सांसारिक भोग में लीन होने से क्या उत्पन्न होता है क ईष्या ख अहंकार ग स्वार्थ घ दुःख? - saansaarik bhog mein leen hone se kya utpann hota hai ka eeshya kh ahankaar ga svaarth gh duhkh?


(श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) ५४ पश्चिम ३३ वीं स्ट्रीट, न्यूयार्क २४ अप्रैल, १८९५ प्रिय मित्र, मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि थोड़े दिन से जो 'रहस्यवाद' पश्चिमी संसार में अकस्मात् आविर्भूत हुआ है, उसके मूल में यद्यपि कुछ सत्यता है, परंतु अधिकांश में वह हीन और उन्मादी प्रवृत्ति से प्रेरित है। इस कारण मैंने धर्म के इस अंग से कुछ संबंध नहीं रखा है—न भारत में, न कहीं और ही। और ये रहस्यवादी मेरे अनुकल भी नहीं हैं।... मैं तुमसे पूर्णतः सहमत हूँ कि, चाहे पूर्व में या पश्चिम में, केवल अद्वैत दर्शन ही मानव-जाति को 'शैतान-पूजा' एवं इसी प्रकार के जातीय कुसंस्कारों से मुक्त कर सकता है और वही मनुष्य को अपनी प्रकृति में प्रतिष्ठित कर उसे शक्तिमान बना सकता है। स्वयं भारत में इसकी इतनी आवश्यकता है, जितनी की पश्चिम में, या कदाचित् वहाँ से भी अधिक। परंतु यह काम कठिन और दुःसाध्य है। पहले इसमें रुचि उत्पन्न करनी पड़ेगी, फिर शिक्षा देनी पड़ेगी, और अंत में समग्र प्रासाद का निर्माण करने में अग्रसर होना पड़ेगा। पूर्ण निष्कपटता, पवित्रता, विशाल बुद्धि और सर्वविजयी इच्छा-शक्ति। इन गुणों से संपन्न मुट्ठी भर आदमियों को यह काम करने दो और सारे संसार में क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाएगा। पिछले वर्ष इस देश में मैंने बहुत सा कार्य व्याख्यान रूप में किया, प्रचुर मात्रा में प्रशंसा प्राप्त की, परंतु यह अनुभव हआ कि वह कार्य में अपने लिए ही कर रहा था। धीरज से चरित्र का गढ़ना, सत्यानुभव के लिए कठिन संघर्ष करना—मनुष्य-जाति के भावी जीवन पर इसी का प्रभाव पड़ेगा। इसलिए इस वर्ष मैं इसी दिशा में कार्य करने की आशा रखता हूँ-स्त्री-पुरुषों की एक छोटी सी मंडली को व्यावहारिक अद्वैत की उपलब्धि की शिक्षा देने की चेष्टा करना। मुझे मालूम नहीं कि कहाँ तक मुझे इस कार्य में सफलता प्राप्त होगी। यदि कोई अपने देश और संप्रदाय की अपेक्षा मनुष्य-जाति का भला करना चाहे, तो पश्चिम ही कार्य का उपयुक्त क्षेत्र है। मैं तुम्हारे पत्रिका संबंधी विचार से पूरी तरह सहमत हूँ। परंतु यह सब करने के लिए व्यवसायबुद्धि का मुझमें पूरा अभाव है। मैं शिक्षा और उपदेश दे सकता हूँ और कभी कभी लिख सकता हूँ। परंतु सत्य पर मुझे पूर्ण श्रद्धा है। प्रभु मुझे सहायता देंगे और मेरे साथ काम करने के लिए मनुष्य भी वे ही देंगे। मैं पूर्णतः शुद्ध, पूर्णतः निष्कपट और पूर्णतः निःस्वार्थी रहूँ—यही मेरी एकमेव इच्छा है। सत्यमेव जयते नानृतम्। सत्येन पन्था विततो देवयानः।—-सत्य की ही केवल विजय होती है, असत्य की नहीं। ईश्वर की ओर जाने का मार्ग सत्य में से है।' (अथर्ववेद) जो निजी क्षुद्र स्वार्थ को संसार के कल्याणार्थ त्यागता है, वह संपूर्ण सृष्टि को अपनाता है।...मैं इंग्लैंड आने के विषय में अनिश्चित हूँ। मैं वहाँ किसी को नहीं जानता, और यहाँ कुछ कार्य कर रहा हूँ। प्रभु अपने नियत समय पर मेरा पथ-प्रदर्शन करेंगे। तुम्हारा, विवेकानंद (श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) १९ पश्चिम ३८ वीं स्ट्रीट, न्यूयार्क प्रिय मित्र, तुम्हारा अंतिम पत्र यथासमय मिला। इसी अगस्त महीने के अंत में यूरोप जाने की व्यवस्था पहले ही हो चुकी थी, इसलिए तुम्हारे आमंत्रण को मैं तो भगवान का ही आह्वान समझता हूँ। सत्यमेव जयते नानृतम्। सत्येन पन्था विततो देवयानः। मिथ्या का कुछ पुट रहने पर सत्य का प्रचार सहज ही संभव है—-ऐसी जिनकी धारणा है, वे भ्रांत है। समय आने पर वे पायेंगे कि विष की एक बूंद भी सारे खाद्य पदार्थ को दूषित कर देती है।... जो पवित्र तथा साहसी है, वही जगत् में सब कुछ कर सकता है। माया-मोह से प्रभु सदा तुम्हारी रक्षा करें। मैं तुम्हारे साथ काम करने के लिए सदैव प्रस्तुत हूँ एवं हम लोग यदि स्वयं अपने मित्र रहें तो प्रभु भी हमारे लिए सैकड़ों मित्र भेजेंगे, आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः। हमेशा यूरोप सामाजिक तथा एशिया आध्यात्मिक शक्तियों का उद्गम-स्थल रहा है एवं इन दोनों शक्तियों के विभिन्न प्रकार के सम्मिश्रण से ही जगत् का संपूर्ण इतिहास बना है। वर्तमान मानवेतिहास का एक और नवीन पृष्ठ धीरे-धीरे विकसित हो रहा है एवं चारों ओर उसी का चिह्न दिखायी दे रहा है। सैकड़ों नयी योजनाओं का उद्भव तथा नाश होगा, किंतु योग्यतम ही जीवित रहेगा और सत्य और शिव की अपेक्षा योग्यतम और हो ही क्या सकता है ? तुम्हारा, विवेकानंद (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) न्यूयार्क, ५४ पश्चिम ३३वीं स्ट्रीट, २५ अप्रैल, १८९५ प्रिय श्रीमती बुल, परसों मुझे कुमारी फ़ार्मर का कृपा-पत्र मिला, उसके साथ बार्बर-हाउस के भाषणों के लिए सौ डॉलर का एक 'चेक' भी प्राप्त हुआ। आगामी शनिवार को वे न्यूयार्क आ रही हैं। अवश्य ही मै उनसे उनकी भाषण-विज्ञप्ति में अपना नाम न रखने के लिए कहूँगा। इस समय मेरे लिए ग्रीनेकर जाना असंभव है। सहस्रद्वीपोद्यान (Thousand Islands) जाने की मैं व्यवस्था कर चुका हूँ—चाहे वह स्थान कहीं भी क्यों न हो। वहाँ पर मेरी एक छात्रा कुमारी डचर का एक 'कॉटेज' है। अपने कुछ साथियों तथा कुछ शिष्यों के साथ वहाँ एकांत में रहकर मैं शांतिपूर्वक विश्राम लेना चाहता हूँ। मेरे क्लास में जो लोग शामिल होते हैं उनमें से कुछ व्यक्तियों को मैं योगी बनाना चाहता हूँ। ग्रीनेकर जैसा कर्मव्यस्त मेला सा स्थान उसके लिए सर्वथा अनुपयुक्त है, जबकि दूसरा स्थान (सहस्रद्वीपोद्यान) बस्ती से बिल्कुल दूर है, कोई केवल मात्र कौतुक एवं आनंदप्रिय व्यक्ति वहाँ पहुँचने का साहस न करेगा। मैं इसलिए बेहद प्रसन्न हूँ कि कुमारी हैमलिन ने, ज्ञानयोग के क्लास में जो लोग शामिल होते थे, ऐसे १३० व्यक्तियों के नाम लिख रखे हैं। इसके अलावा ५० व्यक्ति बुधवार के दिन योग के क्लास मैं तथा प्रायः ५० व्यक्ति सोमवार के क्लास में भी आते हैं। श्री लैंडसबर्ग ने सब नाम लिख रखे थे—चाहे नाम हो या न हो-वे सभी शामिल होंगे। श्री लैंडसबर्ग मुझसे अलग हो गए हैं, किंतु उन नामों को यहीं मेरे पास छोड़ गए हैं, वे लोग सभी शामिल होंगे—और यदि वे शामिल न भी हों, तो और लोग आयेंगे, अतः कार्य इस प्रकार चलता रहेगा—प्रभु, सब कुछ तुम्हारी ही महिमा है !! इसमें कोई संदेह नहीं कि नाम लिख रखना तथा सूचना देना एक बड़ा भारी कार्य है और इस कार्य को करने के लिए मैं उन दोनों का अत्यंत आभारी हूँ। किंतु मैं यह अच्छी तरह से जानता हूँ कि दूसरों पर निर्भर रहना एकमात्र मेरे निजी आलस्य का फल है, इसलिए वह अधर्म है एवं आलस्य के द्वारा ही सदा अनिष्ट हुआ करता है। अतः अब मैं उन सभी कार्यों को स्वयं कर रहा हूँ तथा आगे भी सब कुछ स्वयं ही करता रहूँगा, जिससे भविष्य में दूसरों को अथवा मुझे स्वयं उद्विग्न न होना पड़े। अस्तु, कुमारी हैमलिन के 'उपयुक्त व्यक्तियों’ में से किसी भी एक को अपने साथ शामिल करने में मुझे प्रसन्नता ही होगी, किंतु दुर्भाग्य है कि अभी तक ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं आया। अत्यंत 'अनुपयुक्त' व्यक्तियों में से 'उपयुक्त' का निर्माण करना ही आचार्य का सदा से कर्तव्य रहा है। अंततोगत्वा यद्यपि मैं उस संभ्रात युवती कुमारी हैमलिन का अत्यंत ही आभारी हूँ, क्योंकि उन्होंने न्यूयार्क के 'उपयुक्त' व्यक्तियों के साथ मेरा परिचय करा देने की आशा दिलायी थी तथा उत्साह प्रदान किया था तथा यथार्थ रूप से मेरे कार्यों में सहायता भी की थी, फिर भी मैं यह उचित्त समझता हूँ कि मेरा जो भी कुछ थोड़ा-बहुत कार्य है, उसे अपने ही हाथों करूँ। दूसरों की सहायता लेने का समय अभी उपस्थित नहीं हुआ है—क्योंकि कार्य अभी स्वल्प है। उक्त कुमारी हैमलिन के बारे में आपकी धारणा बहुत ऊँची है—इससे मैं आनंदित ही हूँ। आप उसकी सहायता करना चाहती हैं, यह जानकर चाहे और लोगों को प्रसन्नता हुई हो या नहीं, मुझे तो विशेष प्रसन्नता हुई, क्योंकि उसके लिए सहायता की आवश्यकता है। किंतु माँ, श्री रामकृष्ण की कृपा से किसी व्यक्ति के चेहरे की ओर देखते ही मैं अपने सहज ज्ञान से तत्काल ही यह भाँप लेता हूँ कि वह व्यक्ति कैसा है और मेरी धारणा प्रायः ठीक हुआ करती है। उसका परिणाम यह हुआ है कि आप अपनी इच्छानुसार मेरे विषय में जो चाहें, कर सकती हैं, मैं भन्नाऊँगा भी नहीं;—मैं केवल कुमारी फ़ार्मर की सलाह लेने में प्रसन्न ही रहूंगा, चाहे भूत-प्रेत की ही बात हो। इन भूत-प्रेतों के पीछे मैं पाता हूँ एक प्रेम गंभीर हृदय, जिस पर प्रशंसनीय उच्चाभिलाष का एक सूक्ष्म परदा पड़ा हुआ है—कुछ वर्षों में उसका भी नाश अवश्यंभावी है। यहाँ तक कि लैंडसबर्ग भी यदि मेरे कार्यों में बीच-बीच में हस्तक्षेप करे, तो भी मैं उससे किसी प्रकार की आपत्ति न करूँगा, किंतु इस विषय को मैं यहाँ तक ही सीमित रखना चाहता हूँ। इनके अलावा मेरी सहायता के लिए और किसी व्यक्ति के अग्रसर होने पर मैं बहुत डर जाता हूँ—सिर्फ़ मैं इतना ही कह सकता हूँ। इसलिए नहीं कि आप मेरी सहायता कर रही हैं, किंतु मैं अपने सहज ज्ञान से (अथवा जिसे मैं अपने गुरु महाराज की अंतःप्रेरणा कहा करता हूँ) आपकी अपनी माता की तरह श्रद्धा करता हूँ। अतः जहाँ तक मेरा व्यक्तिगत संबंध है, आप मुझे जो भी कुछ सलाह देंगी, मैं सदा उसका पालन करूँगा। यदि आप किसी को माध्यम बनाना चाहें, तो मैं प्रार्थना करता हूँ कि चुनाव करने के लिए मुझे स्वेच्छा से छोड़ दें। इत्यलम्। उस अंग्रेज़ सज्जन का पत्र भी इसके साथ मैं भेज रहा हूँ। हिंदुस्तानी शब्दों को समझाने के लिए पत्र के हाशिये पर मैंने कुछ टिप्पणियाँ दे दी हैं। आपका आज्ञाकारी पुत्र, विवेकानंद पु०—कुमारी हैमलिन अभी तक नहीं पहुँची हैं। उनके आने पर मैं संस्कृत की पुस्तकें भेज दूंगा। क्या उन्होंने भारत के बारे में श्री नौरोजीकृत कोई ग्रंथ आपको भेजा है ? यदि आप अपने भाई साहब को उसे आद्योपांत पढ़ने के लिए कहें, तो मुझे बहुत ही प्रसन्नता होगी। गाँधी अब कहाँ हैं ? विवेकानंद (कलकत्ते के एक व्यक्ति को लिखित) ५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो, २ मई, १८९५ भाई, तुम्हारे अनुकंपापूर्ण सुंदर पत्र को पढ़कर मुझे अत्यंत ही प्रसन्नता हुई। हम लोगों के कार्य का तुमने जो सादर अनुमोदन किया है, तदर्थ तुमको असंख्य धन्यवाद। श्रीयुत नाग महाशय एक महान पुरुष हैं। ऐसे महात्मा की कृपा जब तुम पर हुई है, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम महाभाग्यशाली हो। महापुरुषों का कृपालाभ करना ही जीवन के लिए सर्वोच्च सौभाग्य की बात है। तुम उस सौभाग्य के अधिकारी बने हो। मद्भक्तानाञ्च ये भक्तास्ते में भक्ततमा मताः, उनके एक शिष्य को जब तुमने अपने जीवन के मार्गप्रदर्शक के रूप में पाया है, तो जान लेना कि तुमने उन्हीं को पा लिया है। अब संसार त्यागने का तुमने निश्चय किया है। तुम्हारी इस इच्छा के साथ मेरी सहानुभूति है। स्वार्थ-त्याग से बढ़कर जगत् में और कुछ भी नहीं है। किंतु तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि अपने हृदय की प्रबल आकांक्षा का दमन करना उनके कल्याण के लिए, जो तुम्हारे ऊपर निर्भर हैं, भी कम बड़ा बलिदान नहीं है। श्री रामकृष्ण के उपदेश तथा उनके निष्कलंक जीवन का अनुसरण करो और उसके बाद अपने परिवार के सुख की ओर ध्यान दो। तुम अपने कर्तव्य का पालन करते रहो, शेष प्रभु पर छोड़ दो। प्रेम मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद नहीं उत्पन्न करता; चाहे आर्य और म्लेच्छ हो, चाहे ब्राह्मण और चांडाल हो, यहाँ तक कि नर और नारी में भी। समग्र विश्व को प्रेम अपने घर जैसा बना लेता है। वास्तविक उन्नति धीरे-धीरे होती है। किंतु निश्चित रूप से। जो सच्चे हृदय से भारतीय कल्याण का व्रत ले सकें तथा उसे ही जो अपना एकमात्र कर्तव्य समझें—ऐसे युवकों के साथ कार्य करते रहो। उन्हें जाग्रत करो, संगठित करो तथा उनमें त्याग का मंत्र फेंक दो। भारतीय युवकों पर ही यह कार्य संपूर्ण रूप से निर्भर है। आज्ञा-पालन के गुण का अनुशीलन करो, लेकिन अपने धर्मविश्वास को न खोओ। गुरुजनों के अधीन हुए बिना कभी भी शक्ति केंद्रीभूत नहीं हो सकती, और बिखरी हुई शक्तियों को केंद्रीभूत किए बिना कोई महान कार्य नहीं हो सकता। कलकत्ते का मठ प्रमुख केंद्र है; सभी दूसरी शाखाओं के सदस्यों को चाहिए कि केंद्र की नियमावली के अनुसार एक साथ मिलकर दत्तचित्त होकर कार्य करें। ईर्ष्या तथा अहंभाव को दूर कर दो—संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो। हमारे देश में इसकी बहुत बड़ी आवश्यकता है। शुभाकांक्षी, विवेकानंद पु०—-श्रीयुत नाग महाशय से मेरे असंख्य साष्टांग प्रणाम कहना। (हेल बहनों को लिखित) न्यूयार्क, ५ मई, १८९५ प्यारी बच्चियो, मैंने जो आशा की थी, वही हुआ। यद्यपि प्रो० मैक्समूलर ने हिंदू धर्म पर अपनी सभी गण्य रचनाओं पर एक अपमानजनक मन्तव्य जोड़ा है, किंतु मैंने हमेशा यह सोचा है कि अंततः उन्हें अवश्य ही पूर्ण सत्य के दर्शन होंगे। जितना शीघ्र हो सके, तुम उनकी अंतिम पुस्तक 'वेदांतवाद' की एक प्रति उपलब्ध करो। तुम समझ जाओगी कि उन्होंने पुनर्जन्म के पूरे सिद्धांत को आत्मसात कर लिया है। निश्चय ही तुम्हें समझने में कुछ कठिनाई नहीं होगी; क्योंकि अब तक मैं जो तुम्हें बतलाता रहा हूँ, उसका वह एक अंश भर है। कई स्थलों पर शिकागो के मेरे निबंध का भी तुम्हें आभास मिलेगा। मुझे प्रसन्नता है कि उस वृद्ध पुरुष ने सत्य का दर्शन कर लिया है, क्योंकि आधुनिक अनुसंधान और विज्ञान के युग में धर्म समझने का वही एकमात्र उपाय है। आशा है, तुम 'टॉड का राजस्थान' का आनंद ले रही होंगी। सस्नेह तुम्हारा भाई, विवेकानंद पुनश्च-कुमारी मेरी कब बोस्टन आ रही है ? विवेकानंद (श्री आलसिंगा पेरुमल को लिखित) अमेरिका, ६ मई, १८९५ प्रिय आलासिंगा, आज सबेरे मुझे तुम्हारा पिछला पत्र और रामानुजाचार्य-भाष्य का पहला खंड मिला। कुछ दिनों पहले मुझे तुम्हारा दूसरा पत्र भी मिला था। श्री मणि अय्यर का पत्र भी मुझे मिल गया। मैं ठीक हूँ और उसी पुरानी रफ्तार से सब कुछ चल रहा है। तुमने श्री लंड के भाषणों के विषय में लिखा है। मैं नहीं जानता कि वह कौन है और कहाँ है। वह हो सकता है, चर्चों में व्याख्यान देता हों, क्योंकि उसके पास यदि बड़े प्लेटफ़ार्म होते, तो हम लोग उसे अवश्य सुनते। खैर, वह कुछ पत्रों में अपने भाषणों को प्रकाशित कराता है और उन्हें भारत भेजता है। शायद मिशनरी लोग इससे लाभ भी उठाते हैं। हाँ, तुम्हारे पत्रों से इतनी ध्वनि निकलती है। यहाँ पर जनता में इस विषय में किसी प्रकार की चर्चा नहीं है, जिससे आत्मपक्ष-समर्थन करना पड़े। क्योंकि ऐसा होने से यहाँ प्रतिदिन मुझे सैकड़ों लोगों से जाना पड़ेगा। क्योंकि अब यहाँ भारत की धूम मच गयी है, और डॉ० बरोज़ के साथ साथ कट्टर ईसाई और बाक़ी लोग इस आग को बुझाने में बेहद प्रयत्नशील हैं। दूसरी बात, भारत के विरुद्ध इन सभी कट्टर ईसाइयों के व्याख्यानों में मुझे लक्ष्य बनाकर खूब गाली-गलौज होनी चाहिए। कट्टर ईसाई नर-नारी जो मेरे विरुद्ध गंदी अफवाहें फैला रहे हैं, उन्हें थोड़ा भी सुनो, तो आश्चर्यचकित रह जाओ। अब, क्या तुम कहना चाहते हो कि इन स्वार्थी नर-नारियों के कायरतापर्ण और साविक आक्रमणों के विरुद्ध एक संन्यासी को निरंतर आत्मसमर्थन करता पडेगा? यहाँ मेरे कई एक बहुत प्रभावशाली मित्र हैं, जो बीच बीच में उनको करारा जवाब देकर बैठा देते हैं। फिर यदि हिंदू सब निद्रित अवस्था में रहेंगे, तो मै हिंदू धर्म का समर्थन करने में अपनी शक्ति क्यों क्षीण करूँ ? तुम तीस करोड आदमी वहाँ क्या कर रहे हो ? विशेषतः वे, जिन्हें अपनी विद्वत्ता आदि का अभिमान है ? तुम क्यों नहीं इस संग्राम का भार अपने कंधों पर लेते और मुझे केवल शिक्षा और प्रचार करने का अवकाश देते ? मैं अजनबी लोगों में रातोंदिन संघर्ष कर रहा हूँ... भारत से मुझे क्या सहायता मिलती है ? कभी संसार में कोई ऐसा देशभक्तिहीन राष्ट्र देखा है, जैसा कि भारत है ? अगर तुम यूरोप और अमेरिका में उपदेश देने के लिए बारह सुशिक्षित दृढ़चेता मनुष्यों को यहाँ भेज सको, और कुछ साल तक उन्हें यहाँ रख सको, तो इस भाँति राजनीतिक और नैतिक दृष्टि से, दोनों तरह की भारत की अपरिमित सेवा हो जाए। प्रत्येक मनुष्य जो नैतिक दृष्टि से भारत के प्रति सहानुभूतिशील है, वह राजनीतिक विषयों में भी उसका मित्र बन जाता है। बहुत से पश्चिमी राष्ट्र तुम्हें अर्धनग्न बर्बर समझते हैं। इसलिए वे तुम्हें कोड़े के बल पर सभ्य बनाना उचित्त समझते हैं। यदि तुम तीस करोड़ लोग मिशनरी लोगों की धमकियों में आ गए, तो तुम सब कायर हो और कुछ भी कहने के अधिकारी नहीं हो। दूर देश में एक आदमी अकेला क्या कर सकता है? जो मैंने किया भी है, उसके योग्य भी तुम नहीं हो। अमेरिकन पत्रिकाओं में अपने पक्ष-समर्थन संबंधी लेख तुम क्यों नहीं भेजते ? तुम्हें क्या बाधा है ? तुम कायरों की जाति—शारीरिक, नैतिक और आध्यात्मिक रूप से। तुम जानवर लोग, जिनके सामने दो ही भाव है—काम और कांचन—जैसे हो, तुम्हारे साथ वैसा ही बर्ताव किया जाना चाहिए। तुम ‘साहब लोगों' से, यहाँ तक कि मिशनरियों से भी डरते हो। और एक संन्यासी को जीवन भर लड़ाई में रत, हमेशा रत रहने देना चाहते हो। और तुम लोग बड़े काम करोगे, छिः। क्यों नहीं, तुममें से कुछ लोग एक सुंदर हिंदू धर्म-समर्थनयुक्त लेख लिखते और बोस्टन की 'ऐ रेना’ पब्लिशिंग कंपनी' को भेजते ? 'ऐ रेना' एक ऐसा पत्र है, जो खुशी से उसे प्रकाशित करेगा और शायद काफ़ी पैसा भी दे। इत्यलम। इस पर सोचो, जब तुम अहमक की तरह मिशनरियों से प्रलोभित होते हो! अब तक जितने हिंदू पश्चिमी देशों में गए हैं, उन्होंने प्रशंसा या धन के लोभ में अधिकतर अपने धर्म और देश का छिद्रान्वेषण ही किया है। तुम जानते हो कि नाम और यश ढूँढने में नहीं आया था। वह मुझे पर लादा गया है। मैं क्यों भारत में लौटकर जाऊँ? मेरी वहाँ कौन सहायता करेगा ? तुम लोग बच्चे हो, तुम लोग लड़कपन करते हो, कुछ जानते-बुझते नहीं। मद्रास में वे मनुष्य कहाँ हैं जो धर्म का प्रचार करने के लिए संसार त्याग देंगे? सांसारिकता तथा ईश्वर का साक्षात्कार साथ-साथ संभव नहीं। मैं ही एक व्यक्ति हूँ, जिसने अपने देश के पक्ष में बोलने का साहस किया है, और मैंने उन्हें ऐसे विचार प्रदान किए हैं, जिसकी आशा हिंदुओं से वे स्वप्न में भी न रखते थे। यहाँ पर बहुत से मेरे विरोधी है, किंतु मैं तुम लोगों की तरह कायर कभी भी नहीं हूँगा। इस देश में हज़ारों मेरे मित्र भी हैं और सैकड़ों मेरा आमरण अनुसरण करेंगे। प्रतिवर्ष वे बढ़ते जायेंगे और यदि मैं उनके साथ रहकर काम करता रहा, तो मेरे जीवन का ध्येय और धर्म का मेरा आदर्श पूरा होगा। यह तुम समझते हो? अमेरिका में जो सार्वजनीन मंदिर (Temple Universal) बनने वाला था, उसके विषय में मैं अब बहुत नहीं सुनता; परंतु फिर भी न्यूयार्क, जो अमेरिकन जीवन का केंद्र है, उसमें मैंने सुदृढ़ जड़ पकड़ ली है, और इसलिए मेरा काम चलता रहेगा। मैं अपने कुछ शिष्यों को, ग्रीष्म-काल के निमित्त बने हुए एक एकांत स्थान में ले जा रहा हूँ। वहाँ योग, भक्ति और ज्ञान में उनकी शिक्षा समाप्त होगी और फिर वे काम करने में सहायता कर सकेंगे। खैर, जो भी हो, मेरे बच्चों, मैंने तुम लोगों को बहुत डाँटा है; डाँटने की आवश्यकता भी थी। मेरे बच्चों, अब काम करो। एक माह के भीतर मैं पत्रिका के लिए कुछ धन भेज सकूँगा। हिंदू भिखारियों से भिक्षा मत माँगो। मैं अपने मस्तिष्क और बाहुबल द्वारा ही स्वयं सब करूंगा। मैं किसी मनुष्य से सहायता नहीं चाहता, चाहे वह यहाँ हो, या भारत में— श्री रामकृष्ण को अवतार मानने के लिए लोगों पर ज़ोर न दो। अब मैं तुम्हें अपने एक नूतन आविष्कार के विषय में बतलाऊँगा। समग्र धर्म वेदांत में ही है अर्थात् वेदांत दर्शन के द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत, इन तीन स्तरों या भूमिकाओं में है और ये एक के बाद एक आते हैं तथा मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति की क्रम से ये तीन भूमिकाएँ हैं। प्रत्येक भूमिका आवश्यक है। यही सार-रूप से धर्म है। भारत के नाना प्रकार के जातीय आचार-व्यवहारों और धर्ममतों में वेदांत के प्रयोग का नाम है 'हिंदू धर्म'। यूरोप की जातियों के विचारों में उसकी पहली भूमिका अर्थात् द्वैत का प्रयोग है 'ईसाई धर्म'। सेमिटिक (Semitic) जातियों में उसका ही प्रयोग है 'इस्लाम धर्म'। अद्वैतवाद ही अपनी योगानुभूति के आकार में हुआ 'बौद्ध धर्म'—इत्यादि, इत्यादि। धर्म का अर्थ है वेदांत; उसका प्रयोग विभिन्न राष्ट्रों के विभिन्न प्रयोजन, परिवेश एवं अन्यान्य अवस्थाओं के अनुसार विभिन्न रूपों में बदलता ही रहेगा। मूल दार्शनिक तत्व एक होने पर भी तुम देखोगे कि शैव, शाक्त आदि हर एक ने अपने अपने विशेष धर्ममत और अनुष्ठान-पद्धति में उसे रूपांतरित कर लिया है। अब अपनी पत्रिका में तुम इन तीन प्रणालियों पर अनेक लेख लिखो, जिनमें उसका सामंजस्य दिखाओ कि वे अवस्थाएँ कैसे एक के बाद एक क्रमानुसार आती हैं। उसके साथ-साथ धर्म के अनुष्ठानिक अंग को बिल्कुल दूर रखो; अर्थात दार्शनिक एवं आध्यात्मिक भाव का प्रचार करो और लोगों को अपने अपने अनुष्ठानों एवं क्रिया-कल्पादि में उसका प्रयोग करने दो। मैं इस विषय पर पुस्तक लिखना चाहता हूँ; इसलिए में तीनों भाष्य चाहता था परंतु अभी तक रामानुज-भाष्य का एक ही भाग मुझे मिला है। अमेरिकी थियोसॉफ़िस्ट दूसरों से अलग हो गए हैं और अब वे भारत से नफ़रत करते हैं। टुच्ची बात ! और इंग्लैंड के स्टर्डी ने, जो हाल में भारत गए थे और मेरे भाई शिवानंद से मिले थे, मुझे एक पत्र लिखा है, जिसमें वह जानना चाहता है कि मैं कब इंग्लैंड जा रहा हूँ। मैंने उसे एक अच्छी चिट्ठी लिखी है। बाबू अक्षयकुमार घोष के क्या हाल हैं ? मैंने उनके विषय में और अधिक कुछ नहीं सुना। मिशनरी लोगों और दूसरों को उनका प्राप्य दे दो। हममें से कुछ बहुत मज़बूत लोग उठे और भारत के वर्तमान धार्मिक पुनर्जागरण पर अच्छे ढंग से, एक सुंदर और ज़ोरदार लेख लिखें तथा कुछ अमेरिकी पत्रों में उसे भेजें। मैं उनमें से केवल एक या दो से अवगत हूँ। तुम तो जानते हो कि मैं कुछ विशेष लेखक नहीं हूँ। मुझे द्वार द्वार भीख माँगने का अभ्यास नहीं है। मैं चुपचाप बैठता हूँ और अपने आप जिस चीज़ को आना हो आने देता हूँ।— मेरे बच्चों, यदि मैं संसारी, पाखंडी होता, तो यहाँ पर एक बड़ा संघ स्थापित करने में बड़ी भारी सफलता प्राप्त करता! हाय ! यहाँ इतने ही में धर्म है; धन और उसके साथ नाम-यश की लालसा—यही है पुरोहितों का दल'; और धन के साथ काम का योग होने से होता है साधारण गृहस्थों का दल। मैं यहाँ मनुष्य-जाति में एक ऐसा वर्ग उत्पन्न करूँगा, जो ईश्वर में अंतःकरण से विश्वास करेगा और संसार की परवाह नहीं करेगा। यह कार्य मंद, अति मंद, गति से होगा। उस समय तक तुम अपना काम करो और मैं अपनी नौका को सीधा चलाकर ले जाऊँगा। पत्रिका को बकवादी न होना चाहिए; परंतु शांत, स्थिर और उच्च आदर्शयुक्त।— उत्तम और नियमित रूप से लिखनेवाले लेखकों का दल हुँढ लो। पर्णत: निःस्वार्थ हो, स्थिर रहो, और काम करो। हम बड़े बड़े काम करेंगे, डरो मत।—एक बात और है। सबके सेवक बनो। और दूसरों पर शासन करने का तनिक भी यत्न न करो, क्योंकि इससे ईर्ष्या उत्पन्न होगी और इससे हर चीज़ बर्बाद हो जाएगी।—आगे बढ़ो। तुमने बहुत अच्छा काम किया के। हम अपने भीतर से ही सहायता लेंगे—अन्य सहायता के लिए हम प्रतीक्षा नहीं करते। मेरे बच्चे, आत्मविश्वास रखो, सच्चे और सहनशील बनो। मेरे दूसरे मित्रों के विरुद्ध मत जाओ। सबसे मिलकर रहो। सबको मेरा असीम प्यार। आशीर्वादपूर्वक सदैव तुम्हारा, विवेकानंद पु०-—यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे, तो तुम्हें सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढेगा।—यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले 'अहं' का नाश कर डालो। (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) ५४ पश्चिम ३३वाँ रास्ता, न्यूयार्क, ७ मई, १८९५ प्रिय श्रीमती बुल, कुमारी फ़ार्मर के साथ उक्त विषय को तय कर लेने के लिए आपको विशेष धन्यवाद। भारत से मुझे एक समाचारपत्र मिला है। उसमें डॉ० बरोज़ को भारत की ओर से जो धन्यवाद प्रदान किया गया था, उसका संक्षिप्त उत्तर छपा है; कुमारी थर्सबी उसे आपको भेज देंगी। कल मुझे भारत से मद्रास की अभिनंदन-सभा के सभापति का और एक पत्र मिला—उसमें उन्होंने अमेरिकावासियों को धन्यवाद प्रदान किया है, साथ ही मुझे भी एक अभिनंदन भेजा है। मैंने उनसे अपने मद्रासी मित्रों के साथ मिलकर कार्य करने के लिए कहा था। यह सज्जन मद्रास के नागरिकों में प्रधान हैं तथा उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश है-भारत में यह एक अत्यंत उच्च पद माना जाता है। न्यूयार्क में और दो भाषण दूंगा-ये भाषण 'माट' स्मृतिभवन के ऊपर की मंज़िल में होंगे। पहला भाषण आगामी सोमवार को होगा; उसका विषय होगा धर्म-विज्ञान। द्वितीय भाषण का विषय-'योग की युक्तिसंगत व्याख्या' रखा गया है। कुमारी थर्सबी मेरे क्लास में प्रायः आती हैं। श्री फ़्लान मेरे कार्यों में अब काफी हमदर्दी दिखा रहे हैं तथा उसके विस्तार के लिए यत्नशील हैं। लैंडसबर्ग नहीं आता है। मुझे ऐसी शंका होती है कि वह मुझ पर बहुत ही नाराज है। क्या कुमारी हैमलिन ने भारत की आर्थिक दशाविषयक पुस्तक आपको भेजी है ? मेरी इच्छा है कि आपके भाई साहब उस पुस्तक को पढ़ें तथा स्वयं यह अनुभव करें कि अंग्रेज़ी शासन का तात्पर्य भारत में क्या समझा जाता है। आपका चिरकृतज्ञ पुत्र, विवेकानंद (श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित) न्यूयार्क, १४ मई, १८९५ प्रिय आलसिंगा, तुम्हारी भेजी हुई पुस्तकें सकुशल आ पहुँची है, इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद। शीघ्र ही मैं तुम्हें कुछ रूपये भेज सकूँगा–यद्यपि यह राशि कुछ एक सौ से अधिक नहीं, फिर भी यदि मै जीवित रहा, तो समय समय पर कुछ भेजता रहूँगा। न्यूयार्क में अब मेरे प्रभाव का विस्तार हो गया है। मुझे कुछ कार्यकर्ताओं के समूह की मिलने की आशा है, जो यहाँ से मेरे चले जाने पर भी कार्य करते रहेंगे। मेरे बच्चे, तुम यह देख ही रहे हो कि अखबारी हो-हल्ले कितने निरर्थक हैं। मेरे लिए जाते समय अपने कार्यों का एक स्थायी असर यहाँ छोड़ जाना आवश्यक है। प्रभु के आशीर्वाद से यह कार्य जल्दी ही होगा। यद्यपि इसे आर्थिक सफलता नहीं कहा जा सकता, फिर भी जगत् की समग्र धनराशि से 'मनुष्य' कहीं अधिक मूल्यवान है। मेरे लिए तुम चिंतित न होना-प्रभु सदा मेरी रक्षा कर रहे हैं। इस देश में मेरा आना तथा इतना परिश्रम करना व्यर्थ नहीं जाएगा। प्रभु दयालु हैं; यद्यपि यहाँ पर ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जिन्होंने हर तरह से मुझे चोट पहुँचाने की चेष्टा की है, किंतु ऐसे लोग भी बहुत है, जो कि अंततः मेरे सहायक बनेंगे। अनंत धैर्य, अनंत पवित्रता तथा अनंत अध्यवसाय—-सत्कार्य में सफलता के रहस्य हैं। आशीर्वादपूर्वक सदैव तुम्हारा, विवेकानंद (श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित) द्वारा कुमारी मेरी फिलिप्स, १९ पश्चिम ३८ वाँ रास्ता, न्यूयार्क, २८ मई, १८९५ प्रिय आलासिंगा, मैं इसके साथ सौ डॉलर, जो कि अंग्रेज़ी मुद्रा के अनुसार २० पौण्ड, ८ शिलिंग, ७ पेन्स होते हैं, भेज रहा हूँ। आशा है, इसके द्वारा पत्र-प्रकाशन में तुम्हें कुछ सहायता मिलेगी, अनंतर क्रमशः और भी कुछ सहायता कर सकूंगा। आशीर्वादपूर्वक सदैव तुम्हारा, विवेकानंद पु०—उपर्युक्त पते पर शीघ्र ही उत्तर देना। अब से न्यूयार्क मेरा प्रधान केंद्र है। इस देश में अंत में मैं कुछ करने में समर्थ हुआ। (श्रीमती ओलि बल को लिखित) ५४ पश्चिम ३३ वाँ रास्ता, न्यूयार्क, मई १८९५, बहस्पतिवार प्रिय श्रीमती बुल, कुमारी थर्सबी को कल मैं २५ पौण्ड दे चुका हूँ। कक्षाएँ चल तो रही है, किंतु दु:ख के साथ यह लिखना पड़ता है कि यद्यपि उनमें विद्यार्थियों की संख्या अधिक है, फिर भी उनसे जो कुछ मिलता है, उससे मकान का किराया तक भी पूरा नहीं होता है। इस हफ्ते और कोशिश कर देखना है, नहीं तो छोड़ दूंगा। मैं इसी ग्रीष्म ऋतु में 'सहस्रद्वीपोद्यान' में अपनी एक छात्रा कुमारी डचर के यहाँ जा रहा है। भारत से वेदांत के विभिन्न भाष्य मेरे पास भेजे जा रहे हैं। इसी ग्रीष्म ऋतु में वहाँ रहकर वेदांत दर्शन की विभिन्न तीन प्रणालियों पर अंग्रेज़ी में एक ग्रंथ लिखने का मेरा विचार है; तदनंतर ग्रीनेकर जा सकता हूँ। कुमारी फ़ार्मर चाहती हैं कि इस ग्रीष्म ऋतु में मैं वहाँ भाषण करूँ। मैं यह निर्णय नहीं कर सका हूँ कि इसके उत्तर में मैं क्या लिखूं। आशा है कि आप किसी तरह से विषय को टाल देंगी-इस विषय में मैं पूर्णतया आप पर निर्भर हैं। प्रेस समिति (Press Association) के लिए 'अमरत्व' (immortality) पर लेख लिखने में इस समय मैं अत्यंत व्यस्त हूँ। आपका, विवेकानंद ५४ पश्चिम ३३, न्यूयार्क मई, १८९५ प्रिय-—, मैं आपको लिख ही रहा था कि मेरे विद्यार्थी सहायता लेकर मेरे पास आ गए। और अब कक्षाएँ निसंदेह सुचारु रूप से चला करेंगी। मैं इससे बहुत खुश हुआ, क्योंकि शिक्षण मेरे जीवन का एक अंग बन गया है —भोजन करने और साँस लेने के समान ही मेरे जीवन के लिए आवश्यक हो गया है। आपका, विवेकानंद पुनश्च—मैंने—के विषय में बहुत सारी बातें अंग्रेज़ी के एक समाचारपत्र 'बॉर्डरलैंड' में देखीं।—भारत में अच्छा कार्य कर रहे हैं, उससे हिंदू अपने ही धर्म को भली प्रकार समझने लगे हैं।—मुझे-के लेखन में कोई विद्वत्ता नहीं दिखायी देती— न ही उसमें मुझे कोई आध्यात्मिकता ही दीखती है। फिर भी जो संसार के हित के लिए कार्य करना चाहते हैं, ईश्वर उन्हें सफलता दे। दुनिया को किस सरलता से मक्कार लोग उल्लू बना सकते हैं, और सभ्यता के उदय से बिचारी मानवता के सिर पर कितनी कितनी प्रवंचनाओं की राशि लद चुकी है ! विवेकानंद (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) पर्सी, न्यू हैंपशायर, ७ जून, १८९५ प्रिय श्रीमती बुल, आखिर में मैं यहाँ पर श्री लेगेट के साथ हूँ। मुझे अपने जीवन में जितने सुंदर से सुंदर स्थान देखने को मिले है, यह स्थान उनमें से एक है। कल्पना कीजिए कि चारों ओर एक विशाल जंगल से आच्छादित पर्वतश्रेणियों के बीच में एक झील है-जहाँ हम लोगों के सिवा और कोई भी नहीं है। कितना मनोरम, निस्तब्ध तथा शांतिपूर्ण ! शहर के कोलाहल के बाद मुझे यहाँ पर कितना आनंद मिल रहा है, इसका अंदाज़ा आप सहज ही में लगा सकती हैं। यहाँ आकर मानो मुझे फिर नवीन जीवन प्राप्त हुआ है। मैं अकेला जंगल में जाता हूँ, गीता-पाठ करता हूँ तथा पूर्णतया सुखी हूँ। क़रीब दस दिन के अंदर इस स्थान को छोड़कर मुझे 'सहस्रद्वीपोद्यान' जाना है। वहाँ कुछ दिन एकांत में रहकर भगवान का ध्यान करने का विचार है। इस प्रकार की कल्पना ही मन को उन्नत बना देती है। भवदीय, विवेकानंद (श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित) अमेरिका, १८९५ (शरत्काल) प्रिय आलासिंगा, हम लोगों का कोई संघ नहीं है और न हम कोई संघ बनाना ही चाहते हैं। पुरुष अथवा महिला जो कोई भी जो कुछ शिक्षा प्रदान तथा जो कुछ भी उपदेश करना चाहें, उन कार्यों को करने के लिए वे पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं। यदि तुम्हारे अंदर भावना है, तो कभी भी लोगों को आकृष्ट करने में तुम असफल न रहोगे। हम कभी 'थियोसॉफ़िस्टों की कार्य-प्रणाली का अनुसरण नहीं कर सकते, इसका एकमात्र कारण यह है कि वे एक संघबद्ध संप्रदाय हैं और हम उस प्रकार के नहीं हैं। मेरा मूलमंत्र है-व्यक्तित्व का विकास। शिक्षा के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को उपयुक्त बनाने के सिवाय मेरी और कोई उच्चाकांक्षा नहीं है। मेरा ज्ञान अत्यंत सीमित है, मैं उस सीमित ज्ञान की शिक्षा बिना किसी संकोच के देता रहता हूँ। जिस विषय को मैं नहीं जानता हूँ उसके बारे में मैं यह स्पष्ट कह देता हूँ कि उक्त विषय में मेरा कोई ज्ञान नहीं है। थियोसॉफ़िस्ट, ईसाई, मुसलमान अथवा अन्य किसी व्यक्ति से संसार में लोगों को कुछ भी सहायता मिल रही है, यह सुनने से मुझे जो आनंद मिलता है, उसे मैं व्यक्त नहीं कर सकता। मैं तो एक संन्यासी हूँ— मैं अपने को सबका सेवक समझता हूँ, न कि गुरु।— यदि लोग मुझसे प्यार करना चाहें, तो प्यार करें और यदि वे मुझे घृणा की दृष्टि से देखना चाहें, तो देख सकते हैं, यह उनकी खुशी है। प्रत्येक व्यक्ति को अपना उद्धार स्वयं करना होगा-उसका कार्य उसी को करना होगा। मैं किसी से सहायता की भीख नहीं माँगता, न मैं किसी की दी हुई सहायता की उपेक्षा करता हूँ। न तो संसार में किसीसे सहायता लेने का कोई अधिकार मुझको है। जिस किसी ने मेरी सहायता की है या जो कोई भविष्य में ऐसा करेगा, यह मुझे पर उसकी उदारता है, मेरा अधिकार नहीं, और इस प्रकार मैं उसका सतत आभारी हूँ। जब मैंने संन्यास ग्रहण किया, अपना यह क़दम सोच-समझकर उठाया, यह जानते हुए कि यह शरीर भूख से पीड़ित होकर विनष्ट हो जाएगा। गरीब मेरे मित्र हैं, मैं गरीबों से प्रीति करता हूँ। मैं दरिद्रता को आदरपूर्वक अपनाता हूँ। जब कभी मुझे भोजन के बिना उपवास रखना पड़ता है, तब मैं आनंदित ही होता हूँ। मैं किसीसे सहायताप्रार्थी नहीं हूँ-उससे लाभ ही क्या है ? सत्य अपना प्रचार आप ही करेगा, मेरी सहायता के बिना वह विनष्ट नहीं हो सकता। सुख दुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व— सुख-दुःख, लाभ-हानि जय-पराजय में समदृष्टि रखकर युद्ध में प्रवृत्त हो। इस प्रकार के अनंत प्रेम, सब अवस्थाओं में अविचलित साम्य भाव तया ईर्ष्या-द्वेष से सर्वथा मुक्ति-ये ही वे चीज़ें हैं, जिनसे सब कार्य हो सकता है। एकमात्र इसी से कार्य हो सकता है, अन्य किसी प्रकार से नहीं।— तुम्हारा, विवेकानंद (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) ५४ पश्चिम ३३वाँ रास्ता, न्यूयार्क, जून, १८९५ प्रिय श्रीमती बुल, का अभी हाल में ही मैं घर पहुँचा हूँ। इस स्वल्पकालीन यात्रा से मैंने गाँव तथा पहाड़ों—ख़ासकर श्री लेगेट के न्यूयार्क प्रदेश स्थित ग्राम्य-निवास का आनंद लिया है। बेचारे लैंडसबर्ग इस मकान से चले गए हैं। वे अपना पता तक मुझे नहीं दे गए हैं। वे जहाँ कहीं भी जायँ-भगवान उनका मंगल करे। अपने जीवन में मुझे जिन दो-चार निष्कपट व्यक्तियों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे उनमें से एक हैं। सभी कुछ भले के लिए होता है। मिलन के बाद विच्छेद अवश्यंभावी है। आशा है कि मैं अकेला ही अच्छी तरह से कार्य कर सकूँगा। मनुष्य से जितनी कम सहायता ली जाती है, उतनी ही अधिक सहायता भगवान की ओर से मिलती है ! अभी-अभी मुझे लंदन के एक अंग्रेज़ महोदय का पत्र मिला-मेरे दो गुरुभाइयों के साथ कुछ दिन वे भारत के हिमालय प्रदेश में रह चुके हैं। उन्होंने मुझे लंदन बलाया है। आपको पत्र लिखने के बाद से ही मेरे छात्र मुझे सहायता पहुँचाने के लिए तत्पर हो उठे हैं और इसमें कोई संदेह नहीं कि अब मेरा क्लास अच्छी तरह से चलता रहेगा। इससे मैं अत्यंत आनंदित हूँ, क्योंकि शिक्षा प्रदान करना मेरे जीवन के लिए भोजन अथवा श्वास-प्रश्वास की तरह एक अत्यावश्यकीय कार्य बन चुका है। आपका स्नेहास्पद विवेकानंद पुनश्च-—'के संबंध में मुझे 'बार्डरलैंड' नामक एक अंग्रेज़ी समाचारपत्र में बहुत कुछ पढ़ने को मिला है। हिंदुओं को अपने धर्म से गुण-ग्रहण की शिक्षा प्रदान करती हुई वे भारत में निःसंदेह एक अच्छा कार्य कर रही हैं।— उक्त महिला के लेखों को पढ़कर उनमें मुझे कोई पांडित्य का परिचय नहा मिला।— अथवा किसी प्रकार की आध्यात्मिक भावना भी नहीं मिली। अस्तु, जो कोई भी जगत् का भला करना चाहे, भगवान उसकी सहायता करे। पाखंडी लोग कितनी आसानी से इस जगत को धोखे में डाल देते हैं! सभ्यता के प्राथमिक विकास-काल से लेकर भोली-भाली मानव-जाति पर न जाने कितना छल-कपट किया जा चुका है। विवेकानंद (कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित) २१ पश्चिम ३४वाँ रास्ता, न्यूयार्क, जून, १८९५ प्रिय जो, तुम्हें निविड़ अनुभूति हो रही है, निश्चय ही वह कई आवरण हटा देगी। श्री लेगेट ने तुम्हारे फोनोग्राफ़ के विषय में बतलाया। मैंने उन्हें कुछ सिलीण्डर (cylinder) उपलब्ध करने को कहा है। किसी के फोनोग्राफ में उन सिलीण्डरों की सहायता से मैंने बात की। मैंने जो के पास उन्हें भेज देने को कहा, जिसके उत्तर में उसने कहा कि वह एक ख़रीद लेगा, क्योंकि मैं सदा जो के कहे अनुसार करता हूँ।' मुझे प्रसन्नता है कि उसके स्वभाव में इतना कवित्व छुपा हुआ है। आज मैं गर्नसी के साथ रहने जा रहा हूँ, क्योंकि डॉक्टर मेरी देख-भाल कर आरोग्य करना चाहता है।— अन्य चीज़ों की परीक्षा करने के बाद डॉ० गर्नसी मेरी नाडी देख रहे थे, जबकि अचानक लैंडसबर्ग, (जिसे घर आने से उसने मना कर दिया था) अदर आया और मुझे देखकर शीघ्र लौट गया। डॉ० गर्नसी खिलखिलाकर हँस पड़ा और कहा कि ऐसे समय पर आने के लिए उसे पुरस्कार देता, क्योंकि उसी समय रोग का कारण उसे मालूम हो गया था। इसके पूर्व मेरी नाड़ी एकदम नियमित थी, किंतु लैंडसबर्ग को देखते ही संवेगरहित हो गयी। निश्चय ही यह एक अधैर्य की अवस्था है। उसने मुझे डॉ० हेल्मर के इलाज में रहने के लिए ज़ोर दिया। वह सोचता है कि हेल्मर से मुझे बहुत स्वास्थ्य लाभ होगा और अभी मुझे इसी की आवश्यकता है। क्या वे उदार नहीं है ? आज शहर में ‘पवित्र गौ' देखने की आशा करता हूँ। कुछ दिन और न्यूयार्क में होऊँगा। हेल्मर चाहते हैं कि चार सप्ताह तक प्रति सप्ताह तीन बार मेरा उपचार होना चाहिए, फिर अगले चार सप्ताह तक दो बार प्रति सप्ताह और तब मैं एकदम ठीक हो जाऊँगा। अगर मैं बोस्टन जाता हूँ, तो वह मेरी सिफ़ारिश एक बहुत अच्छे उस्ताद (विशेषज्ञ) से कर देंगे। और उसे उक्त विषय पर सलाह भी देंगे। मैंने लैंडसबर्ग से कुछ प्रिय बातें कहीं और ऊपर माँ गर्नसी के पास चला गया, जिससे लैंडसबर्ग परेशानी से बच जाए। प्रभुपदाश्रित तुम्हारा, विवेकानंद (कुमारी मेरी हेल को लिखित) (भोजपत्र पर लिखा पत्र) पर्सी, नार्थ हिल, १७ जून, १८९५ प्रिय बहन, कल मैं कुमारी डचर, सहस्रद्वीपोद्यान न्यूयार्क के यहाँ जा रहा हूँ। तुम इन दिनों कहाँ हो? ग्रीष्म में तुम सब कहाँ रहोगी। अगस्त में मुझे यूरोप जाने की संभावना है। जाने से पहले मैं मिलने आऊँगा। इसलिए मुझे पत्र दो। भारत से किताबों और पत्रों की भी आशा करता हूँ। कृपया उन्हें कुमारी फिलिप्स, १९ पश्चिम ३८ वाँ रास्ता, न्यूयार्क के पते पर भेज दो। यह वही छाल है, जिस पर भारत में सभी धर्मग्रंथ लिखे जाते हैं। इसलिए मैं संस्कृत में लिख रहा हूँ: उमा-पति (शिव) सदा तुम्हारी रक्षा करें। तुम सबों का सदा शुभ हो— विवेकानंद (श्री एफ० लेगेट को लिखित) द्वारा कुमारी डचर, सहस्रद्वीपोद्यान, न्यूयार्क, निरमी १८ जन, १८९५ प्रिय मित्र, कुमारी स्टारगीज़ के जाने के एक दिन पूर्व मुझे उनका एक पत्र—५० डॉलर के चेक के साथ-मिला। प्राप्ति की सूचना-दूसरे ही दिन उनकी सेवा में प्रेषित करना संभव नहीं था। इसलिए आपसे निवेदन है कि मेरा हार्दिक धन्यवाद तथा धन-प्राप्ति की सूचना अपने पत्र में उन्हें दे दें। हमारा समय यहाँ आनंदपूर्वक कट रहा है। किंतु बांग्ला में एक कहावत है कि ढेंकी स्वर्ग जाए, तो वहाँ भी उसको धानकुटाई ही करनी पड़ती है। जो कुछ हो, मुझे बेहद परिश्रम करना पड़ता है। मैं अगस्त के प्रारंभ में शिकागो जा रहा हूँ। आप कब चल रहे हैं ? हमारे यहाँ के सभी मित्र आपका अभिवादन भेज रहे हैं। आपके लिए संपूर्ण आनंद, प्रसन्नता एवं स्वास्थ्य की आशा करता हूँ और उसके लिए सतत प्रार्थना करता हूँ। स्नेहाधीन, विवेकानंद (श्री सिंगारावेल मुदालिएर को लिखित) १९ पश्चिम ३८ वाँ रास्ता, न्यूयार्क, २२ जन, १८९५ प्रिय किडी, एक लाइन के बजाए मैं तुमको एक पूरा पत्र लिख रहा हूँ। मैं खुश हूँ कि तुम उन्नति कर रहे हो। तुम जो यह सोच रहे हो कि मैं अब भारत नहीं लौटूंगा-—यह तुम्हारी भूल है। मैं जल्द ही भारत लौट रहा हूँ। असफल होकर किसी विषय को त्याग देना, मेरी आदत नहीं है। यहाँ पर मैंने एक बीज बोया है, शीघ्र ही वह वृक्षरूप में परिणत होने को है और अवश्य होगा। केवल मुझे यह शंका है कि यदि शीघ्रता में आकर मैं उस पर ध्यान देना छोड़ दूं, तो उसकी अभिवृद्धि में बाधा पहुँचेगी। जहाँ तक जल्दी हो सके, तुम लोग पत्रिका प्रकाशित कर डालो। यहाँ के लोगों के साथ तुम्हारा संबंध स्थापित कर मैं शीघ्र ही भारत लौट रहा हूँ। मेरे बच्चे, कार्य करते चलो-रोम का निर्माण एक दिन में नहीं हुआ। मैं प्रभु के द्वारा परिचालित हो रहा हूँ, अतः अंत में सब कुछ ठीक ही होगा। सदा सदा के लिए तुम्हें मेरा प्यार, तुम्हारा, विवेकानंद (कुमारी मेरी हेल को लिखित) ५४ पश्चिम ३३वाँ रास्ता, न्यूयार्क, २२ जून, १८९५ प्रिय बहन, भारत से भेजे गए पत्र और पुस्तकों का पार्सल मुझे सुरक्षित मिल गया। श्री सैम के पहुँचने की ख़बर जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। मैं आश्वस्त हूँ कि वे विडर्स (bidders) से अच्छी तरह सचेत है। एक दिन रास्ते में सैम के एक मित्र से मेरी मुलाक़ात हुई। वह एक अंग्रेज़ है, जिसके नाम का अंत 'नी' से होता है। वह बहुत भद्र आदमी था। उसने कहा कि वह ओहियो में कहीं सैम के साथ उसी घर में रह रहा है। मैं अच्छी दशा में क़रीब क़रीब उसी पुराने ढंग से रह रहा हूँ। कभी इच्छा होने पर जब बोल सकता हूँ, बोलता हूँ और जब कि मौन रहने के लिए कहा जाता है, तो बलपूर्वक मौन रहता हूँ। मैं नहीं जानता कि क्या इस ग्रीष्म में ग्रीनेकर जा सकूँगा? किसी अन्य दिन कुमारी फ़ार्मर से मुलाक़ात हुई थी। वह जाने की जल्दी में थीं, इसलिए बहुत थोड़ी बात उनसे हो सकी। वह बड़ी ही भद्र और कुलीन महिला हैं। तुम्हारा ईसाई विज्ञान का पाठ कैसा चल रहा है ? आशा करता हूँ, तुम ग्रीनेकर जाओगी। वहाँ वैसे लोगों की एक बड़ी संख्या तथा साथ में प्रेतवादी, मेज़ आदि घुमाने की क्रिया, हस्तरेखा-पंडित, ज्योतिषी आदि तुम्हें मिलेंगे। वहाँ तुम्हें सभी उपचार मिल जायेंगे तथा कुमारी फ़ार्मर की अध्यक्षता में सभी वादों' का भी परिचय मिल जाएगा। लैंडसबर्ग किसी दूसरी जगह रहने के लिए चला गया है। इसलिए मैं अकेला हो गया हूँ। मैं अधिकतर बादाम, फल और दूध पर ही रह रहा हूँ और यह मुझे बहुत अच्छा और स्वास्थ्यकर भी लगता है। आशा करता हूँ कि इस ग्रीष्म में मेरा वज़न तीस या चालीस पौंड कम हो जाएगा। मेरे आकार के लिए वह बिल्कुल ठीक होगा। श्रीमती एडम्स द्वारा दिए गए टहलने से संबंधित पाठों को एकदम भूल गया हूँ। जब वह न्यूयार्क दुबारा आयेंगी, मुझे उन्हें पुनः सीखना होगा। मैं समझता हूँ, गाँधी बोस्टन से भारत के रास्ते इंग्लैंड गए हैं। मैं उनकी 'अभिभाविका' श्रीमती हावर्ड तथा उसकी असहाय अवस्था के बारे में जानना चाहूँगा। मुझे यह सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई है कि वह लँगोटी वाला अटलांटिक में डूबा नहीं, बल्कि अंततः पहुँच रहा है। इस वर्ष मैं मुश्किल से अपना मस्तिष्क स्वस्थ रख सका और व्याख्यान देते नहीं फिरा। भारतवर्ष से वेदांत दर्शन के तीन महान भाष्य द्वैत, विशिष्टाद्वैत, एवं अद्वैत, इन तीन महान संप्रदायों से जिनका संबंध है, मेरे पास भेजे जा रहे हैं। आशा करता हूँ, वे सुरक्षित पहँचेंगे। तब सचमुच मुझे एक बौद्धिक तृप्ति मिलेगी। इस ग्रीष्म में वेदांत दर्शन पर एक पुस्तक लिखने की सोचता हूँ। यह संसार सदा सुख और दुःख, शुभ और अशुभ का मिश्रण रहेगा; यह चक्र सदा नीचे-ऊपर चलता रहेगा, विनाश और प्रतिस्थापन अनिवार्य विधान है। वे धन्य हैं, जो इनसे परे जाने के लिए संघर्षरत है। हाँ, मुझे प्रसन्नता है कि सभी बच्चियाँ अच्छी तरह काम कर रही है, किंतु दुःख है कि इस शरद् में भी कोई 'पकड़' में नहीं आया, और प्रत्येक शरद् में अवसर क्षीण होता जाएगा। यहाँ मेरे आवास के निकट 'वाल्डोर्फ़ होटल' है, जो बहुत पदवीधारी किंतु दरिद्र यूरोपियनों की प्रदर्शनी का अड्डा है, जहाँ ‘यांकी' धनाधिकारिणियाँ उन्हें ख़रीद सकती हैं। तुम यहाँ कोई भी चुनाव कर सकती हो, स्टाक बहुत है और विविध है। यहाँ वैसा आदमी भी होता है, जो अंग्रेज़ी में बात नहीं करता, कुछ दूसरे ऐसे हैं, जो तुतलाते हुए बोलते हैं, जिसे कोई नहीं समझ सकता और अन्य अच्छी अंग्रेज़ी में बातें करते हैं, किंतु उनका संयोग उतना बड़ा नहीं होता है, जितना गूंगे लोगों का—लड़कियाँ उन्हें पूरा विदेशी नहीं समझतीं, जो साधारण अंग्रेज़ी बोलते हैं। एक अजीब पुस्तक में मैंने कहीं पढ़ा है कि एक अमेरिकन जहाज़ पानी भरने के कारण डूब रहा था, लोग हताश हो चुके थे और अंतिम सांत्वना के रूप में वे चाहते थे कि धार्मिक उपासना की जाए। जहाज़ पर एक 'अंकल जौश' थे, जो प्रेसबिटेरियन चर्च के गुरुजन थे। वे सभी अनुनय-विनय करने लगे, “अंकल जौश! कुछ धार्मिक उपचार करो। हम सभी लोग मरनेवाले हैं।" अंकल जोश ने अपना हैट अपने हाथ में लिया और शीघ्र ही उसने ढेर सा चंदा इकट्ठा कर लिया ! उतना ही वह धर्म के विषय में जानता था। ऐसे अधिकांश लोगों का क़रीब क़रीब यही लक्षण है। वे जानते हैं और सदा यही जानेंगे कि सभी धर्मों में चंदा ही इकट्ठा किया जाता है। प्रभु उन्हें सुखी रखे। अभी विदा-नमस्कार। मैं भोजन करने जा रहा हूँ; मुझे बहुत भूख लगी है। सस्नेह तुम्हारा, विवेकानंद (कुमारी मेरी हेल को लिखित) द्वारा कुमारी डचर, सहस्रद्वीपोद्यान, न्यूयार्क, २६ जून, १८९५ प्रिय बहन, भारत से आयी डाक के लिए बहुत धन्यवाद। उससे मुझे सारे अच्छे समाचार मिले। आत्मा की अमरता पर प्रो० मैक्समूलर के निबंधों का, जिसे मैंने मदर चर्च के पास भेजा था, तुम आनंद तो ले रही होगी। उस वृद्ध आदमी ने वेदांत की सभी प्रमुख बातों पर विचार किया है और साहसपूर्वक सामने आया है। दवाओं के पहुँचने की बात जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। क्या उसके लिए कुछ चुंगी देनी पड़ी? अगर वैसा है, तो मैं उसका मूल्य चुकाऊँगा, ऐसा मेरा आग्रह है। कुछ शाल (दुशाला), ज़रीदार कपड़ा और छोटे-मोटे सामानों का एक बड़ा पैकेट खेतड़ी के राजा के यहाँ से आयेगा। मैं विभिन्न मित्रों को उन्हें उपहारस्वरूप देना चाहता हूँ। किंतु मैं निश्चय जानता हूँ कि उसके आने में कुछ महीने लग जायेंगे। मुझे बार बार भारत आने को कहा जा रहा है, जैसा कि तुम भारत से आये पत्रों से जान जाओगी। वे हतोत्साह हो रहे हैं। अगर मैं यूरोप जाता हूँ, तो न्यूयार्क के श्री फ़ांसिस लेगेट के अतिथि के रूप में जाऊँगा। वे छः सप्ताह तक पूरा जर्मनी, इंग्लैंड, फ़्रांस और स्विटज़रलैंड का भ्रमण करेंगे। वहाँ से मैं भारत जाऊँगा या अमेरिका लौट आ सकता हूँ। मैंने यहाँ बीजारोपण किया है और चाहता हूँ कि वह फले-फूले। इस शरद् में न्यूयार्क का कार्य शानदार रहा और अगर मैं अचानक भारत चला जाता हूँ, तो वह बिगड़ जाएगा। अतः मैं शीघ्र भारत जाने के विषय में निश्चित नहीं हूँ। इस बार के सहस्रद्वीपोद्यान के अल्पवास में कुछ भी उल्लेख्य नहीं घटित हुआ है। दृश्य बहुत सुंदर हैं और यहाँ कुछ मित्र हैं, जिनसे आत्मा-परमात्मा पर खुलकर बातें होती हैं। मैं फल खाता हूँ, दूध पीता हूँ और इसी तरह की अन्य चीज़ें और वेदांत पर संस्कृत में विशद पुस्तकें पढ़ता हूँ, जिनको लोगों ने कृपापूर्वक भारत से भेजा है। अगर मैं शिकागो आता हूँ, तो कम से कम छ: सप्ताह या उससे कुछ अधिक के अंदर नहीं आ सकता। मेरे लिए बच्ची को अपनी योजना में परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। प्रस्थान करने से पहले किसी भी तरह तुम सबों से मिल लूंगा। मद्रास भेजे गए उत्तर के संबंध में तुमने बहुत शोर मचाया, किंतु उसका वहाँ ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा है। मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज के अध्यक्ष श्री मिलर के इधर के एक भाषण में मेरे विचार ही बहुत बड़े परिमाण में सन्निहित हैं। और उन्होंने घोषित किया है कि पश्चिम को भगवान और मनुष्य संबंधी विचारों के लिए हिंदू-विचार की आवश्यकता है और युवकों से जाकर प्रचार करने का भी आग्रह किया है। वास्तव में मिशन में उससे खलबली मच गयी है। तुमने जो 'एरेना' में प्रकाशित होने के संबंध में संकेत किया है, उसका कुछ भी अंश मैंने नहीं देखा। न्यूयार्क में मेरे संबंध में तो स्त्रियाँ कोई कोलाहल नहीं मचातीं। तुम्हारे मित्र ने अवश्य कल्पना से बात गढ़ी होगी। वे थोड़ा भी 'बॉसिंग टाइप' या प्रभुत्व जमानेवाले नहीं है। आशा है, फ़ादर पोप, और मदर चर्च भी यूरोप जायेंगी। यात्रा करना जीवन में सबसे अच्छी चीज़ है। अगर एक स्थान पर बहुत लंबे समय तक रहना पड़ा, तो भय है कि मेरी तो मृत्यु हो जाएगी। यायावरी वृत्ति से अच्छा कुछ भी नहीं है। जीवन-अंधकार जितना ही चारों तरफ़ बढ़ता है, लक्ष्य उतना ही निकट आता है, उतना ही अधिक आदमी जीवन का सही अर्थ समझता है कि यह एक स्वप्न है; और तब हम इसका अनुभव करने में प्रत्येक की व्यर्थता को समझने लगते हैं, क्योंकि उन्होंने किसी अर्थहीन वस्तु से अर्थ प्राप्त करने का प्रयत्न भर किया था। स्वप्न से सत्य पाने की इच्छा एक बालोचित्त उत्साह है। 'प्रत्येक वस्तु क्षणिक है', 'प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है'—यह जानकर, संत सुख और दुःख, दोनों का परित्याग कर देता है और किसी भी वस्तु के लिए आसक्ति न रखकर इस (विश्व), परिदृश्य का एक द्रष्टा बन जाता है। 'सचमुच उन लोगों ने इसी जीवन में स्वर्ग को जीत लिया है, जिनका मन समत्व में स्थित हो गया है।' 'भगवान पवित्र है और सबके लिए समान है, इसीलिए वे भगवान में स्थित कहे जाते हैं।' (गीता ५।१९) इच्छा, अज्ञान और असमानता, यही बंधन के त्रिविध द्वार है। जीने की इच्छा का निषेध, ज्ञान तथा समर्शिता मुक्ति के त्रिविध द्वार हैं। मुक्ति विश्व का ध्येय है। 'न प्रेम, न घृणा, न सुख, न दुःख, न मृत्यु, न जीवन, न धर्म, न अधर्म; कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ भी नहीं। सदा तुम्हारा, विवेकानंद (स्वामी रामकृष्णानंद को लिखित) संयुक्त राज्य अमेरिका, १८९५ कल्याणीय, तुम लोगों के एक पत्र में बहुत समाचार ज्ञात हुए। किंतु उसमें सब लोगों का विशेष समाचार नहीं है। निरंजन के पत्र से पता चला कि वह लंका जा रहा है। सारदा जो कुछ कर रहा है, वही मेरा अभिमत है; परंतु श्री रामकृष्ण परमहंस अवतार हैं, इत्यादि प्रचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जगत् के हित के लिए उनका आविर्भाव हुआ था, अपने ख्याति-विस्तार के लिए नहीं; तुम्हें इसे हमेंशा स्मरण रखना चाहिए। शिष्यवर्ग गुरु की ख्याति करते हैं, किंतु जिस बात की शिक्षा देने के लिए उनका आविर्भाव हुआ था, उसे वे एकदम त्याग देते है और उसका फल होता है दलबंदी इत्यादि। आलासिंगा ने चारु के विषय में लिखा है। लेकिन मुझे उसका स्मरण नहीं। उसके विषय में सब कुछ लिखो और उसे मेरा धन्यवाद दो। सभी के विषय में विस्तारपूर्वक लिखों; मेरे पास बेकार की बातों के लिए समय नहीं है।... कर्मकांड को त्यागने का प्रयास करना, वह संन्यासी के लिए नहीं है। जब तक ज्ञान की प्राप्ति न हो, तभी तक कर्म आवश्यक है। दलबंदी, गुटबंदी, कूपमंडूकता में मैं नहीं हूँ, चाहे और कुछ भी मैं क्यों न करूँ। रामकृष्ण परमहंस के सार्वलौकिक विचारों का उपदेश तथा उसी समय संप्रदाय का निर्माण असंभव है। एकमात्र परोपकार को ही मैं कार्य मानता हूँ, बाकी सब कुकर्म है। इसीलिए मैं भगवान की शरण लेता हूँ। मैं वेदांती हूँ, मेरी अपनी आत्मा का महान रूप सच्चिदानंद है, उसके अतिरिक्त और कोई दूसरा ईश्वर मेरी दृष्टि में प्रायः नहीं दिखायी दे रहा है। अवतार का अर्थ है, जीवन्मक्त अर्थात् जिन्होंने ब्रह्मात्व प्राप्त किया है। अवतारविषयक और कोई विशेषता मेरी दृष्टि में नहीं है। ब्रह्मादिस्तम्बपर्यंत सभी प्राणी समय आने पर जीवन्मुक्ति को प्राप्त करेंगे। उस अवस्थाविशेष की प्राप्ति में सहायक बनना ही हमारा कर्तव्य है। इस सहायता का नाम धर्म है, बाक़ी अधर्म है। इस सहायता का नाम कर्म है, शेष कुकर्म है; मुझे और कुछ नहीं दिखायी दे रहा है। विभिन्न प्रकार के तांत्रिक अथवा वैदिक कर्मों के द्वारा भी फल की प्राप्ति हो सकती है, किंतु उससे केवल मात्र व्यर्थ में ही जीवन नष्ट हो जाता है क्योंकि पवित्रतारूप कर्म-फल की प्राप्ति एकमात्र परोपकार से ही संभव है। यज्ञादि कर्मों से भोगादि की प्राप्ति संभव है, किंतु आत्मा की पवित्रता असंभव है। संन्यास लेकर जीव की उच्च गति की शिक्षा न देकर निरर्थक कर्मकांड में रत रहना, मेरी राय में दूषणीय है। प्राणिमात्र की आत्मा में सब कुछ विद्यमान है। जो अपने को मुक्त कहता है, वही मुक्त होगा जो यह कहता है कि मैं बद्ध हूँ, वह बद्ध ही रहेगा। मेरे मतानुसार अपने को दीन-हीन समझना पाप तथा अज्ञता है। नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः। अस्ति ब्रह्मा वदसि चेदस्ति भविष्यसि, नास्ति ब्रह्मा वदसि चन्नास्त्येव भविष्यसि। जो सदा अपने को दुर्बल समझता है, वह कभी भी शक्तिशाली नहीं बन सकता; और जो अपने को सिंह समझता है, वह निर्गच्छति जगज्जालात् पिञ्जरादिव केशरी। दूसरी बात यह है कि श्री रामकृष्ण परमहंस किसी नवीन तत्व को प्रचार करने के लिए आविर्भूत नहीं हुए थे, किंतु उसे प्रकाश में लाना उनका उद्देश्य था। अर्थात He was the embodiment of all past religious thoughts of India. His life alone made me understand what the Shastras really meant and the whole plan and scope of the old Shastras. मिशनरियों का उद्देश्य इस देश में सफल न हो सका। भगवदिच्छा से यहाँ के लोग मुझसे स्नेहभाव रखते हैं, ये किसी की बातों में आनेवाले नहीं हैं। मेरे ideas (विचारों) को ये लोग जितना अधिक समझते हैं, उतना मेरे देशवासी भी नहीं समझ पाते, साथ ही ये लोग अत्यंत स्वार्थी भी नहीं हैं। यानी जब कोई कार्य करना होता है, तब ये लोग jealousy (ईर्ष्या) तथा बड़प्पन आदि भावनाओं को अपने पास नहीं फटकने देते। इस समय सब लोग मिल-जुलकर किसी योग्य अनुभवी व्यक्ति के निर्देशानुसार कार्य करते हैं। इसी से ये लोग इतने उन्नत हैं। किंतु ये लोग 'धनदेवता' के उपासक है, हर बात में पैसे का ही प्राधान्य है; हमारे देश के लोग धन के विषय में अत्यंत उदार हैं, किंतु इन लोगों में उस प्रकार की उदारता नहीं है। सर्वत्र कंजूसी है और इसे धर्म माना जाता है। किंतु अनुचित्त आचरण करने पर उन्हें पादरियों के चक्कर में आना पड़ता है, तब धन देकर स्वर्ग पहुँचते हैं ! ऐसी घटनाएँ प्रायः सभी देशों में समान हैं, इसीका नाम है— priest-craft (पुरोहित-प्रपंच)। मैं कब तक भारत लौटूंगा अथवा नहीं-इस बारे में कुछ भी नहीं कह सकता। मेरे लिए तो यहाँ भी भ्रमण करना है और वहाँ भी। किंतु यहाँ पर हज़ारों व्यक्ति मेरी बातें सुनते हैं, समझते हैं-हज़ारों व्यक्तियों का भला होता है; मगर क्या यही चीज़ भारत के विषय में कही जा सकती है ? मैं सारदा के कार्यों से पूर्णतया सहमत हूँ। उसे शतशः धन्यवाद ! मद्रास तथा बम्बई में मेरे मनोनुकूल अनेक व्यक्ति हैं। वे विद्वान् हैं तथा सभी बातों को समझते हैं, साथ ही दयालु भी हैं; अतः परहितचिकीर्षा क्या वस्तु है—यह भली भाँति समझ सकते हैं।— मेरे जीवन की अतीत घटनाओं की पर्यालोचना से मुझे किसी प्रकार का अनुताप नहीं होता। लोगों को कुछ न कुछ शिक्षा देते हुए मैंने विभिन्न देशों का पर्यटन किया है और उसके बदले रोटियों के टुकड़ों से अपनी उदरपूर्ति की है। यदि मैं यह देखता कि लोगों को ठगने के सिवाय मैंने और कुछ भी कार्य नहीं किया है, तो आज स्वयं अपने गले में फाँसी लगाकर मैं मर जाता। लोगों को शिक्षा देने में जो अपने को अयोग्य समझते हैं, ऐसे लोग शिक्षकों का चोगा पहनकर क्यों दूसरों को ठगकर अपना पेट भरते हैं ? क्या यह महापाप नहीं है ? ... इति। तुम्हारा, नरेंद्र (श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित) अमेरिका, १ जुलाई, १८९५ प्रिय आलासिंगा, तुम्हारी भेजी हुई मिशनरियों की पुस्तक के साथ रामनाड़ के राजा साहब का फोटो मुझे मिला। राजा साहब तथा मैसूर के दीवान साहब, इन दोनों को ही मैंने पत्र लिखा है। रमाबाई के दल के लोगों के साथ डॉ० जेन्स के वाद-विवाद से यह स्पष्ट है कि मिशनरियों की उक्त पुस्तक बहुत दिन पहले ही यहाँ आ पहुँची है। उस पुस्तक में एक बात असत्य है। मैंने इस देश में किसी बड़े होटल में कभी भोजन नहीं किया है, साथ ही मैं होटल में रहा भी बहुत ही कम हूँ। चूँकि 'बाल्टिमोर' के छोटे होटलवाले अज्ञ है- नीग्रो समझकर किसी काले आदमी को वे स्थान नहीं देते, इसलिए डॉ० ब्रमन को-जिनका कि मैं अतिथि था-—मुझे वहाँ के एक बड़े होटल में ले जाने को बाध्य होना पड़ा था; क्योंकि इन लोगों को नीग्रो तथा विदेशियों का भेद मालूम है। आलासिंगा, मैं तुमसे यह कहना चाहता हूँ कि तुम लोगों को स्वयं अपनी रक्षा करनी है, दुधमुंहे बच्चों की तरह तुम क्यों आचरण कर रहे हो? यदि कोई तुम्हारे धर्म पर आक्रमण करता है, तुम उससे क्यों नहीं अपने धर्म समर्थन द्वारा बचाव करते ? जहाँ तक मेरा प्रश्न है, तुम्हें डरने की कोई आवश्यकता नहीं है; यहाँ पर शत्रुओं की अपेक्षा मेरे मित्रों की संख्या कहीं अधिक है। यहाँ के निवासियों में ईसाइयों की संख्या एक-तिहाई है और शिक्षित व्यक्तियों में से मात्र थोड़े व्यक्ति मिशनरियों की परवाह करते हैं। दूसरी तरफ़ बात और है कि मिशनरी लोग जिस विषय का विरोध करते हैं, मिशनरियों के विरुद्ध होने की बात से शिक्षित लोग इसे पसंद करते हैं। मिशनरियों का प्रभाव अब यहाँ काफ़ी घट चुका है तथा दिनोंदिन और भी घटता जा रहा है। हिंदू धर्म पर उनके आक्रमण यदि तुम्हें चोट पहुँचाते हैं, तो चिड़चिड़े बच्चों की तरह क्यों तुम मेरे पास अपना रोना रोते हो? क्या तुम उसका जवाब नहीं दे सकते तथा उनके धर्म के दोषों को नहीं दिखला सकते ? कायरता तो कोई धर्म नहीं है ! यहाँ पहले से ही मेरे अनुगामी है। आगामी वर्ष उनका संगठन कार्य-संचालन के आधार पर करूंगा। और मेरे भारत चले जाने पर भी यहाँ मेरे ऐसे अनेक मित्र रहेंगे, जो कि यहाँ पर मेरे सहायक होंगे तथा भारत में भी मेरी सहायता करते रहेंगे; अतः तुम्हारे लिए डरने की कोई बात नहीं है। किंतु जब तक तुम लोग मिशनरियों द्वारा किए गए आक्रमण का कोई प्रतिकार न कर केवल मात्र चिल्लाते तथा कूदते रहोगे, तब तक मैं तुम्हारे कृत्यों को देखकर हँसता रहूँगा। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम लोग तो मानो बच्चों के हाथ के खिलौने हो, हाँ, खिलौने हो। 'स्वामी जी, मिशनरी लोग हमें काट रहे हैं, उफ़, बड़ी जलन है, क्या करना चाहिए।' स्वामी जी, आखिर बूढ़े बच्चों के लिए कर ही क्या सकते हैं ? वत्स, मैं तो यह समझता हूँ कि वहाँ जाकर मुझे तुम लोगों को मनुष्य बनाना होगा। मैं यह जानता हूँ कि भारत में केवल मात्र नपुंसक तथा नारियों का निवास है। इसमें उद्विग्न होने की कोई बात नहीं है। भारत में कार्य करने के लिए मुझे साधन जुटाने की भी व्यवस्था करनी होगी। दुर्बलमस्तिष्क तथा अयोग्य व्यक्तियों के हाथों में मैं नहीं पड़ना चाहता हूँ। तुम लोगों को घबड़ाना नहीं चाहिए, जितना संभव हो, कार्य करते रहो, चाहे वह कितना भी कम क्यों न हो। मुझे अकेला ही आद्योपांत सब कुछ करना है। कलकत्ते के लोग इतने संकुचित्त मनोवृत्ति के हैं ! और तुम मद्रासी लोग इतने डरपोक हो कि कुत्ते की आवाज़ से भी चौंक उठते हो !! 'कायर लोग इस आत्म-तत्व को प्राप्त नहीं कर सकते।' मेरे लिए तुम्हें डरना नहीं चाहिए, प्रभु मेरे साथ हैं। तुम लोग केवल मात्र अपनी ही रक्षा करते रहो और मुझे यह दिखलाओ कि तुम इस कार्य को कर सकते हो, तभी मुझे संतोष होगा। कौन मेरे बारे में क्या कह रहा है, इस विषय को लेकर मुझे तंग न करो। किसी मूर्ख की मेरी समालोचना सुनने के लिए मेरे पास समय नहीं है। तुम बच्चे हो, तुम्हें क्या पता है कि असीम धैर्य, महान साहस तथा कठोर प्रयत्न से ही उत्कृष्ट फल की प्राप्ति हुआ करती है। किडी की अंतरात्मा जिस प्रकार समय समय पर पल्टा खाने में अभ्यस्त है, मुझे शंका है कि उसके फलस्वरूप उसके भावों का भी परिवर्तन हो रहा है। ज़रा बाहर निकलकर वह क़लम क्यों नहीं पकड़ता ? 'स्वामी जी, स्वामी जी, की रट न लगाकर क्या मद्रासी लोग उन दुष्टों के विरुद्ध संग्राम की घोषणा नहीं कर सकते, जिससे कि उन्हें दयाप्रार्थी बनकर 'त्राहि- त्राहि' की आवाज़ लगानी पड़े? तुम्हें डर किस बात का है ? केवल साहसी व्यक्ति ही महान कार्यों को कर सकते हैं—-कायर व्यक्ति नहीं। अविश्वासियो, सदा के लिए यह जान रखना कि प्रभु मेरा हाथ पकड़े हुए है। जब तक मैं पवित्र तथा उसका दास बना रहूँगा, तब तक कोई भी मेरा बाल बाँका न कर सकेगा। तुम लोग जल्दी ही पत्रिका प्रकाशित कर डालो। जैसे भी हो, मैं बहुत शीघ्र ही तुम लोगों को और रुपये भेज रहा हूँ तथा बीच-बीच में भेजता रहूँगा। कार्य करते चलो ! अपनी जाति के लिए कुछ करो—इससे वे लोग तुम्हारी सहायता करेंगे। पहले मिशनरियों के विरुद्ध चाबुक लेकर उनकी ख़बर लो। तब समग्र जाति तुम्हारे साथ होगी। साहसी बनो, साहसी बनो—मनुष्य सिर्फ एक बार ही मरा करता है। मेरे शिष्य कभी भी किसी भी प्रकार से कायर न बनें। सदा प्रीतिबद्ध, विवेकानंद (श्रीमती बेटी स्टारगीज़ को लिखित) द्वारा कुमारी डचर, सहस्रद्वीपोद्यान, जुलाई, १८९५ माँ, मेरा विश्वास है कि आप अब न्यूयार्क पहुँच गयी है और वहाँ अभी बहुत गर्मी नहीं है। यहाँ हमारा कार्य सुचारु रूप से चल रहा है। मेरी लुई कल आ पहुँची है। अब हम लोग सब मिलकर सात हुए। दुनिया भर की नींद मेरे ऊपर सवार हो गयी है। मैं दोपहर में कम से कम दो घंटे और सारी रात लकड़ी के कुंदे की तरह सोता रहता हूँ। मैं समझता हूँ, यह न्यूयार्क की अनिद्रा की प्रतिक्रिया है। थोड़ी-बहुत लिखाई-पढ़ाई करता हूँ और रोज़ सुबह जलपान करने के बाद क्लास लेता हूँ। भोजन एकदम निरामिष-नियम के अनुसार बनता है और मैं खूब उपवास कर रहा हूँ। मैं यहाँ जाने के पहले कई सेर चर्बी घटाने को दृढ़संकल्प हूँ। यह मेंथा-डिस्टों का स्थान है और वे अगस्त में अपनी 'शिविर-गोष्ठी' करेंगे। यह बहुत ही रम्य प्रदेश है, लेकिन मुझे भय है कि मौसम के दौरान यहाँ बहुत भीड़ हो जाएगी। मेरा विश्वास है, कुमारी जो जो का मक्खी-दंश अब ठीक हो गया होगा। माँ कहाँ है ? उन्हें पत्र लिखें, तो दया करके मेरा अभिवादन भी दे दें। पर्सी के आनंदपूर्ण दिनों की याद मुझे सदा आयेगी और श्री लेगेट की उस खातिरदारी के लिए सदा धन्यवाद। मंह उनके साथ यूरोप जा सकता हूँ। उनसे भेंट हो, तो मेरा आंतरिक प्यार और कृतज्ञता दे दें। उन्हीं जैसे सज्जनों के प्यार से यह संसार सदा सुंदर हुआ है। क्या आप अपनी मित्र श्रीमती डोरा (एक लंबा जर्मन नाम) के साथ है ? वे बहुत ही भली और सही अर्थों में महात्मा हैं। कृपया उन्हें मेरा प्यार और अभिवादन दें। मैं फ़िलहाल—निद्रित—अलस और आनंदपूर्ण अवस्था में हूँ और यह बेजा नहीं लगता मुझे। मेरी लुई न्यूयार्क से अपना पालतू कछुआ ले आयी थीं। यहाँ पहुँचने के बाद कच्छप ने अपने को समस्त प्राकृतिक परिवेश में घिरा हुआ पाया। अनवरत हाथ-पाँव मारकर-रेंगता-लुढ़कता मेरी लुई के प्यार और दुलार को बहुत पीछे छोड़कर—-चला गया। पहले तो वे बहुत दुःखित हुईं। किंतु, हम लोगों ने मिलकर मुक्ति का ऐसा ज़ोरदार प्रचार किया कि वे तुरंत सँभल गयीं। भगवान आपका सर्वदा मंगल करे-—यही आपके इस स्नेहाधीन की प्रार्थना है। विवेकानंद पुनश्च—-जो जो ने भोजपत्र की पोथी नहीं भेजी। श्रीमती बुल को मैंने एक प्रति दी थी-बहुत प्रसन्न हुई थीं। भारत से बहुत से सुंदर पत्र आये हैं। वहाँ सब ठीक-ठाक हैं। उस ओर के बच्चों को प्यार—सचमुच के 'वहाँ के भोले-भाले'। (श्री एफ० लगट को लिखित) द्वारा कुमारी डचर, सहस्रद्वीपोद्यान, न्यूयार्क, ७ जुलाई , १८९५ प्रिय मित्र, मुझे प्रतीत होता है कि आप न्यूयार्क का बहुत ही आनंद ले रहे है, अतः पत्र से अपने स्वप्न-भंग के लिए मुझे क्षमा करें। कुमारी मैक्लिऑड और श्रीमती स्टारगीज़ के दो सुंदर पत्र प्राप्त हुए। उन्होंने बाबा भोजपत्र की पुस्तकें भी भेजीं। मैंने उन्हें संस्कृत के मूल तथा अनुवादों से भर दिया है, और वे आज की डाक से जा रही हैं। श्रीमती डोरा 'महात्मीय' दिशा में कुछ चमत्कारिक प्रदर्शन कर रही है, ऐसा मैंने सुना है। पर्सी से प्रस्थान के बाद अप्रत्याशित स्थानों से लंदन जाने के लिए मुझे निमंत्रण मिले हैं और मैं इसके लिए अत्यंत आशान्वित हूँ। मैं लंदन में कार्य करने के इस अवसर को खोना नहीं चाहता और इसलिए मैं जानता हूँ कि भविष्य-कार्य के लिए आपका निमंत्रण लंदन के निमंत्रण के साथ मिलकर एक ईश्वरीय आह्वान हुआ है। मैं पूरे महीने यहीं रहूँगा और केवल अगस्त में कुछ दिनों के लिए शिकागो अवश्य जाऊँगा। पिता लेगेट, आप खीझें नहीं, जब हम निश्चित रूप से मैत्रीपूर्ण हैं, प्रत्याशा के लिए यही उचित्त अवसर है। प्रभु सदा-सर्वदा आपका कल्याण करे, और चूंकि आप इसके योग्य पात्र हैं, इसलिए प्रभु सदैव आपको सुख प्रदान करे। सदा प्रेम और प्रीतिबद्ध, विवेकानंद (कुमारी अल्बर्टा स्टारगीज़ को लिखित) १९ पश्चिम ३८, न्यूयार्क, ८ जुलाई, १८९५ प्रिय अल्बर्टा, अवश्य ही तुम अपने संगीत संबंधी अध्ययन में तल्लीन होगी। आशा है, तुमने सरगम के संबंध में सब कुछ जान लिया है। अब अगली बार मिलने पर मैं तुमसे सप्तकों के संबंध में कुछ सीखूगा। पर्सी में श्री लेंगेट के साथ समय बड़े आनंद में बीता। क्या उन्हें संत न कहें ? मुझे विश्वास है कि होलिस्टर भी जर्मनी का खूब आनंद ले रहा है और आशा है, तुम लोगों में से किसी ने जर्मन शब्दों-विशेषतः sch, tz, tsz से प्रारंभ होनेवाले शब्दों तथा अन्य मधुर शब्दों के उच्चारण से अपनी जीभ छलनी नहीं की होगी। मैंने जहाज़ में लिखा हुआ तुम्हारा पत्र तुम्हारी माता जी को सुना दिया। बहुत संभव है कि मैं आगामी सितंबर में यूरोप जाऊँ। अभी तक मुझे यूरोप जाने का अवसर नहीं मिला। आखिर वह संयुक्त राज्य से बहुत भिन्न न होगा और अब तो मैं इस देश के रहन-सहन और रीति-रिवाज़ में पूर्ण अभ्यस्त हो चुका हूँ। पर्सी में हम लोगों ने नाव खेने का बहुत आनंद उठाया और मैंने नाव खेने की एक-दो बातें सीखीं। कुमारी जो जो को अपनी मधुरता का मूल्य चुकाना पड़ा, क्योंकि मक्खियों और मच्छरों ने उन्हें क्षण भर के लिए भी नहीं छोड़ा। उन्होंने मुझे काफ़ी तरह दी, शायद इसलिए कि वे अति कट्टर सब्बाटेरियन मक्खियाँ थीं और एक गैर-ईसाई को कभी भी स्पर्श नहीं कर सकती थीं। मैं सोचता हूँ कि पर्सी में मैं फिर बहुत गाने लगा और अवश्य ही इसने उन्हें डरा दिया होगा। भोजपत्र के वृक्ष बड़े सुंदर थे। मेरे मन में उनकी छाल से पुस्तकें बनाने का विचार आया, जैसा प्राचीन काल में मेरे देश में रिवाज़ था और तुम्हारी माता जी तथा चाची जी के लिए संस्कृत श्लोकों की रचना की। अल्बर्टा, मुझे विश्वास है कि तुम शीघ्र ही अति महान विदुषी नारी बनोगी। तुम दोनों के लिए प्रेम और आशीर्वाद। तुम्हारा चिर स्नेही, स्वामी विवेकानंद (स्वामी ब्रह्मानंद को लिखित) ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय प्राणाधिक, १८९५ समाचारपत्र आदि अब बहुत कुछ इकट्ठे हो चुके हैं, और भेजने की आवश्यकता नहीं है। अब भारत में ही आंदोलन चलने दो। प्रत्येक दिन सनसनी फैलाना कोई विशेष लाभकारक नहीं है। किंतु यह जो सारे देश में उत्तेजना फैल रही है, इसी के आधार पर तुम लोग चारों ओर फैल जाओ अर्थात् जगह जगह शाखाएँ स्थापित करने का प्रयत्न करो। मौक़ा खाली न जाने पाये। मद्रासियों से मिलकर जगह-जगह समिति आदि की स्थापना करनी होगी। उस पत्रिका के विषय में क्या हुआ, जो मैंने सुना था कि प्रकाशित होने जा रही है। इसको चलाने में तुम लोग क्यों घबड़ा रहे हो ? “आगे बढ़ो। अपनी बहादुरी तो दिखाओ। प्रिय भाई, मुक्ति नहीं मिली, तो न सही, दो-चार बार नरक ही जाना पड़े, तो हानि ही क्या है ? क्या यह बात असत्य है ? मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः। परगुणपरमाणु पर्वतीकृत्य नित्यं निजहदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ॥ भले ही न हो तुम्हारी मुक्ति। यह कैसी बच्चों की सी बकवास? राम राम ! 'नहीं है', 'नहीं है' कहने से साँप का ज़हर भी उतर जाता है। क्या यह सत्य नहीं है ? 'मैं कुछ नहीं जानता', 'मैं कुछ भी नहीं हूँ'-ये किस प्रकार के वैराग्य और विनय है भाई ? यह तो मिथ्या वैराग्य एवं व्यंग्यपूर्ण विनय है। इस प्रकार के दीन-हीन भावों को दूर करना होगा। यदि मैं नहीं जानता हूँ, तो और कौन जानता है ? यदि तुम नहीं जानते हो, तो अब तक तुमने क्या किया? ये सब नास्तिकों की बात है, अभागे आवारों की विनयशीलता है। हम सब कुछ कर सकते हैं और करेंगे; जिनका सौभाग्य है, वे गर्जना करते हुए हमारे साथ निकल आयेंगे और जो भाग्यहीन हैं, वे बिल्ली की तरह एक कोने में बैठकर म्याऊँ-म्याऊँ करते रहेंगे। एक महापुरुष लिखते हैं कि 'आंदोलन बहुत कुछ हो चुका है, और अधिक की क्या आवश्यकता है, अब घर लौटना चाहिए।' मैं तो उनको मर्द तब जानता, जब मेरे रहने के लिए कोई मठ बनवाकर वे मुझे बुलाते। मेरे दस वर्ष के अनुभव ने मुझे पक्का बना दिया है। केवल मात्र बातों से कुछ होने-जाने का नहीं है। जिसके मन में साहस तथा हृदय में प्यार है, वही मेरा साथी बने—मुझे और किसी की आवश्यकता नहीं है। जगन्माता की कृपा से मैं अकेला ही एक लाख के बराबर हूँ तथा स्वयं ही बीस लाख बन जाऊँगा। अब एक कार्य समाप्त होने से मैं निश्चिंत हो जाता। भाई राखाल, तुम उत्साहपूर्वक उसे कर दो। वह है माता जी के लिए ज़मीन खरीदना। मेरे पास रुपये-पैसे मौजूद है। सिर्फ तुम उद्यम के साथ ज़मीन को देखकर ख़रीद लेना। ज़मीन के लिए ३-४ या ५ हज़ार तक लग जाए, तो कोई हर्ज नहीं है। मेरा भारत लौटना अभी अनिश्चित है। मेरे लिए जैसे वहाँ भ्रमण करना, वैसे यहाँ भी है, भेद केवल मात्र इतना ही है कि यहाँ पर पंडितों का संग है, वहाँ मूर्खों का-—यही स्वर्ग-नरक का भेद है। यहाँ के लोग मिल-जुलकर कार्य करते हैं और हम लोगों के तमाम कार्यों में तथाकथित वैराग्य यानी आलस्य है, ईर्ष्या आदि के कारण सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। हरमोहन बीच-बीच में बहुत ही लंबा-चौड़ा पत्र लिखते हैं, उसका आधा भी मैं नहीं समझ पाता, हालाँकि यह मेरे लिए परम लाभजनक ही है। क्योंकि उसमें अधिकांश समाचार इस प्रकार के होते हैं कि अमुक व्यक्ति अमुक की दुकान पर बैठकर मेरे विरुद्ध इस प्रकार की बातें बना रहा था, जो उनके लिए असहनीय हो गया एवं इस बात पर उससे उनका झगड़ा हो गया आदि। मेरे पक्ष के समर्थन के लिए उनको अनेक धन्यवाद। किंतु मुझे कौन क्या कह रहा है, उसे ध्यानपूर्वक सुनने में मुख्य बाधा यही है कि स्वल्पश्च कालो बहवश्च विघ्नाः।—समय अत्यंत कम है और विघ्न अनेक है।'— एक organised society (संगठित समिति) की आवश्यकता है। शशि घरेलू कार्यों की व्यवस्था करे, रुपया-पैसा तथा बाज़ार आदि का भार सान्याल सम्हाले तथा शरत् secretary (मंत्री) बने, अर्थात् पत्र-व्यवहार आदि कार्य वह करता रहे। एक स्थायी केंद्र स्थापित करो, क्यों व्यर्थ के झगड़े में पड़े हुए हो, समझे न ? अख़बारी प्रकाशन बहुत कुछ हो चुका है, अब तो कुछ करके दिखलाओ। यदि कोई मठ बना सको, तब मैं समझूँगा कि तुम बहादुर हो, नहीं तो कुछ नहीं। मद्रासियों से परामर्श कर कार्य करना, उनमें कार्य करने की बड़ी भारी शक्ति है। इस वर्ष श्री रामकृष्णोत्सव को इस शान के साथ संपन्न करो कि एक उदाहरण प्रस्तुत हो सके। भोजनादि का प्रचार जितना ही कम हो सके, उतना ही अच्छा। हाथोंहाथ प्रसाद का वितरण भी हो जाए, तो अच्छा ही है। श्री रामकृष्ण देव की एक अत्यंत संक्षिप्त जीवनी अंग्रेज़ी में लिखकर मैं भेज रहा हूँ। उसके बंगानुवाद के साथ उसे छपवाकर महोत्सव में बेचना; मुफ्त वितरण की हुई पुस्तकों को लोग प्रायः नहीं पढ़ते हैं, इसलिए कुछ मूल्य अवश्य रखना चाहिए। खूब धूम-धाम के साथ महोत्सव करना।— बुद्धि प्रशस्त होनी चाहिए, तब कहीं कार्य होता है। गाँव अथवा शहर में जहाँ कहीं भी जाओ, श्री परमहंस देव के प्रति श्रद्धासंपन्न दस व्यक्ति भी जहाँ मिले, वहीं एक सभा स्थापित करो। गाँवों में जाकर अब तक तुमने क्या किया? हरि-सभा इत्यादि को धीरे-धीरे स्वाहा करना होगा। क्या कहूँ, यदि मुझ जैसा एक भूत और मुझे मिलता ! समय आने पर प्रभु सब कुछ जुटा देंगे।— यदि शक्ति विद्यमान है, तो उसका विकास' अवश्य दिखाना होगा।— मुक्ति-भक्ति की भावना को दूर कर दो। परोपकाराय हि सतां जीवितं, परार्थं प्राज्ञ उत्सजेत— 'साधुओं का जीवन परोपकार के लिए ही है, प्राज्ञ व्यक्तियों को दूसरों के लिए सब कुछ त्याग देना चाहिए।' संसार में यही एकमात्र रास्ता है। तुम्हारी भलाई करने से मेरी भी भलाई है, दूसरा कोई उपाय नहीं है, बिल्कुल नहीं है। . . तुम भगवान हो, मैं भगवान हूँ और मनुष्य भगवान है। यह वही भगवान है, जो मानवता के रूप में अभिव्यक्त होकर दुनिया में सब कुछ कर रहा है, फिर क्या भगवान कहीं अन्यत्र बैठा हुआ है ? अतः कार्य में संलग्न हो जाओ। शशि (सान्याल) द्वारा लिखित एक पुस्तक विमला ने मुझे भेजी है। उस ग्रंथका अध्ययन कर विमला को यह ज्ञान प्राप्त हुआ है कि इस दुनिया में जितने भी लोग हैं, सभी अपवित्र है तथा उन लोगों के संस्कार ही इस प्रकार के हैं कि उनसे धर्म का अनुष्ठान हो ही नहीं सकता, केवल मात्र कुछ भारतीय ब्राह्मण लोग ही धर्मानुष्ठान कर सकते हैं। उनमें भी शशि (सान्याल) और विमला चंद्र -सूर्य स्वरूप है। शाबाश, कितना शक्तिशाली धर्म है ! ख़ासकर बंगाल में इस प्रकार का धर्मानुष्ठान अत्यंत ही सहज है। ऐसा कोई दूसरा सहज मार्ग ही नहीं है। यही तो तप-जप आदि का सार सिद्धांत है कि मैं पवित्र हूँ और बाक़ी सब लोग अपवित्र। यह कितना पैशाचिक, राक्षसी तथा नारकीय धर्म है। यदि अमेरिका के लोग धर्मानुष्ठान नहीं कर सकते, यदि इस देश में धर्म का प्रचार उचित्त नहीं है, तो फिर इन लोगों से सहायता माँगने की क्या आवश्यकता है ? एक ओर अयाचित्तवृत्ति का गुणगान और दूसरी ओर पोथी में ऐसे आक्षेपों की भरमार कि मुझे कोई भी कुछ नहीं देता है। विमला तो इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि यदि भारत के लोग शशि (सान्याल) तथा विमला के चरणों पर धनराशि अर्पित नहीं करते, तो इसका अर्थ यह है कि भारत का सर्वनाश होने में विलंब नहीं है क्योंकि शशि बाबू को सूक्ष्म व्याख्या मालूम है और उसे पढ़कर विमला को यह निश्चित रूप से विदित हो चुका है कि उनके सिवाय इस दुनिया में और कोई भी पवित्र नहीं है। इस रोग की दवा क्या है ? शशि बाबू से कहना कि वे मलाबार चले जायँ। वहाँ के राजा ने प्रजा से ज़मीन छीनकर ब्राह्मणों के चरणों में अर्पित की है, गाँव-गाँव में बड़े बड़े मठ हैं, उत्तम भोजन की व्यवस्था है, साथ में दक्षिणा भी।—भोग करते समय ब्राह्मणेतर जाति के स्पर्श से कोई दोष नहीं होता—भोग समाप्त होते ही स्नान आवश्यक है, क्योंकि ब्राह्मणेतर जाति तो अपवित्र है, अन्य समय में उसे स्पर्श करने की आवश्यकता भी नहीं है। साधु-संन्यासी तथा ब्राह्मण दुष्टों ने देश को रसातल पहुँचाया है। 'देहि, देहि' की रट लगाना तथा चोरी-बदमाशी करना—किंतु है धर्म के प्रचारक। धन कमायेंगे, सर्वनाश करेंगे, साथ ही यह भी कहेंगे कि हमें न छुना। कितने महान कार्यों को वे लोग संपन्न करते रहे हैं !— यदि आलू से बैंगन का स्पर्श हो जाए, तो कितने समय के अंदर यह ब्रह्मांड रसातल को पहुँच जाएगा ? चौदह बार हाथ मिट्टी न करने से पूर्वजों के चौदह पुश्त नरकगामी होते हैं अथवा चौबीस, इन उलझनपूर्ण प्रश्नों की मीमांसा में ये लोग आज दो हज़ार वर्षों से लगे हुए हैं, जबकि दूसरी ओर one fourth of the people are starving (जनता का एक-चौथाई भाग भूखा मर रहा है)। आठ वर्ष की कन्या के साथ तीस वर्ष के पुरुष का विवाह करके कन्या के पिता-माताओं के आनंद की सीमा नहीं रहती !— फिर इस काम में बाधा पहुँचने से वे कहते हैं कि हमारा धर्म ही चला जाएगा ! आठ वर्ष की लड़की के गर्भाधान की जो लोग वैज्ञानिक व्याख्या करते हैं, उनका धर्म कहाँ का धर्म है ? बहुत से लोग इस प्रथा के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराते हैं। वास्तव में क्या, मुसलमान इसके लिए दोषी हैं ? संपूर्ण गृह्यसूत्रों को तो एक बार पढ़कर देखो, हस्तात् योनिं न गृहति दशा जब तक है, तभी तक कन्या मानी जाती है, इसके पहले ही उसका विवाह कर देना चाहिए। तमाम गृह्यसूत्रों का यही आदेश है। वैदिक अश्वमेंध यज्ञानुष्ठान की ओर ध्यान दो—तदनंतरं महिषीं अश्वसन्निधौ पातयेत्—आदि वाक्य देखने को मिलेंगे। होता, ब्रह्मा, उद्गाता इत्यादि नशे में चूर होकर कितना घृणित आचरण करते थे। अच्छा हुआ कि जानकी के वन-गमन के बाद राम ने अकेले ही अश्वमेध यज्ञ किया, इससे चित्त को बड़ी शांति मिली। समस्त ब्राह्मण ग्रंथों में इनका उल्लेख विद्यमान है तथा सभी टीकाकारों ने माना है, फिर कैसे अस्वीकार किया जा सकता है। तात्पर्य यह है कि प्राचीन काल में बहुत सी चीज़ें अच्छी भी थीं और बुरी भी। उत्तम वस्तुओं की रक्षा करनी होगी, किंतु Ancient India (प्राचीन भारत) से Future India (भावी भारत) अधिक महत्वपूर्ण होगा। जिस दिन श्री रामकृष्ण देव ने जन्म लिया है, उसी दिन से Modern India (वर्तमान भारत) तथा सत्ययुग का आविर्भाव हुआ है। तुम लोग सत्ययुग का उद्घाटन करो और इसी विश्वास को लेकर कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण हो। एक ओर तो तुम श्री रामकृष्ण देव को अवतार कहते हो और उसके साथ ही साथ अपने को अज्ञ भी बतलाते हो, यही कारण है मैं कि बिना किसी संकोच के तुम लोगों को liar (झूठा) कहता हूँ। यदि श्री रामकृष्ण देव सत्य है, तो तुम भी सत्य हो। किंतु तुमको यह प्रमाणित कर दिखाना होगा।— तुम्हारे अंदर महाशक्ति विद्यमान है, नास्तिकों में कुछ भी नहीं है। आस्तिक लोग वीर होते हैं। जो महाशक्ति उनमें विद्यमान है, उसका विकास अवश्य होगा और उससे जगत् परिप्लावित हो जाएगा। 'ग़रीबों का उपकार करना ही दया है'; 'मनुष्य भगवान है, नारायण है'; 'आत्मा में स्त्री-पुरुष-नपुंसक तथा ब्राह्मण, क्षत्रियादि भेद नहीं हैं'; 'ब्रह्मादिस्तम्बपर्यंत सब कुछ नारायण है।' कीट स्वल्प अभिव्यक्त (less manifested) तथा ब्रह्मा अधिक अभिव्यक्त (more manifested) है। 'धीरे-धीरे ब्रह्माभाव की अभिव्यक्ति के लिए जिन कार्यों से जीव को सहायता मिलती है, वे ही अच्छे हैं और जिनके द्वारा उसमें बाधा पहुँचती है, वे बरे हैं।' 'अपने में ब्रह्माभाव को अभिव्यक्त करने का यही एकमात्र उपाय है कि इस विषय में दूसरों की सहायता करना।' 'यदि स्वभाव में समता न भी हो, तो भी सबको समान सुविधा मिलनी चाहिए। फिर भी यदि किसी को अधिक तथा किसी को कम सुविधा देनी हो, तो बलवान की अपेक्षा दुर्बल को अधिक सुविधा प्रदान करनी आवश्यक है।' अर्थात् चांडाल के लिए शिक्षा की जितनी आवश्यकता है, उतनी ब्राह्मण के लिए नहीं। यदि किसी ब्राह्मण के पुत्र के लिए एक शिक्षक आवश्यक हो, तो चांडाल के लड़के के लिए दस शिक्षक चाहिए। कारण यह है कि जिस की बुद्धि की स्वाभाविक प्रखरता प्रकृति के द्वारा नहीं हुई है, उसके लिए अधिक सहायता करनी होगी। चिकने-चुपड़े पर तेल लगाना पागलों का काम है। The poor, the downtrodden, the ignorant, let these be your God. 'दरिद्र, पददलित तथा अज्ञ तुम्हारे ईश्वर बनें।' तुम्हारे सामने एक भयानक दलदल है—-उससे सावधान रहना; सब कोई उस दलदल में फंसकर ख़त्म हो जाते हैं। वर्तमान हिंदुओं का धर्म न तो वेद में है और न पुराण में, न भक्ति में है और न मुक्ति में-धर्म तो भात की हाँड़ी में समा चुका है—यही वह दलदल है। वर्तमान हिंदू धर्म न तो विचार-प्रधान ही है और न ज्ञान-प्रधान, 'मुझे न छूना, मुझे न छुना', इस प्रकार की अस्पृश्यता ही उसका एकमात्र अवलंब है, बस इतना ही। इस घोर वामाचाररूप अस्पृश्यता में फंसकर तुम अपने प्राणों से हाथ न धो लेना। आत्मवत् सर्वभूतेषु, क्या यह वाक्य केवल मात्र पोथी में निबद्ध रहने के लिए है ? जो लोग गरीबों को रोटी का एक टुकड़ा नहीं दे सकते, वे फिर मुक्ति क्या दे सकते हैं ? दूसरों के श्वासप्रश्वासों से जो अपवित्र बन जाते हैं, वे फिर दूसरों को क्या पवित्र बना सकते हैं ? अस्पृश्यता is a form of mental disease. (एक प्रकार की मानसिक व्याधि है); उससे सावधान रहना। 'सब प्रकार का विस्तार ही जीवन है और सब प्रकार की संकीर्णता मृत्यु है। जहाँ प्रेम है, वहीं विस्तार है और जहाँ स्वार्थ है, वहीं संकोच। अतः प्रेम ही जीवन का एकमात्र विधान है। जो प्रेम करता है, वही जीवित है; जो स्वार्थी है, वह मृतक है। अतः प्रेम प्रेम के निमित्त, क्योंकि यह जीवन का वैसा ही एकमात्र विधान है, जैसा जीने के लिए श्वास लेना। निष्काम प्रेम, निष्काम कर्म इत्यादि का यही रहस्य है।' ...यदि हो सके, तो शशि (सान्याल) की कुछ भलाई का प्रयत्न करना। वह अत्यंत उदार तथा निष्ठावान है, किंतु उसका हृदय संकीर्ण है। दूसरों के दुःख में दुःखी होना सबके लिए संभव नहीं है। हे प्रभो, सब अवतारों में श्री चैतन्य महाप्रभु श्रेष्ठ हैं, किंतु उनमें प्रेम की तुलना में ज्ञान का अभाव था, श्री रामकृष्णावतार में ज्ञान, भक्ति तथा प्रेम-तीनों ही विद्यमान हैं। उनमें अनंत ज्ञान, अनंत प्रेम, अनंत कर्म तथा प्राणियों के लिए अनंत दया है। अभी तक तुम्हें इसका अनुभव नहीं हुआ है। श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित—-'इनके बारे में सुनकर भी कोई कोई इनको जान नहीं पाते हैं।' 'युग-युगांत से समग्र हिंदू जाति के लिए जो चिंतन का विषय रहा, उन्होंने अपने एक ही जीवन में उसकी उपलब्धि की। उनका जीवन सब जातियों के शास्त्रों का सजीव भाष्यस्वरूप है। लोगों को धीरे-धीरे इसका पता लगेगा। मेरी तो यही पुरानी वाणी है—Struggle, struggle up to light ! Onward ! (अपनी पूरी शक्ति के साथ ज्योति की ओर अग्रसर हो।) इति। दास, नरेन्द्र (स्वामी अखण्डानंद को लिखित) द्वारा ई० टी० स्टर्डी, हाई व्यू, कैवरशम, रीडिंग, इंग्लैंड, १८९५ स्नेहास्पद, तुम्हारे पत्र से सविशेष समाचार ज्ञात हुए। तुम्हारा संकल्प अत्यंत सुंदर है, किंतु तुम लोगों में organisation (संगठन) की शक्ति का एकदम अभाव है। वही अभाव सब अनर्थों का मूल है। मिल-जुलकर कार्य करने के लिए कोई भी तैयार नहीं है। Organisation के लिए सबसे पहले obedience (आज्ञा-पालन) की आवश्यकता है, इच्छा हुई तो कुछ किया, अन्यथा चुपचाप—इस तरह कोई कार्य नहीं होता है। Plodding industry and perseverance (धैर्य के साथ परिश्रम तथा लगन) चाहिए। Regular correspondence (नियमित पत्र व्यवहार) अर्थात् तुम लोग क्या कर रहे हो तथा उसका फल क्या हो रहा है, इसका पूरा विवरण हर महीने अथवा महीने में दो बार मुझे लिखकर भेजोगे। यहाँ (इंग्लैंड) के लिए एक ऐसे संन्यासी की आवश्यकता है, जो अंग्रेज़ी तथा संस्कृत अच्छी तरह से जानता हो। मुझे शीघ्र ही यहाँ से अमेरिका जाना है, और मेरी अनुपस्थिति में यहाँ पर उसको कार्य करना होगा। शरत् और शशि, इन दोनों के सिवाय और कोई मेरी नज़र में नहीं आ रहा है। शरत् को मैं रुपया भेज चुका हूँ तथा पत्र के देखते ही उसे रवाना होने के लिए मैंने लिखा है। राजा जी को भी मैं यह लिख चुका है कि वे बम्बई स्थित अपने agent (एजेंट) के द्वारा शरत् को अच्छी तरह से जहाज़ में बैठालने की व्यवस्था करें। यदि हो सके, तो ख्याल कर तुम उसके साथ एक बोरी मूंग, चना तथा अरहर की दाल तथा कुछ मेंथी भेजना, पत्र लिखते समय मुझे इन वस्तुओं की याद नहीं रही। पं० नारायणदास, मा० शंकरलाल, ओझा जी, डॉक्टर तथा अन्यान्य सभी लोगों से मेरी प्रीति कहना। क्या गोपी की आँख की दवा यहाँ मिल जाएगी? सर्वत्र ही 'पेटेंट' दवाओं में धोखाधड़ी चलती है। उससे तथा अन्यान्य शिष्यवर्गों से मेरा आशीर्वाद कहना। यज्ञेश्वर बाबू ने मेरठ में कोई सभा स्थापित की है, वे हम लोगों के साथ मिलकर कार्य करना चाहते हैं। सुना है कि उनकी कोई पत्रिका भी है; काली को वहाँ भेज दो, यदि हो सके, तो वहाँ जाकर वह एक केंद्र स्थापित करे और ऐसा प्रयत्न करे कि हिंदी में उस पत्रिका का प्रकाशन हो। बीच बीच में मैं कुछ रुपया भेजता रहूँगा। काली मेरठ जाकर वहाँ की यथार्थ स्थिति ज्यों ही मुझे लिखेगा, मैं कुछ रुपया भेज दूंगा। अजमेर में एक केंद्र स्थापित करने का प्रयत्न करना। सहारनपुर में पं० अग्निहोत्री जी ने कोई सभा स्थापित की है। उन लोगों ने मुझे एक पत्र भी लिखा है। उन लोगों के साथ correspondence (पत्र-व्यवहार) करते रहना। सबके साथ मेल-जोल रखना। work, work. (कार्य, कार्य।) इस तरह केंद्र स्थापित करते रहो। कलकत्ता तथा मद्रास में केंद्र पहले से है ही, यदि मेरठ और अजमेर में संभव हो सके, तो बहुत ही अच्छा होगा। धीरे-धीरे इस प्रकार विभिन्न स्थानों में केंद्र स्थापित करते रहो। यहाँ पर मुझे पत्रादि इस पते पर भेजना—-द्वारा श्री ई० टी० स्टर्डी, हाई व्य, कैवरशम, रीडिंग, इंग्लैंड। मेरा अमेरिका का पता इस प्रकार है-—द्वारा कुमारी फिलिप्स १९ पश्चिम ३८वाँ रास्ता, न्यूयार्क। क्रमशः दुनिया में छा जाना होगा। सर्वप्रथम आज्ञा-पालन आवश्यक है। अग्नि में कूदने के लिए तैयार रहना चाहिए—तब कहीं कार्य होता है।— उसी प्रकार राजपूताने के गाँव गाँव में सभा स्थापित करो। किमधिकमिति, विवेकानंद (अपने गुरुभाइयों को लिखित) संयुक्त राज्य अमेरिका, १८९५ प्रियवर, सान्याल ने जो पुस्तकें भेजी थीं, वे मिल गयीं। मैं यह लिखना भूल गया। उसे यह समाचार बता देना। तुम लोगों को मैं निम्नलिखित बातें बतलाना चाहता हूँ—— १. पक्षपात ही सब अनर्थों का मूल है, यह न भूलना। अर्थात् यदि तुम किसी के प्रति अन्य की अपेक्षा अधिक प्रीति-प्रदर्शन करते हो, तो याद रखो, उसी से भविष्य में कलह का बीजारोपण होगा। २. यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की निंदा करना चाहे, तो तुम उस ओर बिल्कुल ध्यान न दो। इन बातों को सुनना भी महान पाप है, उससे भविष्य में विवाद का सूत्रपात होगा। ३. दूसरों के दोषों को सर्वदा सहन करना, लाख अपराध होने पर भी उसे क्षमा करना। यदि निःस्वार्थभाव से तुम सबसे प्रीति करोगे, तो उसका फल यह होगा कि सब कोई आपस में प्रीति करने लगेंगे। एक का स्वार्थ दूसरे पर निर्भर है, इसका विशेष रूप से ज्ञान होने पर सब लोग ईर्ष्या को त्याग देंगे; आपस में मिल-जुलकर किसी कार्य को सम्पादित करने की भावना हमारे जातीय चरित्र में सुलभ नहीं है; अतः इस प्रकार की भावना को जाग्रत करने के लिए तुम्हें अत्यधिक परिश्रम करना पड़ेगा तथा उसके लिए हमें धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा भी करनी होगी। सचमुच मैं तुम लोगों में किसी को छोटा-बड़ा नहीं देख पाता हूँ; मैं यह अनुभव करता हूँ कि आवश्यकता पड़ने पर प्रत्येक एक महान शक्ति का परिचय दे सकता है। शशि का कितना सुंदर व्यक्तित्व है, उसकी दृढ़निष्ठा महान आधारस्वरूप है। काली तथा योगेन ने कैसे अच्छी तरह से 'टाउन हॉल' की मीटिंग को सफल बनाया। वास्तव में कितना कठिन कार्य था यह। निरञ्जन ने लंका आदि स्थानों में बहुत कुछ कार्य किया है। सारदा ने विभिन्न देशों में पर्यटन कर कितने ही महान कार्यों का बीजारोपण किया। हरि के अद्भुत त्याग, दृढ़बुद्धि तथा तितिक्षा से मझे नवीन प्रेरणा मिलती रहती है। तुलसी, गुप्त, बाबूराम, शरत् इत्यादि सभी के अंदर एक विशाल शक्ति विद्यमान है। श्री रामकृष्ण जौहरी थे, इस बारे में अब भी यदि किसीको संदेह हो, तो उसमें तथा एक पागल में क्या अंतर है ? इस देश में सैकड़ों व्यक्तियों ने अपने प्रभु को सब अवतारों में श्रेष्ठ मानकर उनकी पूजा करनी प्रारंभ कर दी है। महान कार्य धीरे-धीरे संपन्न होता है। बारूद के स्तरों को धीरे-धीरे सजाना पड़ता है, फिर एक दिन सामान्य अग्नि ही पर्याप्त है-उसी से चारों ओर ज्वालाएँ दौड़ने लगती है। वे स्वयं कर्णधार हैं, फिर डरने की क्या बात है ? तुम लोग अनंत शक्ति के आधार हो-थोड़ी सी ईर्ष्या तथा अहंताबुद्धि को प्रशमित करने के लिए करें कितना समय चाहिए? जिस समय उस प्रकार की बुद्धि का उदय हो, तत्क्षण ही प्रभु की शरण लो। अपने शरीर तथा मन को उनके कार्यों में सौंप दो, देखोगे, सारी विपत्ति दूर हो जाएगी। इस समय तुम लोग जिस मकान में हो, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वह तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं है। एक बड़े मकान की आवश्यकता है, अर्थात् एक कोठरी के अंदर संकुचित्त रूप से सब कोई रहे, ऐसा आवश्यक नहीं है। संभव होने पर एक कोठरी में दो व्यक्तियों से अधिक लोगों का रहना उचित्त नहीं है। एक बड़ा कक्ष भी चाहिए, जहाँ पर पुस्तकादि रखी जा सकें। मैं चाहता हूँ कि प्रतिदिन प्रातः तथा सायंकाल काली, हरि, तुलसी, शशि आदि परस्पर कुछ शास्त्र-चर्चा करें एवं सायंकाल शास्त्र-चर्चा के बाद कुछ समय के लिए ध्यान-धारणा तथा संकीर्तन होना चाहिए। किसी दिन योग, किसी दिन भक्ति तथा किसी दिन ज्ञान संबंधी आलोचनाएँ हों। इस प्रकार क्रम के अनुसार चलने पर बहुत कुछ लाभ होगा। सायंकालीन कार्यक्रम में साधारण लोगों को शामिल करना चाहिए तथा प्रति रविवार को दिन के दस बजे से रात्रि तक क्रमशः शास्त्र-चर्चा तथा कीर्तनादि होना चाहिए। यह अनुष्ठान साधारण जनता के लिए हो। इस प्रकार के नियमादि बनाकर कुछ दिन प्रयासपूर्वक आयोजन करने पर आगे चलकर अपने आप वह चलता रहेगा। अध्ययन-कक्ष में धूम्रपान न करना चाहिए; इसके लिए कोई दूसरा स्थान निर्धारित कर देना। यदि परिश्रम कर धीरे-धीरे तुम इस प्रकार की व्यवस्था कर सको, तो मैं समझूँगा कि बहुत कुछ कार्य संपन्न हुआ। किमधिकमिति विवेकानंद पुनश्च—-मैंने सुना था कि हरमोहन एक पत्रिका प्रकाशित करने में लगा हुआ है। वह कार्य कहाँ तक अग्रसर हुआ? काली, शरत्, हरि, मास्टर, जी० सी० घोष आदि सब मिलकर यदि ऐसी व्यवस्था कर सकें, तो बहुत ही अच्छा हो। (स्वामी ब्रह्मानंद को लिखित) संयुक्त राज्य अमेरिका, १८९५ अभिन्नहृदय, अभी अभी तुम्हारे पत्र से सब समाचार विदित हुए। भारत में अधिक कार्य हो या न हो, इस देश में कार्य की विशेष आवश्यकता है। इस समय किसी को आने की ज़रूरत नहीं है। मैं भारत पहुँचकर कुछ लोगों को यहाँ पर कार्य करने के लिए उपयुक्त शिक्षा प्रदान करूँगा, तब फिर पाश्चात्य देशों में आने के लिए किसी प्रकार का भय नहीं रहेगा। गुणनिधि के बारे में ही मैंने लिखा था। हरि सिंह आदि को मेरा हार्दिक प्रेमाशीर्वाद देना। किसी प्रकार के विवाद-कलह में न फंसना। खेतड़ी के राजा साहब को दबाने का सामर्थ्य इस पृथ्वी पर किसको है ? माँ जगदंबा उनकी सहायक हैं। काली का पत्र मिला है। काश्मीर में यदि कोई केंद्र स्थापित कर सको, तो बहुत ही अच्छा कार्य होगा। जहाँ भी हो सके, एक केंद्र स्थापित करो।— अब यहाँ पर तथा इंग्लैंड में मैं अपनी दृढ़ भित्ति स्थापित कर चुका हूँ, किसकी ताक़त है कि उसे हिला सके ! न्यूयार्क तो इस बार उन्मत्त हो उठा है ! अगली गर्मी में लंदन को आलोड़ित करना है। बड़े बड़े दिग्गज बह जायेंगे। छोटे-मोटे की तो बात ही क्या है ! तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे। अभी तो केवल मात्र प्रारंभ ही है, मेरे बच्चों। अपने देश में क्या 'मनुष्य' हैं? वह तो श्मशान सदृश है। यदि निम्न श्रेणी के लोगों को शिक्षा दे सको, तो कार्य हो सकता है। ज्ञानबल से बढ़कर और क्या बल है ! क्या उन्हें शिक्षित बना सकते हो ? बड़े आदमियों ने कब किस देश में किसका उपकार किया है ? सभी देशों में मध्यमवर्गीय लोगों ने ही महान कार्य किए हैं। रुपये मिलने में क्या देर लगती है ? मनुष्य मिलते कहाँ है ? अपने देश में ऐसे ‘मनुष्य' कहाँ है ? अपने देश के रहनेवाले बालक जैसे हैं, उनके साथ बालक की तरह व्यवहार करना होगा। उनकी बुद्धि दस वर्ष की लड़की के साथ विवाह करके एकदम ख़त्म हो चुकी है। किसी के साथ विवाद न कर हिल-मिलकर अग्रसर हो-—यह दुनिया भयानक है, किसी पर विश्वास नहीं है। डरने का कोई कारण नहीं है, माँ मेरे साथ है-—इस बार ऐसे कार्य होंगे कि तुम चकित हो जाओगे। भय किस बात का ? किसका भय ? वज्र जैसा हृदय बनाकर कार्य में जुट जाओ। किमधिकमिति— सस्नेह तुम्हारा, विवेकानंद पुनश्च—-सारदा एक बंगाली पत्रिका प्रकाशित करने की बात कर रहा है। अपनी संपूर्ण शक्ति के साथ इसमें मदद देना। यह कोई बुरा विचार नहीं है। किसीको उसकी योजनाओं में हतोत्साह नहीं करना चाहिए। आलोचना की प्रवत्ति का पूर्णतः परित्याग कर दो। जब तक वे सही मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं, तब तक उनके कार्य में सहायता करो; और जब कभी तुमको उनके कार्य में कोई गलती नज़र आये, तो नम्रतापूर्वक ग़लती के प्रति उनको सजग कर दो। एक दूसरे की आलोचना ही सब दोषों की जड़ है। किसी भी संगठन को विनष्ट करने में इसका बहुत बड़ा हाथ है। (स्वामी रामकृष्णानंद को लिखित) ॐ नमो भगवते श्री रामकृष्णाय संयुक्त राज्य अमेरिका, १८९५ कल्याणीय, कल तुम्हारा पत्र मुझे मिला, जिसमें समाचार कुछ अल्प अंश में था, परंतु सविस्तर वर्णन किसी चीज़ का नहीं था। मैं पहले से बहुत अच्छा हूँ। ईश्वर की कृपा से इस वर्ष के विकट शीत से मैं सुरक्षित हूँ। अरे, यहाँ की भयंकर ठंड। परंतु वैज्ञानिक ज्ञान से ये लोग इसे सब दबाकर रखते हैं। हर मकान में ज़मीन के नीचे एक तलघर होता है, जहाँ एक बहुत बड़ा पानी उबालने का पात्र है, वहाँ की भाप को दिन-रात हर कमरे में प्रवेश कराया जाता है। इस प्रकार कमरे गर्म रहते हैं, परंतु इसमें एक दोष है, वह यह कि घरों के अंदर यद्यपि ग्रीष्म ऋतु होती है, परंतु बाहर शून्य से तीस-चालीस डिग्री नीचे पारा रहता है। इस देश के अधिकांश धनवान शीतकाल में यूरोप-जो कि यहाँ की तुलना में गर्म रहता है—चले जाते हैं। अब मैं तुम्हें कुछ उपदेश देता हूँ। यह पत्र विशेष रूप से तुम्हारे लिए है। कृपया प्रतिदिन इसे एक बार पढ़ना और इसे व्यवहार में लाना। मुझे सारदा का पत्र मिला, वह अच्छा काम कर रहा है, परंतु अब हमें संगठन की आवश्यकता है। उसे, तारक दादा को, तथा औरों को मेरा विशेष प्रेम और आशीष कहना। तुम्हें इन थोड़े से आदेशों को देने का मुख्य कारण यह है कि तुममें संगठन की शक्ति है-ईश्वर ने मुझे यह दिखलाया है-—परंतु उसका अभी पूर्ण विकास नहीं हुआ है। ईश्वर की कृपा से वह शीघ्र ही हो जाएगा। तुम अपना संतुलन केंद्र (centre of gravity) कभी नहीं खोते , यही उसका प्रमाण है; परंतु गंभीर और उदार, दोनों होना चाहिए। १. सब शास्त्रों का कथन है कि संसार में जो त्रिविध दुःख हैं, वे नैसर्गिक नहीं है, और वे दूर किए जा सकते हैं। २. बुद्ध अवतार में भगवान कहते हैं कि इस आधिभौतिक दुःख का कारण भेद ही है; अर्थात् जन्मगत, गुणगत या धनगत-—सब तरह का भेद इन दुःखों का कारण है। आत्मा में लिंग, वर्ण या आश्रम या इस प्रकार का कोई भेद नहीं होता, और जैसे कीचड़ के द्वारा कीचड़ नहीं धोया जाता, इसी तरह से भेदभाव से अभेद की प्राप्ति होनी असंभव है। ३. कृष्ण अवतार में वे कहते हैं कि सब दुःखों का मूल अविद्या है और निष्काम कर्म चित्त को शुद्ध करता है। परंतु किं कर्म किमकर्मेति आदि; 'कर्म क्या है और अकर्म क्या है', इसका निर्णय करने में महात्मा भी भ्रम में पड़ जाते हैं। (गीता) ४. जिस कर्म के द्वारा इस आत्मभाव का विकास होता है, वही कर्म है। और जिसके द्वारा अनात्मभाव का विकास होता है, वही अकर्म है। ५. अतएव कर्म या अकर्म का निर्णय व्यक्तिगत, देशगत और कालगत परिस्थिति के अनुसार होना चाहिए। ६. यज्ञ आदि कर्म प्राचीन काल में उपयोगी थे। परंतु वे वर्तमान काल के लिए वैसे नहीं हैं। ७. रामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि से सत्य युग का आरंभ हुआ है।... ८. रामकृष्ण अवतार में नास्तिकतारूप म्लेच्छनिवह ज्ञानरूपी तलवार से नष्ट होंगे, और संपूर्ण जगत् भक्ति और प्रेम से एक सूत्र में बंध जाएगा। साथ ही, इस अवतार में रजस् अर्थात् नाम-यश आदि की इच्छा का सर्वथा अभाव है। दूसरे शब्दों में, उसका जीवन धन्य है, जो इस अवतार के उपदेश को व्यवहार में लाये, चाहे वह उन्हें (इस अवतार को) स्वयं माने या न माने। ९. आधुनिक या प्राचीन समय के विविध संप्रदायों के संस्थापक अनुचित्त मार्ग पर न थे। उन्होंने अच्छा किया, परंतु उससे और भी अच्छा करना है। कल्याण-तर-तम। १०. इसलिए जो जिस स्थान पर है, वही उसे ग्रहण करना होगा, अर्थात् उसके इष्ट के भाव में आघात न कर उसे उच्चतर भाव में ले जाना होगा। जो इस समय की सामाजिक परिस्थिति है, वह अच्छी है, पर उसे उत्कृष्टतर से उत्कृष्टतम बनाना होगा। ११. स्त्रियों की अवस्था को बिना सुधारे जगत् के कल्याण की कोई संभावना नहीं है। पक्षी के लिए एक पंख से उड़ना संभव नहीं है। १२. इस कारण रामकृष्ण-अवतार में 'स्त्री-गुरु' को ग्रहण किया गया है, इसीलिए उन्होंने स्त्री के रूप और भाव में साधना की और इस कारण ही उन्होंने जगज्जननी के रूप का दर्शन नारियों के मातृ-भाव में करने का उपदेश दिया। १३. इसलिए मेरा पहला प्रयत्न स्त्रियों के मठ को स्थापित करने का है। इस मठ से गार्गी और मैत्रेयी और उनसे भी अधिक योग्यता रखनेवाली स्त्रियों की उत्पत्ति होगी।— १४. चालाकी से कोई बड़ा काम पूरा नहीं हो सकता। प्रेम, सत्यानुराग और महान वीर्य की सहायता से सभी कार्य संपन्न होते हैं। तत् कुरु पौरुषम, इसलिए पुरुषार्थ को प्रकट करो। १५. किसी से लड़ने-झगड़ने की आवश्यकता नहीं है। Give your message, leave others to their own thoughts. (अपना संदेश दे दो तथा दूसरों को उनके भाव के साथ रहने दो।) सत्यमेव जयते नानतम्—-'सत्य की ही जय होती है, असत्य की नहीं'; तदा किं विवादेन-—'तब विवाद से क्या प्रयोजन ?' ...गंभीरता के साथ शिशु-सरलता को मिलाओ। सबके साथ मेल से रहो। अहंकार के सब भाव छोड़ दो और सांप्रदायिक विचारों को मन में न लाओ। व्यर्थ विवाद महापाप है। —सारदा के पत्र से मालूम हुआ कि न-—घोष ने मेरी ईसा मसीह आदि से तुलना की है। हमारे देश में इस प्रकार की बातें चल सकती हैं, परंतु यदि तुम यहाँ ऐसा छपवाकर भेजो, तो मेरी निंदा होने की संभावना है ! तात्पर्य यह है कि मैं किसीके विचार की स्वतंत्रता में बाधा नहीं डालना चाहता क्या मैं मिशनरी हूँ ? यदि काली ने वे पत्र अमेरिका न भेजे हों, तो उससे कह दो कि न भेजे। केवल अभिनंदन-पत्र पर्याप्त होगा—कार्यवाहियों के विवरण की आवश्यकता नहीं। इस देश के बहुत से माननीय स्त्री-पुरुष मुझे पूज्य मानते हैं। ईसाई मिशनरी और उनके जैसे दूसरे लोगों ने मुझे गिराने का भरसक प्रयत्न किया, परंतु अपना यत्न निष्फल समझकर अब चुप बैठे हैं। प्रत्येक कार्य को अनेक विघ्न-बाधाएँ पार करनी पड़ती है। शांति के मार्ग पर चलने से ही सत्य की विजय होती है। श्री हडसन ने मेरे विरुद्ध कुछ कहा था, उसका उत्तर देने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं। पहले तो ऐसा करना अनावश्यक है, दूसरे, मैं श्री हडसन और उनके समान मनुष्यों की श्रेणी में अपने को गिरा लँगा। क्या तुम पागल हो ? एक श्री हडसन से क्या मैं यहाँ से लड़गा? परमात्मा की कृपा से श्री हडसन से कहीं ऊँची श्रेणी के मनुष्य आदर के साथ मेरी बात सुनते हैं। कृपया समाचारपत्र इत्यादि अब मेरे पास न भेजो। जो सब बातें भारत में चल रही हैं, उन्हें चलने दो, इससे कोई हानि नहीं होगी। कुछ समय तक ईश्वरीय कार्य के हेत समाचारपत्रों में ऐसी हलचल अच्छी थी। जब वह संपन्न हो गया, तब फिर उसकी आवश्यकता नहीं रही।—नाम और यश के साथ चलनेवाले दोषों में से यह भी एक दोष है कि कोई बात गुप्त नहीं रह सकती।—किसी नये कार्य को आरंभ करने से पहले श्री रामकृष्ण से प्रार्थना करो और वे तुम्हें उत्तम मार्ग दिखायेंगे। आरंभ में हमें एक बड़ा भू-भाग चाहिए, फिर इमारत आदि सब कुछ हो जाएगा, धीरे-धीरे हमारा मठ अपना निर्माण स्वयं करेगा, उसकी चिंता न करो।—काली तथा औरों ने अच्छा काम किया है। सबको मेरा स्नेह और शुभेच्छाएँ कहना। मद्रास के लोगों के साथ मिलकर काम करना, और तुममें से कोई एक वहाँ समय समय पर जाते रहना। नाम, यश और अधिकार की इच्छा सदा के लिए त्याग दो। जब तक मैं पृथ्वी पर हूँ, श्री रामकृष्ण मेरे माध्यम से काम कर रहे हैं। जब तक तुम इस पर विश्वास रखते हो, तुम्हें किसी बात का भय नहीं हो सकता। 'रामकृष्ण-पोथी' (बांग्ला कविता में श्री रामकृष्ण का जीवन), जो अक्षय ने मुझे भेजी, वह बहुत अच्छी है, परंतु उसके आरंभ में 'शक्ति' की स्तुति नहीं है, यह उसमें बड़ा दोष है। उससे कहो कि दूसरे संस्करण में इस दोष को दूर कर दे। हमेशा याद रखो कि अब हम संसार की दृष्टि के सामने खड़े हैं और लोग हमारे प्रत्येक काम और वचन का निरीक्षण कर रहे हैं। यह स्मरण रखकर काम करो। अपने मठ के लिए कोई स्थान देखते रहना।— यदि कलकत्ते से कुछ दूर हो, तो कोई हानि नहीं। जहाँ कहीं भी हम मठ बनायेंगे, वहीं पर हलचल मचेगी। महिम चक्रवर्ती के बारे में सुनकर प्रसन्न हुआ। मैं देखता हूँ कि ऐन्डीज़ पर्वत में गयाक्षेत्र बन गया है ! वह कहाँ है ? उसे, श्री विजय गोस्वामी और हमारे मित्रों को मेरा स्नेहमय नमस्कार कहना।— शत्रु को पराजित करने के लिए ढाल तथा तलवार की आवश्यकता होती है। इसलिए अंग्रेज़ी और संस्कृत का अध्ययन मन लगाकर करो। काली की अंग्रेज़ी दिन-प्रतिदिन उन्नति कर रही है और सारदा की कमज़ोर होती जा रही है। सारदा से कहो कि आलंकारिक पद्धति का त्याग करे। परदेशी भाषा में आलंकारिक पद्धति में लिखना अति कठिन है। उसे मेरी ओर से लाखों शाबाशियाँ कहना ! -वही मर्द का काम। सतम सबने बहुत अच्छा किया। शाबाश बच्चों! आरंभ अत्यंत शानदार है। इसी तरह से चले चलो। यदि ईर्ष्या-सर्प न आ जाए, तो कोई भय नहीं-माभैः ! मद्भक्तानाञ्च ये भक्तास्ते में भक्ततमा मता:—'जो मेरे भक्तों की सेवा करते हैं, वे मेरे सर्वोत्तम भक्त हैं। तुम सब लोग कुछ गंभीर हो जाओ। मैं अभी हिंदू धर्म पर कोई पुस्तक नहीं लिख रहा हूँ, परंतु मैं अपने विचारों को संक्षेप में लिख रहा हूँ। प्रत्येक धर्म एक अभिव्यक्ति है, एक ही सत्य को प्रकाशित करने की मानो एक भाषा है और हमें हर एक से उसीकी भाषा में बात करनी चाहिए। सारदा ने इसे ठीक समझ लिया है, यह अच्छा है। हिन्द धर्म का निरीक्षण करने के लिए बाद में काफ़ी समय निकल आयेगा तम समझते हो कि यदि मैं हिंदू धर्म की चर्चा करूँगा, तो इस देश के लोग बहुत आकृष्ट होंगे? भावों की संकीर्णता का नाम ही उन्हें दूर भगा देगा। जो वास्तविक चीज़ है, वह है धर्म, जिसका उपदेश श्री रामकृष्ण ने दिया था-हिंदू, चाहे उसे हिंदू धर्म कहें और दूसरे, अपनी इच्छा के अनुकूल किसी और नाम से पुकारें। तुम्हें केवल धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए, शनैः पंथा:—'यात्रा धीरे-धीरे करनी चाहिए।' दीनानाथ से, जो अभी नया आया है, मेरा आशीर्वाद कहना। मुझे लिखने को बहुत कम समय मिलता है-हमेशा व्याख्यान ! व्याख्यान !! व्याख्यान !!! पवित्रता, धीरज, और निरंतर उद्योग। —अधिक संख्या में आजकल जो लोग श्री रामकृष्ण के उपदेशों की ओर ध्यान दे रहे हैं, उनसे कुछ हद तक आर्थिक सहायता की प्रार्थना करो। यदि वे सहायता नहीं करेंगे, तो मठ का निर्वाह कैसे हो सकता है ? सबसे यह स्पष्ट कहने में तुम्हें लज्जा नहीं मालूम होनी चाहिए।— इस देश से शीघ्र ही लौटने में कोई लाभ नहीं है। पहली बात यह कि यहाँ पर किए हुए क्षीण शब्द से भी वहाँ पर प्रतिध्वनि बहुत अधिक होगी। फिर यहाँ के लोग अति धनवान हैं और देने का भी साहस रखते हैं। जहाँ कि हमारे देश के लोगों के पास न तो धन है और न साहस की किञ्चिन्मात्रा ही। तुम्हें धीरे-धीरे सब मालम हो जाएगा। क्या श्री रामकृष्ण केवल भारत के उद्धारक ही थे ? इस संकीर्ण भाव ने ही भारतवर्ष का नाश किया है, और उसका कल्याण असंभव है, जब तक यह भाव जड़ से न निकाला जाएगा। यदि मेरे पास धन होता, तो मैं तुम में से प्रत्येक को सारे संसार में भ्रमण करने के लिए भेजता। कोई भी महान विचार किसी के हृदय में स्थान नहीं पा सकता है, जब तक कि वह अपने सीमित दायरे से बाहर न निकले। समय पाकर यह प्रमाणित होगा। प्रत्येक महान कार्य धीरे-धीरे होता है। यही परमात्मा की इच्छा है। तुम लोगों में से किसीने हरीश और दक्ष के विषय में क्यों नहीं लिखा ? यदि तुम उनके बारे में खोज-ख़बर रखोगे, तो मैं हर्षित होऊँगा। सान्याल दुःख का अनुभव कर रहा है, क्योंकि उसका मन अभी गंगाजल के समान निर्मल नहीं हुआ। अभी तक वह निःस्वार्थी नहीं है, परंतु समय पर हो जाएगा। यदि वह अपनी थोड़ी सी कुटिलता छोड़कर सीधा हो जाए, तो उसका दुःख भी मिट जाएगा। राखाल और हरि को मेरा विशेष प्रेम। उनकी ओर विशेष ध्यान देना।— यह कभी न भूलना कि राखाल श्री रामकृष्ण के प्रेम का विशेष पात्र था। किसी बात से तम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है ? यदि तुम अपनी अंतिम साँस भी ले रहे हो, तो भी न डरना। सिंह को शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो। इस वर्ष श्री रामकृष्ण का उत्सव धूम-धाम से मनाओ। खाना-पीना साधारण रखो-एकत्र लोगों को मिट्टी के पात्रों में प्रसाद बिना किसी नियम के बाँट दो। यह पर्याप्त होगा। श्री रामकृष्ण की जीवनी से पाठ होगा। वेद और वेदांत जैसी पुस्तकों को एक साथ रखकर उनकी आरती करो— पुरानी पद्धति के अनुसार निमंत्रण-पत्र मत भेजो। आमंत्रये भवन्तं साशीर्वाद भगवतो रामकृष्णस्य बहुमानपुरःसरञ्च— इस प्रकार की पंक्तियाँ लिखकर फिर श्री रामकृष्ण का जन्मोत्सव और मठ के निर्वाह के लिए उनकी सहायता मांगो। और यदि वे चाहें, तो अमुक नाम से, अमुक पते से रुपया भेज दें। एक पृष्ठ अंग्रेज़ी का भी जोड़ दो। 'लार्ड' श्री रामकृष्ण पद का कोई अर्थ नहीं है। उसे त्याग दो। अंग्रेज़ी अक्षरों में 'भगवान' लिखो और कुछ पंक्तियाँ अंग्रेज़ी की आगे लगा दो। जैसे— The Anniversary of Bhagavan Ramakrishna Sir, We have great pleasure in inviting you to join us in celebrating the — the anniversary of Bhagavan Ramakrishna Paramahansa. For the celebration of this great occasion and for the maintenance of the Alambazar Math, funds are absolutely neccessary. If you think that the cause is worthy of your sympathy, we shall be very grateful to receive your contribution to the great work. (Date) (Place) Yours obediently, (Name) भगवान श्री रामकृष्ण का जन्मोत्सव महाशय, भगवान, रामकृष्ण परमहंस के—-वें वार्षिकोत्सव को मनाने में सम्मिलित होने के लिए हम सहर्ष आपको आमंत्रित करते हैं। इस सुअवसर को मनाने के लिए और आलमबाज़ार मठ को चलाने के लिए धन की नितांत आवश्यकता है। यदि आप समझते हैं कि यह कार्य आपकी सहानुभूति के योग्य है, तो इस महान कार्य के संचालन के लिए हम कृतज्ञतापूर्वक आपका दान स्वीकार करेंगे। आज्ञापूर्वक आपका, (नाम) (तारीख) (स्थान) यदि तुम्हें आवश्यकता से अधिक धन मिले, तो उसमें से थोड़ा सा ही व्यय करो, और बचे हुए रुपये को मठ के खर्च के लिए संचित्त रखो। नैवेद्य चढाने के बहाने से लोगों को इतनी देर प्रतीक्षा न करवाओ कि वे अस्वस्थ हो जायें और फिर उन्हें बासी और स्वादहीन भोजन करना पड़े। दो फ़िल्टर बनवा लो और पकाने और पीने के लिए फ़िल्टर का पानी काम में लाओ। छानने से पहले पानी उबालं लो। यदि तुम ऐसा करोगे, तो मलेरिया का नाम तक नहीं सुनोगे। सबके स्वास्थ्य की ओर खूब ध्यान दो। यदि तुम ज़मीन पर लेटना छोड़ सकते हो अर्थात् यदि तुम्हें ऐसा करने के लिए पर्याप्त धन मिल सकता है, तो अति उत्तम होगा। रोग के मुख्य कारण गंदे कपड़े होते है।— मैं तुमसे कहता हूँ कि नैवेद्य के लिए थोड़ा सा पायसान्न ही पर्याप्त होगा। उन्हें केवल वही प्रिय था। यह सत्य है कि पूजागृह से बहुत से लोगों को सहायता मिलती है, परंतु राजसिक और तामसिक भोजन करना उचित्त नहीं। विधियों को कुछ कम करके गीता या उपनिषद् या शास्त्रों के अध्ययन को कुछ स्थान दो। मेरा मतलब यह है-भौतिकता को कम से कम कर दो और आध्यात्मिकता को अधिक से अधिक मात्रा में बढ़ा दो।— श्री रामकृष्ण क्या किसी व्यक्ति-विशेष के लिए आये थे या संसार के लिए ? यदि संसार के लिए, तो उनके जीवन का इस तरह दिग्दर्शन प्रस्तुत करो कि सारा संसार उन्हें समझ सके। You must not identify yourself with any life of Him written by anybody, nor give your sanction to any. (किसी अन्य व्यक्ति द्वारा लिखित श्री रामकृष्ण के जीवन-चरित्र से तुम अपना नाम किसी प्रकार संबंधित न करना और न अपनी स्वीकृति ही किसी ऐसे ग्रंथ के लिए देना)। इन जीवन-चरित्रों के साथ हम लोगों का नाम न जुड़ा रहना चाहिए, बस, फिर कोई हर्ज नहीं। 'सुनिए सबकी-करिए मन की।' — महेन्द्र बाबू ने हमारी सहायता करके कृपा की, इसके लिए उन्हें सहस्रों बार धन्यवाद। वे बड़े उदारहृदय व्यक्ति हैं— सान्याल यदि अपना काम ध्यान से करेगा अर्थात श्री रामकृष्ण की संतान की केवल सेवा, तो वह सर्वोत्तम कल्याण को प्राप्त करेगा।— तारक दादा बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। शाबाश ! बहुत अच्छा ! यही हम चाहते हैं। अनेक पुच्छल तारों की तरह मैं तुम लोगों को उज्ज्वल एवं प्रभावशाली देखना चाहता हूँ। गंगाधर क्या कर रहा है ? राजपूताने के कुछ ज़मींदार उसका आदर करते हैं। उससे कहो कि वह भिक्षा-रूप में लोकसेवा के लिए उनसे कुछ धन ले; तभी तो बात है। अभी मैंने अक्षय की पुस्तक पढ़ी। मेरी ओर से उसे कोटिशः स्नेहमय आलिंगन। उसकी लेखनी से श्री रामकृष्ण अभिव्यक्त हो रहे हैं। धन्य है अक्षय! उसे उस 'पोथी' का पाठ सबके सामने करने दो। उत्सव के दिन उसे सबके सामने कुछ पाठ करना चाहिए। यदि पुस्तक बहुत बड़ी हुई, तो उसे उसका कुछ विशेष भाग पढ़ने दो। उसमें मैं एक भी असंबद्ध शब्द नहीं पाता हूँ। उस किताब के पढ़ने से मुझे जो आनंद हुआ है, उसका मैं शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता। तुम सब यत्न करके उसका बहुत अधिक विक्रय करवाओ। फिर अक्षय से कहो कि गाँव-गाँव जाकर प्रचार करे। शाबाश अक्षय ! वह प्रभु का काम कर रहा है। गाँव-गाँव जाकर श्री रामकृष्ण के उपदेश की घोषणा करो। इससे अधिक सौभाग्य का विषय और क्या हो सकता है ? मैं कहता हूँ कि स्वयं अक्षय और उसकी पुस्तक, दोनों को जनता में एक प्रकार का विद्युत्संचार कर देना चाहिए। प्रिय, प्रिय अक्षय, मैं हृदय से तुम्हें आशीष देता हूँ। मेरे प्यारे भाई! भगवान तुम्हारी जिह्वा पर विराजमान रहे। जाओ, द्वार-द्वार उनका उपदेश सुनाओ। तुम्हें संन्यासी बनने की कोई आवश्यकता नहीं है।— बंगाल की जनता के लिए भविष्य में अक्षय ईश्वरीय दूत होगा। अक्षय का खयाल रखना। उसकी भक्ति और श्रद्धा फलवती हुई है। अक्षय से कहना कि अपनी पुस्तक के द्वितीय भाग 'धर्म-प्रचार' में वह निम्नलिखित बातें लिखे: १. वेद-वेदांत तथा अन्य अवतारों ने जो भूतकाल में किया, श्री रामकृष्ण ने उन सबकी साधना एक ही जीवन में कर डाली। २. वेद-वेदांत, अवतार और इस प्रकार की अन्य बातों को कोई तब तक समझ नहीं सकता, जब तक वह उनके जीवन को न समझें; क्योंकि वही उन सब विषयों की व्याख्या है। ३. उनके जन्म की तिथि से ही सत्ययुग आरंभ हुआ है। इसलिए अब सब प्रकार के भेदों का अंत है और सब लोग चांडाल सहित उस दैवी प्रेम के भागी होंगे। पुरुष और स्त्री, धनी और दरिद्र, शिक्षित और अशिक्षित, ब्राह्मण और चांडाल इन सब भेद-भावों को समूल नष्ट करने के लिए उनका जीवन व्यतीत हुआ था। वे शांति के दूत थे—हिंदू और मुसलमानों का भेद, हिंदू और ईसाइयों का भेद सब भूतकालीन हो गए हैं। मान-प्रतिष्ठा के लिए जो झगड़े होते थे, वे सब अब दूसरे युग से संबंधित हैं। इस सत्ययुग में श्री रामकृष्ण के प्रेम की विशाल लहर ने सबको एक कर दिया है। उससे कहो कि इन विचारों को वह विस्तारपूर्वक अपनी शैली में लिखे। जो कोई—पुरुष या स्त्री—श्री रामकृष्ण की उपासना करेगा, वह चाहे कितना ही पतित क्यों न हो, तत्काल ही उच्चतम में परिणत हो जाएगा। एक बात और है, इस अवतार में परमात्मा का मातृभाव विशेष स्पष्ट है। वे स्त्रियों के समान कभी कभी वस्त्र पहनते थे—वे मानो हमारी जगन्माता जैसे ही थे—इसलिए हमें सब स्त्रियों को उस जगन्माता की ही मूर्तियाँ माननी चाहिए। भारत में दो बड़ी बरी बातें हैं। स्त्रियों का तिरस्कार और ग़रीबों को जाति-भेद के द्वारा पीसना। वे स्त्रियों के रक्षक थे, जनता के रक्षक थे, ऊँच और नीच सबके रक्षक थे। अक्षय उनकी उपासना सब घरों में प्रचलित कर दे, चाहे ब्राह्मण हो या चांडाल, पुरुष हो या स्त्री-सबको उनकी पूजा का अधिकार है। जो प्रेम से उनकी पूजा करेगा, उसका सदा के लिए कल्याण हो जाएगा। उससे कहना कि वह इस पद्धति से लिखे। वह किसी बात की चिंता न करे। भगवान उसके साथ रहेगा। किमधिकमिति। नरेन्द्र पुनश्च–—सान्याल से कहना कि नारद और शांडिल्य सूत्र की एक एक प्रति और एक योगवासिष्ठ की प्रति, जिसका अनुवाद अभी कलकत्ते में हुआ है, मुझे भेजे। मुझे योगवासिष्ठ का अंग्रेज़ी अनुवाद चाहिए, बांग्ला संस्करण नहीं।—" (स्वामी ब्रह्मानंद को लिखित) द्वारा ई० टी० स्टर्डी, कैवरशम, रीडिंग, इंग्लैंड, १८९५ अभिन्नहृदय, सान्याल तथा तुम्हारे पत्र से सब समाचार विदित हुए। तुम लोगों के, विशेषकर तुम्हारे पत्रों में दो त्रुटियाँ रहती है। प्रथम तो यह कि जिन आवश्यक कार्यों के बारे में मैं पूछता हूँ, उनमें से प्रायः किसी का भी जवाव नहीं मिलता और द्वितीय यह कि पत्र के जवाब देने में अत्यंत विलंब हो जाता है। तुम तो भाई, घर में बैठे हुए हो और मुझे इस विदेश में रोटी की चिंता करनी पड़ती है, साथ ही दिनरात परिश्रम; और फिर लटू की तरह चक्कर लगाना।—अब मैं यह अच्छी तरह समझ रहा हूँ कि मुझे अकेले ही कार्यक्षेत्र में अग्रसर होना पड़ेगा।— शशि यद्यपि सबसे अधिक उपयुक्त है, फिर भी तुम लोग केवल मात्र इसी उधेड़बुन में लगे हुए हो कि उसके लिए अकेला आना संभव है या नहीं। अत्यंत विलासितापूर्ण जीवन-यापन करनेवाले बाबुओं के ये देश हैं, किसी व्यक्ति के नख के भी किसी कोण में मैल रहने पर कोई उसे स्पर्श तक नहीं करता। यदि शरत् आने के लिए तैयार न हो, तो सारदा को भेजना अथवा मद्रास पत्र लिखकर वहाँ से किसी को भेजने की व्यवस्था करना। मुझे यह लिखे हुए प्रायः दो महीने के क़रीब बीत गए। तारक दादा ने अपने हाल के पत्र में लिखा है कि इसके आगे की डाक में उक्त विषय का पूरा विवरण भेजा जाएगा। किंतु यह प्रतीत होता है कि अभी तक उस बारे में कोई निर्णय नहीं हो पाया है। मुझे यह आशा थी कि यहाँ मेरे रहते रहते कोई न कोई आ पहुँचेगा, किंतु अभी तक तो कोई निर्णय ही नहीं हो पाया और समाचार भी कोई दो वर्ष में एकाध मिलता है। Business is business काम-काज तत्पर होकर करना चाहिए, ढुलमुल नीति से नहीं। अगले सप्ताह के अंत में मेरा अमेरिका जाना निश्चित है। अतः चाहे जो कोई भी आये, उससे भेंट होने की कोई आशा नहीं है। इन देशों में बड़े बड़े विद्वान निवास करते हैं। ऐसे मनुष्यों को शिष्य बनाना क्या मज़ाक़ है ? तुम लोग केवल बच्चे हो एवं बच्चों की तरह बातें करते हो। गिरीश बाब मेरे कार्य में कैसे सहायता कर सकते है ? मैं चाहता हूँ, जो संस्कृत जानता हो अर्थात् पुस्तकादि अनुवाद करने में स्टर्डी की सहायता कर सके, मेरी अनुपस्थिति में स्टर्डी के साथ पुस्तकादि अनुवाद करे, बस इतना ही मैं चाहता हूँ। इससे अधिक आशा मैं नहीं करता।— इतनी ही मात्र आवश्यकता है, मेरी अनुपस्थिति में थोड़ा-बहुत संस्कृत पढ़ा सके तथा अनुवाद-कार्य में सहायता दे सके-बस, इससे अधिक और कुछ नहीं। गिरीश बाबू को इन देशों का भ्रमण क्यों नहीं करने दिया जाए, यह तो अच्छी बात है। इंग्लैंड तथा अमेरिका भ्रमण के लिए ३०००) रुपये मात्र चाहिए। जितने अधिक व्यक्ति यहाँ आयें, उतना ही अच्छा है। किंतु उन टोपधारी नक़ली साहबों को देखकर हृदय में जलन होने लगती है। भूत जैसे काले-फिर भी साहब ! भद्र पुरुष की तरह देशी वेश-भूषा धारण न कर जानवर बने फिरते हैं। अस्तु, यहाँ पर सब कुछ खर्च ही खर्च है, आमदनी एक पैसे की भी नहीं। स्टर्डी ने मेरे लिए बहुत कुछ ख़र्च किया है। यहाँ पर भाषण के लिए अपने यहाँ की तरह उल्टा गाँठ से ख़र्च करना पड़ता है। किंतु कुछ दिन तक क्रम को जारी रखने पर तथा प्रख्याति होने के बाद खर्चे की समस्या हल हो जाती है। प्रथम वर्ष अमेरिका में जो कुछ मुझे मिला है, (उसके बाद मैंने एक पैसा भी नहीं लिया है) वह भी प्रायः खत्म होने आया है। केवल अमेरिका लौटने लायक़ ही धन अवशिष्ट है। निरंतर इधर-उधर भ्रमण कर भाषण देने के फलस्वरूप मेरा शरीर अशक्त हो चुका है-प्रायः नींद नहीं आती, आदि। तदुपरि अकेला हूँ। अपने देशवासियों के बारे में मैं क्या कहँ ? अब तक एक पैसा देकर न तो किसी ने मेरी कोई सहायता की है और न कोई सहायता प्रदान करने के लिए आगे बढ़ा है। इस संसार में सब कोई सहायता चाहते हैं और जितनी सहायता की जाती है, उतनी ही आकांक्षा बढ़ती जाती है। और यदि उसकी पूर्ति करने में तुम असमर्थ हो, तो तुम चोर ठहराये जाते हो। —जो कुछ लिखना हो, स्टर्डी को लिखना, किसको तुम भेजना चाहते हो—जब कि किसी विषय के निर्णय के लिए तुम्हें एक युग का समय चाहिए। शशि पर मुझे विश्वास है, मैं उसे चाहता हूँ। He is the only faithful and true man there. (वहाँ पर वही एकमात्र विश्वस्त तथा सच्चा व्यक्ति है।) उसकी बीमारी-फीमारी सब कुछ प्रभु-कृपा से ठीक हो जाएगी। उसकी सारी जिम्मेवारी मुझे पर है।— इति। विवेकानंद (स्वामी श्री रामकृष्णानंद को लिखित) द्वारा ई०टी० स्टर्डी, हाई व्यू, कैवरशम, रीडिंग, इंग्लैंड १८९५ प्रिय शशि, तुम्हारा पत्र, चूनी बाबू का पत्र और सान्याल का पत्र पहले ही मिले। आज राखाल का पत्र मिला। राखाल को गुर्दे की बिमारी (Gravel) से तकलीफ़ उठानी पड़ी, यह जानकर मुझे दुःख हुआ। शायद पाचन-क्रिया की गड़बड़ी से ऐसा हुआ होगा। गोपाल का ऋण-परिशोध हो चुका है। अब उसे अपना मूड़ मुड़ा लेने को कहना। मरने पर भी सांसारिक बुद्धि दूर नहीं होती।— मठ में आकर वह काम-काज करता रहे। संसार में बहुत अधिक समय तक लिप्त रहने से दुर्बद्धि का होना स्वाभाविक है। यदि वह संन्यास मार्ग को अपनाना न चाहे, तो उससे जगह खाली कर देने को कहना। दो नावों में पैर रखनेवाले व्यक्ति को मैं नहीं चाहता हूँ—ऐसे मनुष्य जो आधे तो संन्यासी है और आधे गृहस्थ। लॉर्ड (Lord) रामकृष्ण परमहंस—हरमोहन की मनगढंत बात है। लार्ड (Lord) से उसका तात्पर्य क्या है—English Lord अथवा Duke ? राखाल से कहना कि लोग जो भी कुछ क्यों न कहें, उधर ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं है। वे लोग तो कीड़े जैसे हैं, नितांत नगण्य हैं। किसी प्रकार की वंचना की भावना तुम लोगों में नहीं रहनी चाहिए तथा कपटता की ओर तुम पैर न रखना। मैं अपने को कट्टरपंथी पौराणिक अथवा निष्ठावान (छुआछूत माननेवाला) हिंदू कब मानता था? I do not pose as one. (मैं अपने को इस प्रकार जाहिर तो नहीं करता हूँ।)—लोग क्या कहते हैं या नहीं कहते हैं, उस ओर ध्यान देने की आवश्यकता ही क्या है ? वहाँ तो बारह वर्ष की लड़की को संतान होती है। जिनके आविर्भाव से देश पवित्र बन गया, उनके लिए एक कौड़ी का कार्य तो हुआ नहीं और फिर लंबी-चौड़ी बातें हाँकते है। भाई, यह बिल्कुल ही ध्यान देने योग्य बात नहीं है कि ऐसे लोग क्या कहते है ? —राम राम ! जिन लोगों का रहन-सहन, आहार-बिहार, वेश-भूषा, खान-पान इत्यादि सब कुछ गंदे हैं और जिनकी केवल मात्र ज़बान ही सार है, ऐसे लोगों के कहने-सुनने से होता ही क्या है ? तुम अपना कार्य करते रहो। मनुष्य के मुंह की ओर क्यों ताकते हो, भगवान पर दृष्टि रखो। गीता, उपनिषदों के भाष्य आदि तो शब्दकोश की सहायता से शरत् इन लोगों को पढ़ा सकता है न ? अथवा केवल मात्र वैराग्य ही सार है ? वर्तमान समय में केवल मात्र वैराग्य से क्या कभी काम चल सकता है ? सबके लिए रामकृष्ण परमहंस बनना क्या संभव है ? संभवतः शरत् अब तक रवाना हो चुका होगा। एक पञ्चदशी, एक गीता (जितने अधिक भाष्य सहित प्राप्त हो सके), काशी से प्रकाशित नारद तथा शांडिल्य सूत्र, (सुरेश दत्त के छपे हुए ग्रंथ में इतनी अशुद्धियाँ हैं कि ठीक-ठीक अर्थ बोध भी नहीं हो पाता), पञ्चदशी का यदि कोई अच्छा अनुवाद मिले, तो उसकी एक प्रति तथा कालीवर वेदांतवागीशकृत शांकर भाष्य का अनुवाद एवं पाणिनि-सूत्र या काशिका-वत्ति अथवा महाभाष्य का यदि कोई बांग्ला या अंग्रेज़ी अनुवाद (इलाहाबाद के श्रीश बाबू कृत) मिले, तो भेजना। अपने बंगालियों से मुझे वाचस्पत्य कोष की एक प्रति भेजने के लिए कहना, इससे बड़ी-बड़ी बातें बघारनेवालों की एक परीक्षा हो जाएगी। अंग्रेज़ों के देश में धर्मकर्म की गति बहुत ही धीमी है। ये लोग या तो कट्टरपंथी होते हैं अथवा नास्तिक। कट्टरपंथी लोगों में भी धर्म नाम मात्र का है, 'Patriotism (देश-प्रेम) ही हमारा धर्म है', बस, इतना ही मात्र वे मानते हैं। पुस्तकें अमेरिका के पते पर भेजना। मेरा अमेरिका का पता इस प्रकार है—द्वारा कुमारी फिलिप्स, १९ पश्चिम ३८ वाँ रास्ता, न्यूयार्क, संयुक्त राज्य अमेरिका। नवंबर के अंत तक मैं अमेरिका पहुँचूँगा, अतः पुस्तकें वहीं भेजना। यदि मेरे पत्र को देखते ही शरत् रवाना हो चुका हो, तब तो मुझसे उसकी भेंट हो सकती है, अन्यथा नहीं। Business is business (काम काम है।)—यह बच्चों का खेल नहीं है। स्टर्डी साहब उसे अपने घर पर लाकर रखेंगे तथा उसकी देख-भाल करेंगे। मैं तो अब की बार साधारणतया यहाँ की परिस्थिति जानने के लिए इंग्लैंड आया हूँ; अगली गर्मी में आकर कुछ अधिक हलचल मचाने का प्रयास करूंगा। तदनंतर अगले जाड़े में भारत जाना है। उन लोगों के साथ निरंतर पत्र-व्यवहार करते रहना, जो हममें दिलचस्पी लेते हों, ताकि उनका interest (उत्सुकता) नष्ट न होने पाये। समग्र बंगाल में जगह जगह केंद्र स्थापित करने का प्रयत्न करना। विशेष विवरण अगले पत्र में भेजूंगा। स्टर्डी साहब बहुत ही सज्जन तथा कट्टर वेदांती हैं, थोड़ा-बहुत संस्कृत भी समझ लेते हैं। बहुत कुछ परिश्रम करने पर तब कहीं इन देशों में थोड़ा-बहुत कार्य हो पाता है—बहुत ही कठिन काम है, ख़ासकर जाड़े के दिनों में, जब कि प्रायः ही वर्षा होती रहती है। इसके अलावा अपनी गाँठ से खर्च कर यहाँ काम करना पड़ता है। अंग्रेज़ लोग भाषण सुनने के लिए या इस प्रकार के विषयों में एक पैसा भी खर्च नहीं करते। यदि वे भाषण सुनने के लिए उपस्थित हों, तो बहुत ही सौभाग्य समझना चाहिए, उनकी स्थिति भी हमारे देशवासियों की सी है। साथ ही यहाँ के लोग अभी मुझे जानते भी नहीं हैं। और फिर भगवान आदि के नाम से तो वे भागने लगते हैं, उसका तात्पर्य वे यह हैं कि मैं भी संभवतः कोई दूसरा पादरी हूँ। तुम शांतिपूर्वक बैठकर एक कार्य करना-ऋग्वेद से लगाकर साधारण पुराण तथा तंत्रों में सृष्टि, प्रलय, जाति.. स्वर्ग, नरक, आत्मा, मन, बुद्धि, इंद्रिय, मुक्ति, संसार (पुनर्जन्म) आदि का जो वर्णन है, उसे एकत्र करते रहना। बच्चों जैसे खेल से कोई काम नहीं होता, मझे तो real scholarly work (पूरा पांडित्यपूर्ण काम) चाहिए। Material (उपादान) संग्रह करना ही मुख्य कार्य है। सबसे मेरी प्रीति कहना। इति। तुम्हारा, विवेकानंद (स्वामी ब्रह्मानंद को लिखित) १८९५ प्रिय राखाल, ...मेरे भारत लौट आने का तुम्हारा सुझाव निसंदेह ठीक है। किंतु इस देश में एक बीज बोया जा चुका है और मेरे अचानक यहाँ से चले जाने पर संभव है, उसका अंकुर पनप ही न पाये। इसलिए मुझे कुछ समय प्रतीक्षा करनी है। इसके अतिरिक्त तब यहाँ से प्रत्येक कार्य की सुंदर व्यवस्था करनी संभव होगी। प्रत्येक व्यक्ति मुझसे भारत लौटने का आग्रह करता है। यह ठीक है, किंतु क्या तुम नहीं अनुभव करते कि दूसरों के ऊपर निर्भर रहना बुद्धिमानी नहीं है। बुद्धिमान व्यक्ति को अपने ही पैरों पर दृढ़तापूर्वक खड़ा होकर कार्य करना चाहिए। धीरे-धीरे सब कुछ ठीक हो जाएगा। अभी तो किसी ज़मीन का पता लगाते रहना न भूलना। हमें लगभग दस से बीस हज़ार तक का बड़ा 'प्लाट' चाहिए। उसे ठीक गंगा तट पर होना चाहिए। यद्यपि मेरी पूँजी अल्प है, तथापि मैं अत्यधिक साहसी हैं। भूमि प्राप्त करने की बात ध्यान में रहे। अभी हमें तीन केंद्र चलाने होंगे—एक न्यूयार्क में, दूसरा कलकत्ता में और तीसरा मद्रास में। फिर धीरे-धीरे जैसी कि प्रभ व्यवस्था करेंगे... स्वास्थ्य पर तुम्हें विशेष ध्यान देना है, अन्य सभी बातें इसके अधीन हों। भाई तारक यात्रा के लिए उत्सुक हैं। यह अच्छी बात है परंतु ये देश बडे मँहगे हैं। एक उपदेशक को यहाँ कम से कम एक हज़ार रुपये मासिक की आवश्यकता पड़ती है। परंतु भाई तारक में साहस है और ईश्वर प्रत्येक चीज़ की व्यवस्था करता है। यह बिल्कुल सच है, पर उन्हें अपनी अंग्रेज़ी में कुछ सुधार करना आवश्यक है। सही बात यह है कि मिशनरी विद्वानों के मुंह से अपनी रोटी छीननी पड़ती है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को अपनी विद्वत्ता के आधार पर इन लोगों पर हावी होना पड़ता है। अन्यथा व्यक्ति एक ही फूँक में उड़ जाएगा। ये लोग न तो साधु समझते हैं और न संन्यासी, और न त्याग का भाव ही। जो बात ये समझते हैं, वह हैं विशाल अध्ययन, वक्तृत्व-शक्ति का प्रदर्शन और अथक क्रियाशीलता। और सर्वोपरि, सारा देश छिद्रान्वेषण की चेष्टा करेगा। पादरी चाहे शक्ति द्वारा, चाहे छल से दिन-रात तुम्हं् फटकार बतायेंगे। अपने सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए तुम्हें इन बाधाओं से मुक्ति पाना आवश्यक है। मातृकृपा से सब कुछ संभव है। किंतु मेरी राय में यदि भाई तारक पंजाब और मद्रास में कुछ संस्थाओं का स्थापन करता चले और तुम लोग संघबद्ध हो जाओ, तो यह सबसे अच्छी बात होगी। नये पथ की खोज निसंदेह एक बड़ी बात है, किंतु उस मार्ग को स्वच्छ और प्रशस्त और सुंदर बनाना उतना ही कठिन कार्य है। यदि तुम उन स्थानों में, जहाँ मैंने गुरुदेव के आदर्शों का बीज बोया है, कुछ समय तक रहो और बीजों को पैधों में विकसित करने में सफल होओ, तो तुम मेरी अपेक्षा कहीं अधिक कार्य करोगे। जो लोग एक बनी-बनायी चीज़ की व्यवस्था नहीं कर सकते, वे उस चीज़ के प्रति, जो अभी तक नहीं मिली, क्या कर सकेंगे? यदि तुम परोसी हुई थाली में थोड़ा नमक मिलाने में असमर्थ हो, तो मैं कैसे विश्वास करूं कि तुम सारे व्यंजन प्रस्तुत कर लोगे? इसके बदले भाई तारक अल्मोड़े में एक हिमालय मठ स्थापित करें तथा वहाँ एक पुस्तकालय चलायें, ताकि हम अपने अवकाश का कुछ समय एक ठंडे स्थान में बितायें और आध्यात्मिक साधना का अभ्यास करें। इतने पर भी किसी के द्वारा अंगीकृत किए गए मार्ग के विरुद्ध मुझे कुछ नहीं कहना है, वरन् ईश्वर कल्याण करे-—शिवा वः संतु पंथान:—'तुम्हारी यात्रा मंगलमय हो !' उसे किंचित् प्रतीक्षा करने के लिए कहो। शीघ्रता करने से क्या लाभ ? तुम सभी सारी दुनिया की यात्रा करोगे। साहस ! भाई तारक के भीतर कार्य करने की महान क्षमता है। अतः मैं उनसे बहुत आशा करता हूँ।— तुम्हें याद है कि श्री रामकृष्ण के निर्वाण के पश्चात् किस प्रकार सभी लोगों ने हमें कुछ निकम्मा और दरिद्र बालक समझकर हमारा परित्याग कर दिया था। केवल बलराम, सुरेश, मास्टर और चुनी बाबू, जैसे लोग ही आवश्यकता के उन क्षणों में हमारे मित्र थे। और, हम उनसे कभी उऋण नहीं हो सकते।—अकेले में चुनी बाबू से कहो कि उनके लिए कोई भय की बात नहीं है जिनकी रक्षा प्रभु करते हैं, उन्हें भय से परे होना चाहिए। मैं एक छोटा सा आदमी हूँ. परंतु प्रभु का ऐश्वर्य अनंत है। माभैः माभैः-भय छोड़ो। तुम्हारा विश्वास न हिले।—जिसे प्रभु ने अपना लिया है, क्या उसके लिए भय में कोई शक्ति है ? सदा तुम्हारा ही, विवेकानंद (खेतड़ी के महाराजा को लिखित) अमेरिका, ९ जुलाई, १८९५ ... मेरे भारत लौटने के बारे में बात इस प्रकार है। जैसा कि आप अच्छी तरह जानते हैं, मैं अपनी धुन का पक्का हूँ। मैंने इस देश में एक बीज बोया है, वह अभी पौधा बन गया है और मैं आशा करता हूँ कि शीघ्र ही वह वृक्ष हो जाएगा। मेरे दो-चार सौ अनुयायी हैं। मैं यहाँ कई संन्सासी बनाऊँगा, तब उन्हें काम सौंपकर भारत आऊँगा। जितना ही ईसाई पादरी मेरा विरोध करते हैं, उतना ही मैंने ठान लिया है कि मैं उनके देश में स्थायी चिह्न छोड़कर जाऊँगा।—इस समय तक लंदन में मेरे कुछ मित्र बन चुके हैं। मैं वहाँ अगस्त के आखिर तक जाऊँगा, इस शीतकाल में कुछ समय लंदन में और कुछ समय न्यूयार्क में बिताना होगा। फिर मैं भारत आने के लिए स्वतंत्र हो जाऊँगा। भगवान की कृपा हुई, तो इस सर्दी के बाद यहाँ काम चलाने के लिए पर्याप्त आदमी होंगे। हर काम को तीन अवस्थाओं में से गुज़रना होता है—उपहास, विरोध और स्वीकृति। जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है, लोग उसे निश्चय ही ग़लत समझते हैं। इसलिए विरोध और अत्याचार हम सहर्ष स्वीकार करते हैं; परंतु मुझे दृढ़ और पवित्र होना चाहिए और भगवान में अपरिमित विश्वास रखना चाहिए, तब ये सब लुप्त हो जायँगे।— विवेकानंद (श्रीमती विलिएम स्टारगीज़ को लिखित) सहस्रद्वीपोद्यान, २९ जुलाई (अगस्त?), १८९५ माँ, आपका जीवन गौरवोज्ज्वल हो। और मुझे विश्वास है-आप स्वस्थ और प्रसन्न हैं। आपने जो ५० डॉलर भेजे हैं, उनके लिए अनेकानेक धन्यवाद। इस रक़म से बड़ा काम निकला। हमारे दिन यहाँ कितने आनंद में बीते। डिट्रॉएट से यहाँ तक की यात्रा करके दो महिलाएँ हम लोगों के साथ रहने को आयीं। वे इतनी पवित्र और भली थीं कि क्या बताऊँ ? मैं सहस्रद्वीपोद्यान से डिट्रॉएट, उसके बाद शिकागो जा रहा हूँ। न्यूयार्क में हमारा क्लास चालू है और उन्होंने इसे बहत हिम्मत से जारी रखा है, हालाँकि मैं वहाँ नहीं था। बहरहाल, वे दोनों महिलाएँ-जो डिट्रॉएट से आयी है-क्लास में थीं। और दुर्भाग्यवश वे दुष्ट प्रेतात्माओं से बहुत भय खाती हैं। दुष्ट प्रेतात्मा अथवा शैतान का पता लगाने के लिए उन्हें एक टोटका सिखाया गया है। थोड़ा सा नमक जलते हुए अल्कोहल में डाल देते हैं यदि नीचे कोई काला पदार्थ जमा हो गया तो इसे दुष्ट आत्मा की उपस्थिति का संकेत माना जाता है। जो भी हो, भूत-प्रत का उन्हें बड़ा डर था। उनका विश्वास है कि भूत-प्रेत ससार के कण कण में विश्वब्रह्मांड में व्याप्त हैं। फादर लेगेट आपकी अनुपस्थिति से बहुत उदास होंगे; क्योंकि मुझे आज तक उनकी कोई चिट्ठी नहीं मिली है। इसलिए मैं उन्हें अब परेशान नहीं करता। जो जो चाची को समुद्र में तकलीफ़ हुई होगी। खैर, अंत भला तो सब भला। बच्चे-1 निश्चय ही जर्मनी-प्रवास का आनंद ले रहे होंगे। मेरा-जहाज़ भर प्यार उन्हें। हम सभी आपको प्यार भेजते हैं और आपके ऐसे जीवन की कामना करते हैं, जो आनेवाली पीढ़ियों के लिए मशाल का काम करे। आपका पुत्र, विवेकानंद (श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित) १९ पश्चिम ३८वाँ रास्ता, न्यूयार्क, ३० जुलाई, १८९५ प्रिय आलासिंगा, तुमने ठीक किया है। नाम तथा 'मोटो' (आदर्श-वाक्य) , दोनों ही ठीक हैं। व्यर्थ के समाज-सुधार में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं, पहले आध्यात्मिक सधार हए बिना समाज-सुधार नहीं हो सकता। तुमसे यह किसने कहा कि मैं समाज-सुधार चाहता हूँ ? मैं तो उसका पक्षपाती नहीं हूँ। भगवान के नाम का प्रचार करते रहो, कुरीति तथा सामाजिक जंजालों के पक्ष अथवा विपक्ष में कुछ भी न कहो। तुम्हारे पत्र के लिए 'संन्यासी का गीत ही मेरा पहला लेख है। निरुत्साह न होना और अपने गुरु तथा ईश्वर में विश्वास न खोना। बच्चे, जब तक तुम्हारे हृदय में उत्साह एवं गुरु तथा ईश्वर में विश्वास-ये तीनों वस्तुएँ रहेंगी-तब तक तुम्हें कोई भी दबा नहीं सकता। मैं दिनोंदिन अपने हृदय में शक्ति के विकास का अनुभव कर रहा हूँ। हे साहसी बालकों, कार्य करते रहो। सदा आशीर्वादक, विवेकानंद (श्री फ्रांसिस लेगेट को लिखित) द्वारा कुमारी डचर, सहस्रद्वीपोद्यान, न्यूयार्क, ३१ जुलाई, १८९५ प्रिय मित्र, इसके पहले भी मैं आपको एक पत्र लिख चुका हूँ। लेकिन मुझे डर है कि उसे सावधानी से डाक में नहीं डाला गया है। इसलिए यह दूसरा पत्र लिख रहा हूँ। मैं १४ तारीख के पहले ही समय से आ जाऊँगा। मुझे ११ तारीख के पहले ही न्यूयार्क पहुँचना है, किसी भी हालत में। इसलिए तैयारी के लिए पर्याप्त समय मिलेगा। मैं आपके साथ पेरिस जाऊँगा क्योंकि आपके साथ जाने का मुख्य उद्देश्य ही है, आपको विवाहित देखना। जब आप लोग भ्रमण के लिए निकले। मैं लंदन चला जाऊँगा। बस! यह बारंबार कहना है कि मैं आप लोगों के प्रति चिर स्नेहशील हूँ और सर्वदा आपकी तथा आपके स्वजनों की मंगलकामना करता हूँ। सदा आपका पुत्र, विवेकानंद (कुमारी मेरी हेल को लिखित) द्वारा कुमारी डचर, सहस्रद्वीपोद्यान, न्यूयार्क, १८९५ प्रिय बहन, भारत से आयी डाक के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। तुम्हारे प्रति अपना आभार मैं शब्दों में नहीं प्रकट कर सकता। तुमने अमरत्व पर मैक्समूलर के निबंध में पढ़ा होगा, जो मैंने मदर चर्च को भेजा था-वे सोचते हैं कि हम इस जीवन में जिन्हें प्यार करते हैं, उन्हें हमने अतीत में भी प्यार किया होगा। इसीलिए ऐसा लगता है कि अतीत के जीवन में मैं 'पावन परिवार' का रहा होऊँगा। मैं भारत से कुछ पुस्तकों की आशा कर रहा हूँ। आशा है, वे पहुँच गयी होंगी। अगर आ गयी हों, तो कृपया तुम उन्हें यहाँ भेज दो। अगर कुछ डाक-खर्च देना हो, तो मैं सूचना मिलते ही भेज दूंगा। तुमने उस कंबल पर चुंगी के संबंध में कुछ नहीं लिखा। खेतड़ी से दरी, शाल, ज़रीदार कपड़े और कुछ छोटी-मोटी चीज़ों का पुनः एक बड़ा पैकेट आनेवाला है। मैंने उन्हें लिख दिया है कि अगर संभव हो, तो बम्बई में ही अमेरिकन वाणिज्य-दूत के द्वारा कर चुकाने की व्यवस्था कर दें। अगर नहीं, तो मुझे यहाँ चुकाना पड़ेगा। कुछ महीनों में ही वे वस्तुएँ आ सकेंगी—यह मैं नहीं कह सकता हूँ। मैं पुस्तकों के प्रति उत्सुक हूँ। कृपया पहुँचते ही उन्हें यहाँ भेज दो। मदर चर्च और फ़ादर पोप और सभी बहनों को मेरा प्यार। मैं यहाँ बहुत आनंद से हूँ। बहुत कम खाता हूँ और पर्याप्त सोचता हूँ, अध्ययन करता हूँ और बातें करता हूँ। मेरी आत्मा में आश्चर्यजनक शांति आती जा रही है। प्रतिदिन मुझे ऐसा अनुभव होता है, जैसे मेरा कुछ कर्तव्य नहीं है; सदा चिर विश्राम और शांति में अपने को अनुभव करता हूँ। हम सबके पीछे ईश्वर ही है, जो क्रियाशील है। हम लोग मात्र यंत्र हैं। धन्य है 'उसका' नाम ! वर्तमान अवस्था में काम, अर्थ और यश-—ये तीन बंधन मानो मुझसे दर हो गए है और पुनः यहाँ भी मैं वैसा ही अनुभव कर रहा हूँ, जैसा कभी भारतवर्ष में मैंने किया था। 'मुझसे सभी भेद-भाव दूर हो गए हैं। अच्छा और बुरा, भ्रम और अज्ञानता सब विलीन हो गए हैं। मैं गुणातीत मार्ग पर चल रहा हूँ।' किस नियम का पालन करूँ और किसकी अवज्ञा ? उस ऊँचाई से विश्व मुझे मिट्टी का लोंदा लगता है। हरि ॐ तत्सत्। ईश्वर का अस्तित्व है; दूसरे का नहीं। मैं तुझमें और तू मुझमें। प्रभु, तू ही मेरे चिर शरण हो! शांति, शांति, शांति ! सदा प्यार और शुभकामनाओं के साथ, तुम्हारा भाई, विवेकानंद (श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) १९ पश्चिम ३८वाँ रास्ता, न्यूयार्क, २ अगस्त, १८९५ प्रिय मित्र, तुम्हारा संक्षिप्त कृपापत्र आज मिला। सर्वप्रथम मैं एक मित्र के साथ, पेरिस जा रहा हूँ और १७ अगस्त को यूरोप के लिए प्रस्थान करूँगा। फिर भी मैं अपने मित्र के विवाह को देखने के लिए एक सप्ताह पेरिस में रहूँगा और तब लंदन जाऊँगा। संगठन संबंधी तुम्हारी सलाह वास्तव में बहुत अच्छी थी और मैं उसी आधार पर काम करने का प्रयत्न कर रहा हूँ। का यहाँ मेरे कई अडिग मित्र है, किंतु दुर्भाग्य से उनमें से अधिकांश गरीब है। इसलिए धीमी गति से ही काम हो रहा है। इसके अतिरिक्त कार्य को स्पष्ट रूप देने के लिए न्यूयार्क में कुछ और महीने काम करने की आवश्यकता है। इस तरह शरद के आरंभ में ही मुझे न्यूयार्क लौट आना होगा और ग्रीष्म में मैं पुनः लंदन लौट जाऊँगा। जैसा मैं समझता हूँ, मै लंदन में अभी कुछ सप्ताह ही ठहर सकूँगा। किंतु अगर प्रभु ने चाहा, तो यह थोड़ा समय ही महत् कार्यों का आरंभ सिद्ध हो सकता है। तार द्वारा मैं पेरिस से ही सूचित करूँगा कि कब इंग्लैंड पहुँच रहा हूँ। न्यूयार्क में कुछ थियोसॉफ़िस्ट कक्षाओं में आये थे, किंतु मनुष्य ज्यों ही वेदांत की महिमा को अनुभव करता है, उसकी सारी बड़बड़ाहटें स्वयं समाप्त हो जाती हैं। ऐसा मुझे सतत अनुभव होता रहा है। जब कभी मानव-जाति दिव्य दृष्टि प्राप्त करती है, तो निम्नतर दृष्टि अपने आप विलीन हो जाती है। जनसमुदाय की गणना निरर्थक है। एक जनसमूह जो शताब्दी में करता है, उससे अधिक कुछ ही धैर्यवान, तत्पर, कर्मठ व्यक्ति एक वर्ष के अंदर कर सकते हैं। अगर किसी के शरीर में उष्णता है, तो उसके निकट आनेवाले व्यक्ति पर उसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा। यही नियम है। जब तक हममें उष्णता है, सत्य का बल है, तत्परता है, प्रेम है, सफलता हमारी है। मेरा जीवन ही बहुविध रहा है, किंतु मैंने शाश्वत शब्दों को सदा प्रमाणित पाया है; सत्यमेव जयते नानतम। सत्येन पंथा विततो देवयानः। तुममें जो 'सत्' है, निरंतर वही तुम्हारा अचूक पथप्रदर्शक हो। जिसमें 'सत्' है, उसे शीघ्र ही मुक्ति मिल जाए और वह दूसरों को भी उसकी प्राप्ति में सहायता करे। 'सत्' में सदा तुम्हारा ही, विवेकानंद (श्री० ई० टी० स्टर्डी को लिखित) १९ पश्चिम ३८वाँ रास्ता, न्यूयार्क, ९ अगस्त, १८९५ प्रिय मित्र, —केवल यही उचित्त है कि मैं अपने कुछ विचार तुम्हारे सामने प्रकट करूँ। मैं पूर्ण विश्वास करता हूँ कि मानव-समाज में धर्म में सामयिक उथलपुथल होती है और शिक्षित समाज में आजकल ऐसी ही खलबली फैली हुई है। यद्यपि ऐसी क्रांति अनेक छोटे-छोटे विभागों में विभक्त दिखायी देती है, परंतु मूलतः ये सब एक ही है, क्योंकि उनके पीछे जो कारण हैं, उनके रूप भी एक ही है। वह धार्मिक क्रांति, जिससे इस समय विचारवान व्यक्ति दिन-प्रतिदिन अत्यधिक मात्रा में प्रभावित होते जा रहे हैं—उसका एक वैशिष्ट्य यह है कि उससे जितने क्षुद्र क्षुद्र मतवाद उत्पन्न हो रहे हैं, वे सब उसी एक अद्वैत सत्ता की अनुभूति एवं अनुसंधान में ही सचेष्ट हैं। भौतिक, नैतिक और आध्यात्मिक स्तरों पर यह एक भाव दिखायी दे रहा है कि विभिन्न मतवाद-समूह क्रमशः अधिकाधिक उदार होते हुए उसी शाश्वत एकत्व की ओर अग्रसर हो रहे हैं। इस कारण वर्तमान काल के सभी आंदोलन जान या अनजान में सर्वोत्तम आविष्कृत एकत्ववादी दर्शन के अर्थात् अद्वैत वेदांत के प्रतिरूप हैं। फिर यह भी सर्वदा देखा गया है कि प्रत्येक युग में इन समस्त विभिन्न मतवादों के संघर्ष के फलस्वरूप अंत में एक ही मतवाद जीवित रहता है। अन्य सब तरंगें उसी मतवाद में विलीन होने के लिए एवं उसे एक बृहत् भाव-तरंग में परिणत करने के लिए ही उठती है, जो समाज को अप्रतिहत वेग के साथ प्लावित कर देता है। इस समय भारत, अमेरिका एवं इंग्लैंड में (जिन देशों का हाल मैं जानता हूँ) सैकड़ों ऐसे मतवादों का संघर्ष चल रहा है। भारत में द्वैतवाद क्रमशः क्षीण हो रहा है, केवल अद्वैतवाद ही सब क्षेत्रों में प्रभावशाली है। अमेरिका में प्राधान्यलाभ के लिए अनेक मतवादों के बीच संघर्ष उपस्थित हुआ है। ये सभी अल्प या अधिक मात्रा में अद्वैत भाव के प्रतिरूप है, और जो भाव-परंपरा जितनी अधिक तीव्र गति से फैल रही है, वह उतनी ही मात्रा में अन्य भावों की अपेक्षा अद्वैत वेदांत के अधिक निकट प्रतीत होती है। अब मुझे यदि कुछ स्पष्ट दिखायी देता है, तो वह यह कि इनमें से एक ही भाव-परंपरा जीवित रहेगी, एवं वह सबको निगलकर भविष्य में शक्तिमान होगी। किंतु वह कौन सी भाव-प्रणाली होगी? यदि हम इतिहास को देखें, तो विदित होगा कि जो विचारधारा सर्वश्रेष्ठ होगी, वही जीवित रहेगी; और चरित्र की अपेक्षा अन्य ऐसी कौन सी शक्ति है, जो जीने की योग्यता प्रदान कर सकती है ? विचारशील मनुष्य-जाति का भावी धर्म अद्वैत ही होगा, इसमें संदेह नहीं। और सब संप्रदायों में उन्हीं की विजय होगी, जो अपने जीवन में सबसे अधिक चरित्र का उत्कर्ष दिखा सकेंगे—चाहे वे संप्रदाय कितने ही दूर भविष्य में क्यों न जन्म लें। एक मेरी निजी अनुभव की बात सुनो। जब मेरे गुरुदेव ने शरीर त्यागा था, तब हम लोग बारह निर्धन और अज्ञात नवयुवक थे। हमारे विरुद्ध अनेक शक्तिशाली संस्थाएँ थीं, जो हमारी सफलता के शैशवकाल में ही हमें नष्ट करने का भरसक प्रयत्न कर रही थीं परंतु श्री रामकृष्ण देव ने हमें एक बड़ा दान दिया था-वह यह कि केवल बातें ही न कर यथार्थ जीवन जीने की इच्छा, आजीवन उद्योग और विरामहीन साधना के लिए अनुप्रेरणा। और आज सारा भारत मेरे गुरुदेव को जानता है और पूज्य मानता है और वे सत्य-समूह, जिनकी उन्होंने शिक्षा दी थी, अब दावानल के समान फैल रहे हैं। दस वर्ष हुए, उनका जन्मोत्सव मनाने के लिए मैं सौ मनुष्यों को भी इकट्ठा नहीं कर सकता था और पिछले वर्ष पचास सहस्र थे। न संख्या-शक्ति, न धन, न पांडित्य, न वाक्चातुर्य, कुछ भी नहीं, बल्कि पविव्रता, शुद्ध जीवन, एक शब्द में अनुभूति, आत्म-साक्षात्कार को विजय मिलेगी! प्रत्येक देश में सिंह जैसी शक्तिमान दस-बारह आत्माएँ होने दो, जिन्होंने अपने बंधन तोड़ डाले हैं, जिन्होंने 'अनंत' का स्पर्श कर लिया है, जिनका चित्त ब्रह्मानुसंधान में लीन है, जो न धन की चिंता करते हैं, न बल की, न नाम की-और ये व्यक्ति ही संसार को हिला डालने के लिए पर्याप्त होंगे। यही रहस्य है। योगप्रवर्तक पतंजलि कहते हैं, "जब मनुष्य समस्त अलौकिक दैवी शक्तियों के लोभ का त्याग करता है, तभी उसे धर्ममेघ नामक समाधि प्राप्त होती है।” वह परमात्मा का दर्शन करता है, वह पर है और दूसरों को तदरूप बनने में सहायता करता है। मुझे इसीका प्रचार करना है। जगत् में अनेक मतवादों का प्रचार हो चुका है। लाखों पुस्तकें हैं, परंतु हाय! कोई भी किचित् अंश में प्रत्यक्ष आचरण नहीं करता। सभाएँ और संस्थाएँ अपने आप उत्पन्न हो जायँगी। क्या वहाँ ईष्या हा सकती है, जहाँ ईर्ष्या करने की कोई वस्तु न हो? जो हमें हानि पहुँचाना चाहेंगे, ऐसे लोग असंख्य होंगे। परंतु हमारे ही पक्ष में सत्य है, इसका क्या यह निश्चित प्रमाण नहीं है ? जितना ही मेरा विरोध हुआ है, उतनी ही मेरी शक्ति का विकास हुआ है। राजाओं ने मुझे अनेक बार निमंत्रित किया और पूजा है। पुरोहितों और जनसाधारण ने मेरी निंदा की है। परंतु इससे क्या? सबको आशीर्वाद ! वे सब तो मेरी स्वयं आत्मा है और क्या उन्होंने कमानीदार पटरे (Spring-board) के समान मेरी सहायता नहीं की, जहाँ से उछलकर मेरी शक्ति अधिकाधिक विकास कर सकी है ? —एक महान रहस्य का मैंने पता लगा लिया है—वह यह कि केवल धर्म की बातें करनेवालों से मुझे कुछ भय नहीं है। और जो सत्यद्रष्टा महात्मा है, वे कभी किसी से वैर नहीं करते। वाचालों को वाचाल होने दो! वे इससे अधिक और कुछ नहीं जानते ! उन्हें नाम, यश, धन, स्त्री से संतोष प्राप्त करने दो। और हम धर्मोपलब्धि, ब्रह्मालाभ एवं ब्रह्मा होने के लिए ही दृढ़वत होंगे। हम आमरण एवं जन्म-जन्मांतर में सत्य का ही सतत अनुसरण करेंगे। दूसरों के कहने पर हम तनिक भी ध्यान न दें और यदि आजन्म यत्न के बाद एक, केवल एक ही आत्मा संसार के बंधनों को तोड़कर मुक्त हो सके, तो हमने अपना काम कर लिया।' हरि ॐ! एक बात और। निसंदेह मुझे भारत से प्रेम है। परंतु दिन-प्रतिदिन मेरी दृष्टि स्पष्टतर होती जा रही है। हमारे लिए भारत या इंग्लैंड या अमेरिका क्या है ? हम उस प्रभु के दास हैं, जिसे अज्ञानी कहते हैं 'मनुष्य'। जो जड़ में पानी डालता है, वह क्या पूरे वृक्ष को नहीं सींचता? सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक कल्याण की एक ही नींव है—और वह यह जानना कि 'मैं और मेरा भाई एक है।' यह सब देशों और सब जातियों के लिए सत्य है। और मैं यह कह सकता हूँ कि पश्चिमी लोग पूर्वीयों से शीघ्र इसका अनुभव करेंगे—वे पूर्वीय जन, जिन्होंने इस नींव के निर्माण में तथा कुछ थोड़े से अनुभूतिसंपन्न व्यक्तियों को उत्पन्न करने में प्रायः अपनी सारी शक्ति व्यय कर दी है। आओ, हम नाम, यश और दूसरों पर शासन करने की इच्छा से रहित होकर काम करें। काम, क्रोध एवं लोभ-इस विविध बंधन से हम मुक्त हो जायें। और फिर सत्य हमारे साथ रहेगा! भगवत्पदाश्रित, विवेकानंद (स्वामी ब्रह्मानंद को लिखित) १९ पश्चिम ३८वाँ रास्ता, न्यूयार्क, अगस्त , १८९५ प्रिय राखाल, ...मैं इस समय न्यूयार्क शहर में हूँ। यह नगर गर्मी में बिल्कुल कलकत्ते की तरह गर्म हो जाता है। खूब पसीना आता है और हवा बिल्कुल बंद रहती है। कुछ महीनों के लिए मैंने उत्तर का दौरा किया। कृपया लौटती डाक से इस पत्र का जवाब इंग्लैंड के पते पर भेजो। वहाँ के लिए मैं इस पत्र के तुम तक पहुँचने के पूर्व ही चल पड़ूँगा। सस्नेह, विवेकानंद (श्री आलसिंगा पेरुमल को लिखित) अमेरिका, अगस्त, १८९५ प्रिय आलासिंगा, तुम्हारे पास इस पत्र के पहुँचने से पहले ही मैं पेरिस पहुँच जाऊँगा। इसलिए कलकत्ता तथा खेतड़ी में यह लिख देना कि इस समय वे अमेरिका के पते पर मुझे कोई पत्र न डालें। अगले जाड़े में ही फिर मुझे न्यूयार्क वापस आना है। अतः कोई विशेष आवश्यक विषय हो, तो १९ पश्चिम ३८ वाँ रास्ता, न्यूयार्क इस पते पर मुझे सूचित करना। इस वर्ष मैंने बहुत कुछ कार्य किया है तथा आशा है कि अगले वर्ष और भी कार्य कर सकूँगा। मिशनरियों के विषय को लेकर माथापच्ची न करना। उनका चिल्लाना अत्यंत स्वाभाविक है। जब किसी की रोटी छीन ली जाती है, तो कौन नहीं चिल्लाता ? गत दो वर्षों में उनकी पूंजी में काफ़ी अंतर पड़ चुका है और क्रमशः बढ़ता ही जा रहा है। अस्तु, मैं मिशनरियों की पूर्ण सफलता चाहता हूँ। बच्चों, जब तक तुम लोगों को भगवान तथा गुरु में, भक्ति तथा सत्य में विश्वास रहेगा, तब तक कोई भी तुम्हें नुकसान नहीं पहुंचा सकता। किंतु इनमें से एक के भी नष्ट हो जाने पर परिणाम विपत्तिजनक है। तुम्हारा यह कहना ठीक है कि भारत की अपेक्षा पाश्चात्य देशों में मेरे भाव अधिक मात्रा में कार्य में परिणत होते जा रहे हैं। वास्तव में भारत ने मेरे लिए जो कुछ किया है, उससे कहीं अधिक मैंने भारत के लिए किया है। वहाँ तो मुझे रोटी के एक टुकड़े के साथ डलाभरी गालियाँ मिली है। सत्य में मेरा विश्वास है, चाहे मैं कहीं भी क्यों न जाऊँ, प्रभु मेरे लिए काम करनेवालों के दल के दल भेज देते हैं। वे लोग भारतीय शिष्यों की तरह नहीं है, अपने गुरु के लिए वे प्राणों तक की बाज़ी लगा देने को प्रस्तुत हैं। सत्य ही मेरा ईश्वर है तथा समग्र विश्व मेरा देश है। 'कर्तव्य' में मैं विश्वासी नहीं हूँ, कर्तव्य तो संसारियों के लिए एक अभिशाप है, संन्यासियों का कोई कर्तव्य नहीं है। कर्तव्य तो एक व्यर्थ की बकवास है। मैं मुक्त हूँ-मेरे सारे बंधन कट चुके हैं। यह शरीर कहीं भी रहे या न रहे, इसकी मुझे क्या परवाह ! तुम लोगों ने बराबर मेरी ठीक ठीक सहायता की है-प्रभु तुम्हें इसका पुरस्कार अवश्य देंगे। मैंने भारत या अमेरिका से कभी अपनी प्रशंसा नहीं चाही और न मैं ऐसी खोखली चीज़ों के लिए अब भी लालायित हूँ। मैं भगवान की संतान हूँ और मुझे सत्य की शिक्षा देनी है। जिसने मुझे इस सत्य की प्राप्ति करायी है, वही मेरे लिए पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ तथा शक्तिशाली सहायक भेजेगा। पाश्चात्य देश में प्रभु क्या करना चाहते हैं, यह तुम हिंदुओं को कुछ ही वर्षों में देखने को मिलेगा। तुम लोग प्राचीन काल के यहूदियों जैसे हो, और तुम्हारी स्थिति नाँद में लेटे हुए कुखे की तरह है, जो न खुद खाता है और न दूसरों को ही खाने देना चाहता है। तुम लोगों में किसी प्रकार की धार्मिक भावना नहीं है, रसोई ही तुम्हारा ईश्वर है तथा हँडिया-बरतन है तुम्हारे शास्त्र। अपनी तरह असंख्य संतानोत्पादन में ही तुम्हारी शक्ति का परिचय मिलता है। तुममें से कुछ एक बालक साहसी अवश्य हों-किंतु कभी कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तुम भी अविश्वासी बनते जा रहे हो। बालकों, दृढ़ बने रहो, मेरी संतानों में से कोई भी कायर न बने। तुम लोगों में जो सबसे अधिक साहसी है सदा उसी का साथ करो। बिना विघ्न-बाधाओं के क्या कभी कोई महान कार्य हो सकता है ? समय, धैर्य तथा अदम्य इच्छा-शक्ति से ही कार्य हुआ करता है। मैं तुम लोगों को ऐसी बहुत सी बातें बतलाता, जिससे तुम्हारे हृदय उछल पड़ते, किंतु मैं ऐसा नहीं करूंगा। मैं तो लोहे के सदृश दृढ़ इच्छा-शक्तिसंपन्न ह्रदय चाहता है, जो कभी कंपित न हो। दृढ़ता के साथ लगे रहो, प्रभु तुम्हें आशीर्वाद दे। सदा शुभकामनाओं के साथ। तुम्हारा, विवेकानंद (श्री० ई० टी० स्टर्डी को लिखित) न्यूयार्क, अगस्त, १८९५ प्रिय स्टर्डी, यहाँ का काम बड़े ठाट से चल रहा है। जब से मैं आया हूँ, लगातार दो कक्षाएँ प्रतिदिन ले रहा हूँ। कल मैं श्री लेगेट के साथ एक सप्ताह के लिए नगर से बाहर जा रहा हूँ। क्या तुम श्रीमती एन्टॉयनेट स्टलिंग से जो तुम्हारी नामी गायिकाओं में से हैं, परिचित हो? वे इस काम में विशेष रुचि ले रही हैं। मैंने इस कार्य का लौकिक भाग एक सभा को सौंप दिया है और मैं सभी झंझटों से मुक्त हूँ। मुझमें संगठन की क्षमता नहीं है। उससे मैं बिल्कुल टूट जाता हूँ। ...नारद-सूत्र' का क्या हुआ ? उस पुस्तक की यहाँ अच्छी बिक्री होगी, मुझे विश्वास है। मैंने अब योग-सूत्र हाथ में लिया है। क्रम से एक एक सूत्र लेकर उनके साथ-साथ भाष्यकारों के मत की आलोचना कर रहा हूँ। ये सभी वार्ताएँ लिख ली जाती हैं और समाप्त होने पर अंग्रेज़ी में यह पतंजलि का टीका सहित सबसे पूर्ण अनुवाद होगा। निश्चय ही यह कार्य महत्वपूर्ण होगा। शायद ट्र बनर की दुकान में 'कूर्मपुराण' का एक संस्करण होगा। भाष्यकार विज्ञान भिक्षु इस पुस्तक से निरंतर उद्धरण देते रहते हैं। मैंने स्वयं कभी इस पुस्तक को नहीं देखा। क्या तुम कृपया कुछ समय निकालकर इस पुस्तक में देख सकोगे कि योग पर उसमें कुछ अध्याय है या नहीं? यदि हों, तो क्या कृपा करके एक प्रति मुझे भेज दोगे? क्या 'हठयोग-प्रदीपिका', 'शिव संहिता' तथा और कोई योग पर पुस्तक भी होगी? निःसंदेह मूल ग्रंथ। वे जैसे ही पहुँचेंगी, मैं उनके लिए रुपया तुमको भेजा दूंगा। जॉन डेविस द्वारा लिखी हुई ईश्वरकृष्ण की 'सांख्यकारिका' की एक प्रति भी भेजना। अभी भारत की डाक के साथ तुम्हारा पत्र मिला। एक आदमी जो तैयार है, वह अस्वस्थ हो गया। दूसरे कहते हैं कि इस प्रकार अकस्मात् वे आ नहीं सकते। अब तक तो निराशा ही दिखायी दे रही है। मुझे दुःख है कि वे लोग न आ सके। क्या किया जा सकता है? भारत में मंद गति से काम होता है ! रामानुज का मत है कि बद्ध आत्मा या जीव की पूर्णता उसमें अव्यक्त या सूक्ष्म भाव से रहती है। जब इस पूर्णता का पुनः विकास होता है, जीव मुक्त हो जाता है। परंतु अद्वैतवादी कहता है कि ये दोनों बातें केवल भासित होती हैं। न क्रमसंकोच है, न क्रमविकास। दोनों क्रियाएँ मायारूप हैं, केवल भासमानपरिदृश्यमान अवस्था मात्र। पहली बात यह है कि आत्मा स्वभावतः ज्ञाता नहीं है। 'सच्चिदानंद' आत्मा की केवल आंशिक परिभाषा है, 'नेति, 'नेति' शब्दों द्वारा ही उसके यथार्थ स्वरूप का वर्णन होता है। शापेनहॉवर ने अपना 'इच्छावाद' बौद्धों से ग्रहण किया है। हम लोग वासना, तृष्णा (पाली भाषा में 'तनहा') आदि शब्दों में भी यही भाव ग्रहण करते हैं। हम भी यह स्वीकार करते हैं कि वासना ही सब प्रकार की अभिव्यक्ति का मूल कारण है, और प्रत्येक अभिव्यक्ति उसका विशिष्ट परिणाम है। परंतु जो कुछ भी हेतु' या 'कारण' है, वह ब्रह्मा और माया, इन दोनों के सम्मिश्रण से उद्भूत होता है। इतना ही नहीं, वरन् 'ज्ञान' भी एक मिश्रित पदार्थ होने के कारण निरपेक्ष अर्थात् ब्रह्मा नहीं हो सकता, परंतु ज्ञात या अज्ञात सब प्रकार की वासना की अपेक्षा वह निःसंदेह श्रेष्ठ है एवं अद्वितीय ब्रह्मा की निकटतम वस्तु है। वह अद्वैत तत्व प्रथम ज्ञान एवं उसके पश्चात् इच्छा की समष्टि के रूप में अभिव्यक्त होता है। यदि यह कहा जाए कि वनस्पति 'अचेतन' है या अधिक से अधिक वह 'चैतन्यरहित इच्छा-शक्तियुक्त' है, तो उसका यह उत्तर होगा कि यह 'अचेतन वनस्पति-क्रिया' भी चैतन्य की ही अभिव्यक्ति है, यह चैतन्य उस वनस्पति का भले ही न हो, किंतु वह उसी विश्वव्यापी चेतन बुद्धिशक्ति की अभिव्यक्ति है, जिसे सांख्य दर्शन में महत् कहते हैं। "वास्तव-जगत् का सभी कुछ उस 'एषणा' या 'संकल्प' आदि से उद्भूत है"—बौद्धों का यह मतवाद अपूर्ण है; क्योंकि, प्रथमतः 'इच्छा' स्वयं ही एक मिश्र पदार्थ है, और द्वितीयतः चेतना या ज्ञान, जो सर्वश्रेष्ठ मिश्र पदार्थ है, वह इच्छा के भी पहले विद्यमान है। ज्ञान ही क्रिया है। प्रथम क्रिया, फिर प्रतिक्रिया। मन पहले अनुभव करता है एवं उसके बाद प्रतिक्रिया के रूप में उसमें संकल्प का उदय होता है। संकल्प मन में रहता है, अतः संकल्प अंतिम निष्कर्ष है, यह कहना असंगत है। डॉयसन डारविन मतावलंबियों के हाथ की कठपुतली मात्र है। परंतु क्रमविकासवाद के सिद्धांत का उच्च भौतिक विज्ञान के साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए, जिसके अनुसार क्रमविकास की प्रत्येक परंपरा के पीछे क्रमसंकोच की क्रिया निहित है। इसलिए 'वासना' या 'संकल्प' के विकास के पूर्व 'महत्' या 'विश्वचेतना' संकुचित्त अथवा सूक्ष्म भाव से विद्यमान रहती है। विश्वचेतना या महत् (Consciousness or Mahat) अवचेतन चेतन अतिचेतन (Subconscious) (Conscious) (Superconscious) ॥ ॥ ॥ चेतनारहित संकल्प या क्रिया यथार्थ चेतन संकल्प अतिचेतन संकल्प (Unconscious Will) (Conscious Will Proper) (Superconscious Will) बिना ज्ञान के संकल्प असंभव है, क्योंकि इच्छित वस्तु के संबंध में यदि किसी भी प्रकार का ज्ञान न हो, तो इसकी इच्छा का उदय होगा ही कैसे? जिस क्षण ज्ञान की चेतन और अवचेतन, दो अवस्थाओं की कल्पना की जाएगी, उसी क्षण आपाततः कठिन ज्ञात होनेवाला यह तत्व सरल हो जाएगा। और ऐसा हो भी क्यों नहीं? यदि संकल्प का हम इस प्रकार विश्लेषण कर सकते हैं, तो उसकी मूल वस्तु का क्यों नहीं कर सकते ? तुम्हारा विवेकानंद (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) सहस्रद्वीपोद्यान, अगस्त. १८९५ प्रिय श्रीमती बुल, ...श्री स्टर्डी का, जिनके बारे में मैंने उस दिन आपको लिखा है, और एक पत्र मिला। उसे मैं आपके पास भेज रहा हूँ। सब कुछ मानो पहले ही से अपने आप ठीक हो जा रहा है। श्री लेगेट के आमंत्रण-पत्र के साथ इस पत्र को मिलाकर देखने से क्या यह आपको देव का बुलावा मालूम नहीं होता है ? मैं तो यही मानता हूँ; अतः उसका अनुसरण कर रहा हूँ। अगस्त के अंत में श्री लेगेट के साथ मैं पेरिस जा रहा हूँ एवं वहाँ से लंदन जाऊँगा।...हेल परिवार से मिलने के लिए मुझे शिकागो जाना है। इसलिए ग्रीनकर-सम्मेलन में में सम्मिलित नहीं हो सका। मेरे तथा मेरे गुरुभाइयों के कार्यों में आप जितनी सहायता कर सकती हैं, इस समय मैं आपसे उतनी ही सहायता चाहता हूँ। अपने देशवासियों के प्रति मैंने अपना थोड़ा सा कर्तव्य निभाया है। अब जगत् के लिए-जिससे कि मुझे यह शरीर मिला है, देश के लिए-जिसने कि मुझे यह भावना प्रदान की है तथा मनुष्य-जाति के लिए जिसमें कि मैं अपनी गणना कर सकता हूँ कुछ करना है। जितनी ही मेरी उम्र बढ़ रही है, उतना ही मैं 'मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है- हिंदुओं की इस धारणा का तात्पर्य अनुभव कर रहा हूँ। मुसलमान भी यही कहते है। अल्लाह ने देवदूतों से आदम को प्रणाम करने के लिए कहा था। इबलीस (Iblis) ने ऐसा नहीं किया, इसलिए वह शैतान (Satan) बना। यह पृथ्वी सब स्वर्गों से ऊँची है-सृष्टि का यही सर्वश्रेष्ठ विद्यालय है। मंगल तथा बृहस्पति ग्रह के लोग हम लोगों की अपेक्षा उच्च श्रेणी के नहीं है क्योंकि वे हमारे साथ किसी प्रकार का संबंध स्थापित नहीं कर सकते। तथाकथित उच्च श्रेणी के प्राणी अर्थात् मरे हुए लोग अन्य प्रकार के देहधारी मनुष्यों के सिवाय और कुछ नहीं हैं; सूक्ष्म होने पर भी उनके शरीर वास्तव में हस्तपदादिविशिष्ट मनुष्य-शरीर ही हैं और वे इसी पृथ्वी के किसी दूसरे आकाश में रहते हैं तथा एकदम अदृश्य भी नहीं हैं। हम लोगों की तरह ही उनमें चिंतन-शक्ति, ज्ञान तथा अन्यान्य सब कुछ विद्यमान है। इसलिए वे भी मनुष्य ही हैं। देवता तथा देवदूतों के बारे में भी यही बात है। किंतु केवल मनुष्य ही ईश्वर बन सकता है तथा देवादि को पुनः ईश्वरत्व-प्राप्ति के लिए मनुष्य-जन्म धारण करना पड़ेगा। मैक्समूलर का अंतिम लेख आपको कैसा लगा? आपका, विवेकानंद (श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) ॐ तत्सत् होटल कांटिनेंटल , ३ रयू कैस्टिग्लिओन, पेरिस, २६ अगस्त, १८९५ प्रिय मित्र, मैं यहाँ परसों पहुँचा हूँ। मैं अपने एक अमेरिकन मित्र का मेहमान होकर यहाँ आया हूँ-जिनका विवाह अगले सप्ताह होनेवाला है। मुझे उस समय तक उनके साथ रुकना पड़ेगा, इसके बाद ही लंदन आने की छुट्टी मिलेगी। तुमसे मिलने की उत्सुकता और आनंद की कल्पना करके पुलकित हो रहा हूँ। 'सत्' में सदा तुम्हारा, विवेकानंद (श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) द्वारा कुमारी मैक्लिऑड, होटल हालैंड, रयू द ला पेक्स, पेरिस, ५ सितंबर, १८९५ प्रिय मित्र, तुम्हारी कृपा के लिए आभार प्रकट करना अनावश्यक है, इसे व्यक्त नहीं किया जा सकता।... कुमारी मूलर का हार्दिक निमंत्रण है, और उनका आवास तुम्हारे बहुत निकट है, मैं सोचता हूँ, दो-एक दिन के लिए उनके यहाँ जाना अच्छा रहेगा और तब तुम्हारे पास आऊँगा। कुछ दिनों तक मेरा शरीर बहुत बीमार था, जिसकी वजह से तुम्हें (पत्र) लिखने में देर हो गयी। आशा है, शीघ्र ही हृदय और मस्तिष्क से एक साथ ही मिलने की विशेष सुविधा होगी। प्रभु में प्रेम और बंधुभाव के साथ सदा तुम्हारा ही, (श्री आलसिंगा पेरुमल को लिखित) विवेकानंद पेरिस, ९ सितंबर, १८९५ प्रिय आलासिंगा, संयुक्त राज्य अमेरिका का चक्कर लगाता हुआ तुम्हारा तथा जी० जी० के पत्र अभी अभी मुझे मिले। मुझे यह आश्चर्य है कि तुम लोग मिशनरियों की मूर्खतापूर्ण व्यर्थ की बातों को इतना महत्व दे रहे हो। अगर भारतवासी मुझे नियमपूर्वक हिंदू-भोजन के सेवन पर बल देते हैं, तो उनसे एक रसोइया एवं उसको रखने के लिए पर्याप्त रुपये का प्रबंध करने के लिए कह देना। एक पैसे की सहायता करने का तो सामर्थ्य है नहीं, किंतु आगे बढ़कर उपदेश झाड़ते हैं! इससे मुझे तो हँसी ही आती है। मिशनरी लोग यदि यह कहते हों कि कामिनी-कांचन-त्यागरूप सन्यासियों के दोनों ही व्रत मैंने तोड़े हैं, तो उनसे कहना कि वे झूठ बोलते हैं। मिशनरी ह्य म को पत्र लिखकर तुम यह पूछना कि उन्होंने मेरा क्या असदाचरण देखा है-यह तुम्ह स्पष्ट लिखें; अथवा जिन व्यक्तियों से उन्होंने इस बारे में सुना है, उनके नाम लिखें। साथ ही उनसे यह भी पूछना कि उन घटनाओं को उन्होंने स्वयं देखा है या नहीं। ऐसा करने पर प्रश्न का समाधान अपने आप हो जाएगा तथा उनके झूठ का भी पता लग जाएगा। इसी तरीके से डॉ० जेन्स ने उन मिथ्यावादियों को पकड़वाया था। मेरे बारे में सिर्फ इतना ही जान लेना कि मैं किसी के कथनानुसार नहीं चलूँगा। मेरे जीवन का क्या व्रत है, यह मैं स्वयं जानता हूँ। किसी जाति-विशेष के प्रति न मेरा तीव्र अनुराग है और न घोर विद्वेष ही है। मैं जैसे भारत का हूँ, वैसे ही समग्र जगत् का भी हूँ। इस विषय को लेकर मनमानी बातें बनाना निरर्थक है। मुझसे जहाँ तक हो सकता था, मैंने तुम लोगों की सहायता की है, अब तुम्हें स्वयं अपनी सहायता करनी चाहिए। ऐसा कौन सा देश है, जो कि मुझे पर विशेष अधिकार रखता है ? क्या मैं किसी जाति के द्वारा खरीदा हुआ दास हूँ ? अविश्वासी नास्तिकों, तुम लोग ऐसी व्यर्थ की मूर्खतापूर्ण बातें न बनाओ। यहाँ पर मैंने कठोर परिश्रम किया है और मुझे जो कुछ धन मिला है, उसे मैं कलकत्ते तथा मद्रास भेजता रहा हूँ। यह सब कुछ करने के बाद अब मुझे उन लोगों के मूर्खतापूर्ण निर्देशानुसार चलना होगा ? क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती? मैं उन लोगों का किस बात के लिए ऋणी हूँ ? क्या मैं उन लोगों की प्रशंसा की कोई परवाह करता हूँ या उनकी निंदा से डरता हूँ? बच्चे, मैं एक ऐसा विचित्र स्वभाव का व्यक्ति हूँ कि मुझे पहचानना तुम लोगों के लिए भी अभी संभव नहीं है। तुम अपने काम करते रहो, यदि नहीं कर सकते हो, तो चुपचाप बैठ जाओ; किंतु अपनी मूर्खता के बल पर मुझसे अपनी इच्छानुसार कार्य करने की चेष्टा न करो। मुझे अपने पीछे एक ऐसी शक्ति दिखायी दे रही है, जो कि मनुष्य, देवता या औकात की शक्तियों से कहीं अधिक सामर्थ्यशाली है। मुझे किसीकी सहायता नहीं चाहिए, जीवन भर में ही दूसरों की सहायता करता रहा हूँ। ऐसे व्यक्तियों का दर्शन अभी तक मुझे नहीं मिला है, जिनसे कि मुझे कोई सहायता प्राप्त हुई हो। अब तक देश में जितने व्यक्तियों ने जन्म लिया है, उनमें सर्वश्रेष्ठ श्री रामकण परमहंस के कार्यों में सहायता प्रदान करने के लिए जहाँ के निवासियों में दो-चार रुपये भी एकत्र करने की शक्ति नहीं है, वे लोग लगातार व्यर्थ की बातें बना रहे हैं और उस व्यक्ति पर अपना हुक्म चलाना चाहते हैं, जिसके लिए उन्होंने कुछ भी नहीं किया, प्रत्युत् जिसने उन लोगों के लिए जहाँ तक हो सकता था, सब कुछ किया। जगत् ऐसा ही अकृतज्ञ है ! क्या तुम यह कहना चाहते हो कि ऐसे जाति-भेद-जर्जरित, कुसंस्कारयुक्त, दयारहित, कपटी, नास्तिक कायरों में से जो केवल शिक्षित हिंदुओं में ही पाये जा सकते हैं, एक बनकर जीने-मरने के लिए मैं पैदा हुआ हूँ ? मैं कायरता को घृणा की दृष्टि से देखता हूँ। कायर तथा राजनीतिक मूर्खतापूर्ण बकवासों के साथ मैं अपना संबंध नहीं रखना चाहता। किसी प्रकार की राजनीति में मुझे विश्वास नहीं है। ईश्वर तथा सत्य ही जगत् में एकमात्र राजनीति है, बाकी सब कूड़ा-करकट है। मैं कल लंदन जा रहा हूँ। इस समय मेरा वहाँ का पता इस प्रकार होगा- द्वारा श्री ई० टी० स्टर्डी, हाई व्यू, कैवरशम, रीडिंग, इंग्लैंड। सदा आशीर्वाद के साथ तुम्हारा, विवेकानंद पुनश्च—-इंग्लैंड तथा अमेरिका, दोनों ही जगहों से पत्रिका निकालने का मेरा विचार है। अतः अपने पत्र के लिए तुम लोगों को पूर्णतया मुझे पर निर्भर नहीं होना चाहिए। तुम्हारे अलावा और भी बहुत सी चीज़ों पर मुझे ध्यान देना है। (कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित) द्वारा ई० टी० स्टर्डी, हाई व्यू, कैवरशम, रीडिंग, इंग्लैंड, सितंबर, १८९५ प्रिय जो जो, तुम्हें समय पर नहीं लिखने के लिए सहस्र क्षमा-याचना। मै सकुशल लंदन पहुँच गया। अपना मित्र मिल गया था। अतः मैं उसके निवास पर सकुशल हूँ। स्थान रमणीय है। उसकी पत्नी तो एक फ़रिश्ता है, और उसके जीवन में भारत भरा है। वह वहाँ वर्षों रहा-संन्यासियों से मिला-जुला, उनका खाना खाया इत्यादि; अतः तुम समझ सकती हो, मैं कितना प्रसन्न हूँ। भारत से लौटे अवकाश प्राप्त बहुत से जनरलों से मुलाक़ात हुई, वे मेरे प्रति बहुत ही शिष्ट और विनीत है। प्रत्येक काले आदमी को नीग्रो समझने का अमेरिकनों का वह अद्भुत ज्ञान यहाँ नहीं है, और कोई भी सड़क पर टकटकी लगाकर मुझे नहीं देखता। भारत के बाहर दूसरे किसी भी स्थान की अपेक्षा यहाँ मुझे बहुत ही सुखद जैसा लगता है। ये अंग्रेज़ हमें जानते हैं और हम उन्हें। यहाँ शिक्षा और सभ्यता का स्तर बहुत ऊँचा है-यह एक बहुत बड़ा परिवर्तन ला देता है और इस प्रकार कई पीढ़ियों की शिक्षा से यह होता है। क्या 'जंगली कबूतर' वापस आ गए हैं ? प्रभु उन्हें तथा उनके स्वजनों को सदा-सर्वदा सुख दे। बच्चियाँ कैसी हैं ? और अल्बर्टा तथा होलिस्टर? उन्हें मेरा असीम प्यार दो और तुम स्वयं भी उसे स्वीकार करो। मेरा मित्र संस्कृत का विद्वान् है, अतः हम लोग शंकर के महान भाष्यों पर काम करने में व्यस्त हैं। दर्शन और धर्म के अतिरिक्त यहाँ कुछ नहीं है, जो जो। अक्तूबर में मैं लंदन में व्याख्यान-पाठ का प्रबंध करने जा रहा हूँ। प्यार और शुभ कामनाओं के साथ सदा सस्नेह, विवेकानंद (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) द्वारा ई० टी० स्टर्डी, हाई व्यू, कैवरशम, रीडिंग, इंग्लैंड, १७ सितंबर, १८९५ प्रिय श्रीमती बुल, इंग्लैंड में समिति स्थापित करने के लिए मुझे तथा श्री स्टर्डी को कम से कम ऐसे दो-चार व्यक्तियों की आवश्यकता है, जो दृढ़संकल्प तथा मेधावी हों, इसलिए हमें धीरे-धीरे अग्रसर होना पड़ेगा। सर्वप्रथम हमें इस बात से सचेत रहना होगा कि कहीं हम कुछ 'मनचले' व्यक्तियों के चंगुल में न फँस जाए। आपको संभवतः यह पता है कि अमेरिका में भी मेरा यही लक्ष्य था। सीटी कुछ दिन भारत में हमारे संन्यासी संप्रदाय के रीति-रिवाज़ के अनुसार निवास कर चुके हैं। वे एक पढ़े-लिखे, संस्कृत भाषा के अच्छे ज्ञाता तथा अत्यंत ही उत्साही व्यक्ति हैं।...यहाँ तक सब अच्छा है।... पवित्रता, दृढ़ता तथा उद्यम-—ये तीनों ही गुण में एक साथ चाहता हूँ। यहाँ पर यदि ऐसे छः व्यक्ति भी मुझे मिल जायँ, तो मेरा कार्य चलता रहेगा। ऐसे दो-चार व्यक्तियों के मिलने की भी आशा है। भवदीय, विवेकानंद (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) रीडिंग, इंग्लैंड, २४ सितंबर, १८९५ प्रिय श्रीमती बुल, श्री स्टर्डी को संस्कृत सीखने में सहायता प्रदान करने के सिवा मैंने अब तक और कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया है। श्री स्टर्डी ने मुझे अपने गुरुभाइयों में से ऐसे एक संन्यासी को यहाँ बुलाने के लिए कहा है, जो कि मेरे अमेरिका चले जाने पर उसकी सहायता कर सके। मैं भी भारत में एक संन्यासी के लिए लिख चुका हूँ। अब तक सब ठीक ही चला है। इसके आगे आनेवाली तरंग की प्रतीक्षा में मैं हूँ। 'न टालो, न ढूँढ़ो—भगवान अपनी इच्छानुसार जो कुछ भेजे, उसके लिए प्रतीक्षा करते रहो', यही मेरा मूलमंत्र है। यह ठीक है कि मैं बहुत कम पत्र लिखता हूँ, किंतु मेरा हृदय कृतज्ञता से परिपूर्ण है। शुभेच्छु, विवेकानंद (श्रीमती एफ़० एच० लेगेट को लिखित) द्वारा ई० टी० स्टर्डी, हाई व्यू, कैवरशम, रीडिंग, इंग्लैंड, DD अक्तूबर, १८९५ माँ, आप अपने पुत्र को भूली तो न होंगी? आप अब कहाँ है ? और टान्टी तथा बच्चे ? आपके मंदिर के हमारे साधुमना पुजारी का क्या समाचार है ? जो जो इतनी शीघ्र 'निर्वाण' तो नहीं प्राप्त कर पायेगी, किंतु उसका गंभीर मौन एक बड़ी 'समाधि' जैसा ज़रूर लग रहा है। क्या आप यात्रा कर रही है ? मुझे इंग्लैंड बड़ा आनंददायक लग रहा है। मैं अपने मित्र के साथ 'दर्शन' पर ही गुज़र कर रहा हूँ, खाने-पीने और धूम्रपान के लिए गुंजाइश बहुत कम रहने देता हूँ। द्वैतवाद, अद्वैतवाद आदि के अतिरिक्त हमें कुछ नहीं मिल रहा है। होलिस्टर मेरी समझ में अपनी लंबी पतलून में बड़ा साहसी हो गया है। अल्बर्टा जर्मन पढ़ रही है। यहाँ के अंग्रेज़ बड़े सहृदय है। कुछ एंग्लो इंडियनों को छोड़कर वे काले आदमियों से बिल्कुल घृणा नहीं करते। न वे मुझे सड़कों पर 'हूट' ही करते हैं। कभी कभी मैं सोचने लगता हूँ कि कहीं मेरा चेहरा गोरा तो नहीं हो गया, किंतु दर्पण सारे सत्य को प्रकट कर देता है। फिर भी लोग यहाँ बड़े सहृदय है। फिर भी जो अंग्रेज़ स्त्री-पुरुष भारत से प्रेमभाव रखते हैं, वे स्वयं हिंदुओं की अपेक्षा अधिक हिंदू हैं। आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा कि पूर्णतः भारतीय रीति से मैं ढेर सारी सब्जियाँ पकवा लेता हूँ। जब अंग्रेज़ कोई काम हाथ में लेता है, तब वह उसकी गहराइयों में प्रवेश करता है। कल यहाँ पर एक उच्च अधिकारी प्रो० फ़ेज़र से मिला। उन्होंने अपना आधा जीवन भारत में बिताया है और उन्होंने प्राचीन विचार और ज्ञान में इतना विचरण किया है कि वे भारत के परे किसी अन्य चीज़ की रत्ती भर चिंता नहीं करते ! आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि यहाँ बहुत से विचारशील स्त्री-पुरुष सोचते हैं कि सामाजिक समस्या का एकमात्र हल हिंदुओं की जाति-प्रथा है। आप कल्पना कर सकती है कि अपने मस्तिष्क में यह भाव रखते हुए वे समाजवादियों तथा दूसरे समाजवादी प्रजातंत्रवादियों से कितनी घृणा करते होंगे! फिर, यहाँ पुरुष-अत्यंत उच्चशिक्षा प्राप्त पुरुष, भारतीय चिंतन में अत्यधिक रुचि रखते हैं, किंतु स्त्रियाँ बहुत कम। अमेरिका की अपेक्षा यहाँ स्त्रियों का क्षेत्र अधिक संकुचित्त है। अभी तक मेरा सब काम ठीक चल रहा है। भविष्य में जो प्रगति होगी, वह मैं आपको सूचित करूँगा। पिता परिवार को, राजमाता को, (उपाधिरहित) 'जो जो' को और बच्चों को मेरा प्रेम। सप्रेम और साशीष सदा आपका, विवेकानंद (स्वामी अभेदानंद को लिखित) द्वारा ई० टी० स्टर्डी, हाई व्यू, कैवरशम, रीडिंग, इंग्लंड अक्तूबर, 1895 प्रिय काली, तुम्हें मेरा पिछला पत्र मिला होगा। इन दिनों सभी चिट्ठियाँ ऊपर के पते पर भेजो। श्री स्टर्डी तारक दादा से परिचित है। वह मुझे अपने निवास पर ले आया है और हम दोनों इंग्लैंड में एक उत्तेजना पैदा करने की कोशिश कर रहे है। इस वर्ष पुनः नवंबर में अमेरिका के लिए प्रस्थान करूँगा। अत: मुझे संस्कृत और अंग्रेज़ी-ख़ासकर दूसरी-भाषा यथेष्ट रूप से जाननेवाले व्यक्ति शशि या तुम या सारदा की आवश्यकता है। अब अगर तुम पुनः पूर्ण स्वस्थ हो गए हो, तो बहुत अच्छा, तुम चले आओ, या शरत् को भेजो। अनुगामियों को, जिन्हें मैं छोड़ जाऊँगा, शिक्षा देने, वेदांत के अध्ययन के लिए उन्हें प्रस्तुत करने, अंग्रेज़ी में कुछ अनुवाद करने तथा कभी कभी (समय समय पर) व्याख्यान देने का कार्य है। कर्मणा बाध्यते बुद्धिः। अमुक आने को बहुत उत्सुक है, किंतु जब तक आधार सुदृढ़ नहीं होता, किसी भी चीज़ के गिर जाने की बहुत संभावना है। इस पत्र के साथ मैं एक चेक भी भेज रहा हूँ। कोई भी आये—(किंतु) कपड़े और दूसरी आवश्यक चीज़ें ख़रीद लो। मास्टर महाशय महेन्द्र बाबू के नाम चेक भेज रहा हूँ। गंगाधर का तिब्बती 'चोगा' मठ में है, उसी तरह का 'चोगा', गेरुआ रंग का, दर्जी से बनवा लो। ध्यान रखना कि कॉलर थोड़ा ऊँचा हो, जिसमें गला और गर्दन रहे।... इसके अतिरिक्त तुम्हारे पास एक गर्म ओवरकोट अवश्य हो, क्योंकि यहाँ सर्दी बहुत है। जहाज़ पर यदि तुम ओवरकोट पहने नहीं रहोगे, तो तुम्हें बहुत कष्ट होगा।... मैं द्वितीय श्रेणी का टिकट भेज रहा हूँ, क्योंकि प्रथम श्रेणी और द्वितीय श्रेणी के बर्थ में अधिक अंतर नहीं है। ...अगर शशि को भेजना निश्चित हो, तो जहाज़ के खजांची को पहले ही सूचित कर दो, जिसमें उसके लिए निरामिष भोजन का प्रबंध कर दे। बम्बई जाकर मेंसर्स किंग, किंग एंड कंपनी, फ़ोर्ट, बम्बई से मुलाक़ात करो और उनसे कहो कि तुम श्री स्टर्डी के आदमी हो। तब वे तुम्हें इंग्लैंड तक का टिकट दे देंगे। यहाँ से आदेश के साथ कंपनी को एक पत्र भेजा जा रहा है। मैं खेतड़ी के महाराजा को भी लिख दे रहा हूँ कि वे अपने बम्बई के एजेंट को आदेश दें कि तुम्हारा पैसेज सुरक्षित कराने की व्यवस्था कर दे। अगर १५०) की रक़म तुम्हारे वस्त्रों के लिए पर्याप्त न हो, तो शेष राखाल से ले लेना। बाद में मैं वह राशि उसे भेज दूंगा। जेब-ख़र्च के लिए और ५०) रुपये रख लेना-राखाल से ले लेना; बाद में मैं चुकता कर दूंगा। चुनी बाबू को जो धन मैंने भेजा था, उसकी प्राप्ति की कोई सूचना मुझे अब तक नहीं मिली है। जितना शीघ्र हो सके, प्रस्थान करो। महेन्द्र बाबू को सूचित कर दो कि कलकत्ता में वे ही मेरे एजेंट हैं। उनसे कहो कि अगली डाक से श्री स्टर्डी को यह सूचित करते हुए पत्र लिख दें कि वे कलकत्ता में तुम्हारी ओर से व्यापार संबंधी सभी कार्यों की देख-भाल करेंगे। वस्तुतः श्री स्टर्डी इंग्लैंड में मेरे सचिव है, महेन्द्र बाबू कलकत्ता में और आलासिंगा मद्रास में। यह सूचना मद्रास भी भेज देना। यदि हम सभी कटिबद्ध होकर काम न करें, तो क्या कोई काम हो सकता है ? अतः तैयार हो जाओ और कार्य आरंभ कर दो! 'भाग्य बहादुर और कर्मठ व्यक्ति का ही साथ देता है।' पीछे मुड़कर मत देखो-आगे, अपार शक्ति, अपरिमित उत्साह, अमित साहस और निस्सीम धैर्य की आवश्यकता है—और तभी महत् कार्य निष्पन्न किए जा सकते हैं। हमें पूरे विश्व को उद्दीप्त करना है। जिस दिन जहाज़ प्रस्थान करने को हो, उस दिन तुम श्री स्टर्डी को यह सूचित करते हुए पत्र लिख दो कि किस जहाज़ से इंग्लैंड आ रहे हो। अन्यथा लंदन पहुँचने पर तुम्हें कठिनाई में पड़ने की संभावना है। उसी जहाज़ से आओ, जो सीधे लंदन आता हो, यद्यपि यात्रा (समुद्र) में कुछ अधिक दिन भी लग जाता हो, किंतु भाड़ा कम होगा। अभी तो पैसे कम है। समय आने पर हम लोग पृथ्वी के सभी भागों में बड़ी संख्या में उपदेशक भेजेंगे। सस्नेह तुम्हारा ही, विवेकानंद पुनश्च—-तुम बम्बई जा रहे हो— यह खेतड़ी के महाराजा को शीघ्र लिख दो और यह भी कि उनका एजेंट पैसेज सुरक्षित कराने तथा जहाज़ पर चढ़ा देने आदि में प्रस्तुत रहा, तो प्रसन्नता होगी। पॉकेट—बुक में मेरा पता लिखकर रख लेना, जिसमें आगे कोई कठिनाई न हो। (भगिनी निवेदिता को लिखित) रीडिंग, इंग्लैंड, ४ अक्तूबर, १८९५ प्रिय निवेदिता, ...पवित्रता, धैर्य तथा प्रयत्न के द्वारा सारी बाधाएँ दूर हो जाती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि सभी महान कार्य धीरे-धीरे होते हैं।... सस्नेह तुम्हारा, विवेकानंद (जोसेफ़िन मैक्लिऑड' को लिखित) हाई व्यू, कैवरशम, रीडिंग, इंग्लैंड, अक्तूबर, १८९५ प्रिय 'जो जो', तुम्हारा पत्र पाकर मुझे बेहद प्रसन्नता हुई। मुझे भय था कि तुम भूल गयी होगी। लंदन में और लंदन के आसपास मेरे कुछ भाषण होंगे। उनमें से एक २२ को ८-३० बजे प्रिंसेज़ हॉल में आम लोगों के लिए होगा। वहाँ आओ और एक कार्यक्रम बनाने की चेष्टा करो। अब तक यहाँ मैंने कुछ नहीं किया है। निसंदेह, सूत्रपात करने में ही दिक्कत होती है। न्यूयार्क में जो कुछ था, उतना करने में मुझे अमेरिका में दो साल लग गए थे। सभी को प्यार। सदा तुम्हारा, विवेकानंद (स्वामी ब्रह्मानंद को लिखित) द्वारा श्री ई० टी० स्टर्डी, हाई व्य, कैवरशम, रीडिंग, अक्तूबर, १८९५ अभिन्नहृदय, तुम जानते हो कि अब मैं इंग्लैंड में हूँ। क़रीब एक महीना यहाँ रहकर फिर अमेरिका चला जाऊँगा। अगली ग्रीष्म ऋतु में फिर इंग्लैंड आ जाऊँगा। इस समय इंग्लैंड में विशेष कुछ होने की आशा नहीं है, परंतु प्रभु सर्वशक्तिशाली है। धीरे-धीरे देखा जाएगा। इसके पहले शरत् के आने के लिए रुपये भेजे हैं तथा पत्र भी लिखा है। शरत या शशि, इन दोनों में से किसी एक को भेजने का बन्दोबस्त करना। यदि शशि पूर्णरूपेण आरोग्य हो गया है, तो उसे भेजना। शीतप्रधान देश में चर्मरोग बढ़ता नहीं है-—यहाँ अत्यंत ठंड के कारण रोग दूर हो जाएगा। नहीं तो शरत् को भेजना। इस समय का आना असंभव है। अर्थात् रुपये स्टर्डी साहब के हैं, वे जिस तरह का आदमी चाहते हैं, वैसा ही लाना होगा। श्री स्टर्डी ने मुझसे मंत्र-दीक्षा ली है: वे बहुत उद्यमी और सज्जन व्यक्ति हैं। थियोसॉफ़ी के झमेंले में पड़कर वृथा समय नष्ट किया, इसलिए इन्हें बड़ा अफ़सोस है। पहले तो ऐसे आदमी की ज़रूरत है, जिसे अंग्रेज़ी और संस्कृत का अच्छा ज्ञान हो। यहाँ आने पर जल्दी अंग्रेज़ी सीख लेगा, यह सच है; परंतु मैं यहाँ सीखने के लिए मनुष्य अभी नहीं बुला सकता, जो शिक्षा दे सकें, पहले उन्हीं की आवश्यकता है। दूसरी बात यह है कि, जो संपत्ति और विपत्ति, दोनों में मुझे न छोड़े, ऐसे ही मनुष्य पर मुझे विश्वास है।...बड़ा ही विश्वासी मनुष्य होना चाहिए। फिर नींव डाली जा चुकने पर, जिसकी जितनी इच्छा हो, शोर-गुल मचाये, कुछ नहीं। ने कोई बुद्धिमानी नहीं दिखायी, जब वह व्यर्थ के हो-हल्ला एवं आवारा लोगों की बातों में आ गया। दादा, माना कि रामकृष्ण परमहंस एक नाचीज़ थे, माना कि उनके आश्रम में जाना बड़ी भूल का काम हुआ, परंतु अब उपाय क्या है ? केवल यही नहीं कि एक जन्म मुफ्त ही बीता, पर क्या मर्द की बात भी टलती है ? क्या दस पति भी होते हैं? तुम लोग चाहे जिसके दल में जाओ, मेरी ओर से कोई रुकावट नहीं-ज़रा भी नहीं। परंतु दुनिया भर में घूमकर देखा, उनकी परिधि के बाहर और सभी जगह मन में कुछ और कार्य में कुछ और है। जो उनके हैं, उन पर मेरा पूर्ण प्रेम और पूर्ण विश्वास है। क्या करूँ? मुझे एकांगी कहो, तो कह लेना, परंतु यही मेरी असल बात है। जिसने श्री रामकृष्ण को आत्मसमर्पण किया है, उसके पैरों में अगर काँटा भी चुभता है, तो वह मेरे हाड़ों में बेधता है; यों तो मैं सभी को प्यार करता हूँ। मेरी तरह असांप्रदायिक संसार में बिरला ही कोई होगा, परंतु उतना ही मेरा हठ है, माफ़ करना। उनकी दुहाई नहीं, तो और किसकी दुहाई दूँ ? अगले जन्म में कोई बड़ा गुरु देख लिया जाएगा, इस जन्म में तो इस शरीर को सदा के लिए उन्हीं अनपढ़ ब्राह्मण ने ख़रीद लिया है। मन की बात खुलकर कही दादा, गुस्सा न करना, मैं प्रार्थना करता हूँ। मैं तुम लोगों का गुलाम हूँ, जब तक तुम उनके गुलाम हो, बाल भर इसके बाहर हुए कि जैसे तुम, वैसे ही मैं।... देखते हो, देश में और विदेश में जितने भी मतमतांतर हो सकते हैं, उन सबको उन्होंने पहले ही से निगलकर पेट में डाल लिया है दादा—मयैवेते निहताः पूर्वमेंव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्। आज हो कल, वे सब तुम लोगों के अंग में मिल जायँगे। हाय रे अल्प विश्वास! उनकी कृपा से, ब्रह्मांडं गोष्पदायते। नमकहराम न होना, इस पाप का प्रायश्चित नहीं है। नाम-यश, सुकर्म—यज्जुहोषि यत्तपस्यसि यदश्नासि आदि 'जो कुछ हवन देते हो, जो कुछ तप के फलस्वरूप प्राप्त करते हो, जो कुछ अन्नरूप में ग्रहण करते हो-सब उनके चरणों में समर्पित कर दो। पृथ्वी पर और क्या है, जो हमें चाहिए? उन्होंने हमें शरण दे दी और क्या चाहिए ? भक्ति स्वयं फलस्वरूपा है और क्या चाहिए? हे भाई, जिन्होंने खिला-पिलाकर, विद्या-बुद्धि देकर मनुष्य बनाया, जिन्होंने हमारी आत्मा की आँखें खोल दीं, जिनके रूप में हमने रात-दिन सजीव ईश्वर का दर्शन किया, जिनकी पवित्रता, प्रेम और ऐश्वर्य का राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, चैतन्य आदि में कण मात्र प्रकाश है, उनके निकट नमकहरामी !!! बुद्ध, कृष्ण आदि का तीन चौथाई हिस्सा कपोल-कल्पना के सिवा और क्या है ? ...अरे, तुम ऐसे दयालु देव की दया भूलते हो ? ...कृष्ण, ईसा पैदा हुए थे या नहीं, इसका कोई प्रमाण नहीं है। और साक्षात् भगवान को देखकर भी तुम्हें कभी-कभी मतिभ्रम होता है ! तुम लोगों के जीवन को धिक्कार है ! मैं और क्या कहँ ? देश-विदेश में नास्तिक-पाखंडी भी उनकी मूर्ति की पूजा करते हैं, और तुम लोगों को समय समय पर मतिभ्रम होता है !!! तुम्हारे जैसे लाखों वे अपने निःश्वास से गढ़ लेंगे। तुम लोगों का जन्म धन्य है, कुल धन्य है, देश धन्य है कि उनके पैरों की धूलि मिली। मैं क्या करूँ, मुझे लाचार होकर ऐसा कट्टर होना पड़ रहा है। मुझे तो उनके जनों को छोड़ और कहीं पवित्रता और निःस्वार्थता देखने को नहीं मिलती। सभी जगह 'मुंह में राम, बगल में छुरी' है—सिर्फ उनके जनों को छोड़कर। वे रक्षा कर रहे हैं, यह मैं देख जो रहा हूँ। अरे पागल, परी जैसी औरतें, लाखों रुपये, ये सब मेरे लिए तुच्छ हो रहे हैं, यह क्या मेरे बल पर? या वे रक्षा कर रहे हैं, इसलिए ! उनके सिवाय दूसरे किसी को एक भी रुपया या स्त्री के बारे में मैं विश्वास जो नहीं कर सकता। उन पर जिसका विश्वास नहीं है और परमाराध्या माता जी पर जिसकी भक्ति नहीं है, उसका कहीं कुछ भी न होगा यह सीधी भाषा में कह दिया, याद रखना। ...हरमोहन ने अपनी दुःखपूर्ण अवस्था का हाल लिखा है और शीघ्र ही जगह छोड़ने को लिखा है। उसने कुछ व्याख्यान देने के लिए प्रार्थना की है, परंतु व्याख्यानादि अभी कुछ नहीं है, परंतु कुछ रुपये अभी टेंट में हैं, उसे भेज दूंगा, डरने की कोई बात नहीं। पत्र पाते ही भेज दूंगा; परंतु संदेह हो रहा है कि मेरे (पहले के) रुपये बीच में ही मारे गए, इसलिए फिर नहीं भेजे। दूसरे किस पते पर भेजूं, वह भी नहीं मालूम। मद्रासवाले, जान पड़ता है, पत्रिका न निकाल सके। हिंदू जाति में व्यवहार-कुशलता बिल्कुल ही नहीं है। जिस समय जिस काम के लिए प्रतिज्ञा करो, ठीक उसी समय उसे करना ही चाहिए, नहीं तो लोगों का विश्वास उठ जाता है। रुपये-पैसे की बात में पत्र मिलते ही अति शीघ्र उत्तर देना चाहिए।...यदि मास्टर महाशय राज़ी हों, तो उन्हें मेरा कलकत्ते का एजेन्ट होने के लिए कहना; उन पर मेरा पूर्ण विश्वास है और वे इन विषयों को अच्छी तरह समझते हैं। लड़कपन और जल्दबाज़ी का काम नहीं है। उन्हें कोई ऐसा केंद्र ठीक करने के लिए कहना, जो पता क्षण क्षण में न बदले और जहाँ मैं कलकत्ते के सभी पत्र भेज सकें।... किमधिकमिति, नरेन्द्र (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) रीडिंग, ६ अक्तूबर, १८९५ प्रिय श्रीमती बुल, ...श्री स्टर्डी के साथ भक्तिविषयक एक पुस्तक का मैं अनुवाद कर रहा हूँ, पर्याप्त टीकाओं के साथ वह शीघ्र ही प्रकाशित होगी। इस महीने में मुझे लंदन में दो तथा 'मैडनहेड' में एक भाषण देने होंगे। इससे मुझे कतिपय 'कक्षाएँ' खोलने का तथा पारिवारिक' भाषण प्रदान करने का अवसर मिलेगा। व्यर्थ का शोर-गुल न मचाकर हम शांतिपूर्वक कार्य करना चाहते हैं।... शुभेच्छु, विवेकानंद (जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित) हाई व्यू, कैवरशम, रीडिंग, इंग्लैंड, २० अक्तूबर, १८९५ प्रिय 'जो जो', लेगेट-परिवार के लंदन आने के अवसर पर अभिनंदनस्वरूप यह संक्षिप्त पत्र। एक तरह से यह मेरा स्वदेश होने के कारण सर्वप्रथम मैं तुम्हें अपना अभिनंदन भेजता हूँ। तुम्हारा अभिनंदन अगले मंगलवार, २२ तारीख़ को साढ़े आठ बजे (अपराह्न में) प्रिंसेज़ हॉल में स्वीकार करूँगा। मंगल तक मैं इतना व्यस्त हूँ कि मुझे खेद है कि मैं तुमसे मिलने की शीघ्रता नहीं कर सकूँगा। फिर भी उसके बाद किसी दिन मैं मिलने आऊँगा। संभवतः मैं मंगल को आ सकता हूँ। चिरंतन प्यार और शुभ कामनाओं के साथ। विवेकानंद (श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित) लंदन, २४ अक्तूबर, १८९५ प्रिय आलासिंगा, ...मैं अपना पहला व्याख्यान दे चुका हूँ और 'स्टैंडर्ड' को देखने से तुम जान सकोगे कि वह कितनी अच्छी तरह ग्रहण किया गया। 'स्टैंडर्ड' एक अत्यंत प्रभावशाली और परिवर्तन-विरोधी समाचारपत्र है। मैं एक महीने तक लंदन में रहूँगा, तत्पश्चात् अमेरिका जाऊँगा और फिर अगली गर्मी में वापस आऊँगा। अब तक तुम देखोगे कि इंग्लैंड में अच्छा ही श्रीगणेश हुआ है। साहसी होकर काम करो। धीरज और स्थिरता से काम करना यही एक मार्ग है। आगे बढ़ो और याद रखो धीरज, साहस, पवित्रता और अनवरत कर्म।...जब तक तुम पवित्र होकर अपने उद्देश्य पर डटे रहोगे, तब तक तुम कभी निष्फल नहीं होओगे- माँ तुम्हें कभी न छोड़ेगी और पूर्ण आशीर्वाद के तुम पात्र हो जाओगे। सस्नेह तुम्हारा, विवेकानंद (श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) ८०, ओक्ले स्ट्रीट, चेल्सी, ३१ अक्तूबर, १८९५, सायंकाल, ५ बजे प्रिय मित्र, अभी-अभी भद्र युवक, श्री सिलवरलाक तथा उनके मित्र चले गए। कुमारी मूलर भी आज शाम को आयी थीं और इन दोनों के आते ही वे चली गयीं। इनमें से एक इंजीनियर हैं तथा दूसरे अनाज का व्यापार करते हैं। इन दोनों ने दर्शन तथा विज्ञान के बहुत से ग्रंथों का अध्ययन किया है एवं अपने आधुनिकतम सिद्धांतों के साथ भारतीय प्राचीन मतवाद का अपूर्व सामंजस्य देखकर वे अत्यंत प्रभावित हुए हैं। दोनों ही बहुत सज्जन, बुद्धिमान तथा पंडित हैं, उनमें से एक ने तो गिरजा से अपना नाता तोड़ लिया है और दूसरे ने इस बारे में मेरा मत पूछा है। इनसे मिलने के बाद मेरा ध्यान दो बातों की ओर आकृष्ट हुआ है। प्रथम तो यह कि उस पुस्तक को हमें शीघ्र समाप्त करना है। उस पुस्तक के द्वारा इस प्रकार के कुछ लोगों के साथ हमारा संबंध स्थापित हो सकेगा, जो कि दार्शनिक आधार पर धर्म को मानते हैं तथा अलौकिकता को एकदम पसंद नहीं करते। दूसरी बात यह कि ये दोनों ही हमारे धर्म के आचरण को जानना चाहते हैं। इस घटना से मेरी आँखें खुल गयी हैं। जगत् की साधारण जनता कोई न कोई अवलंबन चाहती है। वास्तव में आचरण के द्वारा रूपांतरित दर्शन को ही साधारणतया धर्म कहा जाता है। इसलिए धर्म-मंदिर तथा कुछ क्रिया-कर्मों का होना नितांत आवश्यक है, अर्थात् यथासंभव शीघ्र ही हमें कुछ क्रियाकर्म निर्धारित करने होंगे। यदि तुम शनिवार को सुबह या उससे पहले आ सको, तो हम 'एशियाटिक सोसाइटी' में चलेंगे अथवा यदि तुम मेरे लिए 'हेमाद्रि कोष' नामक ग्रंथ का संग्रह कर सको, तो हमारे आवश्यकीय सब कुछ तथ्य उसीमें मिल जायँगे। कृपया उपनिषदों को अपने साथ लेते आओ। मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्युकालपर्यंत हमें कोई अपूर्व सिद्धांत निश्चित रूप से स्थिर करना है; असंबद्ध दार्शनिक मतवाद मानव-जीवन पर कोई भी प्रभाव नहीं डाल सकता। यदि हम अपनी 'कक्षाओं के समाप्त होने के पूर्व ही उस पुस्तक को पूरा कर सके तथा दो-एक सार्वजनिक आयोजनों के द्वारा जनता के समक्ष उसका प्रकाशन कर सकें, तो वह चालू हो जाएगी। ये लोग संघबद्ध होना चाहते हैं और साथ ही साथ क्रिया-कर्मों को भी जानना चाहते है; और वास्तव में यही एक कारण है, जिससे लोग कभी भी पाश्चात्य देशवासियों पर अपना प्रभाव नहीं फैला सकते। नैतिक समिति' (Ethical Society) के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेने के कारण उन लोगों ने मुझे धन्यवाद देकर एक पत्र लिखा है तथा उनका एक 'फ़ार्म' भी भेजा है। वे चाहते हैं कि मैं अपने साथ कोई पुस्तक ले जाऊँ तथा १० मिनट के लिए उससे कुछ पढूं। क्या तुम अपने साथ गीता तथा बौद्ध जातक का अनुवाद लाने की कृपा करोगे? तुमसे मिले बिना मैं इस विषय में कुछ भी नहीं करूँगा। मेरी प्रीति तथा शुभेच्छा ग्रहण करो। तुम्हारा, विवेकानंद (जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित) ८०, ओक्ले स्ट्रीट, चेल्सी, ३१ अक्तूबर, १८९५ प्रिय ‘जो जो’, शुक्रवार को भोजन पर आकर मुझे बहत प्रसन्नता होगी। अल्बेमाले में श्री क्वायेट से भी भेट हो जाएगी। दो अमेरिकन महिलाएँ, माँ और बेटी-श्रीमती एवं कुमारी नेटर-जो लंदन में रहती हैं, गत रात्रि मेरा व्याख्यान सुनने आयी थीं। सचमुच वे बहुत सहृदय थीं। श्री चेमियर के आवास पर व्याख्यान समाप्त हो गया। अगले शनिवार की रात्रि से अपने निवास स्थान पर ही व्याख्यान आरंभ करूँगा। व्याख्यान के लिए अच्छे-बड़े आकार के एक या दो कमरे मिल जाने की आशा है। 'मंक्योर कॉनवेज़ एथिकल सोसाइटी' की ओर से भी मुझे निमंत्रण मिला है, जहाँ १० तारीख को भाषण करूंगा। अगले मंगलवार को 'बलबोआ सोसाइटी' में भी भाषण करूँगा। प्रभु सहायता करेंगे। निश्चित नहीं कह सकता हूँ कि शनिवार को तुम्हारे साथ जा सकूँगा या नहीं। तुम वहाँ अपने देश में किसी भी तरह खूब मजे लूट सकती हो और श्रीमान् और श्रीमती स्टर्डी तो बहुत श्रेष्ठ लोग है। प्यार और शुभकामनाओं के साथ, विवेकानंद पुनश्च—-मेरे लिए थोड़ी सब्जी मँगवा लेना। चावल की आवश्यकता मैं महसूस नहीं करता— रोटी पर्याप्त होगी। मैं अब एकदम शाकाहारी हो गया हूँ। (श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) ८०, ओक्ले स्ट्रीट, मामला चेल्सी, १ नवंबर, १८९५ प्रिय मित्र, बेलेरिन (?) सोसाइटी के ३५ टिकट हैं। विषय है-'भारतीय दर्शन और पश्चिमी समाज'। अध्यक्ष कोई नहीं है। चूंकि तुमने उन्हें देने के लिए निवेदन नहीं किया, मैं नहीं भेज रहा हूँ। तुम्हारे सभी पत्र मुझे समय पर मिले। 'सत्' में तुम्हारा, विवेकानंद (श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) २ नवंबर, १८९५ प्रिय मित्र, मैं सोचता हूँ, तुम सही हो; हम अपनी ही लीक पर काम करें और वस्तुओं को पनपने दें। व्याख्यान का परिपत्र भेज रहा हूँ। अगर कोई असाधारण बाधा नहीं हुई, तो मैं रविवार को आऊँगा। सप्रेम तुम्हारा, विवेकानंद (श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) आर० एम० एस० 'ब्रिटानिक', १८९५ शुभ और प्रिय, अब तक यात्रा बहुत सुखद रही। पोताधिकारी (पर्सर) मेरे प्रति बड़े ही सदय थे। उन्होंने मुझे एक केबिन दे दिया था। एकमात्र कठिनाई भोजन की थी—हमेंशा गोश्त ही गोश्त। आज उन्होंने मुझे कुछ सब्जी देने का वचन दिया है। हम लोग अभी स्थिर (लंगर डाले हुए की स्थिति में) हैं। कुहरा इतना घना है कि जहाज़ आगे नहीं बढ़ सकता। अतः इस अवसर का उपयोग कर मैं कुछ पत्र लिख रहा हूँ। अपूर्व अभेद्य कुहासा है, यद्यपि सूर्य सहर्ष दीप्त है। मेरी ओर से बच्ची को चुंबन तथा श्रीमती स्टर्डी को और तुम्हें प्यार और शुभकामनाएँ। सदा तुम्हारा ही, विवेकानंद पुनश्च-—कृपया कुमारी मूलर को मेरा प्यार सूचित करना। एवेन्यू रोड में मैंने अपना 'नाइट शर्ट' छोड़ दिया है। अतः मुझे तब तक उसके बिना काम चलाना होगा, जब तक कि डेक के नीचे बक्सा नहीं आ जाता है। (स्वामी अखंडानंद को लिखित) लंदन, १३ नवंबर, १८९५ प्रिय अखंडानंद, तुम्हारा पत्र पाकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तुम जो कार्य कर रहे हो, वह बहुत अच्छा है। रा—बड़े उदार और मुक्तहस्त हैं, परंतु इसलिए उनसे इसका नाजाएज़ फ़ायदा न उठाना चाहिए। श्रीमान्—का अर्थ-संग्रह करने का संकल्प अच्छा है; पर, मेरे भैया, यह संसार बड़ा ही विचित्र है, काम-कांचन से जहाँ पिंड छुड़ाना ब्रह्मा-विष्णु तक के लिए दुष्कर है। जहाँ रुपये-पैसे का संबंध है, वहीं भ्रम होने की संभावना है। अतः मठ के नाम पर अर्थ-संग्रह आदि का काम कोई न करे।...मेरे या हम लोगों के नाम से कोई गृहस्थ मठ के लिए या किसी दूसरी बाबत चंदा वसूल कर रहा है, यह सुनते ही उस पर संदेह करना और उसका साथ न देना। विशेषकर साधनहींन गृहस्थ अपना अभाव दूर करने के लिए तरह तरह के उपाय किया करते हैं। अतः यदि कोई कोई विश्वासी भक्त अथवा सहदय गृहस्थ, जो साधनसंपन्न है, मठ आदि बनाने के लिए उद्योग करे या संग्रहीत अर्थ कोई धनी और विश्वासी गृहस्थ के पास हो, तो अच्छी बात, नहीं तो उससे अलग रहना। इसके विपरीत यह कि औरों को इस कार्य से मना करना। तुम अभी बालक हो, कांचन की माया नहीं समझते। मौक़ा मिलने पर अत्यंत नीतिपरायण मनुष्य भी प्रतारक बन जाता है। यही संसार है। चार आदमी के साथ मिलकर कोई काम करना हम लोगों की आदत नहीं। हमारी इसीलिए इतनी दुर्दशा हो रही है। जो आज्ञा-पालन करना जानते हैं, वे ही आज्ञा देना भी जानते हैं। पहले आदेश-पालन करना सीखो। इन सब पाश्चात्य राष्ट्रों में स्वाधीनता का भाव जैसा प्रबल है, आदेश-पालन करने का भाव भी वैसा ही प्रबल है। हम सभी अपने आपको बड़ा समझते हैं, इससे कोई काम नहीं बनता। महान उद्यम, महान साहस, महावीर्य और सबसे पहले आज्ञा-पालन-ये सब गुण व्यक्तिगत या जातिगत उन्नति के लिए एकमात्र उपाय है। और ये गुण बिल्कुल ही हममें नहीं हैं। तुम जिस तरह काम कर रहे हो वैसे ही करते जाओ। परंतु अपने विद्याभ्यास पर विशेष दृष्टि रखना। य-बाबू ने एक हिंदी पत्रिका मुझे भेजी है उसमें अलवर के पंडित रा–—ने मेरी शिकागो-वक्तृता का अनुवाद किया है। दोनों सज्जनों को मेरी विशेष कृतज्ञता और धन्यवाद अर्पित करना। अब तुम्हारे लिए कुछ लिखता हूँ। राजपूताना में एक केंद्र खोलने का विशेष प्रयत्न करना। जयपुर या अजमेर जैसे किसी केंद्रीय स्थान में वह होना चाहिए। इसके बाद अलवर, खेतड़ी आदि शहरों में उसकी शाखाएँ स्थापित करना। सबके साथ मिलना, हमें किसी से विरोध की आवश्यकता नहीं है। पंडित ना-—जी को मेरा प्रेमालिंगन बता देना, वे बड़े उद्यमी हैं, समय आने पर बहुत ही व्यावहारिक सिद्ध होंगे। मा–—साहब और—-जी से भी मेरा यथोचित्त आदर कहना। क्या धर्म-समाज नाम की या इसी प्रकार की एक संस्था अजमेंर में स्थापित हुई है ? इसके विषय में मेरे पास लिखना। म-—बाबू लिखते हैं कि उन्होंने एवं दूसरे लोगों ने मेरे पास पत्र लिखे, पर वे मुझे अभी तक नहीं मिले।... मठ, केंद्र या इस प्रकार की किसी संस्था को कलकत्ते में स्थापित करना व्यर्थ है। वाराणसी ही ऐसे कार्यों के लिए उपयुक्त स्थान है। ऐसी मेरी बहुत सी योजनाएँ है; परंतु ये सब चीज़ें धन पर निर्भर करती हैं। धीरे-धीरे तुम्हें सब मालूम हो जाएगा। तुमने समाचारपत्रों में देखा होगा कि इंग्लैंड में हमारे आंदोलन की नींव जम रही है। यहाँ सभी काम धीरे-धीरे होते हैं। परंतु जॉन बुल एक बार जिस काम में हाथ डालता है, उसे फिर छोड़ता नहीं। अमेरिकावासी बहुत फुर्तीले हैं सही, पर प्रायः आग पर पड़ी फूस की तरह होते हैं, जो जल्द ही ठंडे पड़ जाते हैं। रामकृष्ण परमहंस अवतार है, इत्यादि मत सर्वसाधारण में प्रचारित न करना। अलवर में मेरे कई चेले हैं, उनकी ख़बर रखना।... महाशक्ति का तुममें संचार होगा-—कदापि भयभीत मत होना। पवित्र होओ, विश्वासी होओ, और आज्ञापालक होओ। बाल-विवाह के विरुद्ध शिक्षा देना। बाल-विवाह का समर्थन किसी भी शास्त्र में नहीं है। पर छोटी-छोटी लड़कियों के ब्याह के विरुद्ध अभी कुछ मत कहना। लड़कों का ब्याह रोक दोगे, तो लड़कियों का ब्याह भी अपने आप रुक जाएगा। लड़की तो फिर लड़की से ब्याही नहीं जाएगी। लाहौर आर्य समाज के मंत्री को लिखना कि अच्युतानंद नाम के जो संन्यासी उनके साथ रहते थे, वे अब कहाँ हैं ? उनकी विशेष खोज करना।... डर क्या ? प्रेमपूर्वक तुम्हारा, विवेकानंद (श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित) लंदन, १८ नवंबर, १८९५ प्रिय आलासिंगा, इंग्लैंड में मेरा कार्य वास्तव में बहुत अच्छा है। उसे देखकर मैं स्वयं विस्मित हूँ। इंग्लैंडनिवासी समाचारपत्रों द्वारा अधिक प्रचार नहीं करते, बल्कि चुपचाप काम करते हैं। अमेरिका की अपेक्षा इंग्लैंड में मैं निश्चय ही अधिक कार्य कर सकूँगा। वे दल के दल आते हैं और इतने लोगों को बैठाने का मेरे पास स्थान भी नहीं रहता, इसलिए वे सब लोग यहाँ तक कि स्त्रियाँ भी, पलथी मारकर ज़मीन पर बैठती हैं। मैं उनसे कहता हूँ कि वे यह कल्पना करने का यत्न करें कि वे भारत के गगनमंडल के नीचे एक फैले हुए वट-वृक्ष की छाया तले बैठे हैं, और उन्हें यह विचार अच्छा लगता है। मुझे आगामी सप्ताह में जाना होगा, इससे वे बहुत ही उदास हैं। उनमें से कुछ यह समझते हैं कि इतनी जल्दी जाने से मेरे काम में हानि पहुँचेगी। परंतु मैं ऐसा नहीं समझता। मैं मनुष्य या किसी वस्तु पर आश्रित नहीं रहता, केवल भगवान पर भरोसा करता हूँ और वह मेरे द्वारा कार्य करते हैं। ...बिना पाखंडी और कायर बने सबको प्रसन्न रखो। पवित्रता और शक्ति के साथ अपने आदर्श पर दृढ़ रहो और फिर तुम्हारे सामने कैसी भी बाधाएँ क्यों न हों, कुछ समय बाद संसार तुमको मानेगा ही। क जैसी बांग्ला कहावत है, मुझे मरने का भी समय नहीं है। काम, काम, काम। मैं इसी में लगा हूँ। मैं अपनी रोटी स्वयं कमाता हूँ, अपने देश की सहायता करता हूँ, और यह सब अकेले करता हूँ और फिर भी मित्रों तथा शत्रुओं से मुझे केवल निंदा ही निंदा मिलती है ! खैर, तुम लोग तो बालक हो ही, मुझे सब सहन करना पड़ेगा। मैंने कलकत्ते से एक संन्यासी को बुलाया है, और मैं उसे काम करने के लिए यहाँ छोड़ जाऊँगा। अमेरिका के लिए मैं एक और आदमी चाहता हूँ-मैं अपना ही आदमी चाहता हूँ। गुरु-भक्ति ही आध्यात्मिक उन्नति का आधार है। ...मैं निरंतर काम करते करते थक गया हूँ। कोई और हिंदू होता, तो वह इतने काम से मर चुका होता।...मैं भी दीर्घ काल तक विश्राम करने के लिए भारत आना चाहता हूँ। प्रेम और आशीर्वाद के साथ सदैव तुम्हारा, विवेकानंद (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) लंदन, २१ नवंबर, १८९५ प्रिय श्रीमती बुल, मैं बुधवार २७ तारीख को 'ब्रिटानिया' से जल-यात्रा कर रहा हूँ। अभी तक यहाँ मेरा कार्य संतोषजनक रहा है और आगामी ग्रीष्म में काम करूँगा, ऐसा विश्वास है।... आपका सस्नेह, विवेकानंद (कुमारी अल्बर्टा स्टारगीज़ को लिखित) आर० एम० एस० 'ब्रिटानिक', बृहस्पतिवार, प्रातःकाल, ५ दिसंबर, १८९५ प्रिय अल्बर्टा, कल सायंकाल तुम्हारा सुंदर पत्र मिला। तुमने मुझे याद किया, यह तुम्हारा कृपा है। मैं शीघ्र ही 'दिव्य दंपत्ति' देखने जा रहा हूँ। जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, श्री लेगेट संत हैं और तुम्हारी माँ रोम रोम से जन्मना सम्राज्ञी हैं तथा उनका हृदय एक संत का है। तुम आल्प्स का खूब आनंद ले रही हो, यह जानकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। अवश्य ही वह अद्भुत होगा। ऐसे ही स्थानों में आत्मा सदैव मुक्ति के लिए प्रेरित होती है। आध्यात्मिक दृष्टि से दरिद्र होने पर भी राष्ट्र भौतिक स्वतंत्रता के लिए अभीप्सा करता है। लंदन में मैं एक स्विस नवयुवक से मिला। वह मेरी कक्षाओं में आया करता था। मैं लंदन में बहुत सफल रहा और यद्यपि मैंने कोलाहलपूर्ण नगर की कोई चिंता नहीं की, मैं लोगों से बहुत खुश हुआ। अल्बर्टा, प्रारंभ में तुम्हारे देश में वेदांत की विचारधारा का प्रवेश कुछ अज्ञानी 'धूर्तों’ द्वारा हुआ और किसी को इस प्रकार के सूत्रपात से उत्पन्न कठिनाइयों के बीच कार्य करना है। तुमने देखा होगा कि उच्च वर्ग के बहुत कम लोग अमेरिका में मेरी कक्षाओं में आते थे। अमेरिका में उच्च वर्गों के धनी होने के कारण उनका सारा समय अपने धन के उपभोग और यूरोपवालों के अनकरण (मूर्खतापूर्ण नक़लचीपन ?) में बीतता है। इसके विपरीत इंग्लैंड में वेदांत के विचारों का प्रचार देश के सर्वश्रेष्ठ विद्वानों द्वारा हुआ है, और इंग्लैंड में उच्च वर्गों में बहुत से लोग बड़े विचारशील हैं। इसलिए तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि मुझे बनी-बनायी पृष्ठभूमि मिल गयी और मुझे विश्वास है कि अमेरिका की अपेक्षा इंग्लैंड में मेरा कार्य अधिक प्रभावशाली होगा। इसी के साथ अंग्रेज़ों की चारित्रिक दृढ़ता को लो और स्वयं निर्णय करो। इससे तुम्हें लगेगा कि मैंने इंग्लैंड संबंधी अपनी धारणा को बहुत बदल दिया है, मुझे यह स्वीकार करने में हर्ष होता है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि हम लोग जर्मनी में और भी अच्छा कार्य करेंगे। आगामी ग्रीष्म में मैं पुनः इंग्लैंड लौट रहा हूँ। इधर मेरा कार्य बड़े योग्य हाथों में है। जो जो जिस प्रकार अमेरिका में सहृदय और भली-सच्ची मित्र थी, उसी प्रकार यहाँ भी रही है, और तुम्हारे परिवार के प्रति तो मेरा ऋण विपुल ही है। होलिस्टर और तुम्हें मेरा स्नेह और आशीर्वाद ! कुहरे के कारण जहाज़ लंगर डाले हुए है। जहाज़ के भंडारी ने मुझे एक पूरा कमरा केवल मेरे ही लिए दे दिया है। वह बड़ा शिष्ट है और समझता है कि प्रत्येक हिंदू राजा होता है लेकिन सारा जादू तब उड़ जाएगा, जब उसे मालूम होगा कि राजा के पास कौड़ी भी नहीं है ! सस्नेह तुम्हारा, विवेकानंद (श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) २२८ पश्चिम ३९वाँ रास्ता, न्यूयार्क, ८ दिसंबर, १८९५ प्रिय मित्र, दस दिनों की कठोर एवं बहुत ऊबा देने वाली यात्रा के पश्चात् मैं सुरक्षित न्यूयार्क पहुँच गया। मेरे मित्रों ने कुछ कमरे ठीक कर लिये थे, जहाँ मैं अभी रह रहा हूँ और शीघ्र ही व्याख्यान आरंभ करने का मेरा इरादा है। इस बीच थियोसॉफ़िस्ट लोग बहुत सतर्क हो गए हैं और मुझे क्षति पहुँचाने की भरसक चेष्टा कर रहे हैं; किंतु उन्हें तथा उनके अनुयायियों को कुछ भी सफलता नहीं मिली है। श्रीमती लेगेट तथा अन्य मित्रों से मैं मिलने गया था, वे उतने ही सहृदय और उत्साही हैं, जितना कि पहले थे। संन्यासियों के आने के बारे में तुम्हें भारत से कोई समाचार मिला है ? यहाँ के कार्य का पूर्ण विवरण मैं बाद में लिखूगा। कृपया कुमारी मूलर, श्रीमती स्टर्डी और अन्य सभी मित्रों को मेरा सर्वोत्तम प्यार और बच्ची को मेरी ओर से चुंबन। 'सत' में सदा तुम्हारा, विवेकानंद (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) २२८ पश्चिम ३९वाँ रास्ता, न्यूयार्क, ८ दिसंबर, १८९५ प्रिय श्रीमती बुल, अपने पत्र में आपने मुझे जो आमंत्रण भेजा है, उसके लिए कोटिशः धन्यवाद। दस दिन की दीर्घ एवं कठिन समुद्र-यात्रा के उपरांत गत शुक्रवार को मैं यहाँ आ पहुँचा। समुद्र भयानक रूप से विक्षुब्ध था और अपने जीवन में मुझे पहली बार 'समुद्र-पीडा' (sea-sickness) से नितांत कष्ट उठाना पड़ा। आपको एक पात्र लाभ हुआ है, जानकर मुझे अत्यंत खुशी हुई, आप मेरी शुभकामनाएँ ग्रहण करें; शिशु का मंगल हो! कृपया श्रीमती एडम्म तथा कुमारी थर्सबी से मेरा हादिक स्नेह निवेदन करें। मैंने इंग्लैंड में कुछ एक अडिग मित्रों का संगठन किया है। आगामी गर्मी की ऋतु में पूनः वहाँ वापस जाऊँगा-—इस आशा को लेकर वे वहा पर मेरी अनुपस्थिति में काम करते रहेंगे। यहाँ पर किस प्रणाली से मैं कार्य करूँगा, यह अभी तक मैं निश्चय नहीं कर पाया हूँ। इसी बीच में एक बार डिट्रॉएट तथा शिकागो हो आना चाहता हूँ—-फिर न्यूयार्क लौटूंगा। जनता के समक्ष भाषण न देने का मैंने निश्चय कर लिया है; क्योंकि मैं यह देख रहा हूँ कि भाषण देने अथवा स्वतः कक्षा लेने में धन का संबंध न रखना ही मेरे लिए सर्वोत्कृष्ट कार्य है। भविष्य में उस कार्य से क्षति होने की संभावना है, साथ ही उसके द्वारा बुरा उदाहरण स्थापित होगा। इंग्लैंड में भी मैंने उसी प्रणाली से कार्य किया है और यहाँ तक कि स्वतः प्रेरित होकर भी जो लोग मुझे धन देना चाहते थे, उनके धन को मैंने वापस कर दिया है। श्री स्टर्डी ही धनवान होने के कारण बड़े बड़े सभागृहों में भाषण देने का अधिकांश व्यय वहन करते थे तथा बाकी व्यय में स्वयं वहन करता था। इससे कार्य भी अच्छी तरह से चलता था। और यदि एक निकृष्ट दृष्टांत देने से कोई दोष न हो, तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि धार्मिक क्षेत्र में भी मांग से अधिक वस्तु वितरित करना ठीक नहीं है। जितनी माँग हो, सिर्फ उतनी ही मात्रा में वस्तुओं का वितरण होना चाहिए। यदि लोग मुझे चाहते हैं, तो वे स्वयं ही भाषण का सारा प्रबंध करेंगे। इन विषयों को लेकर मुझे माथापच्ची करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि आप श्रीमती एडम्स तथा कुमारी लॉक के साथ परामर्श कर इस निर्णय पर पहुँचे कि शिकागो जाकर धारावाहिक रूप से भाषण देना मेरे लिए संभव होगा, तो मुझे सूचित करें; किंतु निश्चय ही रुपये-पैसों की बातों का इसके साथ कोई संपर्क नहीं होना चाहिए। मैं विभिन्न स्थानों में स्वतंत्र तथा स्वावलंबी संस्थाओं का पक्षपाती वे अपना कार्य अपनी अभिरुचि के अनुसार करें, एवं जिस खूबी के साथ वे कर सके, करें। अपने बारे में मेरा वक्तव्य इतना ही है कि मैं अपने को किसी संस्था के साथ जोड़ना नहीं चाहता हूँ। आशा है, आप शरीर और मन से स्वस्थ होंगी। प्रभुपदाश्रित, विवेकानंद (जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित) २२८ पश्चिम ३९ वाँ रास्ता, न्यूयार्क, ८ दिसंबर, १८९५ प्रिय 'जो जो’ दस दिनों की इतनी भीषण यात्रा के बाद, जिसे मुझे करनी पड़ी, मैं न्यूयार्क पहुँचा। कई दिनों तक मैं बेहद अस्वस्थ रहा। यूरोप के साफ़ और सुंदर नगरों की अपेक्षा न्यूयार्क बहुत गंदा और विपन्न लगता है। अगले सोमवार से काम आरंभ करने जा रहा हूँ। तुम्हारी पोटलियाँ दिव्य दंपत्ति को, जैसा अल्बर्टा उन्हें कहती है, सुरक्षित सुपुर्द कर दी गयीं। वे सदैव की भाँति बहुत भद्र है। श्री एवं श्रीमती सोलोमन तथा और दूसरे मित्रों से भेंट की। संयोग से श्रीमती गर्नसी के निवास पर श्रीमती पीक से भेंट हो गयी, किंतु अब तक श्रीमती रोथीन बर्गर के बारे में कोई ख़बर नहीं मिली है। इस क्रिसमस के अवसर पर स्वर्गविहंगों के साथ रिजले जा रहा हूँ। कभी इतनी इच्छा थी कि तुम वहाँ होतीं। क्या तुमने कभी ईसाबेल से भेंट की ? कृपया सभी मित्रों को मेरा प्यार और तुम्हारे लिए तो अनंत प्यार। इस संक्षिप्त पत्र के लिए क्षमा। अगली बार से लंबा पत्र लिखूगा। प्रभु' में सदा तुम्हारा, विवेकानंद (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) २२८ पश्चिम ३९वाँ रास्ता, न्यूयार्क, १० दिसंबर, १८९५ प्रिय श्रीमती बुल, ...मुझे सेक्रेटरी का पत्र मिला है। अनुरोध के अनुसार हार्वर्ड दार्शनिक क्लब के समक्ष भाषण देने में मुझे प्रसन्नता होगी। लेकिन कठिनाई यह है: जब मैं यहाँ से चला जाऊँगा, तब चूंकि कार्य का आधार बनाने के लिए कई पाठ्यपुस्तकें समाप्त करना चाहता हूँ, इसलिए मैंने तेज़ी से लिखना प्रारंभ किया है। जाने से पहले मैं चार छोटी किताबें लिख डालने की जल्दी में हूँ। इस महीने, चारों रविवासरीय भाषणों के लिए विज्ञापन निकल चुके हैं। ब्रुकलिन में, फ़रवरी के प्रथम सप्ताह के लिए भाषणों का प्रबंध डॉ० जेन्स तथा अन्यों द्वारा किया जा रहा है। आपका शुभेच्छु, विवेकानंद (श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) २२८ पश्चिम ३९ वाँ रास्ता, न्यूयार्क, १६ दिसंबर, १८९५ स्नेहास्पद, तुम्हारे सभी पत्र आज की डाक से मुझे एक साथ मिले। कुमारी मूलर ने भी मुझे एक पत्र लिखा है। उन्होंने 'इण्डियन मिरर' पत्र में यह समाचार पढ़ा है कि स्वामी कृष्णानंद जी इंग्लैंड आ रहे हैं। यदि यह सत्य हो, तो मुझे जिनसे सहायता मिलने की संभावना है, उनमें ये सबसे अधिक शक्तिशाली सिद्ध होंगे। यहाँ पर प्रति सप्ताह मेरी छः कक्षाएँ चलती हैं; तदतिरिक्त एक प्रश्नोत्तर कक्षा भी चलती है। श्रोताओं की संख्या ७० से १२० तक होती है। इसके साथ ही प्रति रविवार में एक सार्वजनिक भाषण भी देता हूँ। गत माह जिस सभागृह में मेरे भाषण हुए थे, उसमें ६०० व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था थी। किंतु प्रायः ९०० व्यक्ति उपस्थित होते थे, ३०० व्यक्ति खड़े होकर भाषण सुनते थे और बाक़ी ३०० व्यक्ति स्थानाभाव के कारण लौट जाते थे। अतः इस सप्ताह मैंने एक बड़े सभागृह की व्यवस्था की है, जिसमें १२०० व्यक्ति बैठ सकेंगे। इन वक्तृताओं में प्रवेश पाने के लिए किसी प्रकार का शुल्क नहीं मांगा जाता है। किंतु सभास्थल पर जो चंदा एकत्र होता है, उसीसे मकान का किराया चुक जाता है। इस सप्ताह अख़बारों की दृष्टि मुझे पर पड़ी है एवं इस वर्ष मैंने न्यूयार्क में बहुत कुछ हलचल मचा रखी है। यदि मैं इस बार ग्रीष्म ऋतु में यहाँ रह सकता एवं तदर्थ कोई स्थायी केंद्र बना सकता, तो यहाँ पर अत्यंत मज़बती के साथ कार्य चलता रहता। किंतु आगामी मई में मेरा इंग्लैंड जाना निश्चित है, अतः इस कार्य को अधूरा छोड़कर ही मुझे जाना पड़ेगा। किंतु यदि कृष्णानंद जी का इंग्लैंड आना निश्चित हो एवं तुम उन्हें सुयोग्य तथा उपयुक्त समझो तथा वहाँ पर मेरी अनुपस्थिति में कार्य की कोई क्षति न पहुँचने की तुम्हें पूरी-पूरी उम्मीद हो, तो इस ग्रीष्म ऋतु में मैं यहाँ रहना चाहूँगा। फिर मुझे ऐसा भय हो रहा है कि अविश्रांत कार्य के बोझ से मेरा स्वास्थ्य नष्ट होता जा रहा है। मुझे कुछ विश्राम की आवश्यकता है। हम लोग इन पाश्चात्य रीतियों से अनभ्यस्त है—ख़ासकर घड़ी की सुई के अनुसार चलने में। इन बातों का निर्णय अब मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ दे रहा हूँ। 'ब्रह्मावादिन्' पत्र यहाँ पर खूब चल रहा है। मैंने भक्तिविषयक लेख लिखना प्रारंभ कर दिया है। इसके अलावा मासिक कार्यों का एक विवरण भी उन्हें भेज रहा हूँ। कुमारी मूलर अमेरिका आना चाहती है; किंतु आयेंगी या नहीं, यह पता नहीं है। यहाँ पर मेरे कुछ मित्र मेरे रविवार के भाषणों को प्रकाशित करवा रहे हैं। प्रथम दो बार की कुछ प्रतियाँ मैंने तुम्हें भेज दी है। बाद की दो वक्तृताओं की कुछ प्रतियां अगली बार भेजूंगा, यदि तुम्हें पसंद हो, तो अधिक प्रतियाँ भेज दूंगा। इंग्लैंड में दोचार सौ प्रतियों के विक्रय की व्यवस्था क्या तुम कर सकते हो ?—यदि ऐसी व्यवस्था हो सके, तो उन्हें इनको छपवाने में उत्साह मिलेगा। अगले महीने में मैं 'डिट्रॉएट' जाऊँगा, तदनंतर 'बोस्टन' तथा 'हार्वर्ड विश्वविद्यालय' जाने का विचार है। इसके बाद कुछ विश्राम ग्रहण करने की इच्छा है। बाद में इंग्लैंड जाना है—वह भी तब, जबकि तुम यह समझो कि मेरे बिना अकेले कृष्णानंद जी के द्वारा वहाँ के कार्यों का संचालन नहीं हो सकता। इति। सतत स्नेह तथा आशीर्वाद के साथ, विवेकानंद (श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित) २२८ पश्चिम ३९ वाँ रास्ता, न्यूयार्क, २० दिसंबर, १८९५ प्रिय आलासिंगा, धीरज रखो और मृत्युपर्यंत विश्वासपात्र रहो। आपस में न लड़ो! रुपये-पैसे के व्यवहार में शुद्ध भाव रखो।...हम अभी महान कार्य करेंगे।... जब तक तुममें ईमानदारी, भक्ति और विश्वास है, तब तक प्रत्येक कार्य में तुम्हें सफलता मिलेगी। वैदिक सूक्त का अनुवाद करने में भाष्यकारों पर विशेष ध्यान दो; पाश्चात्य संस्कृत-विद्वानों की कुछ परवाह न करो। वे हमारे शास्त्रों की एक बात भी नहीं समझते। शुष्क शब्द-शास्त्रज्ञों के लिए धर्म और तत्वज्ञान नहीं हैं।...उदाहरणार्थ ऋग्वेद के शब्द आनीदवातम् का अनुवाद किया, 'वह बिना साँस का जीवित रहा।' यहाँ असल में मुख्य प्राण की ओर संकेत है और 'अवातम्' का मूल अर्थ है 'अचल' अर्थात् 'स्पंदनरहित'। भाष्यकारों के अनुसार यह उस अवस्था का वर्णन है, जिसमें विश्व-शक्ति या प्राण कल्प के आरंभ होने से पहले रहता है (देखो, भाष्यकार)। हमारे ऋषियों के अनसार अर्थ लगाओ, यूरोपियन विद्वानों के अनुसार नहीं। वे क्या समझते है ? ...वीर और अभय बनो और मार्ग साफ़ हो जाएगा।...याद रखो कि थियोसॉफ़िस्ट लोगों से तुम्हें कुछ काम नहीं है। यदि तुम सब मेरा साथ दोगे, और धीरज न छोड़ोगे, तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाता है कि हम अभी बड़े काम करेंगे। मेरे इंग्लैंड में महान कार्य होंगे- धीरे-धीरे। मुझे ऐसा मालूम होता है कि कभी-कभी तुम साहस छोड़ देते हो तथा तुम्हें थियोसॉफ़िस्ट लोगों के जाल म फंसने का लोभ हो जाता है। याद रखो कि गुरु-भक्त विश्वविजयी होता है। यह इतिहास का एक प्रमाण है।... विश्वास मनुष्य को सिंह बना देता है। तुम्हें हमेशा याद रखना चाहिए कि मुझे कितना काम करना पड़ रहा है। कभी-कभी मुझे दिन में दो या तीन व्याख्यान देने पड़ते हैं—इस तरह मैं विघ्न और बाधाओं से निकलता हूँ मेहनत से; मेरी अपेक्षा कोई निर्बल आदमी मर गया होता। ... शक्ति और विश्वास के साथ लगे रहो। सत्यनिष्ठ, पवित और निर्मल रहो, तथा आपस में न लड़ो। हमारी जाति का रोग ईर्ष्या ही है। हमारे सब मित्रों को और तुम्हें मेरा प्यार— विवेकानंद (स्वामी सारदानंद को लिखित) २२८ पश्चिम ३९ वाँ रास्ता, न्यूयार्क, २३ दिसंबर, १८९५ प्रिय शरत, तुम्हारे पत्र से केवल मुझे दुःख ही हुआ। मालूम होता है कि तुम एकदम हतोत्साह हो चुके हो। मैं तुम सभी लोगों के बारे में जानता हूँ कि तुम लोगों में कितनी शक्ति है और तुम लोगों की क्या सीमाएँ है। तुम लोग जिस कार्य को नहीं कर सकते, ऐसे किसी कार्य को करने के लिए कहने का मेरा कोई अभिप्राय नहीं था। मेरी तो सिर्फ इतनी ही इच्छा थी कि तुम लोग प्राथमिक संस्कृत की शिक्षा दो तथा 'कोष' इत्यादि की सहायता से 'स' को उसके अनुवाद एवं शिक्षणकार्य में सहायता प्रदान करो। मैं तुम लोगों को इस कार्य के लिए उपयोगी बना लेता, यदि तुममें से कोई भी इस कार्य को कर सकता; केवल थोड़े से संस्कृत-ज्ञान की आवश्यकता है। खैर, सब कुछ अच्छे के लिए ही होता है। यदि यह प्रभु कार्य हो, तो उचित्त समय पर योग्य व्यक्ति अवश्य ही तदनुरूप कार्य में आकर सम्मिलित होंगे। इसलिए तुम लोगों को व्यर्थ में असंतुष्ट नहीं होना चाहिए। जहाँ तक सान्याल का संबंध है, कौन धन ले रहा है और कौन नहीं, इसकी मुझे कोई चिंता नहीं है, किंतु बाल-विवाह से मुझे अत्यंत घृणा है। इसके लिए मैंने अनेक कष्ट भोगे हैं और इस महापाप के लिए हमारे राष्ट्र को भी बहुत कुछ कष्ट उठाना पड़ रहा है। इसलिए इस प्रकार की पैशाचिक प्रथा को परोक्ष अथवा अपरोक्ष किसी भी प्रकार से सहायता पहुँचाना मेरी दृष्टि में नितांत घृणास्पद कार्य है। इस विषय में मैंने अपना विचार तुमको स्पष्ट लिख दिया है। सान्याल को क़ानून तथा अदालत का आश्रय लेकर अपने को मुक्त करने के लिए मुझे इस प्रकार धोखा देने का कोई भी अधिकार नहीं है। मैंने उसका कोई अनिष्ट नहीं किया है। उसके इस कपटाचरण से मैं दुःखी हूँ। यही दुनिया है ! यदि तुम किसी का उपकार करो, तो लोग उसे कोई महत्व नहीं देंगे, किंतु ज्यों ही तुम उस कार्य को बंद कर दो, वे तुरंत (ईश्वर न करे) तुम्हें बदमाश प्रमाणित करने में नहीं हिचकिचायेंगे। मेरे जैसे भावुक व्यक्ति अपने सगे-स्नेहियों द्वारा सदा ठगे जाते हैं। यह संसार बेरहम है। इसमें जब हम मोल लिये हुए दासों की तरह रह सकेंगे, तभी लोग हमारे प्रति सहानुभूति दिखायेंगे, अन्यथा नहीं। मेरे लिए यह दुनिया बहुत बड़ी है, उसमें मेरे लिए किसी भी कोने में थोड़ा सा स्थान अवश्य होगा। यदि भारत के लोग मुझे न चाहें, तो भारत के बाहर मुझे चाहनेवाले कुछ लोग अवश्य मिल जायेंगे। इस राक्षसी बाल-विवाह-प्रथा के विरुद्ध मैं यथासाध्य लड़ता रहूँगा। इससे तुम लोगों के लिए किसी प्रकार की निंदा नहीं होगी। यदि तुम डर गए हो, तो दूर रहो। जिस प्रथा के अनुसार अबोध बालिकाओं का पाणिग्रहण होता है, उसके साथ मैं किसी प्रकार का संबंध रखने में असमर्थ हूँ। ईश्वर करे कि उन लोगों के साथ मुझे कभी भी संबंधित न रहना पड़े। म—बाबू के बारे में सोचो तो सही, ऐसा डरपोक तथा निष्ठुर व्यक्ति क्या कभी तुमने देखा है? जो व्यक्ति किसी अबोध बालिका के लिए पति ढूँढता है, मैं उसकी हत्या तक कर सकता हूँ। बात यह है कि मैं अपने कार्य में सहायता करने के लिए ऐसे व्यक्ति चाहता हूँ, जो वीर, साहसी, उत्साही तथा तेज़स्वी हों। अन्यथा मैं अकेला ही कार्य करूँगा। मुझे संसार में एक ख़ास उद्देश्य पूरा कर जाना है। मैं अकेला ही उसे कार्य में परिणत करूँगा। किसी ने मेरी सहायता की या नहीं की, इसकी मुझे कोई चिंता नहीं है। सान्याल को संसार ने ग्रस लिया है। बच्चे, इससे सतर्क रहो-यही मेरा कुल उपदेश है, जिसे कर्तव्य से प्रेरित होकर मैं तुम्हें दे रहा हूँ। यह ठीक है कि तुम लोग अब बहुत कुछ समझदार बन चुके हो—तुम्हारे समीप अब मेरी बात का कोई मूल्य नहीं है। किंतु मैं आशा करता हूँ कि भविष्य में तुम लोगों के लिए ऐसा समय आयेगा, जब तुम्हारी दृष्टि खुल जाएगी, तब बहुत कुछ समझ सकोगे और दूसरे तरीके से सोच सकोगे। अब विदा दो। और अधिक मैं तुम लोगों को परेशान करना नहीं चाहता, तुम्हारा मंगल हो। अगर तुम ऐसा मानते हो, तो मुझे खुशी है कि कभी कभी मैं तुम लोगों के थोड़े-बहुत काम आ सका हूँ। मेरे गुरुदेव ने जो कर्तव्य का बोझ मेरे कंधों पर छोड़ा है, उसे संपादन करने का मैं भरसक प्रयत्न कर रहा हूँ, इसके लिए मैं अपने से संतुष्ट हैं और चाहे मेरा प्रयास सम्यक रूप से कार्य में परिणत हुआ हो या नहीं, मैंने प्रयास किया, इसी से मैं संतुष्ट हूँ। अतः मैं विदा चाहता हूँ। सान्याल से कहना कि उसके प्रति मेरे मन में कोई क्रोध नहीं है, कितु मैं दुःखी, बहुत दुःखी हूँ। रुपये का मूल्य ही क्या है ! रुपयों ने मुझे कोई कष्ट नहीं पहुँचाया, किंतु इसकी चालाकी तथा नीति की अवहेलना से मैं व्यथित हूँ। उससे भी विदा, और तुम लोगों से विदा। मेरे जीवन का एक परिच्छेद समाप्त हो चुका है। अब क्रमानुसार और लोग आकर कार्य करें। वे आकर देखेंगे कि मैं सर्वथा प्रस्तुत हूँ। मेरे लिए तुम लोगों को कुछ भी चिंतित होने की आवश्यकता नहीं, मैं किसी भी देश के किसी मानव से किसी प्रकार की सहायता नहीं चाहता। ईश्वर तुम्हारा निरंतर मगल करे। विदा। विवेकानंद (कुमारी एस० फ़ार्मर को लिखित) न्यूयार्क, २९ दिसंबर, १८९५ प्रिय बहन, इस जगत् में जहाँ कुछ भी नष्ट नहीं होता है, जहाँ पर जीवन नामक मृत्यु के अंदर हम निवास करते हैं, वहाँ पर प्रत्येक विचार जीवित रहता है—चाहे वह प्रकट रूप में किया जाता हो अथवा अप्रकट रूप में, चाहे राजमार्ग स्थित भीड़ के अंदर उसका उद्भव हो अथवा प्राचीन काल के सघन एकांत वन में। वे विचार सतत रूप से मत होने के लिए यत्नशील है एवं जब तक उन्हें सफलता नहीं प्राप्त होती है, तब तक वे अभिव्यक्त होने के लिए सतत प्रयत्न करते रहेंगे। उन्हें दबाने के लिए चाहे जितनी भी चेष्टाएँ क्यों न की जायँ, वे कभी विनष्ट नहीं होंगी। किसी भी वस्तु का विनाश नहीं है-—जो विचार अतीत काल में अनिष्टकारक थे, वे भी मूर्त रूप धारण करने के लिए यत्नशील हैं, वे भी पुनः अभिव्यक्त तथा क्रमशः शुद्ध बनकर अंत में शुभ विचार में परिणत होने के लिए यत्नशील हैं। अतः इस समय भी ऐसी कुछ भावनाएँ विद्यमान हैं, जो अपने को अभिव्यक्त करने के लिए सचेष्ट है। ये अभिनव भावनाएँ हमें बतलाती हैं कि हमारे अंदर जो द्वंद्व भाव, जो शुभ एवं अशुभ की भावना है, किसी विचार को दबाने की जो भयानक प्रवृत्ति है, इन सबको दूर करना होगा। वे हमको यही शिक्षा देती हैं कि जगत् की उन्नति का रहस्य प्रवृत्तियों का उन्मूलन नहीं, अपितु महत्तर दिशा में उनको परिवर्तित करना है। वे हमें शिक्षा देती हैं कि यह जगत् शुभ एवं अशुभ का जगत् नहीं है, प्रत्युत् यह जगत् महत्, महत्तर एवं और भी महत्तर उपादानों से बना है। सबको अपनी गोद में आकृष्ट किए बिना इन अभिनव भावनाओं को तृप्ति नहीं मिलती। वे हमें शिक्षा देती हैं कि किसी भी दशा में हताश होने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार के नव्य दृष्टिकोणों को मानसिक, नैतिक तथा आत्मिक किन्हीं भी विचारों से कोई विरोध नहीं है, क्योंकि ऐसे नये दृष्टिकोणों की अवस्थिति भी इन्हीं विचारों के मध्य है, वे उन पर बिंदु मात्र भी दोषारोपण न कर यही कहती हैं कि उनसे अब तक भलाई ही हुई है तथा आगे चलकर उनसे भलाई ही होनेवाली है। प्राचीन काल में बुराई के परित्याग के रूप में जिसकी कल्पना की जाती थी, वर्तमान नवीन शिक्षा-पद्धति के अनुसार उसे बुराई का रूपांतर माना जाता है अर्थात् भलाई से और अधिक भलाई करने की चेष्टा की जाती है। इन भावनाओं से सर्वोपरि हमें यह शिक्षा मिलती है कि यदि हमें स्वर्ग का साम्राज्य प्राप्त करने की अभिलाषा हो, तो अवश्य ही वह हमें इसी जीवन में पहले ही से विद्यमान मिलेगा, मनुष्य को यदि कुछ अनुभव की आकांक्षा हो, तो उसे यह स्वीकार करना होगा कि पहले ही से वह पूर्ण है। विगत ग्रीष्म ऋतु में ग्रीनकर में जो सभाएँ हुईं, ‘वे इसलिए अत्यंत सफल तथा सुंदर हुईं कि तुमने स्वयं पूर्वोक्त भावनाओं को प्रकट करने के लिए उपयुक्त यंत्र बनकर अपने को सदा उन्मुक्त रखा तथा 'स्वर्ग-राज्य पहले ही से विद्यमान है’ -नवीन विचारधारा की इस सर्वोच्च शिक्षा की आधारशिला पर तुम खड़ी रहीं। इस भावना को अपने जीवन में परिणत कर दृष्टांत उपस्थित करने के लिए प्रभु की ओर से तुम उपयुक्त आधार के रूप में मनोनीत तथा आदिष्ट हई हो; जो कोई तुम्हें इस अद्भुत कार्य में सहायता प्रदान करेगा, वह प्रभु की ही सेवा करेगा। हमारे यहाँ शास्त्र में कहा गया है-—मद्भक्तानाञ्च ये भक्तास्ते मे भक्ततमा मताः अर्थात् जो मेरे भक्तों के भक्त हैं, वे ही मेरे श्रेष्ठ भक्त है। तुम प्रभु की सेविका हो; अतः मैं चाहे जहाँ कहीं भी क्यों न रहूँ, भगवत्प्रेरणा से तुमने जिस महान व्रत की दीक्षा ली है, उसके उद्यापन में मुझसे जो कुछ भी सहा श्री कृष्ण के दास के रूप में मैं अपने को कृतार्थ समझूँगा तथा वह मेरे लिए साक्षात् प्रभु की ही सेवा होगी। तुम्हारा चिर स्नेहाबद्ध भाई, विवेकानंद (श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) रिजले मॅनर, २९ दिसंबर, १८९५ प्रिय मित्र, "अब तक तुम्हें भाषण की प्रतियाँ मिल गयी होंगी। आशा है, वे कुछ उपयोग की होंगी। में समझता हूँ, आरंभ में बहुत सारी कठिनाइयों पर विजय पानी होगी; दूसरे, वे सोचते हैं कि वे किसी काम के योग्य नहीं है—यह एक राष्ट्रीय रोग है; तीसरा, कि वे सर्दी का सामना एकाएक करने से डरते हैं। वे ऐसा नहीं सोचते कि तिब्बत का आदमी इंग्लैंड में काम करने में सुदृढ़ है। कोई भी शीघ्र या विलंब से आयेगा। 'सत्' में तुम्हारा ही, विवेकानंद पुनश्च-—क्रिसमस के अवसर पर सभी मित्रों को अनेक अभिनंदन—श्रीमती और श्रीमान् जॉन्सन, महिला मरगसेन, श्रीमती क्लार्क, कुमारी ह्वो, कुमारी मलर, कुमारी स्टील तथा अन्य सभी को—मेरा अभिनंदन। बच्ची को मेरी ओर से चुंबन और शुभाशीष। श्रीमती स्टर्डी को मेरा अभिनंदन। हम लोग सभी काम करेंगे। 'वाह गुरु की फ़तह।' विवेकानंद (कुमारी मेरी हेल को लिखित) न्यूयार्क, ६ जनवरी, १८९६ प्रिय बहन, नये वर्ष के तुम्हारे अभिनंदन के लिए तुम्हें अनेक धन्यवाद। यह जानकर प्रसन्न हूँ कि तुमने अपने छः सप्ताह श्रीमान् के साथ आनंदपूर्वक बिताये, यद्यपि उनमें सिर्फ गोल्फ़ ही खेलना हुआ होगा। मैं इंग्लैंड में असली कार्यों में लगा था। अंग्रेज़ लोगों ने सहृदयतापूर्वक मेरा स्वागत किया और अंग्रेज़ जाति संबंधी अपने विचारों को मैंने बहुत नर्म कर दिया है। सर्वप्रथम मैंने यह पाया कि वे लोग जैसे लंड इत्यादि, जो इंग्लैंड से मुझे पर चोट करने आये थे, उनका कोई पता ही नहीं था। अंग्रेज़ों द्वारा उनके अस्तित्व की केवल उपेक्षा ही की जाती है। अंग्रेज़ी चर्च के व्यक्ति को छोड़कर कोई भी शिष्ट नहीं समझा जाता है। और इंग्लैंड के कुछ बहुत ही श्रेष्ठ लोग, जो अंग्रेज़ी चर्च से संबंधित है, और कुछ ऊँचे ओहदे के लोग मेरे सच्चे मित्र हो गए हैं। अमेरिका में हुए अनुभवों की अपेक्षा यह बिल्कुल ही दूसरे क़िस्म का है। क्या ऐसा नहीं? यहाँ के पादरी संघ-शासित गिरजे के सदस्यों, दूसरे धर्मांध व्यक्तियों तथा होटलों में हुए स्वागत इत्यादि के अनुभव के बारे में जब मैंने कहा, तो अंग्रेज़ लोग काफ़ी देर तक हँसते रहे। मैं भी शीघ्र ही दो देशों की संस्कृति और शिष्टाचार का अंतर समझ गया और यह भी समझ पाया कि क्यों अमेरिकन लड़कियाँ यूरोपियनों से शादी करने समूह में जाती है। वहाँ प्रत्येक व्यक्ति मेरे प्रति सहृदय था और स्त्री और पुरुष, दोनों वर्ग के मेरे मित्र हो गए हैं। कई, जो भद्र हैं, वसंत में उत्सुकतापूर्वक मेरे लौटने की प्रतीक्षा करेंगे। जहाँ तक वहाँ के मेरे कार्य का संबंध है, वेदांत संबंधी विचार अब तक इंग्लैंड के ऊँचे वर्गों में परिव्याप्त हो गया है। उच्च शिक्षा और ऊँची स्थिति के बहुत से लोगों ने, जिनमें पादरी कम नहीं थे, मुझसे कहा कि ग्रीक के द्वारा रोम की विजय का पुनरभिनय इंग्लैंड में हुआ। भारतवर्ष में जो अंग्रेज रहे हैं, वे दो प्रकार के है। एक प्रकार के वे लोग हैं, जो प्रत्येक भारतीय वस्त्र से घृणा करते हैं, लेकिन वे अशिक्षित है। और दूसरे वे हैं, जिनके लिए भारत पुण्यभूमि है और यहाँ का वातावरण ही धार्मिक है।... और वे अपने हिंदुत्व से हिंदुओं को भी मात कर देते हैं। वे महान शाकाहारी हैं और वे इंग्लैंड में एक जाति बनाना चाहते हैं। निस्मन्देह अधिकांश अंग्रेज़ों को जाति में दृढ़ विश्वास है। सार्वजनिक भाषण के अतिरिक्त प्रति सप्ताह मुझे आठ व्याख्यान देना होता था, जिसमें इतनी भीड़ होती थी कि अधिकांश लोगों को, जिसमें उच्च श्रेणी की महिलाएं भी होती थीं, फ़र्श पर बैठना पड़ता था और वे तनिक भी अन्यथा नहीं समझते थे। इंग्लैंड में पुरुष एवं महिलाएँ मुझे दृढ़ चित्त के मिले, जो किसी कार्य को आरंभ करते हैं, तो फिर एक विशिष्ट अंग्रेज़ी निश्चय और शक्ति एवं योग्यता के साथ आगे बढ़ते हैं। इस वर्ष न्ययार्क में मेरा कार्य अत्युत्तम रूप से चल रहा है। श्री लेगेट न्यूयार्क के बड़े धनी आदमी हैं और मुझमें बहुत अभिरुचि रखते हैं। न्यूयार्क के लोगों में अधिक स्थिरता है, देश के अन्य किसी भी भाग के लोगों की अपेक्षा। इसलिए मन यही अपना केंद्र का निश्चय किया है। इस देश के 'मेथाडिस्ट' और 'प्रेसबिटेरियन' जैसे अभिजात वर्ग के लोग मेरे उपदेशों को अद्भुत समझते है। इंग्लैंड में गिरजाघर के अभिजात वर्ग के लोगों के लिए यह एक सर्वश्रेष्ठ दर्शन है। इसके अतिरिक्त अमेरिकन महिलाओं का वार्तालाप तथा गप-शप की विशिष्ट इंग्लैंड में नहीं पायी जाती है। अंग्रेज़ महिला मंथरमति होती हैं; किंतु जब वे किसी योजना या अभिप्राय को कार्यान्वित करती हैं, तो उसके पीछे उनका एक निश्चित संकल्प होता है और वे नियमित रूप से वहाँ मेरा कार्य कर रही हैं और प्रति सप्ताह विवरण भेजती है—ज़रा सोचो तो! यहाँ अगर एक सप्ताह के लिए मैं कहीं जाता हूँ, तो सब कुछ तितर-बितर हो जाता है। सबों को मेरा प्यार—सैम को और तुम्हें भी। प्रभु तुम्हें सदा-सर्वदा सुखी रखें। सस्नेह तुम्हारा भाई, विवेकानंद (श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) २२८ पश्चिम ३९वाँ रास्ता, न्यूयार्क, १६ जनवरी, १८९६ स्नेहाशीर्वादभाजन, पुस्तकों के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। 'सांख्यकारिका' अत्यंत सुंदर ग्रंथ है, 'कूर्मपुराण' में आशानुरूप सब कुछ न मिलने पर भी उसमें योग संबंधी कतिपय श्लोक हैं। मेरे पहले के पत्र में 'योगसूत्र' शब्द भूल से छूट गया था। अनेक प्रामाणिक ग्रंथों से टीका-टिप्पणी सहित मैं उक्त ग्रंथ का अनुवाद कर रहा हूँ। 'कूर्मपुराण' के उस परिच्छेद को मैं अपनी टीका में जोड़ना चाहता हूँ। कुमारी मैक्लिऑड के द्वारा तुम्हारी कक्षाओं का अत्यंत उत्साहपूर्ण विवरण मुझे प्राप्त हआ है। श्री गाल्सवर्दी अब बहुत ही आकृष्ट हुए हैं-ऐसा प्रतीत होता है। यहाँ पर मने कक्षा लेना तथा रविवार को भाषण देना प्रारंभ कर दिया है। दोनों कार्यों में लोग उत्साह दिखलाते हैं। इन दोनों कार्यों के लिए मैं धन नहीं लेता है। किंतु सभागृह के किराये के लिए (सभाओं में) थोड़ा-बहुत चंदा लेता। गत रविवार के भाषण की बहुत प्रशंसा हुई है, समाचारपत्र में उक्त भाषण प्रकाशित हुआ है। आगामी सप्ताह में उसकी कुछ प्रतियाँ मैं तुम्हें भेज दूंगा। उक्त भाषण में हमारे कार्यों की एक साधारण योजना पर प्रकाश डाला गया था। मेरे मित्रों द्वारा एक सांकेतिक लेखक (गुडविन को) नियुक्त करने के फलस्वरूप उक्त 'कक्षाओं की विवृतियाँ तथा वक्तृताएँ लिपिबद्ध हो रही है। प्रत्येक की एक एक प्रति तुम्हें भेजने की इच्छा है। उनमें से संभवतः तुम्हारे चिंतन के लिए कुछ सामग्री मिल सके। यहाँ पर मुझे तुम जैसे शक्तिशाली व्यक्ति की आवश्यकता है, जिसमें बुद्धि, योग्यता तथा स्नेह हो। इस सार्वजनिक शिक्षा के देश में सबको एक साथ मिश्रित कर मानो एक मध्यम वर्ग का निर्माण किया गया है; अन्य योग्य व्यक्ति हैं, वे प्रचलित प्रथा के अनुसार धनोपार्जन के गुरु भार से पीडित हैं। एक ग्रामीण क्षेत्र में मुझे कुछ ज़मीन मिलने की संभावना है, उसमें कई मकान एवं कुछ वृक्षावलि हैं तथा एक नदी भी है। ग्रीष्म ऋतु में ध्यान के लिए वह उपयुक्त स्थान हो सकता है। हाँ, इतना अवश्य हो सकता है कि मेरी अनुपस्थिति में उसकी देख-रेख, रुपये-पैसों का लेन-देन, प्रकाशन तथा अन्यान्य कार्यों के लिए एक समिति का होना आवश्यक होगा। मैंने अपने को रुपये-पैसे के झंझटों से सर्वथा मुक्त कर लिया है; किंतु अर्थ के बिना कोई आंदोलन भी नहीं चल सकता। अतः बाध्य होकर कार्य-संचालन की सारी व्यवस्थाएँ मुझे एक समिति को सौंपनी पड़ी है; मेरी अनुपस्थिति में वे लोग कार्यों का संचालन करते रहेंगे। स्थिर होकर कार्य करने की शक्ति अमेरिकनों की आदत के बाहर की बात है। केवल मात्र दलबद्ध होकर वे कार्य करना जानते हैं। अतः उन लोगों को उसी तरह से कार्य करने का अवसर प्रदान करना होगा! प्रचार के बारे में इस प्रकार की व्यवस्था की गयी है कि मेरे मित्रवर्ग स्वतंत्र रूप से यहाँ पर विभिन्न स्थानों में पर्यटन करते रहेंगे तथा वे लोग स्वतंत्र दलों का निर्माण कर सकेंगे। यही प्रचार का सर्वश्रेष्ठ सरल उपाय है। अनंतर जब हम पर्याप्त शक्तिशाली बनेंगे, तब अपनी शक्ति को केंद्रीभूत करने के लिए हम वार्षिक सम्मेलन का आयोजन करेंगे। यह समिति केवल मात्र कार्य-संचालन के लिए बनायी गयी है एवं उसका कार्यक्षेत्र न्यूयार्क तक ही सीमित है। सतत स्नेहपरायण तथा आशीर्वादक— तुम्हारा, विवेकानंद (श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित) २३ जनवरी, १८९६ प्रिय आलासिंगा, अब तक तुम्हें 'भक्ति' पर मुझसे पर्याप्त सामग्री मिल गयी होगी। २१ दिसंबर की 'ब्रह्मावादिन्' की पिछली प्रति अभी मिली है। पिछले कुछ अंकों से मुझे कुछ विशिष्ट संकेत मिल रहा है। क्या तुम थियोसॉफ़िस्टो से संयुक्त होने जा रहे हो ? अब तुम उनके हाथ में आ गए हो। तुम अपनी टिप्पणियों में क्यों थियोसॉफ़िस्टो के भाषणों का विज्ञापन देते हो? उनसे (थियोसॉफ़िस्टों) मेरा कोई संबंध होने का संदेह अमेरिका तथा इंग्लैंड के मेरे कार्यों में बहुत क्षति पहुँचायेगा, और ऐसा होना बिल्कुल संभव है। सभी स्वस्थ मस्तिष्क के लोग उन्हें मिथ्या समझते हैं, और उनका वैसा समझा जाना सत्य है। यह तुम भी अच्छी तरह जानते हो। मुझे भय है, तुम मुझे धोखा देना चाहते हो। क्या तुम ऐसा समझते हो कि एनी बेसेन्ट का प्रचार करने से तुम्हें इंग्लैंड में अधिक ग्राहक मिल जायँगे? मूर्ख हो तुम। मैं थियोसॉफ़िस्टों के साथ झगड़ा करना नहीं चाहता, किंतु मेरी स्थिति उनकी सर्वदा उपेक्षा करने की ही है। क्या उन लोगों ने विज्ञापन के लिए पैसे दिए थे ? तुम्हें क्यों उनका विज्ञापन करने के लिए अग्रसर होना चाहिए ? अब की बार जब में इंग्लैंड जाऊँगा, तो मुझे पर्याप्त से अधिक ग्राहक मिल जायेंगे। अब कोई विश्वासघाती मेरे साथ नहीं होगा, मैं स्पष्ट कह देता हूँ कि मैं किसी दुर्जन से धोखा नहीं खाऊँगा। मेरे साथ कोई पाखंड (धूर्तता) नहीं। अपना झंडा फहराओ और अपने पत्र में सार्वजनिक सूचना दे दो कि मुझसे तुम्हारा कोई संबंध नहीं और अपने को थियोसॉफ़िस्टों के शिविर से संयुक्त कर लो या उनसे अपने सभी संबंधों को त्याग दो। सच, मैं तुम्हें स्पष्ट शब्दों में कह रहा हूँ। एक ही आदमी मेरा अनुसरण करे, किंतु उसे मृत्युपर्यंत सत्य और विश्वासी होना होगा। मैं सफलता और असफलता की चिंता नहीं करता। पूरे विश्व में उपदेश देने जैसे अर्थहीन कार्यों से ऊब गया हूँ। जब मैं इंग्लैंड में था, तो क्या 'सीके' आदमियों में कोई मेरी सहायता को आया था ? निरर्थक ! मैं अपने आंदोलन को पवित्र रखूंगा, भले ही मेरे साथ कोई न हो। तुम्हारा, विवेकानंद पुनश्च—शीघ्र अपने निर्णय का उत्तर दो। इस बात पर मैं एकदम निश्चित हूं। अगर आरंभ से ही तुम्हारा अभिप्राय ऐसा था, तो तुम्हें अवश्य ही पहले कह देना चाहिए था। 'ब्रह्मावादिन्' वेदांत के प्रचार के लिए है, न कि थियोसॉफ़ी के लिए। कपटी कार्यों से सामना पड़ने पर मेरा धैर्य समाप्त हो जाता है। यही संसार है कि जिन्हें तुम सबसे अधिक प्यार और सहायता करो, वे ही तुम्हें धोखा देंगे। (स्वामी त्रिगुणातीतानंद को लिखित) जनवरी, १८९६ प्रिय सारदा, ...पत्रिका के बारे में तुम्हारा विचार वास्तव में अति उत्तम है, पूर्ण शक्ति के साथ जुट जाओ, कोष की चिंता मत करो। तुम्हारा पत्र मिलने पर मैं ५०० रुपये तत्काल भेज दूंगा, रुपयों के लिए चिंतित होने की आवश्यकता नहीं। फ़िलहाल इस पत्र को दिखाकर किसीसे क़र्ज ले लो। इस पत्र के जवाब मिलने पर-—पत्रोत्तर के साथ ही साथ ५०० रुपये में भेज दंगा। ५०० रुपयों में बनता-बिगड़ता ही क्या है ? ईसाई तथा इस्लाम धर्म का प्रचार करनेवाले बहुत से लोग हैं, तुम अब अपने देश के धर्म के प्रचार में जुट जाओ। यदि हो सके, तो किसी अरबी भाषा जाननेवाले व्यक्ति के द्वारा प्राचीन अरबी पुस्तकों का अनुवाद करा सको, तो अच्छा है। फ़ारसी भाषा में भारतीय इतिहास की बहुत सी बातें विद्यमान हैं। यदि क्रमशः उनके अनुवाद हो सकें, तो एक अत्युत्तम धारावाहिक विषय होगा। अनेक लेखकों की आवश्यकता है। साथ ही ग्राहकों की भी समस्या है। इसका एक मात्र उपाय यह है कि तुम विभिन्न स्थानों में पर्यटन करते रहते हो, जहाँ कहीं भी बांग्ला भाषा का प्रचलन हो, वहाँ पर लोगों के माथे पत्रिका मढ़ देना। दृढ़ता के साथ उनको ग्राहक बनाओ! वे तो सदा ही पीछे हट जाते हैं, जहाँ कुछ खर्च करने का प्रश्न आता है। किसी बात की कभी परवाह मत करो। पत्रिका का प्रकाशन होना चाहिए, आगे बढ़े चलो। शशि, शरत्, काली आदि सब कोई अध्ययन कर लिखने में जुट जायँ। घर पर बैठे बैठे क्या हो सकता है ? तुमने बहुत बहादुरी की है। शाबाश ! हिचकनेवाले पीछे रह जायेंगे और तुम कूदकर सब के आगे पहुँच जाओगे। जो अपने उद्धार में लगे हुए हैं, वे न तो अपना उद्धार ही कर सकेंगे और न दूसरों का। ऐसा शोर-गुल मचाओ कि उसकी आवाज़ दुनिया के कोने कोने में फैल जाए। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कि दूसरों की त्रुटियों को देखने के लिए तैयार बैठे हैं, किंतु कार्य करने के समय उनका पता नहीं चलता है। जुट जाओ, अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढ़ो। इसके बाद मैं भारत पहुँचकर सारे देश में उत्तेजना फूंक दूंगा। डर किस बात का है ? 'नहीं है, नहीं है, कहने से साँप का विष भी नहीं रहता है।' 'नहीं', 'नहीं’ कहने से तो नहीं हो जाना पड़ेगा !... गंगाधर ने बहुत बहादुरी दिखायी है। शाबाश! काली उसके साथ काम में जुट गया है। खूब शाबाश! कोई मद्रास चले जाओ, कोई बम्बई। छान डालो—सारी दुनिया को छान डालो ! अफ़सोस इस बात का है कि यदि मुझे जैसे दो-चार व्यक्ति भी तम्हारे साथी होते—तमाम संसार हिल उठता। नया करूँ, धीरे-धारे अग्रसर होना पड़ रहा है। तूफ़ान मचा दो, तूफ़ान ! किसीको चीन भेज दो, किसीको जापान। बेचारे गृहस्थ अपनी तनिक सी ज़िंदगी से कर ही क्या सकते हैं ? ह-र, ह-र, श-म्भो!' के नारे से गगन विदीर्ण करना तो संन्यासियों, शिवगणों से ही संभव है। तुम्हारा ही, विवेकानंद (स्वामी योगानंद को लिखित) २२८ पश्चिम ३९वाँ रास्ता, न्यूयार्क, २४ जनवरी, १८९६ भाई योगेन, अरहर तथा मूंग की दाल, आमरोटी, अमचूर, आमतेल, आम का मुरब्बा, बड़ी, मसाला आदि कुछ ठीक-ठीक पते पर आ पहुँचा है। 'बिल ऑफ़ लेडिंग' (माल भेजने का बिल) में दस्तखत करने में भूल हुई थी तथा 'इनवॉइस' (चालान) भी नहीं था; इसलिए कुछ गड़बड़ी हुई। अंत में, जो कुछ भी हो, सब वस्तुएँ ठीक-ठीक प्राप्त हुई। अनेक धन्यवाद ! अब यदि इंग्लैंड में स्टर्डी के पते पर—अर्थात् हाई व्यू, कैवरशम, रीडिंग—इस पते पर—उसी प्रकार दाल तथा आमतेल भेजो, तो इंग्लैंड पहुँचने पर मुझे मिल जाएगा। भुनी हुई मूंग की दाल भेजने की आवश्यकता नहीं है। भुनी हुई दाल कुछ दिन बाद संभवतः खराब हो जाती है। कूल चने की दाल भेजना। इंग्लैंड में 'ड्यूटी' (चुंगी) नहीं है- अतः माल पहुँचने में कोई गड़बड़ी नहीं होती है। स्टर्डी को पत्र लिख देने से ही वह माल छुड़ा लेगा। तुम्हारा शरीर अभी स्वस्थ नहीं हुआ है-यह अत्यंत दुःख का विषय हैं। किसी शीतप्रधान स्थान में हवा बदलने के लिए जा सकते हो, वह स्थान ऐसा होना चाहिए, जहाँ कि अधिक मात्रा में बर्फ गिरती हो-जैसे दार्जिलिंग। जाड़े के प्रभाव से उदर के तमाम विकार दूर हो जाएँगे, जैसा कि मेरा हुआ है। घी तथा मसाले का उपयोग एकदम त्याग दो। मक्खन घी से जल्दी हज़म होता है। शब्दकोष मिलने पर ख़बर दूंगा। मेरी हार्दिक प्रीति ग्रहण करना तथा सबसे कहना। निरंजन का समाचार क्या अभी तक नहीं मिला है ? गोलाप माँ, योगेन माँ, रामकृष्ण की माँ, बाबूराम की माँ, गौरी माँ आदि से मेरा प्रणामादि कहना। महेन्द्र बाबू की पत्नी को मेरा प्रणाम कहना। तीन महीने बाद फिर मैं इंग्लैंड जा रहा हूँ, पुनः आंदोलन विशेष रूप से चालू करना चाहता हूँ। अनंतर अगले जाड़े में भारतवर्ष रवाना होना है। आगे विधाता की इच्छा। सारदा जो पत्र प्रकाशित करना चाहता है, उसके लिए अपनी संपूर्ण शक्ति लगा दो। शशि तथा काली से भी प्रयास करने को कहना। अभी काली या अन्य किसी को इंग्लैंड आने की आवश्यकता नहीं है। मैं भारत पहुँचकर उनको शिक्षा दूँगा। फिर जो जहाँ जाना चाहे, जा सकता है। किमधिकमिति— विवेकानंद पुनश्च—स्वयं कुछ करना नहीं और यदि दूसरा कोई कुछ करना चाहे, तो उसका मखौल उड़ाना हमारी जाति का एक महान दोष है और इसी से हमारी जाति का सर्वनाश हुआ है। हृदयहीनता तथा उद्यम का अभाव सब दुःखों का मूल है। अतः उन दोनों को त्याग दो। किसके अंदर क्या है, प्रभु के बिना कौन जान सकता है ? सभी को अवसर मिलना चाहिए। आगे प्रभु की इच्छा। सब पर समान स्नेह रखना अत्यंत कठिन है; किंतु उसके बिना मुक्ति नहीं मिल सकती। इति। (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) न्यूयार्क, २५ जनवरी, १८९६ प्रिय श्रीमती बुल, स्टर्डी के पते पर भेजा हुआ आपका कृपापूर्ण पत्र मुझे यहाँ भेज दिया गया है। मुझे भय है कि इस वर्ष अत्यधिक कार्य-भार से मैं थक गया हूँ। मुझे विश्राम की परम आवश्यकता है। इसलिए आपका यह कहना कि बोस्टन का काम मार्च के अंत में आरंभ किया जाए, बहुत अच्छा है। अप्रैल के अंत तक मैं इंग्लैंड के लिए चल दूंगा। कैटस्किल में ज़मीन के बड़े-बड़े प्लॉट कम दाम में मिल सकते हैं। एक १०१ एकड़ का प्लॉट २०० डॉलर का है। रुपया मेरे पास तैयार है, पर ज़मीन मैं अपने नाम से नहीं ले सकता हूँ। इस देश में आप ही मेरी एक मित्र हैं, जिन पर मुझे पूरा विश्वास है। यदि आप स्वीकार करें, तो मैं आपके नाम से ज़मीन खरीद लें। गर्मी में विद्यार्थी वहाँ जायँगे और इच्छानुसार छोटे-छोटे मकान या तंबू डालेंगे और ध्यान का अभ्यास करेंगे। बाद में कुछ धन इकट्ठा कर सकने पर वे वहाँ पक्की इमारत आदि का निर्माण कर सकेंगे। मुझे दुःख है कि आप तत्काल नहीं आ सकीं। इस महीने के रविवारवाले व्याख्यानों का कल अंतिम दिवस है। आगामी मास के पहले रविवार को ब्रुकलिन में व्याख्यान होगा। शेष तीन न्यूयार्क में, उसके बाद मैं इस वर्ष के न्यूयार्क के व्याख्यानों को बंद कर दूंगा। मैंने अपनी शक्ति भर काम किया है। यदि उसमें सत्य का कोई बीज है, तो वह यथाकाल अंकुरित होगा। इसलिए मुझे कोई चिंता नहीं है। व्याख्यान देते-देते और कक्षाएँ लेते लेते मैं अब थक भी गया हूँ। इंग्लैंड में कुछ महीने काम करके मैं भारत जाऊँगा और वहाँ कुछ वर्षों के लिए या सदा के लिए अपने आपको पूर्णतया गुप्त रखूँगा। मेरी अंतरात्मा साक्षी है कि मैं आलसी संन्यासी नहीं रहा। मेरे पास एक नोटबुक है, जिसने सारे संसार में मेरे साथ यात्रा की है। सात वर्ष पहले उसमें मैं यह लिखा हुआ पाता हूँ— 'अब एक ऐसा एकांत स्थान मिले, जहाँ मृत्यु की प्रतीक्षा में मैं पड़ा रह सकूँ।' परंतु यह सब कर्मभोग शेष था। मैं आशा करता हूँ कि अब मेरा कर्म क्षय हो गया है। मैं आशा करता हूँ कि प्रभु मुझे इस प्रचार-कार्य से और सुकर्म के बंधन को बढ़ाते रहने से छुटकारा देंगे। जा 'यदि यह तुमने जान लिया है कि एकमात्र आत्मा की ही सत्ता है और उसके अतिरिक्त अन्य किसी का अस्तित्व नहीं, तब किसके लिए, किस वासना के वशीभूत होकर तुम अपने को कष्ट देते हो?' माया द्वारा ही दूसरों का हित करने के ये सब विचार मेरे मस्तिष्क में आये थे, अब वे मुझे छोड़ रहे हैं। मेरा यह विश्वास अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है कि कर्म का ध्येय केवल चित्त की शुद्धि है, जिससे वह ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी हो सके। यह संसार अपने गुण-दोष सहित अनेक रूपों में चलता रहेगा। पुण्य और पाप केवल नये नाम और नये स्थान बना लेंगे। मेरी आत्मा निरवच्छिन्न एवं अनश्वर शांति और विश्राम के लिए लालायित है। 'अकेले रहो, अकेले रहो। जो अकेला रहता है, उसका किसीसे विरोध नहीं होता, वह किसी की शांति भंग नहीं करता, न दूसरा कोई उसकी शांति भंग करता है।' आह ! मैं तरसता हूँ-अपने चिथड़ों के लिए, अपने मुंडित मस्तक के लिए, वृक्ष के नीचे सोने के लिए, और भिक्षा के भोजन के लिए! सारी बुराइयों के बावजूद भी भारत ही एकमात्र स्थान है, जहाँ आत्मा अपनी मुक्ति, अपने ईश्वर को पाती है। यह पश्चिमी चमक-दमक निस्सार है, केवल आत्मा का बंधन है। संसार की निस्सारता का मैंने अपने जीवन में पहले कभी ऐसी दृढता से अनुभव नहीं किया था। प्रभु सबको बंधन से मुक्त करें—माया से सब लोग निकल सके यही मेरी नित्य प्रार्थना है। विवेकानंद (कुमारी मेरी हेल को लिखित) २२८ पश्चिम ३९वाँ रास्ता, न्यूयार्क, १० फ़रवरी, १८९६ प्रिय बहन, मेरा पत्र तुम्हें अभी तक नहीं मिला-—यह जानकर आश्चर्य हुआ। मैंने, तुम्हारा पत्र पाते ही जवाब दे दिया और इसके अलावा न्यूयार्क में दिए गए तीन भाषणों की कई पुस्तिकाएँ भी भेजी थीं। रविवासरीय भाषणों को अब 'शीघ्रलिपि' में लिखकर छपाया जाता है। तीन भाषणों को मिलाकर दो पर्चे हुए हैं—जिनकी बहुत सी प्रतियाँ मैंने तुम्हें भेजी थीं। मैं न्यूयार्क में दो सप्ताह और रहूँगा, इसके बाद डिट्रॉएट जाऊँगा। फिर, एक या दो सप्ताह के लिए बोस्टन लौटूंगा। लगातार काम करने के कारण मेरा स्वास्थ्य इस वर्ष बहुत टूट गया है। मैं बहुत घबरा रहा हूँ। इस जाड़े में एक भी रात में ठिकाने से नहीं सो पाया हूँ। मुझे लगता है, मैं काम तो खूब कर रहा हूँ, फिर भी इंग्लैंड में बहुत अधिक काम मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। मुझे यह झेलना ही पड़ेगा। और तब, मैं आशा करता हूँ कि भारत पहुँचकर—विश्राम लूँगा। जीवन भर मने संसार की भलाई के लिए शक्ति के अनुसार चेष्टा की है—फल भगवान के हाथ में है। अब मैं विश्राम करना चाहता हूँ। आशा है, मुझे विश्राम मिलेगा और भारत के लोग मुझे छुट्टी देंगे। मैं कितना चाहता हूँ कि कई वर्षों तक गूंगा हो जाऊँ और एक शब्द भी न बोलूं। मैं संसार के इन झमेंलों और संघर्ष के लिए नहीं बना था। वास्तव में मैं स्वप्नविलासी और आरामतलब हूँ। में जन्मजात आदर्शवादी हैं, सिर्फ सपनों की दुनिया में रह सकता हूँ। वास्तविकता का स्पर्श मात्र मेरी दृष्टि धुंधली कर देता है और मुझे दुःखी बना देता है। तेरी इच्छा पूर्ण हो ! मैं तुम चारों बहनों का चिर कृतज्ञ हूँ। इस देश में मेरा जो कुछ भी है-सब तुम लोगों का है। भगवान तुम्हारा सर्वदा मंगल करे और सुखी रखे। मैं जहा भी रहूँगा, तुम्हारी याद-प्यार तथा हार्दिक कृतज्ञता के साथ आती रहेगी। सारा जीवन ही सपनों की माला है। मेरी आकांक्षा, जागते हुए स्वप्न देखते रहने की है। बस ! मेरा प्यार-बहन जोसेफ़िन को भी। तुम्हारा चिर स्नेही भाई, विवेकानंद (श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) २२८ पश्चिम ३९ वाँ रास्ता, न्यूयार्क, १३ फ़रवरी, १८९६ स्नेहाशीर्वादभाजन, उस संन्यासी के संबंध में, जो भारत से आ रहा है, मुझे विश्वास है कि अनुवाद के काम में तथा दूसरे कामों में भी वह तुम्हारी सहायता करेगा। बाद में जब मैं आऊँगा, तब कदाचित मैं उसे अमेरिका भेज दूंगा। आज एक और संन्यासी हो गया है। इस बार वह ऐसा व्यक्ति है, जो कि सच्चा अमेरिकन है और इस देश में प्रतिष्ठित धर्म-प्रचारक है। उसका पहला नाम था डॉक्टर स्ट्रीट, अब वह योगानंद है, क्योंकि उसकी सब रुचि योग की ओर है। मैं 'ब्रह्मावादिन' पत्रिका को नियमपूर्वक विवरण लिखकर भेजता रहा हूँ। वे शीघ्र ही प्रकाशित होंगे। किसी वस्तु को भारत पहुँचने में बहुत विलंब होता है। अमेरिका में काम की वृद्धि सुंदर रूप से हो रही है। चूंकि यहाँ आरंभ से ही कुछ धोखाधड़ी नहीं थीं, इसलिए अमेरिकन समाज के सर्वोच्च वर्ग को वेदांत अपनी ओर आकृष्ट कर रहा है। सारा बार्नहार्ड, फ्रेंच अभिनेत्री यहाँ 'इत्सील' (Iziel) नाटक में अभिनय कर रही हैं। यह एक प्रकार का फ्रेंच रूप में बुद्धदेव का जीवन-चरित्र है, जिसमें एक इत्सील नामक वेश्या वटवृक्ष के नीचे बैठे हुए बुद्धदेव को पाप में प्रवृत्त करना चाहती है। जिस समय वह इनकी गोद में बैठी है, उस समय बुद्धदेव ने उसे संसार की असारता का उपदेश दिया है। अस्तु, 'अंत भला सो सब भला'-—अंत में वह वेश्या असफल होती है। श्रीमती बार्नहार्ड वेश्या का अभिनय करती हैं। मैं इस 'बुद्ध' नाटक को देखने गया था और श्रीमती जी ने मुझे श्रोतागणों में देखकर मुझसे भेंट करने की इच्छा प्रकट की। एक प्रतिष्ठित और परिचित परिवार ने मिलने की व्यवस्था की। इनके अतिरिक्त वहाँ पर श्रीमती एम० मौरेल (एक नामी गायिका) और विद्युत विज्ञान में अति निपुण श्रीयुत टेस्ला भी थे। श्रीमती जी एक विदुषी महिला हैं और उन्होंने अध्यात्म विद्या का अच्छा अध्ययन किया है। श्रीमती मौरेल की भी इस विद्या में रुचि बढ़ रही है, और श्रीयुत टेस्ला वैदांतिक प्राण, आकाश और कल्प के सिद्धांत सुनकर बिल्कुल मुग्ध हो गए। उनके कथनानुसार आधुनिक विज्ञान केवल इन्हीं सिद्धांतों को ग्रहण कर सकता है। अब, आकाश और प्राण, दोनों जगद्व्यापी महत्, समष्टि-मन, ब्रह्मा या ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं। श्री टेस्ला समझते हैं कि गणितशास्त्र की सहायता से वे यह प्रमाणित कर सकते है कि जड़ और शक्ति, दोनों ही स्थितिक ऊर्जा (Potential Energy) में रूपांतरित हो सकते हैं। गणितशास्त्र के इस नवीन प्रमाण को समझने के लिए मैं आगामी सप्ताह में उनसे मिलने जानेवाला हूँ। ऐसा होने से वैदांतिक ब्रह्मांडविज्ञान अत्यंत दृढ़ नींव पर स्थित हो सकेगा। मैं आजकल वैदांतिक ब्रह्मांडविज्ञान और प्रलय-विज्ञान (Eschatology) में बहुत कुछ काम कर रहा हूँ। आधुनिक विज्ञान के साथ उनका पूर्ण सामंजस्य मैं स्पष्ट रूप से देखता हूँ, और एक की व्याख्या के बाद दूसरे की भी हो जाएगी। मैं बाद में प्रश्नोत्तर के रूप में एक पुस्तक लिखने का विचार करता हूँ। उसका पहला अध्याय ब्रह्मांडविज्ञान पर होगा, जिसमें वैदांतिक सिद्धांत और आधुनिक विज्ञान का सामंजस्य दिखाया जाएगा। प्रलय-विज्ञान की व्याख्या केवल अद्वैत के दृष्टिकोण से होगी। अर्थात् द्वैतवादी कहते हैं कि मृत्यु के पश्चात् जीवात्मा सूर्यलोक में जाती है, वहाँ से चंद्र लोक में और वहाँ से विद्युत्-लोक में। वहाँ से किसी पुरुष के साथ वह ब्रह्मालोक जाती है। (अद्वैती कहता है कि वहाँ से वह निर्वाण प्राप्त करती है।) अद्वैतवाद के अनुसार जीव न कहीं आता है, न जाता है और ये सब लोक या जगत के स्तर आकाश और प्राण के रूपांतरित परिमाण मात्र है। अर्थात सबसे नीचा और सबसे घना सूर्यलोक है, जो दृश्य जगत् ही है, और जिसमें प्राण भौतिक शक्ति के रूप में और आकाश इंद्रियग्राह्य भौतिक पदार्थ के रूप में प्रकट होता है। इसके बाद चंद्र लोक है, जो सूर्यलोक को चारों ओर से घेरे है। यह चंद्रमा नहीं है, परंतु देवताओं का निवास स्थान है अर्थात् प्राण यहाँ मानसिक शक्तियों के रूप में और आकाश तन्मात्र या सूक्ष्म भूत के रूप में प्रकट होता है। इसके परे विद्युत्-लोक है अर्थात् वह अवस्था, जहाँ प्राण आकाश से प्रायः अभिन्न है और यह बताना कठिन हो जाता है कि विद्युत् जड़ है या शक्ति। इसके बाद ब्रह्मालोक है, जहाँ न प्राण है, न आकाश, परंतु दोनों ही चित् शक्ति अर्थात आदि शक्ति में विलीन है। और यहाँ प्राण और आकाश के न रहने से जीव को संपूर्ण विश्व समष्टि-महत् या समष्टिमन के रूप में प्रतीत होता है। यह भी पुरुष या सगण विश्वात्मा की अभिव्यक्ति है, न कि निर्गुण अद्वितीय परमात्मा की; क्योंकि उसमें भेद सूक्ष्य रूप से विद्यमान है। इसके पश्चात् जीव को पूर्ण एकत्व की अनुभूति होती है, जो कि अंतिम लक्ष्य है। अद्वैत के अनुसार जीव के सम्मुख इन सब अनुभूतियों का प्रकाश एक के बाद एक क्रमशः होता है; परंतु जीव स्वयं न कहीं आता है, न जाता; और इसी प्रकार इस वर्तमान जगत् की भी अभिव्यक्ति हुई है। इसी क्रम से सृष्टि और प्रलय होते हैं— केवल एक का अर्थ है 'पीछे जाना' और दूसरे का 'बाहर निकलना'। जबकि प्रत्येक व्यक्ति अपने ही विश्व को देखता है, इसलिए उस विश्व की उत्पत्ति उसके बंधन के साथ ही होती है, और उसकी मुक्ति से वह विश्व विनष्ट हो जाता है, तथापि वह औरों के लिए, जो बंधन में हैं, अवशिष्ट रहता है। नाम और रूप से ही विश्व बना है। समुद्र की तरंग, उस हद तक ही तरंग कहला सकती है, जब तक कि नाम और रूप से वह सीमित है। यदि तरंग लुप्त हो जाए, तो वह समुद्र ही है। परंतु उसके वे नाम और रूप तत्काल ही सदा के लिए नष्ट हो गए। इसलिए उस तरंग के नाम और रूप जल के बिना नहीं हो सकते, जिससे नाम और रूप ने तरंग का निर्माण किया, परंतु फिर भी वे स्वयं तरंग नहीं हैं। जैसे ही तरंग पानी बन जाती है, वैसे ही नाम और रूप का लोप हो जाता है। परंतु दूसरे नाम और रूप, जिनका दूसरी तरंगों से संबंध है, वर्तमान रहते हैं। यह नाम और रूप माया कहलाता है, और, पानी ब्रह्मा है। सब काल में तरंग पानी ही है, परंतु फिर भी तरंग के आकार में उसका नाम और रूप है। पुनः, ये नाम और रूप एक क्षण के लिए भी पानी से पृथक् होकर नहीं रह सकते, यद्यपि तरंग जलरूप में अनंत काल तक नाम और रूप से पृथक् होकर रह सकती है। परंतु नाम और रूप पृथक् नहीं किए जा सकते, इसीलिए उनका अस्तित्व नहीं माना जा सकता। फिर भी वे शून्य नहीं हैं। यही है माया। मैं इसका सावधानी से विवेचन करना चाहता हूँ, परंतु तुरंत ही तुम देख सकते हो कि मैं सही रास्ते पर हूँ। ऊँचे एवं नीचे के केंद्रों के परस्पर संबंध को जानने के लिए शारीरिक विज्ञान का अधिक अध्ययन करने की आवश्यकता है और इससे मन, चित्त और बुद्धि आदि संबंधी मनोविज्ञान पूरा किया जाएगा। परंतु अब मेरे मन पर स्पष्ट प्रकाश पड़ रहा है-धुंधलापन दूर हो गया है। मैं उन्हें देना चाहता हूँ रूखा और कठोर तर्क, जो प्रेम के अति मधुर रस से कोमल किया गया हो, उत्कट कर्म से सुगंधित मसालेदार बना हो और योग की रसोई में पका हो, जिससे उसे एक शिशु भी सहज रूप से पचा सके। तुम्हारा, विवेकानंद (श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित) १७ फ़रवरी, १८९६ प्रिय आलासिंगा, ...काम बहुत कठिन है; जैसे जैसे काम की वृद्धि हो रही है, वैसे वैसे काम की कठिनता भी बढ़ती जा रही है। मुझे विश्राम की अत्यंत आवश्यकता मालूम पड़ रही है। परंतु इंग्लैंड में एक बड़ा काम मेरे सामने है।... वत्स, धीरज रखो, काम तुम्हारी आशा से बहुत ज़्यादा बढ़ जाएगा।... हर एक काम में सफलता प्राप्त करने से पहले सैकड़ों कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। जो उद्यम करते रहेंगे, वे आज या कल सफलता को देखेंगे।... न्यूयार्क को, जो अमेरिकन सभ्यता का एक प्रकार से हृदय है, जगाने में मैंने सफलता प्राप्त की है। परंतु यह एक बहुत ही भीषण संघर्ष रहा।... जो मुझमें शक्ति थी, मैंने उसे न्यूयार्क और इंग्लैंड पर प्रायः न्यौछावर कर दी। अब काम सुचारु रूप से चल रहा है। हिंदू भावों को अंग्रेज़ी में व्यक्त करना, फिर शुष्क दर्शन, पेचीदी पौराणिक कथाएँ, और अनूठे आश्चर्यजनक मनोविज्ञान से एक ऐसे धर्म का निर्माण करना, जो सरल, सहज और लोकप्रिय हो और उसके साथ ही उन्नत मस्तिष्कवालों को संतुष्ट कर सके इस कार्य की कठिनाइयों को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया हो। अद्वैत के गूढ़ सिद्धांतों में नित्य प्रति के जीवन के लिए कविता का रस और जीवनदायिनी शक्ति उत्पन्न करनी है; अत्यंत उलझी हई पौराणिक कथाओं में से साकार नीति के नियम निकालने हैं; और बुद्धि को भ्रम में डालनेवाली योग-विद्या से अत्यंत वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है और इन सबको एक ऐसे रूप में लाना पड़ेगा कि बच्चा-बच्चा इसे समझ सके। मेरे जीवन का यही कार्य है। परमात्मा ही जानता है कि कहाँ तक यह काम मैं कर पाऊँगा। 'कर्म करने का हमें अधिकार है, उसके फल का नहीं।' परिश्रम करना है वत्स, कठिन परिश्रम ! काम-कांचन के इस चक्कर में अपने आपको स्थिर रखना, और अपने आदर्शों पर जमें रहना, जब तक कि आत्मज्ञान और पूर्ण त्याग के साँचे में शिष्य न ढल जाए, निश्चय ही कठिन काम है। धन्य है परमात्मा कि अब तक बड़ी सफलता हमें मिलती रही है। मैं मिशनरी आदि लोगों को दोष नहीं दे सकता कि वे मुझे समझने में असमर्थ हए। उन्होंने शायद ही कभी ऐसा पुरुष देखा होगा, जो धन और स्त्रियों की ओर आकृष्ट न हो। पहले तो वे इस बात का विश्वास ही नहीं करते थे, और करते भी कैसे ! तुम्हें यह नहीं समझना चाहिए कि पश्चिमी देश में ब्रह्माचर्य और पवित्रता के वे ही आदर्श है, जो भारत में हैं। इन लोगों के सदगुण और साहस उसके बदले में पूजित हैं।... मेरे पास अब लोगों के झुंड के झुंड आ रहे हैं। अब सैकड़ों मनुष्यों को विश्वास हो गया है कि ऐसे भी मनुष्य हो सकते हैं, जो अपनी शारीरिक वासनाओं को वशीभूत कर सकते हैं। इन आदर्शों के लिए अब सम्मान और प्रेम बढ़ते जा रहे हैं। जो प्रतीक्षा करता है, उसे सब चीज़ें मिलती हैं। अनंत काल तक तुम भाग्यवान बने रहो। तुम्हारा सस्नेह, विवेकानंद (श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) २२८ पश्चिम ३९वाँ, रास्ता, न्यूयार्क, २९ फ़रवरी, १८९६ शुभ और प्रिय, अगर संभव हुआ, तो मैं मई के पहले आ रहा हूँ। तुम्हें इस संबंध में चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। पुस्तिका अच्छी थी। यहाँ से समाचारपत्र की कतरनें, अगर हमें मिल गयीं, तो रवाना कर दी जायेगी। यहाँ पुस्तकें और पुस्तिकाएँ इस तरह प्रकाशित हुई है। न्यूयार्क में एक समिति बनी है। आशुलिपि और छपाई का खर्च वे इस शर्त पर चुकायेंगे कि पुस्तकें उनके अधिकार में हों। अतः ये पुस्तिकाएँ और पुस्तकें उनकी है। एक पुस्तक 'कर्मयोग' प्रकाशित हो चुकी है, 'राजयोग' जो उससे बृहत्तर है, प्रकाशनावस्था में है; और 'ज्ञानयोग' बाद में प्रकाशित होगा। ये पुस्तकें काफी लोकप्रिय होंगी, क्योंकि बोलचाल की भाषा में हैं, जैसा कि तुमने देखा ही है। मैंने आपत्तिजनक बातों को निकाल दिया है और उन्होंने पुस्तकों के प्रकाशन में सहायता दी। पुस्तकें इस समिति की संपत्ति है, जिसकी मुख्य सहायक श्रीमती ओलि बुल हैं और श्रीमती लेगेट भी हैं। ऐसा है कि सभी पुस्तकें उन्हें मिलनी चाहिए, क्योंकि उन्होंने सारा ख़र्च किया है। उनके साथ प्रकाशकों के हस्तक्षेप का भी भय नहीं है, क्योंकि वे स्वयं प्रकाशक हैं। अगर भारत से कोई पुस्तक आये, तो सुरक्षित रखना। गुडविन नाम का एक अंग्रेज़ आशुलिपिक है, जो मेरे कार्यों से इतना संबद्ध हो गया है कि मैंने उसे एक ब्रह्माचारी बना दिया है और वह मेरे साथ ही इधर-उधर जाता है। हम लोग साथ ही इंग्लैंड आयेंगे। वह बहुत बड़ा सहायक सिद्ध होगा, जैसा कि वह हमेशा से रहा है। अनेक शुभकामनाओं के साथ, तुम्हारा, विवेकानंद (श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) वृहस्पतिवार, अपराह्न वेव्ने मैनसन्स, फ़ेयर हज़ल गार्डन्स, एन० डब्ल० प्रिय स्टर्डी, प्रातःकाल मैं तुम्हें यह बताना भूल गया कि प्रोफ़ेसर मैक्समूलर ने अपने पत्र में मुझसे यह भी कहा है यदि मैं आक्सफ़ोर्ड में भाषण करने जाऊँ, तो वह अपनी शक्ति भर सारा प्रबंध करेंगे। सस्नेह तुम्हारा, विवेकानंद पुनश्च-क्या तुमने शंकर पांडुरंग द्वारा संपादित अथर्ववेद-संहिता के लिए लिख दिया है ? (स्वामी त्रिगुणातीतानंद को लिखित) बोस्टन, २ मार्च, १८९६ प्रिय सारदा, तुम्हारे पत्र से सब समाचार विदित हुए। महोत्सव के उपलक्ष्य में मैंने एक तार भेजा था, उसके बारे में तुमने कुछ भी नहीं लिखा है। कई महीने पहले शशि ने जो संस्कृत 'कोष' भेजा था, वह तो आज तक नहीं मिला। मैं शीघ्र ही इंग्लैंड जा रहा हूँ। अब शरत् के आने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मैं खुद ही इंग्लैंड जा रहा हूँ। जिनको अपना मन स्थिर करने में छः महीने का समय चाहिए उन व्यक्तियों की मुझे आवश्यकता नहीं है। उसे यूरोप भ्रमण के लिए मैंने नहीं बुलाया है और मेरे पास धन भी नहीं है। अतः उसे रवाना होने से मना कर देना, किसी को आने की आवश्यकता नहीं है। तिब्बत संबंधी तुम्हारे पत्र का विवरण पढ़कर तुम्हारी बुद्धि पर मुझे अश्रद्धा ही हुई। प्रथम नोटोवीच की पुस्तक को ठीक मानना तुम्हारी मूर्खता का सूचक है ! क्या तुमने मूल ग्रंथ देखा है अथवा अपने साथ उसे भारत में लाने का कष्ट किया है ? दूसरा यह कि ईसा मसीह तथा समरिया देश की नारी के चित्र तुमने कैलास के मठ में देखे हैं-यह तुमको कैसे पता चला कि वह ईसा मसीह का ही चित्र है और किसी का नहीं? यदि तुम्हारी बात मान भी ली जाए, तो भी तुमने यह कैसे समझा कि किसी ईसाई के द्वारा वह चित्र उक्त मठ में नहीं रखा गया है ? तिब्बतियों के बारे में तुम्हारी धारणाएँ ग़लत हैं। तुमने तिब्बत का मर्म-स्थान तो देखा नहीं-केवल मात्र वाणिज्य-पथ के कुछ अंश को देखा है। उन स्थलों में केवल मात्र dregs of a nation (जाति का निकृष्ट भाग) ही दिखायी देता है। कलकत्ते का चीनाबाज़ार तथा बड़ाबाज़ार देखकर यदि कोई प्रत्येक बंगाली को चोर कहे, तो क्या उसका कथन यथार्थ में ठीक है ? शशि के साथ विशेष रूप से परामर्श कर लेख आदि लिखना। तुम्हारे लिए सबसे आवश्यक वस्तु आज्ञा-पालन है। नरेन्द्र (श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) न्यूयार्क, १७ मार्च, १८९६ शुभ और प्रिय, तुम्हारा पिछला पत्र अभी मिला। इसने मुझे बहुत भयभीत कर दिया है। कुछ मित्रों के तत्वावधान में भाषण (व्याख्यान) दिया गया था, जिन्होंने आशुलिपि की तथा अन्य खर्च इस शर्त पर दिए कि प्रकाशन का अधिकार उन्हें ही होगा। अतः उन्होंने रविवारीय भाषण और साथ ही 'कर्मयोग', 'राजयोग' और 'ज्ञानयोग' नामक तीन पुस्तकें भी प्रकाशित की हैं। 'राजयोग' को विशेष रूप से परिवर्तित कर दिया गया है और उसे पतंजलि के योग-सूत्र के अनुवाद के साथ फिर से क्रमबद्ध किया गया है। 'राजयोग' लांगमैन्स के हाथ में है। यहाँ कुछ मित्र इन पुस्तकों के इंग्लैंड में प्रकाशित होने की बात पर क्रुद्ध है; मैंने चूँकि वैधानिक रूप से ये पुस्तकें उन्हें दे दी थीं, अतः मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया हूँ। पुस्तिकाओं के प्रकाशन की बात उतनी गंभीर नहीं थी। किंतु पुस्तकों को इस तरह पुनः क्रमबद्ध तथा परिवर्तित कर दिया गया है कि अमेरिकी संस्करण अंग्रेज़ी संस्करण से एकदम भिन्न हो गया है। अब कृपया इन पुस्तकों को मत प्रकाशित करो, क्योंकि मैं बरी स्थिति में पड़ जाऊँगा और सदा के लिए झगड़ा खड़ा हो जाएगा, जिससे यहाँ के कार्यों में भी क्षति होगी। भारत से आयी पिछली डाक से मैं जान सका हूँ कि एक संन्यासी वहाँ से प्रस्थान कर चुका है। कुमारी मूलर का एक सुंदर पत्र आया था और कुमारी मैक्लिऑड का भी। लेगेट परिवार मुझसे बहुत संबद्ध हो गया है। श्री चटर्जी के संबंध में मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं है। दूसरे सूत्रों से जान सका हूँ कि उसे पैसे की कठिनाई है और थियोसॉफ़िस्ट उसकी पूर्ति नहीं कर सकते। इसके अतिरिक्त उसकी सहायता, जो मुझे मिल सकेगी, वह भारत से आने वाले एक सुदृढ़ व्यक्ति की सहायता की अपेक्षा बहुत ही प्रारंभिक और अनुपयोगी होगी। उसके विषय में इतना ही पर्याप्त है। हम लोगों को जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। मैं पुनः प्रकाशन संबंधी बातों पर सोच लेने का अनुरोध करता हूँ और श्रीमती ओलि बुल को पत्र लिखकर वेदांत से संबंधित अमेरिकन मित्रों की सम्मति पूछ लो, यह स्मरण दिलाते हुए कि 'हमारा सिद्धांत अथवा धर्म सभी प्राणियों की एकता का है।' सभी राष्ट्रीय भावनाएँ खोटी अंधविश्वास है। इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति दूसरे की सम्मति को जगह देने के लिए सदा प्रस्तुत रहता है, उसका विचार अंततः विजयी होता है। आत्मसमर्पण की सर्वथा अंत में विजय होती है। अपने सभी मित्रों को प्यार—- प्यार और शुभकामनाओं के साथ तुम्हारा, विवेकानंद पुनश्च—मैं निश्चित ही जितना शीघ्र हो सका, मार्च में आ रहा हूँ। विवेकानंद (कुमारा मेरी हेल को लिखित) प्रिय बहन, मुझे भय है कि तुम रुष्ट हो और इसीलिए तुमने मेरे किसी भी पत्र का उत्तर नहीं दिया। अब मैं लक्षशः क्षमा माँगता हूँ। बड़े भाग्य से मुझे योगिया कपड़ा मिला गया और जितनी जल्दी हो सकेगा, मैं एक कोट बनवा लूँगा। मुझे यह सुनकर प्रसन्नता हुई कि तुमने श्रीमती बुल से भेंट की। वे एक बहुत ही भद्र महिला और दयालु मित्र हैं। बहन, घर में, संस्कृत की दो बहुत पतली पतली पुस्तिकाएँ हैं। यदि तुम्हें कोई कठिनाई न हो, तो उन्हें कृपया भेज दो। भारत से पुस्तकें सुरक्षित पहुँच गयीं और मुझे उनके लिए कोई चुंगी नहीं देनी पड़ी। मुझे आश्चर्य है कि कंबल अभी तक क्यों नहीं आये। मैं मदर टेम्पिल से फिर भेंट करने नहीं जा सका। मुझे समय नहीं मिला। जो कुछ भी समय मिलता है, मैं उसे पुस्तकालय में व्यतीत करता हूँ। तुम सब लोगों के प्रति शाश्वत स्नेह और कृतज्ञता के साथ— तुम्हारा सदा स्नेही भाई, विवेकानंद पुनश्च-गत कुछ दिन छोड़कर श्री हो नियमित रूप से कक्षा में आते हैं। कुमारी हो से मेरा प्यार कहना। विवेकानंद (श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित) बोस्टन, २३ मार्च, १८९६ प्रिय आलासिंगा, तुम्हारे पत्र का जवाब में शीघ्र न दे सका; तथा अभी भी मुझे बहुत जल्दी करनी पड़ रही है। मेरे नये संन्यासियों में निश्चय ही एक स्त्री है। पहले ये मज़दूरों की नेता थीं। शेष सब पुरुष हैं। मैं इंग्लैंड में कुछ थोड़े से और संन्यासी बनाकर भारत अपने साथ लाऊँगा। भारत में इनके 'सफ़ेद' वर्ण का प्रभाव हिंदुओं से भी अधिक होगा इसके अतिरिक्त ये फुर्तीले हैं, जबकि हिंदू मृतप्राय हैं। भारत में आशा केवल साधारण जनता से है। उच्च श्रेणी के लोग शारीरिक और नैतिक दृष्टि से मृतवत् हैं। मेरी सफलता का कारण मेरी लोकप्रिय शैली है—गुरु की महानता उसकी सरल भाषा में निहित है। मैं अगले महीने इंग्लैंड जा रहा हूँ। मुझे प्रतीत होता है कि मैंने अत्यधिक काम किया है। इस दीर्घकाल तक लगातार काम से मेरी नसों की शक्ति नष्ट हो गयी। मैं तुमसे सहानुभूति नहीं चाहता; परंतु मैं इसलिए यह लिखता हूँ कि तुम मुझसे अब कुछ अधिक आशा न रखो। जितने अच्छे ढंग से तुम कार्य कर सको, उतना करो। अब मुझे बहुत कम आशा है कि मैं बड़े बड़े काम कर सकूँगा। परंतु मुझे हर्ष है कि मेरे व्याख्यानों को सांकेतिक लिपि में लिख रखने से बहुत सा साहित्य उत्पन्न हुआ है। चार किताबें तैयार हैं। एक तो छप चुकी है; 'पातंजलि सूत्र' के साथ 'राजयोग' पुस्तक छप रही है, 'भक्तियोग' पुस्तक तुम्हारे पास है, और 'ज्ञानयोग' पुस्तक के प्रकाशन की तैयारी चली है। इसके सिवाय रविवार में दिए गए व्याख्यान भी छप चुके हैं। स्टर्डी बहुत ही परिश्रमी व्यक्ति है, प्रत्येक कार्य में वह अग्रसर हो सकता है। मुझे संतोष है कि मैंने भलाई करने का भरसक प्रयत्न किया है और जब मैं कार्य-विरत हो एकांत सेवन के लिए गुफा में जाऊँगा, तब मेरा अंतःकरण मुझे दोष न देगा। सबको प्यार और आशीर्वाद के साथ— विवेकानंद (श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित) संयुक्त राज्य अमेरिका, मार्च, १८९६ प्रिय आलासिंगा, काम में लगे रहो। मैं जो कर सकता हूँ, करूँगा।... यदि प्रभु की इच्छा हुई, तो गेरुए वस्त्रवाले साधु यहाँ और इंग्लैंड में काफ़ी संख्या में दिखायी देंगे। वत्सगण, काम करते रहो। याद रखो कि जब तक गुरु में तुम्हारी भक्ति है, तुम्हारा विरोध कोई नहीं कर सकेगा। पाश्चात्यों की दृष्टि में तीनों भाष्यों का अनुवाद बहुत बड़ी बात होगी। ... इस बीच दो लोग मेरे संन्यासी शिष्य हुए हैं तथा दो-चार सौ गृहस्थ शिष्य। किंतु वत्स, कुछ लोगों के सिवाय अधिकांश लोग ग़रीब हैं। फिर भी, कुछ लोग तो खूब धनी है। इस बात को अभी किसी से न कहना। उपयुक्त समय आने पर मैं जनता के सम्मुख प्रचंड वेग से आत्मप्रकाश करूँगा। धैर्य धारण करो वत्स, धीरज रखकर काम करो। धैर्य, धैर्य! अगले वर्ष न्यूयार्क में एक मंदिर बनवा सकने की आशा है, शेष प्रभु की इच्छा। मैं यहाँ एक पत्रिका निकालंगा। मैं लंदन जा रहा हूँ और यदि प्रभु की कृपा हई, तो वहाँ भी वैसा करूँगा। सप्रेम तुम्हारा, विवेकानंद (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) इंडियन एवेन्यू, शिकागो, इल० ६ अप्रैल, १८९६ प्रिय श्रीमती बुल, आपका कृपापत्र यथासमय प्राप्त हुआ। अपने मित्रों के साथ मैं कई जगह गया और अनेक कक्षाएँ लीं। कुछ और लूंगा और फिर गुरुवार को प्रस्थान करूँगा। यहाँ हर बात का अच्छा प्रबंध था। यह सब कुमारी एडम्स की कृपा थी। वह इतनी भली और दयालु हैं। मैं पिछले दो दिनों से हल्के ज्वर से पीड़ित हूँ; अतः लंबा पत्र नहीं लिख सकता। बोस्टन में सभी को मेरा प्यार। भवदीय, विवेकानंद (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) १२४ ई० ४४ वाँ रास्ता, न्यूयार्क, १४ अप्रैल, १८९६ प्रिय श्रीमती बुल, ...एक विचित्र व्यक्ति मेरे पास बम्बई से एक पत्र लेकर आया है। वह कार्यक्षम मिस्त्री है और उसका इस देश में खाने के काँटे-चम्मच आदि तथा लोहे के अन्य कारखानों को देखने का विचार है।... मैं उसके संबंध में कुछ नहीं जानता, किंतु यदि वह दुष्ट भी है, तो भी मैं अपने देश के लोगों में इस प्रकार की साहसिक भावना को प्रोत्साहन देने का बड़ा इच्छुक हूँ। अपने खर्च के लिए उसके पास पर्याप्त धन है। अब यदि पूरी सावधानी के साथ उसकी भावना की सत्यता की जाँच करते हुए आप संतुष्ट हों, तो वह जो चाहता है, वह है इन कारखानों को देखना। मैं आशा करता हूँ, वह सच्चा है और आप उसे इस कार्य में मदद दे सकती हैं। आपका शुभाकांक्षी, विवेकानंद (स्वामी त्रिगुणातीतानंद को लिखित) न्यूयार्क, १४ अप्रैल, १८९६ कल्याणीय, तुम्हारे पत्र से समाचार अवगत हुए। शरत् सकुशल पहुँच गया है, यह संवाद प्राप्त हुआ। तुम्हारा भेजा हुआ 'इण्डियन मिरर' पत्र भी मिला। लेख उत्तम है, बराबर लिखते रहो। दोष देखना सहज है, गुणों का अवलोकन करना ही महापुरुषों का धर्म है, इस बात को न भूलना। 'मूंग की दाल तैयार नहीं हई है'—-इसका तात्पर्य क्या है ? भुनी हुई मूंग की दाल भेजने के लिए मैंने पहले ही मना कर दिया था; चने की दाल तथा कच्ची मूंग की दाल भेजने के लिए मैंने लिखा था। भूनी हुई मूंग की दाल यहाँ तक आने में खराब हो जाती है तथा उसका स्वाद भी नष्ट हो जाता है एवं पकती भी नहीं है। यदि अब की बार भी भी हुई मूंग की दाल भेजी गयी हो, तो उसे टेम्स नदी में बहाना पड़ेगा एवं तुम्हारा परिश्रम भी व्यर्थ होगा। मेरे पत्र को अच्छी तरह पढ़े बिना तुम मनमानी क्यों करते हो? पत्र खो जाने का कारण क्या है ? पत्र के जवाब लिखते समय पत्र को (जिसका जवाब लिखना हो) सामने रखकर लिखना चाहिए। तुम लोगों में कुछ business (व्यावहारिक) बुद्धि की आवश्यकता है। जिन विषयों को मैं जानना चाहता हूँ, प्रायः उनका ही उत्तर नहीं मिलता है-केवल इधर उधर की बातों का ही अधिक उल्लेख रहता है। पत्र कैसे खो जाते हैं ? उन्हें 'फ़ाइल' क्यों नहीं किया जाता है ? सब कामों में ही बचपना। मेरा पत्र क्या सबके समक्ष पढ़ा जाता है ? क्या जो कोई आते हैं, 'फ़ाइल' से पत्र निकाल कर भी पढ़ते हैं ? तुम लोगों में कुछ व्यावहारिक ज्ञान की आवश्यकता है। अब तुम्हें संगठित होना चाहिए। तदर्थ पूर्णतया आज्ञा-पालन तथा श्रम-विभाजन आवश्यक हैं। मैं सब कुछ इंग्लैंड पहुँचकर लिख भेजूंगा। कल मैं वहाँ के लिए रवाना हो रहा हूँ। मैं तुम लोगों को जैसा होना चाहिए, उस प्रकार बनाकर तुम लोगों द्वारा संगठित रूप से कार्य संपादन अवश्य कराऊँगा। ... Friend (बंधु) शब्द का प्रयोग सबके प्रति किया जा सकता है। अंग्रेज़ी भाषा में उस प्रकार की cringing politeness (चापलूस भद्रता) नहीं है, और ऐसे बांग्ला शब्दों का अंग्रेज़ी अनुवाद करना हास्यास्पद होता है। रामकृष्ण परमहंस ईश्वर है, भगवान है—क्या इस प्रकार की बातें यहाँ चल सकती हैं? सबके हृदय में बलपूर्वक उस प्रकार की भावना को बद्धमूल कर देने का झुकाव 'म' में विद्यमान है। किंतु इससे हम लोग एक क्षुद्र संप्रदाय के रूप में परिणत हो जायँगे। तुम लोग इस प्रकार के प्रयत्न से सदा दूर रहना। यदि लोग भगवद्बुद्धि से उनकी पूजा करें, तो कोई हानि नहीं है। उनको न तो प्रोत्साहित करना और न निरुत्साहित। साधारण लोग तो सर्वदा 'व्यक्ति' ही चाहेंगे, उच्च श्रेणी के लोग 'सिद्धांतों को ग्रहण करेंगे। हमें दोनों ही चाहिए, किंतु सिद्धांत ही सार्वभौम हैं, व्यक्ति नहीं। इसलिए उनके द्वारा प्रचारित सिद्धांतों को ही दृढ़ता के साथ पकड़े रहो; लोगों को उनके व्यक्तित्व के बारे में अपनी अपनी धारणा के अनुसार सोचने दो।...सब तरह के विवाद, विद्वेष तथा पक्षपात की निवत्ति हो; इनके रहने से सब कुछ नष्ट हो जाएगा। 'जो सबसे प्रथम है, उसका स्थान अंत में और जो अंत में है, वह प्रथम होगा।' मदभक्तानाञ्च ये भक्तास्ते में भक्ततमा मताः (मेरे भक्तों के जो भक्त हैं, वे ही मेरे श्रेष्ठ भक्त हैं)। इति। विवेकानंद (डॉ० नंजुन्दा राव को लिखित) न्यूयार्क, १४ अप्रैल, १८९६ प्रिय डॉक्टर, मुझे तुम्हारा पत्र आज सुबह मिला। मैं कल इंग्लैंड के लिए रवाना हो रहा हूँ, इसलिए मैं कुछ थोड़ी सी हार्दिक पंक्तियाँ ही लिख सकूँगा। लड़कों के लिए पत्रिका प्रकाशित करने का जो तुम विचार कर रहे हो, उससे मुझे पूर्ण सहानुभूति है और मैं उसकी सहायता करने का पूरा पूरा यत्न करूँगा। उसे स्वाधीनता होनी चाहिए; 'ब्रह्मावादिन्' पत्रिका की पद्धति का अनुसरण करो, केवल तुम्हारी पत्रिका की लेखन-शैली और विषय उससे अधिक लोकप्रिय होने चाहिए। उदाहरणार्थ, संस्कृत-साहित्य की बिखरी हुई अद्भुत कहानियों को ले लो। उन्हें फिर से लोकप्रिय ढंग से लिखने का यह इतना बड़ा सुअवसर है कि जिसके महत्व को तुम स्वप्न में भी नहीं समझ सकते। यह तुम्हारी पत्रिका का मुख्य विषय होना चाहिए। जब मुझे समय मिलेगा, तब जितनी कहानियाँ मैं लिख सकता हूँ, लिखूंगा। पत्रिका को विद्वत्तापूर्ण करने का प्रयत्न न करना,-'ब्रह्मावादिन्' उसके लिए है। मैं निश्चित रूप से कहता हूँ कि इस तरह से तुम्हारी पत्रिका सारे संसार में पहुँच जाएगी। जहाँ तक हो सके, सरल भाषा का उपयोग करना और तुम्हें सफलता प्राप्त होगी। कहानियों द्वारा नीति-तत्व सिखाना पत्रिका का प्रधान विषय होना चाहिए। उसमें अध्यात्म-विद्या बिल्कुल न आने देना। भारत में जिस एक चीज़ का हममें अभाव है, वह है मेल तथा संगठन-शक्ति, और उसे प्राप्त करने का प्रधान उपाय है आज्ञा-पालन। ...वीरता से आगे बढ़ो। एक दिन या एक साल में सिद्धि की आशा न रखो। उच्चतम आदर्श पर दृढ़ रहो। स्थिर रहो। स्वार्थपरता और ईर्ष्या से बचो। आज्ञा-पालन करो। सत्य, मनुष्य-जाति और अपने देश के पक्ष पर सदा के लिए अटल रहो, और तुम संसार को हिला दोगे। याद रखो-व्यक्ति और उसका जीवन ही शक्ति का स्रोत है, इसके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं। इस पत्र को रखे रहना, और जब कभी तुम्हारे मन में चिंता या ईर्ष्या का उदय हो, तब इसकी अंतिम पक्तियाँ पढ़ लिया करना। ईर्ष्या के रोग से दास लोग सदा ग्रसित रहते हैं। हमारे देश का भी यही रोग है। इससे हमेशा बचो। सब आशीर्वाद और सर्वसिद्धि तुम्हारी हो। प्रेमपूर्वक तुम्हारा, विवेकानंद (हेल बहनों को लिखित) ६ पश्चिम ४३ वाँ रास्ता, न्यूयार्क, १४ अप्रैल, १८९६ प्रिय बहनों, मैं रविवार को यहाँ सकुशल पहुँच गया। अस्वस्थता के कारण और पहले पत्र नहीं लिख सका। ह्वाइट स्टार लाइन 'जर्मनिक' जहाज़ से मैं कल मध्याह्न १२ बजे यात्रा करूंगा। शाश्वत स्नेह, कृतज्ञता एवं शुभकामनाओं के साथ— तुम्हारा सदा स्नेही भाई, विवेकानंद (हेल बहनों को लिखित) हाई व्यू, रीडिंग. २० अप्रैल, १८९६ प्रिय बहनों, समुद्र के इस तट से तुम्हें अभिवादन। यात्रा सुखद रही और इस बार कोई बीमारी नहीं हुई। इससे बचने के लिए मैंने अपना उपचार किया। मैंने आयरलैंड तथा इंग्लैंड के कुछ पुराने नगरों की थोड़ी यात्रा की और अब पुनः रीडिंग में ब्रह्मा एवं माया तथा जीव, व्यक्ति और सार्वभौम आत्मा इत्यादि के बीच हूँ। दूसरा संन्यासी यहाँ है, मैं समझता हूँ कि वह एक उत्कृष्ट व्यक्ति है और अच्छा विद्वान संन्यासी भी है। अब हम पुस्तकों के संपादन में संलग्न हैं। मार्ग में कोई महत्वपूर्ण बात नहीं हुई। मेरे जीवन की भाँति ही यात्रा कुंठित, नीरस और शुष्क रही। जब मैं अमेरिका से बाहर होता हूँ, तो मुझे उससे अधिक स्नेह होता है। क्यों न हो, जो समय हमने वहाँ व्यतीत किया है, वह मेरे अब तक के जीवन के उत्तम समयों में रहा। क्या तुम लोग 'ब्रह्मावादिन्' के लिए कुछ ग्राहक बनाने का प्रयत्न कर रही हो। श्रीमती एडम्स तथा श्रीमती कंगर को मेरा उत्कृष्ट स्नेह और सहृदय स्मरण कहना। मुझे सुविधानुसार शीघ्र ही अपने लोगों के विषय में सारी बातें लिखना। तुम लोग क्या कर रही हो; भोजन-पानी और सायकिल चलाने की एकरसता कैसे भंग होती है। संप्रति मुझे जल्दी है, बाद में एक बड़ा पत्र लिखूंगा। अतः विदा। तुम लोग सदैव प्रसन्न रहो। तुम लोगों का सदा स्नेही भाई, विवेकानंद पुनश्च-जैसे ही समय मिलेगा, मैं मदर चर्च को पत्र लिखंगा। सैम तथा बहन लॉक को मेरा प्यार कहना। (अपने गुरुभाइयों को लिखित) हाई व्यू, कैवरशम, रीडिंग, इंग्लैंड, २७ अप्रैल, १८९६ कल्याणवरेषु, शरत् के द्वारा सारे समाचार अवगत हुए। 'दुष्ट गाय की अपेक्षा सूनी गोशाला श्रेयस्कर है।—-यह बात सदैव ध्यान में रखनी होगी। मैं व्यक्तिगत अधिकार प्राप्त करने के लिए यह नहीं लिखता, परंतु तुम्हारी भलाई के लिए और भगवान श्री रामकृष्ण जिस उद्देश्य के लिए आये थे, उस उद्देश्य की सफलता के निमित्त इसे सभी के लिए लिखना चाहता हूँ। उन्होंने तुम सब लोगों का रक्षणभार मेरे ऊपर डाला था, और बताया था कि तुम सब लोग जगत् के कल्याण में सहायता करोगे-—यद्यपि तुममें से अधिकांश इस बात को नहीं जानते। मेरा के भावों ने जड़ पकड़ लिया, तो बड़े दुःख की बात होगी। जो लोग स्वयं कुछ समय तक सौहार्द भाव से एक साथ न रह सकें, वे क्या पृथ्वी पर सौहार्द-संबंध स्थापित कर सकते हैं ? निःसंदेह नियमों से आबद्ध होना एक दोष है, परंतु अपरिपक्व अवस्था में नियमों का पालन करना आवश्यक है, अर्थात् जैसा कि गुरुदेव कहते थे कि छोटे पौधे को चारों ओर से रूँधकर रखना चाहिए-इत्यादि। दूसरी बात यह कि आलसी लोगों के लिए वृथा बकवाद करना और परस्पर विरोध भाव उत्पन्न करना इत्यादि स्वाभाविक है। इसलिए निम्नलिखित उद्देश्य संक्षेप में लिखता हूँ। यदि तुम इसके अनुसार अग्रसर होंगे, तो परम मंगल होगा। किंतु ऐसा न करोगे, तो हमारे सारे श्रमों के विफल हो जाने की संभावना है। पहले मैं मठ की व्यवस्था के विषय में लिखता हूँ १. मठ के लिए कृपया एक बड़ा सा मकान या बाग़ किराये पर लो, जहाँ सबको एक एक कमरा अलग-अलग मिल सके। एक विशाल कमरा, जहाँ पुस्तकें रखी जा सकें, और एक छोटा सा कमरा अभ्यागतों से भेंट करने के लिए होना चाहिए। यदि संभव हो, तो उस घर में एक बड़ा कमरा और होना चाहिए, जहाँ जनता के लिए शास्त्रों का अध्ययन और धर्म का उपदेश हो सके। २. कोई किसीसे मठ में मिलना चाहे, तो वह केवल उससे मिलकर चला जाए और दूसरों को कष्ट न दे। ३. प्रतिदिन, बारी बारी से, कुछ घंटों के लिए तुममें से एक को बड़े कमरे में जनता के लिए उपस्थित रहना चाहिए, जिससे जो प्रश्न वे करने आये हों, उनका संतोषजनक उत्तर उन्हें मिल सके। ४. सबको अपने अपने कमरे में रहना चाहिए, और किसी विशेष कार्य के अतिरिक्त दूसरों के कमरे में नहीं जाना चाहिए। जिसकी पुस्तकालय में पढ़ने की इच्छा हो, उसे वहाँ जाकर अध्ययन करना चाहिए। पर, वहाँ तंबाकू आदि नहीं पीनी चाहिए और दूसरों के साथ बातचीत नहीं करनी चाहिए। शांतिपूर्वक अध्ययन होना चाहिए। ५. एक कमरे में भीड़ करके दिन भर बातचीत में समय गँवाना और अनेक व्यक्तियों का बाहर से आकर उस कोलाहल में सम्मिलित होना, इसका पूर्णतः निषेध होना चाहिए। ६. केवल वे लोग, जो धर्म-जिज्ञासु हैं, शांत भाव से आयें और अभ्यागतों के कमरे में प्रतीक्षा करें। जिस विशेष व्यक्ति से वे मिलना चाहते हों, उससे मिलने के पश्चात् वे चले जायँ। यदि उन्हें कोई सामान्य प्रश्न करना हो, तो उस दिन के सम्मेलन के प्रबंधकर्ता से पूछकर चले जाएँ। ७. चुगलखोरी, गुट बनाना, दूसरों की निंदा इधर-उधर करना, इसका पूर्ण त्याग होना चाहिए। ८. एक छोटा कमरा आफ़िस के लिए नियुक्त हो। मंत्री को उस कमरे में रहना चाहिए और वहाँ काग़ज़ , स्याही तथा पत्र लिखने की और सब चीज़ें होनी चाहिए। मंत्री को आमदनी और व्यय का हिसाब रखना चाहिए। पत्र आदि सब उसके पास आने चाहिए और उसे सब उन उन व्यक्तियों को बिना खोले सौंप देने चाहिए। पुस्तकें और पत्रिकाएँ पुस्तकालय में भेज देनी चाहिए। ९. तंबाकू आदि पीने के लिए, एक छोटा कमरा होना चाहिए। उस कमरे के अलावा और कहीं तंबाकू नहीं पीनी चाहिए। १०. जो आक्षेप करना या क्रोध दिखाना चाहे, वह मठ की सीमा के बाहर ऐसा करे। इससे किंचित् भी विचलित न होना चाहिए। शासन-समिति १. प्रतिवर्ष अध्यक्ष का बहुमत से चुनाव होगा। अगले वर्ष दूसरे का, और आगे भी इसी तरह से। २. इस वर्ष राखाल (स्वामी ब्रह्मानंद) को अध्यक्ष बना दो, इसी प्रकार किसी और को मंत्री, और पूजा-भोजन इत्यादि की देख-भाल के लिए किसी तीसरे व्यक्ति का चुनाव करो। ३. मंत्री का एक और कर्तव्य होगा। वह सबके स्वास्थ्य पर दृष्टि रखेगा। इस संबंध में मुझे तीन निर्देश देने हैं : (क) प्रत्येक कमरे में प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक निवाड़ी पलंग और गद्दा आदि होंगे। हर एक को अपना कमरा साफ़ रखना होगा। (ख) पीने और पकाने के लिए स्वच्छ और निर्मल जल का प्रबंध करना होगा। अशुद्ध और मलिन जल में भोग पकाना महापाप है। (ग) हर एक को दो गेरुए वस्त्र दो, जैसे शरत के लिए तुमने बनाए, और यह देखो कि वे साफ़ रखे जाते हैं। मकान के नीचे-ऊपर की सफ़ाई परमावश्यक है (इस ओर दृष्टि रखनी होगी)। ४. जो संन्यासी बनना चाहे, उसे पहले ब्रह्माचारी बनाया जाए। एक वर्ष वह मठ में रहे और एक वर्ष बाहर रहे, तत्पश्चात् संन्यास की उसे दीक्षा दी जाए। ५. पूजा का काम इन्हींमें से एक ब्रह्माचारी को सौंपो और थोड़े समय बाद उन्हें बदलते रहो। मठ के विभाग मठ में निम्नलिखित विभाग होंगे : १. अध्ययन २. प्रचार ३. धार्मिक साधना १. अध्ययन—-जो अध्ययन करना चाहते हैं, उनके लिए पुस्तकों और शिक्षकों का प्रबंध करना इस विभाग का उद्देश्य होगा। प्रतिदिन प्रातः और सायं शिक्षकों को उनके लिए तैयार रहना चाहिए। २. प्रचार-मठ के अंदर और बाहर। मठ के प्रचारकों को यह कार्य करना होगा कि वे जिज्ञासुओं को धर्मग्रंथों में से पढ़कर सुनायें और उन्हें शिक्षा दें। साथ ही प्रश्न-कक्षा द्वारा भी वे उन्हें उपदेश दें। बाहर के उपदेशकों को गाँव-गाँव जाकर उपदेश देना चाहिए और उपर्युक्त प्रकार के मठ भी भिन्न भिन्न स्थानों में स्थापित करने का यत्न करना चाहिए। ३. धार्मिक साधना-जो लोग साधना करना चाहते हैं, यह विभाग उन लोगों की आवश्यकता को पूरा करने का यत्न करेगा; परंतु जो व्यक्ति धार्मिक साधना में लगा है, वह दूसरों को अध्ययन या उपदेश देने से नहीं रोक सकेगा। जो भी इस नियम का उल्लंघन करेगा, उसे तुरंत ही निकल जाने के लिए कहा जाएगा। यह अनिवार्य है। मठ के भीतर के उपदेशकों को भक्ति, ज्ञान, योग और कर्म पर बारी-बारी से शिक्षा देनी चाहिए। इसके लिए दिन और समय नियुक्त होना चाहिए और यह नित्य का कार्यक्रम कक्षा के दरवाज़े पर लगा देना चाहिए। अर्थात्-भक्तिमार्ग के साधकों को जिस दिन ज्ञान के विषय पर कक्षा हो, उस दिन उपस्थित नहीं रहना चाहिए, जिससे उनकी भक्ति को कहीं हानि न पहुँचे,—इत्यादि इत्यादि। तुम लोगों में से कोई भी वामाचार साधना के योग्य नहीं है। इसलिए मठ में इसकी साधना किसी प्रकार भी न होनी चाहिए। जो इसे न सुने, वह इस संघ को छोड़ दे। इस साधना का मठ में कभी नाम भी न लिया जाए। गुरु महाराज के संघ में जो दुष्ट, अधम वामाचार का प्रचार करेगा, उसके इहलोक और परलोक नष्ट हो जायेंगे। कुछ सामान्य निर्देश १. यदि कोई महिला किसी संन्यासी से बात करने आये, तो उसे अभ्यागतों के कमरे में संन्यासी से मिलना चाहिए। कोई भी महिला पूजा-गृह को छोड़कर किसी और कमरे में प्रवेश नहीं कर सकती। २. किसी संन्यासी को स्त्रियों के मठ में रहने की आज्ञा न होगी। जो संन्यासी इस आज्ञा का उल्लंघन करेगा, वह मठ से निकाल दिया जाएगा। 'दुष्ट गाय की अपेक्षा सूनी गोशाला श्रेयस्कर है।' ३. दुष्ट चरित्रवाले मनुष्यों का प्रवेश पूर्ण निषिद्ध है। किसी बहाने से उनकी छाया भी हमारे कमरे की देहली को पार न करे। यदि तुममें से कोई भी दुराचारी हो जाए, तो उसे तुरंत निकाल दो, चाहे वह कोई भी हो। हमें दुष्ट गाय की ज़रूरत नहीं। प्रभु अनेक भले व्यक्तियों को लायेंगे। ४. कोई भी स्त्री पढ़ने के कमरे में (या उपदेशवाले स्थान में) कक्षा के समय या उपदेश के समय में आ सकती है, परंतु नियत काल के पश्चात् उसे तुरंत वह स्थान त्याग देना चाहिए। ५. कभी क्रोध प्रकट न करो, ईर्ष्या को मन में आश्रय न दो, और चुपके-चुपके किसी की चुगली न करो। अपने दोषों को दूर करने की जगह दूसरों के दोष देखना, यह निर्दयता और कठोर हृदय की पराकाष्ठा है। ६. भोजन का नियत समय होना चाहिए। सबके लिए एक आसन और एक नीची चौकी होनी चाहिए, जिसमें वह आसन पर बैठ सके और चौकी पर थाली रख सके, जैसा कि राजपूताने में चलन है। कार्यकारिणी समिति सब पदाधिकारियों का चुनाव गुप्त रूप से होना चाहिए, यह भगवान बुद्ध का आदेश था, अर्थात् एक मनुष्य' यह प्रस्ताव करे कि अमुक साधु इस वर्ष का अध्यक्ष हो, और सबको काग़ज़ के टकड़ों पर 'हाँ' या 'नहीं' लिखकर उन्हें एक घड़े में डाल देना चाहिए। यदि अधिकांश 'हाँ' निकले, तो वह अध्यक्ष चुना जाना चाहिए, इत्यादि। यद्यपि पदाधिकारियों का चुनाव इस प्रकार होना चाहिए, तथापि मेरा यह प्रस्ताव है कि इस वर्ष राखाल अध्यक्ष, तुलसी (स्वामी निर्मलानंद) मत्री और कोषाध्यक्ष; गुप्त (स्वामी सदानंद) पुस्तकालयाध्यक्ष बनाए जाए, और शशि (स्वामी रामकृष्णानंद), काली (स्वामी अभेदानंद), हरि (स्वामी तुरीयानंद) और सारदा (स्वामी त्रिगुणातीतानंद) शिक्षा और प्रचार के काम का बारी बारी से भार उठायें, इत्यादि। निःसंदेह ही एक पत्रिका आरंभ करने का सारदा का विचार उत्तम है। परंतु मैं उसे स्वीकार तब करूँगा, जब तुम सब लोग मिलकर उसे चला सको। मतों आदि के बारे में मुझे यही कहना है कि यदि कोई श्री रामकृष्ण देव को अवतार आदि स्वीकार करे, तो अच्छा है, यदि न करे, तो भी ठीक ही है। परंतु सच बात तो यह है कि चरित्र के विषय में श्री रामकृष्ण देव सबसे आगे बढ़े हुए हैं। उनके पहले जो अवतारी महापुरुष हुए हैं, उनसे वे अधिक उदार, अधिक मौलिक और अधिक प्रगतिशील थे। अर्थात् प्राचीन आचार्य एकदेशीय थे, परंतु इस नये अवतार या आचार्य की शिक्षा यह है कि योग, भक्ति, ज्ञान और कर्म के सर्वोच्च भावों का सम्मिलन होना चाहिए, जिससे एक नये समाज का निर्माण हो सके।... प्राचीन आचार्य निःसंदेह अच्छे थे, परंतु यह इस युग का नया धर्म है— अर्थात् योग, ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय—आयु और लिंग-भेद के बिना, पतित से पतित तक में ज्ञान और भक्ति का प्रचार। पहले के अवतार ठीक थे, परंतु श्री रामकृष्ण के व्यक्तित्व में उनका समन्वय हो गया है। साधारण मनुष्य और नौसिखिये के लिए आदर्श में निष्ठा रखना विशेष महत्वपूर्ण है। अर्थात् उन्हें यह सिखाओ कि यद्यपि सब महापुरुषों का यथोचित्त आदर करना चाहिए, तथापि अब श्री रामकृष्ण की उपासना होनी चाहिए। दृढ़ निष्ठा के बिना पौरुष नहीं हो सकता। उसके बिना हनुमान जैसी शक्ति से कोई उपदेश नहीं कर सकता। फिर, पिछले महापुरुष अब कुछ प्राचीन हो चले हैं। अब नवीन भारत है, जिसमें नवीन ईश्वर, नवीन धर्म और नवीन वेद हैं। हे भगवन्, भूतकाल पर निरंतर ध्यान लगाये रखने की आदत से हमारा देश कब मुक्त होगा? अच्छा, अपने मत में थोड़ी कट्टरता भी आवश्यक है। परंतु दूसरों की ओर हमें विरोध-भाव नहीं रखता चाहिए। यदि तुम मेरे विचारों पर चलना विवेकयुक्त समझो, और यदि तम इन नियमों का पालन करो, तो मैं तुम्हें पर्याप्त धन देता रहूँगा। अन्यथा तुम लोगों का संग एकदम त्याग दूंगा। कृपया यह पत्र गौरी माँ, योगेन माँ आदि को दिखा देना और उनके द्वारा स्त्रियों का मठ स्थापित करवाना। एक वर्ष के लिए गौरी माँ को उसका अध्यक्ष बनने दो। परंतु तुममें से किसी को वहाँ नहीं जाना चाहिए। वे अपना कार्य स्वयं सँभालें। तुम्हारे आदेश पर उन्हें काम नहीं करना है। मैं उस काम के लिए भी आवश्यक धन दूंगा। भगवान तुम्हें उचित्त राह पर चलाये! दो व्यक्ति भगवान जगन्नाथ के दर्शन को गए। एक ने तो वहाँ जाकर भगवान को ही देखा, परंतु दूसरे ने देखा, वही गंदगी, जो उसके स्वयं के मन में व्याप्त थी !!! मेरे मित्रों, निःसंदेह ही गुरुदेव की सेवा अनेकों ने की, परंतु जब किसी के मन में अपने को असाधारण समझने का भाव जाग्रत हो, तब उसे यह समझना चाहिए कि यद्यपि उसने श्री रामकृष्ण का सत्संग किया है, तथापि सच बात तो यह है कि उसने अपने मन की वाहियात बातें ही देखीं। यदि ऐसा न होता, तो वह कुछ अच्छे परिणाम दिखाता। गुरुदेव स्वयं हमेंशा कहते थे, "वे भगवान के नाम में नाचते और गाते थे, परंतु अंत उनका दुःखदायी होता था।" इस अधोगति के मूल में अहंकार है-यह सोचना कि हम दूसरों के समान महापुरुष हैं। कोई कहेगा, "वे (गुरुदेव) मुझसे भी प्रेम करते थे। हाय, घसीटा राम, तब क्या तुम्हारा ऐसा रूपांतर होता? क्या ऐसा मनुष्य दूसरे से डाह करता या लड़ता हुआ अपने आपको गिरा देगा? यह याद रखो कि उनकी कृपा से बहुत से आदमी देवताओं की महिमा प्राप्त करेंगे-जहाँ कहीं उनकी कृपादृष्टि पड़ेगी, वहाँ यही परिणाम दिखायी देगा। आज्ञा-पालन पहला धर्म है। अब जो मैं तुमसे कहता हूँ, उसे उत्साहपूर्वक करो। मैं देखूं कि यह छोटे छोटे काम तुम कैसे करते हो। फिर धीरे-धीरे बड़े काम होंगे। तुम्हारा, नरेन्द्र पुनश्च—कृपया यह पत्र सबको पढ़कर सुनाओ और मुझे लिखो कि यह प्रस्ताव व्यवहार में लाना तुम उचित्त समझते हो या नहीं। कृपया राखाल से कहना कि जो सबका दास होता है, वही उनका सच्चा स्वामी होता है। जिसके प्रेम में ऊँच-नीच का विचार होता है, वह कभी नेता नहीं बन सकता। जिसके प्रेम का कोई अंत नहीं है, जो ऊँच-नीच सोचने के लिए कभी नहीं रुकता, उसके चरणों में सारा संसार लोट जाता है। नरेन्द्र (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) ६३, सेन्ट जार्जेस रोड, लंदन, ३० मई, १८९६ प्रिय श्रीमती बुल, ... परसों प्रोफ़ेसर मैक्समूलर से मेरी बड़ी अच्छी मुलाक़ात हुई। वे संत जैसे हैं और सत्तर वर्ष के होने के बावजूद युवक की तरह दिखते हैं और उनके चेहरे पर एक भी झुर्रा नहीं है। काश, उनके भारत और वेदांत के प्रति प्रेम का अर्धांश भी मुझे मिलता ! साथ ही वे योग में भी रुचि लेते हैं तथा उसमें विश्वास करते हैं। केवल वे बकवादियों को बिल्कुल नापसंद करते हैं। सर्वोपरि, रामकृष्ण परमहंस के प्रति उनकी श्रद्धा अगाध है, और उन्होंने 'नाइन्टीन्थ सेंचुरी' में उन पर एक लेख लिखा था। उन्होंने मुझसे पूछा, “आप संसार भर में उनके नाम-प्रचार के लिए क्या कर रहे हैं ?" रामकृष्ण ने वर्षों तक उन्हें मोहा है। क्या यह शुभ संवाद नहीं?. . धीरे किंतु स्थिरता से यहाँ कार्य चल रहा है। अगले रविवार से मैं अपने साधारण भाषण प्रारंभ करने जा रहा हूँ। सदा कृतज्ञ, सस्नेह आपका, विवेकानंद (कुमारी मेरी हेल को लिखित) प्री -६३, सेन्ट जार्जेस रोड, लंदन, दक्षिण-पश्चिम ३० मई, १८९६ प्रिय मेरी, अभी-अभी तुम्हारा पत्र मिला। तुममें निःसंदेह ईर्ष्या नहीं थी, किंतु जो था, वह ग़रीब भारत के प्रति अकस्मात् सहानुभूति थी। जो भी कुछ हो, डरने की आवश्यकता नहीं है। कुछ सप्ताह पूर्व मदर चर्च को मैंने एक पत्र लिखा था; आज तक उनसे एक पंक्ति भी जवाब में न मिला। मुझे डर है कि कहीं अपने दल के साथ संन्यास लेकर उन्होंने किसी कैथोलिक चर्च का आश्रय तो नहीं ले लिया है; घर पर चार-चार प्रौढ़ कुमारियों के रहते हुए माँ के लिए संन्यास लिए बिना और उपाय ही क्या है ? अध्यापक मैक्समूलर के साथ बहुत अच्छी तरह भेंट हुई। वे ऋषि जैसे हैं— वेदांत की भावनाओं से पूर्ण है। इस बारे में तुम्हारी क्या धारणा है ? बहुत दिनों से ही मेरे गुरुदेव के प्रति वे अत्यंत श्रद्धा रखते हैं। उन्होंने 'नाइंटींथ सेंचुरी' में आचार्यपाद के संबंध में एक लेख लिखा है और वह शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाला है। भारत संबंधी विविध विषयों में उनके साथ लंबी वार्ता हुई। हाय, हाय, भारत के प्रति उनके प्रेम का अर्द्धाश भी यदि मुझमें होता! यहाँ से एक दूसरी छोटी सी पत्रिका हम निकालना चाहते हैं। 'ब्रह्मावादिन्' का क्या समाचार है ? उसका प्रचार तो अधिकाधिक कर रही हो न? यदि चार उत्साही प्रौढ़ कुमारी मिलकर एक पत्रिका को भली भाँति चालू न कर सकीं, तो मेरी सारी आशाओं पर पानी फिर जाएगा। तुम्हें बीच बीच में मेरा पत्र मिलता रहेगा। मैं सुई तो हूँ नहीं कि जहाँ कहीं खो जाने का डर हो। अब यहाँ पर मैंने कक्षा चालू कर दी है। आगामी सप्ताह से प्रति रविवार भाषण देना प्रारंभ करूँगा। कक्षा बड़े पैमाने पर चल रही है। सारे मौसम के लिए जो मकान किराये पर लिया गया है, वहीं पर ही कक्षा की व्यवस्था की गयी है। कल रात मैंने खुद भोजन बनाया था। केशर, गुलाबजल, जावित्री, जाएफल, दालचीनी, लौंग, इलायची, मक्खन, नींबू का रस, प्याज, किशमिश, बादाम, काली मिर्च तथा चावल—ये सब मिलाकर एसी स्वादिष्ट खिचड़ी बनायी थी कि मैं स्वयं ही उसे गले से नीचे नहीं उतार सका। घर पर हींग नहीं थी, नहीं तो कुछ हींग मिला लेने पर कम से कम निगलने में सुविधा होती। कल एक आधुनिक फैशन के विवाह में सम्मिलित हुआ था। मेरे एक मित्र कुमारी मूलर नाम की एक धनी महिला ने एक हिंदू बालक को गोद लिया है एव मेरे कार्यों में सहायता प्रदान करने के लिए, मैं जिस मकान में रहता हूँ, उसी में एक कमरा किराये पर लिया है, वे ही हम लोगों को उस समारोह को दिखाने के लिए ले गयी थीं। उनकी ही एक भतीजी अथवा भांजी वधू होनेवाली थी और वर भी किसी न किसी का भतीजा अथवा भांजा अवश्य होगा। विवाह का समारोह देर तक जारी रहा, ख़तम होने का कोई नाम ही नहीं-मैं तो परेशान हो गया। तुम जो विवाह करना नहीं चाहती हो-मैं उसे पसंद करता हूँ। अच्छा, तो अब मैं विदा चाहता हूँ ! तुम सब मेरी प्रीति ग्रहण करना। अधिक लिखने का अवकाश नहीं है, अभी कुमारी मैक्लिऑड के घर पर मध्याह्न भोजन के लिए, चलना है। इति। तुम लोगों का चिर शुभाकांक्षी, विवेकानंद ६३, सेंट जार्जेस रोड, लंदन, मई, १८९६ प्रिय बहन, पुनः लंदन आ पहुँचा हूँ। इस समय इंग्लैंड की जलवायु अत्यंत सुंदर तथा ठंडी है। घर के अंदर 'अग्निकुंड' में अग्नि रखनी पड़ती है। तुमको यह मालूम होना चाहिए कि इस बार हमें रहने के लिए एक पूरा मकान मिला है। यद्यपि मकान छोटा है, फिर भी उसमें सब तरह की सुविधाएँ हैं। लंदन में मकान का किराया अमेरिका की तरह अधिक नहीं है, शायद तुम्हें यह मालूम होगा। तुम नहीं जानतीं कि मैं क्या सोच रहा था—तुम्हारी माता जी के बारे में मैं सोच रहा था। अभी अभी मैंने उनको एक पत्र लिखकर उसे, द्वारा मनरो एंड कंपनी, नं० ७ रयू स्क्रिब, पेरिस, इस पते पर रवाना किया है। यहाँ पर मेरे कुछ यूरोप के पुराने मित्र भी हैं। कुमारी मैक्लिऑड हाल ही में यूरोप का भ्रमण कर लंदन वापस आयी है। उसका स्वभाव स्वर्ण जैसा विशुद्ध है, उसके स्नेहमय हृदय में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। हम इस मकान में एक छोटे सीमित परिवार के रूप में हैं। हमारे साथ भारत से आये हुए एक संन्यासी भी है। 'बेचारा हिंदू' कहने का जो तात्पर्य है, वह इन्हें देखने से स्पष्ट हो जाता है। मानो सदा ही ध्यानस्थ हैं, अत्यंत नम्र तथा मधुर स्वभाव के हैं। मुझमें जैसा एक अदम्य साहस तथा घोर कर्मतत्परता विद्यमान है, उनमें उसका सर्वथा अभाव है। उस तरह से काम नहीं चल सकता। मैं उनमें कुछ कर्मशीलता लाना चाहता हूँ। अभी मेरी दो कक्षाएँ चल रही है। चार-पाँच महीने तक यही क्रम जारी रहेगा-—फिर भारत रवाना होना है; किंतु मेरा हृदय यांकियों में ही पड़ा हुआ है-—मैं यांकियों के देश को पसंद करता हूँ। मैं सब कुछ नवीन देखना चाहता हूँ। पुराने ध्वंसावशेष के चारों ओर आलसी की तरह चक्कर लगाना, अतीत इतिहासों को लेकर सारा जीवन हाय-हाय करना तथा प्राचीन काल के लोगों की बातों का चिंतन कर निराशा के दीर्घ श्वास छोड़ने के लिए मैं क़तई तैयार नहीं हूँ। मेरे खन में जो जोश है, उसके कारण ऐसा करना मेरे लिए संभव नहीं। समस्त भावनाओं को प्रकाश में लाने के लिए उपयुक्त स्थान, पात्र तथा सुयोग्य सुविधाएँ एकमात्र अमेरिका में ही है। और मैं भी आमूलचूल परिवर्तन का घोर पक्षपाती बन चुका हूँ। मैं शीघ्र ही भारत लौटना चाहता हूँ, मैं यह देखना चाहता हूँ कि परिवर्तन विरोधी 'जली' मछली की तरह शिथिल उस विराट पुञ्ज के लिए मुझसे कुछ हो सकता है या नहीं? मैं उन प्राचीन संस्कारों को दूर हटाकर नवीन रूप से प्रारंभ करना चाहता हूँ- एकदम संपूर्ण नवीन, सरल किंतु साथ ही साथ सबल सद्योजात शिशु की तरह नवीन तथा सतेज़। जो असीम, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ तथा सनातन है, वह व्यक्ति-विशेष नहीं है-तत्व मात्र है। तुम, हम तथा और सभी कोई उस तत्व के बाह्य प्रतिरूप मात्र है। इस अनंत तत्व का विकास जिन व्यक्तियों में जितना अधिक है, वे उतने ही अधिक महान है; अंत में सभी को उसकी पूर्ण प्रतिमूर्ति बननी पड़ेगी। इस प्रकार यद्यपि इस समय भी, सभी लोग स्वरूपतः एक ही हैं, वास्तव में सभी एक हो जायेंगे। इसके सिवाय धर्म और कुछ पृथक् वस्तु नहीं है। इस एकत्व का अनुभव अथवा प्रेम ही उसका साधन है। प्राचीन काल के निर्जीव अनुष्ठान एवं ईश्वर संबंधी विविध धारणाएँ पुरातन कुसंस्कार मात्र हैं। वर्तमान समय में उनको बनाए रखने के लिए संघर्ष की सार्थकता ही क्या है ? जीवन तथा सत्य की नदी जब अपने निकट ही प्रवाहित हो रही है, तब तृषातुर लोगों को नालियों का गंदा पानी पिलाने की आवश्यकता ही क्या है ? मानव-सुलभ स्वार्थपरता के सिवाय यह और कुछ नहीं है। प्राचीन संस्कारों का निरंतर समर्थन करता हुआ मैं हैरान हो चुका हूँ। जीवन क्षणस्थायी है और समय भी शीघ्र गति से अग्रसर हो रहा है। जिस स्थान तथा पात्र में भावनाएँ सरलता के साथ कार्य में परिणत हो सकती हों, प्रत्येक व्यक्ति को उसी स्थान तथा पात्र का निर्वाचन कर लेना चाहिए। काश ! यदि साहसी, उदार, महान तथा निष्कपट हृदय के बारह व्यक्ति भी प्राप्त होते ! मैं यहाँ पर अच्छी तरह से हूँ एवं अपने जीवन का भली भाँति उपभोग कर रहा हूँ। मेरी हार्दिक प्रीति ग्रहण करना। तुम्हारा, विवेकानंद (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) ६३, सेंट जार्जेस रोड, लंदन, दक्षिण-पश्चिम, ५ जून, १८९६ प्रिय श्रीमती बुल, 'राजयोग' पुस्तक की बहुत बिक्री हो रही है। सारदानंद शीघ्र ही अमेरिका जा रहा है।... मेरे पिता जी यद्यपि वकील थे, फिर भी मेरी यह इच्छा नहीं है कि कोई जिसे मैं प्यार करता हूँ, वकील बने। मेरे गुरुदेव इसके विरोधी थे एवं मेरा भी यह विश्वास है कि जिस परिवार के कुछ लोग वकील हों, उस परिवार में अवश्य हा कुछ न कुछ गड़बड़ी होगी। हमारा देश वकीलों से छा गया है—-प्रतिवर्ष विश्व विद्यालयों से सैकड़ों वकील निकल रहे हैं। हमारी जाति के लिए इस समय कर्मतत्परता तथा वैज्ञानिक प्रतिभा की आवश्यकता है। इसलिए मेरी इच्छा है कि 'म'-इलेक्ट्रिकल इंजीनियर बने। यदि कदाचित् सिद्धि-लाभ न भी हो, तो भी उसने बड़े बनने की तथा देशवासियों के यथार्थ उपकार करने की चेष्टा की इतना जानकर भी मुझ संतोष होगा।...अमेरिका के वायुमंडल में ही एक ऐसा गुण है कि वहाँ के प्रत्येक व्यक्ति के अंदर जो कुछ अच्छा अंश है, उसे विकसित कर देता है। ... मैं चाहता हूँ कि वह निडर तथा साहसी बने एवं अपने तथा अपनी जाति के लिए कोई नवीन मार्ग आविष्कार करने के लिए यथासाध्य प्रयत्न करे। इलेक्ट्रिकल इंजीनियर भारत में बिना विशेष प्रयास के अपना जीवन निर्वाह कर सकता है। सप्रेम आपका, विवेकानंद पुनश्च-गुडविन अमेरिका से एक मासिक पत्र प्रकाशित करने के संबंध में तुम्हें इस डाक से एक पत्र भेज रहा है। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कार्य को जारी रखने के लिए इस प्रकार का कोई आयोजन करना आवश्यक है। जिस रूप से वह कार्य करना चाहता है, मैं भी उसी रूप से उसमें सहायता प्रदान करने की यथासाध्य चेष्टा करूँगा।... मैं समझता हूँ कि वह संभवतः सारदानंद के साथ जाने को प्रस्तुत है। (भगिनी निवेदिता को लिखित) ६३, सेंट जार्जेस रोड, लंदन. ७ जून, १८९६ प्रिय कुमारी नोबल, मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह हैमनुष्य-जाति को उसके दिव्य स्वरूप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना। यह संसार अंधविश्वासों की बेड़ियों से जकड़ा हुआ है। जो अत्याचार से दबे हुए हैं, चाहे वे पुरुष हों या स्त्री, मैं उन पर दया करता हूँ, परंतु अत्याचारियों के लिए भी मेरे अंदर करुणा है। एक बात जो मैं सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट देखता हूँ, वह यह कि अज्ञान ही दुःख का कारण है और कुछ नहीं। जगत् को प्रकाश कौन देगा? बलिदान भूतकाल से नियम रहा है और हाय ! युगों तक इसे रहना है। संसार के वीरों को और सर्वश्रेष्ठों को 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' अपना बलिदान करना होगा। असीम दया और प्रेम से परिपूर्ण सैकड़ों बुद्धों की आवश्यकता है। संसार के धर्म प्राणहीन परिहास की वस्तु हो गए हैं। जगत् को जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह है चरित्र। संसार को ऐसे लोग चाहिए, जिनका जीवन स्वार्थहीन ज्वलंत प्रेम का उदाहरण है। वह प्रेम एक एक शब्द को वज्र के समान प्रभावशाली बना देगा। मेरी दृढ़ धारणा है कि तुममें अंधविश्वास नहीं है। तुममें वह शक्ति विद्यमान है, जो संसार को हिला सकती है, धीरे-धीरे और भी अन्य लोग आयेंगे। 'साहसी' शब्द और उससे अधिक 'साहसी' कर्मों की हमें आवश्यकता है। उठो! उठो ! संसार दुःख से जल रहा है। क्या तुम सो सकती हो ? हम बार बार पुकारें, जब तक सोते हुए देवता न जाग उठे, जब तक अंतर्यामी देव उस पुकार का उत्तर न दें। जीवन में और क्या है ? इससे महान कर्म क्या है ? चलते चलते मुझे भेदप्रभेद सहित सब बातें ज्ञात हो जाती हैं। मैं उपाय कभी नहीं सोचता। कार्यसंकल्प का अभ्युदय स्वतः होता है और वह निज बल से ही पुष्ट होता है। मैं केवल कहता हूँ, जागो, जागो ! अनंत काल के लिए तुम्हें मेरा आशीर्वाद। सस्नेह तुम्हारा, विवेकानंद (स्वामी रामकृष्णानंद को लिखित) ६३, सेंट जार्जेस रोड, लंदन, दक्षिण-पश्चिम, २४ जून, १८९६ प्रिय शशि, श्री रामकृष्ण देव के संबंध में मैक्समूलर का लेख आगामी माह में प्रकाशित होगा। वे उनकी एक जीवनी लिखने के लिए राजी हए हैं। श्री रामकृष्ण देव की समस्त वाणियों को वे चाहते हैं। उनकी सारी उक्तियों को क्रमबद्ध रूप से लिखकर भेजो—अर्थात् कर्म संबंधी उक्तियों को पृथक् रूप से तथा वैराग्य, ज्ञान, भक्ति आदि का संकलन पृथक् पृथक हो। तुम्हें इस कार्य को अभी प्रारंभ करना होगा। जो बातें अंग्रेज़ी में अप्रचलित हों, केवल उनको लिखने की आवश्यकता नहीं है। बुद्धिपूर्वक उन स्थलों में यथासंभव अन्य वाक्यों का प्रयोग करना। कामिनी-कांचन' के स्थल पर 'काम-कांचन' लिखना-Just and gold-अर्थात् उनके उपदेशों में सार्वजनिक भावनाएँ प्रकट होनी चाहिए। यह पत्र और किसी को दिखाने की आवश्यकता नहीं है। तुम उक्त कार्य का संपादन कर, उनकी सारी उक्तियों का अंग्रेज़ी में अनुवाद तथा वर्गीकरण कर 'प्रोफ़सर मैक्समूलर, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी, इंग्लैंड'— इस पते पर भेज देना। शरत् कल अमेरिका रवाना हो रहा है। यहाँ का कार्य परिपक्व होता जा रहा है। लंदन में एक केंद्र स्थापित करने के लिए आर्थिक व्यवस्था पहले से ही हो चुकी है। मैं आगामी माह में स्विट्ज़रलैंड जाकर एक-दो माह वहाँ रहना चाहता हूँ। अनंतर पुनः लंदन वापस आने का विचार है। मुझे अपने देश लौटने से क्या लाभ है ? यह लंदन दुनिया भर का केंद्र है। भारत का heart (हृदय) यहीं है। यहाँ पर अपना केंद्र पक्का किय बिना क्या मेरे लिए जाना उचित्त है ? क्या तुम लोग पागल हो ? शीघ्र ही मैं काली को बुलाना चाहता हूँ, उसे तैयार रहने को कहना। पत्र के देखते ही जिससे वह रवाना हो सके। दोचार दिन के अंदर ही मैं उसके आने के लिए मार्ग-व्यय भेज रहा हूँ तथा वस्त्र जो भी कुछ आवश्यक हों, वह भी लिख दूंगा। उसी के अनुसार सारी व्यवस्थाएँ होनी चाहिए। परमाराध्या श्री माता जी आदि सबसे मेरे असंख्य प्रणाम निवेदन करना। तारक दादा मद्रास जा रहे है—बहुत ठीक है। महान तेज़, महान बल तथा महान उत्साह की आवश्यकता है। अबलापन से क्या यह कार्य हो सकता है ? पहले पत्र में मैंने जो कुछ लिखा था, ठीक, उसी प्रकार से चलने की चेष्टा करना। संगठन चाहिए। Organisation is power and the secret of that is obedience— (संगठन से ही शक्ति आती है एवं आज्ञा-पालन ही उसका मूल रहस्य है।) किमधिकमिति। तुम्हारा, नरेन्द्र

सांसारिक भोग में लीन होने से क्या उत्पन्न होता है क ईष्या ख अहंकार ग स्वार्थ घ दुःख? - saansaarik bhog mein leen hone se kya utpann hota hai ka eeshya kh ahankaar ga svaarth gh duhkh?
  
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सांसारिक भोग में लीन होने से क्या उत्पन्न होता है क ईष्या ख अहंकार ग स्वार्थ घ दुःख? - saansaarik bhog mein leen hone se kya utpann hota hai ka eeshya kh ahankaar ga svaarth gh duhkh?

सांसारिक भोग में लीन होने से क्या उत्पन्न होता है क ईष्या?

सांसारिक भोग में लीन होने से क्या उत्पन्न होता है? () ईर्ष्या

कवयित्री हिंदू और मुसलमान दोनों को किसकी आराधना करने के लिए प्रेरित करती हैं * 1 Point?

कवयित्री के अनुसार प्राणी अपनी ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों को उनके गुण-कर्म में प्रवृत करने पर किसे नहीं पाएगा?

कवयित्री ललद्यद क्या अपनाने को कहती है?

कवयित्री कैसा जीवन अपनाने को कहती है? (क) भोग और आनंद का (ख) सुख और समृद्धि का (ग) वैरागी का (घ) त्याग और तपस्या का 5. भवसागर से पार कराने वाला नाविक कौन है? (क) माझी (ख) ज्ञानी (ग) ईश्वर (घ) इनमें से कोई नहीं 6.

भवसागर से पार कराने वाला नाविक कौन है 1 Point क माझी ख ज्ञानी ग ईश्वर घ इनमें से कोई नहीं?

ईश्वर कवयित्री ललद्यद के अनुसार भवसागर को पार कराने वाला नाविक ईश्वर है। कवयित्री ललद्यद जीवन को नाव कहती हैं, जिसे इस जीवन रूपी नाव को संसार रूपी भवसागर से पार लगाना ही के लिए ईश्वर की भक्ति का सहारा लेना पड़ता है।