच्चाई कोइ नहीं जान पाता है की इश्वर एक है | अर्थात इश्वर एक ही है उसकी तुम किसी भी रूप में भक्ती करो | KABIR KE DOHE पैंसठवा दोहा साधू ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय | [शब्द का अर्थ :- सुभाय-स्वभाव, सार-सार्थ,अच्छा, थोथा-कचरा, निरर्थक ] भावार्थ- सज्जन व्यक्ती को इस प्रकार होना चाहिए जैसे अनाज साफ करने वाला सूप होता है | वोह सार वस्तु को ग्रहण कर लेता है और थोथा वस्तु अर्थात सारहीन वस्तु को उडा देता है, बाहर कर देता है | इसी प्रकार हमें भी ज्ञानवाली चीज़े, ज्ञानवाले विचार अपने पास रख लेने चाहिए और बेकार की बातों से अपने आपको दूर ही रखना चाहिए | छियासठवा दोहा जबही नाम हिरदे धरा, भया पाप का नाश | [शब्द का अर्थ :- हिरदे-ह्रदय, चिगीं-चिंगारी, भया-हो गया ] भावार्थ- कबीरजी कहते है, जबसे हमने भगवान का नाम ह्रदय में धरा है, भगवान के भक्ती में लीन हो गए है तबसे हमारे सारे पापों का नाश हो गया है| जैसे किसी पुरानी सुखी घास पर आग की चिंगारी पड जाने पर वह जल कर राख हो जाती है, वैसे ही उस परमपिता परमेश्वर का नाम अपने ह्रदय में धरने से मेरे सारे पापों का नाश हो गया है | सड़सठवा दोहा जहाँ
दया तहँ धर्म है, जहाँ लोभ तहँ पाप | [शब्द का अर्थ :- तहँ-वहां, लोभ-लालच, छिमा-क्षमा ] भावार्थ- जहाँ लोगों के मन में दया-भाव होता है वहांपर धर्म निवास करता है और जहाँ लोगों के मन में लालच होता है वहां पाप निवास करता है | जिन व्यक्तीयों के मन में हमेशा क्रोध रहता है वह काल के समान होता है, उनका काल हमेशा उनके इर्द-गिर्द घूमता रहता है |और जहाँ क्षमा वास करती है, जहाँ दूसरोंके गलतियोंको क्षमा किया जाता है वहां इश्वर स्वयंम निवास करते है | KABIR KE DOHE अड़सठवा दोहा हस्ती चढिए ज्ञान कौ, सहज दुलीचा डारी | [शब्द का अर्थ :- हस्ती-हाथी, स्वान-कुत्ता, भूकन दे-भोंकने दो ] भावार्थ- कबीरजी कहते है, ऐसे उच्च ज्ञान को प्राप्त कीजिये जिससे तुम्हारी अंतरात्मा सहज जो जाए | क्यों की यह संसार तो एक श्वान (कुत्ता) के समान है यह आप ऊँचाई को प्राप्त कर लोंगे तो भी बोलेगा और नहीं प्राप्त कर सके तब भी बोलेगा | इसलिए उन्हें भोकने दो, बोलने दो उसपर अपनी कोइ भी प्रतिक्रिया व्यक्त न करो, आप हमेशा अपनी उन्नती पर ध्यान दो | अर्थात इस दोहे में कबीरजी कहना चाहते है, साधक मस्ती से ज्ञानरुपी हाथी पर चढ़े हुए जा रहे है और संसार भर के कुत्ते भोंक भोंककर शांत हो रहे है परन्तु वह हाथी का कुछ बिगाड़ नहीं पा रहे हैं | यह दोहा निन्दको पर व्यंग है और साधकोंके लिए प्रेरणा | उनहत्तरवा दोहा प्रेमी ढूँढत मैं फिरों, प्रेमी मिले न कोइ | [शब्द का अर्थ :- प्रेमी-इश्वर(रूपकात्मक), फिरों-भटकना ] भावार्थ- मैं परमात्मा का वास्तवीक ज्ञान अर्थात परमात्मा को ढूढंता फिरता रहा पर मुझे उसकी प्राप्ती ही नही हुई | मैंने उसे पाने के लिए पूजा- पाठ, कर्म- काण्ड सब कुछ किया पर मुझे उसके दर्शन नहीं हुए | पर मुझे वास्तविक इश्वर की प्राप्ती तब हुई जब मेरे लिए सब समान हो गए, मेरे मन में उंच-नीच, छोटा बड़ा ऐसा कोइ भेद भाव ही नहीं रहा | मेरे लिए विष और अमृत दोनों एक सामान हो गए | अर्थात कबीर जी इस दोहे में अपने प्रेमी रुपी इश्वर की खोज में हैं जो उन्हें कही मिल नही रहा | वे कहते है अपने प्रेमी अर्थात इश्वर से मिलने पर इस प्रेमी भक्त के मन का सारा दुःख रुपी विष, सुख के अमृत में बदल जायेगा | KABIR KE DOHE सत्तरवा दोहा पखापखी के कारने, सब जग रहा भूलान | [शब्द का अर्थ :-पखापखी-पक्ष-विपक्ष, भूलान-भूल गयी है, निरपख-निरपेक्ष, हरि-इश्वर, सोई-वही, सुजान-ज्ञानी] भावार्थ- पक्ष-विपक्ष, समर्थन-विरोध, सही-गलत के कारन हम सब जग को, सारे संसार को भुला बैठे है | पक्ष-विपक्ष के चक्कर में इस दुनिया के लोग आपस में लढ रहे है, वे अपने झगड़े में इश्वर को भूल गए है | ज्यो व्यक्ती बिना किसी भेद भाव के, निरपेक्ष होकर जो इश्वर का भजन करता है, चिंतन करता है तो उसी मनुष्य को अच्छा व्यक्ती, संत व्यक्ती, सज्जन व्यक्ती कहां जाता है | वही मनुष्य मोक्ष को प्राप्त करने वाला होता है | इकहत्तरवा दोहा मानसरोवर सुभग जल, हंसा
केलि कराहि | [शब्द का अर्थ:-सुभग-पूरी तरह भरा हुआ, केलि-क्रीडा, मुकताफल-मोती, चुगै-चूनकर खाना, अनत-कही और] भावार्थ- कबीरदास जी कहते है की हंस मानसरोवर नामक झील के जल में क्रिडा करते हुए आनंदीत हो कर मोती चुग रहे है और वह इसे छोड़कर कही और जाना नहीं चाहते है | ठीक इसी प्रकारसे मन रूपी सरोवर में जीवात्मा प्रभु भक्ती के आनंद रुपी जल में विहार करती है और वह अन्य किसी स्थान पर जाना नहीं चाहती | अर्थात मनुष्य एक बार जब उस परमपिता परमेश्वर के भक्ती में उसका कृपाप्रसाद ग्रहण कर लेता है, तो उसका मन प्रभु के भक्ती के बिना जीवन में कुछ और नहीं चाहता है | बहत्तरवा दोहा मन हीं मनोरथ छांडी दे, तेरा किया न होई | [शब्द का अर्थ :- मनोरथ-इच्छा, छांडी दे-त्यागना, छोड देना, घिव-घी, निकसे-निकलना, रुखा-सुखा हुआ ] भावार्थ- मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते है कि मन की इच्छाएं छोड़ दो, उन्हें तुम अपने बूते पर हासिल नहीं कर सकते | मन की इच्छाओं का कोई अंत नहीं यह कभी भी ख़त्म नही होती है, इनके पीछे भागना बेवकूफी है| यदी पानी से घी निकल आए, तो रुखी रोटी कोई नही खाएगा | अर्थात मन के इच्छाओं की कोई सीमा नहीं एक पूरी हो गयी तो दुसरी सामने आती है | KABIR KE DOHE तिहत्तरवा दोहा आधी औ रुखी भली, सारी सोग संताप | [शब्द का अर्थ :-भली-अच्छी ] भावार्थ- अपनी मेहनत की कमाई से जो भी कुछ मिले, वह आधी और सुखी रोटी ही बहुत अच्छी है | यदि तू घी चुपड़ी रोटी चाहेगा तो सम्भव है तुम्हे पाप करना पड़े | कबीर जी का कहना है कि बुनियादी आवश्यकताओं से परे आवश्यकताओं को बढ़ाना ठीक नहीं है। इससे समाज में विषमता की सृष्टि होती है | चौहत्तरवा दोहा कुछ कहि नीच न छेडीये, भलो न वाको संग | [शब्द का अर्थ :-संग-संगत, डारे-डाले, वाको-उसका, कीच-कीचड़, बिगाड़े-ख़राब करना ] भावार्थ- किसी दुर्जन या दृष्ट व्यक्ति को कुछ भी कहकर कभी मत छेडीयें वह उसके दृष्ट स्वाभाव के अनुसार हमें हानी पहुंचा सकता है, और उसकी संगती में भी हमारी कोई भलाई नहीं होती है | जिस प्रकारसे कीचड़ में पत्थर डालने से पत्थर फेकने वाले का ही छींटे उछलने से शरीर गन्दा होता है, उसी प्रकार दुर्जन व्यक्ति से व्यवहार रखने पर व्यवहार रखने वाले का ही बुरा होता है। KABIR KE DOHE पचहत्तरवा दोहा तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय | [शब्द का अर्थ :-तिनका-सूखे घास का टुकड़ा, कबहुँ-कभी भी, पाँवन तर-पाँव के निचे, आँखिन-आँख, पीर-दर्द, घनेरी-बहुत ज्यादा ] भावार्थ- कबीर दास जी कहते है कभी भी पैरों के निचे आने वाले छोटे से तिनके की भी निंदा नहीं करनी चाहिए, उसे छोटा समझने की भूल नहीं करनी चाहिए, क्योंकिं जब वही तिनका आँख में उड़कर चला जाए तो बहुत पीड़ा सहनी पड़ती है | असहनीय पीड़ा सहने के बाद आप कभी भी छोटेसे तिनके को भी कम समझने की भूल नहीं करोंगे | अर्थात मनुष्य को किसी भी इन्सान को छोटा नहीं समझना चाहिए, बहुत बार इन्ही लोगों के वजहसे उसे संकटों को झेलना पड़ता हैं | छिहत्तरवा दोहा साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं | [शब्द का अर्थ :-भाव-प्रेम, करुणा, भक्ती ] भावार्थ- कबीर दास जी कहते कि साधू हमेशा करुणा और प्रेम का भूखा होता है, इश्वर के भक्ती का भूखा होता है | उसे किसी भी प्रकार के धन संपती का लालच नहीं होता अर्थात वह कभी भी धन का भूखा नहीं होता | जो धन का भूखा होता है, लालची होता है, जो धन का प्राप्त करने के लिए भटकता फिरता है, ऐसा व्यक्ती कभी भी साधू नहीं हो सकता | सतहत्तरवा दोहा बाहर क्या दिखलाए, अंतर जपिए राम | [शब्द का अर्थ :- धानी-मालिक, स्वामी ] भावार्थ- भगवान के नाम का जाप सिर्फ बाहरी दिखावे के लिए नहीं करना चिहिए, नाम को आंतरीक रूप से, मन ही मन में जपना चाहिए | हमें संसार के लोगों से नहीं, संसार की चिंता छोड़कर संसार के मालिक से सम्बन्ध रखना चाहिए वही हमारा मुक्ति दाता है | KABIR KE DOHE अठहत्तरवा दोहा फल कारण सेवा करे, करे न मन से
काम | [शब्द का अर्थ :- चौगुना-चारगुना, दाम-पैसा ] भावार्थ- कबीर जी कहते है, जो व्यक्ती भगवान की सेवा करते हैं पर उसके बदले में अपने मन में इच्छा रखकर उसका फल भी चाहता हैं, ऐसा मनुष्य वास्तव में भगवान का भक्त नहीं है, सेवक नहीं है क्योंकि सेवा के बदले वह कीमत चाहता है। और यह कीमत भी वह चौगुनी चाहता है, मतलब वह मनुष्य भगवान की सेवा नहीं मजदूरी कर रहा हैं | उनासीवा दोहा आया था किस काम को, तु सोया चादर तान | [शब्द का अर्थ :- आप-स्वयंम ] भावार्थ- कबीर जी कहते है, हे मनुष्य तु यहाँ परमात्मा का भजन करने आया है, सत्कर्म करने आया है, पर तुम सब कुछ भुलाकर चादर तान कर सो रहे हो | जागो और वास्तविक सत्य को पहचानो, अपना होश ठीक कर और अपने को पहचान तू किस काम के लिए आया हैं? तू कौन हैं ? स्वयं को पहचान और सत्कर्मों में लग जा | KABIR KE DOHE अस्सीवा दोहा जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय | [शब्द का अर्थ :- मैं-अहंकार, साँकरी-छोटी ] भावार्थ- जब तक अहंकार रूपी मैं मेरे अन्दर समाया हुआ था तब तक मैं गुरुं को अपने अन्दर, ह्रदय में स्थान नहीं दे पाया, पर अब जब मुझे गुरू मिल गये है, उनका प्रेम रस प्राप्त हुआ है और साक्षात् गुरु ही मुझमे समा गये हैं तब मेरा अहंकार समाप्त हो गया है, नष्ट हो गया है | प्रेम की गली इतनी संकरी है कि इसमें एक साथ दो नहीं समा सकते अर्थात् गुरू के रहते हुए अंहकार नहीं उत्पन्न हो सकता। इक्यासीवा दोहा कबीर कुता राम का, मुतिया मेरा नाउं | [शब्द का अर्थ :-कुता-कुत्ता, मुतिया-मोती, नाउं-नाम, जेवड़ी-रस्सी ] भावार्थ- कबीर जी कहते हैं मैं तो प्रभु राम का कुत्ता हूँ और मोती मेरा नाम है | मैंने मेरे गले में राम नाम की रस्सी बाँध ली है, और दिन-रात मैं मेरे प्रभु के भक्ती में खोया रहता हूँ | मुझे जहाँ मेरे राम ले जाते हैं मैं वहीं अपने आप खिंचा चला जाता हूँ | कबीर जी यहाँ परमात्मा को शरणागत होकर ये कह रहे है | बयासीवा दोहा जिनके नौबति बाजती, मैंगल बंधते बारि | [शब्द का अर्थ :-एकै-एक, हरि-इश्वर, नाव-नाम ] भावार्थ- जिनके द्वार पर पहर–पहर नौबत बजा करती थी और मस्त हाथी जहाँ बंधे हुए झूमते थे अर्थात जो ऐश्वर्य संपन्न थे | ऐसे कुबेर भी अपना सारा धन, ऐश्वर्य गवां बैठे, अपने जीवन की बाजी भी हार गये | यह सब सिर्फ ईसलिए हुआ की सुख के दिनों में वह अपने परमपीता परमेश्वर को भूल गए, उसका स्मरण नहीं किया, उसको याद नहीं किया | KABIR KE DOHE तिरासीवा दोहा परनारी राता फिरैं, चोरी बिढिता खाहि | [शब्द का अर्थ :-परनारी-पराई स्त्री, राता-रात, फिरैं-घूमना, समूला-पुरी तरहसे, सरसा-मस्ती में ] भावार्थ- कबीर जी कहते है, परनारी से जो प्रीति जोड़ते है, प्यार करते है और कुछ भी मेहनत नही करते हुए जो चोरी करके, चोरी की कमाई खाते है | भले ही ऐसे लोग चार दिन फूले-फूले फिरे, मौज-मस्ती में अपना जीवन व्यतीत करे, किन्तु ऐसे लोग अंत में जडमूल से नष्ट हो जाते हैं | चौरासीवा दोहा कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग | [शब्द का अर्थ :-कागद-कागज, नाव-नौका, गंग-गंगा ] भावार्थ- कबीर जी कहते है, यह जीवन एक कागज की नाव है | मतलब यह जीवन नश्वर है, यह कभी भी ख़त्म हो सकता है, इसका कोइ भरोसा नहीं है | ऊपर से दुनिया में हर तरफ मनुष्य को विचलित करने के लिये मोह, माया के जाल बिछे हुए है | चंचल इन्द्रियों का स्वामी मनुष्य इसमें आसानीसे फस सकता है | उस प्रभु को पाने के लिए मुझे इन सारी बाधाओंको पर करना पड़ेगा | अर्थात–नाव यह कागज की है, और गंगा में पानी-ही-पानी भरा है । फिर साथ पाँच कुसंगियों का है, कैसे पार जा सकूँगा ? [ पाँच कुसंगियों से तात्पर्य है पाँच चंचल इन्द्रियों से ।] KABIR KE DOHE पचासीवा दोहा काजल केरी कोठडी तैसा यहु संसार | [शब्द का अर्थ :- दास-भक्त, सेवक, संसार-दुनिया ] भावार्थ- यह दुनिया तो काजल की कोठरी है , जो ही इसमें पैठा, उसे कुछ न कुछ कालिख तो लग ही जायेगी | धन्य है उस प्रभु भक्त को, जो इसमें पैठकर बिना कालिख लगे साफ़ निकल आता है | अर्थात कबीर कहते है, यह दुनिया एक ऐसी कोठरी है जिस में मोह, माया, मद, लोभ, क्रोध आदी विकार भरे पड़े है | कोइ भी मनुष्य इन विकारोंका शिकार हो सकता है | पर धन्य है प्रभु के वह भक्त जो इन विकारोंसे भरे संसार में रहकर भी अपने आप को विकारों से दूर रखकर प्रभु के भक्ती में मगन रहते है | छियासीवा दोहा संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत | [शब्द का अर्थ :-कोटिक-करोड़ों, असंत-दुर्जन, भुवंगा-साप, सीतलता-शीतलता, तजंत-त्यागना ] भावार्थ- भले ही करोड़ों दुर्जन, दृष्ट लोग संत-महात्मा के रास्ते में आ जाये या उनसे मिले, फिर भी सन्त अपनी अच्छाइयां, सज्जनता और संतपना नहीं छोड़ता | वैसे ही चन्दन के वृक्ष पर कितने ही साँप आ बैठें, तो भी चन्दन अपनी शीतलता को नही छोडता | अर्थात जीवन में हमे अच्छाइयों का मार्ग कभी भी छोड़ना नहीं चाहिए | सत्तासीवा दोहा ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग | [शब्द का अर्थ :-चकमक-आग जलानेवाला पत्थर, साईं-परमेश्वर ] भावार्थ- जैसे तिल में तेल होता हैं और चकमक पत्थर में आग होती हैं, वैसे ही तेरा साई, तेरा प्रभु, तेरा परमात्मा तुझमे ही है | उसे कही बाहर ढूढने की जरूरत नहीं है | हमारे ईश्वर हमारे अन्दर है और हम सोये हुए है, उसे कही और ढूंढ रहे है | कबीर हमें जागने के लिए कह रहे है | हम जगे तो है पर पांचो इन्द्रियों को सुख पहुचाने के लिए जागे है | हमारे भीतर तो परमात्मा है; उसे जानने के मामले में हम अब तक सोये हुए है | कबीर कहते है जाग सके तो जागो और अपने अन्दर वास कर रहे परमेश्वर को जानो | KABIR KE DOHE अट्ठासीवा दोहा चलती चाकी देख के, दिया कबीरा रोय | शब्द का अर्थ :- चाकी-अनाज पिसने वाली चक्की, दोऊ-दोनों, साबुत-अखंड ] भावार्थ- संसार की चक्की के दो पत्थर-पाटों के बीच हम सब अनाज के दानों की तरह पिस रहें है, और इस पीसाई के अंत में कोई भी साबुत बचने वाला नहीं है | मनुष्य को संसार में सुख-दुःख, पाप-पुण्य के रूपमे अविरत संघर्ष करना पड़ता है | मनुष्य के इस कष्ट को देख कर कबीर जी व्यथित मन से रो देते है | कबीर जी जानते है जो मनुष्य खुद को पहचानेगा, उस परमपिता के शरण में जायेगा वही इस संसार के दुखो से बच पायेगा | नवासीवा दोहा जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही | [ शब्द का अर्थ :- मरघट-शमशान ] भावार्थ- कबीर जी कहते है जिस घर में साधू, संत-महात्मा, उनके विचार और सत्य की पूजा नही होती उस घर में पाप बसता है| साधू-संतो के विचार, उनका मार्गदर्शन जिस घर को मिल जाता है, जो घर उनके बताये गए सत्य मार्ग पर चलता है वह घर एक पवित्र वास्तु होता है, उस घर की हररोज उन्नति होती है | और जिस घर में साधू-संतो और उनके विचारोंका आदर नहीं होता है उस घर की अधोगती होती है, ऐसा घर तो उस शमशान के समान होता है जहाँ दिन में ही भूत प्रेत बसते है | KABIR KE DOHE नब्बेवा दोहा सुखिया सब संसार है, खायै अरु सोवै | [ शब्द का अर्थ :- सुखिया- सुखी, अरु-और, सोवै-सोया हुआ, दुखिया–दु:खी, रोवै- रो रहे ] भावार्थ- कबीर जी कहते है कि, ये दुनिया सुखि है क्यों की ये केवल खाने और सोने का काम करती है | इसे किसी प्रकार की चिंता नहीं है | उनके अनुसार सबसे दुखी व्यक्ती वो है , जो प्रभु के वियोग में जागते रहते है | वे ईश्वर के सत्यता को जान चुके है इसलिए वह जागे हुए है और इश्वर के वियोग में रो रहे है | अर्थात सांसारीक भोग में लगे हुए व्यक्ती तो सुखपूर्वक रहते है और जो प्रभु वियोग में व्याकुल रहते है वे जागते रहते है | इक्यानबेवा दोहा बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ
| [ शब्द का अर्थ :- बिरह–बिछडने का गम, भुवंगम-भुजंग, सांप, बौरा-पागल, मंत्र-उपाय, बियोगी-विरह में तडपने वाला, जिवै-जीवित ] भावार्थ- कबीर जी कहते है जब मनुष्यके मन में अपनों के बिछडने का गम सांप बन कर लोड़ने लगता है तो उस पर नही कोई मन्त्र असर करता है ओर नही कोई दवा काम करती है | उसी तरह राम अर्थात इश्वर के वियोग में मनुष्य जीवित नहीं रह सकता और यदि वह जीवित रहता भी है तो उसकी स्थिती पागलों जैसी हो जाती है | अर्थात संसार में अपने प्रिय प्रभु से बिछड़ने का गम सबसे ज्यादा होता है | बानबेवा दोहा हम घर जाल्या आपणा, लिया मुराडा हाथी | [ शब्द का अर्थ :- जाल्या-जलाया, आपणा-अपना, मुराडा-जलती हुई लकड़ी (ज्ञान), जालौं-जलाऊं, हाथी-हात में, तास का-उसका] भावार्थ- कबीरजी कहते है उन्होंने अपने हाथों से अपना घर जला दिया है, अर्थात उन्होंने मोह-माया रूपी घर को जला कर ज्ञान प्राप्त कर लिया है |अब उनके हांथों में जलती हुई मशाल है, यानी ज्ञान है | अब वे उसका घर जलाएंगे जो उनके साथ चलना चाहता है और ज्ञान की प्राप्ती करना चाहता है | अर्थात उसे भी मोह-माया से मुक्त होना होगा जो ज्ञान प्राप्त करना चाहता है | तिरानबेवा दोहा आवत गारी एक है, उलटत होई अनेक | [ शब्द का अर्थ :- गारी- गाली ] भावार्थ- जब कोइ व्यक्ती किसी को गाली देता हैं तो वह एक ही होती है, पर सामने वाला जब उसका उल्टा जवाब देता है तो वह कई रूप ले लेती हैं | जवाब देने पर गलियों का सिलसिला चल निकलता हैं | कबीरजी का कहना है कि गाली का उलटकर उत्तर नही देना चाहिए, ऐसा करने पर वह एक की एक ही रह जाती है अन्यथा उसका स्वरुप बढ़ता जाता है | चौरानबेवा दोहा कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई | [ शब्द का अर्थ :- समंद-समुंदर, समुद्र, भेद-अंतर, लहरि-लहर ] भावार्थ- कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर अपने साथ में मोती बहाकर लाती है और उन्हें किनारों पर बिखेर देती है । पर अज्ञानी बगुला मोतियों को पहचान नहीं पाता है , परन्तु ज्ञानी हंस उन्हें चुन-चुन कर खा लेता है, हासिल कर लेता है । इसका अर्थ यह है कि गुरु सब शिष्योंको इक सामान ही शिक्षा देते है, पर समझदार शिष्य उसे भली-भांती समझकर अपना लेता है और जीवन में अपनी उन्नती कर लेता है | तात्पर्य किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है । KABIR KE DOHE पंचानबेवा दोहा जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं | [शब्द का अर्थ :-उग्या-उत्पन्न होना, अन्तबै-अंत, समाप्ति, कुमलाहीं-मुरझना, चिनिया-निर्माण करना, ढही-गिरना] भावार्थ- इस संसार का नियम यही है कि जिसका उदय हुआ है, उसका अस्त भी होगा | जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जिसका निर्माण किया गया है वह एक न एक दिन गिर पड़ेगा | और इस संसार में जिसका जनम हुआ है वह एक न एक दिन मर जायेगा | अर्थात इस संसार में जितनी भी वस्तुए है उनका अंत निश्चित है, सभी नश्वर है | छियानबेवा दोहा ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस | [ शब्द का अर्थ :-उपदेस-उपदेश, भौ सागर-भव सागर ] भावार्थ- कबीर संसारी जनों के लिए दुखि होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथदर्शक नही मिला जो इस संसार रुपी भव सागर को पार करने का मार्ग बताता | संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता और इनको मुक्ति का मार्ग बताकर इनका उद्धार करता | सत्तानबेवा दोहा कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी | [ शब्द का अर्थ :- सुता-सोया हुआ, मुरारी-इश्वर, सोवेगा-मर जायेगा ] भावार्थ- कबीर कहते हैं, अज्ञान की नींद में सोए क्यों रहते हो? ज्ञान की जागृति को हासिल कर, प्रभु का नाम लो । सजग होकर प्रभु का ध्यान करो । वह दिन दूर नहीं जब तुम्हें गहन निद्रा में सो जाना है, इसीलिए जब तक जाग सकते हो जागते क्यों नहीं? प्रभु का नाम स्मरण क्यों नहीं करते ? अट्ठानबेवा दोहा हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह | [ शब्द का अर्थ :-हरिया-हरा, नेह-स्नेह, सूका-सुखा ] भावार्थ- वृक्ष को हरा होने के लिए पाणी की जरूरत होती है, बिना पाणी के वह सुख के लकड़ी बन जायेगा | इसलिए उसे पाणी का महत्व मालूम होता है | पानी के स्नेह को हरा वृक्ष ही जानता है | पर सूखा काठ और सुखी लकड़ी जिन्हें पाणी की जरूरत नही होती, उन्हें पाणी से स्नेह भी नहीं होता है वह क्या जाने कि कब पानी बरसा? अर्थात सहृदय मनुष्य ही प्रेम भाव को समझता है, प्रेम के महत्व को जनता है | निर्मम मन इस भावना को क्या जाने ? क्यों की उन्हें कभी किस से प्रेम करना ही नहीं है | निन्यानबेवा दोहा लंबा
मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार | [ शब्द का अर्थ :- मारग-मार्ग, दुर्लभ-कठिन, हरि-इश्वर, दीदार-दर्शन ] भावार्थ- इश्वर के प्राप्ती का मार्ग न केवल लम्बा है बल्की बड़ा कठिन भी है, और इस मार्ग में बहुतसे लुटेरे अर्थात सांसारिक आकर्षण भी मिलते है| कबीर जी कहते है, हे संतो अब आप ही बताइयें ऐसे स्थिती में उस दुर्लभ भगवान के दर्शन कैसे हो| इस दोहे में काम, क्रोध, लोभ, मोह और मद इन् पांचो विकारों को साधना के मार्ग का लुटेरा कहां गया है| KABIR KE DOHE एक सौ दोहाकबीर सीप समंद की, रटे पियास पियास | [ शब्द का अर्थ :-समंद-समुन्दर, रटे-रटना, पियास-प्यास ] भावार्थ- कबीरजी कहते हैं कि समुद्र की सीपी प्यास प्यास रटती रहती है | समुद्र की सीपी को स्वाति नक्षत्रमें गीरने वाली बूंदों का इंतज़ार रहता है | इसी बूंदों से सीपी मोती का निर्माण करती है | इसी स्वाति नक्षत्र की बूँद की आशा लिए हुए समुद्र की अपार जलराशि को भी सीपी तिनके के बराबर समझती है | अर्थात हमारे मन में जिसे पाने की ललक है, जिसे पाने की लगन है, उसके बिना हमें संसार की बाकी सारी चीज़ें कम महत्व की लगती है | एक सौ एक बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िये खाया खेत | [ शब्द का अर्थ :- रखवाले-रक्षक, रखवाल, बाहिरा-बाहर से, चेती-सावधान ] भावार्थ- खेत में बोया हुआ अनाज बिना रखवाली के था, यह देख कर चिडियोने खेत में उगे हुए अनाज को बाहर से खाना चालू कर दिया और लगभग आधे खेत का अनाज वह खा चुकी है और कुछ खेत अब भी बचा है | अगर उस बचे हुए खेत को चिड़ियों से बचाना है तो जल्दी से जागो, सावधान हो जाओ और खेत को बचालो| कबीर कहते है जीवन में असावधानी के कारण इंसान बहुत कुछ गँवा देता है और उसे खबर भी नहीं लगती के नुकसान हो चुका है | यदि जीवन में हम समय पर सावधानी बरतें तो होने वाले नुकसान से बच सकते हैं | एक सौ दो करता केरे गुन बहुत, औगुन कोई नाहिं | [ शब्द का अर्थ :- करता-इश्वर, गुन-गुण, औगुन-अवगुण ] भावार्थ- कबीर जी कहते है, इस दुनिया का जो परमपिता परमेश्वर है, जो इस संसार को चलाता है उसमे तो अगणीत गुण है | मैंने पाया है की उसमे एक भी अवगुण नहीं है | पर जब मैंने खुदके बारे में सोचा और अपने दिलके अन्दर खोजा तब मुझे पता चला के समस्त अवगुण तो मेरे अपने अपने ही भीतर हैं | अर्थात दूसरों के अवगुन देखने से पहले अपने अवगुण ढूँढने चाहिए | एक सौ तीन तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखिन की देखी | [ शब्द का अर्थ :- कागद-कागज, आँखिन-आँख, लेखी-लिखा हुआ, उरझाई-उलझन, सुरझावन-सुलझाना ] भावार्थ- तुम किताबोंमे, पोथीयों में और शास्त्रों में जो लिखा है उसे रटते रहते हो, उसे ही सत्यवचन और प्रमाण मानते हो | पर मेरा ऐसा नहीं है, मैं जो आँखों से देखता हूँ, महसूस करता हूँ, समझता हूँ उसे ही मैं सत्य मानता हूँ और वही कहता हूँ | मैं सरलता से हर बात को सुलझाना चाहता हूँ और तुम सीधी बातको भी बेवजह उलझाके रख देते हों | अर्थात किसी भी बात को, समस्याको सरलता से सुलझाना चाहिए | बेवजह उसे उलझाने से समस्या और कठिन हो जाती है | एक सौ चार पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया, लिख लिख भया जू ईंट | [ शब्द का अर्थ :-पढ़ी पढ़ी के- पढ-पढ के, भया-बन गया, छींट-दाग ] भावार्थ- बहुत पढ़-लिख लिया, ज्ञान हासिल किया | ज्ञानी हो गए तो मन में अहंकार आ गया, दूसरों को तुच्छ समझने लगे | पढ़-लिख लिया तो ज्ञान के अहंकार के वजहसे मन पत्थर और ईट जैसा कठोर हो गया | कबीर कहते है इतना पढ़ लिख लेने के बाद भी, ज्ञानी बनने के बाद भी अगर दूसरों के प्रती ह्रदय में स्नेह और प्रेम की भावना नहीं हो तो ऐसी पढाई लिखाई का क्या फायदा | प्रेम की एक बूँद, एक छींटा भर जड़ता को मिटाकर मनुष्य को सजीव बना देता है. अर्थात ज्ञानी होने के साथ साथ दूसरों के प्रती मन में प्रेमभाव भी होना चाहिए | KABIR KE DOHE एक सौ पाँच सोना सज्जन साधू जन, टूट जुड़े सौ बार | [ शब्द का अर्थ :-कुम्भ-मटका, दरार-टूटना, कुम्हार-मिटटी के बर्तन बनाने वाला ] भावार्थ- कबीर कहते है सज्जन मनुष्य और साधू यह कीमती धातु सोने की तरह होते है | जिस प्रकार से सोना लचीला होने के वजह से कितने भी आघात झेल लेता है और टूट भी गया तो फिर से जुड़ने की योग्यता रखता है | उसी प्रकार से सज्जन मनुष्य और साधू जीवन में कितने भी दुःख आए, संकट आए उन्हें झेल के फिरसे उठ खड़े होते है | लेकिन दुर्जन व्यक्ति कुम्हार द्वारा बनाये गये मिट्टी के बर्तन जैसा होता है जो एक बार टूट जाने पर वह हमेशा के लिए टूट जाता है। एक सौ छह लकड़ी कहे लुहार की, तू मति जारे मोहि | [ शब्द का अर्थ :- लुहार-लोहार, मति-मत, जारे-जलाना, जरौंगी-जलाऊँगी, मोहि-मुझे, तोहि-तुझे ] भावार्थ- लोहार जो लोहे से वस्तुओं को बनाता है, लोहे की वस्तुएं बनाने के लिए उसे आग की जरूरत होती है, जिसे वह लकड़ियों को जलाकर उत्पन्न करता है | वही लकड़ी एक लोहार से कहती है कि आज अपनी जीविका के लिए तुम मुझे जला रहे हो | लेकिन याद रखना एक दिन ऐसा आएगा, जब तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी तब मैं तुम्हें चिता पर जला दूंगी | अर्थात अपने स्वार्थ के लिए किसीको तकलीफ नही देनी चाहिए, वरना भविष्य में हमें उससे समस्याओंका सामना करना पड सकता है | एक सौ सात कबीर हमारा कोई नहीं, हम काहू के नाहिं | [ शब्द का अर्थ :-काहू के-किसी के, मिलिके-मिलकर, बिछुरी-बिछड़ना ] भावार्थ- कबीरजी कहते है इस मोहमायासे भरी दुनियासे हमें कितना भी लगाव हो जाए सच तो यही है की यहा हमारा कोई नहीं है और हम किसीके नही है | जैसे नाव में बैठे यात्री सफ़रमे एक दुसरे के दोस्त हो जाते है पर जैसे ही सफ़र ख़त्म होता है वह एक दुसरेसे बिछड जाते है | ठीक उसी तरह से जैसा ही हमारा इस संसार रूपी नाव का सफ़र ख़त्म हो जायेगा हम सबसे बिछड़ने वाले है, हमारे सब सांसारिक सम्बन्ध यहीं छूट जाने वाले हैं | अर्थात मनुष्य देह नश्वर है, मृत्यु के पश्चात वह सबसे बिछड़ने वाला है | KABIR KE DOHE एक सौ आठ तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई | [ शब्द का अर्थ :-तन-शरीर, जोगी-साधू, बिरला-ख़ास, निराला ] भावार्थ- शरीर को योगी जैसा सजाकर मतलब भगवे वस्त्र, भस्म, रुद्राक्ष माला और जटाए बढाकर लोगों को प्रवचन देकर खुद को योगी स्थापित करना और प्रसीद्ध होना आसान बात है | परन्तु मन का योगी बनना बिरले व्यक्तियों का ही काम है, य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। सच्चे योगी के लक्षण भी यही हैं | एक सौ नौ आछे दिन पाछे गए, हरी से किया न हेत
| [ शब्द का अर्थ :- आछे-अच्छे, पाछे-पीछे गए, छूट गए, हरी-इश्वर, हेत-प्यार, भक्ती, चुग गई-खा गयी, चिडिया-पंछी, पक्षी ] भावार्थ- जब मनुष्य के अच्छे दिन होते है तब वह अपने परिवार के साथ मौज-मस्ती और सुख में रममाण रहता है | सुख के दिनों में उसे उस परमपिता परमेश्वर की याद नहीं आती है, वह उसकी भक्ती नही करता है | पर जैसे ही उसके जिन्दगी में दुःख और संकट आने लगते है उसे ईश्वर की याद आने लगती है | जब अच्छे दिन थे तब प्रभु से प्यार नहीं किया, उसकी भक्ती नहीं की इसका उसको पछतावा होने लगता है | यह उसी तरह से है जब खेत में अनाज था तब उसकी रखवाली नहीं की और जब चिड़ियों ने सारा अनाज खा लिया तो खुद को कोसने लगा | अर्थात समय रहते काम कर लिया जाए तो बाद में पछताना नहीं पड़ता | KABIR KE DOHE एक सौ दस इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह | [ शब्द का अर्थ :-होइगा-होगा, सब सूं-सबसे, बिछोह-बिछडना, किन-क्यों नही ] भावार्थ- इस दुनिया की सारी चीजे नश्वर है, सबका अंत होना है | हे मनुष्य तुझे भी एक दिन अपने परिवार से, दोस्तों से और बड़े कष्ट से अर्जित कीए हुये धन-संपत्ति से भी बिछडना है, सबको यही छोड़ जाना है | इसलिए जो भी राजा है, छत्रपति है, सरदार है, धनवान है तुम अभी से सावधान क्यों नहीं हो जाते | एक सौ ग्यारह कबीर प्रेम न चक्खिया, चक्खि न लिया साव | [ शब्द का अर्थ :-चक्खिया-चाटना, साव-स्वाद, ज्यूं आया-जैसे आया, त्यूं जाव-वैसेही जायेगा, सूने घर-जिस घर में कोइ नहीं रहता ] भावार्थ- कबीर जी कहते है, इस संसार में जनम लेकर अगर प्रेम नहीं चखा, उस इश्वर के भक्ति का रस नहीं पिया, उसके कृपा दृष्टी का स्वाद नहीं लीया तो ऐसे मनुष्य का जीवन अर्थहीन है | उसने जीया जीवन ऐसे ही है जैसे किसी सुने घर का मेहमान | सुने घर में किसी की भी आवभगत नहीं होती | वहा पर आये हुए मेहमान को बिना कुछ प्राप्त किए बगैर, खाली हाथ वहासे जाना पड़ता है | एक सौ बारह मैं मैं बड़ी बलाय है, सकै तो निकसी भागि | [ शब्द का अर्थ :-मैं-अहंकार, बलाय-संकट, सकै तो-हो सके तो, भागि-भाग जाओ, राखौं-रखना, रूई-कपास, आगि-आग ] भावार्थ- मनुष्य के जीवन में अहंकार, अहम् यह उसका एक प्रकार से बहुत बड़ा शत्रु है, जिसके वजहसे उसे जीवन में दुःख और संकटो का सामना करना पड सकता है | इसलिए मनुष्य को अहंकार को त्याग देना चाहिए, उससे दूर भागना चाहिए | अहंकार किसी कपास में लपेटी हुयी आग की तरह है, जिस तरह आग पलभर में कपास को जलाकर राख कर देती है, वैसे ही अहंकार मनुष्य के जीवन को बरबाद कर सकता है | अर्थात मनुष्य को जीवन में अहंकार से दूर ही रहना चाहिए | एक सौ तेरह इस तन का दीवा करों, बाती मेल्यूं जीव | [ शब्द का अर्थ :-तन-शरीर, दीवा-चिराग, दीपक, जीव-प्राण ] भावार्थ- उस परमपिता इश्वर के भक्ति में, मैं अपने देह (शरीर) का दीपक बना लूं, चिराग बना लूं और उसमे अपने प्राणों की, आत्मा की बाती बनाकर ऐसे चिराग में अपने रक्त को तेल की तरह इस्तमाल करू | ऐसे अनोखे चिराग को जलाके, रोशन करके क्या मैं अपने प्रिय भगवान के मुख का दर्शन कर पाऊंगा? अर्थात प्रभु से भक्ती करना, उससे प्यार करना, उससे मिलने की इच्छा रखना यह बहुत ही कठिन साधना है | कोइ भी मोह-माया में फसा साधारणसा मनुष्य यह नहीं कर सकता | उसके लिए तो कोइ असाधारण, योगी प्रवृती का मनुष्य ही चाहिए | एक सौ चौदह हिन्दू मुआ राम कहि, मुसलमान खुदाइ | [ शब्द का अर्थ:-मुआ-मर गया, सो जीवता-वही जीता है, दुहूँ-दोनों ] भावार्थ हिन्दू राम के नाम पर और मुसलमान खुदा के नामपर आपस में झगड़ा करते करते मर जाते है की किसका भगवान श्रेष्ट और महान है | कबीरदास कहते है इस संसार में वही मनुष्य जिन्दा रहता है जो इस झगड़े से अपने आपको दूर रखता है और खुद को प्रभु के भक्ती में लीन रखता है | ऐसा ही मनुष्य इस संसार में जिन्दगी जीने के लायक है | अर्थात इश्वर एक ही है, जो मनुष्य इसे समझ पाता है वही प्रभु को अपने करीब पाता है | KABIR KE DOHE एक सौ पन्द्रह मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार | [ शब्द का अर्थ :-मलिन-बाग़ का माली, कलियन-कलियाँ, आवत-आते हुए, कलि-कल, हमारी बार-हमारा वक्त] भावार्थ- बाग़ के माली को आते देखकर बगीचे की कलियाँ अपने कलि साथियों से कहती है | बाग़ का माली आज बगीचे के फूलों को तोड़ने के लिए आ रहा हैं, वह फूलों को तोड़ेगा पर कलियों को नही | पर याद रखना जब हम कलियाँ, कलियों से खिलकर कल फूल बनेगे तब यह बगीचे का माली हमें भी तोड़ेगा | अर्थात इस जगत में सारी चीजें नश्वर है, सबका अंत तय है | आज किसकी मृत्यु हो गयी तो शोक करलो, पर याद रखना कल तुम्हरी भी मृत्यु होने वाली है | काल सबके लिए समान है | एक सौ सोलह जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश | [ शब्द का अर्थ :-जल-पाणी, कमोदनी-कमल, बसे-निवास करना, चंदा-चन्द्रमा, भावार्थ- प्रेम ह्रदय के पवित्र भावना का नाम है | प्रेम में नजदीकी-दूरी, छोटे-बड़े और उंच-नींच का कोई भेद नहीं होता | कुमुदिनी का फूल जल में खिलता है और चन्द्रमा आकाश में होता है फिर भी दोनों का प्रेम संसार भर में प्रसिद्ध है | जिसकी प्रेम भावना जिसमें होती है वह उसीके ह्रदय में वास करता है | उसीके निकट रहता है | फिर दोनों चाहे एक दुसरे से कितने ही दूर क्यूँ न हो | वैसे ही जब कोई इंसान ईश्वर से सच्चे दिल से प्रेम करता है, भक्ति करता है, तो ईश्वर प्रसन्न होकर स्वयं चलकर उसके पास आते हैं। KABIR KE DOHE एक सौ सत्रह ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग | [ शब्द का अर्थ :-अकारथ-व्यर्थ, पशु-जानवर, भगवंत-इश्वर, संगत-साथी ] भावार्थ- दुनिया में अपना जीवन व्यतीत करते हुए मनुष्य जो समय बिताता है उसे व्यर्थ ही समझना अगर उसने ना कभी सज्जनों की संगति की हो और ना ही कोई अच्छा काम किया हो, न किसीसे प्रेम किया हो और ना ही किसीकी भक्ति की हो | मानव जीवन में प्रेम और भक्ति का बड़ा महत्व है | जिस मनुष्यने अपने जीवन में किसीसे भी प्रेम नहीं किया हो, उस परमपीता परमेश्वर की भक्ती नही की तो उस मनुष्य का जीवन किसी पशु (जानवर) समान समझना चाहिए | भक्ति करने वाले इंसान के ह्रदय में भगवान का वास होता है | एक सौ अठारह नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय | [ शब्द का अर्थ :-शीतल-मुलायम, कोमल, हिम-बर्फ़, सनेही-स्नेह ] भावार्थ- जिसका मन शांत, शीतल होता है वह सबसे प्रेम करता है, सब उसे प्रेम करते है और वह प्रभु के सबसे करीब भी होता है | कबीरजी कहते है दुनिया में सबसे शीतल ना तो सबसे मुलायम रोशनी बिखरने वाला चन्द्रमा होता है और ना तो सबको ठण्ड से जमा देनेवाला बर्फ होता है | दुनिया में सबसे शीतल, ह्रदय से मुलायम और कोमल होते है सज्जन पुरुष | वह सबसे स्नेह करने वाले होते है और सबका भला सोचने वाले होते है | एक सौ उन्नीस शीलवंत सबसे बड़ा, सब रतनन की खान | [ शब्द का अर्थ :-शीलवंत-चारित्र्यवान, रतनन-रत्न, शील-चारित्र्य ] भावार्थ- इस संसार में मनुष्यों के बीच सबसे बड़ा स्थान नही धनवान का होता है, नही राजा का होता है और नहीं किसी सम्राट का होता है | सबसे बड़ा स्थान होता है शीलवान पुरुष का | शीलवंत पुरुष सज्जनता, सदाचार, धार्मिकता, विनयशीलता और नम्रता इन गुणों से युक्त होता है | कबीरजी कहते है शीलवान पुरुष इस संसार में मिलनेवाले रत्नों में से सबसे मौल्यवान रत्न है | जिसके पास शीलता है उसके पास मानों तीनों लोकों की संपत्ति है | KABIR KE DOHE एक सौ बीस कुटिल वचन सबसे बुरा, जा से होत न चार | [ शब्द का अर्थ :-कुटिल वचन-कठोर बोल, साधू वचन-सज्जन वाणी, मीठे बोल ] भावार्थ- इस जगत में सबसे बुरे कठोर वचन (बोल) होते हैं, ऐसे कडवे बोल किसी को नहीं बोलने चाहिए जिससे लोग नाराज हो जाये, कडवे बोल किसी भी चीज या समस्या का समाधान नहीं कर सकते | कड़वे शब्द वाले व्यक्तियों को कोई प्यार नहीं करता है | मनुष्य को हमेशा मधुर वाणी ही बोलनी चाहिए | सज्जन व्यक्ती की मीठी वाणी जल के समान होती है | जब सज्जन व्यक्ती, साधू व्यक्ती अपनी मीठी वाणी से बोलता है तो ऐसा लगता है मानो अमृत की वर्षा हो रही हो | अर्थात कडवे वचन बोलने से हमारा ही नुकसान होता है और मधुर वचन बोलने से फायदा | एक सौ इक्कीस कागा का को धन हरे, कोयल का को देय | [ शब्द का अर्थ :-कागा-कव्वा, हरे-चुरा लेना, देय-देना ] भावार्थ- इस जगत में कौआ और कोयल के बिच में कोयल को सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है | वैसे देखा जाये तो दोना का रंग-रूप समान है, पर फिर भी लोग सबसे ज्यादा कोयल को ही पसंद करते है | कौआ किसीकी धन-संपत्ति को चुराता नहीं है और नही कोयल किसीको कुछ देती है फिर भी लोग कोयल को पसंद करते है, इसका सबसे प्रमुख कारण है बोली | कौआ अपनी कर्कश, कठोरे वाणी से सबको परेशान कर देता है पर कोयल अपनी मीठी बोली से सबको आनंद देती है, सबका मन मोह लेती है | यह फर्क है सिर्फ मीठी बोली का | अर्थात कठौर वचन बोलने से लोग हमसे घृणा करते है और मधुर वचन बोलने से प्यार | एक सौ बाईस मांगन मरण समान है, मत मांगो कोई भीख | [ शब्द का अर्थ :-मांगन-माँग के खाना , मरण-मृत्यु, भला-अच्छा ] भावार्थ- इस संसार में मनुष्य के लिए सबसे बड़ा होता है आत्मसन्मान | आत्मनिर्भरता, आत्मसन्मान ही है जो मनुष्य को संसार में इज्जत और मान-सन्मान दिलाता है | बिना आत्मसन्मान वाले मनुष्य की संसार में कोइ इज्जत नहीं होती है | इसीलिए कबीर जी कहते हैं कि मनुष्य को अपना पेट भरने के लिए, जीवन जीने के लिए किसीके सामने हाथ नहीं पसारने चाहिए, भिखारी बनकर भीख नहीं मांगनी चाहिए, मांगना तो मृत्यु के समान है | दुनिया को सद्गुरु, साधू-संत सिखा गए है, उपदेश करके गए है की अपना पेट भरने के लिए किसीसे भीख नही मांगनी चाहिए, मांगने से तो मरण अच्छा है, मृत्यु अच्छी है, इससे आत्मसन्मान तो बना रहेगा | KABIR KE DOHE एक सौ तेईस कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर | [ शब्द का अर्थ :-खैर-सलामती, काहू-किसीसे, बाज़ार-संसार, बैर-दुश्मनी ] भावार्थ- कबीर जी कहते है इस संसार में खड़ा होकर परमपिता परमेश्वर से अच्छे-बुरे, धनवान-गरीब सबके सलामती और अच्छाई के लिए में उस प्रभु से दुआ मांगता हूँ | दुनिया में सबके साथ एक समान व्यवहार रखना चाहिए, नाही किसीसे ज्यादा मित्रता करनी चाहिए और नाही किसीसे दुश्मनी करनी चाहिए | दोस्त है तो इसका भला करूऔर दुश्मन है तो इसका बुरा करू इस व्यर्थ सोच में नही पड़ना चाहिए | अर्थात मनुष्य को सबका भला करना चाहिए दोस्ती दुश्मनी के चक्कर में नही पड़ना चाहिए | एक सौ चौबीस कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन | [ शब्द का अर्थ :-उरझि-उलझा, सुरझ्या-सुलझा, चेत्या-सावधान, अजहूँ-आजभी ] भावार्थ- कितने दिन-साल गुजर गए पर यह मन अब तक इस संसार में उलझ कर सुलझ नहीं पाया है | यह मन अभी तक भोग-वासनाओमें ही लिपट कर रहना चाहता है | यह मन अभी तक होश में नहीं आया है और विषय-वासनाओंसे तृप्त नहीं हुआ है | आज भी इसकी अवस्था पहले दीन जैसी ही है, आज भी यह विषय-वासनाओंमें ही रहना चाहता है | अब हमें इस मन को इश्वर के भक्ति की और प्रेरित करना चाहिए | KABIR KE DOHE एक सौ पच्चीस झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद | [ शब्द का अर्थ :- मानत-समझना, मोद-प्रसन्न, जगत-संसार, चबैना-ग्रास, निवाला ] भावार्थ- कबीर जी कहते है, अरे मनुष्य तू संसार के झूठे सुखों को सुख समझकर मन में प्रसन्ना हो रहा है | यह संसार तो काल का ग्रास है, भोजन है कुछ उसके मुख में है तो कुछ उसके झोली में है | अर्थात इस संसार के सभी प्राणी नश्वर है कुछ काल द्वारा नष्ट कर दिए गए है और कुछ काल की झोली में है जिनका भी कुछ समय द्वारा अंत हो जाएगा | एक सौ छब्बीस कबीर
सो धन संचे, जो आगे को होय | [ शब्द का अर्थ :-संचे-जमा करो, आगे को-भविष्य के लिए, सीस-शीर, सर, कोय-किसीको ] भावार्थ-कबीरजी कहते है मनुष्य को अपने जीवन में उतने ही धन का संचय करना चाहिए जो उसके वर्तमान और भविष्य के काम आ सके | लोगों से दुर्व्यवहार करके, दींन-रात मेहनत करके बहुत सारा धन जमा करके क्या फायदा, आपने किसी धनवान, सावकार, राजा या सम्राट को मरने के बाद अपना खजाना सर पे लाद के ले जाते हुए देखा है | अर्थात जब हमें सब कुछ यही छोड़ कर जाना है तो क्यों न सत्कर्म करके, इश्वर की भक्ती करके इस दुनिया से विदा हो जाए | एक सौ सत्ताईस कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई | [ शब्द का अर्थ :-आतमा-आत्मा, हरी-इश्वर, बनराई-जंगल, भई-बन गयी ] भावार्थ- कबीरजी कहते है, प्रेम में इतनी ताकत है की मनुष्य का जीवन बदल देता है | आपबीती सुनाते हुए कबीर कहते है कही से प्रेमरूपी बादल मेरे ऊपर आ गया और प्रेम की वर्षा कर मेरी अंतर आत्मा तक को भिगो गया | प्रेम की इस वर्षा से चमत्कार हो गया और मेरे आस पास का पूरा परिवेश हरा-भरा हो गया, खुश हाल हो गया | यह प्रेम का अपूर्व प्रभाव है | अर्थात प्रेम में अपार शक्ती है उसे सिर्फ महसूस करने की जरूरत है | KABIR KE DOHE एक सौ अट्ठाईस लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल | [ शब्द का अर्थ :-लाली–रंगा हुआ , लाल–प्रभु , जित–जिधर, देखन–देखना ] भावार्थ- कबीरदास यहां अपने ईश्वर के ज्ञान प्रकाश का जिक्र करते हैं। वह कहते हैं कि यह सारी भक्ति यह सारा संसार, यह सारा ज्ञान मेरे ईश्वर का ही है | मेरे लाल का ही है जिसकी मैं पूजा करता हूं और जिधर भी देखता हूं उधर मेरे प्रभु ही प्रभु ही नजर आते हैं | एक छोटे से कण में भी, एक चींटी में भी, एक सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों में भी मेरे लाल का ही वास है। उस ज्ञान, उस प्राण, उस जीव को देखने पर मुझे इश्वर ही इश्वर के दर्शन होते है और नजर आते हैं | स्वयं मुझमें भी मेरे प्रभु का वास नजर आता है | अर्थात सृष्टि के कण कण में इश्वर का वास है | एक सौ उनतीस काबा फिरी कासी भया, रामहीं
भया रहीम | [ शब्द का अर्थ :-काबा-मुसलमानों का तीर्थस्थल, कासी-(काशी) हिन्दुओंका तीर्थस्थल, मोट चून-मोटा आटा, बैठि-बैठकर, जीम-भोजन करना ] भावार्थ- इश्वर एक ही है तथा अलग-अलग धर्मों में उसके नाम भिन्न है और उसकी उपासना करने के तरीके अलग-अलग है | हिन्दू लोगों का पवित्र स्थल काशी है और मुसलमानों का काबा | कबीर कहते है इश्वर एक ही है इसलिए राम ही रहीम है और रहीम ही राम है | जिस प्रकार से गेहूं को पीसकर मोटा आटा बनता है, मोटे आटे को पीसकर मैदा बनता है और दोनोंका भोजन किया जा सकता है | उसी प्रकार से मनुष्य एक इश्वर की ही संतान है भले ही उनके नाम अलग-अलग क्यों ना हो| अर्थात जब मनुष्य को सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है तब उसे काबा-काशी, राम-रहीम एक ही लगने लगते है | वह सबको एक ही भाव से देखता है | KABIR KE DOHE एक सौ तीस श्रम ही ते सब होत है, जो मन राखे धीर | [ शब्द का अर्थ :- कूप-कुंआ, थल-जमीन, नीर-पाणी, जल ] भावार्थ- जीवन में मेहनत से मुश्किल कामों को भी किया जा सकता है, मनुष्यों को बस धेर्यपूर्वक अपने काम में लगे रहना चाहिए | मेहनत ही है जो उसे सफलता का मार्ग दिखला सकती है | जैसे मेहनत से, धेर्य से कुआं खोदने पर कठोरे धरती से भी कोमल शीतल जल निकल आता है | अर्थात जो मनुष्य अपने जीवन में मेहनत करता है वह यश पाता है | एक सौ इकतीस झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह | [ शब्द का अर्थ :-पाहन-पत्थर, माटी-मट्टी, मेंह-मेघ ] भावार्थ- अचानक से आसमान में बादल जमा हो गए और रिमझिम-रिमझिम बरसात होने लगी | इस रिमझिम बरसात में पत्थर और मीट्टी दोनों भीग गए | इस बरसात से मिट्टी तो भीग कर सजल हो गई किन्तु पत्थर वैसा का वैसा बना रहा | पत्थर के कठोरता में कुछ भी फर्क नहीं हुआ | अर्थात कोमल ह्रदय का मनुष्य ही प्रेम को, इश्वर को महसूस कर सकता है | कठोर ह्रदय मनुष्य पर कितनी भी प्रेम की वर्षा हो जाये उसे कुछ महसूस नहीं होता | एक सौ बत्तीस जो तोकू कांता बुवाई,
ताहि बोय तू फूल | [ शब्द का अर्थ – कांता–काँटा , बुवाई–बोना , ताहि–उसको, बाको–उसको ] भावार्थ- कबीरदास जी का मानना है कि जो जैसा करता है , उसको वैसा ही फल मिलता है अगर कोई अच्छा कर्म करता है तो उसे अच्छा ही प्राप्त होता है और बुरा कर्म करने वाले को बुरा ही प्राप्त होता है। कबीरदास कहते हैं आप संतो की भांति व्यवहार करें , जिस प्रकार संत बुरा किए जाने पर भी सदैव हंसकर मुस्कुरा कर बात करते हैं। इसलिए संत का कभी अमंगल नहीं होता , वही कुत्सित बुद्धि वाले का कभी मंगल नहीं होता। KABIR KE DOHE एक सौ तैंतीस मान, महातम, प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह | [ शब्द का अर्थ :- गरवा-गौरव, नेह-स्नेह, अहला गया-बह गया ] भावार्थ- इस संसार में जब लेने की बारी आती है तो लोग खुशीसे स्वीकारते है पर जब उनसे कुछ देने को कहां जाता है तो उनके सामने मानो संकट खड़ा हो जाता है | इस संसार में मान, महत्त्व, प्रेम रस, गौरव, गुण तथा स्नेह सब बाढ़ में बह जाते हैं जब किसी मनुष्य से कुछ देने के लिए कहा जाता है | एक सौ चौंतीस जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाइ | [ शब्द का अर्थ :-दसा-दशा, स्थिती ] भावार्थ- मनुष्यने अपने जीवन में इस बात से कभी भी परेशांन नहीं होना चाहिए, दुखी नहीं होना चाहिए के उसके जीवन में से कोइ चला गया | जो जाता है उसे जाने दो, तुम अपनी स्थिति को, दशा को न जाने दो | केवट की नाव में जैसे अनेक यात्री कुछ देर के लिए सफ़र करते है और फिर बिछड़ जाते है वैसे ही जीवन में अनेक व्यक्ति आकर तुमसे मिलेंगे | इसीलिए तुम किसी के जाने पर शोक नहीं करना, दुखी नहीं होना | KABIR KE DOHE एक सौ पैंतीस जिहि घट प्रेम न प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम | [ शब्द का अर्थ :-घट-मन, ह्रदय, रसना-जिह्वा, जबान, उपजी-उत्पन्न होना ] भावार्थ- इस संसार में जिस मनुष्य के मन में, ह्रदय में उस परमपिता परमेश्वर के प्रती प्रेम ना हो और नाहीं प्रेम का रस हो | जिस मनुष्य अपने जिव्हा से, मुख से अपने जीवन में कभी भी इश्वर का नाम नही लिया हो, उसकी भक्ती नहीं को हो | कबीरजी कहते ऐसे मनुष्य का जीवन व्यर्थ है, ऐसा मनुष्य इस संसार में जनमकर भी कुछ काम का नही है, वह बेकाम है | अर्थात प्रेम के बिना और इश्वर के भक्ती के बिना मनुष्य का जीवन व्यर्थ है | एक सौ छत्तीस यह घर है प्रेम का, खाला का घर नाही | [ शब्द का अर्थ:- खाला–मौसी, शीश–सिर, भुई–भूमि, पैठो–जाओ ] भावार्थ- कबीरदास कहते हैं की भक्ति प्रेम का मार्ग है, प्रेम का घर है | भक्ति प्रेम से होती है और ईश्वर की प्राप्ति के लिए प्रेम अति आवश्यक है | यह कोई रिश्तेदार का घर नहीं है कि आप आए और आपको भक्ति और प्रेम मिल जाए | इसके लिए कठिन तपस्या और साधना की आवश्यकता होती है | इसके लिए सिर झुकाना पड़ता है अर्थात सांसारिक मोह माया को त्यागना पड़ता है और सबको प्रेम भाव से अपनाना पड़ता है | इस प्रेम से ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। एक सौ सैंतीस नैना अंतर आव तू, ज्यूं हौं नैन झंपेउ | [ शब्द का अर्थ :-नैना-आँखें, झंपेउ-बंद करना ] भावार्थ- कबीरजी कहते है, हे परम पीता परमेश्वर, हे तिनो लोक के स्वामी तुम्हारे भक्ती में, तुम्हारे प्रेम मे, मैं पुरी तरह से डूब चूका हूँ | अब तुम्हारे बिन एक पल भी रहना मुश्कील है | तुम मेरे इन दो नेत्रों के मार्ग से मेरे भीतर, मेरे ह्रदय के अन्दर आ जाओ और फिर में अपने इन आँखों को बंद कर लूँगा | ऐसा करने से न तो मैं किसी और को देख पाऊँगा और नहीं किसी और को तुम्हे देखने दूंगा | KABIR KE DOHE एक सौ अड़तीस कबीर रेख सिन्दूर की, काजल दिया न जाई | [ शब्द का अर्थ :-नैनूं-आँख, दूजा-दूसरा, समाई-समाना, निवास करना ] भावार्थ- विवाहित स्त्री अपने मांग में (बालों में) सिंदूर भरती है | औरतें काजल आँख में लगाती है | जहाँ सिंदूर भरा जाता है वहापर काजल लगाया नहीं जा सकता और जहाँ आखों में काजल लगाया जाता है वहां सिंदूर लगाया नहीं जा सकता | उनकी जगह बदली नहीं जा सकती | उसी प्रकार से जब भक्त के नेत्रों में तीनो लोक के स्वामी स्वयम श्री राम समाये हो तो उन नेत्रों में कोइ और कैसे समां सकता है | यह असंभव है | एक सौ उनतालीस सातों सबद जू बाजते, घरि घरि होते राग | [ शब्द का अर्थ :-सबद-शब्द , काग-कव्वा ] भावार्थ- जिन घरों में, महलों में कभी सप्तसुर गूंजते थे, बड़े-बड़े गवय्ये अपने मधुर सुर बरसाते थे | जहाँ हर घड़ी आनंद का, उत्सव का माहोल रहता था | ऐसे धनवानो के महल समय के साथ-साथ बुरे वक्त के चलते रित्क्त पड़े है, खाली पड़े है | जहाँ कभी सप्तसुरों से माहोल सजता था, आज वहा कव्वे निवास करने लगे है और अपने कर्कश आवाज में गा रहे है | अर्थात संसार मे कुछ भी स्थायीरूप में नहीं होता है, पल पल में सब कुछ बदलता रहता है | जहां पहले खुशियाँ थी वहां गम छा जाता है जहां सुख था वहां दुःख डेरा डाल सकता है, यही संसार का नियम है | KABIR KE DOHE एक सौ चालीस कबीर मंदिर लाख का, जडियां हीरे लालि | [ शब्द का अर्थ :-चारि-चार, बिनस जाएगा-टूट जाएगा, कालि-कल ] भावार्थ- इस संसार में मानव सबसे ज्यादा अपने देहसे (शरीर) प्यार करता है |हर कष्ट से इसे बचाने की कोशिश करता है | जतन करके मेहनत करके शरीर को सजाता हैं, वह भूल जाता है की यह शरीर लाख का बना मंदिर है जिसमें हीरे और लाल जड़े हुए हैं | यह चार दिन का खिलौना है कभी भी नष्ट हो सकता है और हम जान भी नहीं पाएंगे | अर्थात यह देह नश्वर है, क्षणभंगुर है, इसे कितना भी प्यार करो एक दीन इसका अंत हो जायेगा | एक सौ इकतालीस तेरा संगी कोई नहीं, सब स्वारथ बंधी लोइ | [ शब्द का अर्थ :- संगी -साथी, स्वारथ-स्वार्थ, बेसास-विशवास, उपजै-उत्पन्न होना ] भावार्थ- इस संसार में मनुष्य अपने परिवार में, दोस्तों में इस तरह से रमा रहता है की वो सच जान ही नहीं पाता है की यह रिश्ते-नाते है सब स्वार्थ में बंधे होते है | इस संसार में कोइ किसीका संगी-साथी नहीं है | जब तक मनुष्य में मन में इस बात के प्रती एहसास उत्पन्न नहीं होता तब तक उसका आत्मा के प्रती विश्वास जागृत नही होता | और जब आत्मा के प्रती मनुष्य का विश्वास जागृत होता है तब वह अपने भीतर झांकता है | अर्थात जब मनुष्य को जीवन के वास्तविकता का ज्ञान होता है तब उसकी अध्यात्मिक उन्नती शुरू होती है | एक सौ बयालीस झूठे को झूठा मिले, दूंणा बंधे सनेह | [ शब्द का अर्थ :- साँचा-सच्चा, सनेह-स्नेह, प्रीती, दूंणा-दुगना ] भावार्थ- जब एक झूठे बोलने वाले व्यक्ती को, झूठ बोलने वाले व्यक्ती से ही मित्रता होती है तो दोनों का एक दुसरे के प्रती स्नेह, प्रेम दीनोदीन बढ़ता ही जाता है | क्योंकी दोनों की प्रवृती, विचार समान होते है | पर जैसे ही एक झूठ बोलने वाले मनुष्य की, एक सच्चे बोलने वाले व्यक्ती से मित्रता होती है, यह मित्रता ज्यादा समय तक नहीं चल पाती और उनका स्नेह टूट जाता है | अर्थात विपरीत प्रवृत्ति वाले व्यक्ती एक दुसरे के साथ ज्यादा दीन तक नहीं रह सकते | KABIR KE DOHE एक सौ तैंतालीस कबीर चन्दन के निडै, नींव भी चन्दन होइ | [ शब्द का अर्थ :- निडै-करीब, बड़ाइता-बढ़ाई करना ] भावार्थ- जिन्दगी में अच्छे लोगों के साथ रहनेसे उनके कुछ अच्छे गुण भी हम ग्रहण कर लेते है | जिस प्रकार से चन्दन के सुवासीक वृक्ष के पास अगर कडवे नीम का पेड़ भी हो तो वह चन्दन का कुछ सुवास तो ले ही लेता है, चन्दन के स्वाभाव के कुछ गुण तो ग्रहण ही कर लेता है | पर बांस का पेड़ जो अपनी ऊँचाई के कारण अहंकार में डूबा हुआ रहता है, अपने बड़प्पन के कारण डूब जाता है | इस तरह तो किसी को भी नहीं डूबना चाहिए | अर्थात मनुष्य को अपने जीवन में अच्छे संगति के द्वारा, अच्छे गुणों का ग्रहण करना चाहिए | अपने गर्व में ही नही रहना चाहिए, इससे मनुष्य अधोगती को प्राप्त होती है | एक सौ चौवालीस मूरख संग न कीजिए ,लोहा जल न तिराई
| [ शब्द का अर्थ :-मूरख-मुर्ख, संग-सोबत, तिराई-तैरना ] भावार्थ- मनुष्य के जीवन में संगती का परिणाम जरूर होता है | अच्छे संगती का अच्छा और बुरे संगती का बुरा परिणाम देखने को मिलता है | कबीरदास कहते है मूर्ख का साथ मत करो, मूर्ख लोहे के सामान होता है जो जल में तैर नहीं पाता डूब जाता है | मुर्ख आदमी से दोस्ती करके मनुष्य को पछतावा ही करना पड़ता है | जीवन में अच्छे संगति का प्रभाव इतना पड़ता है कि आकाश से एक बूँद केले के पत्ते पर गिर कर कपूर, सीप के अन्दर गिर कर मोती और सांप के मुख में पड़कर विष बन जाती है | अर्थात जीवन में सद्गुणी मनुष्य से दोस्ती हमेशा हितकारक होती है | KABIR KE DOHE एक सौ पैंतालीस मन मरया ममता मुई, जहं गई सब छूटी | [ शब्द का अर्थ :- मरया-मर गया, मुई-समाप्त होना, जोगी-साधू ] भावार्थ- इस संसार में हमेशा उसकी ही जय होती है, उसका ही नाम रह जाता है, जिस मनुष्य ने अपने मन को मार डाला हो, सारी मोह, माया, ममता जिसने त्याग दी हो और अपने अहंकार को समाप्त कर दिया हो |ऐसा योगी मनुष्य जिसने अपने जीवन भर में प्रभु की भक्ती की हो और लोक कल्याण का कार्य किया हो | कबीरदास कहते है ऐसा जो योगी था वह तो यहाँ से चला गया अब आसन पर उसकी भस्म – विभूति पड़ी रह गई अर्थात संसार में केवल उसका यश रह गया, उसने कीए हुए कामोंकी किर्ती रह गयी | अर्थात मनुष्य इस संसार से चला जाता है और पीछे रह जाते है उसने किये हुए कर्म | एक सौ छियालीस जल में कुम्भ कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी | [ शब्द का अर्थ :- कुम्भ-घड़ा, मटका, जल-पाणी, गयानी-ज्ञानी, तथ-तथ्य, सत्य, समाना-एकत्रित होना ] भावार्थ- जब कुएं का या नदी का पाणी घड़े में भरा जाता है, तब घड़े के अन्दर पाणी जमा हो जाता है | मतलब अब घड़े के अन्दर भी पाणी है और बाहर भी पाणी है जहांसे इस जल को भरा गया | अगर पाणी भरते वक्त घड़ा फूट जाता है तो घड़े के अन्दर का पाणी, बाहर के पाणी में समां जाता है और दोने फिरसे एकरूप हो जाते है, इनमे कोइ अलगाव नहीं रहता, जिस तरहसे मनुष्य की आत्मा और परमात्मा एक है | ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं की आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं | आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है | जब मनुष्य देह त्यागता है तो उसकी आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है, समा जाती है | एक सौ सैंतालीस पढ़े गुनै सीखै सुनै, मिटी न संसै सूल | [ शब्द का अर्थ :-संसै-संशय, सूल-कांटा, कासों कहूं-किससे कहूं ] भावार्थ- ज्ञानी बनने की चाह में, मन में उभरे सवालों के जवाब ढूंढने की चाह में आदमी बहुत सारी पुस्तके पढता है, गुनता है, सीखता है और सुनता है | फिर भी उसके मन में गड़ा संशय का काँटा नीकलता नहीं है, उसे अपने सवालों के जवाब मिलते नहीं है | कबीरदास कहते है, कि किसे समझा कर यह कहूं कि यही तो सब दुखों की जड़ है | ऐसे किताबे पढने से,पठन मनन करने से क्या लाभ जो मन का संशय न मिटा सके और नहीं सवालों के जवाब मिल संके | एक सौ अड़तालीस कबीर सोई पीर है, जो जाने पर पीर | [ शब्द का अर्थ :-पीर-अच्छा मनुष्य, पर पीर-दूसरों की पीड़ा, काफिर बेपीर-दुष्ट और जालिम ] भावार्थ- कबीरदास कहते है, वही मनुष्य अच्छा मनुष्य है, सच्चा मनुष्य है, संत है जो दूसरों के पीड़ा को, दुःख को, दर्द को अपना जानकर समझता है, उसे महसूस करता है और उनके दुखों में शामिल होता है | और जो मनुष्य दूसरे के दुःख, दर्द, पीड़ा को नहीं जानता है, समझता है वह बेदर्द हैं, निष्ठुर हैं और काफिर हैं | अर्थात जो दूसरोंकी पीड़ा को जानता है, समझता है वही सच्चा मनुष्य, सच्चा संत होता है | एक सौ उनचास मन मैला तन ऊजला, बगुला कपटी अंग | [ शब्द का अर्थ :-मैला-गन्दा, तन-शरीर, तासों तो-उससे तो, भला-अच्छा ] भावार्थ- अगर कोइ मनुष्य तन से उजला है, उसने अच्छे वस्त्र पहन के रखे है और वह बहुत अच्छी बातें करता है पर अगर उसका मन कपट से, दृष्टता से भरा है तो उसके अच्छे रहेन सेहन का क्या फायदा | जिस तरह से बगुला तन से उजला होता है पर उसका मन कपट से भरा, मैला होता है तो उसके उजला होने से क्या फायदा ? उससे अच्छा तो कव्वा होता है जिसका तन मन एक जैसा होता है और वह किसी को छलता भी नहीं है | अर्थात उज्वल मन मनुष्य मात्र का सच्चा आभूषण है | KABIR KE DOHE एक सौ पचासदेह धरे का दंड है, सब काहू को होय | [ शब्द का अर्थ :-दंड-सज़ा, धरे का-धारण करने का ] भावार्थ- जब इस संसार में मनुष्य देह धारण करता है तो उसे सुख और दुःख दोनों का सामना करना पड़ता है | आमिर-गरीब, बलवान-दुर्बल या ज्ञानी-अज्ञानी सबको जीवन में सुख-दुःख का सामना करना पड़ता है | अंतर इतना ही है कि ज्ञानी, समझदार व्यक्ति इस भोग को, दुःख को समझदारी से, धैर्य से भोगता है और जीवन में संतुष्ट रहता है | जबकि अज्ञानी व्यक्ती रोते हुए, दुखी मन से सब कुछ झेलता है और अपना जीवन पीड़ा में व्यतीत करता है | अर्थात मनुष्य को जीवन के दुखोंका धैर्य से सामना करना चाहिए | एक सौ इक्यावन हीरा परखै जौहरी, शब्दहि परखै साध | [ शब्द का अर्थ :-परखै-जाँचना, साध-साधू, अगाध-गहन ] भावार्थ- इस संसार में अनमोल रत्नों की और हिरोंकी परख जौहरी जानता है, शब्द के सार और असार को परखने वाला विवेकी साधु–सज्जन होता है | इन लोगों के निर्णय से हर कोइ सहमत होता है क्योंकी यह पने कार्य में प्रवीण होते है | कबीर कहते हैं कि इन सबसे बड़ा विशेषज्ञ होता है वह साधु, योगी जो असाधु को, दुर्जन को परख लेता है, उसका मत सबसे अधिक गहन गंभीर है | एक सौ बावन कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और | [ शब्द का अर्थ:-नर-मनुष्य, हरि-इश्वर, रूठे-नाराज होना, ठौर-डोर ] भावार्थ- कबीर दास जी कहते है की इस संसार में मनुष्य अध्यात्मिक दृष्टी से, प्रभु के भक्ती मार्ग को ढूंढने में अच्छे गुरु के बिना असमर्थ होता है, अंध होता है | कभी कभी वह सच्चाई के मार्गसे भटक जाता है तो गुरु ही उसे सही मार्ग बताता है | जब किसी कारण इश्वर आपसे नाराज हो जाते है, संकट आपपे मंडराने लगते है तो गुरु एक डोर हैं जो ईश्वर से आपको मिला देती हैं, आपके सारे कष्ट दूर कर देते है | लेकिन अगर गुरु ही आपसे नाराज हो जाए तो इस संसार में ऐसी कोई डोर नही, ऐसा कोइ मार्गदर्शक नहीं होता जो आपको सहारा दे | एक सौ तिरेपन बैद मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार | [ शब्द का अर्थ :-बैद–वैद्य, चिकित्सक, मुआ–मर जाना, मृत्यु, सकल–सभी, आधार–सहारा ] भावार्थ- कबीर दासजी कहते है, वैद्य मर जाता है, रोगी मर जाता है और यह संसार भी एक दिन खत्म हो जाता है | किंतु जो भक्ति के मार्ग पर निकल जाता है, वह कभी समाप्त नहीं होता | जो श्रारीम के संरक्षण में चले जाते हैं, उसका कभी कोई अमंगल नहीं होता | संकट में भी राम की स्नेह रूपी डोर अपने भक्तों से बंधी रहती है | ऐसे दयावान राम का आधार पाकर कोई भी अमंगल कैसे हो सकता है | अर्थात भगवान का भक्त सदा सुखी रहता है | एक सौ चौवन कबीर कहा गरबियौ, ऊंचे देखि अवास | [ शब्द का अर्थ :-गरबियौ-गर्व, आवास-भवन, काल्हि-कल, भ्वै-पृथ्वी, लौटणा-गिरना ] भावार्थ- हे मनुष्य ऊँचे ऊँचे भवनों को देखकर गर्व करने से क्या लाभ, यह गर्व निरर्थक है क्यों की समय के साथ यह भवन पुराने हो जायेगे और धरती पर गिर पड़ेंगे, सुनसान हो जायेंगे और इनपर घास उग आयेगी | अर्थात सम्पूर्ण वैभव यह नाशवान है | इसलिए मनुष्य ने गर्व छोड़कर सत्कर्म करने चाहिए, इश्वर की आराधना करनी चाहिए उसमेही भलाई है | KABIR KE DOHE एक सौ पचपन राम रसायन प्रेम रस, पीवत अधिक रसाल | [ शब्द का अर्थ:– राम–भगवान, रसायन–अभिक्रिया से उत्त्पन्न वैज्ञानिक रस, रसाल–रसीला, दुर्लभ–जो सरल न हो, कलाल–कटा हुआ ] भावार्थ- कबीर कहते हैं राम नाम का जो रस है जो रसायन है | वह दुर्लभ है वह सभी को नहीं मिलता है | राम नाम का रस तो उसी को मिलता है जो राम की खोज करता है| इसके लिए अपने शीश को कटवाना पड़ता है | मगर राम नाम का रस जिसको भी मिलता है उसे किसी और चीज़ की आवश्यकता नहीं होती है। इसी बात को कबीर फिर कहते हैं कि राम नाम का रस दुर्लभ है जो कबीर को भी नहीं मिल पाया | पिने वाले इस रस को रसीला मानते है, इस में मिठास है | एक सौ छप्पन कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीख | [ शब्द का अर्थ :–सतगुरु–सच से परिचय करवाने वाला, स्वांग– कुत्ता, पहरी–पहरेदारी, घरी–घर ] भावार्थ- प्रस्तुत पंक्ति में गुरु के महत्व को स्वीकार किया गया है | बिना गुरु के सच्चा ज्ञान नहीं मिल सकता , उसके बिना मिला हुआ ज्ञान अधूरा ही होता है | वह व्यक्ति कभी भी पूर्ण रूप को नहीं जान पाता, अर्थात पूर्ण सत्य को कभी भी नहीं जान पाता | जिस प्रकार कुत्ता दर-बदर भोजन के लिए भटकता रहता है | ठीक इसी प्रकार अधूरा ज्ञान प्राप्त किया हुआ व्यक्ति भटकता फिरता है | किंतु उसे पूर्ण ज्ञान की कही प्राप्ति नहीं होती | एक सौ सत्तावन कबीरा गरब ना कीजिये, कभू ना हासिये कोय | [ शब्द का अर्थ :–गरब–गर्व, कभू–कभी, हासिये–हँसिये, कोय–कोई, अजहू–अभी ] भावार्थ- कबीरदास का स्पष्ट मानना है कि किसी भी व्यक्ति पर हंसना नहीं चाहिए | उस व्यक्ति का उपहास नहीं करना चाहिए तथा कमियों पर कभी भी मुस्कुराना और सार्वजनिक नहीं करना चाहिए | आप किसी का हित कर सकते हैं तो अवश्य करें। किंतु कभी भी हंसने से बचना चाहिए | समय का फेर है नाव कब समुद्र में डूब जाए, यह कोई नहीं जानता | ठीक इसी प्रकार जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं | आज आपका दिन ठीक है, कल कैसा रहेगा यह तो कोई नहीं जानता | इसलिए दूसरे पर हंसी उड़ाने से पहले अपने भविष्य को भी जानना चाहिए | कल आपके साथ कैसी घटना घट जाए या स्वयं आप भी नहीं जान पाते | एक सौ अट्ठावन सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह | [ शब्द का अर्थ :– शील–स्वभाव, थाह–भेद, द्रव्य–पूंजी, शाह–राजा ] भावार्थ- कबीर दास का मानना है कि सागर का शांत स्वभाव ही ठीक है, शांत रहते हुए भी कोई इसकी था नहीं ले पाता | साधु के शब्द ही उसे महान बनाते हैं, उसके स्वभाव में कभी उग्रता नहीं देखी जाती | जिस प्रकार सागर शांत रहता है इसीलिए वह विशाल है | ठीक इसी प्रकार बिना पूंजी के अर्थात धन के कोई राजा नहीं बन सकता। यह धन उसके गुण उसके शील स्वभाव ही होते हैं | एक सौ उनसठ गुरु को सर रखिये, चलिए आज्ञा माहि | [ शब्द का अर्थ :– सर–शीश, माहि–अनुसार, तीन लोक-त्रिलोक ] भावार्थ- कबीर दास गुरु का विशेष महत्व देते हैं | उनका मानना है कि जो गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलता है , वह कभी भी भटकता नहीं है | वह कभी गलत राह को नहीं अपनाता | तीनो लोक में वह निर्भीक हो जाता है, क्योंकि गुरु कभी गलत रास्ता नहीं बताता | KABIR KE DOHE एक सौ साठ कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर | [ शब्द का अर्थ :– गढ़ने–बनना, आकार देना, बख्तर–रक्षा ढाल, शमशेर–तलवार ] भावार्थ- कबीर दास ने लोहे का सहारा लेते हुए व्यक्ति के चरित्र निर्माण पर दृष्टिपात किया है। उन्होंने बताया है लोहा एक ही प्रकार का होता है | उसी लोहे से रक्षा करने वाली ढाल अर्थात बख्तर का निर्माण किया जाता है | वहीं दूसरी ओर जीवन हरने वाली तलवार भी बनाई जाती है | दोनों का अपना महत्व है इसके बनाने वाले पर निर्भर करता है कि वह क्या बनाना चाहता है | ठीक इसी प्रकार व्यक्ति का चरित्र निर्माण भी संभव है | शिक्षक जिस प्रकार अपने शिष्य को तैयार करेगा वह शिष्य भी उसी प्रकार तैयार होगा | कहने का आशय यह है कि व्यक्ति में जिस प्रकार के गुण डाले जाएंगे उसी प्रकार का गुण व्यक्ति में होगा | एक सौ इकसठ जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध | [ शब्द का अर्थ:- जाका-जिसका, अंधला-अँधा, चेला-शिष्य, कूप-कूआ, पडंत-पड़ते है, दून्यूँ-दोनों ] भावार्थ- कबीरदास जी कहते है, शिष्य को गुरु चयन के वक्त अंत्यंत सावधानी बरतनी चाहिये, गुरु अगर अज्ञानी मिल जाता है, मूढ़ मील जाता है तो ऐसे शिष्य की दुर्गती ही होती है | गुरु और शिष्य दोनों ही मुर्ख होगे तो वो सही मार्ग पर न चलकर कूए में जा गिरेंगे, अर्थात खुद संकट में फस जायेंगे | इसलिए जीवन में ज्ञानी गुरु का होना बहुत महत्वपूर्ण है | एक सौ बासठ यह तन
जारौं मसि करो, लिखौ राम का नाऊँ | [ शब्द का अर्थ- तन-शरीर, जारौं-जलाकर, मसि-स्याही, नाऊँ-नाम, करंक-हड्डी, पठाऊँ-भेजूंगी ] भावार्थ- परमात्मा के विरह में व्याकुल जीवात्मा कहती है मैं अपने शरीर को जलाकर उसकी स्याही बनाऊंगी और मैं इस अपने शरीर के हड्डियों की लेखनी बनाकर उस स्याही से राम का नाम लिखकर, अपने उस प्रियतम राम के पास बार बार भेजती रहूँगी | अर्थात जिससे मुझ विरहनी के विरह दशा और पिडा को वो समझ सकेंगे | एक सौ तिरेसठ सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार | [ शब्द का अर्थ:- सतगुरु–शिक्षक, अनंत–जिसका कोई अंत न हो, उपकार–कृपा करना, उद्धार करना, लोचन – आँख, उघारिया–खोलना, दिखावण–दिखाना ] भावार्थ- कबीरदास कहते हैं कि गुरु के माध्यम से ही हमें वह दिव्य चक्षु अथवा ज्ञान की प्राप्ति होती है जिससे हम निराकार और अब निर्गुण में रूप का दर्शन कर पाते हैं | सतगुरु ही वह माध्यम है जिसके माध्यम से हमारे आंखों पर पड़े पर्दे हट सकते हैं | गुरु ही उस आवरण को हटाता है जिसके कारण हम ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर पाते | अर्थात निर्गुण निराकार के दर्शन नहीं कर पाते | सद्गुरु ही हमारे अंदर के चक्षु , आंखों को खोलते हैं उनके माध्यम से ही हमें अनंत, निराकार के दर्शन होते हैं | एक सौ चौंसठ जांमण मरण बिचारि, करि कूड़े काम निबारि | [ शब्द का अर्थ :-जांमण-जन्म, मरण-मृत्यु, बिचारि-विचार करके, जिनि पंथूं-जिस पंथपर, चालणा-चलना ] भावार्थ- इस संसार के मनुष्यों को इस बात का हमेशा स्मरण रखना चाहिए की जिसने इस धरती पर जन्म लिया है उसकी मृत्यु भी निश्चित है | जन्म-मरण के फेरे से अब तक कोइ भी बच नहीं पाया है भले ही वह महात्मा ही न क्यों हो | इस बात का ध्यान रखते हुए मनुष्य को बुरे कर्मों को छोड़ देना चाहिए और सदमार्ग अपनाना चाहिए | जिस सदमार्ग पर मनुष्य को चलना है उस मार्ग का स्मरण करके, उसे याद रखके, उस मार्ग को सवार के सुन्दर बनाना चाहिए | KABIR KE DOHE एक सौ पैंसठ तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार | [ शब्द का अर्थ :-तीरथ-तीर्थ क्षेत्र, फल-लाभ ,प्रसाद, प्राप्ती, सतगुरु-सद्गुरु ] भावार्थ- कबीरदास जी कहते है, जब मनुष्य पवित्र तीर्थ क्षेत्रों पर जाकर भगवान के दर्शन करता है तब उसे एक फल की प्राप्ती होती है | जब उसे संतो की संगति मिलती है, उनकी सेवा करने का, उनसे ज्ञान प्राप्त करने का अवसर मिलता है तो वह चार फल के प्राप्ती के बराबर होता है | अगर मनुष्य को संतो के संत, सद्गुरु से ज्ञान मिलता है, उनका कृपा प्रसाद मिलता है तो ऐसे संगतीसे उसे अनेको फलों की प्राप्ती होती है | एक सौ छियासठ प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय | [ शब्द का अर्थ :-पियाला-प्याला, सिस-शीर ] भावार्थ- इस संसार में जिस मनुष्य को भी प्रभु की भक्ती करनी है, प्रभू के प्रेम का रस पीना है उसे अपना शीश प्रभु को अर्पण करना होता है अर्थात अपने काम, क्रोध, भय, इच्छा, मोह, अहंकार को त्यागना होता है | जो लालची इन्सान होता है वह प्रभु का प्रेम, कृपा प्रसाद तो पाना चाहता है पर अपने काम, क्रोध, लोभ, अहंकार और मस्तर को त्यागना नहीं चाहता है | सारे भोगों को भोगते हुए वह प्रभु का प्रेम उसकी कृपा चाहता है | एक सौ सड़सठ राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय | [ शब्द का अर्थ :-राम-प्रभु / इश्वर, संग-साथी / सोबती ] भावार्थ-कबीरदास जी कहते है, मैंने अपना जीवन साधू-संतो के संग स्वर्गीय आनंद में बिताया है | जब मुझे मेरे जीवन के अंतिम समय में उस परमपिता परमेश्वर का बुलावा आया तो मैं दुःख से रो दीया | मैं इसलिए नहीं रोया के में मौत से डर गया | इसका कारण था साधू-संतो के संग मैंने जो ज्ञान पाया, जो अति आंनद पाया उतना आनंद तो साक्षात् प्रभु के वैकुण्ठ (स्वर्ग)में भी नहीं होगा | एक सौ अड़सठ ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार | [ शब्द का अर्थ :-माटी-मिट्टी, जतन कर-संभल के रख, संसार-दुनिया ] भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि यह संसार तो माटी का है, नश्वर है | यहा हर एक मनुष्य की मृत्यु निश्चित है | इस संसार में मृत्यु के बाद जीवन और जीवन के बाद मृत्यु इस फेरे में सारे जीवित प्राणी फसे हुए है | इसीलिए यहां जीते जी मनुष्य को हो सके उतना ज्ञान पाने की कोशिश करनी चाहिए नहीं तो मृत्यु के बाद जीवन और फिर जीवन के बाद मृत्यु यही क्रम चलता रहेगा | एक सौ उनहत्तर ज्यों नैनन में पुतली, त्यों मालिक घर माँहि | [ शब्द का अर्थ :-मूरख-मुर्ख, नैनन-आँख, मालिक-स्वामी / प्रभु, माँहि-मेरा ] भावार्थ- इस संसार में मनुष्य, इश्वर की तलाश में सारा जहाँ तलाश करता है, दर दर भटकता है, ठोकरे खाता है, पर उसे इश्वर मिलता नही | जैसे हमारे आँख के अन्दर पुतली होती है, ठीक वैसे ही ईश्वर हमारे अंदर बसा होता है | मूर्ख लोग इस बात को नहीं जान पाते और बाहर ही ईश्वर को तलाशते रहते हैं | KABIR KE DOHE एक सौ सत्तर कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम
रोये | [ शब्द का अर्थ :-करनी-कर्म ] भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि जब हम इस संसार में जनम लेते है, तो हम रोते हुए इस संसार में पैदा होते है | पर हमारे आगमन से, घर परिवार वाले, रिश्तेदार सारे खुशियाँ मनाते है, आनंद से हसते है | संसार में आये है तो हमें जीते जी अपने जीवन में कुछ ऐसा कर्म, अच्छे काम करके जाना चाहिए के हमारे मरने के बाद यह दुनिया दुःख से रोये और हम हँसे। एक सौ इकहत्तर कबीर देवल ढहि पड्या, ईंट भई सेंवार | [ शब्द का अर्थ :-सेंवार-शैवाल, ढहि पड्या-गिर गया/ नष्ट हो गया, दूजी बार-दुसरी बार, देवल-मंदिर, प्रीतड़ी-प्रेम ] भावार्थ- प्रभु का मंदीर (देवालय) गिर पड़ा है और मंदिर के हर एक ईट पर, पत्थर पर शैवाल (काई) जम गई है | अर्थात कबीर जी यहाँ मनुष्य के शरीर को प्रभु ने बनाये हुए मंदीर की उपमा देते है और कहते है की शरीर रूपी मंदिर ढह गया और शरीर का अंग-अंग शैवाल में बदला गया मतलब नष्ट हो गया | कबीरजी मनुष्य को कहते है इस देवालय को बनाने वाले प्रभु से प्रेम करो जिससे यह देवालय दूसरी बार फिरसे नष्ट न हो | एक सौ बहत्तर कबीर यह तनु जात है, सकै तो लेहू बहोरि | [ शब्द का अर्थ :-तनु-देह, शरीर, नंगे हाथूं-खाली हाथ ] भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि मानव शरीर नश्वर है, इसे एक न एक दीन नष्ट हों जाना है | इसलिए हे मनुष्य अब भी संभल जाओ और कुछ सत्कर्म कर लो जिससे तुम्हारा जीवन सार्थक हो जाए | इस संसार में अनेकों मनुष्योने लाखो, करोडो धन कमाया और धनवान बन गए जा| उनके पास लाखों करोड़ों की संपत्ति थी पर जब उनकी मृत्यु हो गयी तो वे खाली हाथ ही गए हैं | इसलिए मनुष्य ने अपना जीवन सिर्फ धन संपत्ति जोड़ने में ही नही लगाना चाहिए | अच्छे कर्म कर्म करके अपने जीवन को सवारना चाहिए | एक सौ तिहत्तर मन जाणे सब बात, जांणत ही औगुन करै | [ शब्द का अर्थ :-औगुन-अवगुण, कुसलात-कुशल, कर-हाथ ] भावार्थ- मनुष्य का मन अच्छा-बुरा, गुण-अवगुण इन् सब बातों को जानता हैं | इन सब बातों को जानते हुए भी वह अवगुणों के चक्कर में फस जाता है | अवगुणों को अपनाकर जीवन में संकटों का सामना करना पड़ेगा यह जानते हुए भी वह अवगुणों को त्यागता नही | यह ऐसे ही जैसे अंधेरेमे दीपक हाथ में होते हुए भी कुंए में गीर पड़ना | दीपक हाथ में होते हुए भी कुंए में गीर पड़ने वाले व्यक्ती का क्या कुशल और क्या अकुशल | एक सौ चौहत्तर हिरदा भीतर आरसी, मुख देखा नहीं जाई | [ शब्द का अर्थ :-हिरदा-ह्रदय, मन, दुविधा-संशय, आरसी-आयना ] भावार्थ- मनुष्य अपने जीवन में जो कुछ अच्छे-बूरें कर्म करता है, यह उसके मन को, ह्रदय को, अंतरात्मा को मालूम होता है | ह्रदय ही उसके कर्मों का दर्पण होता है | परन्तु भोग, विलास, विषय-वासनाओके मलिनता के कारण मनुष्य को अपना वास्तवीक मुख (चेहरा), स्वरुप दिखाई ही नहीं देता है | मनुष्य को अपना वास्तविक स्वरूप, चेहरा, मुख अपने ह्रदय के भीतर तभी दिखाई देता है जब उसके मन का संशय मीट जाता है | KABIR KE DOHE एक सौ पचहत्तर हू तन तो सब बन भया, करम भए कुहांडि | [ शब्द का अर्थ :-तन-देह, बन-जंगल, करम-कर्म, कुहांडि-कुल्हाड़ी, काटि-काटना ] भावार्थ- हमारा यह शरीर हमारे अच्छे-बूरें कामोंसे जंगल की तरह भरा हूआ होता है | हमारे अच्छे-बूरें कर्म ही कुल्हाडी बनकर हमारे जंगल रूपी शरीर को काट रहे है | इस प्रकार हम खुद ही अपने आपको अपने कर्मो के माध्यम से काट रहे हैं, यह बात कबीर सोच विचार कर कहते हैं | एक सौ छिहत्तर जानि बूझि साँचहि तजै, करै झूठ सूं नेह | [ शब्द का अर्थ :-जानि बूझि- जानबूझकर, साँचहि-सत्य, तजै-त्याजना, त्यागना, नेह-स्नेह, सुपिनै-सपना ] भावार्थ- जो मनुष्य जानबूझ कर, सब समझते हुए भी सत्य का साथ, सत्य का मार्ग छोड़ देता है और असत्य का मार्ग अपनाकर झूठ से स्नेह कर लेता है | कबीरदास जी कहते है हे प्रभु, हे इश्वर ऐसे लोगों का साथ, संगती कृपा करके हमें सपने में भी नही देना | एक सौ सतहत्तर तरवर तास बिलम्बिए, बारह मांस फलंत | [ शब्द का अर्थ :-तरवर-वृक्ष, मांस-महीना, फलंत-फल देता है, सीतल-शीतल, केलि-क्रीडा ] भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि इन्सान ने हमेशा ऐसे वृक्ष के नीचे विश्राम करना चाहिए, जो बारहों महीने फल देता है, क्यों की बारहों महीने फल देने वाला वृक्ष हर समय मनुष्य की भूख मिटा सकता है | जिस वृक्ष की छाया शीतल हो, वह शीतल छाया देनेवाला वृक्ष मनुष्य को धुप से बचाता है | जिस वृक्ष के फल सघन हों और जहां पक्षी क्रीडा करते हों | एक सौ अठहत्तर काची काया मन अथिर, थिर थिर काम करंत | [ शब्द का अर्थ:- काची-कच्चा, काया-शरीर, अथिर-चंचल, थिर-स्थीर, नर-पुरुष, निधड़क-निडर /बेधड़क, हसन्त-हस रहा ] भावार्थ- कबीरदास कहते है, यह शरीर कच्चा है, यह कभी भी नष्ट हो सकता है | यह मन चंचल है, अस्थिर है, यह कभी भी अवगुणों को ग्रहण कर सकता है | पर मनुष्य इस सबसे बेखबर संसार में रमकर, निडर होकर घूमता है और अपने भोग विलास मे मगन रहता है | इस दुनिया में मृत्यु पास है यह जानकर भी इंसान अनजान बना रहता है | उसकी इस बेपरवा वृती को देखकर काल (मृत्यु) उसपर हसता है | यह कितनी दुखभरी बात है | एक सौ उनासी या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत | [ शब्द का अर्थ-दो रोज-दो दिन, यासो-इससे, चरनन-चरण, चित-मन, पुराण-पूर्ण ] भावार्थ- कबीरदास जी कहते है, यह दुनिया नश्वर है और इस संसार की सारी चीजें, रिश्ते-नाते, भोग-विलास सारे दो दीन के चोचले है | अतः इस दो दिनकी उम्रवाली नश्वर दुनियासे मनुष्यने प्रभावित होकर मोह सम्बन्ध जोड़ने नहीं चाहिए | इस संसार में पूर्ण सुख देनेवाली कोइ जगह है तो वह है सद्गुरु के चरण | मनुष्य को सद्गुरु के चरणों में अपना मन लगाना चाहिए, उनसे ज्ञान पाकर, सदमार्ग पे चलकर प्रभु की भक्ती करनी चाहिए, इसीमे पूर्ण सुख है | KABIR KE DOHE एक सौ अस्सी गाँठी होय सो हाथ कर, हाथ होय सो देह | [ शब्द का अर्थ:- हाट-बाजार, बानिया-व्यापारी ] भावार्थ- इस संसार में मनुष्य ने जो भी धन संपती कमाई है, अपने तिजोरियोंमें गाँठ बांधके रखी हैं उसे उसने हाथ में लेना चाहिए और जो हाँथ में धन है उसे परोपकार में लगाना चाहिए | अच्छे काम में धन लगाकर परोपकार करके पुण्य कमाना चाहिए | मनुष्य को जो भी अच्छे कर्म करने है, परोपकार करना है, यह कार्य उसे जीवित रहते ही करना होगा | मानव शरीर नष्ट होने के बाद मनुष्य पुण्य कर्म नहीं कर सकता क्यों की नर-शरीर के पश्चात् इतर खानियों में बाजार-व्यापारी कोई नहीं है | इसिलए जो भी पुण्य कमाना है, परोपकार करना है, जो लेना देना होगा वह मनुष्य को इससे जो गाँठ में बाँध रखा है, उसे हाथ में ला, और जो हाथ में हो उसे परोपकार में लगा। नर-शरीर के पश्चात् इतर खानियों में बाजार-व्यापारी कोई नहीं है, लेना हो सो यही ले-लो। एक सौ इक्यासी बहते को मत बहन दो, कर गहि एचहु ठौर | [ शब्द का अर्थ:- कह्यो सुन्यो-कहा सुना, दुइ-दो ] भावार्थ- कबीरदास जी कहते है, अगर इस संसार में कोइ अवगुणों में फसकर, बुराइयों के मार्ग पर बहता चला जा रह हो तो आपका यह कर्तव्य है की उसे बुराई के नदी में मत बहने दो | हाथ पकड़ कर उसको मानवता की दृष्टिकोण से उस गंदगी से बाहर निकाल लो | यदि वह आपके लाख समझाने पर भी आपका कहा-सुना न माने, तो भी निर्णय के दो कठोर वचन और सुना दो पर उसे बुराइयोंमें मत बहने दो | एक सौ बयासी बार-बार तोसों कहा, सुन रे मनुवा नीच | [ शब्द का अर्थ:- तोसों-तुझसे, मनुवा-मनुष्य, बनजारे-व्यापारी/ सौदागर, नीच-दृष्ट ] भावार्थ- हे दृष्ट मनुष्य, नीच मनुष्य मैं तुझे बार-बार कह रहां हूँ, तू अपने जीवन में अवगुनोसे, असत्य के मार्ग से दूर रह | भोग विलास, विषय-वासनाओमे रमकर अपने जीवन को बर्बाद मत कर | देह नश्वर है इसका कोइ भरोसा नही | जैसे किसी व्यापारी का बैल बीच मार्ग में ही मर जाता है | वैसे तू भी अचानक एक दिन मर जाएगा | वक्त रहते हे तू अपने आपको संभाल ले | KABIR KE DOHE एक सौ तिरासी बनिजारे के बैल ज्यों, भरमि फिर्यो चहुँदेश | [ शब्द का अर्थ:- बनिजारे-व्यापारी/सौदागर, चहुँदेश-चारों दिशा, खाँड़-शक्कर ] भावार्थ- व्यापारी अपना माल ढोने के लिए बैलों का इस्तेमाल करते है | यह बैल व्यापारियों के साथ चोरों दिशाओंमे भ्रमण करते है | इन बैलों के पीठ पर व्यपारी शक्कर भी लाद देते है तो भी वह भूसा खाते हुयें चारों दिशाओंमे घूमते है | इसी प्रकार से अपने पास ज्ञान होते हुए भी मनुष्य, उचित, योग्य और सच्चे सद्गुरु के उपदेश के आभाव में, मार्गदर्शन के बिना ससार के भोग विलास में, विषय–प्रपंचो में उलझकर मनुष्य अपने आप नष्ट हो जाते है। एक सौ चौरासी जीवत कोय समुझै नहीं, मुवा न कह संदेश | [ शब्द का अर्थ:- जीवत-जिन्दा, कोय-कोई, समुझै-समझता, मुवा-मरा हुआ, ताको क्या-उसको क्या ] भावार्थ- इस संसार में मनुष्य जब जीवीत होता है तब उसे अगर कोई यतार्थ ज्ञान की बात समझाता है, सदमार्ग पे चलने की बात समझाता है, तब वह उसे समझना नहीं चाहता और मर जाने पर इनको कौन उपदेश करने जाएगा | जिनको अपने तन-मन का होश नहीं है, सदमार्ग की पहचान नही, उनको क्या उपदेश किया जाये? उनको उपदेश करना व्यर्थ है | KABIR KE DOHE एक सौ पचासी कबीर तहां न जाइए, जहां जो कुल को हेत | [ शब्द का अर्थ:- तहां-वहां पर, गुन-गुण ] भावार्थ- कबीरदासजी कहते है, साधू, योगी, महनीय व्यक्तीयोने हो सके तो वहापर जाना टालना चाहिए जहाँ पर उनके पूर्व के कुल-कुटुम्ब का सम्बन्ध हो | क्योंकि वे लोग आपकी साधुता, कार्यों का महत्व को नहीं जानेंगे, उनके लिए तो आप केवल आपके पीता के पुत्र है | वह सिर्फ आपके शारीरिक पिता का नाम लेंगे ‘अमुक का लड़का आया है | एक सौ छियासी कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय | [ शब्द का अर्थ – कही जान दे-बोलते जाने दे, सीख-शिक्षा, साकट-दृष्ट, औश्वान-कुत्ते ] भावार्थ- इस जगत में ऐसे भी लोग होते है जो सज्जनों को गलत बोलते रहते है | उनका अपमान करते रहते है, उनको नीचा दिखाना की कोशिश करते रहते है | ऐसे वक्त में मनुष्यने गुरु की शिक्षा का पालन करना चाहिए | ऐसे दृष्ट लोगों को तथा भोकने वाले कुत्तों को पलट कर जवाब नहीं देना चाहिए | अपने सत्कर्मों को जारी रखना चाहिए | एक सौ सत्तासी कबीर संगति साध की, कड़े न निर्फल होई | [ शब्द का अर्थ:- साध-साधू, कड़े-कभी, बावना-बौना, नीब-नीम का वृक्ष ] भावार्थ- कबीरदास कहते है की साधू-संतो की संगती, उनका उपदेश, मार्गदर्शन और उन्होंने दिया हुआ ज्ञान कभी भी निष्फल नहीं होता | अगर चन्दन का वृक्ष बौना है तो क्या कोइ उसे नीम का वृक्ष कह सकता है | चन्दन अपनी सुगंधता से आसपास के परिवेश को खुशबू से भर देता है | चन्दन की खुशबू की तरह ही साधू के संगती में रहने वाले मनुष्य का जीवन ज्ञान की और भक्ती के खुशबू से भर जाता है | एक सौ अट्ठासी गारी मोटा ज्ञान, जो रंचक उर में जरै | [ शब्द का अर्थ – गारी-गाली, बैरि-दुश्मन, पायन-पाँव/ पैर, परै-पड़ना, हिरदै-ह्रदय ] भावार्थ- अगर आप में अपमान सहन करने की शक्ती है | किसीने दी हुयी गालीयाँ आप का ह्रदय सहन करने की शक्ती रखता है, तो आप पाएंगे के मिली हुई गाली में भी भारी ज्ञान होता है | विपरीत परिस्थितियों में भी जो संयम रखता है उसके करोडो काम संवर जाते है | ऐसे आदमी की शत्रु भी प्रशंसा करता है और पैरों में आके गिरते है | दुश्मनों द्वारा दी गयी गालीसे अगर हमारे ह्रदय में ज्ञान आता है, तो ऐसे मीली हुई गाली से हमारी हांनी क्या है ? एक सौ नवासी कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ सिध्द को गाँव | [ शब्द का अर्थ :– नाँव-नाम, तहाँ-वहां पर ] भावार्थ- कबीरदास कहते है की, मनुष्य ने ऐसे गावं में या ऐसे स्थान पर कभी भी नहीं जाना चाहिए, जहापर अहंकारी, खुदको सबसे श्रेष्ठ समझने वाले अभिमानी सिद्ध रहते हो | जो दूसरों को कम आंकते हो | जिनके यहा जाने पर वहांके स्वामीजी आपसे बैठने तक को ना कहे और आपसे बार बार आपका नाम ही पूंछते रहे | अर्थात मनुष्य ने ऐसे स्थान पर कभी भी नही जाना चाहिए जहाँ पर उसको कोइ पूछता नहीं हो, जहा उसको कोई मान नही हो | KABIR KE DOHE एक सौ नब्बे कबीर संगी साधु का, दल आया भरपूर | [ शब्द का अर्थ :– इन्द्रिन-इन्द्रिय, दल-समूह ] भावार्थ- कबीरदास कहते है, संतो के साथ रहकर, उनसे ज्ञान पाकर, उनके कृपा प्रसाद से ह्रदय में जब परिपूर्ण रूप से विवेक-वैराग्य, दया, क्षमा, समता आदि का दल आ जाता है | तब शरीर के लोभ, क्रोध, मोह, मद, भोग, विषय वासना इन व्यधियोंको, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर नष्ट कीया जाता है | अर्थात तन मन को जो वश कर लेता है वही सच्चा साधू होता है | एक सौ इक्यानबे बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार | [ शब्द का अर्थ :– बन्दे-भक्त, बन्दगी-भक्ती, औसर-अवसर, बारम्बार-बार बार, दीदार-दर्शन, पावै-पायेगा ] भावार्थ- हे भक्त ! तू उस परमपिता परमेश्वर की भक्ती कर, उसके बताये हुए सत्य के मार्ग पे चल, परोपकार कर, तुझे अपने आप उसके दर्शन हो जायेंगे | इस संसार में मनुष्य के रूप में जनम ने का अवसर सबको बार बार नहीं मिलता है | तू इस अवसर का लाभ उठा और ईश्वर को पाने की कोशिश कर | एक सौ बानबे मन राजा नायक भया, टाँडा लादा जाय | [ शब्द का अर्थ :– भया-हो गया, टाँडा-बहुत सौदा, बिलाय-नष्ट होना ] भावार्थ- मनुष्य का मन किसी राजा से कम नहीं है, वह जो चाहता है वही मनुष्य से करवा लेता है | जब यह राजा मन व्यापारी बना तो विषय-वासनाओंका टाँडा इसने लाद लिया | भोगों-एश्वर्योंमें लाभ है, आनंद है ऐसा दुनिया कहती है यह जानकर वह खुश हुआ | परन्तु भोग विलासोंमे लिप्त रहने से मानवता की पूँजी भी नष्ट हो जाती है | समाज में मनुष्य का मान सन्मान नष्ट हो जाता है | अर्थात चंचल मन को काबू में रखने में ही मनुष्य की भलाई है | एक सौ तिरानबे जिही जिवरी से जाग बँधा, तु जनी बँधे कबीर | [ शब्द का अर्थ :– जाग-जगत/ दूनिया, जिवरी-बंधन, सोन-सोना (मूल्यवान धातु) ] भावार्थ- जिस मोह-माया के बंधन में इस जगत के लोग बंधे है, जिसके कारन उनका विनाश हो जाता है | हे मनुष्य ! अगर तुझे अपना उद्धार करना है तो तू इस मोह माया के बंधन में खुद को मत बांध लेना | जैसे नमक के बगैर आटा फीका होता है वैसे ही बिना हरी के सुमिरन के तुम्हारा यह जीवन भी फीका पड़ जाता है | यदि तुम हरी का सुमिरण करते हो, सतमार्ग पर चलते हो तो यह तुम्हारे शरीर को ‘स्वर्ण’ के समान ही मूलयवान बना देता है | एक सौ चौरानबे मैं मैं मेरी जिनी करै, मेरी सूल बिनास
| [ शब्द का अर्थ:-बिनास-विनाश, पग-पाँव, पैषणा-बेडी, गल की पास-गले का फास ] भावार्थ- मनुष्य जिन्दगी भर मैं और मेरा की रट लगाये रहता है | मैं मतलब उसका खुद के बारे में सोचना, उसका अहंकार, खुदको दूसरों से श्रेष्ठ समझना | मेरा मतलब उसका अपना परिवार और उसने जमा की हुयी धन संपती, जिनसे उसका लगाव होता है | कबीरदास कहते है, हे मनुष्य ! तू इस संसार में, मेरी और मैं अर्थात ममता और अहंकार में मत फ़सना, नहीं खुद को इसमें बाँध लेना | तू जो इस मोह, माया, ममता और अहंकार के चक्कर में फस गया तो तेरा विनाश पक्का है क्यों की यही विनाश का मूल है, जड़ है | ममता पैरों की बेडी है और गले की फांसी है | KABIR KE DOHE एक सौ पंचानबे कबीर नाव जर्जरी, कूड़े खेवनहार | [ शब्द का अर्थ:- नाव-नौका, जर्जरी-पुरानी, तिरि-तैरना, तिनि-उनके ] भावार्थ- कबीरदास कहते हैं की, मनुष्य के जीवन की नौका संकटोंका, दुखोंका, कठिन परिस्थ्तियोंका सामना कर करके टूट फूट गयी है और उसे चलाने वाले मुर्ख है | जिन मनुष्योंके सर पर भोग, विषय वासनाओंका बोझ होता है वे तो संसार सागर में डूब जाते हैं, इसी दुनिया में संसारी बनकर उलझ जाते है | पर जो मनुष्य इन सब उलझनोसे दूर होते है, भोग, विषय वासनाओंका बोझ सर पर नही होने के कारन मुक्त होते है, हलके होते है | जिसकी वजह से वे इस संसार सागर में तर जाते हैं, पार लग जाते हैं और भव सागर में डूबने से बच जाते हैं | एक सौ छियानबे उज्जवल पहरे कापड़ा, पान सुपारी खाय | [ शब्द का अर्थ:-उज्जवल- प्रभावशाली, पहरे-पहनना, हरी-इश्वर, यमपुर-नरक ] भावार्थ- जिस मनुष्य की समाज में प्रतिष्ठा है, जो धनवान है, हमेशा वह अच्छे, प्रभावशाली महेंगे कपडे पहनता है और मूह में उसके पान सुपारी भरा है, उसको समाज में आदर तो मिल जाता है | पर अगर वह मुख से कभी भी इश्वर का नाम नही लेता है, इश्वर की भक्ती नही करता है, परोपकार नहीं करता है तो उस मनुष्य का नरक से बचना मुश्किल होता है | एक सौ सत्तानबे ऊँचे पानी ना टिके, नीचे ही ठहराय | [ शब्द का अर्थ:-टिके-ठहरता नहीं ] भावार्थ- पाणी हमेशा ऊँचे से होकर निचे की तरफ ही बहता है | जिसकी वजह से यह निचे आकर ठहरता है और जमा हो जाता है | इसी कारण से जो निचे जमीन पर होते है वह भरपूर पानी पीकर अपनी प्यास बुझा लेते है पर जो ऊँचाई पर है, हवा मैं तैर रहे है वो ऐसा नही कर सकते और प्यासे ही रह जाते है | अर्थात जो मनुष्य सारे भोग-विलास, अहंकारोंसे दूर है, जो प्रभु के भक्ती में लीन है, जो जमीन पर लोगों के परोपकार में जुडा है उसे प्रभु के कृपा का रस मिल जाता है और वह धन्य हो जाता है | और जो मनुष्य अहंकार में डूबा है, खुदको सबसे ऊँचा समझता है, श्रेष्ट समझता है, अपनी ही मस्ती में रहता है और हवा मैं तैरता है, वह अपने जीवन में कभी भी इश्वर के कृपा का रस पी नहीं सकता और प्यासा ही रह जाता है | एक सौ अट्ठानबे कबीरा आप ठागइए, और न ठगिये कोय | [ शब्द का अर्थ:- ठागइए-धोखेबाजी/ फ़साना ] भावार्थ- कबीरदास कहते है, अगर मनुष्य को किसीको ठगना है, मुर्ख बनाना है तो उसे स्वयंम को ही ठगना चाहिए दूसरों को नही | खुद को बेवकूफ बनाने में कोई बुराई नहीं है क्यों की इससे किसीका नुकसान नही होगा और सच्चाई तो आज या कल तो पता ही चल जायेगी | पर हम अगर किसी दुसरे को ठग लेते है, बेवकूफ बनाते है तो हमें ही दुःख का सामना करना पड़ता है | अर्थात अपने आपको प्रभु के भक्ती में ठग लेने जैसा दूसरा आनंद नहीं है | एक सौ निन्यानबे जहा काम तहा नाम नहीं, जहा नाम नहीं वहा काम | [ शब्द का अर्थ:- काम-विषय-वासना, तहा-वहाँ, कभू-कभी भी, रवि-सूरज, रजनी-रात, धाम-निवास ] भावार्थ- जिस मनुष्य के जीवन में भोग और विषय वासनाओंको स्थान है | जो रात-दीन भोग भोगने के बारे में सोचता रहता है | ऐसे मनुष्य के जीवन में इश्वर कभी भी नहीं आते | जो मनुष्य सदा इश्वर का नाम लेते रहता है और परोपकार करता है ऐसे मनुष्य के जीवन में इश्वर का वास होता है | जैसे सूरज और रात कभी भी एक दुसरे से मिल नहीं सकते, वैसे ही जहा विषय वासनोंओंका वास होता है वहाँ भगववान कभी भी प्रकट नहीं हो सकते | दो सौ जा पल दरसन साधू का, ता पल की बलिहारी | [ शब्द का अर्थ:- पल-क्षण, दरसन-दर्शन, रसना-जिव्हा ] भावार्थ- जीवन में चमत्कार हो गया जब साधू संतो के दर्शन हो गए, उनका सहवास मिला | साधू संतो से ज्ञान मिला, जीवन को उनका उपदेश और मार्गदर्शन मिला और मेरा जीवन पुरी तरह से बदल गया | उस अनमोल क्षण की जय हो जब मैं साधू संतो से मिला | मैंने राम नाम का जप किया, मेरा पूरा जीवन राममय हो गया और मैंने पाया के मेरा सारा जनम सुधर गया | Kabir ke dohe Advertisement ऊँचे कुल में जन्म लेकर अच्छे कर्म न करने का क्या परिणाम होता है?कबीर के अनुसार ऊँचे कुल में जन्म लेने पर भी अच्छे कर्म ना करने पर आदमी निंदा का पात्र ही होता है। जिस प्रकार किसी सोने के घड़े में शराब रख देने से सोने पर ही संदेह किया जाता है, उसी तरह ऊँचे कुल में गलत व्यक्ति के जन्म लेने से उनकी ही बदनामी होती है।
ऊंचे कुल में जन्म लेने का लाभ कब प्राप्त नहीं होता?Answer: कबीर साहेब ने व्यतिगत/गुणों के आधार पर श्रेष्ठता को स्वीकार किया है लेकिन जन्म आधार पर / जाति आधार पर किसी की श्रेष्ठता को नकारते हुए कहा की मात्र ऊँचे कुल में जन्म ले से ही कोई विद्वान् और श्रेष्ठ नहीं बन जाता है, इसके लिए उसमे गुण भी होने चाहिए।
ऊँचे कुल में जन्म लेने का क्या अर्थ है?सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा होय । भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि ऊँचे कुल में जन्म तो ले लिया लेकिन अगर कर्म ऊँचे नहीं है तो ये तो वही बात हुई जैसे सोने के लोटे में जहर भरा हो, इसकी चारों ओर निंदा ही होती है।
कबीर के अनुसार व्यक्ति ऊंचे कुल में जन्म लेने से या किसी कारण से बड़ा होता है?
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