रामायण की पहली चौपाई कौन सी है? - raamaayan kee pahalee chaupaee kaun see hai?

चेतावनी: इस टेक्स्ट में गलतियाँ हो सकती हैं। सॉफ्टवेर के द्वारा ऑडियो को टेक्स्ट में बदला गया है। ऑडियो सुन्ना चाहिये।

जय श्री राम रामायण की पहली चौपाई बंद हो गुरु पद पदुम परागा सुरुचि सुबास सरस अनुरागा

Romanized Version

 रामायण की सर्वश्रेष्ठ आठ (8) चौपाई अर्थ सहित, रामायण की सिद्ध चौपाई

1. मंगल भवन अमंगल हारी

द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी॥1॥

भावार्थ:- जो मंगल करने वाले और अमंगल हो दूर करने वाले है, वो दशरथ नंदन श्री राम है वो मुझपर अपनी कृपा करे।॥1॥

*|| जय श्री राम ||*

रामायण की पहली चौपाई कौन सी है? - raamaayan kee pahalee chaupaee kaun see hai?
रामायण चौपाई

2. होइहि सोइ जो राम रचि राखा।

को करि तर्क बढ़ावै साखा॥2॥

भावार्थ:- जो भगवान श्री राम ने पहले से ही रच रखा है,वही होगा। हम्हारे कुछ करने से वो बदल नही सकता।॥2॥

*|| जय श्री राम ||*

3. हो, धीरज धरम मित्र अरु नारी

आपद काल परखिये चारी॥3॥

भावार्थ:- बुरे समय में यह चार चीजे हमेशा परखी जाती है, धैर्य, मित्र, पत्नी और धर्म।॥3॥

*|| जय श्री राम ||*

4. जेहिके जेहि पर सत्य सनेहू

सो तेहि मिलय न कछु सन्देहू॥4॥

भावार्थ:- सत्य को कोई छिपा नही सकता, सत्य का सूर्य उदय जरुर होता है।॥4॥

*|| जय श्री राम ||*

इसे भी पढ़े - Bhagavad Gita Slokas in sanskrit with meaning | भगवद् गीता संस्कृत श्लोका अर्थ सहित

5. हो, जाकी रही भावना जैसी

प्रभु मूरति देखी तिन तैसी॥5॥

भावार्थ:- जिनकी जैसी प्रभु के लिए भावना है उन्हें प्रभु उसकी रूप में दिखाई देते है।॥5॥

*|| जय श्री राम ||*

6. रघुकुल रीत सदा चली आई

प्राण जाए पर वचन न जाई॥6॥

भावार्थ:- रघुकुल परम्परा में हमेशा वचनों को प्राणों से ज्यादा महत्व दिया गया है।॥6॥

*|| जय श्री राम ||*

7. हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता

कहहि सुनहि बहुविधि सब संता॥7॥

भावार्थ:- प्रभु श्री राम भी अंनत हो और उनकी कीर्ति भी अपरम्पार है,इसका कोई अंत नही है। बहुत सारे संतो ने प्रभु की कीर्ति का अलग अलग वर्णन किया है।॥7॥

*|| जय श्री राम ||*

*रामायण की ज्ञानवर्धक चौपाई*

8. बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।

सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥

अमिअ मूरिमय चूरन चारू।

समन सकल भव रुज परिवारू॥8॥

भावार्थ:- मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥8॥

|| जय श्री राम ||

9. सुकृति संभु तन बिमल बिभूती।

मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥

जन मन मंजु मुकुर मल हरनी।

किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥9॥

भावार्थ:- वह रज सुकृति (पुण्यवान्‌ पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है॥9॥

|| जय श्री राम ||

10. श्री गुर पद नख मनि गन जोती।

सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥

दलन मोह तम सो सप्रकासू।

बड़े भाग उर आवइ जासू॥10॥

भावार्थ:- श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥10॥

|| जय श्री राम ||

11. उघरहिं बिमल बिलोचन ही के।

मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥

सूझहिं राम चरित मनि मानिक।

गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥11॥

भावार्थ:- उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं॥11॥

|| जय श्री राम ||

12. गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन।

नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥

तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन।

बरनउँ राम चरित भव मोचन॥12॥

भावार्थ:- श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥12॥

|| जय श्री राम ||

13. बंदउँ प्रथम महीसुर चरना।

मोह जनित संसय सब हरना॥

सुजन समाज सकल गुन खानी।

करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥13॥

भावार्थ:- पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूँ॥13॥

|| जय श्री राम ||

14. हरि हर जस राकेस राहु से।

पर अकाज भट सहसबाहु से॥

जे पर दोष लखहिं सहसाखी।

पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥14॥

भावार्थ:- जो हरि और हर के यश रूपी पूर्णिमा के चन्द्रमा के लिए राहु के समान हैं (अर्थात जहाँ कहीं भगवान विष्णु या शंकर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे बाधा देते हैं) और दूसरों की बुराई करने में सहस्रबाहु के समान वीर हैं। जो दूसरों के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और दूसरों के हित रूपी घी के लिए जिनका मन मक्खी के समान है (अर्थात्‌ जिस प्रकार मक्खी घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाए काम को अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं)॥14॥

|| जय श्री राम ||

15. तेज कृसानु रोष महिषेसा।

अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥

उदय केत सम हित सबही के।

कुंभकरन सम सोवत नीके॥15॥

भावार्थ:- जो तेज (दूसरों को जलाने वाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुण रूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिए केतु (पुच्छल तारे) के समान है और जिनके कुम्भकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है॥15॥

|| जय श्री राम ||

16. पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं।

जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥

बंदउँ खल जस सेष सरोषा।

सहस बदन बरनइ पर दोषा॥16॥

भावार्थ:- जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को (हजार मुख वाले) शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराए दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं॥16 ॥

|| जय श्री राम ||

17. भल अनभल निज निज करतूती।

लहत सुजस अपलोक बिभूती॥

सुधा सुधाकर सुरसरि साधू।

गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥ब्याधू॥17॥

18. गुन अवगुन जानत सब कोई।

जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥18॥

भावार्थ:- भले और बुरे अपनी- अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गंगाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात्‌ कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं, किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है॥17-18॥

 || जय श्री राम ||

19. मृदुल मनोहर सुंदर गाता।

सहत दुसह बन आतप बाता॥

की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ।

नर नारायन की तुम्ह दोऊ॥19॥

भावार्थ:- मन को हरण करने वाले आपके सुंदर, कोमल अंग हैं और आप वन के दुःसह धूप और वायु को सह रहे हैं क्या आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश- इन तीन देवताओं में से कोई हैं या आप दोनों नर और नारायण हैं॥19॥

|| जय श्री राम ||

20. देत लेत मन संक न धरई। 

बल अनुमान सदा हित करई॥

बिपति काल कर सतगुन नेहा।

श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥20॥

भावार्थ:- देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं॥20॥

 «Enjoyed this post? Never miss out on future posts by following us»

अधिक जानकारी के लिए अवश्य पढ़े॥ 

सम्पूर्ण रामायण की कहानी | Full Story of Ramayan in Hindi

आगे पढ़े॥ 

रामचरितमानस की पहली चौपाई कौन सी है?

रामचरितमानस प्रथम सोपान (बालकाण्ड) : मंगलाचरण वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि। मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।। 1।।

रामायण शुरू करने से पहले क्या बोलते हैं?

इस मंत्र के जाप से सभी पाप खत्म होते हैं और जीवन की परेशानियों से लड़ने शक्ति मिल सकती है। आदौ राम तपोवनादि गमनं, हत्वा मृगं कांचनम्। वैदीहीहरणं जटायुमरणं, सुग्रीवसंभाषणम्।। बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं, लंकापुरीदाहनम्।

रामचरितमानस में टोटल कितनी चौपाई है?

गोस्वामी तुलसीदास ने राममय होकर श्री रामचन्द्र जी के चरित्र का बखूबी से रामचरित मानस में वर्णन किया है। रामचरित मानस में राम शब्द 1443 बार आया है, सीता शब्द 147 बार आया है, इसमें श्लोक संख्या 27 है, मानस में चौपाई संख्या 4608 है, मानस में दोहा 1074 है, मानस में सोरठा संख्या 207 है और मानस में 86 छन्द है।

अयोध्या कांड की 8 चौपाई कौन सी है?

श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि।। जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए।।