Show (मात्रा क्रम) अथवा बह्'र (छंद) में लिखे गए अश'आर(शे'र का बहुवचन) समूह को ग़ज़ल कहते हैं जिसमें शायर किसी चिंतन विचार अथवा भावना को प्रकट करता है शाइर / सुख़नवर = उर्दू काव्य लिखने वाला शाईरी = उर्दू काव्य लेखन ग़ज़लगो = ग़ज़ल लिखने वाला ग़ज़लगोई = ग़ज़ल लिखने की प्रक्रिया शे'र = रदीफ़ तथा क़ाफ़िया से सुसज्जित एक ही वज़्न ( मात्रा क्रम) अर्थात बह्'र में लिखी गई दो पंक्तियाँ जिसमें किसी चिंतन विचार अथवा भावना को प्रकट किया गया हो| उदाहरण स्वरूप दो अश'आर (शे'र का बहुवचन) प्रस्तुत हैं - फ़क़ीराना आये सदा कर चले मियाँ ख़ुश रहो हम दु'आ कर चले ||१|| वह क्या चीज़ है आह जिसके लिए हर इक चीज़ से दिल उठा कर चले ||२|| - (मीर तक़ी मीर) अश'आर = शे'र का बहुवचन फ़र्द = एक शे'र | {पुराने समय में फर्द विधा प्रचिलित थी जो ग़ज़ल की उपविधा थी| जैसे आज कतअ का मुसम्मन रूप प्रचिलित है अर्थात अब कतअ ४ मिसरों में कही जाती है (पुरानी कतआत में २ से अधिक अशआर भी मिलते हैं) आज अगर शायर कहता है कि कतअ पढता हूँ तो श्रोता समझ जाते हैं कि शायर चार मिसरों की रचना पढ़ेगा, उसी प्रकार एक स्वतंत्र शेर को फर्द कहा जाता है जब कोई शायर कहता था कि फर्द पढता हूँ तो श्रोता समझ जाते थे कि अब शायर कुछ स्वतंत्र शेर पढ़ने वाला है| अशआर कहने से यह पता चलता है कि सभी शेर एक जमीन के हैं और फर्द से पता चलता है कि सभी शेर अलग अलग जमीन से हैं} मिसरा = शे'र की प्रत्येक पंक्ति को मिसरा कहते हैं, इस प्रकार एक शे'र में दो पंक्तियाँ अर्थात दो मिसरे होते हैं मिसरा -ए- उला= शे'र की पहली पंक्ति को मिसरा -ए- उला कहते हैं 'उला' का शब्दिक अर्थ है 'पहला' उदाहरण = हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए <-- मिसरा -ए- उला इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए - (दुष्यंत त्यागी) मिसरा -ए- सानी = शे'र की दूसरी पंक्ति को मिसरा -ए- सानी कहते हैं 'सानी' का शब्दिक अर्थ है 'दूसरा' उदाहरण = हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए <-- मिसरा ए सानी रदीफ़ = वह समांत शब्द अथवा शब्द समूह जो मतले (ग़ज़ल का पहला शे'र) के दोनों मिसरों के अंत में आता है तथा अन्य अश'आर के मिसरा -ए- सानी अर्थात दूसरी पंक्ति के अंत में आता है और पूरी ग़ज़ल में एक सा रहता है उसे रदीफ़ कहते हैं उदाहरण = आग के दरमियान से निकला मैं भी किस इम्तिहान से निकला चाँदनी झांकती है गलियों में कोई साया मकान से निकला - (शकेब जलाली) प्रस्तुत अश'आर में से 'निकला' रदीफ़ है क़ाफ़िया = वह शब्द जो प्रत्येक शे'र में रदीफ़़ के ठीक पहले आता है और सम तुकांतता के साथ हर शे'र में बदलता रहता है उसे क़ाफ़िया कहते हैं, शे'र का आकर्षण क़ाफ़िये पर ही टिका होता है क़ाफ़िये का जितनी सुंदरता से निर्वहन किया जायेगा शे'र उतना ही प्रभावशाली होगा उदाहरण = किस महूरत में दिन निकलता है शाम तक सिर्फ हाथ मलता है वक़्त की दिल्लगी के बारे में सोचता हूँ तो दिल दहलता है -(बाल स्वरूप राही) अब हम रदीफ़की पहचान कर सकते हैं इसलिए स्पष्ट है कि प्रस्तुत अश'आर में 'है' शब्द रदीफ़़ है तथा उसके पहले के शब्द निकलता, मलता, दहलता सम तुकान्त शब्द हैं तथा प्रत्येक शे'र में बदल रहे हैं इसलिए यह क़ाफ़िया है मतला = ग़ज़ल का पहला शे'र जिसके दोनों मिसरों में क़ाफ़िया रदीफ़़ होता है उसे मतला कहते हैं उदाहरण = बहुत रहा है कभी लुत्फ़-ए-यार हम पर भी गुज़र चुकी है ये फ़स्ल-ए-बहार हम पर भी || मतला || ख़ता किसी कि हो लेकिन खुली जो उनकी ज़बाँ तो हो ही जाते हैं दो एक वार हम पर भी || दूसरा शे'र || - (अकबर इलाहाबादी) हुस्ने मतला = यदि ग़ज़ल में मतला के बा'द और मतला हो तो उसे हुस्ने मतला कहा जाता है उदाहरण= जिक्र तबस्सुम का आते ही लगते हैं इतराने लोग और ज़रा सी ठेस लगी तो जा पहुंचे मैख़ाने लोग || मतला || मेरी बस्ती में रहते हैं ऐसे भी दीवाने लोग रात के आँचल पर लिखते हैं दिन भर के अफ़साने लोग || हुस्ने मतला || - (अतीक इलाहाबादी) प्रस्तुत अश'आर में पहला शे'र मतला है तथा दुसरे शे'र के मिसरा उला (पहली पंक्ति) में भी रदीफ़़ क़ाफ़िया का निर्वहन हुआ है इसलिए यह शे'र हुस्ने मतला है तख़ल्लुस - उर्दू काव्य विधाओं की रचनाओं के अंत में नाम अथवा उपनाम लिखने का प्रचलन है | उपनाम को उर्दू में तख़ल्लुस कहते हैं | उदाहरण = हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है वो हर इक बात पर कहना कि, यूँ होता तो क्या होता - (असदउल्लाह ख़ान 'ग़ालिब') इस शे'र में शायर ने अपने तख़ल्लुस 'ग़ालिब' का प्रयोग किया है| मक़्ता = ग़ज़ल के आख़िरी शे'र को मक़्ता कहते हैं इस शे'र में शायर कभी कभी अपना तख़ल्लुस (उपनाम) लिखता है| उदाहरण = अजनबी रात अजनबी दुनिया तेरा मजरूह अब किधर जाये - (मजरूह सुल्तानपुरी) यह मजरूह सुल्तानपुरी की ग़ज़ल का आख़िरी शे'र है जिसमें शायर ने अपने तख़ल्लुस 'मजरूह' (शाब्दिक अर्थ - घायल) का सुन्दर प्रयोग किया है मुरद्दफ़ ग़ज़ल = रदीफ़़वार| वो ग़ज़ल जिसमें रदीफ़़ होता है उसे मुरद्दफ़ ग़ज़ल कहते हैं उदाहरण = उनसे मिले तो मीना-ओ-साग़र लिए हुए हमसे मिले तो जंग का तेवर लिए हुए लड़की किसी ग़रीब की सड़कों पे आ गई गाली लबों पे हाथ में पत्थर लिए हुए - (जमील हापुडी) प्रस्तुत अश'आर में 'लिए हुए' रदीफ़़ है इसलिए यह मुरद्दफ़ ग़ज़ल है ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल = जिस ग़ज़ल में रदीफ़ नहीं होता है उसे ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल कहते हैं उदाहरण = जाने वाले तुझे कब देख सकूं बारे दीगर रोशनी आँख की बह जायेगी आसूं बन कर रो रहा था कि तेरे साथ हँसा था बरसों हँस रहा हूँ कि कोई देख न ले दीदा-ए-तर - (शाज़ तमकनत) प्रस्तुत अश'आर के पहले शे'र में मिसरे 'दीगर', 'कर' शब्द से समाप्त हुए हैं जो कि समतुकांत हैं तथा अलग अलग हैं इसलिए स्पष्ट है कि यह रदीफ़़ के न हो कर क़ाफ़िया के शब्द हैं और इस शे'र में रदीफ़ नहीं है इस प्रकार आगे के शे'र में भी क़ाफ़िया को निभाते हुए तर शब्द आया है इससे सुनिश्चित होता है कि यह ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल है | मुसल्सल ग़ज़ल = ग़ज़ल का प्रत्येक शे'र अपने आप में पूर्ण होता है तथा शायर ग़ज़ल के प्रत्येक शे'र में अलग अलग भाव को व्यक्त कर सकता है परन्तु जब किसी ग़ज़ल के सभी अश'आर एक ही भाव को केन्द्र मान कर लिखे गए हों तो ऐसी ग़ज़ल को मुसल्सल ग़ज़ल कहते हैं| ग़ैर मुसल्सल ग़ज़ल = ग़ज़ल के प्रत्येक शे'र अलग अलग भाव को व्यक्त करें तो ऐसी ग़ज़ल को ग़ैर मुसल्सल ग़ज़ल कहते हैं लाम= लाम का अर्थ होता है “लघु” और इसे १ मात्रा के लिए प्रयोग करते हैं| {'लाम' उर्दू का एक हर्फ़ है जो हिंदी के "ल" के सामान है} उदाहरण = अ = १ ('लाम' ग़ज़ल की सबसे छोटी इकाई है ) गाफ = गाफ का अर्थ होता है दीर्घ और इसे २ मात्रा के लिए प्रयोग करते हैं| {उर्दू का हर्फ़ गाफ़ हिंदी में "ग"} उदाहरण = आ =२ (यह भी ग़ज़ल की सबसे छोटी इकाई है ) वज़्न = मात्रा क्रम, किसी शब्द के मात्रा क्रम को उस शब्द का वज़्न कहा जाता है उदाहरण - कुछ शब्दों का मात्रिक विन्यास देखें शब्द – वज़्न “ सदा - फ़अल (१२) लघु दीर्घ सादा - फैलुन (२२) दीर्घ दीर्घ साद - फ़ाअ (२१) दीर्घ लघु हरा - फ़अल (१२) लघु दीर्घ राह - फ़ाअ (२१) दीर्घ लघु हारा - फैलुन (२२) दीर्घ दीर्घ रुक्न = गण, घटक, पद, निश्चित मात्राओं का पुंज| जैसे हिंदी छंद शास्त्र में गण होते हैं, यगण (२२२), तगण (२२१) आदि उस तरह ही उर्दू छन्द शास्त्र 'अरूज़' में कुछ घटक होते हैं जो रुक्न कहलाते हैं| बहुवचन=अरकान उदाहरण - फ़ा, फ़ेल, फ़अल , फ़ऊल, फ़इलुन, फ़ाइलुन फ़ाइलातुन, मुफ़ाईलुन आदि रुक्न के भेद - १ - सालिम रुक्न २- मुज़ाहिफ रुक्न १ सालिम रुक्न - अरूज़शास्त्र में सालिम अरकान की संख्या आठ कही गई है अन्य रुक्न इन मूल अरकान में दीर्घ को लघु करके अथवा मात्रा को कम करके बने हैं ये 7 मूल अरकान निम्न हैं रुक्न - रुक्न का नाम - मात्रा फ़ईलुन - मुतक़ारिब - १२२ फ़ाइलुन - मुतदारिक - २१२ मुफ़ाईलुन - हजज़ - १२२२ फ़ाइलातुन - रमल - २१२२ मुस्तफ़्यलुन - रजज़ - २२१२ मुतफ़ाइलुन - कामिल - ११२१२ मफ़ाइलतुन - वाफ़िर - १२११२ २ मुज़ाहिफ रुक्न - परिवर्तित रुक्न| मुज़ाहिफ़ शब्द ज़िहाफ़ से बना है| जब किसी मूल रुक्न से किसी मात्रा को कम करके अथवा घटा कर एक नया रुक्न प्राप्त करते हैं तो उसे मुज़ाहिफ़ रुक्न कहते हैं उदाहरण = हजज़ के मूल रुक्न मुफ़ाईलुन (१२२२) की तीसरी मात्रा को लघु करने से मुफ़ाइलुन (१२१२) रुक्न बनता है जो हजज़ का एक मुज़ाहिफ़ रुक्न है. रजज़ का मूल रुक्न हैं मुस्तफ़्यलुन(२२१२), इस मूल रुक्न से मफ़ाइलुन(१२१२), फ़ाइलुन (२१२), मफ़ऊलुन (२२२) आदि उप रुक्न बनाया जा सकता है| प्रत्येक मूल रुक्न से उप रुक्न बनाये गए हैं तथा अरूज़ानुसार इनकी संख्या सुनिश्चित है अरकान = रुक्न का बहुवचन, रुक्न के दोहराव से जो समूह से निर्मित होते है उसे अरकान कहते हैं, यह छंद का सूत्र होता है और किसी रुक्न का शे'र में कितनी बार और कैसे प्रयोग हुआ है इससे ग़ज़ल की बह्'र का वास्तविक रूप सामने आता है उदाहरण = – “फ़ाइलातुन”(२१२२) रमल का मूल रुक्न है फ़ाइलातुन / फ़ाइलातुन / फ़ाइलातुन / फ़ाइलातुन (२१२२/२१२२/२१२२/२१२२) यह रुक्नों का एक समूह है जिसमें रमल के मूल रुक्न फ़ाइलातुन को चार बार रखा गया है ऐसा करने से एक बह्'र(छंद) का निर्माण होता है जिसे “बह्'र-ए-रमल मुसम्मन सालिम” कहते हैं| इस अरकान पर शे'र लिखा/कहा जा सकता है | बह्'र = छंद, वह लयात्मकता जिस पर ग़ज़ल लिखी/ कही जाती है उदाहरण = बह्'र -ए- रमल, बह्'र -ए- हजज़, बह्'र -ए- रजज़ आदि जुज़ = रुक्न के खंड करने पर हमें जुज़ प्राप्त होते है अर्थात जुज़ एक इकाई है जिससे रुक्न का निर्माण होता है| जुज़ मात्रा के योग से बनता है और यह दूसरी सबसे छोटी इकाई है उदाहरण = फ़ाइलातुन(२१२२) तीन जुज़ से बना हैं (२+१२+२) इसमें पहला जुज़ २ मात्रिक है दूसरा जुज़ १२ मात्रिक है तथा तीसरा जुज़ फिर से दो मात्रिक है इस प्रकार फ़ाइलातुन को तोडने पर इस प्रकार टूटेगा = फ़ा + इला + तुन रब्त = अंतर्संबंध ज़िहाफ़ = रुक्न से मात्रा घटना या बढ़ना ज़िहाफ़ = रुक्न से मात्रा घटाने अथवा बढ़ाने की क्रिया मात्रा गणना = ग़ज़ल में मात्रा गणना का एक स्पष्ट सरल और सीधा नियम है कि इसमें शब्दों को जैसा बोला जाता है (शुद्ध उच्चारण) मात्रा भी उस हिसाब से ही गिनाते हैं| हिन्दी में कमल = क/म/ल = १११ होता है मगर ग़ज़ल विधा में इस तरह मात्रा गणना नहीं करते बल्कि उच्चारण के अनुसार गणना करते हैं| उच्चारण करते समय हम क+मल बोलते हैं इसलिए ग़ज़ल में ‘कमल’ = १२ होता है यहाँ पर ध्यान देने की बात यह है कि “कमल” का ‘“मल’” शाश्वत दीर्घ है अर्थात ज़रुरत के अनुसार गज़ल में ‘कमल’ शब्द की मात्रा को १११ नहीं माना जा सकता यह हमेशा १२ ही रहेगा ‘उधर’- उच्च्चरण के अनुसार 'उधर' बोलते समय पहले उ बोलते हैं फिर धर बोलने से पहले पल भर रुकते हैं और फिर धर कहते हैं इसलिए इसके मात्रा गिनाते समय भी ऐसे ही गिनेंगे अर्थात – उ+धर = उ १ धर २ = १२ मात्रा गिराने का नियम = ग़ज़ल की मात्रा गणना के नियम में एक छूट मिलाती है जिसमें कुछ शब्दों को दीर्घ मात्रिक होते हुए भी उच्चारण अनुसार लघु मात्रिक मान लिया जाता है| यह छूट कम से कम लेनी चाहिए तथा ग़ज़ल लिखते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि कम से कम शब्दों की मात्रा को घटाया जाये| उदाहरण - 'कोई' का वज़्न फैलुन(२२) होता है परन्तु इसे कुई - फ़अल (१२) तथा कोइ फ़ालु(२१) के वज़्न में भी प्रयोग किया जा सकता है इसे 'मात्रा का गिरना' कहते हैं | इज़ाफ़त = उर्दू भाषा में इज़ाफ़त का नियम है जिसके द्वारा दो शब्दों को अंतर सम्बंधित किया जाता है उदाहरण - ‘नादाँ दिल’ को ‘दिल-ए-नादाँ’, कहा जा सकता है इज़ाफ़त के पश्चात उर्दू लिपि में शब्द को जोड़ कर लिखा जाता है जैसे ‘दिल का दर्द’ को ‘दर्दे दिल’ लिखा जाता है| जिस व्यंजन में इज़ाफ़त के बाद 'ए' स्वर को योजित किया जाता है उसे लघु मात्रिक गिना जाता है अर्थात दर्दे दिल का वज़्न दर्२ दे१ दिल२ = फ़ाइलुन (२१२) होगा| परन्तु छूट है कि इज़ाफ़त को दीर्घ मात्रिक भी मान सकते हैं अर्थात दर्२ दे२ दिल२ = मफ्ऊलुन (२२२) भी किया जा सकता है| अत्फ़ {वाव-ए-अत्फ़} = उर्दू भाषा में जब दो शब्दों के बीच 'व' 'तथा' 'और' आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है तो वहाँ अत्फ़ का प्रयोग भी किया जा सकता है| उदाहरण - 'सुब्ह और शाम' को 'सुब्हो शाम' कहा जा सकता है| इज़ाफ़त की तरह उर्दू के सुब्हो शाम को हिन्दी में सुब्ह-ओ-शाम लिखा जाता है और पढते समय इसे सुब्हो शाम के उच्चारण में पढ़ा जाता है| सुब्ह-ओ-शाम का वज़्न फ़ाइलातु (२१२१) होगा जिसे फ़ाईलातु(२२२१) भी माना जा सकता है| अलिफ़ वस्ल = नियम है कि यदि किसी शब्द के अंत में बिना मात्रा का व्यंजन आ रहा है और उसके तुरंत बा'द का शब्द दीर्घ स्वर से शुरू हो रहा है तो व्यंजन और स्वर का योग किया जा सकता है सकता है | उदाहरण - रात आ = रा/त/आ = २१ २ को रात+आ = राता = २२ भी किया जा सकता है तक़्ती'अ = मात्रा गणना, वह तरीक़ा जिसके द्वारा यह परखा जाता है कि शे'र निश्चित छंद (बह्'र) में है अथवा नहीं| बा-बह्'र ग़ज़ल लिखने के लिए तक़्ती'अ (मात्रा गणना) ही एक मात्र अचूक उपाय है, यदि शे'र की तक़्ती'अ करनी आ गई तो देर सवेर बह्'र में लिखना भी आ जाएगा क्योकि जब किसी शायर को पता हो कि मेरा लिखा शे'र बेबह्'र है तभी उसे सही करने का प्रयास करेगा और तब तक करेगा जब तक वह शे'र बाबह्'र न हो जाए| किसी शे'र की तक़्ती'अ करने के लिए पहले शे'र को लिखते हैं फिर उसके नीचे उसका रुक्न लिखते हैं तथा एक एक शब्द का रुक्न से मिलान करते हैं इस प्रकार पता चल जाता है कि शे'र निश्चित अरकान के अनुरूप है अथवा नहीं उदाहरण = भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी बड़ा बे अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ -(अल्लामा इक़बाल) इस शे'र को इस प्रकार तक्तीअ किया जायेगा भरी बज़् / म में रा / ज़ की बा / त कह दी फ़ईलुन / फ़ईलुन / फ़ईलुन / फ़ईलुन (१२२ / १२२ / १२२ / १२२) ------------------------------------------------------- बड़ा बे / अदब हूँ / सज़ा चा / हता हूँ फ़ईलुन / फ़ईलुन / फ़ईलुन / फ़ईलुन (१२२ / १२२ / १२२ / १२२) इस प्रकार सिद्ध होता है कि शे'र में प्रत्येक रुक्न में वज़्न के अनुसार ही शब्दों को रखा गया है और यह ग़ज़ल बह्'र ए मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम के अनुसार बाबह्'र है मुफ़रद सालिम बह्'र = वो मूल बह्'र जिनमें कोई मात्रा घट बढ़ न की गई हो उदाहरण = मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन (१२२२ १२२२ १२२२ १२२२) बह्'र का नाम - बह्'र -ए- हजज़ मुसम्मन सालिम मुफ़रद मुज़ाहिफ़ बह्'र = जब मूल रुक्न की बह्'र में कोई मात्रा घट बढ़ की गई हो तथा उप बह्'र बनाई गई हो तो उसे मुफ़रद मुज़ाहिफ़ बह्'र कहते हैं उदाहरण = फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन (२१२२ २१२२ २१२२ २१२२) के आख़िरी रुक्न के आख़िरी दीर्घ को लुप्त कर देने से हमें रमल बह्'र की एक मुज़ाहिफ़ सूरत प्राप्त होती है फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन (२१२२ २१२२ २१२२ २१२) बह्'र का नाम - बह्'र ए रमल मुसम्मन महज़ूफ़ मुरक्कब सालिम बह्'र = वो बह्'र जो दो मूल अरकान के योग से बनी हो तथा जिनमें कोई मात्रा घट बढ़ न की गई हो उदाहरण - बह्'र ए मुजारे मुफ़ाईलुन फ़ाइलातुन मुफ़ाईलुन फ़ाइलातुन (१२२२ २१२२ १२२२ २१२२) मुरक्कब मुज़ाहिफ़ बह्'र = वो बह्'र जो दो मूल अरकान के योग से बनी हो तथा कोई घट बढ़ करके उससे उप बह्'र बनाई गई हो उसे मुरक्कब मुज़ाहिफ़ बह्'र कहते हैं| उदाहरण = बह्'र -ए- मुजारे जिसका मूल रुक्न मुफ़ाईलुन फ़ाइलातुन मुफ़ाईलुन फ़ाइलातुन (१२२२ २१२२ १२२२ २१२२) है इसके अरकान में कुछ मात्राओं को लुप्त कर के एक बहु प्रचिलित उप बह्'र बनाई गयी है - मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फैलुन (१२१२ ११२२ १२१२ २२) बनती है यह एक मुरक्कब मुज़ाहिफ़ बह्'र जिसका नाम है - मुजारे मुसम्मन मक्बूज, मख्बून, मक्बूज, मह्जूफो मक्तूअ मुसना = मुसना का शाब्दिक अर्थ है दो टुकड़े वाला| जिस बह्'र के दोनों मिसरों में कुल दो अरकान हों अर्थात जिस शे'र के एक मिसरे में मात्र एक रुक्न हो उस ग़ज़ल की बह्'र के नाम के साथ मुसना लिखते हैं उदाहरण = रात गर हूँ फिर सहर हूँ संग वालों फल शज़र हूँ हसरतों की रहगुज़र हूँ - (वीनस केसरी) प्रस्तुत अश'आर के प्रत्येक शे'र में मात्र दो अरकान का प्रयोग हुआ है अतः एक मिसरे में मात्र एक रुक्न फ़ाइलातुन (२१२२) है इस प्रकार इस बह्'र के नाम के साथ मुसना लिखा जायेगा| इस बह्'र का नाम है - रमल मुसना सालिम मुरब्बा = मुरब्बा का शाब्दिक अर्थ है चौकोर, जिसका चार पहलू हो, चार कोण| जिस बह्'र के दोनों मिसरों में कुल चार अरकान हों अर्थात जिस शे'र के एक मिसरे में २ अरकान हों उस ग़ज़ल की बह्'र के नाम के साथ मुरब्बा लिखते हैं मुसद्दस = मुसद्दस का शाब्दिक अर्थ है छः पहलू वाला| जिस बह्'र के दोनों मिसरों में कुल छः रुक्न हों अर्थात जिस शे'र के एक मिसरे में तीन अरकान हों उस ग़ज़ल की बह्'र के नाम के साथ मुसद्दस लिखते हैं उदाहरण = जिस्म तक बेच डाले गए पेट फिर भी न पाले गए जितने आवारा थे शह्'र में रहबरी दे के टाले गए - (जमील हापुडी) प्रस्तुत अश'आर के प्रत्येक शे'र में छः अरकान का प्रयोग हुआ है अतः एक मिसरे में तीन अरकान फ़ाइलुन (२१२) हैं इस प्रकार इस बह्'र के नाम के साथ मुसद्दस लिखा जायेगा| इस बह्'र का नाम है - मुतदारिक मुसद्दस सालिम मुसम्मन = मुसम्मन का शाब्दिक अर्थ है आठ पहलू वाला| जिस बह्'र के दोनों मिसरों में कुल आठ अरकान हों अर्थात जिस शे'र के एक मिसरे में चार अरकान हों उस ग़ज़ल की बह्'र के नाम के साथ मुसम्मन लिखते हैं उदाहरण = आज उस नाज़ुक अदा की याद फिर आयी बहुत जिससे मेरी एक मुद्दत थी शनासाई बहुत राहे उल्फ़त में निकालना था तकाज़ा-ए-जुनूं वैसे मैं भी जानता था होगी रुसवाई बहुत - (पाशा रहमान) प्रस्तुत अश'आर के प्रत्येक शे'र में आठ अरकान का प्रयोग हुआ है अतः एक मिसरे में चार अरकान फ़ाइलातुन (२१२२) हैं इस प्रकार इस बह्'र के नाम के साथ मुसद्दस लिखा जायेगा| आख़िरी रुक्न में फ़ाइलातुन जिहाफ़ द्वारा को फ़ाइलुन किया गया है इसलिए इस बह्'र का नाम है - रमल मुसम्मन मह्जूफ़ जुज़ के भेद जुज़ के तीन भेद हैं १- सबब २- वतद ३- फ़ासला सबब के भेद - १- सबब ए ख़फ़ीफ़ = जिस जुज़ में दो स्वतंत्र लघु होते हैं उसे सबब ए खफीफ कहते हैं (११) २- सबब ए सकील = जिस जुज़ में एक दीर्घ होता है उसे सबब ए सकील कहते हैं (२) वतद के भेद १-वतद ए मुजमुअ = जिस जुज़ में पहले एक स्वतंत्र लघु फिर एक दीर्घ होता है उसे वतद ए मजमुअ कहते हैं (१२) २- वतद ए मफरुक = जिस जुज़ में पहले एक दीर्घ फिर एक स्वतंत्र लघु होता है उसे वतद ए मजमुअ कहते हैं (२१) फासला के भेद १- फ़ासला ए सुगरा = जिस जुज़ में पहले दो स्वतंत्र लघु फिर एक दीर्घ होता है उसे फ़ासला ए सुगरा कहते हैं (११२) २- फ़ासला ए कुवरा = जिस जुज़ में पहले दो स्वतंत्र लघु फिर एक लघु व एक दीर्घ होता है उसे फ़ासला ए कुवरा कहते हैं (१११२) अज्ज़ा = जुज़ के बहुवचन को 'अज्ज़ा' कहते हैं अज्ज़ा -ए- रुक्न = मिसरे के अरकान को जब तोडते हैं तो हमें अज्ज़ा -ए- रुक्न प्राप्त होता है उदाहरण = शे'र – हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए - (दुष्यंत त्यागी) अज्ज़ा -ए- रुक्न - हो गई है / पीर पर्वत / सी पिघलनी / चाहिए (मिसरा -ए- उला) इस हिमालय / से कोई गं / गा निकलनी / चाहिए (मिसरा -ए- सानी) अज्ज़ा –ए- रुक्न के भेद = एक शे'र को अज्ज़ा -ए- रुक्न के अनुसार से ६ खंड में बांटा जाता है १- सदर २- अरूज़ ३- हश्व ४- इब्तिदा ५- जरब ६- हश्व १- सदर = (शाब्दिक अर्थ – प्रारम्भ) शे'र के मिसरा-ए-उला के पहले रुक्न को रुक्न-ए-सदर कहते है क्योकि यहाँ से शे'र का प्रारंभ होता है | उदाहरण – हो गई है / पीर पर्वत / सी पिघलनी / चाहिए (उला) इस हिमालय / से कोई गं / गा निकलनी / चाहिए (सानी) इस शे'र में हो गई है शब्द मिसरा-ए-उला के पहले रुक्न में आ रहा है| यह रुक्न ए सदर है २ - अरूज़ = (शाब्दिक अर्थ – उत्कर्ष) शे'र के मिसरा-ए-उला के अंतिम रुक्न को रुक्न-ए-अरूज़ कहते हैं क्योकि यहाँ शे'र का उत्कर्ष होता है | उदाहरण – हो गई है / पीर पर्वत / सी पिघलनी / चाहिए (उला) इस हिमालय / से कोई गं / गा निकलनी / चाहिए (सानी) इस शे'र में चाहिए शब्द मिसरा-ए-उला के आख़िरी रुक्न में आ रहा है| यह रुक्न-ए-अरूज़ है ३- हश्व = (शाब्दिक अर्थ – विकास) किसी शे'र के मिसरा ए उला के पहले खंड (सदर) तथा अंतिम खंड (अरूज़) के बीच में जितने भी खंड होते हैं उन्हें हश्व कहते हैं क्योकि यहाँ शे'र का विकास होता है |उदाहरण – हो गई है / पीर पर्वत / सी पिघलनी / चाहिए (उला) इस हिमालय / से कोई गं / गा निकलनी / चाहिए (सानी) इस शे'र में पीर पर्वत / सी पिघलनी शब्द मिसरा-ए-उला के रुक्न-ए-सदर तथा रुक्न-ए-अरूज़ के बीच में आ रहा है | यह रुक्न-ए-हाश्व हैं ४ इब्तिदा = (शाब्दिक अर्थ – आरम्भ) किसी शे'र के मिसरा ए सानी के पहले खंड को इब्तिदा कहते है क्योकि शायर शे'र लिखते समय पहले दूसरी पंक्ति लिखता है और बाद में पहली पंक्ति की गिरह लगता है तो देखा जाए तो शे'र लिखने की शुरुआत इसी खंड से होती है | उदाहरण – हो गई है / पीर पर्वत / सी पिघलनी / चाहिए (उला) इस हिमालय / से कोई गं / गा निकलनी / चाहिए (सानी) इस शे'र में इस हिमालय शब्द मिसरा-ए-सानी के पहले रुक्न में आ रहा है| यह रुक्न-ए-इब्तिदा है ५ ज़रब = (शाब्दिक अर्थ – अंत) किसी शे'र के मिसरा ए सानी के अंतिम खंड को ज़रब कहते हैं क्योकि यहाँ शे'र का अंत होता है | उदाहरण – हो गई है / पीर पर्वत / सी पिघलनी / चाहिए (उला) इस हिमालय / से कोई गं / गा निकलनी / चाहिए (सानी) इस शे'र में चाहिए शब्द मिसरा-ए-सानी के आख़िरी रुक्न में आ रहा है| यह रुक्न-ए-ज़रब है ६ हश्व = (शाब्दिक अर्थ – विकास) किसी शे'र के मिसरा ए सानी के पहले खंड (इब्तिदा) तथा अंतिम खंड (ज़रब) के बीच में जितने भी खंड होते हैं उन्हें भी हश्व कहते हैं क्योकि यहाँ भी शे'र का विकास होता है | उदाहरण – हो गई है / पीर पर्वत / सी पिघलनी / चाहिए (उला) इस हिमालय / से कोई गं / गा निकलनी / चाहिए (सानी) इस शे'र में से कोई गं / गा निकलनी शब्द मिसरा-ए-सानी के रुक्न-ए-इब्तिदा तथा रुक्न-ए-ज़रब के बीच में आ रहा है | यह रुक्न-ए-हाश्व हैं हश्वैन = हश्व का बहुवचन ( हश्व एक रुक्न, दो अथवा कई अरकान का भी हो सकता है) उदाहरण = अरकान में एक हश्व= दिल ए नादाँ / तुझे हुआ / क्या है (उला) आखिर इस दर् / द की दवा / क्या है (सानी) - (असद उल्ला खां 'ग़ालिब') अरकान में दो हश्व= संभलने ही / नहीं देती / रवानी क्या / किया जाये (उला) गुजरने को / है मेरे सर / से पानी क्या / किया जाये (सानी) जो मिसरा केवल दो अरकान का होता है उसमें हश्व नहीं होता है | उदाहरण = देख नफ़रत से न देख हम पे आवाज़ें न कस - (रहमत अमरोहवी) देख नफ़रत / से न देख (उला) सदर / अरूज़ हम पे आवा / जें न कस (सानी) इब्तिदा / ज़रब अज्ज़ा –ए- रुक्न= सुकूं भी ख़्वाब हुआ, नींद भी है कम कम फिर क़रीब आने लगा दूरियों का मौसम फिर -(परवीन शाकिर) सुकूं भी ख़्वा / ब हुआ, नीं / द भी है कम / कम फिर (उला) सदर / हश्व / हश्व / अरूज़ ...................................................................................... क़रीब आ / ने लगा दू / रियों का मौस / म फिर (सानी) इब्तिदा / हश्व / हश्व / ज़रब शेर की हर पंक्ति को क्या कहते हैं?शेर की पंक्ति को मिस्रा कहा जाता है। मतले के दोनों मिस्रों में काफ़िया आता है और बाद के शेरों की दूसरी पंक्ति में काफ़िया आता है। रदीफ़ हमेशा काफ़िये के बाद आता है। रदीफ़ और काफ़िया एक ही शब्द के भाग भी हो सकते हैं और बिना रदीफ़ का शेर भी हो सकता है जो काफ़िये पर समाप्त होता हो।
गजल लिखने वाले को क्या कहते हैं?शेर या शेरो शायरी जिसे सुखन भी कहा जाता है भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित एक काव्य विधा है जिसे प्रायः उर्दू तथा हिंदी में लिखा जाता है। शायरी लिखने वाले को शायर या सुख़नवर कहा जाता है।
गजल का क्या अर्थ होता है?गजल का हिंदी अर्थ
वह कविता जिसमें नायिका के सौंदर्य और उसके प्रति प्रेम का वर्णन हो। फारसी और उर्दू में एक प्रकार का पद्य जिसमें दो-दो कड़ियों का एक-एक चरण होता है तथा प्रत्येक दूसरी कड़ी में अनुप्रास होता है। विशेष-(क) इसके गाने की पद्धति दिल्ली से चली थी।
शायर का उपनाम क्या है?शायरी (شاعری), शेर-ओ-शायरी या सुख़न भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित एक कविता का रूप हैं जिसमें उर्दू-हिन्दी भाषाओँ में कविताएँ लिखी जाती हैं। शायरी में संस्कृत, फ़ारसी, अरबी और तुर्की भाषाओँ के मूल शब्दों का मिश्रित प्रयोग किया जाता है। शायरी लिखने वाले कवि को शायर या सुख़नवर कहा जाता है।
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