स्थानीय स्वशासन का विकास क्या है? - sthaaneey svashaasan ka vikaas kya hai?

भारतीय स्वशासन: विकास एवं स्वरूप पर निबंध | Essay on Indian Self-Government in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. भारतीय स्वशासन का स्वरूप एवं कार्य विभाजन ।

(क) नगर निगम । (ख) नगरपालिकाएं ।

(ग) अधिसूचित क्षेत्र समिति ।

3. स्थानीय संस्थाओं के कार्य ।

4. आय के साधन ।

5. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

स्थानीय स्वशासन को प्रजातन्त्र का प्राण कहा जाता है; क्योंकि स्थानीय स्वशासन के माध्यम से जनता स्वयं शासन करती है । प्रशासन जनता के क्रियाशील रहता है । प्रजातन्त्र की प्राप्ति स्थानीय स्वशासन के माध्यम से ही सम्भव है ।

स्थानीय स्वशासन का महत्त्व प्रारम्भ से ही रहा है । वर्तमान युग में राज्यों की विशालता और प्रजातन्त्र के कारण इसका महत्त्व बढ़ गया है । स्थानीय स्वशासन में राज्य को स्वायत्त शासन की छोटी-छोटी इकाइयों में बांट दिया जाता है ।

उन क्षेत्रों के विकास कार्यो का सम्पादन उक्त स्थान की जनता निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा करती है । जी॰डी॰एच॰ कोल के शब्दों में-स्थानीय स्वशासन से तात्पर्य ऐसे शासन से है, जो सीमित होने के लिए कार्य करता है तथा हस्तान्तरित अधिकारों का प्रयोग करता है । भारतीय संविधान में स्थानीय संस्थाओं के विकास पर जोर देकर इसे राज्य सूची में रख दिया है । इस पर राज्यों का पूर्ण अधिकार है ।

2. भारतीय स्वशासन का स्वरूप एवं कार्य विभाजन:

भारतीय स्वशासन को दो भागों-शहरी और ग्रामीण-में बांटा गया है । शहरी क्षेत्रों में मुख्यत: 3 प्रकार की स्थानीय संस्थाएं होती हैं: (क) नगर निगम, (ख) नगरपालिकाएं (ग) अधिसूचित क्षेत्र समिति ।

इसके अतिरिक्त किसी-न-किसी शहर में स्थानीय विशेषताओं के अनुसार अन्य प्रकार की संस्थाएं पायी जाती हैं, जैसे-कैंटोनमेन्ट बोर्ड व पोर्ट, ट्रस्ट, सुधार न्यास । ग्रामीण क्षेत्रों में पहले जिला बोर्ड, लोकल बोर्ड, ग्राम पंचायतें तथा मुख्य स्थानीय संस्थाएं थी ।

अब जिला बोर्ड और लोकल बोर्ड को समाज कर इसका शासन सरकार ने अपने हाथों में ले लिया है । स्थानीय संस्थाओं के पुनर्गठन के लिए नये सुझाव के अन्तर्गत पंचायती राज को अपनाया गया है । इस प्रकार ग्रामीण स्तर पर ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद हैं ।

(क) नगर निगम:  भारत में बड़े तथा महानगरों में नगर निगम की स्थापना की जाती है । बड़े-बड़े नगरों की समस्याएं और आवश्यकताएं अपने ढंग की होती है । इनका समाधान नगर निगम करता है ।

महानगरों में ऊंचे दर्जे का शासन मुम्बई, पूना, अहमदाबाद, नागपुर, जबलपुर, पटना, कोलकाता, मद्रास आदि शहरों में है । प्रत्येक निगम की सर्वोच्च संस्था निगम परिषद कहलाती है । इसके निर्वाचित सदस्यों में कुछ पदेन मनोनीत सदस्य होते हैं । निगम का एक मेयर तथा डिपुटी मेयर होता है । एक प्रशासकीय अधिकारी होता है, जिसे कार्यपालक अधिकारी या निगम आयुक्त कहते हैं ।

(ख) नगरपालिका:  इसकी स्थापना छोटे शहरों में की जाती है । प्रत्येक राज्यों में इसकी कुछ निश्चित शर्ते होती हैं, जिसे पूरा करने पर ही इसकी स्थापना होती है । प्रत्येक नगरपालिका में एक परिषद होती है ।

इसके कुछ सदस्य कमिश्नर कहलाते हैं । उनका निर्वाचन सार्वजनिक वयस्क मताधिकार द्वारा होता है । कुछ सदस्य मनोनीत भी होते हैं । एक अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का निर्वाचन भी होता है ।

लोकल बोर्ड:  जिस तरह जिला का जिला बोर्ड होता है, उसी तरह प्रत्येक सबडिवीजन के लिए लोकल बोर्ड होता है । यह देहाती क्षेत्रों के लिए महत्त्वपूर्ण स्थानीय स्वशासन इकाई है । यह संस्था जिला बोर्ड के नियन्त्रण का काम करती है ।

इसके लिए सदस्यों का निर्वाचन नहीं होता है, बल्कि सबडिवीजन के जिला बोर्ड के सदस्य इसके भी सदस्य होते हैं । पंचायती राज व्यवस्था के लागू होने के कारण जिला बोर्ड के साथ इसे भी भंग कर दिया

गया ।

ग्राम पंचायत:  भारतीय स्थानीय संस्थाओं में ग्राम पंचायत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संस्था है । पंचायती राज व्यवस्था के लागू होने के बाद इसका महत्त्व काफी बढ़ गया है । ग्राम पंचायत के मुख्य प्रशासकीय अंश इस प्रकार हैं: ग्राम-सभा, कार्यकारिणी समिति, मुखिया, ग्राम सेवक, ग्राम रक्षा दल और ग्राम कचहरी । ग्राम-सभा पंचायत की आम सभा है ।

कार्यकारिणी समिति में कार्यपालिका की शक्ति निहित रहती है । इसके आधे सदस्य मुखिया द्वारा मनोनीत एवं आधे सदस्य ग्राम-सभा द्वारा  निर्वाचित  होते हैं । मुखिया कार्यकारिणी समिति का प्रधान होता

है । उसका निर्वाचन प्रत्यक्ष रीति से पंचायत के समस्त सदस्यों द्वारा होता है ।

ग्राम सेवक एक सरकारी कर्मचारी होता है, जो पंचायत सचिव के रूप में कार्य करता है । ग्राम रक्षा दल का संगठन शान्ति और सुरक्षा द्वारा किया जाता हैए । ग्राम कचहरी पंचायत की न्यायिक इकाई है । आधे सरपंचों का मनोनयन होता है, आधे का निर्वाचन ।

पंचायती राज:  पंचायती राज प्रजातान्त्रिक विकेन्द्रीयकरण भारतीय प्रशासन की क्रान्तिकारी देन है । इसका अर्थ है: शासन की इकाइयों का जनता के द्वारा निर्वाचन हो, साथ-साथ नीचे की इकाइयों को निजी शक्तियां प्राप्त हों । इस योजना के अन्तर्गत देहाती क्षेत्रों के लिए त्रिस्तरीय संस्थाएं स्थापित की गयी हैं । इसलिए एक मुख्य कार्यपालक होता है ।

सुधार न्यास:  बड़े-बड़े शहरों के सुधार, विकास तथा विस्तार के उद्देश्य से सुधार न्यास की स्थापना की जाती है । यह सरथा अस्थायी होती है । इसकी स्थापना राज्य सरकार द्वारा की जाती है । मुम्बई, कोलकाता, दिल्ली, अमृतसर, जालन्धर, मद्रास, लखनऊ, इलाहाबाद, नागपुर, पटना, रांची, गया, मुजपफरपुर आदि शहरों में सुधार न्यास की स्थापना की गयी है ।

अधिसूचित क्षेत्र समिति:  जब कोई देहात क्रमश शहर का रूप लेने लगता है, तो वहा अधिसूचइत क्षेत्र समिति की स्थापना की जाती है । समिति के सदस्य सरकार द्वारा मनोनीत होते हैं । इनकी संख्या 40-50 तक होती है । इसका अध्यक्ष एक सरकारी पदाधिकारी होता है । समिति का उपाध्यक्ष भी होता है । समिति के कार्य प्राय: वही होते हैं, जो नगरपालिका के होते हैं । कुछ आलोचक इसे अव्यावहारिक एवं अप्रजातान्त्रिक मानते हैं ।

पोर्ट ट्रस्ट:  भारत के बड़े-बड़े बन्दरगाहों के लिए पोर्ट ट्रस्ट की स्थापना की जाती है । मद्रास मुम्बई, कोलकाता में ये स्थापित हैं । इसके सदस्य सरकार द्वारा मनोनीत होते हैं । इसका मुख्य कार्य बन्दरगाहों की देख-रेख, घाट की व्यवस्था, नावों तथा जहाजों का प्रबन्ध आदि है । इसकी आय के प्रमुख स्त्रोत जहाजी कर, सामानों के उतारने व लादने पर कर, गोदामों के भाड़े व सरकारी अनुदान हैं ।

कैंटोनमेन्ट बोर्ड:  कई शहरों में सेना की छावनियां होती हैं । इन छावनियों की स्थायी व्यवस्था के लिए इसकी स्थापना की जाती है । जैसे दानापुर, रामगढ़ ।

जिला बोर्ड:  भारत में जिला बोर्ड का इतिहास काफी पुराना है । राज्य शासन जिले के कार्यों के संचालन के लिए इसका गठन करता है । इसकी एक परिषद् होती है । इसके तीन सदस्य होते हैं, जिनमें निर्वाचित, मनोनीत और सरकारी सदस्य होते हैं ।

जिला बोर्ड का चुनाव 6 वर्ष के लिए होता है । लोकल बोर्ड-जिस तरह जिले के लिए जिला बोर्ड होता है, सबसे ऊपर जिला स्तर पर जिला परिषद्, मध्य में पंचायत समिति, निम्न स्तर पर पंचायत होती है । पंचायत का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा होता है । पंचायत समिति पंचायतों के मुखिया तथा उस क्षेत्र की कुछ अन्य संस्थाओं के प्रतिनिधियों द्वारा संगठित होती है ।

जिला परिषद का संगठन पंचायत समितियों के प्रमुखों तथा अन्य संस्थाओं के प्रतिनिधियों द्वारा होता है । पंचायत और पंचायत समितियों को अपने क्षेत्र में विकास योजनाओं का निर्माण करने तथा कर लगाने का अधिकार होगा । पंचायत समिति अपने क्षेत्र के सभी पंचायतों का निरीक्षण करती है तथा उसकी विकास योजनाओं को मिलाकर पूरे प्रखण्ड के लिए योजना तैयार करती है ।

जिला परिषद अपने अधीनस्थ पंचायत समितियों के कार्यो, योजनाओं का निरीक्षण एवं समन्वयीकरण कर निर्णय लेने का अधिकार भी रखती है । सिद्धान्त रूप में केन्द्रीय सरकार व राज्य सरकारों ने पंचायती राज योजना को स्वीकृति दे दी है, जिसे थोड़े बहुत संशोधनों, के बाद प्राय: सभी राज्यों में लागू कर दिया गया है ।

स्थानीय संस्थाओं के कार्य:  भारत में स्थानीय संस्थाओं के सीमित कार्य हैं । अनिवार्य तथा ऐच्छिक प्रमुख रूप से दो कार्य हैं ।

अनिवार्य कार्य:  वे कार्य, जिन्हें किन्हीं स्थानीय संस्थानों को हर हालत में करना पड़ता है । उदाहरणस्वरूप, नगरपालिका के प्रमुख अनिवार्य कार्य हैं: सड़क निर्माण एवं मरम्मत, सफाई, शिक्षा व्यवस्था, रोशनी, जल-व्यवरथा, पाखानों व नाली की सफाई आदि ।

ग्राम पंचायत के अनिवार्य कार्य:  स्वास्थ्य सुधार, मल-मूत्रों की सफाई, फसल जानवर से सम्बन्धित आवश्यक आंकडो और सूचनाओं का संग्रह, आग, अकाल, महामारी, चोरी से सुरक्षा ।

ऐच्छिक कार्य: वे कार्य, जिन्हें स्थानीय संस्थाएं अपनी आमदनी के अनुसार राज्य सरकार की पूर्व अनुमति के बाद ही सम्पादित करती हैं । यातायात की व्यवस्था, पागलखाने का प्रबन्ध, अजायबघर की व्यवस्था, स्नानागार, बिजली, पार्क, आरामघर, पशुपालन घाट ।

ग्राम पंचायत के ऐच्छिक कार्य: गलियों में रोशनी का प्रबन्ध, सड़कों के दोनों ओर वृक्ष लगाना, पुस्तकालय खोलना, तालाब खुदवाना, धर्मशाला का प्रबन्ध, हाट व मेला लगवाना ।

4. आय के साधन:

भारत में स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं के आय के कई साधन हैं, जिसमें नगर निगम एवं नगरपालिका के आय के साधन-चुंगी कर, सम्पत्ति कर, कर्ज और अनुदान हैं । ग्राम पंचायत के आय के साधन: अनिवार्य कर, अनुपूरक कर, शुल्क व सरकारी अनुदान, सामान्य कर, जल, शौचालय, रोशनी कर, लाइसेंस फीस, मालगुजारी से पंचायतें दस प्रतिशत कमीशन प्राप्त करती हैं ।

5. उपसंहार:

इस तरह स्पष्ट है कि भारतीय स्थानीय स्वशासन प्रजातन्त्र की ऐसी श्रेष्ठ व्यवस्था है, जो छोटी-छोटी इकाइयों में भी सफलतापूर्वक कार्य निव्यादन करती है । इस तरह सरकारी नियन्त्रण तीन तरह से होता है: 1. प्रशासकीय, 2. विधायी और 3. न्यायिक व आर्थिक ।

इसके द्वारा यह देखा जाता है कि स्थानीय संस्थाएं सरकार द्वारा नियमित नियमों का पालन कर रही हैं या नहीं । पंचायती राज-व्यवस्था स्थानीय शासन की अत्यन्त सफल व व्यावहारिक योजना एवं शासन है ।

स्थानीय स्वशासन का विकास कैसे हुआ?

बीसवीं सदी के शुभारंभ में भारत शासन अधिनियम 1909, 1919 और 1935 में स्वशासन (self-government) व्यवस्था को अपनाने हुए प्रांतो को स्थानीय स्वशासन के क्षेत्र में कई अधिकार दिए गए। 1908 ई0 में विकेन्द्रीकरण के लिए गठित 'राजकीय आयोग' की रिपोर्ट ने स्थानीय स्वायत शासन के लिए महत्वपूर्ण सिफारिशें प्रस्तुत की।

स्थानीय स्वशासन क्या है भारत में इसकी विकास की चर्चा करें?

स्थानीय स्वशासन भारतीय अवधारणा/नवाचार है। स्थानीय स्वशासन का अर्थ स्थानीय स्तर की उन संस्थाओं से है जो जनता द्वारा चुनी जाती है तथा जिन्हें राष्ट्रीय या प्रान्तीय शासन के नियंत्रण में रहते हुए नागरिकों की स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिकार और दायित्व प्राप्त होते हैं।

स्थानीय स्वशासन से आप क्या समझते है इसके विकास के चरणों पर प्रकाश डालिए?

स्थानीय स्वशासन लोगों की अपनी स्वयं की शासन व्यवस्था का नाम है। अर्थात् स्थानीय लोगों द्वारा मिलजुलकर स्थानीय समस्याओं के निदान एवं विकास हेतु बनाई गई ऐसी व्यवस्था जो संविधान और राज्य सरकारों द्वारा बनाए गये नियमों एवं कानून के अनुरूप हो। दूसरे शब्दों में 'स्वशासन' गांव के समुचित प्रबन्धन में समुदाय की भागीदारी है।

स्थानीय स्वशासन का क्या महत्व है?

स्थानीय स्वशासन के माध्यम से जनता शासकीय कार्यों में सक्रिय एवं सकारात्मक सहयोग प्रदान करती है। ब्राइस ने इसके महत्व को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “स्थानीय संस्थाएं लोगों को न केवल दूसरों के लिए कार्य करना सिखाती हैं, वरन् इसके साथ मिलकर कार्य करना भी सिखाती हैं।