समाजशास्त्र मे सबसे पहली बार हर्बर्ट स्पेंसर ने सामाजिक संरचना शब्द का प्रयोग अपनी पुस्तक "प्रिंसिपल ऑप सोशियोलाॅजी" मे सन् 1885 मे किया था। Show सामाजिक संरचना का अर्थ (samajik sanrachna kise khate hai )जिस प्रकार से हमारे शरीर की संरचना होती हैं जो की हमारे शरीर के अंगो जैसे की हाथ,पैर, पेट,नाक-कान, आदि से मिलकर बनती है। उसी प्रकार से सामाजिक संरचना का अभिप्राय समाज की इकाइयों की क्रमबद्धता से होता हैं। सामाजिक इकायां जैसे
की समूह, समितियां, संस्थाएं, परिवार, सामाजिक प्रतिमान आदि की क्रमबद्धता को सामाजिक संरचना कहा जाता हैं। सामाजिक संरचना की परिभाषा (samajik sanrachna ki paribhasha)टालकाट पारसन्स के अनुसार," सामाजिक संरचना परस्पर संबंधित संस्थाओं, एजेंसियों और सामाजिक प्रतिमानों तथा समूह मे प्रत्येक सदस्य द्वारा ग्रहण किये गये पदों एवं कार्यों की विशिष्ट क्रमबद्धता को कहते हैं।" कोजर के शब्दों में," सामाजिक संरचना का आशय विभिन्न सामाजिक इकाइयों के तुलनात्मक रूप से स्थिर और प्रतिमानित संबंधों से हैं।" मैडेल के अनुसार," सामाजिक संरचना अनेक अंगों की एक क्रमबद्धता की ओर संकेत करती हैं।यह संरचना तुलनात्मक रूप से स्थिर होती हैं, लेकिन इसका निर्माण करने वाले अंग स्वयं परिवर्तनशील होते हैं। रेडक्लफ ब्राउन के अनुसार," सामाजिक संरचना के अंग मनुष्य ही है और स्वयं संरचना संस्था द्वारा परिभाषित और नियमित संबंधों मे लगे हुये व्यक्तियों की क्रमबद्धता हैं।" सामाजिक संरचना की उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता हैं कि सामाजिक संरचना अनेक सामाजिक समूहों, समितियों, संस्थाओं तथा व्यक्तियों की प्रस्थिति और भूमिका को प्रभावित करने वाले नियमों तथा मूल्यों की एक क्रमबद्धता हैं। यह सच है कि जरूरत के अनुसार सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाले अंगों की प्रकृति में परिवर्तन भी होता रहता हैं, किन्तु इससे सामाजिक संरचना में साधारतया कोई परिवर्तन नहीं होता। यह स्थिति वैसी ही हैं, जिस प्रकार रोग अथवा स्वास्थ्य की दशा में शरीर का कोई अंग पहले की तुलना में कुछ बदल जाने के बाद भी स्वयं शरीर की संरचना में कोई परिवर्तन नहीं होता। सामाजिक संरचना की विशेषताएं (samajik sanrachna ki visheshta)सामाजिक संरचना की विशेषताएं निम्नलिखित है-- 1. सामाजिक संरचना अमूर्त होती हैं अमूर्त का अर्थात है कि जो जो मूर्त या साकार न हो, निराकार, देहरहित, निरवयव, अप्रत्यक्ष। सामाजिक संबंधों का आधार सामाजिक संस्थाएं, सामाजिक प्रतिमान तय करते हैं जो कि अमूर्त होते हैं। सामाजिक संरचना के स्तरजॉनसन ने सामाजिक संरचना के दो स्तरों प्रकार्यात्मक उप-प्रणाली तथा संरचनात्मक उप-प्रणाली का उल्लेख किया है-- 1. प्रकार्यात्मक उप-प्रणालियाँ (Functional Sub-systems) प्रत्येक समाज को अपने अस्तित्व के लिए समस्याओं का निवारण या आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होती है। वे हैं- प्रतिमानों को बनाए रखना एवं तनावों को दूर करना (Pattern Maintenance and Tension Management), अनुकूलन (Adaptation) उद्देश्य प्राप्ति (Goal Attainment) एकीकरण ( Integration )। ऐसा न होने पर वह समाज अपना अस्तित्व एवं विशिष्ट स्वरूप खो देता हैं। इनमें से प्रत्येक समस्या के लिए एक प्रकार्यात्मक उप प्रणाली होगी। उदाहरण के लिए, अर्थव्यवस्था वह प्रकार्यात्मक उप-प्रणाली है जो समाज के अनुकूलन से सम्बन्धित है। अर्थव्यवस्था वस्तुओं एवं सेवाओं को उत्पन्न करती है और समूह एवं समितियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। परिवार रूपी प्रकार्यात्मक उप-प्रणाली समाज में समाजीकरण के द्वारा दिन-प्रतिदिन के तनावों को दूर करने एवं सामाजिक प्रतिमानों को बनाए रखने का कार्य करती है। शिक्षण संस्थाएँ धार्मिक समूह, मनोरंजन के समूह, अस्पताल और अन्य स्वास्थ्य संगठन भी समाज में तनावों को दूर करने एवं प्रतिमानों को बनाए रखने में योग देते हैं। उद्देश्यों की पूर्ति में सरकार रूपी उप-प्रणाली महत्त्वपूर्ण है। सरकार शक्ति के द्वारा समाज के उद्देश्यों की पूर्ति करती है। प्रजातन्त्र में दबाव समूह जनमत तैयार करते हैं और संसद के लिए बिलों का मसौदा बनाते हैं और वे भी समाज के उद्देश्यों की पूर्ति में योग देते हैं इस प्रकार राज्य व्यवस्था (Polity) उद्देश्य प्राप्ति की महत्त्वपूर्ण उप प्रणाली है। इन सभी में एकीकरण एवं समन्वय स्थापित करने में वकालत का व्यवसाय, धार्मिक नेता, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, आदि महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सैद्धान्तिक दृष्टि से समाज की प्रत्येक उप-प्रणाली को एक स्वतंत्र सामाजिक प्रणाली के रूप में देखा जा सकता है। इनमें से प्रत्येक उप-प्रणाली के लिए अन्य उप-प्रणालियों को पर्यावरण के रूप में देखा जा सकता है और सभी उप-प्रणालियों का एक-दूसरे के साथ व्यवस्थित रूप से विनिमय होता रहता है। 2. संरचनात्मक उप-प्रणालियाँ (Structural Sub-systems) समाज की प्रकार्यात्मक उप-प्रणालियाँ अमूर्त होती हैं, जबकि संरचनात्मक उप-प्रणालियाँ मूर्त समूहों से बनी हुई होती है; जैसे नातेदारी- तंत्र, पिरवारों, गोत्रों और वंश- समूहों से बना होता है। इसके अतिरिक्त, चर्च, शिक्षा प्रणाली आदि में संरचनात्मक उप-प्रणालियाँ हैं। संरचनात्मक उप-प्रणालियाँ मूर्त एवं वास्तविक होती हैं। शायद यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी |