Chattanon Ka Adhyayan Kya Kehlata HaiPradeep Chawla on 08-09-2018 Show
Comments What is your name on 07-07-2022 What is your name Deepak Kumar on 27-08-2021 Hawa ka adhan Nisha Kumari on 12-11-2020 Chattanon ke adhyayan ko kya kaha jata hai Ajay kumar on 18-03-2020 Sona chandi peetal or loha me sabse alag con hai Chattano ka adhyayan kya kahlata on 22-12-2019 Chattano ka Adhyan kya kahlata hai Rajiv Ranawat on 19-11-2019 Petrology Rahu on 08-08-2019 चट्टानों के अध्ययन विज्ञान को क्या कहा जाता है Sunita on 19-07-2019 What is the study of rock called only one word answer चट्टान का अध्ययन क्या कहलात है on 12-05-2019 चट्टानों का अध्ययन क्या कहलाता है Lalan kumar on 27-04-2019 Chattanon ke rupantarn me kiska yogadan hota hai Sahil on 09-04-2019 Chattano ka Adhyan Kya Kehlata Hai Define the rock on 08-04-2019 Define the rock Sagita Kumari on 22-12-2018 Chattano ki padhai ko Kya kahte hai जीवाश्मिकी या जीवाश्म विज्ञान या पैलेन्टोलॉजी (Paleontology), भौमिकी की वह शाखा है जिसका संबंध भौमिकीय युगों के उन प्राणियों और पादपों के अवशेषों से है जो अब भूपर्पटी के शैलों में ही पाए जाते हैं। जीवाश्मिकी की परिभाषा देते हुए ट्वेब होफ़ेल और आक ने लिखा है : जीवाश्मिकी वह विज्ञान है, जो आदिम पौधें तथा जंतुओं के अश्मीभूत अवशेषों द्वारा प्रकट भूतकालीन भूगर्भिक युगों के जीवनकी व्याख्या करता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जीवाश्म विज्ञान आदिकालीन जीवजंतुओं का, उने अश्मीभूत अवशेषों के आधार पर अध्ययन करता है। जीवाश्म शब्द से ही यह इंगित होता है कि जीव + अश्म (अश्मीभूत जीव) का अध्ययन है। अँग्रेजी का Palaentology शब्द भी Palaios = प्राचीन + Onto = जीव के अध्ययन का निर्देश करता है। paleontology== परिचय == जीवाश्म विज्ञान का अध्ययन जीवविज्ञान की नई शाखा है और इसका विकास गत 200 वर्षों से ही अधिक हुआ है। विज्ञान की इस शाखा के विकास के बहुत पहले से आदिमानव की जानकारी में यह था कि कुछ प्रकार के शैलों में एक विचित्र प्रकार के अवशेष पाए जाते हैं जो समुद्री जीवों के अनुरूप होते हैं। ज्ञान के अभाव में उसने पहले-पहल इन अवशेषों को जैविक उत्पत्ति का न समझकर, प्रकृति के विनोद की सामग्री समझ रखा था, जो पृथ्वी के अंदर किसी शक्ति के कारण बन गए। परंतु शनै:-शनै: ज्ञान की वृद्धि के साथ साथ मनुष्य को इस दिशा में भी अपने विचारों को बदलना पड़ा और उसने यह पता लगा लिया कि शैलों में पाए जानेवाले अवशेषों के प्राणी किसी न किसी समय में जीवत जीव थे और वह स्थान जहाँ पर हम आज इन जीवाश्मों को पाते हैं भौमिकीय युगों में समुद्र के गर्भ में था। सन् 1820 तक केवल 127 अश्मीभूत वनस्पतियों तथा 2,100 जंतुओं का ही पता चला था, जो 1840 तक बढ़कर क्रमश: 2,050 तथा 24,300 की संख्या तक पहुँच गया। तब से अब तक इन संख्याओं में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। मानव क्षमता के अधीन यह संभव नहीं है कि संसार के जिने भी जीवाश्मों के स्रोत हैं, उन सबकी खोजबीन कर ली जाए। दूसरे, पृथ्वी पर जीवों की उत्पत्ति अरबों वर्ष पूर्व से ही होती आई है। तीसरे, संसार की भौगोलिक आकृति जैसी आज दृष्टिगोचर होती है, वैसी उन दिनों नहीं थी। जीव जंतु एक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाया करते थे। अत: हमें उनके अश्मीभूत नमूनों से जो ज्ञान प्राप्त होता या हो सकता है, वह विच्छिन्न ही है, या होगा। अंत में यह कभी संभव नहीं है कि जितने भी जीवजंतु इतिहास के उस अंधकार युग में उपस्थित थे, उन सबका अश्मीकरण हो ही गया हो। अश्मीकरण की कुछ दशाएँ होती हैं, जिनके कारण जीवजंतु के मृत शरीरों का अश्मीकरण हो जाता है। सभी जीवों का अश्मीकरण न तो आवयश्यक ही है, न ही संभव है। इस कारण भी आदि जीवों के जीवन का शृंखलाबद्ध इतिहास लिखना दुरूह कार्य है। अब तक जितने भी जीवाश्मीय प्रमाण हमें प्राप्त हो चुके हैं, उनके आधार पर जीवों के क्रमिक विकास पर अच्छा खासा प्रकाश पड़ता है। जीवाश्मों के अध्ययन से हमें उन जीवों का पता चलता है जो अब या तो लुप्त (extinct) हो गए हैं, या उनका वर्तमान स्वरूप पर्याप्त परिवर्तित हो गया है। जीवाश्म प्राचीन जीवों के वे अवशेष हैं, जो शिलाखंडों या अन्य स्थानों पर पत्थर जैसे हो गए हैं। जीवों के कुछ ऐसे भी अवशेष प्राप्त हुए हैं, जो प्रस्तीरभूत (stratified) न होकर अपने मूल रूप में ही हैं। हिमसागरीय क्षेत्रों में प्राप्त मैमथों तथा अन्य जंतुओं के मृत शरीर रूस तथा इंग्लैंड और अमरीका के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। जीवाश्मों के अभिलक्षण[संपादित करें]जीवाश्म भी, आधुनिक जीवों की आकृति से, न्यूनाधिक रूप में, मिलते-जुलते हैं। जीवाश्म केवल अवसादी शिलाखंडों में ही (कुछ अपवादों को छोड़कर) मिला करते हैं। अनेक प्रकार के जीवजंतुओं की अनेक परिस्थितियों में मृत्यु के उपरांत उनके शवों पर जो अवसाद (Sediment) जमा हाते हते हैं, कालांतर में वे ही जीवाश्म बन जाया करते हैं। कुछ जीवाश्म तो इतने पूर्ण हैं कि उनकी आण्वीक्षिकीय परीक्षा (microscopic examination) करने पर जीवों की कोशिका तक की रचनाएँ स्पष्ट दीख पड़ती हैं। जीवों के अश्मीभूत प्रमाण (fossilized specimens) अपने (जीवों के) जीवित शरीर के रूप में ही मिल जाएँ, यह आवश्यक नहीं है। उनके शवों में सड़ाँध, आक्सीकरण (oxidation), हिंसक जीवों द्वारा विकृत कर देने, शीत, वर्षा, धूप आदि के कारण विकार उत्पन्न हो जाता है। कुछ जंतु, जिनके शरीर कैल्सियम कार्बोनेट, सिलिका आदि जैसे अकार्बनिक पदार्थों द्वारा बने होते हैं, उनपर विकार का प्रभाव अपेक्षाकृत कम पड़ता है। ऐसे जीवों के जीवाश्म बहुत कम संख्या में उपलब्ध हैं। जो उपलब्ध हैं भी वे आधुनिक जीवित जीवों से तुलना करने के लिए अपूर्ण हैं। जीवों की एक अन्य विशेषता यह भी है कि एक प्रकार के जीवाश्म कुछ विशेष प्रकार के शिलाखंडों में ही मिलते हैं। इन शिलाखंडों से जीवाश्मों के पूर्ण जीवन के परिवेश का ज्ञान हो जाता है। जीवाश्मों से यह भी मालूम होता है कि जीव कैसे स्थान पर रहा करता था और क्या खाता-पीता था। इनसे तत्कालीन भौगोलिक परिस्थितियों पर भी प्रकाश पड़ता है। हिम क्षेत्रों में पाए गए जीवाश्म अथवा संपूर्ण जीवशरीर जीवाश्म वैज्ञानिकों के लिए वरदान सिद्ध हुए हैं। विशेषत: साइबेरिया के सुदूर उत्तर ध्रुवसागरीय क्षेत्र में लगभग संपूर्ण जीव ज्यों के त्यों प्राप्त हुए हैं। इनसे सुदूर अतीत के जीवों पर अच्छा खासा प्रकाश पड़ता है। साधारण रूप से जंतुओं के शरीर के कड़े भाग-हड्डियाँ, दाँत, खोल (shell) आदि-प्रस्तरीकृत (petrifacted) हो जाते हैं। लल ने इटली के पाम्पिआई नगर को 'जीवाश्मनगर' (fossil city) की संज्ञा देते हुए बतलाया कि ईस्वी सन् 79 में विसूवियस ज्वालामुखी के उद्गार के फलस्वरूप इस सुंदर नगर में कम से कम 2,000 व्यक्तियों की जानें गईं। ज्वालामुखी की धधकती आग, तप्त राख आदि ने संपूर्ण नगर को कई फुट मोटी पर्त से ढँक दिया। अंत में पर्वत के बड़े-बड़े जलते टुकड़ों ने घरों की खिड़कियाँ तथा दरवाजों के भीतर घुसकर उनके भीतर मृत मनुष्यों एवं पशुपक्षियों को घर में ही दफन कर दिया। ्झ्ररिसर्च स्वान लल : आर्गैनिक रेवोल्यूशन, मैक्मिलन कं. टोरंटो (कैनेडा), 1929ट। कभी-कभी अश्मीभूत जंतुओं की खोखली अस्थियों, जैसे कपाल (स्कल), हाथ पैर की हड्डियों, खोलों आदि के भीतर की वसा या मज्जा नष्ट हो जाती है और उसमें दूसरे पदार्थों के अवसाद भर जाते हैं। कालांतर में ये इतने कठोर हो जाते हैं कि यदि ऊपरी खोल को तोड़ दिया जाए तो भीतर एक मूर्ति जैसी प्रतिकृति (cast) जाती है। इसी प्रकार दलदलों, गीली मिट्टयों और भूमि पर पड़े पशुपक्षियों के पदचिह्न भी अश्मीभूत हो गए हैं। इन पदचिह्नों से जंतुओं के पैरों के तलवों की रचनाकृति एवं आकार का ही ज्ञान नहीं होता वरन् उनके आवागमन के मार्ग का भी निर्देश होता है। कुछ जंतुओं की विष्ठा भी अश्मीभूत रूप में प्राप्त होती हैं। इनके रासायनिक अध्ययन से उन जंतुओं के आहार का ज्ञान होता है। कुछ समुद्री मछलियों तथा अन्य जंतुओं की अन्ननली में दूसरी छोटी मछलियाँ या कीड़े मकोड़े, पशुपक्षी, अधपके मांस (अश्मीभूत) आदि भी पाए गए हैं। जीवाश्मों की उपयोगिता[संपादित करें]इन जीवाश्मों को अतीत की थाती समझना चाहिए क्योंकि इनसे पृथ्वी के लाखों करोड़ों वर्ष पूर्व की अवस्था के प्रमाण मिलते हैं। शैलस्तरों (rock strata) के अभिनिर्धारण (identification) तथा इन स्तरों के वर्षक्रम (आयु) को निश्चित करने में जीवाश्मों से बहत सहायता मिलती है। इनकी कुछ प्रमुख उपयोगिताएँ निम्नलिखित हैं : (1) कालानुक्रमिक (Chronological)-जीवश्मों में उत्कीर्ण अथवा संपूर्ण या अपूर्ण रूप में प्राप्त प्रमाणों के आधार पर प्राचीन भूगर्भिक (geological) अवस्था का पता चलता है। किसी भूगर्भिक कालविशेष का निर्धारण करने में जीवाश्मों से बहुत सहायता मिलती है। स्तरीय स्थिति (stratigraphic) अथवा स्तरण विन्यास का जीवाश्मों से अविच्छिन्न संबंध माना गया है। पृथ्वी पर जो भौतिक-रासायनिक परिवर्तन पहले हो चुके हैं, लगभग वैसे ही परिवर्तन आज भी हो रहे हैं। किंतु, जीवों का विकास क्रमिक रूप से होता रहा हे। उनका जो स्वरूप पहले था, उसमें महान, अंतर पड़ गया है। खनिज पदार्थों की प्रकृति पूर्ववत् होती हुई भी कार्बनिक पदार्थों की प्रकृति परिवर्तनशील रही है। अत: खनिज पदार्थयुक्त शैलखंडों से उनकी प्राचीनता का निर्धारण कठिन होता है। किंतु उनके बीच प्राप्त जीवाश्मों के अवसादों का अध्ययन करने पर यह कार्य सरल हो जाता है। कुछ जीवाश्मों को निर्देशक जीवाश्म (Index fossil) की संज्ञा इस आधार पर दे दी गई है कि उनसे यह सिद्ध हो जाता है कि अमुक जंतु या वनस्पति अमुक भूगर्भिक काल में ही उत्पन्न हुए या हो सकते हैं। (2) आदिम परिवेश (Ancient environment)-जीवों के जीवन के लिए, चाहे वे वनस्पतियाँ हो, चाहे जानवर, विशेष प्रकार के भौगोलिक वातावरण ही उपयुक्त होते हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि विशेष वातावरण में विशेष प्रकार के जीव जंतु जीवित रहते हैं। जीवाश्मों से पता चलता है कि तत्कालीन जीव जंतुओं के जीवनयापन के लिए किस प्रकार का भौगोलिक वातावरण था। इन जीवजंतुओं की मृत्यु किस प्रकार हुई अथवा किस स्थान पर किस अवस्था में हुई थी, इसकी भी एक झलक जीवाश्म दे देते हैं। इसके साथ ही प्राचीन भूमि, सागर, जलाशय आदि की सीमा तथा विस्तार, जंतुओं और पक्षियों के पर्व्रािजन (migration) आदि पर भी जीवाश्म प्रचुर प्रकाश डालते हैं। इन्हीं जीवाश्मों के अध्ययन का परिणाम यह हुआ कि कि प्राचीनकालीन भौगलिक मानचित्रों की रचना सरल एवं सुलभ हो सकती है। जीवाश्मों द्वारा प्रकट भौगोलिक परिवेश के अध्ययन के लिए अब एक नवीन विज्ञान का जन्म हो चुका है, जिसे पुराभूगोल (Palaeogeography) कहते हैं। (3) पुरापारिस्थितिकी (Palaeoecology)-सजीव प्राणियों को जीवित रहने के लिए विविध प्रकार के परिवेशों की आवश्यकता पड़ती है। कुछ जीव अन्य जीवों के शरीर के ऊपर या भीतर रहकर जीवनयापन करते हैं; इन्हें परजीवी या पराश्रयी (Parasites) कहते हैं। कुछ जीव अन्य जीवों के निकट संपर्क में या उनसे संलग्न रहकर अपना जीवन निर्वाह करते हैं। जीवाश्मों द्वारा जीव जंतुओं के इस अंत:संबंध का ज्ञान हमें सहज ही हो जाता है। (4) जीवों का उद्विविकास (Organic Evolution)-चार्ल्स डार्विन के जीवों के उद्विविकास संबंधी सिद्धांत की पुष्टि के लिए जिन पुष्ट प्रमाणों या तर्कों को उनके समर्थक उपस्थित किया करते हैं, उनमें 'जीवाष्मीय प्रमाण' भी एक है। प्रत्येक जीवाश्म अपने आप में जीवविशेष की अपनी सत्ता का स्वयं प्रमाण है। इनके अध्ययन से इनके क्रमिक विकास पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है। जीवाश्मों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में एक ऐसा भी समय था, जब डाइनासौर दैत्याकार जंतुओं से पृथ्वी आक्रांत थी, अथवा सीलाकैंथस मछलियों (Coelacanthus) के जीवित अवशेष अब संभवत: समाप्त हो चले हैं। इसी प्रकार, उद्विविकास संबंधी अन्य अनेक समस्याओं का समाधान जीवाश्म करते रहे हैं। जीवाश्म विज्ञान की शाखाएँ और उनका क्षेत्र[संपादित करें]जीवाश्म विज्ञान कई शाखाओं में विभक्त किया गया है। सुविधा की दृष्टि से अब यह नियम सा बन गया है कि जब हम 'जीवाश्मिकी' शब्द का उपयोग करते हैं तब हमारा अभिप्राय केवल अकशेरुकी जीवों के जीवाश्मों के अध्ययन से होता है। जीवाश्मिकी की जिस शाखा के अंतर्गत कशेरुक जीवाश्मों का अध्ययन किया जाता है उसे कशेरुकी जीवाश्म विज्ञान (Vertebrate paleontology) कहते हैं। पादप जीवाश्मों का अध्ययन एक भिन्न शाखा के अंतर्गत किया जाता है जिसे पादपाश्म विज्ञान (Palaeobotany) कहते हैं। आधुनिक समय में जीवाश्मिकी की कुछ अन्य प्रमुख शाखाओं का भी विकास हुआ है, जिनके अध्ययन का क्षेत्र क्रमश: अति लघु जीव और जीवाश्म मानव हैं। जीवाश्मिकी का क्षेत्र बड़ा व्यापक है और उसकी सीमा निश्चित रूप से निर्धारित नहीं की जा सकती। यदि सैद्धांतिक दृष्टि से देखा जाए, तो जीवाश्मिकी का अभ्युदय पृथ्वी पर जीव के प्रादुर्भाव के साथ साथ प्रारंभ हो जाता है, परंतु भौमिकीय आधार पर केवल इतना ही कहा सकता है कि पृथ्वी पर संपूर्ण जीव के इतिहास के आधे, या उससे भी कम के, जीवों के अभिलेख हमें मिलते हैं। जीवाश्म वैज्ञानिक अन्वेषणों का प्रारंभकाल ऐसे प्राचीनतम प्राप्य जीवाश्मों से किया जा सकता है जिनके जैविक गुण जैविकीय आधार पर बतलाए जा सकते हैं। अन्य विज्ञानों से सम्बन्ध[संपादित करें]जीवाश्मिकी और भौमिकी[संपादित करें]जीवाश्मिकी का भौमिकी, विशेषकर स्तरित-शैल-भौमिकी, से अति घनिष्ठ संबंध है। अतीत काल के जीवों के अवशेष स्तरित शैलों में पाए जाते हैं। इन शैलों के निर्माण के विषय में और उनका अनुक्रम स्थापित करने में उनमें पाए जानेवाले जीवाश्म बहुत सहायक सिद्ध हुए हैं। वास्तव में बिना जीवाश्मों के स्तरित-शैल-भौमिकी, एक प्रकार से, व्यावहारिक जीवाश्मिकी है। जीवाश्मिकी और जैविकी[संपादित करें]जीवाश्मिकी का जैविकी (biology) के साथ घनिष्ठ संबंध है। जैविकी के अंतर्गत वर्तमान जीवित प्राणियों और पादपों का अध्ययन किया जाता है, जब कि जीवाश्मिकी में भौमिकीय युगों के उन जीवों और पादपों का अध्ययन किया जाता है जो कभी जीवित थे और अब जीवाश्म के रूप में ही प्राप्य हैं। लेकिन जीवाश्मिकी को जैविकी की एक शाखा नहीं माना जा सकता है, क्योंकि जीवाश्मिकी के अध्ययन की सामग्री और उसके संग्रह का ढंग जैविकी के अध्ययन की सामग्री और उसके संग्रह के ढंग से सर्वथा भिन्न हैं। यह निश्चित करना कि किस स्थान पर जीवाश्मिकी को जैविकी (biology) से पृथक् किया जा सकता है, प्राय: असंभव सा है। परंतु मोटे तौर से जीवाश्म का अंत और जैविकी का प्रारंभ अत्यंत-नूतन युग (pleistocene) और आधुनिक युग के संधिस्थान से ले सकते हैं। इस प्रकार से अनिश्चित और संदिग्ध कैंब्रियन-पूर्व महाकल्प प्राणी एवं पादपजात तथा वर्तमान काल के निश्चित तथा अनेक प्रकार के जीवों और पादपों के बीच में अनेक तथा विभिन्न प्रकार के जीव अवशेष मिलते हैं, जो जीव पर प्रकाश डालते हैं। भूपर्पटी के अवसादी शैलों में मिलनेवाले ये जीवाश्म ही, जीवाश्मिकी के अध्ययन के आधार हैं। जीवाश्मिकी और जातिवृत्त (Phylogeny)[संपादित करें]जीवविज्ञानी जीवाश्मिकी में इसलिए अत्यधिक अभिरुचि रखते हैं कि इसका जीवविकास जैसे विषय से निकट संबंध है। प्राणियों और पादपों की जातियों का इतिहास अथवा जातिवृत्त, स्तरित शैलों के अनुक्रमित स्तरों से प्राप्त किए जीवाश्मों के अध्ययन के आधार पर अधिक विश्वासपूर्वक अनुरेखित किया जा सकता है। परंतु जीवों के अपूर्ण अभिलेख के कारण उनके जातिवृत्त के अनुरेखन में अत्यधिक बाधा पड़ती है, क्योंकि भौमिकीय युगों में पाए जानेवाले प्राणियों और पादपों में से कुछ ही और उनमें से अधिकांश अपूर्ण दशा में, इन शैलों में परिलक्षित पाए जाते हैं। अभिलेख की इस अपूर्णता के बावजूद अनेक जीववर्ग में, जब उनका अनुरेखन शैलों के एक स्तर से दूसरे स्तर में किया जाता है तब, शनै: शनै: परिवर्तन होने लगते हैं। जब जीवाश्मों के प्रतिरूप विभिन्न अनुक्रमित स्तरों से एकत्रित किए जाते हैं, तब प्रत्यक्ष रूप से दो भिन्न दिखाई पड़नेवाली जातियाँ बीच के जीवाश्मों द्वारा संबंधित दिखाई पड़ती हैं और निम्नतम स्तर में पाई जानेवाली जाति से लेकर उच्चतम स्तर में मिलनेवाली जाति तक के बीचवाले स्तरों के जीवाश्मों के जीवों में हुए परिवर्तनों को देखा जा सकता है। जीवाश्मों से जातिवृत्त का पता लगाने के लिए, स्तरीय रीति के अतिरिक्त शारीर तथा व्यतिवृत्त (ontogeny) की तुलनात्मक रीतियों का भी प्रयोग किया जा सकता है। अत: जीवाश्मिकी इस धारणा की पुष्टि करता है कि जीवविकास शनै: शनै: तथा क्रमश: होनेवाले परिवर्तनों के परिणामस्वरूप हुआ। इस बात के बताने का भी प्रमाण है कि जीव विकास नियतविकासीय (orthogenetic) था। कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ जीवों के वर्ग में जीवविकासीय परिवर्तन युग युगांतर तक किसी निश्चित दिशा में हुए और इसके अतिरिक्त ऐसे संबद्ध वर्ग जो एक ही पैतृक उत्पत्ति के हैं, एक दूसरे से तथा बाह्य दशाओं से बिना प्रभावित हुए, अपने विकास में समान अवस्थाओं अथवा उससे मिलती जुलती अवस्थाओं में से गुजरे, जिससे यह प्रकट हो जाता है कि जीवों के विभिन्न वर्गों में विकास की दिशा, सर्वसाधारण पूर्वज से पैतृक गुणों द्वारा निश्चित हो जाती है। जीवाश्मिकी और भ्रौणिकी (Embryology)[संपादित करें]जीवित पादपों और प्राणियों का एककोशिका अंडे से ले करके अंतिम दशा तक विकास की संपूर्ण अवस्थाओं का अनुरेखन करना, भ्रौमिकी और जीववृत्ति के अंतर्गत आता है। किसी वर्ग के पादपों और प्राणियों की जातियों का विकास, कम से कम अपनी प्रारंभिक अवस्थाओं में लगभग समान होता है और एक वर्ग के अंतर्गत आनेवाले संपूर्ण भ्रूणों में, किसी एक अवस्था तक एक दूसरे में इतनी सदृश्यता होती है वे पृथक् नहीं किए जा सकते। इस तथ्य ने उन आकारों में अत्यधिक बंधुत्व प्रगट किया है, जो प्रौढ़ावस्था में एक दूसरे से अत्यधिक भिन्न होते हैं। इस बात की वास्तविकता कशेरुकियों में देखने को मिलती है, जिनके भ्रूण प्रारंभिक अवस्थाओं में अति कठिनाई के साथ एक दूसरे से अलग किए जा सकते हैं और जो बहुत धीरे धीरे अपने वर्ग अथवा गण की लाक्षणिक आकृतियों को धारण कर लेते हैं। इन भ्रूणीय अन्वेषणों के परिणामों का जीवाश्मिकी के साथ विशेष संबंध है। ऐसे अनेक जीवाश्म जानकारी में हैं जो अपने में अपने से संबंधित आधुनिक जीवों की तुलना में भ्रूणीय, अथवा कम से कम डिंभीय, अथवा किशोरावसा के लक्षण दिखाते हैं। इसप्रकार के आदिम आवा भ्रूणीय प्रकारों के उदाहरण कशेरुकों में विशेष करके देखने को मिलते हैं, क्योंकि इनमें कंकाल जीवन के अति प्रारंभिक काल ही में अश्मीभूत हो जाते हैं। अत: आधुनिक जीवों की अप्रौढ़ अवस्थाओं की तुलना सीधे प्रौढ़ जीवाश्म से की जा सकती है। नामपद्धति और वर्गीकरण[संपादित करें]जीवाश्मों को निश्चित नाम देना जीवाश्म विज्ञानी के लिए इसलिए महत्व का है कि जीवाश्मों में वह अधिक यथार्थ विभेद कर सके। जीवाश्मों का नामकरण सामान्यत: उन्हीं सिद्धांतों पर आधारित है जिनपर प्राणियों का। प्राणिजगत् अनेक संघों में विभक्त है और प्रत्येक संघ अनेक वर्गों, गणों, कुलों, वंशों और जातियों में विभक्त है। जीवाश्मों के कई प्रकार के प्ररूप होते हैं। यदि अन्वेषक किसी जाति के जीवाश्म के एक प्रतिरूप के आधार पर उस संपूर्ण जाति का वर्णन करता है, तो वह जीवाश्म प्रतिरूप उस जाति का नाम प्ररूप (Holotype) कहलाता है। यदि किसी एक के नामप्ररूप का निश्चय करने में अन्वेषक अन्य जीवाश्म नमूनों की सहायता लेता है, तो इन अतिरिक्त नमूनों को पैराटाइप (Paratype) कहते हैं। यदि अन्वेषक बिना नामप्ररूप का निश्चय किए ही कई अन्य जीवाश्म नमूनों की सहायता लेता है, तो इन जीवाश्म नमूनों को सहप्ररूप (Cotype) कहते हैं। यदि किसी जाति के जीवाश्म का सहप्ररूप उस जाति के प्रारंभिक वर्णन के पश्चात् की उस जाति का प्रारूप चुन जाता है, तो वह जीवाश्म प्ररूप लेक्टोटाइप (Lectotype) कहलाता है। जिस प्रकार एक जाति के वर्णन के लिए जीवाश्म नमूने होते हैं उसी प्रकार एक वंश के वर्णन के लिए प्ररूप जाति अथवा समजीनी (genotype) जीवाश्म होते हैं। यदि कोई अन्वेषक किसी एक नए वंश का वर्णन किसी एक विशेष जाति के आधार पर करता है, तो वह जाति उस वंश के लिए जेनोहोलोटाइप (genoholotype) हो जाती है। यदि अन्वेषक नए वंश के वर्णन में ऐसी जातियों की सूची दे देता है जिनको वह यह समझता है कि वे नए वंश के अंतर्गत आते हैं, तो इन सब जातियों को जेनोसिनटाइप कहते हैं। बहुत से जेनोसिनटाइपों में से बाद में आदि अन्वेषक द्वारा अथवा बाद में किसी अन्य अन्वेषक द्वारा एक जेनोलेक्टोटाइप (genolectotype) छाँटा जा सकता है। भौमिकीय काल के अनुसार जीवाश्म[संपादित करें]भौमिकीय काल पाँच बृहत् भागों में बँटा हुआ है। ये क्रमश: निम्नलिखित हैं-
इनमें आर्कियोज़ोइक महाकल्प सबसे प्राचीन है। भौमिकीय काल के इन पाँच महाकल्पों में विभाजन मुख्यत: इन महाकल्पों में मिलनेवाले प्राणियों और पादपों के जीवाश्मों पर ही आधारित है। इनमें से आर्कियोज़ोइक महाकल्प जीवशून्य था। इस महाकल्प में न किसी प्रकार के जीवजंतु और न पौधे ही थे। अत: इस काल के शैलों में हमको किसी भी प्रकार के जीवाश्म नहीं मिलते हैं। प्राग्जीव महाकल्प में प्रोटोज़ोआ जैसे अति साधारण प्रकार के जीवजंतु अस्तित्व में आए। परंतु इन साधारण जीवों में किसी भी प्रकार के कड़े भाग के अभाव के कारण वे शैलों में परिरक्षित न हो सके। अत: प्राग्जीव महाकल्प के शैलों में भी जीवाश्म नहीं मिलते। अन्य तीनों महाकल्प, अर्थात् पुराजीवी महाकल्प (Palaeozoic) मध्यजीवी महाकल्प (Mesozoic) और नूतनजीवी महाकल्प (Cenozoic) जीवाश्ममय हैं। इन महाकल्पों के अंतर्गत आनेवाले जितने भी छोटे से लेकर बड़े तक विभाजन हैं वे सब पूर्णत: उस काल में पाए जानेवाले जीवों के जीवाश्म पर ही आधारित हैं। अत: हम देखते हैं कि स्तरित शैलविज्ञानी का काम बिना जीवाश्म विज्ञान की सहायता के नहीं चल सकता। यही कारण है कि जीवाश्म विज्ञान स्तरित शैलविज्ञान का मेरुदंड कहलाता है। मोटे तौर पर जीवाश्म विज्ञान के अधार पर निम्नलिखि चार मुख्य प्राणी तथा पादप जातीय महाकल्प स्थापित किए जा सकते हैं : (1) पूर्व पुराजीवी महाकल्प - इसके अंतर्गत कैंब्रियन (cambrian), ऑर्डोविशन (ordovician) और सिल्यूरियन (silurian) कल्प आते हैं। (2) उत्तर पुराजीवी महाकल्प - इसके अंतर्गत डियोनी (devonian), कार्बनी (carboniferous) और परमियन कल्प आतें हैं। (3) मध्यजीवी महाकल्प (4) नूतनजीव महाकल्प - अभिनव काल भी इसके अंतर्गत है। पूर्व पुराजीवी महाकल्प के प्राणी[संपादित करें]प्राय: सब प्रमुख अकशेरुकी प्राणियों के प्रतिनिधि जीवाश्म कैंब्रिन स्तरों में पाए जाते हैं और उनमें से ट्राइलोबाइट जैसे कुछ प्राणी आदिक्रैंब्रियन काल में ही अपेक्षया अधिक विकसित हो चुके थे। अत: यह धारण कि कैंब्रियन स्तरों में पाए जानेवाले सब वर्गों के पूर्वज कैंब्रियन पूर्व काल में पाए जाते थे, बिलकुल उचित है, यद्यपि उनके अवशेष कैंब्रियन पूर्व शैलों में नहीं मिलते। यह कल्पना की जा सकती है कि कैंब्रियनपूर्व समुद्रों में सब प्रकार के प्राणी रहते थे, परंतु वे सब कोमलांगी पूर्वज थे, जिन्होंने अपने अस्तित्व के विषय में किसी भी प्रकार के चिह्र नहीं छोडें हैं। चूँकि सब प्रकार के प्राणी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से पौधों पर निर्भर रहते हैं और पौधों में ही केवल अकार्बनिक खाद्य पदार्थ के परिपाचन की शक्ति होती है, अत: यह भी धारणा उचित प्रतीत होती है कि कैंब्रियन पूर्व काल में पौधे अस्तित्व में थे। परंतु यह आश्चर्य की बात है कि पौधों के अवशेष पुराजीवी महाकल्प के स्तरों में नहीं पाए गए हैं। पूर्वपुराजीवी महाकल्प के प्राणीजगत् के मुख्य लक्षणों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है :
उत्तर पुराजीवी महाकल्प के प्राणी[संपादित करें]यह मत्स्य और पर्णांग समान स्थल पादपों का, जिन्हें टेरिडोस्पर्म्स कहते हैं, युग था। इनके साथ गोनियोटाइट्स, स्पीरीफेरिड बाहुपाद और र्यूगोस प्रवाल पाए जाते थे।
मध्यजीवी महाकल्प के प्राणी[संपादित करें]मध्यजीवी महाकल्प सरीसृपों और ऐमोनाइटीज़ का कल्प कहलाता है। इनके साथ बेलेम्नॉइटीज़ (Belemnites) ब्रैकियोपोडा में रिनकोनीलिड्स और प्रवालों की भी प्रधानता थी।
नूतनजीव महाकल्प के प्राणी[संपादित करें]यह कल्प स्तनियों, पक्षियों, फोरैमिनीफेरों और आवृतबीजी (angiosperms) पादपों का काल था। प्राणी और पादपों के आधार पर हम नूतनजीव महाकल्प को आधुनिक समय से पृथक् नहीं रख सकते।
जीवविकासीय प्रमाण[संपादित करें]संपूर्ण शैलों के अनुक्रम का क्रम भली भाँति निश्चय हो जाने और उनमें पाए जानेवाले जीवाश्मों की पहचान हो जाने के उपरांत यह पता चला कि जीवों के विकास में शनै:-शनै: प्रगति हुई। अति साधारण प्रकार के जीव सबसे पहले प्रकट हुए, जो सबसे प्राचीन अवसादी शैलों में पाए जाते हैं और इनके उपरांत जटिलतर जीव क्रमश: तरुणतर शैलों में आते गए। इस प्रकार संपूर्ण अकशेरुकी संघों के प्रतिनिधि, जो जीवाश्म रूप में परिरक्षण योग्य हैं, कैंब्रियन शैलों में मिलते हैं, परंतु प्रत्येक संघ के अंतर्गत पाए जानेवाले जीव अपनी रचना में प्राय: समान थे और बहुत कम परिवर्तन दिखाते थे। आकारीय आधार पर हम उन्हें अल्पविकसित वंश कह सकते हैं, परंतु बाद के युगों में पाए जानेवाले संघों मे से प्रत्येक संघ में मिलनेवाले जीवों की रचना अधिक भिन्न थी और इस तथ्य की पुष्टि किसी सीमा तक वंशों की संख्या में वृद्धि से हो जाती है। कशेरुकियों में रचना के आधार पर आदिम वर्ग समझा जानेवाला साइक्लोसोटोमाटा वर्ग है, जिसका सबसे पहले प्रादुर्भाव हुआ और जिसके उपरांत क्रमश: मत्स्य, उभयचर, सरीसृप, पक्षी और स्तनी आए और ये वर्ग उसी क्रम से प्रकट होते गए जैसा उनकी रचना से आशा की जाती थी। अत: इस प्रकार से भौमिकीय युगों में जीवों की प्राप्ति का क्रम जीवविकास के सिद्धांत की सच्चाई प्रतिपादित करता है, क्योंकि जितने प्राचीनतर शैल होते हैं उतने ही सरल उनके ही सरल उनके जीव अवशेष होते हैं और जैसे जैसे भौमिकीय कालसारणी के अनुसार निकटतम शैलों का अध्ययन किया जाता है वैसे वैसे जटिल जीव अवशेष पाए जाते हैं। जीवविकासीय सिद्धांत का प्रतिपादन करने के लिए घोड़े के विकास का अध्ययन अच्छा उदाहरण है। वह संपूर्ण सामग्री जिस पर घोड़े के विकास का इतिहास आधारित है, उत्तरी अमरीका के तृतीयक शैलों से प्राप्त की गई है। इसके विकास की मुख्य दिशाएँ ये हैं : (1) आकार में वृद्धि, (2) गति में वृद्धि, (3) सिर और ग्रीवा में वृद्धि। घोड़े का सबसे प्राचीनतम जीवाश्म ईओहिपस (Eohippus) है, जो निम्न ईओसीन शैलों में पाया गया है और जो आकर में बिल्ली से लेकर लोमड़ी के बराबर था। मध्य ईओसीन का घोड़ा ओरोहिपस (Orohippus) के नाम से जाना जाता है, जो आकार में ईओहिपस से कुछ ही बड़ा था। उत्तर ईओसीन का घोड़ा एपिहिपस (Epihippus) कहलाता है, जिसके विषय में पूरी जानकारी नहीं है। मेसोहिपस (Mesohippus) के नाम से प्रचलित घोड़ा, निम्नतर और मध्य ओलिगोसीन शैलों में मिलता है। यह आकार में भेड़ के बराबर, या उससे कुछ छोटा, था। मायोहिपस (Miohippus), जो उत्तर ओलिगोसीन और निम्नतर मायोसीन युग में पाया जाता था, भेड़ से कुछ ही बड़े आकार का था। पैराहिपस (Parahippus) निम्न मायोसीन युग में अति प्रचुर था। मध्य मायोसीन का घोड़ा, मेरिकिप्स (Merychippus) कहलाता था। जो पैराहिपस ही के समान था। प्लायोसीन युग का घोड़ा, प्लायोहिपस (Phiohippus) आकार में गधे के बराबर था, पर तृतीयक युग में मिलनेवाला घाड़ा वर्तमान काल में पाए जानेवाले घोड़े के बराबर था। इस प्रकार हम देखते हैं कि घोड़े के आकर में धीरे-धीरे वृद्धि हुई। इसी प्रकार घोड़े की बाहु और पादों की आंतरिक रचना में परिवर्तन से उसकी गति में वृद्धि हुई। इस परिवर्तन का मुख्य लक्षण पार्श्व भागों का ह्रास और मध्य अथवा अक्षीय भाग का विस्तार और वर्धन था, जिससे वह दौड़ते समय दृढ़ता के साथ बोझा संभाल सके। इसी प्रकार कलाई के बीच की हड्डी को छोड़कर अन्य सबका ह्रास हो गया, जिससे कलाई दृढ़ हो गई। इसी प्रकार तीसरे अंगुल की वृद्धि हुई, आस पास के अन्य अंगुल लुप्त हो गए और अंत में केवल वही रह गया। इसी प्रकार सिर और ग्रीवा में धीरे धीरे वृद्धि हुई, जिससे घोड़ा सुगमता से चर सके। इन्हें भी देखें[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
चट्टान के अध्ययन को क्या कहा जाता है?चट्टान के अध्ययन करे वाला एकेडेमिक बिसय के पेट्रोलॉजी कहल जाला, ई एक तरह से भूबिज्ञान के भाग हवे।
शैल का अध्ययन क्या कहलाता है?भूविज्ञान या भौमिकी (Geology) वह विज्ञान है जिसमें ठोस पृथ्वी का निर्माण करने वाली शैलों तथा उन प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है जिनसे शैलों, भूपर्पटी और स्थलरूपों का विकास होता है।
जीवाश्म के अध्ययन को क्या कहा जाता है?जीवाश्म से कार्बनिक विकास का प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है। इनके अध्ययन को जीवाश्म विज्ञान या पैलेन्टोलॉजी कहते हैं। विभिन्न प्रकार के जीवाश्मों के निरीक्षण से पता चलता है कि पृथ्वी पर अलग-अलग कालों में भिन्न-भिन्न प्रकार के जन्तु हुए हैं।
शैल कितने प्रकार के होते हैं?मुख्य रूप से शैल तीन प्रकार की होती हैं - आग्नेय ( इग्नियस) शैल, अवसादी (सेडिमेंट्री) शैल एवं कायांतरित (मेटामोरफ़िक) शैल। द्रवित मैग्मा ठंडा होकर ठोस हो जाता है। इस प्रकार बने शैल को आग्नेय शैल कहते हैं।
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