पृथ्वी की सबसे ऊपरी जगह क्या है? - prthvee kee sabase ooparee jagah kya hai?

पृथ्वी की आंतरिक संरचना

  • पृथ्वी की आंतरिक संरचना को देखना संभव नहीं है। दक्षिण अफ्रीका की सबसे गहरी खान 4 किमी. और रूस का सबसे गहरा तेलकूप 6 किमी. की गहराई से अधिक नहीं है। पृथ्वी के केंद्र तक पहुँचने के लिए 6,400 किमी. गहरा छेद करना होगा, जो असंभव है।
  • जब पृथ्वी की इतनी अधिक गहराई का प्रत्यक्ष निरीक्षण ना करना अंसभव है तो पृथ्वी की आंतरिक संरचना की जानकारी प्राप्त करने के लिए अप्रत्यक्ष स्रोतों या प्रमाणों का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है- जैसे-
  1. घनत्व,
  2. पृथ्वी के अंदर दबाव,
  3. पृथ्वी के अंदर तापमान,
  4. पृथ्वी पर गिरने वाले उल्कापिंड और
  5. भूकंप विज्ञान।

पृथ्वी की सबसे ऊपरी जगह क्या है? - prthvee kee sabase ooparee jagah kya hai?

विश्व के प्रमुख द्वीप…

पृथ्वी की आंतरिक संरचना की जानकारी के आधार

घनत्व के आधार पर प्राप्त जानकारी
  • वैज्ञानिक यंत्रों की सहायता से पता लगाया जा चुका है कि समस्त पृथ्वी का औसत घनत्व 5.5 अपने आयतन वाले जल पिंड से 5.5 गुना अधिक वजन) है। भू-पृष्ठ पर जो चट्टानें मिलती हैं उनका घनत्व 3 से कम है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि भूगर्भ की चट्टानों का घनत्व 3 से बहुत अधिक है। तात्पर्य यह कि भू-पूष्ठ की संरचना हल्की चट्टानों से निर्मित हुई है और भू-गर्भ में जो पदार्थ या चट्टानें हैं वे भू-पृष्ठ की चट्टानों की अपेक्षा भारी हैं।
  • केंद्रीय भाग की चट्टानें ऊपर की चट्टानों से चार-पाँच गुना अधिक भारी हैं। पृथ्वी की आंतरिक संरचना के तहत पृथ्वी के अंदर चट्टानों का घनत्व क्रमशः बढ़ता गया है। इस आधार पर केंद्रीय पिंड में लोहा-निकेल जैसी धातुओं के होने का अनुमान लगाया जाता है।
दबाव के आधार पर प्राप्त जानकारी
  • पृथ्वी की आंतरिक संरचना ऊपरी भारी दबाव के कारण ही दबकर भारी हो गया। ज्यों-ज्यों हम पृथ्वी के अंदर प्रवेश करते हैं, ऊपरी चट्टानों का दबाव बढ़ता जाता है।
  • ऊपरी चट्टानें भीतरी चट्टानों पर दबाव डालती हैं और उनका घनत्व बढ़ा देती हैं, अतः यह अनुमान लगाया जाता है कि भू-गर्भ की चट्टानों पर सर्वाधिक दबाव पड़ता होगा और इस कारण वहाँ अत्यधिक घनत्व मिलता है।
  • किंतु, आधुनिक प्रयोगों द्वारा यह बात प्रमाणित की जा चुकी है कि प्रत्येक चट्टान में एक ऐसी सीमा होती है जिसके आगे उसका घनत्व नहीं बढ़ाया जा सकता, वह स्वयं भारी और अधिक घनत्व वाले पदार्थों से निर्मित है, लोहा और निकेल जैसे- भारी पदार्थ या धातुओं से। पृथ्वी का आंतरिक भाग निकेल और लोहे के मिश्रण से बना है। इस तथ्य से पृथ्वी की चुंबकीय दशा भी प्रमाणित हो जाती है।
तापमान के आधार पर प्राप्त जानकारी
  • भू-पृष्ठ से भू-गर्भ की ओर जाने पर सामान्यतया प्रति 32 मीटर पर 1°c की दर से तापमान में वृद्धि होती जाती है। पृथ्वी का भीतरी भाग तरल अवस्था में होना चाहिए, किंतु यह सर्वविदित है कि पदार्थों के पिघलने पर उनका आयतन बढ़ेगा और जब इसके लिए सुविधा न मिलेगी तो वे पदार्थ ठोस ही रह जाएँगे।
  • वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी तापीय अवस्था के बावजूद ठोस है, क्योंकि इस पर चारों ओर से दबाव है। भू-पृष्ठ के सभी भागों में एक-सा तापमान नहीं पाया जाता। उदाहरणार्थ, कोला प्रायद्वीप (रूस) में प्रति 150-160 मीटर की गहराई पर 1°c तापमान बढ़ता है।
  • दक्षिणी यूराल क्षेत्र में 200 मीटर की गहराई पर 300°c तापमान पाया गया। हो सकता है, नाभिकीय विखंडन के फलस्वरूप तापमान बढ़ा हो। यदि प्रति 32 मीटर की गहराई पर 1°c तापमान का बढ़ना माना जाए तो पृथ्वी के केंद्र में 200000°c से कम तापमान नहीं मिलना चाहिए, जो हास्यास्पद है, क्योंकि तब हमारी पृथ्वी गैस बनकर अंतरिक्ष में विलीन हो गई रहती।
  • 19 वीं सदी के अंत में गुटेनबर्ग ने अध्ययन कर बताया कि भू-पृष्ठ के नीचे तापमान कमोबेश एक-सा है और वह 4-5 हजार डिग्री से अधिक नहीं है। लुबिमोव नामक महिला वैज्ञानिक ने पृथ्वी के तापीय संतुलन का आकलन करते हुए बताया कि पृथ्वी दिनोंदिन गर्म होती जा रही है।
  • होम्स ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कि पृथ्वी के आंतरिक भाग से तापीय धाराएँ ऊपर की ओर अग्रसर होती हैं, जिससे पृथ्वी का ताप संतुलन बना हुआ है। तात्पर्य यह कि पृथ्वी के आंतरिक भाग में अधिक तापमान मिलता है जिसके कई कारण हो सकते हैं, जैसे आंतरिक शक्तियाँ, नाभिकीय विखंडन, रासायनिक प्रतिक्रियाएँ।
  • तापमान बढ़ने से आंतरिक भाग की चट्टानें जहाँ-तहाँ तरल अवस्था में भी हैं, जिसका प्रमाण ज्वालामुखी-उद्गार में भूराल (लावा) का निकलना है।
उल्कापिंडों से प्राप्त जानकारी
  • सौर परिवार के सदस्यों में पृथ्वी, ग्रहों के अतिरिक्त उल्का पिड भी आते हैं जो ग्रहों की उत्पत्ति के समय अलग होकर शून्य में फैल गए, ऐसा माना जाता है।
  • आकाश से असंख्य उल्कापिंड पृथ्वी पर गिरते रहे हैं और उन्हें देखकर पृथ्वी की संरचना का अनुमान लगाया गया है। चूँकि उल्काओं की रचना में निकेल और लोहे का महत्त्वपूर्ण अंश पाया जाता है, अतः पृथ्वी की रचना में भी ये अंश होंगे, यह निष्कर्ष निकलता है।
भूकंप-तरंगों या भूकंपविज्ञान से प्राप्त जानकारी
  • पृथ्वी की आंतरिक संरचना की सर्वाधिक जानकारी भूकंपीय-तंरगों के अध्ययन से मिली है। यह जानकारी अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। विज्ञान की उस शाखा को जो भूकंपो का अध्ययन करती है, ‘भूकंपविज्ञान’ कहते हैं।
  • भूकंप की तरंगों को अंकित करने के लिए जो यंत्र काम में लगाया जाता है, उसे भूकंपलेखी (सिस्मोग्राफ) कहते हैं। इस यंत्र द्वारा रेखांकित भूकंपीय तरंगों (सिस्मोग्राम) के अध्ययन से उन चट्टानों के प्रकार की जानकारी मिल जाती है जिनसे होकर भूकंपीय तरंगे गुजर चुकी होती हैं।
  • पृथ्वी के अंदर वह स्थान जहाँ से भूकंप की उत्पत्ति होती है या कंपन आरंभ होता है, ‘भूकंप-केंद्र कहलाता है। उसके ऊपर का धरातल जहाँ भूकंप-तरंगों का अनुभव सबसे पहले किया जाता है, ‘भूकंप-अधिकेंद्र कहलाता है।
  • भूकंप के दौरान पृथ्वी में कई प्रकार की तरंगे उत्पन्न होती हैं। इनके विभिन्न प्रकार के संचरण-वेग और अपनाए गए मार्गों से पृथ्वी की संरचना पर पर्याप्त प्रकाश डाला जा सकता है।

भूकंपी तरंगों के तीन प्रकार हैं-

  1. प्राथमिक या अनुदैर्घ्य (P तरंग के नाम से प्रचलित, P for primary or push)
  2. द्वितीयक या अनुप्रस्थ (S तरंग के नाम से प्रचलित, S for secondary or shake) और
  3. धरातलीय (L तरंग के नाम से प्रचलित, L for longitudinal or long surface)।
भूकंपीय छाया क्षेत्र
  • P तरंगों का संचरण-वेग सर्वाधिक होता है (प्रति सेकेण्ड 8 किमी.)। ये पृथ्वी के भीतर भूकंप-केंद्र से आरंभ होकर पृथ्वी के ठोस, तरल और गैसीय सभी प्रकार के क्षेत्रों को पार करती हुई भू-पृष्ठ के ऊपर अन्य किसी तरंग से पहले पहुँचती हैं। ये आगे-पीछे धक्का देती हुई, (Push करती हुई) आगे बढ़ती हैं।
  • “S” तंरगों की तुलना में इसकी गति 66% अधिक होती है। S तरंगों का संचरण-वेग अपेक्षाकृत कम होता है (प्रति सेकेण्ड 5-6 किमी.) । ये सिर्फ ठोस माध्यम से ही गुजर सकती हैं और अपनी धीमी गति के कारण भू-पृष्ठ पर P- तरंगों की अपेक्षा कुछ देर से पहुँचती हैं। ये आगे-पीछे धक्का न देकर ऊपर-नीचे, आड़े-तिरछे धक्का देती हैं, अतः अधिक खतरनाक होती हैं। इस लहर को विध्वसक लहर भी कहते हैं।
  • L तंरगों का संचरण-वेग अपेक्षाकृत कम होता है (प्रति सेकेण्ड 1.5 से 3 किमी. तक)। ये भूकंप-अधिकेंद्र से उत्पन्न होकर हल्के के रूप में आगे बढ़ती हैं और धरातल पर ही सीमित रहती हैं।
  • ये सर्वाधिक धीमी चाल के कारण किसी स्थान पर अन्य दोनों तरंगों के बाद, अर्थात सबसे पीछे पहुँचती हैं, किंतु सर्वाधिक खतरनाक मानी जाती हैं, क्योंकि सर्वाधिक धक्के इन्हीं से लगते हैं।
  • यदि पृथ्वी का निर्माण एक ही प्रकार के पदार्थ से हुआ होता या इसकी संरचना में समान घनत्व वाली ठोस चट्टानें ही रही होती तो भूकंप तरंगों का संचरण-वेग और मार्ग सभी स्थानों पर एक-सा और सीधा होता। किंतु, इन भूकंपीय तंरगों के निरीक्षण से पता चलता है कि वास्तविक स्थिति कुछ और है।
  • अधिक गहराई में से गुजरने वाली तरंगों को अधिकेंद्र तक पहुँचने में लंबी दूरी के बावजूद अपेक्षाकृत कम समय लगता है। अधिक गहराई के साथ तरंगों का संचरण-वेग बढ़ जाता है। (50 किमी. की गहराई पर संचरण-वेग प्रति सेकेण्ड 30 किमी. हो जाता है।
  • भूकंपीय तरंगों का सिद्धांत है कि उनकी गति कम घनत्व के माध्यम में कम हो जाती है और अधिक घनत्व के माध्यम में अधिक। दूसरे शब्दों में, माध्यम का घनत्व जितना ही अधिक होगा, भूकंपी तंरगों की गति उतनी ही अधिक होती जाएगी।
  • अतः निष्कर्ष यह निकलता है कि पृथ्वी के ऊपरी भागों से आंतरिक भागों के भौतिक गुणों में भिन्नता है और आंतरिक भागों की संरचना निस्संदेह अधिक घनत्व वाले पदार्थों से हुई है।
  • भू-पृष्ठ की संरचना अपेक्षाकृत कम घनत्व वाले (हल्के) पदार्थों से निर्मित हुई है। अधिक गहराई से गुजरने पर तंरगों को वक्राकार मार्ग अपनाना पड़ता है। पृथ्वी के केंद्र की ओर तंरगों के मार्ग उत्तल हो जाते हैं।
  • यात्रा के दौरान ये तरंगें जिन पदार्थों से होकर गुजरती हैं उनके विषम होने के कारण मुड़ जाती हैं। कुछ तरंगें कुछ गहराई तक जाने के बाद धरातल की ओर लौट आती हैं, परावर्तित हो जाती है, और धरातल पर पहुँचकर आंशिक रूप से पुनः गहराई की ओर परावर्तित होती हैं।
  • परावर्तित होकर ये कभी-कभी दोबारा ही नहीं, तीसरी या चौथी बार धरातल पर पहुँचती हैं। इससे भू-पृष्ठ की चट्टानों की बनावट और उनके घनत्व में अंतर का आभास मिलता है।
  • S तरंगें अधिकेंद्र (epicentre) से 120° की दूरी पर लुप्त हो जाती हैं, अर्थात पृथ्वी के केंद्रीय भाग में अनुपस्थित रहती हैं और P तंरगे बहुत क्षीण पड़ जाती हैं।
  • S तरंगों का सिद्धांत यह है कि वे तरल माध्यम से नहीं गुजर सकतीं। अतः, यह अनुमान लगाया जाता है कि पृथ्वी का केंद्रीय भाग द्रवावस्था में होगा।
  • ओल्डहम ने इसी आधार पर कहा था कि 2,900 किमी. की गइराई के बाद पृथ्वी का केंद्रीय भाग तरल है। P तरंगों के क्षीण पड़ने का कारण भी चट्टानों का द्रवावस्था में होना सिद्ध करता है।
  • भूकंपी तंरगों के अध्ययन से ये बातें स्पष्ट होती हैं कि भू-पृष्ठ विषय चट्टानों से निर्मित है। ग्रेनाइट चट्टानें 10 किमी. तक हैं इससे 20-25 किमी. की मोटाई तक बैसाल्ट चट्टानें पाई जाती हैं। बेसाल्ट चट्टानों के नीचे पेरिडोटाइट या ड्यूनाइट का फैलाव है जो उपर्युक्त दोनों तहों से अधिक मोटी है।
  • भू-पृष्ठ के नीचे लगभग 2,900 किमी. की गहराई तक उपस्थित पदार्थ एक समान हैं। इनका घनत्व अधिक है। लगभग 3,500 किमी. अर्द्धव्यास वाले केंद्रीय पिंड का गुण भू-पृष्ठ से भिन्न है।
  • केंद्रीय पिंड तरल अवस्था में हैं, किंतु इसके और भू-पृष्ठ के बीच का भाग न पूरी तरह तरल है और न पूरी तरह ठोस है। बढ़ती हुई गहराई के साथ तरंग-गति में निरंतर वृद्धि से भीतरी भाग के माध्यमों का क्रमशः घना होते जाना (घनत्व में वृद्धि) निश्चित है।
  • P तरंगें पृथ्वी के केंद्रीय पिंड में प्रवेश करते समय और उससे निकलने समय अपवर्तित हो जाती हैं, मुड़ जाती हैं और अधिकेंद्र की विपरीत दिशा में धरातल पर आ जाती हैं। इससे धरातल पर एक ऐसा भाग छूट जाता है जहाँ अधिकेंद्र से कोई भूकंपी तंरग नहीं पहुँच पाती। यह भाग ‘भूकंप का छायाक्षेत्र’ कहलाता है। तलछटी चट्टानों के नीचे पृथ्वी की तीन परतें हैं-
  1. ऊपरी परत (जिसे स्वेस ने सियाल (sial कहा)
  2. मध्यवर्ती परत (जिसे स्वेस ने सिमा (sima नाम दिया)
  3. सबसे भीतरी पिंड (जिसके लिए निफे (nife शब्द गढ़ा गया)
सिआल (Sial)
  • ऊपरी तलछटी चट्टानों के नीचे जो परत मिलती है, उसमें मुख्यतः ग्रेनाइट चट्टान मिलती है। इसमें सिलिका और ऐलुमिनियम (aluminium) तत्त्वों की प्रधानता है। इन दोनों तत्त्वों के रासायनिक संकेतों (क्रमशः si और al) के जोड़ से sial शब्द बना है। इसमें अम्लीय पदार्थों की प्रधानता है।
  • इस परत का घनत्व 2.7 से 2.9unit तक है। इसकी औसत गहराई वे 50 से 300 किमी. तक मानते हैं। महाद्वीपों की रचना इसी सियाल से हुई मानी जाती है। ऊपरी क्रस्ट एवं निचले क्रस्ट के बीच घनत्व संबंधी असंबहरता ‘कोनराड असंबद्धता कहलाती है।
सीमा (Sima)-
  • यह सियाल के नीचे पायी जाने वाली परत है। मुख्यतः बेसाल्ट चट्टान मिलती है जिसमें सिलिका एवं मैग्नीशियम (magnesium) तत्त्वों की प्रधानता है। इन दोनों के प्रांरभिक अक्षरों से sima शब्द बना है।
  • इस परत में क्षारीय पदार्थों की अधिकता है। इसका घनत्व 2.9 से 4.7 unit तक है। इसकी गहराई 1,000 से 2,000 किमी. तक मानी गई है। इसी परत से ज्वालामुखी विस्फोट के समय लावा बाहर आता है।
  • इस परत में घनत्व में परिवर्तन की खोज 1909 ई॰ में रूसी वैज्ञानिक ए. मोहोरोविकिक ने की। अतः इस असंबद्धरता को ‘मोहो-असंबध्रता’ भी कहते है।

पृथ्वी की सबसे ऊपरी जगह क्या है? - prthvee kee sabase ooparee jagah kya hai?

नीफे (Nife)-
  • यह पृथ्वी का सबसे भीतरी या केंद्रीय भाग है जिसकी रचना निकेल (nickel) और फेरम (ferrum), अर्थात लोहे-जैसे घने और भारी पदार्थों से हुई है।
  • इसका नामकरण इनके प्रथम दो अक्षरों (ni और fe) को लेकर किया गया है। इसका औसत घनत्व 12unit के आसपास है। इसका अर्द्धव्यास लगभग 3,500 किमी. है।
  • इसमें उपस्थित चट्टानों के घनत्व में एकाएक परिवर्तन हो जाता है, जिससे एक प्रकार की असबद्धता उत्पन्न होती है। इसे ‘गुटेनबर्ग-विशार्ट असंबद्धता’ भी कहते है।
डैली के विचार
  • ब्रिटिश भूगर्भशास्त्री डैली ने घनत्व के आधार पर पृथ्वी की संरचना पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। उनके विचार से पृथ्वी के तीन आवरण हैं-
  1. ऊपरी आवरण, जिसका औसत घनत्व 3 है। इस आवरण की मोटाई 1,600 किमी. है। इसका निर्माण सिलिकेटों से हुआ है। (ग्रेनाइट चट्टानों के नीचे टैचिलाइट चट्टानों की खोज इन्होंने ही की।)
  2. मध्यवर्ती आवरण, जिसका औसत घनत्व 4.5 से 9unit तक है। इस आवरण की मोटाई 1,280 किमी. है। इसका निर्माण सिलिकेटों और लौह पदार्थों के मिश्रण से हुआ है।
  3. केंद्रीय भाग, जिसका औसत घनत्व 11.6 है। अधिक घनत्व होने का कारण लोहे और निकेल की अधिकता है। केंद्रीय भाग का व्यास 7,040 किमी. है।
जेफ्रीज के विचार
  • ब्रिटिश खगोलज्ञ जेफ्रीज ने पृथ्वी की आंतरिक संरचना के संबंध में अपने विचार भूकंपी तरंगों के आधार पर दिए हैं। उन्होंने पृथ्वी को चार परतों में बाँटा-
  1. पहली या तलछटी परत (First layer), जो परतदार या अवसादी चट्टानों से निर्मित है। यह लगातार पूरे धरातल पर नहीं पाई जाती है।
  2. बाह्म परत (Outer layer), जो ग्रेनाइट चट्टानों से निर्मित है। महासागर की अपेक्षा महाद्वीपों में इसकी मोटाई अधिक है, 15 किमी. तक।
  3. मध्यवर्ती परत (Intermediate layer), जो बेसाल्ट जैसी चट्टानों से निर्मित है। ज्वालामुखी के सहारे समय-समय पर लावा के रूप में धरातल पर इसी का पिघला पदार्थ आ पहुँचता है। इसकी गहराई 30 किमी. तक है।
  4. निम्न परत (Lower layer), जो अधिक घनत्व वाली चट्टानों से निर्मित है, जैसे ड्यूनाइट या पेरिडोटाइट से। इन चट्टानों को Olivine rocks कहा गया है और ये शीशे की तरह (Glassy) हैं। इसकी गहराई 2,900 किमी. तक है।
  5. केंद्रीय पिंड जो पूर्णतः ठोस नहीं है। यह संभवतः तरल लोहे से बना है। यह धात्विक पिंड है।
होम्स के विचार
  • ब्रिटिश भूगर्भवेत्ता होम्स ने पृथ्वी की आंतरिक संरचना के संबंध में समस्त Sial और ऊपरी Sima परतों को मिलाकर उसके लिए Crust अर्थात भू-पृष्ठ नाम दिया।
  • साथ ही sima के निचले भाग को sub-stratum, अर्थात् अधःस्तर नाम दिया। भू-पृष्ठ और अधः स्तर- दो विभागों में बाँटकर उन्होंने पहले को हल्का और दूसरे को भारी बताया।
  • होम्स ने बताया कि भू-पृष्ठ (crust) की अपेक्षा अधःस्तर में अधिक ताप बना रहता है, अतः वह द्रवावस्था में है। उन्होंने ताप की संवहनीय धाराएँ ऊपर की ओर उठते रहने की भी चर्चा की।
  • महाद्वीपों के नीचे सिएल (sial) की गहराई एक-सी नहीं मिलती। यह 15 से 30 किमी. तक रहती है। गहराई आँकने के लिए होम्स ने जिन विभिन्न साधनों एवं प्रमाणों का सहारा लिया, वे निम्न हैं।
  1. तापीय तर्कों द्वारा- 20 किमी. तक या कम
  2. धरातलीय भूकंपीय तरंगों द्वारा- 15 किमी. से अधिक
  3. प्राथमिक भूकंपीय तरंगों द्वारा- 20 से 30 किमी. के मध्य
  4. पृथ्वी के आंतरिक भाग में स्थित भूसन्नति के धँसाव द्वारा- 20 किमी. से अधिक
ग्राक्ट के विचार
  • पृथ्वी की आंतरिक संरचना के संबंध में जर्मन वैज्ञानिक वान डर ग्राक्ट के विचार निम्नांकित हैं-
  1. ऊपरी सिलिकेट कटिबंध, जिसकी मोटाई 60 किमी. है।
  2. महाद्वीपों के नीचे इसकी पूर्ण मोटाई मिलती है जहाँ वह इससे भी अधिक हो सकती है।
  3. प्रशांत महासागर के नीचे यह 10 किमी. और अटलांटिक महासागर के नीचे 20 किमी. है। इस कटिबंध का घनत्व 2.7 से 2.9unit है। इसका निर्माण ऑक्सीजन, सिलिकेट, पोटैशियम, सोडियम और ऐलुमिनियम द्वारा हुआ है।
  4. भीतरी सिलिकेट कटिबंध, जिसकी गहराई 60 से 1,140 किमी. तक मानी जा सकती है। इसका घनत्व 3 से 4.7 तक है। इसका निर्माण मुख्यतः ऑक्सीजन, सिलिकेट, मैग्नीशियम एवं लोहा से हुआ है।
  5. सिलिकेटों और धातुओं का मिश्रित कटिबंध, जिसकी मोटाई 11,700 किमी. मानी जा सकती है। (1,140 से 2,900 किमी. की गहराई तक)।
  6. इसका घनत्व 4.7 से 5unit तक है। जिन पदार्थों से इसका निर्माण हुआ है, उनमें लोहा, निकेल और मैग्नीशियम मुख्य है।
  7. धात्विक केंद्र, जो 2,900 किमी. से 6, 378 (लगभग 6,400) किमी. की गहराई तक मिलता है। यह पृथ्वी का केंद्रीय भाग है और भारी धातुओं से निर्मित है। इसका घनत्व 11unit से भी अधिक है।
मोहोरोविकिक और गुटेनबर्ग के विचार
  • पृथ्वी की आंतरिक सरंचना के संबंध में युगोस्लाविया के वैज्ञानिक मोहोरोविकिक और पश्चिमी देशों के ही प्रसिद्ध वैज्ञानिक गुटेनबर्ग ने नवीनतम खोजों के आधार पर पृथ्वी को पाँच परतों में वर्गीकृत किया है-
  1. परतदार परत, जिसका वितरण महीद्वीपों और महासागरों पर समान नहीं है।
  2. ग्रेनाइट परत, जो महाद्वीपों में मिलती है, किंतु महासागरों में नहीं। उपर्युक्त दोनों परतों की मोटाई 15 से 30 किमी. है।
  3. अल्प सिलिक परत, जिसमें ग्रेनाइट की जगह बेसाल्ट चट्टानें होती हैं।
  4. अत्यल्प सिलिक परत, जो भू-क्रोड के ऊपर की परत है। इसमें बेसाल्ट की जगह धात्विक चट्टानें मिलने लगती हैं।
  5. भू-क्रोड, जिसमें धात्विक खनिजों की प्रधानता होती है। सर्वाधिक घनत्व (11 से 17unit तक) इसी परत में मिलता है।
  • भूकंपीय तंरगों से पृथ्वी के आंतरिक भाग की जो जानकारी मिलती है, उसके आधार पर उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पृथ्वी की परतों और उनकी मोटाई के संबंध में विद्वानों में मतभेद है।
  • भूकंपीय तंरगों और विद्वानों के प्रकट किए गए विचारों को ध्यान में रखते हुए हम पृथ्वी की आतंरिक संरचना की सरल रूपरेखा इस तरह प्रस्तुत कर सकते हैं।
  • पृथ्वी को तीन संकेंद्री परतों में बाँटा जा सकता है, जिनके नाम (मोटाई और घनत्व समेत) इस प्रकार हैं-
परतें मोटाई घनत्व (unit)
भू-पृष्ठ (crust) 35 किमी. 2.7-2.9
भूप्रावार (mantle) 2900 किमी. 3.0-5.0
भूक्रोड (core) 3500 किमी. 5.0-17.0
भू-पृष्ठ (Crust)
  • यह पृथ्वी का बाहरी आवरण या इसकी ऊपरी परत का निर्माण करता है। यह ठोस है और विविध प्रकार की चट्टानों से निर्मित है। सबसे ऊपरी भाग में तलछटी (अवसादी/परतदार) चट्टानें मिलती है जो पूरे भू-पृष्ठ पर लगातार एक समान नहीं हैं। तलछटी चट्टानें महासागरों पर नगण्य हैं और महाद्वीपों पर प्रायः 3 किमी. की गहराई तक मिलती हैं।
  • तलछटी चट्टानों की सर्वाधिक मोटाई मोड़दार पर्वतों में मिलती है। तलछटी चट्टानों के नीचे रवेदार चट्टानें मिलती हैं। ग्रेनाइट और नीस इसके उदाहरण हैं। इनकी रासायनिक बनावट इस प्रकार है- सिलिका एवं एल्यूमिनियम जिसे sial लिखकर व्यक्त किया जाता है।
  • ग्रेनाइट-नीस हल्की चट्टानें हैं (अर्थात इनका घनत्व बहुत कम है 2.7unit)। ग्रेनाइट के नीचे बेसाल्ट चट्टानें मिलती हैं, जिनका विशिष्ट घनत्व 3unit है।
  • तलछटी चट्टान और ग्रेनाइट चट्टान के मध्य की सीमारेखा का कोई नाम नहीं है, किंतु ग्रेनाइट और बेसाल्ट परतों के बीच की सीमारेखा को कोनराड अंतराल नाम दिया गया है। इसी तरह बेसाल्ट की निचली सीमा, जो भू-पृष्ठ को भूप्रावार से अलग करती है, मोहो अंतराल (Moho/Mohorovicic discontinuity or M-layer) कहलाती है।
  • मोहो अंतराल के नीचे भूकंपी तरंगें तीव्र गति से प्रवेश करती हैं। महाद्वीप के नीचे मोहो अंतराल 40 किमी. की गहराई पर मिलता है। इसके विपरीत महासागर के नीचे यह समुद्रतल से 10-12 किमी- नीचे मिलता है, क्योंकि वहाँ भू-पृष्ठ पतला है।
  • महाद्वीपों के नीचे 40 से 60 किमी. की गहराई पर और महासागरों के नीचे 5 से 10 किमी. की गहराई पर एक रहस्यमय पदार्थ मिलता है जो हमें आश्चर्य में डाल देता है। इसे सभी चट्टानों का पूर्वज माना जा सकता है, क्योंकि इसके द्रवित भाग से ही आग्नेय चट्टानें भू-पृष्ठ पर आती हैं। यह पिघला हुआ भाग भू-पृष्ठ की सीमारेखा से बाहर है।
  • 100 किमी. की गहराई तक का भू-भाग, अर्थात समस्त भू-पृष्ठ और ऊपर भूप्रावार का कुछ भाग, जो ठोस है, मिलकर स्थलमंडल (lithoshhphere) का निर्माण करते हैं।
  • 100 से 250 किमी. की गहराई वाला भाग, जो आंशिक रूप में द्रव या तरल है, दुर्बलता-मंडल (asthenoshpere or low-velocity layer) कहलाता है। ज्वालामुखी क्रिया, समुद्रतल का प्रसार और प्लेट विवर्तनिकी से इसका संबंध है, अतः यह महत्त्वपूर्ण मंडल परत है।

पृथ्वी का आंतरिक भाग

भूप्रावार (Mantle)
  • यह पृथ्वी का मध्यवर्ती आवरण या इसकी मध्यवर्ती परत है, जिसकी मोटाई 2,800 से 2,900 किमी. है। इसमें समस्त पृथ्वी का 70 प्रतिशत द्रव्यमान है और इसका आयतन समस्त पृथ्वी के आयतन का 83 प्रतिशत है। यह घनी क्षारीय चट्टानों से निर्मित है।
  • अलग-अलग खनिज-समूह मिलने के आधार पर इसके कई उपविभाए किए जा सकते हैं, किंतु जिन दो मुख्य विभागों में इसे बाँटा जाता है, उनके नाम हैं:
  1. ऊपरी भूप्रावार (upper mantle) या ऊपर-स्थित दुर्बलमंडल (asthenosphere)
  2. भीतरी भूप्रावार (lower mantle) या नीचे-स्थित मध्यमंडल (mesosphere)
  • ऊपरी भूप्रावार (upper mantle) में भूकंपी तरंगों का वेग एक-सा नहीं मिलता। मोटे तौर पर 100 किमी- तक का भाग निम्न वेग का है और यह आंशिक रूप से पिघला हुआ है, प्लास्टिक-जैसी दशा में है।
  • कहीं-कहीं 150 से 200 किमी. गहराई तक इसका विस्तार है। इसके बाद ठोस- जैसी दशा मिलती है, जहाँ भूकंपी तंरगों का वेग क्रमशः बढ़ने लगता है।
  • यह दशा 400 से 700 किमी. की गहराई तक भूकंपी तंरगों के वेग में एकाएक तेजी से वृद्धि होती है। प्रावार का यह भाग गोलित्सीन परत (Golitsyn layer) के नाम से जाना जाता है (रूसी वैज्ञानिक गोलित्सीन के नाम पर)।
  • यह भाग पृथ्वी के गहरे भूकंपों का केंद्र (Centre of the Greatest deep-focus Earthquake) है।
  • 700 से 1,200 किमी. तक का भाग शांत मिलता है जिसे कोई नाम नहीं दिया गया है। यहीं से भीतरी भू-प्रवार का आंरभ होता है। जो 2,900 किमी. की गहराई पर जाकर समाप्त हो जाता है।
  • इसमें भूकंपी तरंगें एक-सी चलती है। (12.5 किमी. प्रति सेंकड की दर से)। भीतरी भूप्रावार (Lower mantle) को भूक्रोड से अलग करने वाली सीमारेखा को गुटेनबर्ग अंतराल (Guttenberg discontinuity) कहा गया है। भीतरी भूप्रावार को ‘मध्यमंडल’ की संज्ञा दी गई है। यह ठोस अवस्था में माना जाता है।
  • रासायनिक संरचना की दृष्टि से प्रावार sima से निर्मित है, ऊपरी भूप्रावार आंशिक रूप से और भीतरी भूप्रावार पूर्णरूप से। ऊपरी भूप्रावार में सिलिकेट और मैग्नीशियम हैं तो भीतरी प्रावार में अतिक्षारीय चट्टानें (Ultra basic rocks) हैं।
  • ऊपरी प्रावार का घनत्व 3.0 से 3.5unit है और भीतरी प्रावार का 4.5 से 5.0 तक। ऊपरी और भीतरी प्रावारों के घनत्व में वृद्धि का कारण लोहा तथा मैग्नीशियम जैसे भारी खनिजों की प्रधानता है।
पृथ्वी के पर्पटी के प्रमुख तत्व
संख्या पदार्थ वजन के अनुसार (%)
1- ऑक्सीजन 46.60
2- सिलिकन 27.72
3- एल्यूमीनियम 8.13
4- लौह 5.00
5- कैलशियम 3.63
6- सोडियम 2.83
7- पोटैशियम 2.59
8- मैग्नेशियम 2.09
9- अन्य 1.41
भूक्रोड (Core)
  • यह पृथ्वी का केंद्रीय भाग है, जिसकी मोटाई 3,500 किमी. (अर्द्धव्यास 1,750 किमी.) है। निकेल और लोहा से बने होने के कारण ही इसे nife कहा गया है (स्वेस द्वारा दिया गया नाम)। इसका घनत्व 5 से 13unit है। वैज्ञानिकों ने आकलन कर बताया है कि भूक्रोड का क्षेत्रफल (सतही क्षेत्र) 14.8 करोड़ वर्ग किमी. है।
  • पृथ्वी के सभी महाद्वीपों का क्षेत्रफल भी इतना ही है। यह साम्य आश्चर्यजनक है। किंतु, इसे संयोग ही माना जाए।
  • भूक्रोड गुटेनबर्ग अंतराल द्वारा भूप्रावार से अलग होता है। भूकंपी तरंगों का वेग 12.5 से एकाएक घटकर 8.5 km प्रति सेंकड हो जाता है।
  • इस आंतरिक भाग को केवल P तरंगें ही पार कर पाती हैं, S और L तरंगे बिलकुल नहीं। 2,200 किमी. पार करने पर (अर्थात पृथ्वी की ऊपरी सतह से लगभग 5,100 किमी. की गहराई पर) P तरंगों का वेग थोड़ा बढ़ने लगता है, जिससे अनुमान लगाया जाता है कि भूक्रोड का भीतरी भाग ठोस है। अत्यधिक दाब के कारण शायद तरल अवस्था में पड़ी धातुएँ जमकर ठोस हो गई हों।
  • इस तरह, भूक्रोड दो उपविभागों में विभक्त हो जाता है-
  1. ऊपरी या बाहरी भूक्रोड (Outer Core)
  2. भीतरी या केंद्रीय भूक्रोड (Inner Core)
  • ऊपरी क्रोड की मोटाई 2,200 किमी. है और यह तरल अवस्था में है। भीतरी क्रोड की मोटाई 1,200 किमी. है और यह मुख्यतः ठोस (या अंशतः तरल) है।
  • पृथ्वी के अंदर सर्वाधिक घनत्व और तापमान यहीं मिलता है। अनुमान है, अधिकतम तापमान 5,500°c हो। आधुनिक खोजों से पता चला है कि केंद्रीय पिंड का घनत्व इतना अधिक नहीं है कि वहाँ लोहा और निकेल जैसे धात्विक पदार्थ हों, बल्कि वहाँ हल्के पदार्थ (जैसे- silicon) हैं।
  • बाहरी क्रोड में लोहा एवं निकेल का अनुपात 70-80 प्रतिशत हो सकता है एवं सिलिका का 20 या 30 प्रतिशत। भूक्रोड की वास्तविक स्थिति के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहना अब भी कठिन है।
  • पुरस्कार विजेता भूभौतिक वैज्ञानिक मालोडेंसकी (Molodensky) ने भू-वैज्ञानिक कालों में ध्रुवों की स्थिति में आए बदलावों का अध्ययन करते हुए बताया है कि ध्रुवों की स्थिति तभी बदल सकती है जब पृथ्वी का केंद्रीय भाग द्रवावस्था में हो।
  • जो हो, भूकंपविज्ञान के आधार पर निष्कर्ष यही निकलता है कि भूक्रोड द्रवावस्था में है। हाँ, अत्यधिक गहराई पर अत्यधिक तापमान के बावजूद अत्यधिक दबाव के कारण उसके ठोस होने से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
  • संभवतः, वहाँ चट्टानें प्लास्टिक अवस्था में हों, अर्थात उनमें लचीलापन हो। वस्तुतः पृथ्वी के केंद्र पर 17 लाख मिलीबार वायुमंडलीय दबाव एवं 6000, तापमान होने के कारण लोहे और निकेल के परमाणुओं से कुछ इलेक्ट्रॉन मुक्त हो जाते हैं। इनका प्रवाह निंरतर ऊपर की ओर होता रहता है और सतह से विकिरण भी होता है।
  • धातुओं के परमाणु धन आवेशित होने के कारण परस्पर विकर्षित करते हैं जबकि उनमें गुरूत्वाकर्षणीय आकर्षण भी होता है। पदार्थ की ऐसी अवस्था जिसमें ठोस पदार्थों की भाँति आकर्षण और गैसीय कणों की भाँति परस्पर विकर्षण हो उसे ‘प्लाज्मा’ कहा जाता है।
  • यह पदार्थ की ठोस, द्रव, गैस अवस्थाओं के अतिरिक्त चौथी अवस्था है, अर्थात पृथ्वी का केंद्रीय भाग प्लाज्मा अवस्था में है। ज्ञातव्य है कि प्रत्येक जीव के सेल में यही स्थिति है। इसीलिए सेल के भीतर के पदार्थ को प्रोटोप्लाज्म, अर्थात प्रांरभिक प्लाज्मा कहते हैं।

अंटार्कटिका महाद्वीप…

पृथ्वी के सबसे ऊपरी परत का क्या नाम है?

भूपर्पटी भूपर्पटी पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत है जिसकी औसत गहराई २४ किमी तक है और यह गहराई ५ किमी से ७० किमी के बीच बदलती रहती है।

पृथ्वी की तीन परतें कौन सी है?

Solution : पृथ्वी की तीन परतों के नाम हैं-1. भूपर्पटी, 2. प्रवार, 3. क्रोड।

वायुमंडल की सबसे ऊपरी परत को क्या कहते हैं?

वायुमंडल के निचले भाग को (जो प्राय: चार से आठ मील तक फैला हुआ है) क्षोभमंडल, उसके ऊपर के भाग को समतापमण्डल और उसके और ऊपर के भाग को मध्य मण्डल और मध्य मण्डल से ऊपरी भाग को आयनमंडल कहते हैं। क्षोभमंडल और समतापमंडल के बीच के भाग को क्षोभसीमा और समतापमंडल और मध्यमंडल के बीच के भाग को समतापसीमा कहते हैं।

पृथ्वी की सबसे बाहरी व ऊपरी परत को क्या कहते हैं?

Notes: पृथ्वी के सबसे बाहरी हिस्से को भूपर्पटी कहा जाता है, भूपर्पटी के बाद मेंटल स्थित है। मेंटल के बाद कोर स्थित है।