तुलसीदास को समन्वयवादी कवि क्यों कहा जाता है उदाहरण सहित समझाइए? - tulaseedaas ko samanvayavaadee kavi kyon kaha jaata hai udaaharan sahit samajhaie?

तुलसीदास निश्चित रूप से समन्वयवादी थे, उन्होंने राम को ईश्वर माना और उनकी आजीवन आराधना की। उनके धार्मिक गतिशीलता का कारण जीवन की वास्तविकता को समझना तथा अपने धर्म की रक्षा के लिए तत्पर रहना था।

तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियां आक्रांता ओं से प्रभावित थी। यह जबरन अपना धर्म भारतीय जनमानस पर धोप रही थी जिसके कारण तुलसीदास की समन्वय भावना का प्रखर रूप देखने को मिला।

तुलसीदासजी का जन्म संवत 1589 को उत्तर प्रदेश के राजापुर नामक ग्राम में हुआ था।इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा

माता का नाम हुलसी था।तुलसीदासजी का विवाह दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था।

तुलसीदास की समन्वय भावना

समन्वय शब्द सामान्यतः दो अर्थों में मैं लिया जाता है। अपने विस्तृत और व्यापक अर्थ में वह संयोग अथवा पारस्परिक संबंध के निर्वाह का द्योतक है। जब हम सांख्य और वेदांत अथवा निर्गुण और सगुण के समन्वय की बात करते हैं। तब हमारा अभिप्राय होता है, इन दोनों विचार धाराओं में सामंजस्य की स्थापना। इन दोनों ही दृष्टियों में तुलसीदास समन्वयवादी है।

समन्वय  भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। समय-समय पर इस देश में कितनी ही संस्कृतियों का आगमन हुआ और आगे बढ़ा। परंतु वह घुल  मिल – कर एक हो गई। कितनी ही दार्शनिक धार्मिक।, सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक साहित्यिक व सोंदर्य मूलक विचारधारा का विश्वास हुआ। किंतु उनकी परिणति संगम के रूप में हुई। यह समन्वय  भावना का ही परिणाम है कि नास्तिक बुद्धा ने राम को बोधिसत्व मान लिया। और आस्तिक  वैष्णवों ने बुद्ध के अवतार रूप में प्रतिष्ठा की।

अर्थ – काम और धर्म – मोक्ष में प्रवृत्ति और निवृत्ति में साहित्य और जीवन में समन्वय स्थापित करने के विराट प्रयत्न किए गए। अनेकता में एकता की स्थापना की गई। धर्म दर्शन और समाज सुधार के क्षेत्र में गौतम बुद्ध लोकनायक थे। उनके द्वारा प्रतिष्ठित माध्यम प्रतिपदा त्याग और भोग के समन्वय का ही मार्ग है।

लोकदर्शी  तुलसी ने जनता के हृदय में धड़कन को पहचाना और रामचरितमानस के रूप में वह आदर्श प्रस्तुत किया है। जिसमें कवित्व और भक्ति दर्शन का अद्भुत समन्वय है। समन्वय सिद्धांत का व्यवस्थित निरूपण और कार्यान्वयन मदारी का वृक्ष नहीं है। वह प्रत्यक्ष अनुभव सूक्ष्म शिक्षण अन्वेषण और गहन अनुशीलन  का सम्मिलित परिणाम है। जीवन स्वयं समझौता है।

वे  यौवन की कामाशक्ति के  शिकार भी हुए थे। और वैराग्य की पराकाष्ठा पर पहुंचकर आत्माराम भी हो गए थे। उनकी समन्वय साधना बहुमुखी है।

द्वैत -अद्वैत 

तुलसी का दार्शनिक समन्वयवाद अत्यंत विवाद का विषय रहा है। तुलसी के युग में वेदांत का प्रभुत्व था। उसके भीतर भी दो प्रकार के संघर्ष थे।  पहला सभी वैष्णव आचार्य शंकर के निर्गुण ब्रह्माबाद और माया के विरोधी थे। दूसरा सभी अदैतवाद मध्व  के द्वैतवाद के विरोधी थे।

जहां अद्वैतवादियों और वैष्णव वेदान्तियों  में मतभेद  है वहां उन्होंने समन्वयवादी दृष्टि से काम लिया है। माया अविद्या है उसके अस्तित्व के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। सगुण ब्रह्मा ही अवतार लेता है। एकमात्र निर्गुण ब्रह्म  ही सत्य है। जीव जगत और ईश्वर सब मिथ्या है केवल ज्ञान ही मुक्ति का साधन है।

तुलसीदास को समन्वयवादी कवि क्यों कहा जाता है उदाहरण सहित समझाइए? - tulaseedaas ko samanvayavaadee kavi kyon kaha jaata hai udaaharan sahit samajhaie?
Tulsidas in hindi

निर्गुण और सगुण

निर्गुण और सगुण का विवाद  दो क्षेत्रों में था। दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में और भक्ति के क्षेत्र में। शंकराचार्य निर्गुण ब्रह्मवाद  को मानते थे। रामानुज और वल्लभ  सगुण ब्रहम्मा  को। तुलसी ने दोनों का समन्वय करते हुए राम को निर्गुण- सगुण कहा है।

वस्तुतः राम एक है। वह निर्गुण और सगुण निराकार और साकार , व्यक्त और अव्यक्त है। निर्गुण राम ही भक्तों  के प्रेम वश सगुण रूप में प्रकट होते हैं।

विद्या और अविद्या माया 

अद्वैतवाद में माया और अविद्या पर्यायवाची है। वैष्णव आचार्य ऐसा नहीं मानते , वे  माया को स्वभावत   सगुण ब्रह्मा की शक्ति मानते हैं। तुलसी की विद्या माया शंकराचार्य की माया से भिन्न है। क्योंकि वह जगत की रचना करती है , और भक्तों का कल्याण भी करती है। उसके अनुसार माया की भाव रूपा अभिन्न  शक्ति  है।

माया और  प्रकृति

साख्य योग  के अनुसार स्वतंत्र प्रकृति सृष्टि का कारण है। यह स्थुल  जगत उसी का विकार  है। अद्वैतवाद में माया को विच्छेप – शक्ति का कार्य माना गया। वैष्णवों ने पर ब्रह्मा और उसकी शक्ति माया द्वारा विश्व का निर्माण माना। सृष्टि प्रक्रिया में तुलसी ने वैष्णव – वेदांत की माया और साथियों की प्रकृति का समन्वय किया। उन्होंने प्रकृति को राम के अधीन और माया के अभिन्न  मानकर दोनों में एक सूत्रता  स्थापित की।

जगत की सत्यता और असत्यता

साख्य योग वैष्णव वेदांत आदि ने जगत की सत्यता स्वीकार की गई है। वेद  विरोधी आतमनादि  और अनीश्वरवादी बौद्ध तुलसी की दृष्टि में सर्वथा तिरस्कृत है। जिसके विरुद्ध राम को विश्वरूप तथा जगत को राम का अंश बताकर उन्होंने जगत की  सत्यता प्रतिपादित की है। क्योंकि राम से अभिन्न  जगत मिथ्या नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में तुलसी ने द्वैतवाद और अद्वैतवादी मतों का समन्वय किया है। राम और जगत में तत्वतः   अभेद  है।

जीव का भेद -अभेद 

तुलसी का जीव विषयक सिद्धांत वैष्णव – वेदांतिओं  के मतों का समन्वय है। तुलसी ने भेदवाद  और आप अभेदवाद  दोनों का समन्वय किया है। जीव ईश्वर का अंश मात्र है वह माया का स्वामी नहीं है। मुक्त होने पर ईश्वर का स्वरूप प्राप्त कर लेता है, किंतु ऐश्वर्य को नहीं।

कर्म – ज्ञान – भक्ति 

जीव की पूर्णता इन तीनों में समन्वय में है। वही साधना  सिद्धिदायिनी होती है जो साधक की पूरी सत्ता के साथ की जाए। सत्कर्म के बिना चित निर्मल नहीं हो सकता। और मूल से युक्त चित ज्ञान भक्ति का उदय असंभव है।

अतः तुलसी ने तीनों के समन्वय पर बल दिया है।

जीवनमुक्ति  और विदेहमुक्ति

अद्वैतवादियों के अनुसार आत्म  साक्षात्कार या ब्रहम्म साक्छात्कार होने पर देहावसान के पूर्व ही आत्मा जीवउन्मुक्त हो जाती है। अधिकतर वैष्णव आचार्य जीव मुक्ति नहीं मानते।समन्वयवादी  तुलसी को जीवनमुक्ति तथा विदेह मुक्ति और विदेह मुक्ति के  उक्त चारों प्रकार माननीय है। इसमें कोई विरोध नहीं है।

ज्ञान और भक्ति का उदय ही मनोमुक्ति है।

तुलसीदास के दोहे

1.

तुलसी मीठे बचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर

बसीकरन इक मंत्र है, परिहरू बचन कठोर

2.

सचिव बैद गुरु तीनि जौं, प्रिय बोलहिं भय आस

राज धर्म तन तीनि, कर होइ बेगिहीं नास

3.

दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान

तुलसी दया न छोडिये, जब तक घट में प्राण

4.

मुखिया मुखु सो चाहिऐ, खान पान कहुँ एक

पालइ पोषइ सकल, अंग तुलसी सहित विवेक

5.

नामु राम को कलपतरु, कलि कल्यान निवासु

जो सिमरत भयो भाँग, ते तुलसी तुलसीदास

6.

तुलसी साथी विपत्ति, के विद्या विनय विवेक

साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक

7.

तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए

अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए

तुलसीदास को समन्वयवादी कवि क्यों कहा जाता है?

तुलसीदासजी समन्वयवादी के साथ-साथ मर्यादावादी भी थे। समन्वय के आवेश में उन्होंने कही भी धर्म के असत् रूप और लोक धर्म की विरोधी प्रवृत्तियों से समझौता नहीं किया। लोक मर्यादा का उल्लंघन, चाहे वह किसी भी रूप में हो, उनके लिए असह्य था। उनके मतानुसार मर्यादा के बिना अपने सामाजिक कल्याण आकाश-कुसुम के समान है।

तुलसी का समन्वयवाद क्या है?

तुलसीदास निश्चित रूप से समन्वयवादी थे, उन्होंने राम को ईश्वर माना और उनकी आजीवन आराधना की। उनके धार्मिक गतिशीलता का कारण जीवन की वास्तविकता को समझना तथा अपने धर्म की रक्षा के लिए तत्पर रहना था। तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियां आक्रांता ओं से प्रभावित थी।

समन्वयवादी भक्त कवि कौन है?

chattisgarhi sahitya | समन्वयवादी कवि गोस्वामी तुलसीदास | Patrika News.

साम्यवादी कवि के रूप में कौन प्रसिद्ध है?

रामचन्द्र शुक्ल जी का कथन है "यह एक कवि ही नहीं हिंदी को प्रौद साहित्य भाषा साहित्य साबित करने के लिए काफी है ।"