टिहरी रियासत का प्रथम राजा कौन था? - tiharee riyaasat ka pratham raaja kaun tha?

अंग्रेजों ने 1815 में गोरखाओं को खदेड़ कर , इस क्षेत्र को स्वतंत्र किया | तथा कुमाऊं को अपने पास रखा | एवं युद्ध हर्जाने के रूप में टिहरी रियासत के राजा सुदर्शन शाह से गढ़वाल क्षेत्र भी हासिल कर लिया | तथा इससे कुमाऊँ का एक भाग बना दिया |

इस समय अलकनंदा के पश्चिम में न केवल टिहरी नरेश सुदर्शन शाह को स्थापित किया गया |अपितु सकलाना पट्टी के दो माफीदार शिवराम एवं काशीराम को अपनी पूर्ववत की स्थिति के साथ स्थापित किया गया | क्योंकि गोरखा युद्ध के दौरान उन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया था | इन दोनों को सीधे कुमाऊं के कमिश्नर के अधीन रखा गया |

शिवराम एवं काशीराम ने शक्ति का दुरुपयोग किया | एवं सकलाना की जनता से बढ़ा-चढ़ाकर के लगान लिया | इनकी लगान की दर लगातार बढ़ती गई | फलस्वरुप 1835 में सकलाना के कमीण , सयाणा व जनता ने मिलकर के विद्रोह किया |

टिहरी रियासत में यह पहला विद्रोह था । अंग्रेजों के हस्तक्षेप से विद्रोह शांत हुआ | सकलाना में ही छात्र-छात्राओं ने राष्ट्रीयता के विकास के लिए सत्य प्रकाश रतूड़ी ने बाल सभा का गठन किया ।

1936 में श्री देव सुमन के प्रयासों से दिल्ली में गढदेश सेवा संघ की स्थापना की गई | जिसका प्रमुख उद्देश्य के महाराजा के अधीन वहां पर एक उत्तरदायी शासन की स्थापना करना था |

तिलाड़ी कांड

1927 – 28 में राज्य सरकार ने एक नई वन नीति लागू की थी | इसके तहत जंगलों का सीमाकरण किया गया था | तथा इस सीमा के अंदर जानवरों या मनुष्यों का घुसना वर्जित था |

जनता अपने पशुओं के चारे हेतु जंगल में प्रवेश की अनुमति चाहती थी | किंतु राज्य सरकार ने इसकी अनदेखी की फलस्वरूप 30 मई 1930 को यमुना के तट पर तिलाड़ी के मैदान में भीड़ इकट्ठा हुई |

इस भीड़ पर टिहरी के दीवान चक्रधर जुयाल ने गोली चलाने का आदेश दिया | जिसमें 200 से अधिक लोग मारे गए । फलस्वरूप इस घटना को टिहरी का जलियांवाला बाग एवं चक्रधर को उत्तराखंड का जनरल डायर कहा गया |

1938 में दिल्ली में अखिल भारतीय पर्वतीय जन सम्मेलन का आयोजन हुआ | इस सम्मेलन में बद्रीदत्त पांडे एवं श्री देव सुमन ने भी भाग लिया | तथा पर्वतीय लोगों की समस्याओं को बताया |

1938 में ही जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में श्रीनगर में एक राजनैतिक सम्मेलन का आयोजन हुआ | इस सम्मेलन में श्री देव सुमन ने टिहरी रियासत की जनता के अधिकारों से संबंधित एक प्रस्ताव रखा |

1938 में ही कुंवर मानवेंद्र शाह की अध्यक्षता में ऋषिकेश में एक सम्मेलन आयोजित हुआ | तथा जनता की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मांग को स्वीकार किया गया |

1940 में देहरादून में श्री देव सुमन , गोविंदराम भट्ट , भोलूदत्त , नागेंद्र सकलानी आदि लोगों के प्रयासों से टिहरी राज्य प्रजामंडल की स्थापना की गई | इस प्रजामंडल ने टिहरी की जनता के बीच रहकर के कार्य करने का निर्णय किया |

किंतु 1941 में श्री देव सुमन को गिरफ्तार किया गया | तथा बाद में रिहा करके दो माह तक उन्हें रियासत में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया गया | जिनकी अनेक समाचार पत्रों में निंदा की गई |

पुनः श्री देव सुमन को गिरफ्तार किया गया | तथा 3 मई 1944 को कारावास में श्री देव सुमन ने ऐतिहासिक अनशन शुरू किया | तथा 25 जुलाई 1944 को 84 दिनों की भूख हड़ताल के बाद इनकी मृत्यु हो गयी ।

श्री देव सुमन ने कहा था –

“कि गंगा हमारी मां हो कर भी यदि हमें मिलाने के बजाय बांटती है तो गंगा को ही काट देंगे | तुम मुझे तोड़ सकते हो किंतु मोड नहीं सकते |”

श्री देव सुमन के बलिदान ने टिहरी रियासत के आंदोलन को और उग्र बना दिया |

1946 में नरेंद्र शाह ने स्वेच्छा से गद्दी मानवेंद्र शाह को सौंपी | जनता को यह लगता था , कि राज्य अभिषेक के समय राज बंदियों को रिहा किया जाएगा | किंतु इसके विपरीत उन्हें और कठोर सजाएं दी गई |

फलस्वरूप आंदोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया | 1948 में कीर्तिनगर में विशाल जनसैलाब इकट्ठा हुआ | जिस पर पहले आंसू गैस के गोले एवं बाद में गोलियां चलाई गई | इनमें नागेंद्र सकलानी और भोलाराम शहीद हो गए |

मानवेन्द्र शाह- राजा (1921): राजभवन, टिहरी। टिहरी रियासत के अंतिम नरेश। ब्रिटिश सरकार से 'महाराजा' के विरूद से सम्मानित। स्वाधीनता के बाद राजदूत और सांसद रहे।

1936 में इन्होंने मेयो कालेज, अजमेर से डिप्लोमा प्राप्त किया। 4 फरवरी, 1939 को राजस्थान में बांसवाड़ा रियासत के महारावल पृथ्वीसिंह की पुत्री के साथ प्रणयसूत्र में बंधे। अगले वर्ष इनकी एक कन्या पैदा हुई। लाहौर में सैन्य शिक्षा और आई.सी.एस. का भी प्रशिक्षण प्राप्त किया। 25 अक्टूबर 1946 को राजकुमार मानवेन्द्र शाह का राज्यारोहण हुआ। पंजाब हिल स्टेट्स के पौलिटीकल एजेन्ट ने ब्रिटिश राजमुकुट के प्रतिनिधि वायसराय की ओर से महाराजा मानवेन्द्र शाह के राज्यारोहण को वैध घोषित किया। तब किसी ने सोचा न होगा कि नया महाराजा पूरे 3 वर्ष भी शासन न कर सकेगा और यही इस राजवंश का अन्तिम नरेश होगा।

महाराजा मानवेन्द्र शाह को मिला राजमुकूट कांटों से भरा ताज था। एक अस्थिर राज्य के खेवनहार बने राजा साहब। तब तक टिहरी राज्य प्रजामण्डल की जडें राज्य में गहरी जम चुकी थी। राज्य के अधिकांश हिस्सों में सामंतशाही शासन के विरुद्ध खुलकर आन्दोलन होने लग था राष्ट्रीय विचारधाराओं और राजशाही के मध्य टकराव का ज्वालामुखी फटने की स्थिति में था। राज्यारोहण के ठीक एक महीने बाद 27 नवम्बर, 1946 को कृषक आन्दोलन के बन्दियों सर्वश्री परिपुर्नानंद पैन्यूली, अवतार सिंह और मेहताब सिंह को डेढ़ से पांच वर्ष तक कैद और भारी जुर्माने की सजा सुना दी गई। दौलतराम कुकसाल और 32 अन्य बंदियों को भी कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। बड्यारगढ़, सकलाना, कीर्तिनगर आदि और जगहों पर 'आजाद पंचायतें' गठित हो गई थीं। पूरा राज्य विद्रोह की चपेट में आ गया। प्रजा फौज और पुलिस का सामना करने पर उतारू हो गई। कीर्तिनगर में राज्याधिकारियों की गोली से नागेन्द्र सकलानी और मोलू सिंह की मृत्यु हो जाने से आन्दोलनकारी मरने-मारने को तैयार हो गए। 16 जनवरी, 1948 को राजधानी टिहरी पर आन्दोलनकारियों का कब्जा हो गया। तीन दिन तक राज्य की व्यवस्था डांगचौरा के कृषक नेता दौलतराम कुकसाल के प्रधानमंत्रित्व में चली। बाद में भारत सरकार के हस्तक्षेप से महाराजा की छत्रछाया में 'अंतरिम सरकार' गठित की गयी। सर्वश्री आनन्द शरण रतूड़ी, खुशहाल सिंह रांगड़, डा. कुशलानन्द गैरोला और डा. कृष्ण सिंह आदि अन्तरिम सरकार के मंत्रिमण्डल के सदस्य थे। पहली अगस्त, 1949 को राज्य का भारत संध में विलीनीकरण कर दिया गया। और इस प्रकार सम्पूर्ण भारत में राजवंशों के शासन का सिलसिला समाप्त हुआ। रियासत टिहरी में मुआफीदारी का अन्त हुआ। 2 वर्ष 1 महीने और 26 दिन सजे सिंहासन का सुख भोगने के बाद महाराजा मानवेन्द्र शाह आम नागरिकों की श्रेणी में आ गए। सन् 1969 में प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने सम्पूर्ण भारत में देशी रजवाड़ो के राजाओं और नवाबों के विशेषाधिकार छीन लिए और प्रिवी पर्स (निजी खर्च) बन्द कर दिए।

स्वाधीनता प्राप्ति के बाद देश ने अंगड़ाई ली। देश में सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतत्रात्मक गणराज्य की स्थापना हुई। 1947 से 1952 तक अंतरिम संसद रही। 1952 में प्रथम आम चुनाव हुआ। टिहरी संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से राजमाता कमलेन्दुमति शाह (महाराजा मानवेन्द्र शाह की माता) बहुमत से संसद सदस्य निर्वाचित हुईं। बाद में 1957, 1962, 1967 के आमचुनावों में राजा साहब ने कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में संसद में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। कुछ समय आप आयरलैन्ड में भारत के राजदूत रहे। इनके मंझले भाई कुँवर शार्दूल विक्रम शाह भी कई देशों में भारत के राजदूत रहे। कुछ समय आप नेहरू जी के व्यक्तिगत स्टाफ में भी रहे।

बाद के वर्षों में आप काँग्रेस छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में आ गए। भा.ज.पा. प्रत्याशी के रूप में भी आपने तीन बार टिहरी निर्वाचन क्षेत्र से लोक सभा में प्रतिनिधित्व किया। इनकी गिनती देश के श्रेष्ठ और अनुभवी सांसदों में की जाती थी। 'पृथक उत्तराखण्ड' की आवाज सर्वप्रथम 1952 में श्री शाह ने ही उठाई थी। पृथक उत्तराखण्ड राज्य बन जाने से आपका सपना साकार हुआ। 5 जनवरी 2007 पंचतत्व में विलीन हुए।


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टिहरी रियासत के पहले राजा कौन थे?

महाराजा सुदर्शन शाह ने अपनी राजधानी टिहरी नगर में स्थापित की तथा इसके पश्चात उनके उत्तराधिकारियों प्रताप शाह, कीर्ति शाह तथा नरेन्द्र शाह ने अपनी राजधानी क्रमशः प्रताप नगर , कीर्ति नगर एवं नरेंद नगर में स्थापित की । इनके वंशजों ने इस क्षेत्र में 1815 से 1949 तक शासन किया।

टिहरी का अंतिम राजा कौन था?

मानवेन्द्र शाह - अंतिम टिहरी नरेश मानवेन्द्र शाह- राजा (1921): राजभवन, टिहरीटिहरी रियासत के अंतिम नरेश। ब्रिटिश सरकार से 'महाराजा' के विरूद से सम्मानित।

टिहरी का पुराना नाम क्या है?

टिहरी का पुराना नाम तेहरी था ।

गढ़वाल का नाम गढ़वाल क्यों पड़ा?

उत्तराखण्ड एक पवित्र तीर्थस्थल है, परन्तु यहां स्थित चार धामों व पांच प्रयागों का विशेष महत्व है और यही कारण है कि अनादि काल से इस केदारखण्ड का महत्व रहा है। सम्भवतः केदारखण्ड क्षेत्र की पहाडि़यों में गढ़ों के आधिक्य होने के कारण ष्गढष़् शब्द में वाला प्रत्यय लगाने से गढ़वाल नाम सन् 1500 ई. के लगभग पड़ा