Show सामाजिक परिवर्तनदुनिया का शायद ही ऐसा कोई समाज हो जिससे समाज में सामाजिक परिवर्तन या बदलाव ना होता हो । हो सकता है कि परिवर्तन की दर भिन्न-भिन्न समाजों में भिन्न-भिन्न हो,यही कारण है कि हम आज जिस समाज के अंग है,वह निश्चित रूप से पहले वर्तमान स्वरूप में नहीं रहा होगा। खासतौर (स्पेशली) से यदि मैं 21 वीं सदी की बात करता हूँ तो इस सदी में ऐसे तीव्र (तेज) परिवर्तन हुए हैं, जो पहले कभी देखे ही नहीं गए हैं ।और परिवर्तन (कन्टीन्यू) निरन्तर होते चले जा रहे हैं, जिनका विधिवत विश्लेषण करना भी शायद अब संभव नहीं हो पाएगा। आपको यह भी पढ़ने चाहिए
सामाजिक परिवर्तन क्या है?यह एक सार्वभौमिक का प्रक्रिया है, जो सभी समाजों में किसी न किसी रूप मेंअवश्य पाई जाती है। इस सम्बन्ध में प्रोफेसर ग्रीन एवं योगेंद्र सिंह ने अपने पक्ष इस तरह से रखे हैं। प्रोफेसर ग्रीन ने कहा है कि “सभी समाजों में एक संतुलन स्थापित करने के लिए अधिकांश सदस्यों के द्वारा परिवर्तन को अपनाया जाता है, इसके पीछे प्रमुख वजह यह है की, सभी समाजों में किसी न किसी स्तर पर असंतुलन (डिस्बैलेंस) विद्यमान अवश्य ही रहता है । जिसको दुरस्त करने के लिए एक नवीन व्यवस्था को स्थापित करने का प्रयास किया जाता है, जिसके कारण कुछ लोग इसके पक्ष में खड़े हो जाते हैं। तो कुछ लोग विपक्ष में, और दोनों ही प्रतिस्तिथियां सामाजिक परिवर्तन को प्रोन्नत करती है। योगेंद्र सिंहअपनी पुस्तक मॉर्डनाइजेशन ऑफ इंडियन ट्रेडीशन में लिखा है कि, इस दौर में स्थिर समाज के कल्पना करना बहुत मुश्किल है। इसलिए वर्तमान में विद्वान इस परिवर्तन को लेकर अक्सर चिंतित रहते हैं। क्योंकि सामाजिक परिवर्तन का विश्लेषण करना सच में एक जटिल (कठिन) कार्य बन गया है। हालांकि यह भी सच है कि सभी समाजों में सामाजिक परिवर्तन की दर अलग-अलग रही है। आज के समाज में पुरानी बातें या तो छूट गई है, या परिवर्तन के आगोश में बदल गई है। इसलिए कह सकते हैं कि सामाजिक परिवर्तन का होना स्वाभाविक हो गया है। सामाजिक परिवर्तन का अर्थदेखा जाए तो सामाजिक परिवर्तन किसी समय विशेष में समाज में होने वाले बदलाव को इंगित करता है। अथवा समाज में होने वाले रूपांतरण को सामाजिक परिवर्तन कहा जा सकता है। जिस पर कई समाजशास्त्रियों ने खुद अपने विचारों को आदान-प्रदान किया था। हालांकि पूर्व में सामाजिक परिवर्तन एवम प्रगति और उद्धविकास को एक ही अर्थ में उपयोग लाया जाता रहा है। सामाजिक परिवर्तन इतिहास के पन्नों मेंऐतिहासिक दृष्टि से दृष्टिपात करें तो सामाजिक परिवर्तन का विधिवत अध्ययन 19वीं शदी से किया जाने लगा था। समाजशास्त्र के जनक (पिता) अगस्त काम्टे ने भी इस पर अपना इंटरेस्ट दिखाया था,तो वही 1872 में एशियंट सोसाइटी नामक पुस्तक के द्वारा l.h. मार्गन ने भी माना है कि कोई भी समाज अपने प्रारम्भिक चरण में सरल समाज (सोसायटी) का ही उदाहरण होता है। बाद में वह धीरे-धीरे जटिल व्यवस्था की ओर अग्रसर होता है। जबकि आगमन एवं निम्काफ ने सन 1922 में अपने द्वारा लिखित पुस्तक सोशल चेंज में संभवतहः प्रगति उदविकास एवं सामाजिक परिवर्तन में अंतर को क्लियर किया था। कालांतर में सामाजिक परिवर्तन से सम्बन्धित कई सिद्धांतों को स्थापित (प्रतिपादित) किया गया, जिनमें से ऐतिहासिक भौतिकवाद और उद्धविकासीय सिद्धांत सबसे अधिक प्रसिद्ध (लोकप्रिय) हुए हैं । सामाजिक परिवर्तन की परिभाषायह सच है कि समाजशास्त्रियों के बीच यह शब्द हमेशा से वाद विवाद का मुद्दा रहा है। कुछ समाजशास्त्रियों ने सामाजिक सम्बन्धों में हो रहे बदलाव को सामाजिक परिवर्तन के रूप में समझा। तो अन्य समाजशास्त्रियों ने सामाजिक (संरचना) ढांचे में होने वाले बदलाव (परिवर्तन) को सामाजिक परिवर्तन की संज्ञा दी। इस सम्बन्ध में कई विद्वानों (समाजशस्त्रियों) ने सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा दी है, जो इस प्रकार से है। मेकैवर तथा पेज इन्होंने “सामाजिक सम्बन्धों (रिलेशन) में होने वाले (परिवर्तन) बदलाव को ही सामाजिक परिवर्तन कहा है।” किंग्सले डेविस इन्होंने “सामाजिक संगठन एवं ढांचे में होने वाले बदलाव के स्वरूपों को सामाजिक परिवर्तन कहा है।” जेनसन इन्होंने “सामाजिक सदस्यों के कार्यों तथा विचारों के स्वरूपों (तरीकों) में रूपांतरण को सामाजिक परिवर्तन कहा है।” जॉन्स इन्होंने “सामाजिक परिवर्तन के संदर्भ में ऐसे शब्द को इंगित किया है, जो सामाजिक अंतः क्रियाओं, संगठनों और प्रक्रियाओं, प्रतिमानों में रुपांतरण को प्रदर्शित करता है।” जॉनसन इन्होंने “सामाजिक (संगठन) सरंचना में होने वाले बदलाव ही सामाजिक (बदलाव) परिवर्तन माना है।” उपर्युक्त परीभाषाओं को मध्य नजर रखते हुए कहा जा सकता है कि सामाजिक सम्बन्धों में बदलाव को ही सामाजिक परिवर्तन कहा जा सकता है, जिसमें सम्बन्धों,सामाजिक समस्याओं, प्रकार्यों, मूल्यों, परिस्थितियों एवं प्रथाओं और व्यवहारों में होने वाले रूपांतरण को सम्मिलित किया जाता है। सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति की विशेषता1 सामाजिक परिवर्तन की भविष्यवाणी करना संभव नहींकिसी भी समाज में परिवर्तन कितना होगा यह कहना मुश्किल होता है, हालांकि अनुमान लगाया जा सकता है। इसे एक उदाहरण के द्वारा भी समझा जा सकता है, दलितों पर होने वाले अत्याचारों में आधुनिक शिक्षा के कारण कमी आएगी, कितनी आएगी यह कहना मुश्किल है। इसी प्रकार औद्योगिकरण के पश्चात नगरीकरण में वृद्धि होगी, लेकिन यह वृद्वि कितनी होगी यह कहना नामुमकिन (असम्भव) है। अतः सामाजिक परिवर्तन अथवा बदलाव की कोई निश्चित भविष्यवाणी करना संभव नहीं होता है। 2 सामाजिक परिवर्तन अनिवार्य नियम के तहतपुरानी कहावत है बदलाव (परिवर्तन) ही प्रकृति का नियम है। इसी प्रकार के अनिवार्य नियम के द्वारा सामाजिक (बदलाव) परिवर्तन को भी जोड़ा जा सकता है।जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक परिवर्तन घटित हो जाते हैं। यह परिवर्तन चाहे मानव जनित हो या प्रकृति जनित, क्योंकि प्रत्येक मानव परिवर्तन की जिज्ञासा रखता है, जिसके कारण व्यक्तिगत आवश्यकताएं भी बदलती रहती है। जिन को पूरा करने के लिए समाज में परिवर्तन जरूरी हो जाता है अतः सामाजिक परिवर्तन अनिवार्य नियम है। 3 सामाजिक परिवर्तन की गति (विषम) असमान अथवा अपेक्षकृत तुलनात्मक हैपरिवर्तन सभी समाजों में तथा उसके किसी पक्षों में एक समान नहीं होता। क्योंकि परिवर्तन लाने वाले कारक भी सभी समाजों में एक रुप में क्रियाशील नहीं रहते है । जबकि परिवर्तन प्रत्येक समाज में अवश्य होता है, दूसरी तरफ परिवर्तन की गति क्या है, इसका अनुमान विभिन्न समाजों में तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात ही लगाया जा सकता है। इसी आधार पर हम विभिन्न राष्ट्रों के गांव एवं राष्ट्र विशेष के गांव के बारे में भी बता सकते हैं कि कहां पर तुलनात्मक रूप से परिवर्तन अधिक हो रहा है और कहां पर कम। अतः कह सकते हैं कि सामाजिक परिवर्तन की गति भिन्न तथा तुलनात्मक है। 4 समाजिक परिवर्तन की गति व प्रकृति समय कारक से प्रभावित व सम्बन्धित होती हैइससे अभिप्राय है कि सभी समाजों पर परिवर्तन एक (एकरूपता) समान गति से नहीं होता है, वह विभिन्न काल खंडों में भिन्न-भिन्न (अलग-अलग) होता है। जैसे आधुनिक युग में मध्य युग (काल) की तुलना में अधिक तेजी से परिवर्तन हुए, इसके पीछे मुख्य वजह यह है कि समाज में (बदलाव) परिवर्तन की बयार लाने वाले कारक भी एक जैसे नहीं पाए जाते हैं। अतः कह सकते हैं कि सामाजिक परिवर्तन की गति और प्रकृति समय कारक से प्रभावित व सम्बन्धित होती है। 5 सामाजिक परिवर्तन एक सामुदायिक घटना हैपरिवर्तन का मतलब किसी व्यक्ति विशेष के जीवन में होने वाले परिवर्तन से नहीं होता है, बल्कि एक ऐसा बदलाव से है जो पूरे समुदाय के जीवन में घटित होता हो, उसी को ही सामाजिक बदलाव कहा जाता है। अतः सामाजिक परिवर्तन एक सामुदायिक घटना है, यह कहना कतई भी अतिशियोक्तिपूर्ण नहीं होगा। 6 सामाजिक (बदलाव) परिवर्तन एक सार्वभौमिक घटना हैपरिवर्तन संसार का नियम है, इसीलिए संसार के हर समाज में परिवर्तन होता है। ऐसा कोई भी राष्ट्र नहीं है, जहां पर स्थिर समाज मिल सकें, भले ही सामाजिक परिवर्तन की गति अलग-अलग हो अतः कहा जा सकता है कि सामाजिक परिवर्तन एक सार्वभौमिक घटना है। सामाजिक परिवर्तन के प्रतिमानमैंने बताया था कि समाजों में परिवर्तन एक जैसा नहीं होता है। सामाजिक परिवर्तन का विश्लेषण करने पर निम्न प्रतिमानों की व्याख्या की जा सकती है। पहला प्रतिमानइस प्रतिमान के प्रतिपादकों में हेंडरी मैन, स्पेंसर, कामटे और मॉर्गन आदि रहे हैं। इन्होंने रेखीय सिद्धांत को माना और कहा कि सामाजिक परिवर्तन एक प्रकार से क्रमिक प्रक्रिया होती है। जिसमें विकास सदैव एक सीध में ही आगे की तरफ होता है, और परिवर्तन की दिशा हमेशा ऊपर की ओर ही होती है। इनका मानना था कि विकास हमेशा आगे को ही होता है,जैसे साइकिल के बाद कार का अविष्कार हुआ, और बाद में रेल एवं वायुयान का। इस प्रतिमान में परिवर्तन एक रेखीय होता है जिसे हम रेखा के माध्यम से भी दर्शा सकते हैं। तथा यह परिवर्तन विकास के अनेकों सोपानों से होकर गुजरता है। इससे स्पष्ट होता है कि सरल (आदि) समाजों में परिवर्तन धीरे-धीरे होता है । जबकि जटिल एवं आधुनिक समाजों में परिवर्तन की गति अपेक्षाकृत अधिक होती है। परन्तु यह भी सच है कि दोनों ही समाजों में परिवर्तन एक दिशा की में आगे की तरफ होता है। दूसरा प्रतिमानइस प्रतिमान में परिवर्तन की प्रक्रिया रेखीय नहीं होती है अथवा परिवर्तन लगातार एक ही ओर अग्रसर नहीं होता है। बल्कि जिग-जैग होता है। कभी-कभी परिवर्तन प्रगति की ओर बढ़ने के पश्चात पुनः विपरीत दिशा में मुड़ जाता है। क्योंकि इस प्रतिमान में परिवर्तन ऊपर नीचे होता रहता है,इसीलिए इस प्रतिमान को “उतार-चढ़ाव” के नाम से भी जाना जाता है । जैसे कि भारत में जनसंख्या वृद्धि में भी देखा गया है पहले तो जनसंख्या में उछाल देखा गया, परन्तु बाद में सरकार के द्वारा एहतियाद के तौर पर उठाए गए कदमों के कारण जनसंख्या वृद्धि विपरीत दिशा में अग्रसर होने लगी फिर कुछ वर्षों के पश्चात जनसंख्या वृद्धि मै सकारात्मक उछाल देखा जाने लगा। इसी प्रकार संस्कृति में भी देखा गया संस्कृति पहले (स्प्रिचैलिस्म) अध्यात्मवाद की ओर अग्रसर हुई,परन्तु उसके पश्चात संस्कृति में ह्रास होने लगा और वर्तमान में (स्प्रिचैलिस्म) अध्यात्मवाद से भौतिक संस्कृति की ओर अग्रसर होने लगी। इस प्रतिमान में यह (क्लियर) स्पष्ट नहीं हो पाता है कि बदलाव (परिवर्तन) हो रहा है या नहीं। इससे यह तो (क्लियर) साफ हो जाता है कि किसी भी समाज में उतार-चढ़ाव आता रहता है। परन्तु उतार-चढ़ाव की गति भिन्न-भिन्न होती है। सरल समाजों में इतना उतार-चढ़ाव नहीं था जितना कि आज के युग में है। इस प्रकार से परिवर्तन के इस सिद्धांत से यह साफ नहीं रहता है कि परिवर्तन किस ओर होने वाला है। तीसरा प्रतिमानइस प्रतिमान को तरंगी या परिवर्तन अथवा “वेब लिंक चेंज” भी कहा जाता है। ईस परिवर्तन में सागर की लहरों की तरह एक के बाद दूसरी व तीसरी परिवर्तन की लहर आती रहती है। यह दूसरे प्रतिमान से इतना ही भिन्न है कि पहली लहर के बाद आने वाली दूसरी लहर क्या पहली लहर के विपरीत होगी या प्रगति का सूचक बनेगी है। ये ही कन्फूज़न बना रहता है जबकि दूसरी प्रतिमान में ऐसा नहीं होता है। जैसे फैशन की दुनिया में हर दिन कुछ ना कुछ बदलाव होता रहता है। यह पता नहीं चलता कि फैशन की दुनिया में ह्रास हो रहा है या प्रगति? जबकि दूसरे प्रतिमान में उतार-चढ़ाव की एक सीमा के पश्चात दूसरी ओर यानी कि विपरीत दिशा की ओर मुड़ जाना ही होता है। इस तरह सामाजिक परिवर्तन के उपर्युक्त यह तीन प्रकार के प्रतिमान होते हैं यथा रेखीय प्रतिमान, तिरंगीय परिवर्तन (बदलाव) और उतार-चढ़ाव प्रतिमान। आपको यह भी पढ़ने चाहिए
सामाजिक परिवर्तन के सामाजिक सिद्धांत या कारकभारत एक ऐसा राष्ट्र है जहां पर धर्मों का महत्व अपेक्षाकृत अधिक है। जिसके कारण सामाजिक जीवन में भी बदलाव की बयार उत्पन्न हुई है । शिक्षा, प्रौद्योगिकीकरण (टेक्नोलॉजिकल), संवैधानिक (प्रोविशन) प्रावधान एवं धार्मिक व सामाजिक आंदोलन आदि ऐसे कारक थे,जिन्होंने धार्मिक (फाण्टिसिस्म) कट्टरता में परिवर्तन लाया। जिसके फल स्वरुप सामाजिक जीवन में भी परिवर्तन हुआ जो कि इस तरह से है। दलितों को स्तिथि मैं परिवर्तनयद्यपि दलितों की स्थिति में थोड़ा बहुत बदलाव जरूर आया है,जिसके परिणाम स्वरूप दलित समुदाय को सामाजिक मुख्यधारा में लाया जाने लगा है। तथापी इतना ही नाकाफी होगा,संवैधानिक रूप से अनेक प्रावधानों को अमल में लाया जाने लगा है। हालांकि कुछ धार्मिक नेताओं यथा राजा राममोहन राय, विवेकानंद,दयानंद सरस्वती जैसे व्यक्तित्व थे,जिन्होंने अपने समय में दलित समुदाय के लिए सराहनीय भूमिका का निर्वहन किया, जिसके कारण दलित समुदाय को कुछ हद तक धार्मिक अधिकार प्राप्त हो पाए थे । महिलाओं की स्थिति में परिवर्तनमध्य काल में स्त्रियों की दशा काफी दयनीय थी,उस समय सती प्रथा, बाल विवाह,पर्दा प्रथा आदि सामाजिक कुरीतियां विद्यमान थी। और सारी कुरीतियां कहीं न कहीं धर्म से सम्बन्धित रहती थी, उस समय रामकृष्ण मिशन एवं आर्य समाज एवं इनके प्रवर्तक यथा राजा राममोहन राय एवं स्वामी रामकृष्ण परमहंस, दयानंद सरस्वती, ईश्वर चंद्र विद्यासागर आदि ने महिलाओं के सम्बन्ध में इन चली आ रही प्रथाओं को समाप्त करवाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। परिणाम स्वरूप महिलाओं की उनकी स्थिति में थोड़ा बहुत सुधार संभव हो पाया था। शिक्षा में परिवर्तनधार्मिक एवं सामाजिक आंदोलनों के परिणाम स्वरुप शिक्षा के क्षेत्र में भी कई आमूलचूल बदलाव दृष्टिगोचर हुए थे। खासतौर से रामकृष्ण मिशन तथा आर्य समाज जैसी संस्थाओं का नाम उल्लेखनीय है, जिन्होंने शिक्षा के लिए स्कूल एवं कालेजों की स्थापना की जहां से तालीम की एक नई ज्योति का शुभारंभ हुआ।इसके साथ ही इन संस्थाओं के द्वारा कई स्तरों पर स्त्रियों की शिक्षा के लिए भी कार्य किए गए जो धीरे-धीरे स्त्रियों की दशा में बदलाव हेतु एक मुख्य हथियार साबित हुआ निशिचित रूप से यह एक उम्दा प्रयत्न था। सामाजिक कुरीतियां में बदलावदेखा जाए तो सामाजिक एवं धार्मिक आंदोलनों ने सामाजिक विषमताओं को कम करने का प्रयास किया है। जैसे आर्य समाज द्वारा जातिभेद, कम उम्र में विवाह, दहेज, विधवा विवाह आदि पर रोक लगाने का समर्थन किया । तथा इन सब विषमताओं से समाज को जागृत करने के लिए सदैव तत्पर रहें, इसी प्रकार स्वामी विवेकानंद जी ने भी जातिभेद, अस्पर्शयता को समाप्त करने पर जोर दिया था। साथ ही उस समय व्याप्त सामाजिक कुरीतियों यथा सती प्रथा एवं बाल विवाह के खिलाफ भी उन्होंने आवाज मुखर की, यही कारण था की उस समय की सामाजिक दशाओं में काफी बदलाव नजर आए। परिणाम स्वरुप उनकी भयावहता घट गई इसके अलावा उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं में कई दुखी व्यक्तियों को पराश्रय प्राप्त होता रहा है। धर्म द्वारा खुद में बदलावधर्म के प्रति कट्टरता कर्म और कांडों का कठोर होना, मूर्तियों की पूजा करना, धर्म की प्रमुख विशेषताओं में से एक रही है। सामाजिक एवं धार्मिक आंदोलनों ने धर्म की इन्हीं विशेषताओं में बदलाव करने का प्रयत्न किया। जिसके कारण धर्म की उपरोक्त विशेषताओं में कई (परिवर्तन) बदलाव आज भी दृष्टिगोचर होने लगे हैं। जैसे आर्य समाज के अनुयाई मूर्ति की पूजा नहीं करते हैं,तथा सभी धर्मों को एक समान मानना यह सबसे बड़ा परिवर्तन था, इसी के कारण मानव धर्म के विकास में मदद मिली है। प्रौद्योगिकी में बदलावआधुनिक युग जिसे प्रौद्योगिकी का युग भी कहा जाता है, मैं मानव ने अनेकों मशीनों एवं पुर्जों का आविष्कार किया है। जिसके परिणाम स्वरुप वह खुद एक मशीन बन कर रह गया है, मानव ने अपनी भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए जिन तकनीकी को उपयोग में लाया। उसे ही बाहरी प्रौद्योगिकी कहा जाता है । वैज्ञानिक खोजों ने यंत्रीकरण को प्रोत्साहित किया है जिससे उत्पादन की जो प्रक्रिया थी उसमें भी बदलाव आया है,फलस्वरूप सामाजिक संगठनों, सम्बन्धों और सरंचनाओं, भूमिकाओं और परिस्थितियों में भी परिवर्तन आया है। जिससे मानवीय जीवन प्रभावित हुआ है जो सामाजिक परिवर्तन को उजागर करता है। परिवर्तन के सांस्कृतिक सिद्धांत/ कारकवर्तमान समय में अनेक कारणों से सांस्कृतिक आदर्शों,मूल्यों एवं आचरणों में बदलाव निरंतर हो रहे हैं। जिनमें से जनसंचार के द्वारा एक महत्वपूर्ण भागीदारी का निर्वहन किया जा रहा है। प्राय देखा जाता है कि सामाजिक विकास में सूचना की विशेष भागीदारी है,और इसी के माध्यम से नए-नए विचारों की उत्पत्ति एवं कुछ नया करने के लिए प्रेरित भी करती है। जनसंचार ने लोगों के जीवन में जन क्रांति का श्री गणेश कर दिया है,यह जनसंचार के ही साधन है जिनके माध्यम से दुनिया भर की खबरें हर गली मोहल्ले तक पहुंच जाती है। जन संचार के साधनों के माध्यम से जनमत को तैयार किया जाता है। जहां जनसंचार से जन-जन की आवाज को बुलंद किया जाता है। तो वहीं सरकार की लोकप्रिय योजनों को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य भी करती है। जन संचार के साधन और सांस्कृतिक कारकइन साधनों के साधनों के माध्यम से न केवल (करप्शन) भ्रष्टाचार का उजागर किया जाता है, बल्की नवीन विचारों का (क्रिएशन) सृजन भी किया जाता है। साथ ही मानव समाज को जागरूक करने का भी प्रयास करता है, इन्ही साधनों ने गरीबों और महिलाओं को समाज में बराबरी का स्थान दिलाया है। अनेकों सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ जनमत को तैयार किया है। मनोरंजन के संदर्भ में भी टेलीविजन, रेडियो, सोशल मीडिया ने भी महत्वपूर्ण भूमिकाओं का निर्वाहन किया है। हालांकि जन संचार के साधनों ने सांस्कृतिक क्षेत्र में अनेक चुनौतियों को जन्म भी दिया है,तथापि सांस्कृतिक बदलाव का श्रीगणेश किया है। एक नए वर्ग का उत्थान हो रहा है, जिसे मध्यमवर्ग भी कहा जा सकता है।जिसने राजनीतिक एवं आर्थिक क्षेत्र में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है। पिछड़े व दलित वर्गों में भी जागृत एवं चेतना का शुभारंभ हुआ है। जबकि शहर के इलाकों में भी एक नए कौशल युक्त मध्यम वर्ग का श्रीगणेश हुआ है। जो जिज्ञासु के साथ-साथ महत्वकांक्षी भी है। जन संचार के साधनों ने वैश्विक संस्कृति को जन्म दिया है। परिवर्तन के प्रौद्योगिकी कारकसांस्कृतिक कार्यक्रमों को क्रियाशील बनाने के लिए तथा सांस्कृतिक व सामाजिक बदलाव की बयार लाने में प्रौद्योगिकी का रोल सदियों से ही महत्वपूर्ण चला आ रहा है। पिछले दशकों में जो सूचना क्रांति उत्पन्न हुई है, उससे ऐसे ही साधनों का विकास हुआ है जिससे संस्कृति व सामाजिक परिवर्तन की गति में तीव्रता आई है। 21वीं सदी में भारत के संदर्भ में देखें तो दूरदराज के गांवों एवं जनजातिय लोगों में भी इस क्रांति का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। सूचना क्रांति से जहां टेलीफोन, कंप्यूटर और मोबाइल एवं टेलीविजन को एक साथ जोड़ दिया हैं जिसके कारण जनसाधारण की जीवन के अनेक पहलू भी प्रभावित हुए हैं। हालांकि यूनिसको के द्वारा आयोजित सदस्य राष्ट्रों के प्रोग्राम में जन संचार के साधनों का उपयोग जन जीवन के विकास तथा गरीबी उन्मूलन, स्वास्थ्य, पारदर्शी और जवाबदेह प्रशासन,पर्यावरण, विकेंद्रीकरण में लाए जाने का प्रस्ताव रखा है। प्रौद्योगिकी एवं परिवर्तनइसमें खासतौर (स्पेशियली) से सस्ते मोबाइल फोन, सस्ते नेट पैक, (कम्युनिटी) सामुदायिक रेडियो एवं सोशल मीडिया पर विशेष जोर दिया गया है। क्योंकि बिना इसके सूचना प्रौद्योगिकी पर निर्भर जनसंचार सरल नहीं हो पाएगा, तब चाहे ई एजुकेशन हो या ई हेल्थ हो या ई-कॉमर्स हो। वर्ष 1990 के बाद भारत से उदारीकरण के दौर से जन संचार के साधनों में निजी क्षेत्र की कंपनियों की भागीदारी को बढ़ाया गया है। उस समय योजना आयोग और वर्तमान में नीति आयोग के द्वारा राष्ट्र के हर जनपद को नेशनल इनफार्मेशन सेंटर से जुड़ने का प्रयास किया जाने लगा है। जो कि अब संचार एवं (इनफार्मेशन) सूचना (टेक्नोलॉजी) प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन हो गया है। भारत में संचार के साधनों के जरिए किसानों के लिए स्पेशल प्रोग्राम चलाए जाते हैं। जिससे किसानों को फसल के मूल्य एवं मिट्टी की जानकारी मुहैया करवाई जा रही है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि संचार के साधनों तक सभी की समान पहुंच हो बल्कि शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा जनसंचार के साधनों तक पहुंच अधिक है। इससे एक और अमीरी और गरीबी तथा विकास हीन और विकास संपन्न जैसी विसंगतियां भी भारत में साफ देखी जाने लगी है। सूचना प्रौद्योगिकी और शिक्षाइन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी/सूचना प्रौद्योगिकी के प्रसाधन के साथ-साथ मानविय शिक्षा का भी महत्व होता है। हालांकि शिक्षा के क्षेत्र में स्वतंत्रता के पश्चात काफी विकास देखा जाने लगा है। और आज भारत में साक्षरता दर लगभग 90% से अधिक हो गई है। हालांकि शिक्षा के क्षेत्र में और भी सुधार अपेक्षित है इन संसाधनों से जहां एक और भारतीय भाषा में विभिन्न समाचार पत्र और पत्रिकाओं का विकास हुआ है वही जन (कम्युनिकेशन) संचार के साधनों तक (पब्लिक) जनमानस की पहुंच का ग्राफ भी बड़ा है। एक समय तक देश में केवल दो ही समाचार पत्र हुआ करते थे एक हिंदुस्तान टाइम और दूसरा था नवभारत टाइम्स, परंतु आज दैनिक जागरण अमर उजाला राष्ट्रीय सहारा जैसे समाचार पत्र राष्ट्रीय स्तर पर छाए हुए हैं। इसमें एक बात बहुत जरूरी है वह है कि अब राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी भाषा से अधिक हिंदी भाषा की समाचार पत्र पत्रिकाओं का सृजन अधिक हो रहा है। इन समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को दूरदराज के आंचल से जोड़ने के लिए जनसंचार के साधन ही महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रहे है। सूचना प्रौद्योगिकी और गांवइन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी से ग्रामीण क्षेत्र कितने लाभान्वित हो रहे हैं इस सम्बन्ध में अंतर्राष्ट्रीय विकास अनुसंधान केंद्र जो कि कनाडा में स्थित है। ने भारत में एक रिसर्च करवाया जो कि “स्वामीनाथन शोध फाउंडेशन” के माध्यम से करवाया था। जिसने अपनी रिपोर्ट में (क्लियर) स्पष्ट कहा था कि ग्रामीण समुदाय में सूचना प्रौद्योगिकी का (पॉजिटिव) सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। इसके पीछे मुख्य (रिज़न) उद्देश्य यह था कि सबसे अधिक गरीब जनसंख्या आज भी गांव में ही निवासरत है।यदि हम सूचना एवं प्रौद्योगिकी का सदुपयोग करते हैं तो निश्चित रूप से ग्रामीण समुदायों और क्षेत्रों की तस्वीर और तकदीर दोनो बदल सकती है। परिवर्तन के आर्थिक कारकदेखा जाए तो आर्थिक विकास, मानवीय संसाधन एवं प्रकृति प्रदत्त संसाधनों पर निर्भर करता है। सभी विद्वान (समाजशास्त्री) एक मत है कि सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए आर्थिक कारकों का महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हालांकि आर्थिक विकास में मानवीय संसाधनों का विशेष योगदान होता है, तथापि सामाजिक सदस्य के रूप में व्यक्ति विशेष की अलग-अलग आर्थिक समस्याएं होती है। जिन को पूरा करने के लिए मानव विभिन्न संसाधनों को उपयोग में लाता है जिसकी विवेचना निम्नवत है। परिवार एवं विवाह नामक संस्था में (बदलाव) परिवर्तनइन कारकों के कारण सामाजिक सदस्य की पारिवारिक एवं विवाह संस्था में काफी परिवर्तन दृष्टिगोचर हो रहा है। नगरों का विकास, (ट्रांसपोर्ट) परिवहन के साधनों का विकास, (एजुकेशन) शिक्षा का स्तर, रोजगार के साधनों के कारण परिवार में परिवर्तन अथवा बदलाव आने लगे हैं। संयुक्त परिवार प्रथा अपनी समाप्ति की ओर अग्रसर है तो एकाकी परिवारों का प्रभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है,पहले परिवार अपनी जरूरतों (आवशयकताओं) की वस्तुओं को खुद ही उत्पादन करता था। परन्तु वर्तमान में परिवार अपनी जरूरतों को होटलों, राष्ट्रों, सिनेमाघरों, नाइट क्लबों में दफ्तरों में पूरा कर आश्रित हो रहा है। रोजगार की खोज में घर छोड़कर जा रहे युवक युवतियां साथ-साथ काम करते हैं, जिसके कारण उनको एक दूसरे को समझने व जानने का वक्त मिल जाता है,परिणामस्वरूप प्रेम विवाह का प्रचलन एवं देर से विवाह का प्रचलन दिनों दिन बढ़ रहा है। साथ ही अंतरजातीय विवाह भी बढ़ रहे है। स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तनआधुनिक शिक्षा, रोजगार के नए नए अवसरों के कारण एवं सरकार द्वारा महिला उत्थान हेतु उठाए गए कदमों के कारण महिलाओं की स्थिति में काफी परिवर्तन आ गया है। शादी विवाह की आयु में वृद्धि होने से महिलाओं में कम बच्चे पैदा करने की प्रवृत्ति के फलस्वरुप महिलाओं की सामाजिक स्थिति व स्वास्थ्य में काफी सुधार नजर आ रहा है। जिसके कारण समाज में परिवर्तन हो रहे। जाति तथा वर्ग व्यवस्था में परिवर्तनवर्तमान समय में जाति तथा वर्ग व्यवस्था में आर्थिक कारकों से परिवर्तन हो रहा हैं। जहां एक तरफ रोजगार हेतु विभिन्न जाति,समाज और संप्रदाय के लोग एक साथ कल-कारखानों में कार्य कर रहे हैं। दिन का भोजन भी एक साथ बैठकर कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ रोजगार के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान में आने जाने से भी जाति तथा वर्ग व्यवस्था में परिवर्तन हो रहा है। प्रेम विवाह का प्रचलन में भी बढ़ रहा है, धन प्रदान व्यवस्था से जाति तथा वर्ग व्यवस्था में बदलाव हो रहे हैं। हालांकि यह भी सच है की बदलाव अपेक्षानुसार नहीं हो पाया हैं। धार्मिक जीवन में बदलावयदि हम भारत में सामाजिक और धार्मिकता की बात करें तो आर्थिक कारक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं क्योंकि आर्थिक विकास तभी हो सकता है जब किसी देश का विज्ञान और तकनीकी विकास हो रहा हो, क्योंकि दोनों के कारण ही धार्मिक जीवन में परिवर्तन हो सकता है। धन का प्रभाव भी धार्मिक प्रभाव को कम करता है। जहां विभिन्न धर्मावलंबी रोजगार हेतु एक ही दफ्तर में कार्य करते हैं तो स्वाभाविक है कि धार्मिक नजदीकियां बढ़ने लगती है। साथ ही एक दूसरे के धर्म को समझने और परखने के अवसर भी उपलब्ध होते हैं,जहां व्यापार तथा वाणिज्य के लिए विभिन्न धर्मों के लोग एक दूसरे पर निर्भर होते हैं। जिसके कारण धार्मिक विचारों में भी बदलाव होना लाजमी है। आज प्राय देखा जाता है कि लोग एक दूसरे के धार्मिक त्योहारों को साथ साथ मिलकर मनाते हैं। जीवन स्तर में परिवर्तनआर्थिक कारकों के द्वारा ही भारतीयों का जीवन स्तर में सुधार हो आ पाया है। आज हम कह सकते हैं कि हमारा जीवन पहले की अपेक्षा ऊंचा उठा है। भारत देश के ग्रामीण इलाकों को ही लिया जाए तो निश्चित रूप से आधुनिक कृषि अपनाने के कारण उत्पादन में कहीं न कहीं वृद्धि हुई है। जिससे ग्रामीण जीवन का स्तर उत्तम हुआ है, हालांकि भारत के संदर्भ में यह भी कहा जाता है कि भारत सोने की चिड़िया अथवा एक उच्च आर्थिकी वाला देश था परन्तु यहां पर निम्न आर्थिक वाले लोग निवास करते हैं। इसका प्रमुख कारण भी आर्थिकी ही है। राजनीतिक जीवन में परिवर्तनयदि करीब से देखा जाए तो राजनीति भी आर्थिकी से कहीं न कहीं जुड़ी तो अवश्य ही है। इतिहास साक्षी है इस बात का कि जब जब देशों में चुनाव हुए हैं, तब तक देश के नामी-गिरामी तथा टाटा अढाणी, अंबानी जैसे बड़े घरानों ने पार्टी फंड में योगदान दिया है। दूसरी तरफ भारत का पुराना एक सिस्टम है कि सांसदों एवं विधायकों का को खरीदा जाना,जिसके कारण राज्यों में रातों-रात सरकारें समाप्त हो जाती है। देश में अनेकों आर्थिक एवं सामाजिक और राजनीतिक विकास कहीं ना कहीं विश्व बैंक के माध्यम से प्राप्त सहायता से भी संभव है। विघटनात्मक परिवर्तनआर्थिक कारक एक और तो सामाजिक परिवर्तन के द्योतक है तो वहीं दूसरी और विघटनात्मक परिवर्तन के भी द्योतक हैं। आर्थिक कारकों के कारण ही नये-नये शहरों,मलिन(झोपड़ पटियाँ) बस्तियों का विकास होता है,चोरी मक्कारी (करप्शन) भ्र्ष्टाचारी (हूलिगनिस्म) गुंडागर्दी सांप्रदायिक दंगे आदि विकारों की उत्पत्ति होती है। साथ ही वेश्यावृत्ति बाल अपराधों में वृद्धि इत्यादि इसी कारण से होते हैं। आपको यह भी पढ़ने चाहिए
सामाजिक परिवर्तन से आप क्या समझते हैं। सामान्यतया विद्वानों व समाज शास्त्रियों के द्वारा यह कहा गया है कि सामाजिक परिवर्तन एक ऐसा बदलाव है जिससे सामाजिक सम्बन्ध एवं सामाजिक ढांचे में बदलाव होता हो। सामाजिक परिवर्तन की क्या विशेषताएं हैं परिवर्तन की विशेषताओं में कहा जा सकता है कि, यह एक समुदायिक एवम सार्वभौमिक घटना है। साथ असमान तथा तुलनात्मक,समय कारक से प्रभावित,सभी समाजों में अनिवार्य रूप से होने वाली घटना है,जिसकी भविष्यवाणी करना सम्भव नहीं। सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न प्रतिमान कौन-कौन से है परिवर्तन में तीन प्रकार के प्रतिमान पाए जाते हैं। Post Views: 838 |