रसायन विज्ञान शिक्षण की कौन सी विधियां है? - rasaayan vigyaan shikshan kee kaun see vidhiyaan hai?

4. विश्लेषण-संश्लेषण विधि :

आगमन तथा निगमन विधियों की भाँति यह भी दो भिन्न विधियों-विश्लेषण विधि एवं संश्लेषण विधि से मिलकर बनी है। अगर कोई समस्या या कोई वस्तु किसी की समझ में नहीं आये तो उसे खोलकर अथवा उसके संघटक अंगों में विभाजित करके समझाना आवश्यक होता है। खंड-खंड करके किसी बात को समझाना ही विश्लेषण विधि है। समस्या के हर पहलू को समझ लेने के बाद उसे समग्र रूप से समझना कठिन नहीं होता। इस तरह खंड-खंड करके समझने के पश्चात् पूरी वस्तु को जोड़कर बताने को संश्लेषण विधि कहते हैं। संश्लेषण विधि में हम उचित तथ्यों को इकट्ठा करके समग्र वस्तु की वास्तविक प्रकृति की खोज करते हैं।

विश्लेषण विधि- यह एक खोज करने की विधि है, जिसमें छात्र एक अन्वेषक के रूप में कार्य करता है। जिस बात को समझना हो या जिस समस्या का हल करना हो इसे पहले उपयुक्त तथा छोटे खंडों में इस प्रकार विभाजित किया जाता है ताकि वह इतनी छोटी हो जाये कि छात्र उसे आसानी से समझ सकें। इसके बाद शिक्षक उचित प्रश्नों द्वारा एवं अनुकूल वातावरण उपस्थित करके हर खंड को समझाने का प्रयत्न करता है। छात्र उस पर गहराई से विचार करके समस्या के वास्तविक स्वरूप को समझाने में कुशलता प्राप्त करता है। रसायन विज्ञान तथा गणित के अध्यापन में विश्लेषण विधि बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है।

उपरोक्त सभी ऐसी समस्याएं हैं, जिनके कारण छात्रों को अज्ञात हैं, शिक्षक उक्त समस्याओं को ऐसे सरल अंशों में विभाजित करने में मदद करता है, जिनका हल छात्रों को ज्ञात होता है। इस तरह छात्र जटिल समस्याओं को सरल समस्याओं में तोड़कर उसके वास्तविक स्वरूप को समझ जाते हैं।

1. विश्लेषण पद्धति के आधारभूत सिद्धांत- समग्र की अपेक्षा खंडों को समझना आसान है, यह एक अनुभवगम्य तथ्य है कि किसी जटिल वस्तु को सीधे समझ सकने की बजाय उसके किसी एक अंश का समझना सरल है।

2. अज्ञात से ज्ञात की ओर- जिस तरह निगमन विधि में अज्ञात से ज्ञात की ओर चलते हैं, ठीक उसी तरह इस विधि में भी शिक्षक को अज्ञात से ज्ञात की ओर चलना पड़ता है दूसरे शब्दों, समग्र वस्तु अथवा समस्या जो अज्ञात है, उसे समझाने हेतु उसके खंडों को बताते हुए ज्ञात की तरफ बढ़ते हैं।

विश्लेषण विधि की विशेषताएं- विश्लेषण विधि की निम्न विशेषताएं हैं-

(1) इस विधि में छात्र शिक्षक की बजाय क्रियाशील रहता है।

(2) इससे छात्रों में सही ढंग से विचार करने की आदत पड़ती है, जो उनके दैनिक जीवन में काम आती है।

(3) इस विधि से समस्या हल करने की योग्यता का विकास होता है।

(4) छात्रों में बुद्धि, कल्पना तथा चिंतन शक्ति का विकास होता है।

(5) इसमें छात्र स्वयं ज्ञान अर्जित करते हैं। इसलिए अर्जित स्थायी होता है।

(6) छात्र में आत्म-विश्वास बढ़ता है।

विश्लेषण विधि के दोष- इस विधि की विशेषताओं के साथ कुछ दोष भी हैं, जो निम्न हैं-

(1) इस विधि में समय ज्यादा लगता है।

(2) यह विधि स्वयं में एक पूर्ण विधि नहीं है, क्योंकि जो बात छात्रों ने विश्लेषण से सीखी है, उसका समग्र रूप भी उनको स्पष्ट होना चाहिए।

(3) इसमें अज्ञात से ज्ञात की तरफ बढ़ते हैं। इसलिए यह एक अमनोवैज्ञानिक विधि है।

संश्लेषण विधि- किसी वस्तु अथवा समस्या को छोटे-छोटे खंडों में विभाजन करने मात्र से ही उसका संपूर्ण एवं सही ढाँचा ज्ञात नहीं हो पाता। इसलिए विश्लेषण विधि द्वारा प्राप्त खंडवार जानकारी क्रमबद्ध रूप से जोड़कर एक निश्चित रूप दिया जाता है।

समस्त बात को समझाने के पश्चात् ही किसी निर्णय पर पहुँचा जा सकता है। इस विधि में खंड-खंड को जोड़कर पूरी बात समझी जाती है तथा फिर यह निर्णय लिया जाता है कि उस बात का क्या महत्व है?

संश्लेषण विधि के आधारभूत सिद्धांत- इस विधि के निम्न आधारभूत सिद्धांत दर्शाये गये हैं-

(1) अंश की बजाय पूर्ण को समझना ज्यादा अच्छा है। किसी एक अंश को ही समझकर किसी निश्चित स्वरूप अथवा निर्णय पर नहीं पहुँचा जा सकता है। सही निर्णय हेतु सभी अंगों की जानकारी के फलस्वरूप पहले संपूर्ण को निश्चित करना जरूरी है।

(2) किसी बात को भले ही खंड-खंड करके समझा जाये, लेकिन पूरी बात समझने के बाद ही आगे बढ़ सकते हैं।

संश्लेषण विधि के गुण- संश्लेषण विधि की निम्न विशेषताएं हैं-

(1) यह ज्ञात से अज्ञात की तरफ चलती है।

(2) यह अमनोवैज्ञानिक विधि है, क्योंकि विश्लेषण के पश्चात् संश्लेषण की जरूरत होती है।

(3) इसमें समय कम लगता है।

(4) छात्र उलझन में नहीं पड़ते।

(5) इसमें कमजोर छात्र लाभान्वित होते हैं।

संश्लेषण विधि के दोष- संश्लेषण विधि के निम्न दोष हैं-

(1) यह रटने की प्रवृत्ति को जन्म देती है।

(2) इसके द्वारा किसी नई बात को खोजा नहीं जा सकता।

(3) छात्रों की कल्पना शक्ति का विकास नहीं होता।

निष्कर्ष- विश्लेषण तथा संश्लेषण दोनो विधियों की तुलना करने से ऐसा प्रतीत होता है कि विश्लेषण विधि ज्यादा उपयोगी है, पर हम संश्लेषण विधि को भी नहीं छोड़ सकते। यथार्थ में दोनों ही विधियाँ स्वयं में अपूर्ण हैं। विश्लेषण के बगैर संश्लेषण का तथा संश्लेषण के बगैर विश्लेषण का कोई अस्तित्व ही नहीं है। दोनों एक-दूसरे की पूरक हैं एक गुण के दूसरी के दोष तथा दूसरी के गुण पहली के दोष बन जाते हैं। विश्लेषण संश्लेषण की तरफ ले जाता है तथा संश्लेषण विश्लेषण के उद्देश्यों को स्पष्ट तथा पूर्ण करता है। इसलिए दोनों ही विधियों का मिश्रित रूप अर्थात् विश्लेषण-संश्लेषण विधि ही शिक्षण की एक उत्तम प्रणाली बन सकती है।

5. प्रयोगशाला विधि :

प्रयोगशाला विधि में छात्रों को स्वयं प्रयोगशाला में प्रयोग करने का अवसर प्राप्त होता है। छात्रों को आवश्यक निर्देश देकर उपकरण दे दिये जाते हैं, जिनकी मदद से वह स्वयं निरीक्षण तथा परीक्षण करते हैं एवं गणनाओं को लिखकर स्वयं परिणाम निकालते हैं अथवा उपकरण का चित्र खींचते हैं। अगर किसी छात्र को कोई शंका अथवा कठिनाई होती है तो शिक्षक उनका समाधान करते हैं तथा जरूरी मार्गदर्शन करते हैं। इस विधि में छात्र अधिकतम सक्रिय रहता है, जबकि शिक्षक निरीक्षण करते रहते हैं।

माध्यमिक शालाओं में सप्ताह में दो-तीन दिन प्रायोगिक कार्य हेतु रखे जाते हैं, जिनमें दो लगातार कालखंडों की व्यवस्था की जाती है। पूरे सत्र भर के पाठ्यक्रम को सुविधानुसार बाँट लिया जाता है। प्रयोग से संबंधित सैद्धांतिक जानकारी रसायन विज्ञान शिक्षक अन्य कालखंडों में छात्रों को दे देता है तथा समस्या का हल करने हेतु छात्र प्रयोगशाला में स्वयं प्रयोग करते हैं।

प्रयोगशाला विधि के गुण- प्रयोगशाला विधि के निम्न गुण हैं-

(1) वह एक समस्या हल करने की उत्तम विधि है। समस्या का हल प्रयोगों के आधार पर किया जाता है, इसलिए विषय रुचिकर तथा सार्थक बन जाता है।

(2) छात्रों में निरीक्षण, तर्क, निर्णय शक्ति आदि गुणों का विकास होता है।

(3) छात्रों में उपकरणों को सावधानीपूर्वक उपयोग करने की क्षमता तथा प्रयोगशाला कुशलता आती है।

(4) छात्रों में आत्म-विश्वास, आत्म-निर्भरता एवं आत्म-अनुशासन का विकास होता है।

(5) छात्र स्वयं अपने हाथों से कार्य करके सीखता है इससे कार्य के प्रति आदर की भावना का संचार होता है तथा स्थायी ज्ञान प्राप्त होता है।

(6) छात्रों को रसायन विज्ञान संबंधी नियमों तथा तथ्यों की जाँच करने का अवसर मिलता है। उनकी सत्यता वह स्वयं सिद्ध करना है।

(7) उच्च कक्षाओं में इसका शैक्षिक महत्व और भी बढ़ जाता है।

प्रयोगशाला विधि के दोष- प्रयोगशाला विधि के निम्न दोष हैं-

(1) इसमें व्यक्तिगत उपकरणों की व्यवस्था जरूरी है, अत: यह खर्चीली विधि है।

(2) कई प्रयोग वास्तविक समस्याएं नहीं होती, अतः प्रायोगिक कार्य नीरस हो जाता है।

(3) छात्रों के परिणाम तथा निष्कर्ष पर निगरानी जरूरी है अन्यथा वह नकल करते हैं।

(4) यह निश्चित नहीं कि वैज्ञानिक विधि से समस्याओं को हल करना सीखा जाये। इसलिए बाद के जीवन में इसकी उपयोगिता संदिग्ध है।

(5) कुछ ऐसे तथ्य भी हैं जिन्हें प्रयोगशाला विधि की बजाय प्रदर्शन विधि से ज्यादा अच्छी तरह समझाया जा सकता है।

(6) छात्र प्रायोगिक कार्य में दक्ष नहीं होता, अतः समय ज्यादा नष्ट होता है।

(7) अगर शिक्षक निष्क्रिय हो तो यह विधि सफल नहीं होती।

(8) अगर उपकरण नाजुक हों तो छात्रों द्वारा उनके टूटने का भय रहता है।

(9) खतरनाक प्रयोगों में थोड़ी सी असावधानी दुर्घटनाओं का कारण बन सकती है।

प्रयोगशाला विधि में प्रायोगिक कार्य का रचनात्मक संगठन- प्रायोगिक कार्य के उचित संगठन हेतु निम्न बातों पर ध्यान दिया जाये-

(1) प्रायोगिक कार्य छात्रों के मानसिक स्तर के अनुकूल हों।

(2) प्रायोगिक कार्य से संबंधित जरूरी बातों की पूर्व जानकारी (प्रयोग का सिद्धांत, विधि तथा सावधानी आदि) छात्रों को देनी जरूरी है।

(3) उद्देश्य तथा विधि बताने के बाद शिक्षक को आगे नहीं बढ़ाना चाहिए। उसे सिर्फ प्रारंभिक जानकारी देनी चाहिए; जैसे-क्या निरीक्षण करना है? लेकिन क्यों दिखाई देगा? इसका तथ्य नहीं बताना चाहिए।

(4) जब दो अथवा तीन छात्रों के बीच में प्रायोगिक कार्य संपन्न कराया जाये तो शिक्षक को यह देखना चाहिए कि सिर्फ एक ही छत प्रयोग न करें तथा दूसरे सिर्फ रिकॉर्ड न करते रहें अन्यथा सबल व्यक्तित्व वाला छात्र ही प्रयोग करेगा तथा अन्य सिर्फ दर्शक बने रहेंगे।

(5) शिक्षक को इधर-उधर समूहों में जाकर छात्रों को प्रोत्साहन देना, विधियों को स्पष्ट करना, गलतफहमी दूर करना आदि कार्य करते रहना चाहिए।

(6) शिक्षक को बार-बार घोषणाएं' भी नहीं करते रहना चाहिए अन्यथा प्रायोगिक कार्य में बाधा पड़ती है।

(7) प्रयोग करते समय छात्रों से व्यक्तिगत संपर्क स्थापित कर शिक्षक को उनकी कठिनाइयों का निवारण करना चाहिए। साथ ही निरीक्षण संबंधी प्रश्न भी पूछने चाहिए।

(8) प्रयोगशाला में अनुशासन बनाये रखने हेतु इधर-उधर जाना कम-से-कम होना चाहिए। बातचीत भी प्रयोग से संबंधित की जाये लेकिन उच्च आवाज में न हो, उसका शिक्षक ध्यान रखें। लेकिन यह भी सत्य है कि एकदम खामोशी की बजाय जिज्ञासावश बातचीत करते हुए छात्र अच्छे होते हैं।

(9) जिन प्रयोगों को करने हेतु छात्रों को कहा गया है, उनको छोड़कर किसी भी अन्य प्रयोग को नहीं करना चाहिए।

(10) प्रयोग समाप्त करने के पश्चात् मेज को साफ करना एवं उपकरणों को साफ-सुथरा रखना भी छात्रों को सिखाना जरूरी है।

(11) प्रयोग का रिकॉर्ड रखना भी महत्वपूर्ण है। परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं के अनुसार इसमें अंतर हो सकता है फिर भी उसका एक निर्धारित प्रारूप होता है; जैसे-उद्देश्य, विधि, अवलोकन, निष्कर्ष, प्रयोग, संबंधी चित्र नामांकित हों, चार्ट तथा ग्राफ भी संपूर्ण हों, ताकि समय की बचत हो एवं विस्तार से लिखने की जरूरत ही न पड़े।

प्रयोगशाला विधि की उपयोगिता- प्रयोगशाला विधि की उपयोगिता निम्न रूप में दृष्टिगोचर होती हैं- यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि व्यक्तिगत अध्यापन से पाठ्य-वस्तु ज्यादा स्पष्ट होती है तथा इस विधि से प्राप्त ज्ञान भी स्थायी होता है। इसके लिए प्रयोगशाला विधि बहुत उपयुक्त है। यह मंद बुद्धि के छात्रों हेतु भी ज्ञान पेश करने एवं उनकी समस्याओं के निराकरण के लिए बहुत उपयोगी है। इसके अलावा इस विधि से वैज्ञानिक दृष्टिकोण, कौशल, आत्म-विश्वास आदि गुणों के साथ-ही-साथ समस्याओं को हल करने की योग्यता का विकास भी होता है जो कि उनके दैनिक जीवन में उपयोगी है।

6. अन्वेषण विधि :

इस विधि के जन्मदाता प्रोफेसर आर्मस्ट्रांग हैं। रसायन विज्ञान-शिक्षण को सफल बनाने हेतु इस पद्धति का प्रयोग किया गया। “Heurisco” नामक ग्रीक शब्द से इस विधि का विकास हुआ है, जिसका अर्थ है-मैं स्वयं खोजता हूँ। “I find our myself.” इस विधि का प्रमुख उद्देश्य छात्रों में अन्वेषण प्रवृत्ति को जागृत करना है एवं छात्र को चिंतन अवलोकन, निरीक्षण तथा प्रयोग एवं परीक्षण कर सही निष्कर्ष निकालने में है। शिक्षाशास्त्री हरबर्ट स्पेंसर के अनुसार, “बालकों को कम-से-कम बताना चाहिए तथा उन्हें अधिक-से-अधिक स्वयं खोज निकालने हेतु प्रेरित करना चाहिए।"

आर्मस्ट्रांग के अनुसार, “अनुसंधान विधियाँ शिक्षण की वह विधियाँ हैं जिनमें हम छात्रों को यथासंभव एक अनुसंधानकर्ताओं अथवा खोजों की स्थिति में रखना चाहते हैं अर्थात् वह विधियाँ हैं जिनमें सिर्फ वस्तुओं के विषय में कहे जाने से उनकी खोज को जरूरी माना गया है।"

अन्वेषण विधि के उद्देश्य- अन्वेषण विधि के निम्न उद्देश्य हैं-

(1) छात्रों में मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करना।

(2) छात्रों में वैज्ञानिक अभिरुचि तथा अभिवृद्धि पैदा करना।

(3) छात्रों में 'स्वयं करके' भावना का विकास कर तथ्य को सीखना।

(4) वैज्ञानिक ढंग से किसी तथ्य पर चिंतन कर निष्कर्ष निकालना।

(5) स्वावलंबी तथा आत्म-निर्भर बनाना।

अन्वेषण विधि के सिद्धांत-

यह विधि निम्न चार सिद्धांतों पर आधारित है-

1. करके सीखना- इस विधि में छात्र प्रयोग करके सीखता है। इसलिए चिंतनशीलता, आत्मानुशासन, परिश्रम करने की आदत एवं आत्म-विश्वास पनपता है।

2. मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण- इस विधि में छात्रों की मानसिक शक्तियों तथा मनोभावों के अनुरूप पाठन होता है। इसलिए वह अपनी रुचि तथा योग्यता के अनुरूप ज्ञान प्राप्त कर उन शक्तियों का विकास करते हैं।

3. वैज्ञानिक दृष्टिकोण- इस विधि द्वारा छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा किया जा सकता है। इससे उनमें वैज्ञानिक अभिरुचि एवं निरीक्षण शक्ति का विकास होता है।

4. क्रियाशीलता- छात्र किसी समस्या पर प्रयोग करके जब हल निकालते हैं, क्रियाशील रहकर ही वह हल निकालते हैं, मूक बनकर सुनते नहीं हैं।

अन्वेषण विधि का प्रयोग- इस विधि में छात्रों के सामने कोई समस्या पेश कर दी जाती है। छात्र एक स्वतंत्र वातावरण में उस पर विचार करते हैं, पुनः छात्र एक स्वतंत्र वातावरण में उस पर विचार कर निष्कर्ष निकालते हैं। अध्यापक समस्या से संबंधित निर्देश भी छात्रों को दे देता है।

छात्र समस्या के विभिन्न अंगों का विश्लेषण करते हैं, पारस्परिक विचार-विमर्श भी करते हैं, स्वाध्याय करते हैं, पुनः अध्यापक का मार्गदर्शन करते हैं। यह विचारणीय है कि छात्र को यहाँ स्वतंत्र रूप से खोज करने का अवसर दिया जाता है। अध्यापक निष्क्रिय रहता है एवं है छात्र सक्रिय। छात्रों में तार्किक शक्ति, निरीक्षण शक्ति तथा निर्णय लेने की शक्ति को पर्याप्त अवसर मिलता है एवं वे साथ-साथ विकसित होती रहती हैं। इस विधि की उपादेयता के संबंध में एक शिक्षाशास्त्री ने कहा है कि- "इस विधि का उद्देश्य छात्रों को निरीक्षण के अवसर देते हुए ज्ञान प्राप्त करने की प्रेरणा देना है।"

अन्वेषण विधि की विशेषताएं- इस विधि की निम्न विशेषताएं हैं-

(1) इस विधि से छात्र में सोचने, विचारने, निरीक्षण करने तथा परीक्षण कर निष्कर्ष निकालने की शक्ति का विकास होता है।

(2) यह विधि मनोवैज्ञानिक है; अनुकूल रुचियों तथा आदतों का विकास करती है।

(3) छात्र क्रियाशील रहते हैं तथा इससे अर्जित ज्ञान स्थायी होता है।

(4) छात्र में स्वयं करके सीखने' की प्रवृत्ति का विकास होता है।

(5) छात्रों में आत्मानुशासन, आत्म-संयम तथा आत्म-विश्वास जागृत होता है।

(6) वैज्ञानिक अभिरुचि तथा दृष्टिकोण पैदा करती है एवं अवलोकन तथा प्रयोग पर बल देती है।

(7) इस विधि में हर छात्र को सीखने का अवसर मिलता है। अध्यापक के संपर्क में रहता है। इसलिए कठिनाई का निवारण भी होता है।

(8) इससे समस्या पर विस्तृत रूप से चिंतन का अवसर मिलता है। इसलिए सोचने के आधार के साथ-साथ स्वाध्याय की भी आदत बनती है।

अन्वेषण विधि के दोष- इस विधि के निम्न दोष हैं-

(1) छोटी कक्षाओं हेतु यह विधि उत्तम नहीं है, क्योंकि उच्च स्तर पर ही निरीक्षण शक्ति मौजूद होती है।

(2) प्रतिभावान छात्रों के लिए उत्तम है, पूरी कक्षा के लिए उत्तम नहीं है।

(3) अल्प आयु के छात्र सही निरीक्षण नहीं कर पाते तथा न सही निष्कर्ष निकाल पाते हैं।

(4) इस विधि के लिए विद्यालयों में पर्याप्त उपकरण, वस्तुएं एवं पुस्तकों का अभाव रहता है। इसलिए सर्वत्र निषेध है।

(5) विशेष ढंग से विद्वान् व्यक्ति ही इस विधि का प्रयोग कर पढ़ा सकते हैं। हर एक के लिए हर पाठ इस विधि से पढ़ाना उपयुक्त नहीं है। प्रशिक्षित, योग्य, निष्ठावान, परिश्रमी, आत्म-निर्भर तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले शिक्षकों का अभाव है।

(6) मंद बुद्धि के छात्र आगे नहीं बढ़ पाते एवं पाठ्यक्रम धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। अपव्यय ज्यादा होता है।

(7) उच्च स्तर हेतु ही उपयोगी है, क्योंकि क्षमता के अनुरूप सेकंडरी स्तर पर ही वह समस्या का विश्लेषण कर पाता है।

7. पर्यटन विधि :

इस विधि के जन्मदाता पेस्टालॉजी हैं। यह विधि प्रकृतिवादी दर्शन शिक्षा पर आधारित है। पर्यटन विधि के शिक्षाशास्त्रियों ने कहा है कि, “पर्यटन छात्र की शिक्षा का महत्वपूर्ण साधन है।” पर्यटन एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा छात्र अपने ज्ञान को प्रत्यक्षत: देखकर स्थायी तथा सुदृढ़ बनाता है, जैसे-कैमीकल उत्पादन हेतु रसायन प्रयोगशाला जाकर दिखाना पड़ेगा। इसी तरह दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं-कुकिंग गैस, औषधि तथा आण्विक बम आदि के बारे में इनके बनने के स्थान पर ले जाना पड़ेगा। इससे छात्र में सूक्ष्म निरीक्षण करने, अपनी मानसिक शक्तियों का विकास करने, अपनी जिज्ञासा एवं अन्वेषण प्रवृत्ति का उचित प्रयोग करने का पर्याप्त अवसर मिलता है। साथ ही उनके दृष्टिकोण वैज्ञानिक एवं रचनात्मक बनते हैं। इसके आयोजन हेतु उचित स्थान का चयन जरूरी है जहाँ कि वैज्ञानिक तथ्यों, नियमों, घटनाओं तथा प्रक्रियाओं का प्रत्यक्ष अवलोकन किया जाये ताकि उससे कुछ परिणाम निकाले जा सकें। स्थान के चुनाव के संबंध में प्राकृतिक, सामाजिक तथा औद्योगिक क्षेत्र देखना जरूरी है। रसायन, प्रयोगशाला आण्विक भट्टी एवं आकाशवाणी अनुसंधानशालाएं और दवा कंपनियाँ आदि को यथास्थान दिखाया जाये।

पर्यटन विधि के उद्देश्य- इसके निम्न उद्देश्य हैं-

(1) यह छात्र की निरीक्षण शक्ति का विकास करता है।

(2) वैज्ञानिक अभिरुचि के लिए वातावरण बनाता है।

(3) अस्पष्ट तथा क्लिष्ट वैज्ञानिक तथ्य स्पष्ट और रोचक बन जाते हैं।

(4) पर्यटन द्वारा स्थलों पर जाकर जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह व्यावहारिक होता है।

(5) अध्ययन करने की प्रेरणा को जन्म मिलता है।

(6) इससे छात्रों में परस्पर सहयोग की भावना का विकास होता है।

(7) औद्योगिक, प्राकृतिक, सामाजिक तथा ऐतिहासिक स्थलों को देखकर मनोरंजन भी होता है। इसलिए छात्र मानसिक रूप से थकते नहीं हैं। कठिन प्रकरणों को भी वे आसानी से सीख लेते हैं।

पर्यटन विधि का महत्व- पर्यटन विधि के महत्व को निम्न रूप में स्पष्ट किया जा सकता है-छोटी कक्षाओं में कुछ प्रकरण ऐसे हैं जिन्हें छात्र व्याख्यान आदि से समझ नहीं पाता, तब उसे पर्यटन द्वारा समझाना ठीक रहता है। अच्छा तो जब रहता है, जबकि वह सार्वजनिक स्थलों पर रसायन विज्ञान को दैनिक जीवन से जोड़ते हैं। आण्विक भट्टी, रसायन प्रयोगशाला आदि की जानकारी कक्षा में पूर्णरूपेण नहीं दी जाकर वहाँ जाकर ही दी जाती हैं। पर्यटन। आनंददायक तथा रोचक है तो दूसरी तरफ स्थायी ज्ञान देने वाला भी सजीवता तथा सक्रियता का यह एक प्रमुख साधन है।

पर्यटन विधि का प्रयोग- पर्यटन से संबंधित पूर्ण जानकारी तथा तैयारी पूर्व में ही करनी पड़ती है। इसलिए निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-

(1) जिस पर्यटन स्थल पर जाना है, वहाँ जाने की अनुमति शाला प्रधान एवं उच्च अधिकारियों से ली जानी चाहिए।

(2) पर्यटन के जाने से पहले पर्यटन का उद्देश्य बता देना चाहिए।

(3) पर्यटन हेतु जरूरी सामग्री जुटानी चाहिए।

(4) पर्यटन के स्थलों के प्रबंधकों से भी पूर्व में अनुमति लेनी चाहिए।

(5) पर्यटन स्थल पर बरती जाने वाली सावधानियों तथा अनुशासन संबंधी बातों के बारे में भी बता देना चाहिए।

(6) पर्यटन पर होने वाला अनुमानित व्यय भी पूर्व में ही निश्चित कर लेना चाहिए एवं इसका शाला से प्रबंध करना चाहिए। प्रबंध न होने पर छात्रों के सहयोग से उक्त राशि का समायोजन करना चाहिए। उनके जाने-आने की सवारी का भी प्रबंध करना चाहिए ताकि वह आराम से आ-जा सकें, अन्यथा छात्र कठिनाई अनुभव करेंगे। खासतौर से छोटे छात्रों हेतु यह जरूरी सुविधा मिलनी चाहिए।

8. समस्या-समाधान विधि :

इस विधि के बारे में वुड ने परिभाषा दी है-“समस्या विधि निर्देश की वह विधि है जिसके द्वारा सीखने की प्रक्रिया को उन चुनौतीपूर्ण स्थितियों को सृजन द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है, जिनका समाधान करना जरूरी है।"

इस विधि का प्रयोग छात्रों में समस्या हल करने की क्षमता पैदा करने के लिए किया जाता है। छात्रों से यह आशा की जाती है कि वह स्वयं अपने प्रयासों द्वारा समस्या का हल निकालें। छात्र समस्या का चयन करते हैं, उसके कारणों की खोज करते हैं एवं नियम विधि के द्वारा उसे पूर्ण करते हैं, छात्र परीक्षण तथा मूल्यांकन के पश्चात् उस समस्या का उचित मूल्यांकन करते हैं। यह विधि छात्रों में चिंतन एवं तर्क शक्ति का विकास करती है। छात्र जो कुछ भी सीखता है, क्रियाशील होकर ही सीखता है। इस तरह यह विधि प्रायोजना विधि जैसी ही है।

समस्या-समाधान विधि में शिक्षण पद-

इस विधि में निम्न पद प्रयोग में लाये जाते हैं-

1. समस्या का चयन- अध्यापक तथा छात्र मिलकर समस्या का चयन करते हैं। अध्यापक को छात्रों का सहयोग लेना चाहिए। इसके साथ ही निम्न बातों का ज्ञान भी जरूरी है-

(1) जिन समस्याओं का चयन किया जाये वह वास्तविक हों,

(2) वह मानसिक स्तर के अनुकूल हों,

(3) पाठ्य-विषय से संबंधित हों,

(4) जटिल न हों।

2. समस्या चयन का कारण- छात्रों को यह बताया जाये कि समस्या का चयन क्यों किया गया है?

3. समस्या को पूर्ण करना- समस्त छात्र अध्यापक के मार्ग दर्शन में समस्या के समाधान हेतु कार्य करते हैं |

4. समस्या को हल करना- अंत में छात्र समस्या का हल खोज लेते हैं, यह समाधान प्रमाणित अथवा परिलक्षित लक्ष्यों पर आधारित होता है।

5. हल अथवा समाधान का प्रयोग- छात्र प्रमाणित समाधान का प्रयोग करते हैं, छात्रों से आशा की जाती है कि वह समस्या समाधान का प्रयोग अपने व्यक्तिगत जीवन में भी करें।

समस्या-समाधान विधि के गुण- इस विधि की निम्न विशेषताएं हैं-

(1) यह छात्रों में विचार-शक्ति तथा निर्णय-शक्ति का विकास करती है।

(2) यह विधि छात्रों की भावी जीवन की समस्याओं का हल करने का प्रशिक्षण देती है।

(3) इसके प्रयोग से छात्र तथ्यों को संग्रह तथा व्यवस्थित करना सीखते हैं।

(4) यह छात्रों के दृष्टिकोण को विकसित करती है।

(5) छात्रों का मस्तिष्क इस विधि के प्रयोग से सक्रिय होकर सजग हो जाता है तथा समस्या का समाधान सरलता से कर लेते हैं।

(6) इस विधि से छात्र सामूहिक निर्णय लेना सीखते हैं।

(7) यह कक्षा के वातावरण को क्रियाशील बनाती है।

(8) इससे छात्रों में वैज्ञानिक ढंग से चिंतन करने की शक्ति का विकास होता है।

(9) यह विधि छात्रों में आत्म-विश्वास जागृत करती है।

(10) स्वाध्याय का प्रशिक्षण प्रदान करती है।

समस्या-समाधान विधि के दोष- इस विधि के निम्न दोष हैं-

(1) यह विधि निम्न कक्षाओं हेतु उपयोगी नहीं है।

(2) यह जरूरी नहीं है कि छात्र इस विधि से परिणाम निकाल लें जो संतोषजनक हों।

(3) इस विधि के प्रयोग में पर्याप्त समय लगता है।

(4) इस विधि का प्रयोग योग्य तथा प्रभावशाली अध्यापक ही कर सकते हैं, सामान्य स्तर के अध्यापक नहीं।

(5) इसका जरूरत से ज्यादा प्रयोग वातावरण को नीरस बना देता है।

9. साक्षात्कार विधि :

साक्षात्कार एक आत्मनिष्ठ विधि है, जिसके द्वारा छात्रों की समस्याओं एवं गुणों का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। इसमें शिक्षक तथा छात्र में आमने-सामने वार्तालाप होता है जिसके द्वारा छात्र की समस्याओं का समाधान खोजने एवं शारीरिक तथा मानसिक दशाओं का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है।

साक्षात्कार विधि की विशेषताएं- साक्षात्कार विधि की निम्न विशेषताएं हैं-

(1) साक्षात्कार में आमने-सामने बैठकर किसी उद्देश्य को लेकर दो व्यक्तियों में वार्तालाप होता है।

(2) यह छात्र का शिक्षक से संबंध है।

(3) यह एक-दूसरे से संपर्क स्थापित करने की विधि।

(4) इसके प्रयोग से व्यक्ति के विषय में विभिन्न जानकारियाँ संग्रहित की जाती हैं।

साक्षात्कार विधि की उपयोगिता तथा महत्व- इस विधि के निम्न उपयोग हैं-

(1) इस विधि द्वारा अमूर्त घटना का अध्ययन किया जाता है।

(2) इसके द्वारा सभी प्रकार की सूचनाओं को प्राप्त किया जा सकता है।

(3) साक्षात्कार विधि द्वारा छात्रों की आंतरिक भावनाओं को स्पष्ट किया जा सकता है।

(4) मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण विधि है क्योंकि इसमें सूचनादाता साक्षात्कारकर्ता के सामने बना रहता है जो उसके मनोभावों को सुगमता से समझ लेता है।

(5) इसमें सूचना का सत्यापन संभव होता है।

(6) इसके द्वारा छात्र की अंतर्दृष्टि को विकसित किया जा सकता है।

(7) यह विधि सरल होने के कारण उपयोगी है।

(8) इसके द्वारा छात्र की रुचियों, सुझावों, आदतों एवं दृष्टिकोणों का ज्ञान प्राप्त करके उनमें वांछित परिवर्तन किये जा सकेंगे।

10. योजना विधि :

योजना विधि के जन्मदाता प्रसिद्ध अमेरिकी शिक्षा विशेषज्ञ विलियम हेनरी किलपेट्रिक हैं। यह प्रसिद्ध प्रयोगात्मक शिक्षाशास्त्री जॉन ड्यूवी के शिष्य थे। स्वयं किलपेट्रिक के अनुसार, "प्रोजेक्ट वह सहृदय सोद्देश्यपूर्ण कार्य है जो संलग्नता से सामाजिक वातावरण में किया जाये। इसके बाद प्रोफेसर आरडब्ल्यू. स्टीवेन्सन ने सबसे पहले विज्ञान की शिक्षा में इसका प्रयोग कर इसे नई परिभाषा दी। उनके अनुसार, “प्रोजेक्ट एक समस्यात्मक कार्य है, जिसे स्वाभाविक परिस्थितियों में पूर्ण किया जाता है।” अन्य विद्वानों द्वारा भी प्रोजेक्ट की परिभाषा दी गई, लेकिन स्टीवेन्सन की परिभाषा सर्वमान्य है।

इस पद्धति में कोई कार्य समस्या के रूप में छात्रों के सामने पेश किया जाता है तथा उस समस्या को छात्र स्वयं सुलझाने का प्रयत्न करते हैं। कार्य को संपन्न करने में जो-जो समस्याएं पैदा होती हैं उनसे संबंधित सभी विषयों के ज्ञान द्वारा उसे हल करने का प्रयत्न होता है। इस प्रकार छात्रों को कई विषयों का ज्ञान हो जाता है।

योजना प्रणाली के आधारभूत सिद्धांत :

इसमें निम्न आधारभूत सिद्धांत निहित हैं-

1. निश्चित प्रयोजन का सिद्धांत- हर कार्य में उद्देश्य निश्चित होता है। छात्र सप्रयोजन कार्य में ही ज्यादा रुचि ले सकता है। इसलिए छात्र को जो कार्य दिया जाये, उसका प्रयोजन स्पष्ट होना चाहिए। इससे वह कार्य में रुचि लेते हैं तथा पूरा करने का प्रयत्न करते हैं।

2. स्व-उत्तरदायित्व का सिद्धांत- यह देखा गया है कि अगर किसी कार्य की जिम्मेदारी पूर्ण रूप से छात्रों को दे दी जाये, तो वह उसे शीघ्र करने का प्रयत्न करते हैं। इस विधि में भी शिक्षक जरूरी मार्ग-दर्शन देकर कार्य पूर्ण करने की जिम्मेदारी छात्रों को दे देता है। इसलिए वह इसे शीघ्रातिशीघ्र पूरा करने का प्रयत्न करते हैं।

3. स्व-क्रिया का सिद्धांत- यह भी एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि छात्र उस कार्य को शीघ्र सीख लेते हैं जिसे वह स्वयं करते हैं। क्रियाशीलता पर बल देते हुए इस पद्धति में छात्रों को अपनी क्षमतानुसार करके सीखने का अवसर मिलता है।

4. वास्तविकता का सिद्धांत- इस पद्धति में छात्रों को जो कार्य करने हेतु दिये जाते हैं वह उनके जीवन से संबंधित होते हैं। वह काल्पनिक समस्याएं मात्र नहीं होतीं। वह वास्तविक परिस्थितियों में पूर्ण भी किये जाते हैं। इस प्रकार यह विधि उन्हें उनके भावी जीवन हेतु तैयार करती है।

5. उपयोगिता का सिद्धांत- प्रयोगवाद छात्रों को उन्हीं बातों को सिखाने पर बल देता है जो उनके जीवन हेतु उपयोगी हैं। अत: उन्हीं योजनाओं का चयन किया जाता है जो जीवनोपयोगी सिद्ध हो सकें।

6. स्वतंत्रता का सिद्धांत- किसी कार्य को करने का ढंग हर व्यक्ति में अलग-अलग हो सकता है। अत: जो छात्र जिस कार्य को जिस विधि से ज्यादा अच्छी प्रकार कर सकें उसे इसकी स्वतंत्रता दे दी जाती है। वह जैसे भी चाहे अपने कार्य को पूर्ण कर सकते हैं।

7. सह-संबंध का सिद्धांत- योजना में ऐसी समस्याओं को स्थान दिया जाता है, जिसमें विभिन्न विषयों का ज्ञान छात्रों को मिल सके। अतः एक विषय की योजना को पूर्ण करने के लिए दूसरे विषयों की भी मदद ली जाती है, पर जो ज्ञान बिखरा हुआ न होकर समन्वित हो, यही सह-संबंध है।

सामाजिकता का सिद्धांत- छात्रों में सामाजिकता का विकास उनके भावी जीवन हेतु जरूरी है। जो कार्य छात्र को दिया जाता है, उसे वह स्वयं अथवा किसी से भी जरूरी सहयोग प्राप्त कर पूरा करने का प्रयत्न करता है। इसके द्वारा उसमें सहयोग की भावना का विकास होता है, जो सामाजिकता का ही दूसरा नाम है

योजना पद्धति में सीखने के तीन नियमों का अनुसरण किया जाता है-

(1) तत्परता का नियम,

(2) प्रभाव का नियम, तथा

(3) अभ्यास का नियम।

इस पद्धति में तीनों ही नियमों की अपनी-अपनी उपयोगिता है। प्रथम, छात्रों को वह योजना नहीं दी जाती, जिस पर कार्य करने हेतु वह तैयार नहीं होते। द्वितीय जीवनोपयोगिता के सिद्धांत को ही हम प्रभाव का नियम कह सकते हैं। तृतीय, किसी भी कार्य को बार-बार करने के बाद स्वतः छात्र उसमें अभ्यस्त हो जाता है। इस प्रकार तीनों ही सीखने के नियमों का इसमें उपयोग होता है।

योजना विधि की विभिन्न व्यवस्थाएं :

योजना विधि की सफलता हेतु उसका निम्न पदों में संगठन किया जाता है-

1. परिस्थिति का निर्माण- इसमें छात्रों की स्वतंत्रता सबसे महत्वपूर्ण है। उन्हें यह अनुभव होना चाहिए कि किसी समस्या को उन्होंने पहचाना है तथा वह उनके लिए उपयोगी सिद्ध होगी। शिक्षक का कार्य ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करना है, जिनसे छात्र अपने जीवन हेतु उपयोगी समस्याओं को पहचान कर उनके हल के लिए प्रेरित हो सकें। यह कार्य, छात्रों को रसायन विज्ञान प्रदर्शनी में ले जाकर, रसायन विज्ञान पत्रिकाओं को पढ़ने के लिए कहकर अथवा उन्हें संबोधित करके किया जा सकता है, लेकिन किसी भी हालत में शिक्षक को स्वयं अपनी तरफ से किसी योजना को नहीं थोपना चाहिए। इस विधि में, इस पद का वही महत्व है, जो हरबर्ट की पचपदी में प्रस्तावना का है।

2. योजना का चुनाव- इस विधि में यह जरूरी है कि छात्र अपने भावी जीवन के लिए उपयोगी योजनाओं को ही चुनें। यथार्थ में शिक्षक को यह सावधानी उस समय से अपनानी चाहिए, जब वह चयन हेतु परिस्थिति का निर्माण करता है। साथ ही योजना ऐसी चुनी जाये जिसका शैक्षिक मूल्य हो, जो आर्थिक तथा मानसिक क्षमता के अनुकूल हो एवं जिसे पूर्ण करने हेतु साधन सहज ही उपलब्ध हों।

3. योजना का कार्यक्रम बनाना- योजना के चयन के पश्चात् कार्यक्रम बनाना पड़ता है। कार्यक्रम को इस तरह बाँटना चाहिए कि हर छात्र को कुछ-न-कुछ कार्य जरूर मिले। यह कार्य उनकी व्यक्तिगत क्षमताओं, रुचियों तथा योग्यताओं के अनुकूल होना चाहिए। तीन से पाँच तक छात्रों के छोटे-छोटे समूह बनाकर हर में एक नेता का चयन करना चाहिए। योजना को पूर्ण करने में किन साधनों की जरूरत पड़ेगी, कौन-कौन सी संभावित कठिनाइयाँ उपस्थित होंगी तथा उनका हल किस तरह किया जायेगा? इस पर भी पूर्व विचार जरूरी है। बड़ी योजना को समूह में बाँट दिया जाता है। छात्र उस पर कार्य करते हैं तथा सभी क्रियाओं का संश्लेषण करने पर योजना पूर्ण होती है।

4. योजना को पूर्ण करना- कार्यक्रम बनाने के पश्चात् छात्र अपने लिए निर्धारित समूहों में अलग-अलग कार्यों में लग जाते हैं। वह स्वयं साधन जुटाते हैं तथा विभिन्न क्रियाओं; जैसे-अध्ययन, लेखन, गणित, पर्यटन, निरीक्षण, विचार-विमर्श, निर्माण और संग्रह पर आधारित विभिन्न क्रियाओं में जुट जाते हैं। शिक्षक का कार्य निरीक्षण करना तथा छात्रों द्वारा की जाने वाली गलतियों के सुधार के लिए जरूरी मार्गदर्शन करना है। शिक्षक को योजना का कार्य स्वयं नहीं करना चाहिए बल्कि सिर्फ मदद करनी चाहिए।

5. योजना का मूल्यांकन- योजना के पूर्ण होने पर छात्र तथा शिक्षक इस बात का मूल्यांकन करते हैं कि कार्य में कहाँ तक सफलता मिली? जिस उद्देश्य लेकर योजना का गठन किया गया था, वह कहाँ तक पूरा हुआ? इसके सामूहिक रूप से विचार किया जाता है इससे शिक्षक, छात्र तथा योजना सभी का मूल्यांकन होता है।

6. योजना का अभिलेख- योजना का आद्योपांत लेखा रखना भी जरूरी है। परिस्थिति निर्माण तथा चयन से लेकर योजना को पूर्ण करने की संपूर्ण प्रक्रिया, कठिनाइयाँ, निवारण की विधि, साधनों का उपयोग, समस्त शिक्षक तथा छात्र क्रियाओं आदि का क्रमबद्ध लेखा स्वयं छात्र तैयार करते हैं। संक्षेप में योजना से संबंधित सभी बातों का उल्लेख उसमें होता है।

उपरोक्त सभी पदों को संचालित करने तथा उन्हें संपन्नता की तरफ अग्रसर कराने में शिक्षक का स्थान महत्वपूर्ण होता है। उसे योजना के चयन के चयन से लेकर उसको पूर्ण करने तक छात्रों की रुचियों, क्षमताओं, योग्यताओ आदि का ध्यान रखते हुए संपूर्ण क्रिया को समन्वित करते रहना पड़ता है। इससे गलत दिशा में जाकर छात्रों के श्रम तथा समय की क्षति नहीं होने पाती, वरन् सभी छात्र इससे लाभ उठाते हैं। इसलिए इसमें शिक्षक को अपने विषय में दक्ष, मनोविज्ञान का ज्ञाता, सहयोग तथा सहानुभूति से पूर्ण एक कुशल मार्गदर्शक होना चाहिए।

योजना पद्धति के गुण-

योजना पद्धति छात्र को केन्द्र बिन्दु मानकर चलती है तथा मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है। इसके निम्न गुण हैं-

1. स्वतंत्रता- छात्रों को स्वतंत्रतापूर्वक सोचने, विचारने, निरीक्षण करने एवं कार्य करने का अवसर इस विधि में मिलता है।

2. जीवनोपयोगिता- योजनाएं जीवन हेतु उपयोगी होती हैं। इसलिए छात्र उनसे संबंधित क्रियाओं को आसानी से सीख लेते हैं।

3. सामाजिकता का विकास- इस विधि से सामाजिक भावना का विकास होता है, क्योंकि उन्हें परस्पर सहयोग से कार्य करना पड़ता है।

4. समस्या हल करने की योग्यता का विकास- योजना वास्तविक समस्याओं पर आधारित होती है। इसलिए छात्रों में समस्याओं को हल करने की योग्यता का विकास होता है !

5. सह-संबंध- यह विधि पाठ्यक्रम के विषयों के ज्ञान में संबंध स्थापित करती है एवं उसका संबंध दैनिक जीवन से भी स्थापित करती है।

6. श्रम की महत्ता समझना- समस्याओं को हल करने हेतु छात्रों को विभिन्न तरह के कार्य करने होते हैं। इसलिए छात्र श्रम का महत्व समझने लगते हैं

7. रटने की आदत नहीं पड़ती- इस विधि में छात्र स्वयं कार्य करके सीखता है। इसलिए इसमें रटने का कोई स्थान नहीं रहता।

8. व्यावहारिक कुशलता में वृद्धि- इसमें छात्र तथा शिक्षक दोनों क्रियाशील रहते हैं। इसलिए दोनों में व्यावहारिक कुशलता की वृद्धि होती है।

9. रसायन विज्ञान के प्रति प्रेम- इस विधि से छात्रों में रसायन विज्ञान के प्रति प्रेम-भाव बढ़ता है।

10. विभिन्न गुणों का विकास- इस विधि से छात्रों में धैर्य, आत्म-संतोष, आत्म-निर्भरता आदि गुणों का विकास होता है।

योजना विधि के दोष- उपयोगी होते हुए भी इस विधि के निम्न दोष हैं-

(1) यह बड़ी मँहगी विधि है, क्योंकि इसमें विभिन्न सामग्री, यंत्र, उपकरण, पुस्तकों आदि की जरूरत पड़ती है।

(2) इसके द्वारा विभिन्न विषयों के शिक्षण में क्रमबद्धता लाना संभव नहीं होता।

(3) इसमें जाँच तथा परीक्षा का कोई स्थान नहीं है।

(4) बड़ी कक्षाओं हेतु जहाँ छात्रों की संख्या ज्यादा हो, उपयुक्त योजनाओं का चुनाव करना कठिन होता है।

(5) सभी विषयों तथा पाठों को इस विधि से पढ़ाना संभव नहीं है।

(6) योजना को संपन्न कराने का भार अंत में शिक्षक पर आ पड़ता है, जिससे शिक्षक बँध सा जाता है।

(7) अगर शिक्षक सजग न रहे तो छात्र नकल करके या इधर-उधर पढ़-सुनकर रिपोर्ट तैयार कर लेते हैं।

(8) ज्ञान के स्थायित्व के लिए अर्जित ज्ञान का अभ्यास जरूरी है, लेकिन इस विधि में इसका अवसर नहीं मिलता।

हालांकि प्रोजेक्ट विधि भी दोषों से मुक्त नहीं है, लेकिन कुछ-न-कुछ दोष तो प्रत्येक शिक्षण विधि में पाये जाते हैं। जहाँ तक रसायन विज्ञान के उद्देश्यों की पूर्ति का प्रश्न है, इसके कुछ गुण इतने मूल्यवान हैं कि इसे जरूरी संसाधनों के साथ अपनाना भारतीय विद्यालयों में विशेषकर निम्न कक्षाओं में लाभप्रद सिद्ध हो सकता है। इसके अपनाने में मुख्य रूप से तीन कठिनाइयाँ आती हैं। प्रथम, यह खर्चीली है, दूसरी, इसके द्वारा विषयों का ज्ञान क्रमबद्ध नहीं होता तथा तीसरी, यह कि सभी स्तरों पर इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता।

इन कठिनाइयों को दूर करने हेतु इस विधि को स्वतंत्र रूप में न अपनाकर सहायक विधि के रूप में अपनाया जाना उचित है। इसके साथ योजनाओं का चयन ऐसा हो कि उससे व्यय के बदले कुछ आय हो सके; जैसे-औषधि बनाना,बम बनाना, कैमीकल बनाना तथा मिसाइलें बनाना आदि। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण जरूरत इस बात की है कि इसके लिए योग्य, परिश्रमी तथा उत्साही शिक्षकों की आवश्यकता है। इनके अभाव में इस पद्धति का क्रियान्वयन कठिन है।

11. पुस्तकालय विधि :

हर विद्यालय में रसायन विज्ञान प्रभाग का अलग से 'बुक बैंक' के अंतर्गत एक पुस्तकालय होता है, जिसके द्वारा छात्रों में स्वतंत्र रूप से वैज्ञानिक साहित्य पढ़ने की आदत का विकास हो सके। पाठ्य-पुस्तकों के अलावा ताजा समाचार भी पत्र-पत्रिकाओं तथा बुलेटिन आदि से प्राप्त किये जाते हैं। इससे छात्रों का दृष्टिकोण वैज्ञानिक बनता है। अपने ज्ञान को वातावरण से जोड़ने हेतु उसे दैनिक रसायन विज्ञान का ज्ञान भी अर्जित करना पड़ता है। संदर्भ पुस्तकों तथा नवीन शोधों पर आयु को ध्यान में रखते हुए पुस्तकों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-

1. छोटे छात्रों की दृष्टि से पुस्तकें तथा पत्रिकाएं- यह छोटी आयु वर्ग के छात्रों हेतु उपयोगी होती हैं।

2. माध्यमिक कक्षाओं के योग्य पुस्तकें- सेकेंडरी स्तर पर छात्रों में ज्ञान का स्तर ऊंचा हो जाता है एवं हर बात को तार्किक ढंग से देखता है। इसके स्तर की पाठ्य-पुस्तकों जिसमें रसायन विज्ञान का इतिहास,प्रसिद्ध वैज्ञानिकों की खोजें तथा जीवन परिचय संबंधी पुस्तकों और पत्रिकाओं का अनुशीलन करना चाहिए।

3. शिक्षकों की दृष्टि से पाठ्य-सामग्री- पुस्तकालय में उच्चकोटि के लेखकों की पाठ्य-पुस्तकें अध्यापकों के मार्गदर्शनार्थ भी रहना जरूरी है। रसायन विज्ञान विषय-वस्तु एवं रसायन विज्ञान-शिक्षण की पुस्तकें उन्हें दैनिक पाठ योजना को तैयार करने में मदद करती हैं।

इसके अतिरिक्त रसायन विज्ञान संबंधी कोष, अन्य ग्रंथ जो रसायन विज्ञान संबंधी सूचना देते हों एवं अध्यापक संदर्शिकाएं भी पुस्तकालय में होनी चाहिए तथा इनका अनुशीलन उन्हें करना चाहिए ताकि शिक्षण में आधुनिक पद्धति का प्रयोग किया जा सके।

पुस्तकालय का प्रबंध- पुस्तकालय की सफलता उसके प्रबंध पर निर्भर है। अतः प्रबंध की दृष्टि से निम्न बातों की तरफ ध्यान देना जरूरी है-

(1) पुस्तकों को उनके वर्गीकरण के अनुसार विभिन्न अलमारी अथवा खाने में रखना चाहिए तथा हर खाने में शीर्षक लिख देना चाहिए। इससे पुस्तकें चुनने में आसानी होती है।

(2) पुस्तकालय में पुस्तकों को लेने तथा लौटाने का समय निश्चित होना चाहिए।

(3) पुस्तकों की रक्षा का समुचित ध्यान रखना चाहिए। जीर्ण अवस्था में वह दूसरे के काम नहीं आतीं।

(4) पुस्तकालय में पुस्तकों की सूची रजिस्टर में अंकित की जानी चाहिए, ताकि रुचि के अनुरूप छात्र छाँट सकें।

(5) पुस्तकालय से संबंधित से जरूरी नियमों को पूर्व में ही बता देना चाहिए अथवा टाँग देना चाहिए।

पुस्तकालय में अध्यापक का सहयोग- आजकल सेकंडरी एवं हायर सेकंडरी स्तर पर 'बुक-बैंक' योजना के अंतर्गत रसायन विज्ञान क्लब का अध्यक्ष अच्छी पुस्तकें तथा पत्रिकाएं रखता है। शिक्षक का यह कर्तव्य है, कि वह छात्रों को उत्तम पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित करें तभी वह पुस्तकें एवं पुस्तकालय की उपयोगिता को समझेंगे। इसके साथ ही छात्रों को अच्छी पुस्तकें चुनने एवं पढ़ने की विधियों से परिचित भी कराना चाहिए। पुस्तक एवं पुस्तकालय को उपयोगी बनाने में शिक्षक की भी महती भूमिका होती है

आवश्यक पुस्तकों की सूची- रसायन विज्ञान के पुस्तकालय हेतु पुस्तकों की संपूर्ण सूची देना जरूरी है।

12. व्याख्यान विधि :

व्याख्यान विधि का प्रयोग प्राचीन काल से विज्ञान-शिक्षण में होता आ रहा है। पहले इस विधि का प्रयोग छोटी-बड़ी सभी कक्षाओं में होता था, लेकिन आधुनिक युग में इस विधि का प्रयोग उच्च कक्षाओं में ही उचित समझा जाता है। जब से मनोवैज्ञानिकों ने शिक्षकों का ध्यान इस तरफ केन्द्रित किया है कि बालकों को केन्द्र मानकर शिक्षा प्रदान कराना चाहिए तब से इस विधि का महत्व घट गया है।

आधुनिक-युग में व्याख्यान प्रणाली में सहायक सामग्रियों के प्रदर्शन आदि की प्रथा भी प्रचलित हो गई है। ऐसा इसलिए किया गया है कि व्याख्यान-प्रणाली रसायन विज्ञान-शिक्षण हेतु तब तक उपयुक्त नहीं हो सकती जब तक कि उसमें प्रयोगों को स्थान न दिया जाये।

गुण- निम्न हैं-

1. इस विधि के द्वारा थोड़े समय में विद्यार्थियों को ज्यादा बातें बतलायी जा सकती है

2. अध्यापक तथा छात्र दोनों को ही इस विधि से पूर्ण रूप से संतोष होता है।

3. व्याख्यान-विधि बहुत सरल तथा आकर्षक होती है।

4. पाठ्यक्रम को खत्म करने में सुगमता होती है।

5. कक्षा व्यवस्था बनाये रखने में मदद मिलती है।

दोष- निम्न हैं-

1. व्याख्यान विधि में बालक निष्क्रिय श्रोता बना रह जाता है तथा शिक्षा बालक को केन्द्र बनाकर नहीं दी जा सकती है।

2. निरीक्षण तथा तर्कशक्ति का विकास, जो रसायन विज्ञान-शिक्षण में बहुत अनिवार्य है, इस विधि द्वारा संभव नहीं।

3. इस विधि में रहने पर विशेष बल दिया जाता है तथा प्रयोगात्मक कार्यों का अवसर नहीं प्राप्त हो पाता है।

4. न तो बालकों की मानसिक तथा बौद्धिक शक्ति का पूर्ण विकास ही हो पाता है एवं ज्ञान प्राप्त करने में उनकी अभिरुचि पैदा होती है।

इस तरह हम देखते हैं कि कोरी व्याख्यान प्रणाली रसायन विज्ञान-शिक्षण में उपयोगी सिद्ध नहीं होगी। यही कारण है कि आधुनिक युग में व्याख्यान प्रणाली का उपयोग करते समय है शिक्षक प्रदर्शनी पर भी बल देते हैं। इन प्रदर्शनों के प्रयोग द्वारा एक तरफ बालक की अभिरुचि विषय के प्रति बढ़ती है तथा दूसरी तरफ उनकी निरीक्षण तथा तर्कशक्ति का विकास होता है। विज्ञान संबंधी ऐतिहासिक घटनाओं को सिर्फ व्याख्यान प्रणाली द्वारा पढ़ाया जा सकता है लेकिन अन्य चीजों को पढ़ाने हेतु व्याख्यान प्रणाली के साथ ही प्रदर्शन विधि का प्रयोग किया जाना जरूरी हैं।

13. प्रयोग-प्रदर्शन विधि :

इस विधि में अध्यापक पाठ्य विषय को पढ़ने के साथ-साथ उससे संबंधित प्रयोग प्रदर्शित करता है। प्रयोग-प्रदर्शन के साथ ही वह बीच-बीच में यह जानने हेतु कि छात्र पाठ में रुचि ले रहे हैं या नहीं, उनसे प्रश्न भी पूछता है। छात्र अध्यापक द्वारा किये गये प्रयोगों को बड़े ध्यानपूर्वक देखते हैं तथा निरीक्षण के आधार पर निष्कर्ष निकालते हैं।

प्रयोग-प्रदर्शन विधि में अध्यापक को बहुत सतर्क रहना पड़ता है। उसे कक्षा में जाने से पहले ही अभ्यास कर लेना चाहिए तथा विद्यार्थियों के कक्षा में प्रवेश करने से पहले प्रयोग संबंधी समस्त यंत्रों तथा वस्तुओं को अपनी मेज पर सजा लेना चाहिए। यंत्रों का आकार ज्यादा बड़ा नहीं होना चाहिए। अध्यापक द्वारा किये गये प्रयोग साधारण होने चाहिए। इन प्रयोगों को शीघ्र ही पूरा हो जाना चाहिए। विद्यार्थी परिणाम जानने हेतु बहुत उत्सुक होते हैं तथा अगर कक्षा में परिणाम न ज्ञात हुआ तो विद्यार्थी विषय में अभिरुचि नहीं लेते। प्रयोग इस तरह के होने चाहिए कि छात्र आगे अध्ययन हेतु प्रेरित हों।

गुण- निम्न हैं-

1. इस प्रणाली के प्रयोग से बालकों में विज्ञान के प्रति जिज्ञासा पैदा होती है तथा उनकी रुचि और तर्कशक्ति का विकास होता है।

2. ठीक ढंग से काम करने से इस विधि में समय की बचत होती है तथा काम कम समय में पाठ्य-विषय का ज्यादा भाग पूरा किया जा सकता है

3. यह प्रणाली व्याख्यान प्रणाली की बजाय ज्यादा उपयोगी है। व्याख्यान प्रणाली में मौखिक शिक्षा दी जाती है जिससे बालकों को विषय भली-भाँति स्पष्ट नहीं हो पाता। प्रयोग प्रणाली में विषय पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाता है।।

4. इस विधि में बालक सक्रिय रूप से भाग लेते हैं, अतएव छोटे बच्चों के शिक्षण के लिए यह विधि बहुत उपयोगी है।

दोष- निम्न हैं-

1. प्रयोग प्रदर्शन विधि में छात्र स्वयं यंत्रों तथा उपकरणों का प्रयोग नहीं करता एवं स्वयं प्रयोग करके सिद्धांतों का निरूपण नहीं करता, अत: उसे वास्तविक ज्ञान नहीं प्राप्त हो पाता।

2. इस विधि में हम पहले से ही यह अनुमान लगा लेते हैं कि बालक प्रदर्शन के हर भाग को समान रूप से देखने, सुनने तथा समझने की क्षमता रखते हैं। इस तरह की धारणा उचित नहीं है

3. इस विधि में पाठ्य-वस्तु के उसी भाग पर, जिसका प्रयोग द्वारा प्रदर्शन किया जा सकता है, ज्यादा बल दिया जाता है।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि प्रयोग-प्रदर्शन विधि में कुछ दोष जरूर हैं, लेकिन अगर इस विधि का प्रयोग व्याख्यान विधि के साथ किया जाता है, तो यह विधि जरूर ही उपयोगी होती है।

रसायन विज्ञान शिक्षण की कौन कौन सी विधियां है?

(1) छात्रों में मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करना। (2) छात्रों में वैज्ञानिक अभिरुचि तथा अभिवृद्धि पैदा करना। (3) छात्रों में 'स्वयं करके' भावना का विकास कर तथ्य को सीखना। (4) वैज्ञानिक ढंग से किसी तथ्य पर चिंतन कर निष्कर्ष निकालना।

रसायन विज्ञान की कौन सी विधि श्रेष्ठ है?

जिन्हें लक्ष्य - अणु अथवा औषध - लक्ष्य कहते हैं । समान संरचनात्मक विशेषताओं वाली औषधों की लक्ष्यों पर क्रियाविधि समान हो सकती है। लक्ष्य - अणुओं पर आधारित वर्गीकरण औषध रसायनज्ञों के लिए सबसे अधिक उपयोगी होता है।

रसायन विज्ञान शिक्षण क्या है?

रसायनशास्त्र, विज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत पदार्थों के संघटन, संरचना, गुणों और रासायनिक प्रतिक्रिया के दौरान इनमें हुए परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है। इसका शाब्दिक विन्यास रस + आयन है जिसका शाब्दिक अर्थ रसों (द्रवों) का अध्ययन है।

विज्ञान शिक्षण की सर्वोत्तम विधि कौन सी है?

30 अध्यापकों द्वारा व्याख्यान प्रदर्शन विधि को विज्ञान शिक्षण की सरल विधि माना गया है। इसका कारण यह है कि व्याख्यान प्रदर्शन विधि द्वारा अध्यापक का व्यवहारिक व बौद्धिक ज्ञान सरलता से विद्यार्थियों तक पहुँच जाता है ।