अपठित गदयांश क्या है? अपठित गदयांश हल करते समय ध्यान देने योग्य बातें- उदाहरण निम्नलिखित गदयांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए- 1. भारतीय धर्मनीति के प्रणेता नैतिक मूल्यों के प्रति अधिक जागरूक थे। उनकी यह धारणा थी कि नैतिक मूल्यों का दृढ़ता से पालन किए बिना किसी भी समाज की आर्थिक व सामाजिक प्रगति की नीतियाँ प्रभावी नहीं हो सकतीं। उन्होंने उच्चकोटि की जीवन-प्रणाली के निर्माण के लिए वेद की एक ऋचा के आधार पर कहा कि
उत्कृष्ट जीवन-प्रणाली मनुष्य की विवेक-बुद्ध से तभी निर्मित होनी संभव है, जब सब लोगों के संकल्प, निश्चय, अभिप्राय समान हों; सबके हृदय में समानता की भव्य भावना जाग्रत हो और सब लोग पारस्परिक सहयोग से मनोनुकूल कार्य करें। चरित्र-निर्माण की जो दिशा नीतिकारों ने निर्धारित की, वह आज भी अपने मूल रूप में मानव के लिए कल्याणकारी है। प्राय: यह देखा जाता है कि चरित्र और नैतिक मूल्यों की उपेक्षा वाणी, बाहु और उदर को संयत न रखने के कारण होती है। जो व्यक्ति इन तीनों पर नियंत्रण रखने में सफल हो जाता है, उसका
चरित्र ऊँचा होता है। सभ्यता का विकास आदर्श चरित्र से ही संभव है। जिस समाज में चरित्रवान व्यक्तियों का बाहुल्य है, वह समाज सभ्य होता है और वही उन्नत कहा जाता है। चरित्र मानव-समुदाय की अमूल्य निधि है। इसके अभाव में व्यक्ति पशुवत व्यवहार करने लगता है। आहार, निद्रा, भय आदि की वृत्ति सभी जीवों में विद्यमान रहती है, यह आचार अर्थात चरित्र की ही विशेषता है, जो मनुष्य को पशु से अलग कर, उससे ऊँचा उठा मनुष्यत्व प्रदान करती है। सामाजिक अनुशासन बनाए रखने के लिए भी चरित्र-निर्माण की आवश्यकता है। सामाजिक
अनुशासन की भावना व्यक्ति में तभी जाग्रत होती है, जब वह मानव प्राणियों में ही नहीं, वरन सभी जीवधारियों में अपनी आत्मा के दर्शन करता है। प्रश्न – (क) हमारे धर्मनीतिकार नैतिक मूल्यों के प्रति विशेष जागरूक क्यों थे? उत्तर – (क) हमारे धर्मनीतिकार नैतिक मूल्यों के प्रति विशेष जागरूक
थे। इसका कारण यह था कि नैतिक मूल्यों का पालन किए बिना किसी भी समाज की आर्थिक व सामाजिक प्रगति की नीतियाँ प्रभावी नहीं हो सकतीं। उत्कृष्ट × निकृष्ट पर्यायवाची शब्द- बाहु – भुजा (ज) शीर्षक-चरित्र-निर्माण। 2.
वैदिक युग भारत का प्राय: सबसे अधिक स्वाभाविक काल था। यही कारण है कि आज तक भारत का मन उस काल की ओर बार-बार लोभ से देखता है। वैदिक आर्य अपने युग को स्वर्णकाल कहते थे या नहीं, यह हम नहीं जानते; किंतु उनका समय हमें स्वर्णकाल के समान अवश्य दिखाई देता है। लेकिन जब बौद्ध युग का आरंभ हुआ, वैदिक समाज की पोल खुलने लगी और चिंतकों के बीच उसकी आलोचना आरंभ हो गई। बौद्ध युग अनेक दृष्टियों से आज के आधुनिक आदोलन के समान था। ब्राहमणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध बुद्ध ने विद्रोह का प्रचार किया था, बुद्ध जाति-प्रथा के
विरोधी थे और वे मनुष्य को जन्मना नहीं, कर्मणा श्रेष्ठ या अधम मानते थे। नारियों को भिक्षुणी होने का अधिकार देकर उन्होंने यह बताया था कि मोक्ष केवल पुरुषों के ही निमित्त नहीं है, उसकी अधिकारिणी नारियाँ भी हो सकती हैं। बुद्ध की ये सारी बातें भारत को याद रही हैं और बुद्ध के समय से बराबर इस देश में ऐसे लोग उत्पन्न होते रहे हैं, जो जाति-प्रथा के विरोधी थे, जो मनुष्य को जन्मना नहीं, कर्मणा श्रेष्ठ या अधम समझते थे। किंतु बुद्ध में आधुनिकता से बेमेल बात यह थी कि वे निवृत्तिवादी थे, गृहस्थी के कर्म
से वे भिक्षु-धर्म को श्रेष्ठ समझते थे। उनकी प्रेरणा से देश के हजारों-लाखों युवक, जउन बाक समाजक भण-पण कनेके हायक थे सन्यास होगए संन्यासक संस्था समाज विधिी सस्था हैं। प्रश्न – (क) वैदिक युग स्वर्णकाल के समान क्यों प्रतीत होता है? (ज) प्रस्तुत गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए। उत्तर – (क) वैदिक युग भारत का स्वाभाविक काल था। हमें प्राचीन काल की हर चीज अच्छी लगती है। इस कारण वैदिक युग स्वर्णकाल के समान प्रतीत होता है। (ज) शीर्षक-बुद्ध की वैचारिक प्रासंगिकता। 3. तत्ववेत्ता शिक्षाविदों के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है। प्रथम वह, जो हमें जीवन-यापन के लिए अर्जन करना सिखाती है और द्रवितीय वह, जो हमें जीना सिखाती है। इनमें से एक का भी अभाव जीवन को निरर्थक बना देता है। बिना कमाए जीवन-निर्वाह संभव नहीं। कोई भी नहीं
चाहेगा कि वह परावलंबी हो-माता-पिता, परिवार के किसी सदस्य, जाति या समाज पर। पहली विद्या से विहीन व्यक्ति का जीवन दूभर हो जाता है, वह दूसरों के लिए भार बन जाता है। साथ ही विद्या के बिना सार्थक जीवन नहीं जिया जा सकता। बहुत अर्जित कर लेनेवाले व्यक्ति का जीवन यदि सुचारु रूप से नहीं चल रहा, उसमें यदि वह जीवन-शक्ति नहीं है, जो उसके अपने जीवन को तो सत्यपथ पर अग्रसर करती ही है, साथ ही वह अपने समाज, जाति एवं राष्ट्र के लिए भी मार्गदर्शन करती है, तो उसका जीवन भी मानव-जीवन का अभिधान नहीं पा सकता। वह भारवाही
गर्दभ बन जाता है या पूँछ-सींगविहीन पशु कहा जाता है। वर्तमान भारत में दूसरी विद्या का प्राय: अभावे दिखाई देता है, परंतु पहली विद्या का रूप भी विकृत ही है, क्योंकि न तो स्कूल-कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त करके निकला छात्र जीविकार्जन के योग्य बन पाता है और न ही वह उन संस्कारों से युक्त हो पाता है, जिनसे व्यक्ति ‘कु’ से ‘सु’ बनता है; सुशिक्षित, सुसभ्य और सुसंस्कृत कहलाने का अधिकारी होता है। वर्तमान शिक्षा-पद्धति के अंतर्गत हम जो विद्या प्राप्त कर रहे हैं, उसकी विशेषताओं को सर्वथा नकारा भी नहीं जा
सकता। यह शिक्षा कुछ सीमा तक हमारे दृष्टिकोण को विकसित भी करती है, हमारी मनीषा को प्रबुद्ध बनाती है तथा भावनाओं को चेतन करती है, किंतु कला, शिल्प, प्रौद्योगिकी आदि की शिक्षा नाममात्र की होने के फलस्वरूप इस देश के स्नातक के लिए जीविकार्जन टेढ़ी खीर बन जाता है और बृहस्पति बना युवक नौकरी की तलाश में अर्जियाँ लिखने में ही अपने जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद कर लेता है। जीवन के सर्वागीण विकास को ध्यान में रखते हुए यदि शिक्षा के क्रमिक सोपानों पर विचार किया जाए, तो भारतीय विद्यार्थी को सर्वप्रथम इस
प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए, जो आवश्यक हो, दूसरी जो उपयोगी हो और तीसरी जो हमारे जीवन को परिष्कृत एवं अलंकृत करती हो। ये तीनों सीढ़ियाँ एक के बाद एक आती हैं, इनमें व्यतिक्रम नहीं होना चाहिए। इस क्रम में व्याघात आ जाने से मानव-जीवन का चारु प्रासाद खड़ा करना असंभव है। यह तो भवन की छत बनाकर नींव बनाने के सदृश है। वर्तमान भारत में शिक्षा की अवस्था देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने ‘अन्न’ से ‘आनंद’ की ओर बढ़ने को जो ‘विद्या का सार’ कहा था, वह सर्वथा समीचीन ही था। प्रश्न
– (क) प्रस्तुत गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए। उत्तर – (क) शीर्षक-शिक्षा के सोपान। (घ) आधुनिक शिक्षा-पद्धति हमारी बुद्ध विकसित करती है, भावनाओं को चेतन करती है, परंतु जीविकोपार्जन के लिए कुछ नहीं कर पाती। 4. प्रजातंत्र के तीन मुख्य अंग हैं-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। प्रजातंत्र की सार्थकता एवं दृढ़ता को ध्यान में रखते हुए और जनता के प्रहरी होने की भूमिका को देखते हुए मीडिया (दृश्य, श्रव्य और मुद्रित) को प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के
रूप में देखा जाता है। समाचार-माध्यम या मीडिया को पिछले वर्षों में पत्रकारों और समाचार-पत्रों ने एक विश्वसनीयता प्रदान की है और इसी कारण विश्व में मीडिया एक अलग शक्ति के रूप में उभरा है। कार्यपालिका और विधायिका की समस्याओं, कार्य-प्रणाली और विसंगतियों की चर्चा प्राय: होती रहती है और सर्वसाधारण में वे विशेष चर्चा के विषय रहते ही हैं। इसमें समाचार-पत्र, रेडियो और टी०वी० समाचार अपनी टिप्पणी के कारण चर्चा को आगे बढ़ाने में योगदान करते हैं, पर न्यायपालिका अत्यंत महत्वपूर्ण होने के बावजूद उसके
बारे में चर्चा कम ही होती है। ऐसा केवल अपने देश में ही नहीं, अन्य देशों में भी कमोबेश यही स्थिति है। स्वराज-प्राप्ति के बाद और एक लिखित संविधान के देश में लागू होने के उपरांत लोकतंत्र के तीनों अंगों के कर्तव्यों, अधिकारों और दायित्वों के बारे में जनता में जागरूकता बढ़ी है। संविधान-निर्माताओं का उद्देश्य रहा है कि तीनों अंग परस्पर ताल-मेल से कार्य करेंगे। तीनों के पारस्परिक संबंध भी संविधान द्वारा निर्धारित , फिर भी समय के साथ-साथ कुछ समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं। आज लोकतंत्र यह महसूस करता है
कि न्यायपालिका | भी अधिक पारदर्शिता हो, जिससे उसकी प्रतिष्ठा और सम्मान बढ़े। ‘जिस देश में पंचों को परमेश्वर मानने की परंपरा, वहाँ न्यायमूर्तियों पर आक्षेप दुर्भाग्यपूर्ण है।’ प्रश्न – (क) लोकतंत्र के तीनों अंगों का नामोल्लेख कीजिए। चौथा अंग किसे माना जाता है? (ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए। उत्तर – (क) लोकतंत्र के तीन मुख्य अंग हैं-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। चौथा अंग मीडिया को माना जाता है। इसमें दृश्य, श्रव्य व मुद्रित मीडिया होते हैं। (ज) शीर्षक-मीडिया और लोकतंत्र। अथवा, प्रजातंत्र के अंग। 5.संस्कृतियों के निर्माण में एक सीमा तक देश और जाति का योगदान रहता है। संस्कृति के मूल उपादान तो प्राय: सभी सुसंस्कृत और सभ्य देशों में एक सीमा तक समान रहते हैं, किंतु बाहय
उपादानों में अंतर अवश्य आता है। राष्ट्रीय या जातीय संस्कृति का सबसे बड़ा योगदान यही है कि वह हमें अपने राष्ट्र की परंपरा से संपृक्त बनाती है, अपनी रीति-नीति की संपदा से विच्छिन्न नहीं होने देती। आज के युग में राष्ट्रीय एवं जातीय संस्कृतियों के मिलन के अवसर अति सुलभ हो गए हैं, संस्कृतियों का पारस्परिक संघर्ष भी शुरू हो गया है। कुछ ऐसे विदेशी प्रभाव हमारे देश पर पड़ रहे हैं, जिनके आतंक ने हमें स्वयं अपनी संस्कृति के प्रति संशयालु बना दिया है। हमारी आस्था डिगने लगी है। यह हमारी वैचारिक दुर्बलता का
फल है। अपनी संस्कृति को छोड़, विदेशी संस्कृति के विवेकहीन अनुकरण से हमारे राष्ट्रीय गौरव को जो ठेस पहुँच रही है, वह किसी राष्ट्रप्रेमी जागरूक व्यक्ति से छिपी नहीं है। भारतीय संस्कृति में त्याग और ग्रहण की अद्भुत क्षमता रही है। अत: आज के वैज्ञानिक युग में हम किसी भी विदेशी संस्कृति के जीवंत तत्वों को ग्रहण करने में पीछे नहीं रहना चाहेंगे, किंतु अपनी सांस्कृतिक निधि की उपेक्षा करके नहीं। यह परावलंबन राष्ट्र की गरिमा के अनुरूप नहीं है। यह स्मरण रखना चाहिए कि सूर्य की आलोकप्रदायिनी किरणों से
पौधे को चाहे जितनी जीवनशक्ति मिले, किंतु अपनी जमीन और अपनी जड़ों के बिना कोई पौधा जीवित नहीं रह सकता। अविवेकी अनुकरण अज्ञान का ही पर्याय है। प्रश्न – (क) आधुनिक युग में संस्कृतियों में परस्पर संघर्ष प्रारंभ होने का प्रमुख कारण बताइए। प्रत्यय बताइए-जातीय, सांस्कृतिक। (छ) गद्यांश में युवाओं के किस कार्य को राष्ट्र की गरिमा के अनुकूल नहीं माना गया है तथा उन्हें क्या संदेश दिया गया है? उत्तर – (क)
आधुनिक युग में संस्कृतियों में परस्पर संघर्ष प्रारंभ होने का प्रमुख कारण यह है कि भिन्न संस्कृतियों के निकट आने के कारण अतिक्रमण एवं विरोध स्वाभाविक है। 6. परियोजना शिक्षा का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है। इसे तैयार करने में किसी खेल की तरह का ही आनंद मिलता है। इस तरह परियोजना तैयार करने का अर्थ है-खेल-खेल में बहुत कुछ सीख जाना। यदि आपको कहा जाए कि दशहरा
पर निबंध लिखिए, तो आपको शायद उतना आनंद नहीं आएगा। लेकिन यदि आपसे कहा जाए कि अखबारों में प्राप्त जानकारियों के अलावा भी आपको देश-दुनिया की बहुत सारी जानकारियाँ प्रदान करती है। यह आपको तथ्यों को जुटाने तथा उन पर विचार करने का अवसर प्रदान करती है। इससे आप में नए-नए तथ्यों के कौशल का विकास होता है। इससे आपमें एकाग्रता का विकास होता है। लेखन संबंधी नई-नई शैलियों का विकास होता है। आपमें चिंतन करने तथा किसी पूर्व घटना से वर्तमान घटना को जोड़कर देखने की शक्ति का विकास होता है। परियोजना कई प्रकार
से तैयार की जा सकती है। हर व्यक्ति इसे अलग ढंग से, अपने तरीके से तैयार कर सकता है। ठीक उसी प्रकार जैसे हर व्यक्ति का बातचीत करने का, रहने का, खाने-पीने का अपना अलग तरीका होता है। ऐसा निबंध, कहानी कविता लिखते या चित्र बनाते समय भी होता है। लेकिन ऊपर कही गई बातों के आधार पर यहाँ हम परियोजना को मोटे तौर पर दो भागों में बाँट सकते हैं-एक तो वे परियोजनाएँ, जो समस्याओं के निदान के लिए तैयार की जाती हैं और दूसरी वे, जो किसी विषय की समुचित जानकारी प्रदान करने के लिए तैयार की जाती हैं। समस्याओं के
निदान के लिए तैयार की जाने वाली परियोजनाओं में संबंधित समस्या से जुड़े सभी तथ्यों पर प्रकाश डाला जाता है और उस समस्या के निदान के लिए भी दिए जाते हैं। इस तरह की परियोजनाएँ प्राय: सरकार अथवा संगठनों द्वारा किसी समस्या पर कार्य – योजना तैयार करते समय बनाई जाती हैं। इससे उस समस्या के विभिन्न पहलुओं पर कार्य करने में आसानी हो जाती हैं। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए। उत्तर – (क) शीर्षक-परियोजना का स्वरूप। (च) समस्या का निदान करने वाली परियोजना में संबंधित समस्या से जुड़े सभी तथ्यों पर प्रकाश डालना चाहिए और समस्या-निदान के
सुझाव भी दिए जाने चाहिए। 7. सुचारित्र्य के दो
सशक्त स्तंभ हैं-प्रथम सुसंस्कार और द्रवितीय सत्संगति। सुसंस्कार भी पूर्व जीवन की सत्संगति व सत्कर्मों की अर्जित संपत्ति है और सत्संगति वर्तमान जीवन की दुर्लभ विभूति है। जिस प्रकार कुधातु की कठोरता और कालिख पारस के स्पर्श मात्र से कोमलता और कमनीयता में बदल जाती है, ठीक उसी प्रकार कुमार्गी का कालुष्य सत्संगति से स्वर्णिम आभा में परिवर्तित हो जाता है। सतत सत्संगति से विचारों को नई दिशा मिलती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्यों में प्रेरित करते हैं। परिणामत: सुचरित्र का निर्माण होता है।
आचार्य हजारीप्रसाद विवेदी ने लिखा है-‘महाकवि टैगोर के पास बैठने मात्र से ऐसा प्रतीत होता था, मानो भीतर का देवता जाग गया हो।’ वस्तुत: चरित्र से ही जीवन की सार्थकता है। चरित्रवान व्यक्ति समाज की शोभा है, शक्ति है। सुचारित्र्य से व्यक्ति ही नहीं, समाज भी सुवासित होता है और इस सुवास से राष्ट्र यशस्वी बनता है। विदुर जी की उक्ति अक्षरश: सत्य है कि सुचरित्र के बीज हमें भले ही वंश-परंपरा से प्राप्त हो सकते हैं, पर चरित्र-निर्माण व्यक्ति के अपने बलबूते पर निर्भर है। आनुवंशिक परंपरा, परिवेश और
परिस्थिति उसे केवल प्रेरणा दे सकते हैं, पर उसका अर्जन नहीं कर सकते; वह व्यक्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं होता। व्यक्ति-विशेष के शिथिल-चरित्र होने से पूरे राष्ट्र पर चरित्र-संकट उपस्थित हो जाता है, क्योंकि व्यक्ति पूरे राष्ट्र का एक घटक है। अनेक व्यक्तियों से मिलकर एक परिवार, अनेक परिवारों से एक कुल, अनेक कुलों से एक जाति या समाज और अनेकानेक जातियों और समाज-समुदायों से मिलकर ही एक राष्ट्र बनता है। आज जब लोग सूचित्र-नमाण की बात कते हैं तब वे स्वायं इसराष्ट्र के एक आवक घट्क हैं-इस बात को
विस्तक देते हैं। प्रश्न – (क) सत्संगति कुमार्गी को कैसे सुधारती है? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए। (ज) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए। उत्तर – (क)
सत्संगति से विचारों को नई दिशा मिलती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्यों में प्रेरित करते हैं। इससे कुमार्गी व्यक्ति उसी तरह सुधर जाता है, जैसे पारस के संपर्क में आने से लोहा सोना बन जाता है।
(ज) शीर्षक-चरित्र-निर्माण और सत्संगति। 8. जाति-प्रथा को यदि श्रम-विभाजन मान लिया जाए, तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित है। कुशल व्यक्ति या सक्षम श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्ति की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपने पेशे या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण, जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर, के अनुसार पहले से ही अर्थात गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है। जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती, बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है, भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्राय: आती है, क्योंकि उद्योग-धंधे की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति-प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत है। इस प्रकार पेशा-परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है। प्रश्न – (क) कुशल श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए क्या आवश्यक है?
(ज) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए। उत्तर – (क) कुशल या सक्षम श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए आवश्यक है कि हम जातीय जड़ता को त्यागकर प्रत्येक व्यक्ति को इस सीमा तक विकसित एवं स्वतंत्र करें, जिससे वह अपनी कुशलता के अनुसार कार्य का चुनाव स्वयं करे। यदि श्रमिकों को मनचाहा कार्य मिले तो कुशल श्रमिक-समाज का निर्माण स्वाभाविक है।
(ज) शीर्षक-जाति-प्रथा। 9.जहाँ भी दो नदियाँ आकर मिल जाती हैं, उस स्थान को अपने देश में ‘तीर्थ’ कहने का रिवाज है। और यह केवल रिवाज की ही बात नहीं है; हम सचमुच मानते हैं कि अलग-अलग नदियों में स्नान करने से जितना पुण्य होता है, उससे कहीं अधिक पुण्य संगम स्नान में है। किंतु, भारत आज जिस दौर से गुजर रहा है, उसमें असली संगम वे स्थान, वे सभाएँ तथा वे मंच हैं, जिन पर एक से अधिक भाषाएँ एकत्र होती हैं। नदियों की विशेषता यह है कि वे अपनी धाराओं में अनेक जनपदों का सौरभ, अनेक जनपदों के आँसू और उल्लास लिए चलती हैं और उनका पारस्परिक मिलन वास्तव में नाना के आँसू और उमंग, भाव और विचार, आशाएँ और शंकाएँ समाहित होती हैं। अत: जहाँ भाषाओं का मिलन होता है, वहाँ वास्तव में विभिन्न जनपदों के हृदय ही मिलते हैं, उनके भावों और विचारों का ही मिलन होता है तथा भिन्नताओं में छिपी हुई एकता वहाँ कुछ अधिक प्रत्यक्ष हो उठती है। इस दृष्टि से भाषाओं के संगम आज सबसे बड़े तीर्थ हैं और इन तीर्थों में जो भी भारतवासी श्रद्धा से स्नान करता है, वह भारतीय एकता का सबसे बड़ा सिपाही और संत है। हमारी भाषाएँ जितनी ही तेजी से जगेंगी, हमारे विभिन्न प्रदेशों का पारस्परिक ज्ञान उतना ही बढ़ता जाएगा। भारतीय कि वे केवल अपनी ही भाषा में प्रसिद्ध होकर न रह जाएँ, बल्कि भारत की अन्य भाषाओं में भी उनके नाम पहुँचे और उनकी कृतियों की चर्चा हो। भाषाओं के जागरण का आरंभ होते ही एक प्रकार का अखिल भारतीय मंच आप-से-आप प्रकट होने लगा है। आज प्रत्येक भाषा के भीतर यह जानने की इच्छा उत्पन्न हो गई है कि भारत की अन्य भाषाओं में क्या हो रहा है, उनमें कौन-कौन ऐसे लेखक हैं, हैं तथा कौन-सी विचारधारा वहाँ प्रभुसत्ता प्राप्त कर रही है। प्रश्न – (क) लेखक ने आधुनिक संगम-स्थल किसको माना है और क्यों?
(ज) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए। उत्तर – (क) लेखक ने आधुनिक संगम-स्थल उन सभाओं
व मंचों को माना है, जहाँ पर एक से अधिक भाषाएँ एकत्रितहोती हैं। ये भा षाएँ विभिन्न जनपदों में बसने वाली जानता की भावनाएँ लेकर आती हैं।
(ज) शीर्षक-भाषा-संगम : एकता का सूत्र। 10. विद्वानों का यह कथन बहुत ठीक है कि विनम्रता के बिना स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं। इस बात को सब लोग मानते हैं कि आत्मसंस्कार के लिए थोड़ी-बहुत मानसिक स्वतंत्रता परमावश्यक है-चाहे उस स्वतंत्रता में अभिमान और नम्रता दोनों का मेल हो और चाहे वह नम्रता ही से उत्पन्न हो। यह बात तो निश्चित है कि जो मनुष्य मर्यादापूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता है, उसके लिए वह गुण अनिवार्य है, जिससे आत्मनिर्भरता आती है और जिससे अपने पैरों के बल खड़ा होना आता है। युवा को यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि वह बहुत कम बातें जानता है, अपने ही आदर्श से वह बहुत नीचे है और उसकी आकांक्षाएँ उसकी योग्यता से कहीं बढ़ी हुई हैं। उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने बड़ों का सम्मान करे, छोटों और बराबर वालों से कोमलता का व्यवहार करे, ये बातें आत्ममर्यादा के लिए आवश्यक हैं। यह सारा संसार, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हमारा है-हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हमारे भोग, हमारे घर और बाहर की दशा, हमारे बहुत-से अवगुण और थोड़े गुण-सब इसी बात की आवश्यकता प्रकट करते हैं कि हमें अपनी आत्मा को नम्र रखना चाहिए। नम्रता से मेरा अभिप्राय दब्बूपन से नहीं है, जिसके कारण मनुष्य दूसरों का मुँह ताकता है, जिससे उसका संकल्प क्षीण और उसकी प्रज्ञा मंद हो जाती है; जिसके कारण वह आगे बढ़ने के समय भी पीछे रहता है और अवसर पड़ने पर चट-पट किसी बात का निर्णय नहीं कर सकता। मनुष्य का बेड़ा उसके अपने ही हाथ में है, उसे वह चाहे जिधर ले जाए। सच्ची आत्मा वही है, जो प्रत्येक दशा में, प्रत्येक स्थिति के बीच अपनी राह आप निकालती है। प्रश्न – (क)
‘विनम्रता के बिना स्वतंत्रता का. कोई अर्थ नहीं।’ इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ज) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए। उत्तर – (क) किसी भी व्यक्ति में स्वतंत्रता का भाव आते ही उसके मन में अहकार आ जाता है। इस अहकार के कारण वह अपनी मनुष्यता खो बैठता है। इससे व्यक्ति के आचरण में इतना बदलाव आ जाता है कि वह दूसरों को
खुद से हीन समझने लगता है। ऐसे में स्वतंत्रता के साथ विनम्रता का होना आवश्यक है, अन्यथा स्वतंत्रता अर्थहीन हो जाएगी।
(ज) शीर्षक-विनम्रता का महत्व। 11.राष्ट्रीय भावना के अभ्युदय एवं विकास के लिए भाषा भी एक प्रमुख तत्व है। मानव-समुदाय अपनी संवेदनाओं, भावनाओं एवं विचारों की अभिव्यक्ति हेतु भाषा का साधन अपरिहार्यत: अपनाता है, इसके अतिरिक्त उसके पास कोई अन्य विकल्प नहीं है। दिव्य-ईश्वरीय आनंदानुभूति के संबंध में भले ही कबीर ने ‘गूँगे केरी शर्करा’ उक्ति का प्रयोग किया था, पर इससे उनका लक्ष्य शब्द-रूपा भाषा के महत्व को नकारना नहीं था, प्रत्युत उन्होंने भाषा को ‘बहता नीर’ कहकर भाषा की गरिमा प्रतिपादित की थी। विद्वानों की मान्यता है कि भाषा तत्व राष्ट्रहित के लिए अत्यावश्यक है। जिस प्रकार किसी एक राष्ट्र के भूभाग की भौगोलिक विविधताएँ तथा उसके पर्वत, सागर, सरिताओं आदि की बाधाएँ उस राष्ट्र के निवासियों के परस्पर मिलने-जुलने में अवरोधक सिद्ध हो सकती हैं, उसी प्रकार भाषागत विभिन्नता से भी उनके पारस्परिक संबंधों में निबांधता नहीं रह पाती। आधुनिक विज्ञान युग में यातायात एवं संचार के साधनों की प्रगति से भौगोलिक बाधाएँ अब पहले की तरह बाधित नहीं करतीं। इसी प्रकार यदि राष्ट्र की एक संपर्क भाषा का विकास हो जाए तो पारस्परिक संबंधों के गतिरोध बहुत सीमा तक समाप्त हो सकते हैं। मानव-समुदाय को एक जीवित जाग्रत एवं जीवंत शरीर की संज्ञा दी जा सकती है और उसका अपना एक निश्चित व्यक्तित्व होता है। भाषा अभिव्यक्ति के माध्यम से इस व्यक्तित्व को साकार करती है, उसके अमूर्त, मानसिक, वैचारिक स्वरूप को मूर्त एवं बिंबात्मक रूप प्रदान करती है। मनुष्यों के विविध समुदाय हैं, उनकी विविध भावनाएँ हैं, विचारधाराएँ हैं, संकल्प एवं आदर्श हैं, उन्हें भाषा ही अभिव्यक्त करने में सक्षम होती है। साहित्य, शास्त्र, गीत-संगीत आदि में मानव-समुदाय अपने आदशों, संकल्पनाओं, अवधारणाओं एवं विशिष्टताओं को वाणी देता है, पर क्या भाषा के अभाव में काव्य, साहित्य, संगीत आदि का अस्तित्व संभव है? वस्तुत: ज्ञानराशि एवं भावराशि का अपार संचित कोश, जिसे साहित्य का अभिधान दिया जाता है, शब्द-रूप ही तो है। अत: इस संबंध में वैमत्य की किंचित गुंजाइश नहीं है कि भाषा ही एक ऐसा साधन है, जिससे मनुष्य एक-दूसरे के निकट आ सकते हैं, उनमें परस्पर घनिष्ठता स्थापित हो सकती है। यही कारण है कि एक भाषा बोलने एवं समझने वाले लोग परस्पर एकानुभूति रखते हैं, उनके विचारों में ऐक्य रहता है। अत: राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए भाषा तत्व परम आवश्यक है। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का एक
उपयुक्त शीर्षक दीजिए। उत्तर – (क) शीर्षक-राष्ट्रीयता और भाषा-तत्व। 12. शिक्षा के क्षेत्र में पुनर्विचार की आवश्यकता इतनी गहन है कि अब तक बजट, कक्षा-आकार, शिक्षक-वेतन और पाठ्यक्रम आदि के परंपरागत मतभेद आदि प्रश्नों से इतनी दूर निकल गई है कि इसको यहाँ पर विवेचित नहीं किया जा सकता। द्रवितीय तरंग दूरदर्शन तंत्र की तरह (अथवा उदाहरण के लिए धूम्र भंडार उद्योग) हमारी जनशिक्षा-प्रणालियाँ बड़े पैमाने पर प्राय: लुप्त हैं। बिलकुल मीडिया की तरह शिक्षा में भी कार्यक्रम विविधता के व्यापक विस्तार और नए मार्गों की बहुतायत की आवश्यकता है। केवल आर्थिक रूप से उत्पादक भूमिकाओं के लिए ही निम्न विकल्प पद्धति की जगह उच्च विकल्प पद्धति को अपनाना होगा, यदि नई थर्ड वेव सोसायटी में शिष्ट जीवन के लिए विद्यालयों में लोग तैयार किए जाते हैं। शिक्षा और नई संचार-प्रणाली के छह सिद्धांतों-पारस्परिक क्रियाशीलता, गतिशीलता, परिवर्तनीयता, संयोजकता, सर्वव्यापकता और सार्वभौमिकरण-के बीच बहुत ही कम संबंध खोजे गए हैं। अब भी भविष्य की शिक्षा-पद्धति औपिक संवार प्रल के बचसंधक उपेवा करना उना शिवार्थियों को धख देता है,जिक निमाणदनों से होना है। सार्थक रूप से शिक्षा की प्राथमिकता अब मात्र माता-पिता, शिक्षकों एवं मुट्ठी भर शिक्षा-सुधारकों के लिए ही नहीं है, बल्कि व्यापार के उस आधुनिक क्षेत्र के लिए भी प्राथमिकता में है, जब से वहाँ सार्वभौम प्रतियोगिता और शिक्षा के बीच संबंध को स्वीकारने वाले नेताओं की संख्या बढ़ रही है। दूसरी प्राथमिकता कप्यूटर वृद्ध, सूचना तकनीक और विकसित मीडिया के त्वरित सार्वभौमिकरण की है। कोई भी राष्ट्र 21वीं सदी के इलेक्ट्रॉनिक आधारिक संरचना, एंब्रेसिंग कप्यूटर्स, डाटा संचार और अन्य नवीन मीडिया के बिना 21वीं सदी की अर्थव्यवस्था का संचालन नहीं कर सकता। इसके लिए ऐसी जनसंख्या की आवश्यकता है, जो इस सूचनात्मक आधारिक संरचना से परिचित हो, ठीक उसी प्रकार जैसे कि समय के परिवहन तंत्र और कारों, सड़कों, राजमार्गों, रेलों से सुपरिचित है। वस्तुत: सभी को टेलीकॉम इंजीनियर अथवा कप्यूटर विशेषज्ञ बनने की जरूरत नहीं है, जैसा कि सभी को कार मैकेनिक होने की आवश्यकता नहीं है, परंतु संचार-प्रणाली का ज्ञान कंप्यूटर, फ़ैक्स और विकसित दूरसंचार को सम्मिलित करते हुए, उसी प्रकार आसान और मुफ़्त होना चाहिए, जैसा कि आज परिवहन-प्रणाली के साथ है। अत: विकसित अर्थव्यवस्था चाहने वाले लोगों का प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए कि सर्वव्यापकता के नियम की क्रियाशीलता को बढ़ाया जाए–वह है, यह निश्चित करना कि गरीब अथवा अमीर सभी नागरिकों को मीडिया की व्यापक संभावित पहुँच से अवश्य परिचित कराया जाए। अंतत: यदि नई अर्थव्यवस्था का मूल ज्ञान है, तब सतही बातों की अपेक्षा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ‘का लोकतांत्रिक आदर्श सर्वोपरि राजनीतिक प्राथमिकता बन जाता है। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर – (क)
शीर्षक-शिक्षा पर पुनर्विचार की आवश्यकता।
(ज)
13. तुलसी जैसा कवि काव्य की विशुद्ध, मनोमयी, कल्पना-प्रवण तथा श्रृंगारात्मक भावभूमियों के प्रति उत्साही नहीं हो सकता। उनका संत-हृदय परम कारुणिक राम के प्रति ही उन्मुख हो सकता है, जो जीवन के धर्ममय सौंदर्य, मर्यादापूर्ण शील और आत्मिक शौर्य के प्रतीक हैं। विजय-रथ के रूपक में उन्होंने संत जीवन की रूपरेखा उभारी है और अपनी रामकथा को इसी संतत्व की चरितार्थता बना दिया है। उनका काव्य भारतीय जीवन की सबसे बड़ी आकांक्षा मर्यादित जीवन-चर्या अथवा ‘संत-रहनि’ को वाणी देता है। धर्ममय जीवन की आकांक्षा भारतीय संस्कृति का वैशिष्ट्य है। तुलसी के काव्य में धर्म का अनाविल, अनावरित और अक्षुण्ण रूप ही प्रकट हुआ है। मध्ययुग की आध्यात्मिकता का प्रतिनिधित्व करते हुए भी उनका काव्य भारतीय आत्मा के चिरंतन सौंदर्य का प्रतिनिधि है, जो सत्य, तप, करुणा और मैत्री में ही आरोहण के देवधर्मी मूल्यों को अनावृत करता है। उनके काव्य में हमें श्रेष्ठ कवित्व ही नहीं मिलता, उसके आधार पर हम संत-कवित्व की रूपरेखा भी निर्धारित कर सकते हैं। भक्ति उनके संतत्व की आंतरिक भाव-साधना है। इस भाव-साधना की वाणी की अप्रतिम क्षमता देकर उन्होंने निष्कंप दीपशिखा की भाँति अपनी काव्य-कला को नि:संग और निवैयक्तिक दीप्ति से भरा है। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
उत्तर – (क) शीर्षक-संत कवि तुलसीदास।
14.आज हम इस असमंजस में पड़े हैं और यह निश्चय नहीं कर पाए हैं कि हम किस ओर चलेंगे और हमारा ध्येय क्या है? स्वभावत: ऐसी अवस्था में हमारे पैर लड़खड़ाते हैं। हमारे विचार में भारत के लिए और सारे संसार के लिए सुख और शांति का एक ही रास्ता है और वह है-अहिंसा और आत्मवाद का। अपनी दुर्बलता के कारण हम उसे ग्रहण न कर सके, पर उसके सिद्धांतों को तो हमें स्वीकार कर ही लेना चाहिए और उसके प्रवर्तन का इंतजार करना चाहिए। यदि हम सिद्धांत ही न मानेंगे तो उसके प्रवर्तन की आशा कैसे की जा सकती है। जहाँ तक मैंने महात्मा गांधी के सिद्धांत को समझा है, वह इसी आत्मवाद और अहिंसा के, जिसे वे सत्य भी कहा करते थे, मानने वाले और प्रवर्तक थे। उसे ही कुछ लोग आज गांधीवाद का नाम भी दे रहे हैं। यद्यपि महात्मा गांधी ने बार-बार यह कहा था-“वे किसी नए सिद्धांत या वाद के प्रवर्तक नहीं हैं और उन्होंने अपने जीवन में प्राचीन सिद्धांतों को अमल कर दिखाने का यत्न किया।” विचार कर देखा जाए, तो जितने सिद्धांत अन्य देशों, अन्य-अन्य कालों और स्थितियों में भिन्न-भिन्न नामों और धर्मों से प्रचलित हुए हैं,सभी अंतिम और मार्मिक अन्वेषण के बाद इसी तत्व अथवा सिद्धांत में समाविष्ट पाए जाते हैं। केवल भौतिकवाद इनसे अलग है। हमें असमंजस की स्थिति से बाहर निकलकर निश्चय कर लेना है कि हम अहिंसावाद, आत्मवाद और गांधीवाद के अनुयायी और समर्थक हैं, न कि भौतिकवाद के। प्रेय और श्रेय में से हमें श्रेय को चुनना है। श्रेय ही हितकर है, भले ही वह कठिन और श्रमसाध्य हो। इसके विपरीत, प्रेय आरंभ में भले ही आकर्षक दिखाई दे, उसका अंतिम परिणाम अहितकर होता है। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर – (क) शीर्षक-श्रेय या प्रेय।
15. संस्कृति ऐसी चीज नहीं, जिसकी रचना दस-बीस या सौ–पचास वर्षों में की जा सकती हो। हम जो कुछ भी करते हैं, उसमें हमारी संस्कृति की झलक होती है; यहाँ तक कि हमारे उठने- ने, घूमने-फिरने और रोने-हँसने से भी हमारी संस्कृति की पहचान होती है, यद्यपि हमारा कोई भी एक काम हमारी संस्कृति का पर्याय नहीं बन सकता। असल में, संस्कृति जीने का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से हम जमा होकर उस समाज में छाया रहता है, जिसमें हम जन्म लेते हैं। इस लिए, जिस समाज में हम पैदा हुए हैं अथवा जिस समाज से मिलकर हम जी रहे हैं, उसकी संस्कृति हमारी संस्कृति है; यद्यपि अपने जीवन में हम जो संस्कार जमा कर रहे हैं, वे भी हमारी संस्कृति के अंग बन जाते हैं और मरने के बाद हम अन्य वस्तुओं के साथ अपनी संस्कृति की विरासत भी अपनी संतानों के लिए छोड़ जाते हैं। इसलिए संस्कृति वह चीज मानी जाती है, जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है। यही नहीं, बल्कि संस्कृति हमारा पीछा जन्म-जन्मातर तक करती है। अपने यहाँ एक साधारण कहावत है कि जिसका जैसा संस्कार है, उसका वैसा ही पुनर्जन्म भी होता है। जाब हम किसी बालक या बालिका को बहुत तेज पाते है, तब अचानक कह देते हैं कि वह पूर्वजन्म का संस्कार है। संस्कार या संस्कृति, असल में, शरीर का नहीं, आत्मा का गुण है; और जबकि सभ्यता की मामांग्रेयों से हमारा संबंध शरीर के साथ ही छूट जाता है, तब भी हमारी संस्कृति का प्रभाव हमारी आत्मा के साथ जन्म-जन्मांतर तक चलता रहता है। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
उत्तर – (क) शीर्षक-सभ्यता और संस्कृति।
16.विज्ञापन कला जिस तेजी से उन्नति कर रही है, उससे मुझे भविष्य के लिए और भी अंदेशा है। लगता है ऐसा युग आने वाला है, जब शिक्षा, विज्ञान, संस्कृति और साहित्य आदि का केवल विज्ञापन कला के लिए ही उपयोग रह जाएगा। वैसे तो आज भी इस कला के लिए इनका खासा उपयोग होता है। बहुत-सी शिक्षण संस्थाएँ हैं, जो सांप्रदायिक संस्थाओं का विज्ञापन हैं। अपनी पीढ़ी के कई लेखकों की कृतियाँ लाला छगनलाल, मगनलाल या इस तरह के नाम के किसी और लाल की स्मारक निधि से प्रकाशित होकर लाला जी की दिवंगत आत्मा के प्रति स्मारक होने का फ़ज़ अदा कर रही हैं, मगर आने वाले युग में यह कला दो कदम आगे बढ़ जाएगी। विद्यार्थियों को विश्वविद्यालय के दीक्षांत महोत्सव पर जो डिग्रियाँ दी जाएँगी, उनके निचले कोने में छपा रहेगा-“आपकी शिक्षा के उपयोग का एक ही मार्ग है, आज ही आयात-निर्यात का धंधा प्रारंभ कीजिए। मुफ्त सूचीपत्र के लिए लिखिए।” हर नए आविष्कारक का चेहरा मुस्कराता हुआ टेलीविजन पर जाकर कुछ इस तरह निवेदन करेगा-“मुझे यह कहते हुए हार्दिक प्रसन्नता है कि मेरे प्रयत्न की सफलता का सारा श्रेय रबड़ के टायर बनाने वाली कंपनी को है, क्योंकि उन्हीं के प्रोत्साहन और प्रेरणा से मैंने इस दिशा में कदम बढ़ाया था ’” विष्णु के मंदिर खड़े होंगे, जिनमें संगमरमर की सुंदर प्रतिमा के नीचे पट्टी लगी होगी-“याद रखिए, इस मूर्ति और इस भवन के निर्माण का श्रेय लाल हाथी के निशान वाले निर्माताओं को है। वास्तुकला संबंधी अपनी सभी आवश्यकताओं के लिए लाल हाथी का निशान कभी मत भूलिए।” और ऐसे-ऐसे उपन्यास हाथ में आया करेंगे, जिनकी सुंदर चमड़े की जिल्द पर एक ओर बारीक अक्षरों में लिखा होगा-‘साहित्य में अभिरुचि रखने वालों को इक्का माक साबुन वालों की एक और तुच्छ भेंट।” और बात बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक पहुँच जाएगी कि जब एक दूल्हा बड़े अरमान से दुल्हन ब्याहकर घर आएगा और घूंघट हटाकर उसके रूप की प्रसन्नता में पहला वाक्य कहेगा तो दुल्हन मधुर भाव से आँख उठाकर हृदय का सारा दुलार शब्दों में उड़ेलती हुई कहेगी-“रोज सुबह उठकर नौ सौ इक्यावन नंबर के साबुन से नहाती हूँ।” प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर – (क) शीर्षक-विज्ञापन युग।
17. साहित्य की शाश्वतता का प्रश्न एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। क्या साहित्य शाश्वत होता है? यदि हाँ, तो किस मायने में? क्या कोई साहित्य अपने रचनाकाल के सौ वर्ष बीत जाने पर भी उतना ही प्रासंगिक रहता है, जितना वह अपनी रचना के समय था? अपने समय या युग का निर्माता साहित्यकार क्या सौ वर्ष बाद की परिस्थितियों का भी युग-निर्माता हो सकता है। समय बदलता रहता है, परिस्थितियाँ और भावबोध बदलते हैं, साहित्य बदलता है और इसी के समानांतर पाठक की मानसिकता और अभिरुचि भी बदलती है। अत: कोई भी कविता अपने सामयिक परिवेश के बदल जाने पर ठीक वही उत्तेजना पैदा नहीं कर सकती, जो उसने अपने रचनाकाल के दौरान की होगी। कहने का तात्पर्य यह है कि एक विशेष प्रकार के साहित्य के श्रेष्ठ अस्तित्व मात्र से वह साहित्य हर युग के लिए उतना ही विशेष आकर्षण रखे, यह आवश्यक नहीं है। यही कारण है कि वर्तमान युग में इंगला-पिंगला, सुषुम्ना, अनहद, नाद आदि पारिभाषिक शब्दावली मन में विशेष भावोत्तेजन नहीं करती। साहित्य की श्रेष्ठता मात्र ही उसके नित्य आकर्षण का आधार नहीं है। उसकी श्रेष्ठता का युगयुगीन आधार हैं, वे जीवन-मूल्य तथा उनकी अत्यंत कलात्मक अभिव्यक्तियाँ जो मनुष्य की स्वतंत्रता तथा उच्चतर मानव-विकास के लिए पथ-प्रदर्शक का काम करती हैं। पुराने साहित्य का केवल वही श्री-सौंदर्य हमारे लिए ग्राह्य होगा, जो नवीन जीवन-मूल्यों के विकास में सक्रिय सहयोग दे अथवा स्थिति-रक्षा में सहायक हो। कुछ लोग साहित्य की सामाजिक प्रतिबद्धता को अस्वीकार करते हैं। वे मानते हैं कि साहित्यकार निरपेक्ष होता है और उस पर कोई भी दबाव आरोपित नहीं होना चाहिए। किंतु वे भूल जाते हैं कि साहित्य के निर्माण की मूल प्रेरणा मानव-जीवन में ही विद्यमान रहती है। जीवन के लिए ही उसकी सृष्टि होती है। तुलसीदास जब स्वांत:सुखाय काव्य-रचना करते हैं, तब अभिप्राय यह नहीं रहता कि मानव-समाज के लिए इस रचना का कोई उपयोग नहीं है, बल्कि उनके अंत:करण में संपूर्ण संसार की सुख-भावना एवं हित-कामना सन्निहित रहती है। जो साहित्यकार अपने संपूर्ण व्यक्तित्व को व्यापक लोक-जीवन में सन्निविष्ट कर देता है, उसी के हाथों स्थायी एवं प्रेरणाप्रद साहित्य का सृजन हो सकता है। प्रश्न – (क) प्रस्तुत गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर – (क) शीर्षक-साहित्य की प्रासंगिकता।
18.भारतीय मनीषा ने कला, धर्म, दर्शन और साहित्य के क्षेत्र में नाना भाव से महत्वपूर्ण फल पाए हैं और भविष्य में भी महत्वपूर्ण फल पाने की योग्यता का परिचय वह दे चुकी है। परंतु भिन्न कारणों से समूची जनता एक ही धरातल पर नहीं है और सबकी चिंतन-दृष्टि भी एक नहीं है। जल्दी ही कोई फल पा लेने की आशा में अटकलपच्चू सिद्धांत कायम कर लेना और उसके आधार पर कार्यक्रम बनाना अभीष्ट सिद्ध में सब समय सहायक नहीं होगा। विकास की अलग-अलग सीढ़ियों पर खड़ी जनता के लिए नाना प्रकार के कार्यक्रम आवश्यक होंगे। उद्देश्य की एकता ही विविध कार्यक्रमों में एकता ला सकती है, परंतु इतना निश्चित है कि जब तक हमारे सामने उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो जाता, तब कोई भी कार्य, कितनी ही व्यापक शुभेच्छा के साथ क्यों न आरंभ किया जाए, वह फलदायक नहीं होगा। बहुत-से हिंदू- एकता को या हिंदू-संगठन को ही लक्ष्य मानकर उपाय सोचने लगते हैं। वस्तुत: हिंदू-मुस्लिम एकता साधन है, साध्य नहीं। साध्य है, मनुष्य को पशु समान स्वार्थी धरातल से ऊपर उठाकर ‘मनुष्यता’ के आसन पर । हिंदू और मुस्लिम अगर मिलकर संसार में लूट-खसोट मचाने के लिए साम्राज्य स्थापित करने निकल पड़े, तो हिंदू-मुस्लिम मिलन से मनुष्यता काँप उठेगी। परंतु हिंदू-मुस्लिम मिलन का उद्देश्य है-मनुष्य को दासता, जड़ता, , कुसंस्कार और परमुखापेक्षिता से बचाना; मनुष्य को क्षुद्र स्वार्थ और अहमिका की दुनिया से ऊपर उठाकर सत्य, और दुनिया में ले जाना; मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को हटाकर परस्पर सहयोगिता के पवित्र धन में बाँधना। मनुष्य का सामूहिक कल्याण ही हमारा लक्ष्य हो सकता है। वही मनुष्य का सर्वोत्तम प्राप्य है। आर्य, नाग, आभीर आदि जातियों के सैकड़ों वर्षों के संघर्ष के बाद हिंदू दृष्टिकोण बना है। नए सिरे से भारतीय दृष्टिकोण बनाने के लिए इतने ही लंबे अरसे की जरूरत नहीं है। आज हम इतिहास को अधिक यथार्थ ढंग से समझ सकते हैं और तदनुकूल अपने विकास की योजना बना सकते हैं। धैर्य हमें कभी नहीं छोड़ना चाहिए। इतिहास-विधाता समझकर ही हम अपनी योजना बनाएँ, तो सफलता की आशा कर सकते हैं। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर – (क) शीर्षक-हमारा लक्ष्य-मानव-कल्याण।
(घ) इसका अर्थ यह है कि मात्र हिंदू-मुस्लिम ऐक्य स्थापित करना ही हमारा लक्ष्य नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे मानव-कल्याण का उद्देश्य पाने का साधन भी समझना चाहिए। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि हिंदू-मुस्लिम की यह एकता अपने उद्देश्य से भटककर मानवता-विरोधी कार्य में न संलग्न हो जाए।
19. स्वतंत्र व्यवसाय की अर्थनीति के नए वैश्चिक वातावरण ने विदेशी पूँजी-निवेश की खुली छूट है रखी है, जिसके कारण दूरदर्शन में ऐसे विज्ञापनों की भरमार हौ गई है, जो उन्मुक्त वासना, हिंसा, अपराध, लालच और ईर्ष्या जैसे मानव की हीनतम प्रवृस्तिओं को आधार मानकर चल रहै हैं। अत्यंत खेद का विषय है कि राष्टीय दूरदर्शन ने भी उनकी भौंडी नकल कौ ठान ली हैं। आधुनिकता के नाम पर जो कुछ दिखाया जा रहा है, सुनाया जा रहा है, उससे भारतीय जीवन-मुख्या का दूर का भी रिश्ता नहीं है, वे सत्य से भी कोसों दूर हैं। नई पीढी, जो स्वयं में रचनात्मक गुणों का विकास करने की जगह दूरदर्शन के सामने बैठकर कुछ सीखना, जानना और मनोरंजन करना चाहती है, उसका भगवान ही मालिक है। जो असत्य है, वह सत्य नहीं हो सकता। समाज को शिव बनाने का प्रयत्न नहीं होगा तो समाज शव बनेगा ही। आज यह मज़बूरी हो गई है कि दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले वासनायुक्त, अश्लील दृश्यों से चार पीढ़ियाँएक साथ आँखें चार कर रही हैं। नतीजा सामने हैं। बलात्कार, अपहरण, छोटी बच्चियों के साथ निकट संबंधियों द्वारा शर्मनाक यौनाचार की घटनाओं में वृदूधि। ठुमक कर चलते शिशु दूरदर्शन पर दिखाए और सुनाए जा रहे स्वर और भंगिमाओं, पर अपनी कमर लचकाने लगे हैं। ऐसे कार्यक्रम न शिव हैं, न समाज को शिव बनाने को शक्ति है इनमें। फिर जी शिव नहीं, वह सुंदर जैसे हो सकता है। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर – (क)
शीर्षक-भारतीय दूरदर्शन की अनर्थकारी भूमिका।
20. संस्कृति और सभ्यता-ये दो शब्द हैं और उनके अर्थ भी अलग-अलग हैं। सभ्यता मनुष्य का वह गुण है, जिससे वह अपनी बाहरी तरक्की करता है। संस्कृति वह गुण है, जिससे वह अपनी भीतरी उन्नति करता है, करुणा, प्रेम और परोपकार सीखता है। आज रेलगाडी , मोटर और हवाई जहाज, लंबी-चौही सड़कें और बड़े-बड़े मकान, अच्छा भोजन और अच्छी पोशाक, ये सभ्यता की पहचान है और जिस देश में इनकी जितनी ही अधिकता है, उस देश को हम उतना ही सभ्य मानते हैं। मगर संस्कृति इन सबसे कहीं बारीक चीज है। वह मोटर नहीं, मोटर बनाने की कला है, मकान नहीं, मकान बनाने की रुचि डै। संस्कृति धन नहीं, गुण है। संस्कृति ठाठ-बाट नहीँ, विनय और विनम्रता है। एक कहावत है कि सभ्यता वह चीज है, जो हमारे पास है, लेकिन संस्कृति वह गुण है, जो हममें छिपा हुआ है। हमारे पास घर होता है कपडे-लत्ते होते हैं, मगर ये सारी चीजे हमारी सभ्यता के सबूत हैं, जबकि संस्कृति इतने मोटे तौर पर दिखाई नहीं देती, वह बहुत ही सूक्ष्म और महीन चीज है और वह हमारी हर पसंद, हर आदत में छिपी रहती है। मकान बनाना सभ्यता का काम है, लेकिन हम मकान का कौन-सा नक्शा पसंद करते है-यह हमारी संस्कृति बताती है। आदमी के भीतर काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर-ये छह विकार प्रकृति के दिए हुए हैं। परंतु अगर ये विकार बेरोके छोड़ दिए जाएँ, तो आदमी इतना गिर जाए कि उसमें और जानवर में कोई भेद नहीं रह जाएगा। इसलिए आदमी इन विकारों पर रोक लगाता है। इन दुर्गिणों पर जो आदमी जितना ज्यादा काबू कर याता है, उसकी संस्कृति भी उतनी ही ऊँची समझी जाती है। संस्कृति का स्वभाव है कि वह आदान-प्रदान रने बढती है। जब दो देशों या जातियों के लोग आपस में मिलते हैं तब उन दोनों की संस्कृतियाँ एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। इसलिए संस्कृति को दृष्टि से वह जाति या वह देश बहुत ही धनी समझा जाता है, जिसने ज्यादा-रपे-ज्यादा देशों या जातियों को संस्कृतियों से लाभ उठाकर अपनी संस्कृति का विकास किया हो। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर – (क) शीर्षक-सभ्यता और संस्कृति।
21.विधाता-रचित इस सृष्टि का सिरमौर है-मनुष्य, उसकी कारीगरी का सर्वोत्तम नमूना। मानव को ब्रहमांड का लघु रूप मानकर भारतीय दार्शनिकों ने ‘यत् पिंडे तत् ब्रहमडे’ की कल्पना की थी। उनकी यह कल्पना मात्र कल्पना नहीं थी, प्रत्युत यथार्थ में जो विचारना के रूप में घटित होता है, उसी का कृति रूप ही तो सृष्टि है। मन तो मन, मानव का शरीर भी अप्रतिम है। देखने में इससे भव्य, आकर्षक एवं लावण्यमय रूप सृष्टि में अन्यत्र कहाँ है? अद्भुत एवं अद्वतीय है-मानव-सौंदर्य। साहित्यकारों ने इसके रूप-सौंदर्य के वर्णन के लिए कितने ही अप्रस्तुतों का विधान किया है करने के लिए अनेक काव्य-सृष्टियाँ रच डाली हैं। साहित्यशास्त्रियों ने भी इसी हुए अनेक रसों का निरूपण किया है। परंतु वैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया जाए, तो मानव-शरीर को एक जटिल यंत्र से उपमित किया जा सकता है। जिस प्रकार यंत्र के एक पुर्जे में जाने यंत्र गड़बड़ा जाता है, बेकार हो जाता है, उसी प्रकार मानव-शरीर के विभिन्न अवयवों में से बिगड़ जाता है, तो उसका प्रभाव सारे शरीर पर पड़ता है। इतना ही नहीं, गुर्दे जैसे कोमल एवं नाजुक हिस्से के खराब हो जाने से यह गतिशील वपुर्यत्र एकाएक अवरुद्ध हो सकता है, व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है। एक अंग के विकृत होने पर सारा शरीर दंडित हो, वह कालकवलित हो जाए-यह विचारणीय है। यदि किसी यंत्र के पुर्जे को बदलकर उसके स्थान पर नया पुर्जा लगाकर यंत्र को पूर्ववत सुचारु एवं व्यवस्थित रूप से क्रियाशील बनाया जा सकता है तो शरीर के विकृत अंग के स्थान पर नव्य निरामय अंग लगाकर शरीर को स्वस्थ एवं सामान्य क्यों नहीं बनाया जा सकता? शल्य-चिकित्सकों ने इस दायित्वपूर्ण चुनौती को स्वीकार किया तथा निरंतर अध्यवसायपूर्ण साधना के अनंतर अंग-प्रत्यारोपण के क्षेत्र में सफलता प्राप्त की। अंग-प्रत्यारोपण का उद्देश्य यह है कि मनुष्य दीर्घायु प्राप्त कर सके। यहाँ यह ध्यातव्य है कि मानव-शरीर हर अंग को उसी प्रकार स्वीकार नहीं करता, जिस प्रकार हर किसी का रक्त उसे स्वीकार्य नहीं होता। रोगी को रक्त देने से पूर्व रक्त-वर्ग का परीक्षण अत्यावश्यक है तो अंग-प्रत्यारोपण से पूर्व ऊतक-परीक्षण अनिवार्य है। आज का शल्य-चिकित्सक गुर्दे, यकृत, आँत, फेफड़े और हृदय का प्रत्यारोपण सफलतापूर्वक कर रहा है। साधन-संपन्न चिकित्सालयों में मस्तिष्क के अतिरिक्त शरीर के प्राय: सभी अंगों का प्रत्यारोपण संभव हो गया है। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर – (क) शीर्षक-मानव अंग प्रत्यारोपण।
22. हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता जनसंख्या-वृद्ध रोकना है। इस क्षेत्र में हमारे सभी प्रयत्न निष्फल रहे हैं। ऐसा क्यों है? यह इसलिए भी हो सकता है कि समस्या को देखने का हर एक का एक अलग नजरिया है। जनसंख्याशास्त्रियों के लिए यह आँकड़ों का अंबार है। अफ़सरशाही के लिए यह टागेंट तय करने की कवायद है। राजनीतिज्ञ इसे वोट बैंक की दृष्टि से देखता है। ये सब अपने-अपने ढंग से समस्या को सुलझाने में लगे हैं। अत: अलग-अलग किसी के हाथ सफलता नहीं लगी। पर यह स्पष्ट है कि परिवार के आकार पर आर्थिक विकास और शिक्षा का बहुत प्रभाव का मतलब पाश्चात्य मतानुसार भौतिकवाद नहीं, जहाँ बच्चों को बोझ माना जाता है। हमारे यह सम्मानपूर्वक जीने के स्तर से संबंधित है। यह मौजूदा संपत्ति के समतामूलक विवरण पर ही निर्भर नहीं है, वरन ऐसी शैली अपनाने से संबंधित है, जिसमें अस्सी करोड़ लोगों की ऊर्जा का बेहतर इस्तेमाल हो सके। इसी प्रकार स्त्री-शिक्षा भी है। यह समाज में एक नए प्रकार का चिंतन पैदा करेगी, जिससे सामाजिक और आर्थिक विकास के नए आयाम खुलेंगे और साथ ही बच्चों के विकास का नया रास्ता भी खुलेगा। अत: जनसंख्या की समस्या सामाजिक है। यह अकेले सरकार नहीं सुलझा सकती। केंद्रीयकरण से हटकर इसे ग्राम-ग्राम, व्यक्ति-व्यक्ति तक पहुँचाना होगा। जब तक यह जन-आंदोलन नहीं बन जाता, तब तक सफलता मिलना संदिग्ध है। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर – (क) शीर्षक-जनसंख्या पर नियंत्रण।
23. प्रकृति वैज्ञानिक और कवि दोनों की ही उपास्या है। दोनों ही उससे निकटतम संबंध स्थापित करने की चेष्टा करते हैं, किंतु दोनों के दृष्टिकोण में अंतर है। वैज्ञानिक प्रकृति के बाहय रूप का अवलोकन करता है और सत्य की खोज करता है, परंतु कवि बाहय रूप पर मुग्ध होकर भावों का तादात्म्य स्थापित करता है। वैज्ञानिक प्रकृति की जिस वस्तु का अवलोकन करता है, उसका सूक्ष्म निरीक्षण भी करता है। चंद्र को देखकर उसके मस्तिष्क में अनेक विचार उठते हैं। इसका तापक्रम क्या है, कितने वर्षों में यह पूर्णत: शीतल हो जाएगा। ज्वार-भाटे पर इसका क्या प्रभाव होता है, किस प्रकार और किस गति से यह सौर-मंडल में परिक्रमा करता है और किन तत्वों से इसका निर्माण हुआ है। वह अपने सूक्ष्म निरीक्षण और अनवरत चिंतन से इसको एक लोक ठहराता है और उस लोक में स्थित ज्वालामुखी पर्वतों तथा जीवनधारियों की खोज करता है। इसी प्रकार वह एक प्रफुल्लित पुष्प को देखकर उसके प्रत्येक अंग का विश्लेषण करने को तैयार हो जाता है। उसका प्रकृति-विषयक अध्ययन वस्तुगत होता है। उसकी दृष्टि में विश्लेषण और वर्गविभाजन की प्रधानता रहती है। वह सत्य और वास्तविकता का पुजारी होता है। कवि की कविता भी प्रत्यक्षावलोकन से प्रस्फुटित होती है। वह प्रकृति के साथ अपने भावों का संबंध स्थापित करता है। वह उसमें मानव-चेतना का अनुभव करके उसके साथ अपनी आतरिक भावनाओं का समन्वय करता है। वह तथ्य और भावना के संबंध पर बल देता है। वह नग्न सत्य का उपासक नहीं होता। उसका वस्तु-वर्णन हृदय की प्रेरणा का परिणाम होता है, वैज्ञानिक की भाँति मस्तिष्क की यांत्रिक प्रक्रिया नहीं। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर – (क) शीर्षक-प्रकृति, कवि और वैज्ञानिक। अथवा, कवि और वैज्ञानिक दृष्टि में प्रकृति।
(ज)
24.मृत्युजय और संघमित्र की मित्रता पाटलिपुत्र के जन-जन की जानी बात थी। मृत्युंजय जन-जन द्वारा ‘धन्वंतरि’ की उपाधि से विभूषित वैद्य थे और संघमित्र समस्त उपाधियों से विमुक्त ‘भिक्षु’। मृत्युजय चरक और सुश्रुत को समर्पित थे तो संघमित्र बुद्ध के संघ और धर्म को। प्रथम का जीवन की संपन्नता और दीर्घायुष्य में विश्वास था तो द्रवितीय का जीवन के निराकरण और निर्वाण में। दोनों ही दो विपरीत तटों के समान थे, फिर भी उनके मध्य बहने वाली स्नेह-सरिता उन्हें अभिन्न बनाए रखती थी। यह आश्चर्य है, जीवन के उपासक वैद्यराज को उस निर्माण के लोभी के बिना चैन ही नहीं था, पर यह परम आश्चर्य था कि समस्त रोगों को मलों की तरह त्यागने में विश्वास रखने वाला भिक्षु भी वैद्यराज के मोह में फेंस अपने निर्वाण को कठिन-से-कठिनतर बना रहा था। वैद्यराज अपनी वार्ता में संघमित्र से कहते-निर्वाण (मोक्ष) का अर्थ है आत्मा की मृत्यु पर विजय। संघमित्र हँसकर कहते-देह द्वारा मृत्यु पर विजय मोक्ष नहीं है। देह तो अपने-आप में व्याधि है। तुम देह की व्याधियों को दूर करके कष्टों से छुटकारा नहीं दिलाते, बल्कि कष्टों के लिए अधिक सुयोग जुटाते हो। देह व्याधि से मुक्ति तो भगवान की शरण में है। वैद्यराज ने कहा-मैं तो देह को भगवान के समीप जीते जी बने रहने का माध्यम मानता हूँ। पर दृष्टियों का यह विरोध उनकी मित्रता के मार्ग में कभी बाधक नहीं हुआ। दोनों अपने कोमल हास और मोहक स्वर से अपने-अपने विचारों को प्रस्तुत करते रहते। प्रश्न – (क) मृत्युजय कौन थे? उनकी विचारधारा क्या थी? उत्तर – (क) मृत्युजय लोगों के बीच ‘धनवंतरि’ वैद्य के नाम से लोकप्रिय थे। उनकी विचारधारा यह थी कि लोगों का जीवन सुखी एवं संपन्न हो। “वे नीरोगी तथा दीर्घायु होकर स्वस्थ जीवन का लाभ उठाएँ। 25. बड़ी चीजें बड़े संकटों में विकास पाती हैं, बड़ी हस्तियाँ बड़ी मुसीबतों में पलकर दुनिया पर कब्जा करती हैं। अकबर ने तेरह साल की उम्र में अपने पिता के दुश्मन को परास्त कर दिया था जिसका एकमात्र कारण यह था कि अकबर का जन्म रेगिस्तान में हुआ था और वह भी उस समय, जब उसके पिता के पास एक कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थी। महाभारत में देश के प्राय: अधिकांश वीर कौरवों के पक्ष में थे। मगर फिर भी जीत पांडवों की हुई, क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी, क्योंकि उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था। विंस्टन चर्चिल ने कहा है कि जिंदगी की सबसे बड़ी सिफ्त हिम्मत है। आदमी के और सारे गुण उसके हिम्मती होने से ही पैदा होते हैं। जिंदगी की दो ही सूरतें हैं। एक तो यह कि आदमी बड़े-से-बड़े मकसद के लिए कोशिश कुरे, जगमगाती हुई जीत पर पंजा डालने के लिए हाथ बढ़ाए और अगर असफलताएँ कदम-कदम पर जोश की रोशनी के साथ अँधियाली का जाल बुन रहीं हो, तब भी वह पीछे को गाँव न हटाए। दूसरी सूरत यह है कि उन गरीब आत्माओं का हमजोली बन जाए जो न तो बहुत अधिक सुख पाती हैं और न जिन्हें बहुत अधिक दुख पाने का ही संयोग है, क्योंकि वे आत्माएँ ऐसी गोधूलि में बसती है जहाँ न तो जीत हँसती है और न कमी हार के रोने की आवाज सुनाई देती डै। इस गोधूलि वाली दुनिया के लोग बँधे हुए घाट का पानी पीते है, वे जिंदगी के साथ जुआ नहीं खेल सकते। और कौन कहता है कि पूरी जिन्दगी को दाँव पर लगा देने में कोई आनंद नहीं है? अगर रास्ता आगे की निकल रहा डो तो फिर असली मजा तो पाँव बढाते जाने में ही है। साहस की जिंदगी सबसे बड़ी जिंदगी होती है। ऐसी जिंदगी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह बिलकुल निडर, बिलकुल बेखौफ़ होती है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं। जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला आदमी दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्यता को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है। अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना, यह साधारण जीव का काम है। क्रांति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न ही अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धम बनाते हैं। प्रश्न – (क) गद्यांश
में अकबर का उदाहरण क्यों दिया गया है? उत्तर – (क) गद्यांश में अकबर का उदाहरण विपरीत परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लेने और उन पर विजय पाने के लिए दिया गया है। अकबर का जन्म रेगिस्तान में हुआ था जहाँ सुख-सुविधा के साधन न थे, फिर भी
वह मात्र तेरह वर्ष की अल्पायु में अपने पिता के दुश्मन को हराने में सफल रहा था। वह संकटों में पल-बढ़कर बड़ा हुआ था। 26. विषमता शोषण की जननी है। समाज में जितनी विषमता होगी, सामान्यतया शोषण उतना ही अधिक होगा। चूँकि हमारे देश में सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक असमानताएँ अधिक हैं जिनकी वजह से एक व्यक्ति एक स्थान पर शोषक तथा वही दूसरे स्थान पर शोषित होता है। चूँकि जब बात उपभोक्ता संरक्षण की हो तब पहला प्रश्न यह उठता है कि उपभोक्ता किसे कहते हैं? या उपभोक्ता की परिभाषा क्या है? सामान्यत: उस व्यक्ति या व्यक्ति-समूह को ‘उपभोक्ता’ कहा जाता है जो सीधे तौर पर किन्हीं भी वस्तुओं अथवा सेवाओं का उपयोग करते हैं। इस प्रकार सभी व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में शोषण का शिकार अवश्य होते हैं। हमारे देश में ऐसे अशिक्षित, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से दुर्बल, अशक्त लोगों की भीड़ है जो शहर की मलिन बस्तियों में, फुटपाथ पर, सड़क तथा रेलवे लाइन के किनारे, गंदे नालों के किनारे झोंपड़ी डालकर अथवा किसी भी अन्य तरह से अपना जीवन-यापन कर रहे हैं। वे दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देश की समाजोपयोगी ऊध्र्वमुखी योजनाओं से वंचित हैं, जिन्हें आधुनिक सफ़ेदपोशों, व्यापारियों, नौकरशाहों एवं तथाकथित बुद्धजीवी वर्ग ने मिलकर बाँट लिया है। सही मायने में शोषण इन्हीं की देन है। ‘उपभोक्ता’ शोषण का तात्पर्य केवल उत्पादकता व व्यापारियों द्वारा किए गए शोषण से ही लिया जाता है जबकि इसके क्षेत्र में वस्तुएँ एवं सेवाएँ दोनों ही सम्मिलित हैं, जिनके अंतर्गत डॉक्टर, शिक्षक, प्रशासनिक अधिकारी, वकील सभी आई सबानेशषणके क्षेत्रमेंजकर्तमान बनाए वे वास्ता में निजबुकऑफ़ वर्ल्ड किईसा मेंदर्डक ने लायक ह। प्रश्न – (क) गद्यांश का समुचित शीर्षक लिखिए। उत्तर – (क) शीर्षक-उपभोक्ता शोषण। 27.जो अनगढ़ है, जिसमें कोई आकृति नहीं, ऐसे पत्थरों से जीवन को आकृति प्रदान करना, उसमें कलात्मक संवेदना जगाना और प्राण-प्रतिष्ठा करना ही संस्कृति है। वस्तुत: संस्कृति उन गुणों का समुदाय है, जिन्हें अनेक प्रकार की शिक्षा द्वारा अपने प्रयत्न से मनुष्य प्राप्त करता है। संस्कृति का संबंध मुख्यत: मनुष्य की बुद्ध एवं स्वभाव आदि मनोवृत्तियों से है। संक्षेप में, सांस्कृतिक विशेषताएँ मनुष्य की मनोवृत्तियों से संबंधित हैं और इन विशेषताओं का अनिवार्य संबंध जीवन के मूल्यों से होता है। ये विशेषताएँ या तो स्वयं में मूल्यवान होती हैं अथवा मूल्यों के उत्पादन का साधन। प्राय: व्यक्तित्व में विशेषताएँ साध्य एवं साधन दोनों ही रूपों में अर्थपूर्ण समझी जाती हैं। वस्तुत: संस्कृति सामूहिक उल्लास की कलात्मक अभिव्यक्ति है। संस्कृति व्यक्ति की नहीं, समष्टि की अभिव्यक्ति है। डॉ० संपूर्णानंद ने कहा है-“संस्कृति उस दृष्टिकोण को कहते हैं, जिसमें कोई समुदाय विशेष जीवन की समस्याओं पर दृष्टि निक्षेप करता है।” संक्षेप में वह समुदाय की चेतना बनकर प्रकाशमान होती है। यही चेतना प्राणों की प्रेरणा है और यही भावना प्रेम में प्रदीप्त हो उठती है। यह प्रेम संस्कृति का तेजस तत्व है, जो चारों ओर परिलक्षित होता है। प्रेम वह तत्व है, जो संस्कृति के केंद्र में स्थित है। इसी प्रेम से श्रद्धा उत्पन्न होती है, समर्पण जन्म लेता है और जीवन भी सार्थक लगता है। प्रश्न – (क) संस्कृति एक
निष्प्राण पत्थर को किस प्रकार जीवंत बना सकती है? उत्तर – (क) संस्कृति एक निष्प्राण पत्थर को निम्नलिखित उपायों द्वारा जीवंत बना सकती है
(ख) संक्कर्ष मानुयक मोतियों से इसिलए है
क्योंकि मानुयक मोतियों शिवा गुण औरप्रयों से निर्मित होती हैं।
(घ) संस्कृति समष्टि की अभिव्यक्ति इसलिए है, क्योंकि यह सामूहिक उल्लास है।
(ज) प्रेम चारों ओर फैलकर श्रद्धा एवं समर्पण को जन्म देता है। 28. राष्ट्र केवल जमीन का टुकड़ा ही नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत होती है जो हमें अपने पूर्वजों से परंपरा के रूप में प्राप्त होती है। जिसमें हम बड़े होते हैं, शिक्षा पाते हैं और साँस लेते हैं-हमारा अपना राष्ट्र कहलाता है और उसकी पराधीनता व्यक्ति की परतंत्रता की पहली सीढ़ी होती है। ऐसे ही स्वतंत्र राष्ट्र की सीमाओं में जन्म लेने वाले व्यक्ति का धर्म, जाति, भाषा या संप्रदाय कुछ भी हो, आपस में स्नेह होना स्वाभाविक है। राष्ट्र के लिए जीना और काम करना, उसकी स्वतंत्रता तथा विकास के लिए काम करने की भावना ‘राष्ट्रीयता’ कहलाती है। जब व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से धर्म, जाति, कुल आदि के आधार पर व्यवहार करता है तो उसकी दृष्टि संकुचित हो जाती है। राष्ट्रीयता की अनिवार्य शर्त है-देश को प्राथमिकता, भले ही हमें ‘स्व’ को मिटाना पड़े। महात्मा गांधी, तिलक, सुभाषचंद्र बोस आदि के कार्यों से पता चलता है कि राष्ट्रीयता की भावना के कारण उन्हें अनगिनत कष्ट उठाने पड़े किंतु वे अपने निश्चय में अटल रहे। व्यक्ति को निजी अस्तित्व कायम रखने के लिए पारस्परिक सभी सीमाओं की बाधाओं को भुलाकर कार्य करना चाहिए तभी उसकी नीतियाँ-रीतियाँ राष्ट्रीय कही जा सकती हैं। जब-जब भारत में फूट पड़ी, तब-तब विदेशियों ने शासन किया। चाहे जातिगत भेदभाव हो या भाषागत-तीसरा व्यक्ति उससे लाभ उठाने का अवश्य यत्न करेगा। आज देश में अनेक प्रकार के आदोलन चल रहे हैं। कहीं भाषा को लेकर संघर्ष हो रहा है तो कहीं धर्म या क्षेत्र के नाम पर लोगों को निकाला जा रहा है जिसका परिणाम हमारे सामने है। आदमी अपने अह में सिमटता जा रहा है। फलस्वरूप राष्ट्रीय बोध का अभाव परिलक्षित हो रहा है। प्रश्न – (क) गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए। उत्तर – (क) शीर्षक-राष्ट्रीयता की भावना।
(छ) राष्ट्रीय बोध का अभाव हमें अनेक रूपों में दिखाई देता है; जैसे
(ज)
राष्ट्र के उत्थान में व्यक्ति का सबसे महत्वपूर्ण स्थान होता है। व्यक्ति यदि अपने ‘स्व’ को मिटाकर देशहित को प्राथमिकता दे, दूसरे व्यक्ति के धर्म, भाषा, जाति, संप्रदाय का आदर करे और क्षेत्र के नाम पर मरने-मिटने की संकीर्ण भावना का त्याग कर दे तो राष्ट्र में सुख-शांति, भाई-चारा, सद्भाव बढ़ जाएगा और संघर्ष समाप्त होगा जिससे राष्ट्र उन्नति के पथ पर अग्रसर हो जाएगा। स्वयं करें निम्नलिखित गदयांशों को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए- 1. ‘अनुशासन’ का अर्थ है-अपने को कुछ नियमों से बाँध लेना और उन्हीं के अनुसार कार्य करना। कुछ व्यक्ति अनुशासन की व्याख्या ‘शासन का अनुगमन’ करने के अर्थ में करते हैं, परंतु यह अनुशासन का संकुचित अर्थ है। व्यापक रूप में अनुशासन सुव्यवस्थित ढंग से उन आधारभूत नियमों का पालन ही है, जिनके द्वारा किसी अन्य व्यक्ति के मार्ग में बाधक बने बिना व्यक्ति अपना पूर्ण विकास कर सके। अनुशासन में रहने का भी एक आनंद है, लेकिन आज व्यक्तियों में अनुशासनहीनता की भावना बढ़ रही है। समाचार-पत्रों में हमेशा यही पढ़ने को मिलता है कि आज अमुक नगर में दस दुकानें लूटी गई, बसों में आग लगा दी गई, दो गिरोहों में लाठियाँ चल गई आदि। ये बातें आए दिन पढ़ने को मिलती हैं। यदि किसी भी कर्मचारी को कोई गलत काम करने से रोका जाए, तो वह अपने साथियों से मिलकर काम बंद करा देगा। बहुत दिनों तक हड़तालें चलती रहेंगी। कारखानों और कार्यालयों में काम बंद हो जाएगा। अनुशासन के अभाव में समाज में अराजकता और अशांति का साम्राज्य होता है। वन्य पशुओं में अनुशासन का कोई महत्व नहीं है, इसी कारण उनका जीवन अरक्षित, आतंकित एवं अव्यवस्थित रहता है। सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ जीवन में अनुशासन का महत्व भी बढ़ता गया। आज के वैज्ञानिक युग में तो अनुशासन के बिना मनुष्य का कार्य ही नहीं हो सकता। कुछ व्यक्ति सोचते हैं कि अब मानव सभ्य और शिक्षित हो गया है, उस पर किसी भी प्रकार के नियमों का बंधन नहीं होना चाहिए। वह स्वतंत्र रूप से जो भी करे, उसे करने देना चाहिए। लेकिन यदि व्यक्ति को यह अधिकार दिया जाए तो चारों तरफ वन्य जीवन जैसी अव्यवस्था आ जाएगी। मानव, मानव ही है, देवता नहीं। उसमें सुप्रवृत्तियाँ और कुप्रवृत्तियाँ दोनों ही होती हैं। मानव सभ्य तभी तक रहता है, जब तक वह अपनी सुप्रवृत्तियों की आज्ञा के अनुसार कार्य करे। इसलिए मानव के पूर्ण विकास के लिए कुछ बंधनों और नियमों का होना आवश्यक है। अनुशासनबद्धता मानव-जीवन के मार्ग में बाधक नहीं, अपितु उसको पूर्ण उन्नति तक पहुँचाने के लिए अनुकूल अवसर प्रदान करती है। अनुशासन के बिना तो मानव-जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। विद्यार्थी जीवन में तो अनुशासन का बहुत महत्व है। आज अनुशासनहीनता के कारण साल में छह महीने विश्वविद्यालयों में हड़तालें हो जाती हैं। तोड़-फोड़ करना तो विद्यार्थी का कर्तव्य बन गया है। छोटी-छोटी बातों में मारपीट हो जाती है।अत: हर मनुष्य का कर्तव्य है कि अनुशासन का उल्लंघन न करे। यह विचित्र होते हुए भी कितना सत्य है कि अनुशासन एक प्रकार का बंधन है, परंतु मनुष्य को स्वच्छद रूप से अपने अधिकारों का पूरा सदुपूयोग करने का अवसर भी प्रदान करता है। वह एक ओर बंधन है, तो दूसरी ओर मुक्ति भी। प्रश्न – (क) मानव-विकास के लिए अनुशासन क्यों आवश्यक है?
2. ‘हम कमजोर वर्गों का उत्थान करना चाहते हैं। इसके लिए हम कुछ विशेष योजनाएँ बनाएँ। उन योजनाओं के कार्यान्वयन से उनकी हालत सुधर जाएगी।’ राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ‘करो पहिले, कहो पीछे’ वाले आहवान को ताक पर रखकर दिए जाने वाले ऐसे आश्वासन पिछले सात दशकों से हम हर सत्ताधारी पार्टी के कर्णधारों के मुँह से सुनते आ रहे हैं। हर पार्टी ने अपने शासनकाल में कई प्रकार के बहुसूत्रीय कार्यक्रम भी बनाए, जिनके तहत करोड़ों रुपये का प्रावधान किया गया। सरकार स्वयं जानती है कि ऐसी रकम का बहुत थोड़ा अंश कमजोर वर्गों तक पहुँच पाता है। शेष रकम बीच में मध्यस्थ राजनेताओं, ठेकेदारों और हाकिमों की जेब में चली जाती है। जैसे जीर्ण पाइप लाइन से बहता पानी बीच-बीच में छेदों से होकर चू जाता है। पूर्व प्रधानमंत्रियों और अन्य कर्णधारों के नामों पर चलाई गई इन महत्वाकांक्षी योजनाओं के कार्यान्वयन के बाद भी हमारे समाज के कमजोर वगों के सदस्यों की निरंतर वृद्ध ही होती आ रही है, कमी नहीं। वे गरीबी की रेखा से नीचे धंसे जा रहे हैं, उभरते नहीं। ‘कमजोर’ शब्द दो शब्दों के मेल से बना है, कम जोर। यानी जिस वर्ग के सदस्यों में जोर कम है, वह वर्ग कमजोर परिवार और समूह नए ढंग से विद्योपार्जन से विमुख रहे हैं या विद्या से वंचित रह गए हैं, वे नीचे गिरते गए हैं, भले ही उन्होंने किसी सीधे या कुत्सित मार्ग से थोड़ा-बहुत धन अर्जित किया हो। विद्याविहीन के हाथ आया धन वैसे ही निरुपयोगी है, जैसे बंदर के हाथ आया पुष्पहार। इसलिए जो भी राजनीतिक दल भारतीय समाज के कमजोर वर्ग में उत्थान की शक्ति भर देना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि जहाँ आवश्यक व संभव हो, उदारमना उद्योगपतियों और औद्योगिक उपक्रमों का यथोचित सहयोग लेते हुए ऐसा वातावरण बनाएँ, जिससे कमजोर वर्ग का हर बालक-बालिका, हर किशोर अपनी बौद्धक क्षमता के अनुरूप, अपनी जन्मजात रुचि के अनुरूप कोई-न-कोई जीवनोपयोगी विद्या अर्जित कर सके। ‘विदयाधनं सर्वधनात् प्रधानम्’ जीवन भर सीखते रहने की अभिलाषा पा सके। विद्योपार्जन के लिए अक्षर ज्ञान अनिवार्य है या नहीं? इस पर शिक्षाविदों में मतभेद है। कुछ विद्वानों का मानना है कि बिना अक्षरज्ञान पाए भी ज्ञान-ग्रहण किया जा सकता है। वे कबीर जैसे ज्ञानियों का उदाहरण देते हैं, जिन्होंने कलम-दवात हाथ से छुए बिना उच्च कोटि का ज्ञान पाया। पर ये तो कुछ अपवाद मात्र हैं। साधारण नियम नहीं। अक्षर को ज्ञान-भंडार की कुंजी मानते हैं तो कमजोर वर्गों का उत्थान करने की इच्छा रखने वाले राजनैतिक ऐसी योजनाएँ बनाएँ, जो कमजोर वर्ग को निरक्षरता से और अशिक्षा से मुक्त कर सकें। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
3. मुझे लगता है ‘बरसात’ के भी पहले के किसी चित्रपट का वह कोई गाना था, तब से लता निरंतर गाती चली आ रही है और मैं भी उसका गाना सुनता आ रहा हूँ। लता के पहले प्रसिद्ध गायिका नूरजहाँ का चित्रपट-संगीत में अपना जमाना था। परंतु उसी क्षेत्र में बाद में आई हुई लता उससे कहीं आगे निकल गई। कला के क्षेत्र में ऐसे चमत्कार कभी-कभी दिखपड़ते हैं। जैसे प्रसिद्ध सितारवादक विलायत खाँ अपने सितारवादक पिता की तुलना में बहुत आगे निकल गए। मेरा स्पष्ट मत है कि भारतीय गायिकाओं में लता के जोड़ की गायिका हुई ही नहीं। लता के कारण चित्रपट-संगीत को विलक्षण लोकप्रियता प्राप्त हुई है, लता के स्वरों में कोमलता और मुग्धता है। ऐसा दिखता है कि लता का जीवन की ओर देखने का जो दृष्टिकोण है, वही उसके गायन की निर्मलता में झलक रहा है। हाँ, संगीत दिग्दर्शकों ने उसके स्वर की इस निर्मलता का जितना उपयोग कर लेना चाहिए था, उतना नहीं किया। मैं स्वयं संगीत दिग्दर्शक होता, तो लता को बहुत जटिल काम देता, ऐसा कहे बिना रहा नहीं जाता। लता के गाने की एक और विशेषता है, उसका नादमय उच्चारण। उसके गीत के किन्हीं दो शब्दों का अंतर स्वरों की आस द्वारा बड़ी सुंदर रीति से भरा रहता है और ऐसा प्रतीत होता है कि वे दोनों शब्द विलीन होते-होते एक-दूसरे में मिल जाते हैं। यह बात पैदा करना कठिन है, परंतु लता के साथ यह बात अत्यंत सहज और स्वाभाविक हो बैठी है। ऐसा माना जाता है कि लता के गाने में करुण रस विशेष प्रभावशाली रीति से व्यक्त होता है, पर मुझे खुद यह बात नहीं जैचती। मेरा अपना मत है कि लता ने करुण रस के साथ उतना न्याय नहीं किया है। बजाय इसके, मुग्ध श्रृंगार की अभिव्यक्ति करने वाले मध्य या द्रुतलय के गाने लता ने बड़ी उत्कटता से गाए हैं। मेरी दृष्टि से उसके गायन में एक और कमी है, तथापि यह कहना कठिन होगा कि इसमें लता का दोष कितना है और संगीत दिग्दर्शकों का दोष कितना। लता का गाना सामान्यत: ऊँची पट्टी में रहता है। गाने में संगीत दिग्दर्शक लता से अधिकाधिक ऊँची पट्टी में गवाते हैं और इससे अकारण ही चिल्लवाते हैं। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
4. एक ओर नारी उत्पीड़न को रोकने के उद्देश्य से नए कानून बनाए जा रहे हैं। दूसरी ओर नारी उत्पीड़न की अत्यंत क्रूर घटनाओं का खुलासा होता जा रहा है। अभी की बात है, केरल की ‘संध्या’ नामक सत्रह-वर्षीय टेलीविजन सीरियलों एवं विज्ञापन अभिनेत्री के साथ हुए उत्पीड़नकी करुण कथा मलयालम समाचार-पत्र ‘मातृभूमि’ के कुछ अंकों में आई है। समाचारों का संक्षेप यही है कि संध्या एक हफ़्ते पूर्व घर से गायब हो गई थी। उससे विवाह करने का वचन देकर कोई युवक उसे भगा ले गया था। रास्ते में उसे कई स्थानों पर पुरुषों का उत्पीड़न सहना पड़ा। पुलिस ने कुछ व्यक्तियों से पूछताछ की, पर अपराधियों को पकड़ नहीं पाई। लड़की ने संत्रस्त होकर अपने ही घर में खुदकुशी कर डाली। स्थानीय नेताओं ने माँग की कि चूँकि उसकी मृत्यु संदेहास्पद परिस्थिति में हुई है, इसलिए इस घटना की जाँच की जानी चाहिए। राज्य सरकार ने क्राइम ब्रांच द्वारा घटना की जाँच कराने का निर्णय लिया है। अब विस्तार से जाँच होगी। संभव है, अपराधियों को कैद करने में पुलिस कामयाब होगी। यह भी संभव है कि यदि अपराधियों में कोई राजनेता या अन्य वी०आई०पी० भी जुड़े हों, तो जाँच-कर्मियों को पूरी सफलता न मिले। जो भी हो सत्रह वर्ष की छोटी आयु में ही एक भारतीय नारी को पुरुषों के क्रूर उत्पीड़नों के कारण अपनी जीवनलीला समाप्त करनी पड़ी। यह हमारे लिए शर्म और ग्लानि की बात है। इस प्रकरण को एक दूसरी दृष्टि से भी देखने का प्रयत्न करें। हमारे समाज में कन्याओं के विवाह के लिए अठारह वर्ष की आयु ही उचित मानी जाती है। उससे पहले विवाह करना शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से और सामाजिक हित की दृष्टि से आपत्तिजनक माना जाता है। ऐसी स्थिति में सत्रह वर्ष की एक कन्या के मन में विवाह का मोह उत्पन्न हो जाए और विवाह का वचन मात्र मिलने पर, विवाह के पूर्व किसी पुरुष के साथ घर से निकल पड़ने के लिए प्रेरित हो जाए, तो इसके लिए हम किसे दोषी ठहराएँ? क्या हमारा समाज बालिकाओं को उचित जीवन-मूल्यों का संदेश देने में असफल हो रहा है? अब इसी मामले पर एक और दृष्टि से भी विचार करें। क्या हमारी औपचारिक शिक्षा हमारी किशोरियों में कोई ऐसा मूल्य स्थापित करती है, जो उन्हें इस प्रकार के प्रलोभन में फस जाने के लिए प्रेरित करता है? इसी उधेड़बुन में मैंने एक कहानी-संग्रह पढ़ना प्रारंभ किया। कहानी-संग्रह का नाम है ‘कथा धारा’ जो यशस्वी कथाकार मार्कडेय द्वारा संपादित है और केरल विश्वविद्यालय की बी०ए० परीक्षा के हिंदी पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। उसमें संकलित एक कहानी पर मेरी नजर पड़ी। शीर्षक है-‘यही सच है”। लेखिका हैं-मन्नू भंडारी। कहानी की नायिका दीपा एक शोध छात्रा है, जो अपने नए प्रेमी संजय के बारे में सोचती है-“संजय अपने बताए हुए समय से घंटे दो घंटे देरी करके आता
है …….उसी क्षण से प्रतीक्षा करने लगती हूँ……… किसी काम में अपना मन नहीं लगा पाती ’ संजय, विवाह के पहले कोई लड़की किसी को इन सबका अधिकार नहीं देती………पर मैंने दिया…….तुम्हारा मेरा प्यार ही सच है……..वही नायिका कुछ ही दिन बाद अपने पुराने प्रेमी निशीथ के साथ टैक्सी में यात्रा करती है तो सोचती है–”जितनी द्रुत गुी टैक्स चीज रहा है मुनेलता हैउन द्वागत से मैंभ बीज रहा हैं.अनुक्त अवात दियाओं की ओर। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
5.परिश्रम को सफलता की कुंजी माना गया है। जीवन में सफलता पुरुषार्थ से ही प्राप्त होती है। कहा भी है-उद्योगी पुरुषसिंह को लक्ष्मी वरण करती है। जो भाग्यवादी हैं, उन्हें कुछ नहीं मिलता। वे हाथ-पर-हाथ धरे रह जाते हैं। अवसर उनके सामने से निकल जाता है। भाग्य कठिन परिश्रम का ही दूसरा नाम है। प्रकृति को ही देखिए। सारे जड़-चेतन अपने कार्य में लगे रहते हैं। चींटी को भी पल-भर चैन नहीं। मधुमक्खी जाने कितनी लंबी यात्रा कर बूंद-बूंद मधु जुटाती है। मुरगे को सुबह बाँग लगानी ही है। फिर मनुष्य को बुद्ध मिली है, विवेक मिला है। वह निठल्ला बैठे, तो सफलता की कामना करना व्यर्थ है। विश्व में जो देश आगे बढ़े हैं, उनकी सफलता का रहस्य कठिन परिश्रम ही है। जापान को दूसरे विश्व-युद्ध में मिट्टी में मिला दिया गया था। उसकी अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई थी। दिन-रात जी-तोड़ श्रम करके वह पुन: विश्व का प्रमुख औद्योगिक देश बन गया। चीन को शोषण से मुक्ति भारत से देर में मिली, वह भी श्रम के बल पर आज भारत से आगे निकल गया है। जर्मनी ने भी युद्ध की विभीषिकाएँ झेलीं, पर श्रम के बल पर सँभल गया। परिश्रम का महत्व वे जानते हैं, जो स्वयं अपने बल पर आगे बढ़े हैं। संसार के अनेक महापुरुष परिश्रम के प्रमाण हैं। कालिदास, तुलसी, टैगोर और गोकीं परिश्रम से ही अमर हुए। संसार के इतिहास में अनेक चमकते सितारे केवल परिश्रम के ही प्रमाण हैं। बड़े-बड़े धन-कुबेर निरंतर श्रम से ही असीम संपत्ति के स्वामी बने हैं। फ़ोर्ड साधारण मैकेनिक था। धीरू भाई अंबानी शिक्षक थे। लगन और दृढ़ संकल्प परिश्रम को सार्थक बना देते हैं। गरीबी के साथ परिश्रम जुड़ जाए, तो सफलता मिलती है और अमीरी के साथ श्रमहीनता या निठल्लापन आ जाए, तो असफलता मुँह बाये खड़ी रहती है। भारतीय कृषक के परिश्रम का ही फल है कि देश में हरित क्रांति हुई। अमेरिका के सड़े गेहूँ से पेट भरने वाला देश आज गेहूँ का निर्यात कर रहा है। कल-कारखाने रात-दिन उत्पादन कर रहे हैं। हमारे वस्त्र के बाजारों में . बिकते हैं। उन्नत औद्योगिक देश भी हमसे वैज्ञानिक उपकरण खरीद रहे हैं। किसी क्षेत्र में हम पिछड़े हैं, तो उसका कारण है, यहाँ परिश्रम का अभाव। विद्यार्थी जीवन तो परिश्रम की पहली पाठशाला है। यहाँ से परिश्रम की आदत पड़ जाए तो ठीक, अन्यथा जाने कहाँ-कहाँ की ठोकरें खानी पड़े। एडीसन से किसी ने कहा-आपकी सफलता का कारण आपकी प्रतिभा है। एडीसन ने झटपट सुधारा-प्रतिभा के माने एक औस बुद्ध और एक टन परिश्रम। प्रश्न – (क) परिश्रम के संदर्भ में प्रकृति से कौन-कौन-से उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं?
6. तेजी से बदलते हुए हमारे जीवन-मूल्यों का एक दुखद परिणाम यह है कि यदि बस में कोई बूढ़ा किसी-न-किसी प्रकार धक्का खाकर चढ़ भी जाए, तो किसी सीट पर बैठ नहीं पाएगा। करीब आधी से अधिक सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। उन सीटों पर तो उनका मौलिक अधिकार है ही, पर शेष सीटों पर भी वे कब्जा कर लेती हैं। बची-खुची सारी सीटों पर या तो किशोर छात्राएँ या युवक और मध्य वयस्क यात्री अपना अधिकार जमा लेंगे। बेचारे बूढ़ों को खड़े-खड़े यात्रा करनी होगी। केरल जैसे कुछ राज्यों में हर बस में बाई तरफ की एक सीट विकलांग लोगों के लिए आरक्षित होती है और एक सीट सीनियर सिटीजन के लिए। कोई विकलांग यात्री आ जाए, तो कंडक्टर आरक्षित सीट पर उसे तुरंत बैठा लेगा। पर कोई बूढ़ा यात्री आ जाए, तो कंडक्टर अनदेखी करता है। बूढ़ों के लिए आरक्षित सीट पर बैठा किशोर या युवक हटने का नाम भी नहीं लेता। अभी हाल ही की बात है। सुबह आठ बजे मैं घर से निकला। एक पुस्तक खरीदने रेलवे स्टेशन के पास तक बस से जाना था। डीजल-पेट्रोल के दाम में हुई वृद्ध के अनुपात में बस-भाड़े में वृद्ध करने की माँग को लेकर निजी बस सेवाएँ हड़ताल पर थीं। अत: सरकारी परिवहन निगम की बसों में यात्रियों की भरमार थी। घर के निकट के बस स्टॉप पर आधे घंटे तक इंतजार करने पर भी मैं किसी बस में चढ़ नहीं पाया। सभी के दरवाजों से छात्र लटके हुए जा रहे थे। फिर एक किलोमीटर चलकर दूसरे बस डिपो पहुँचा। वहाँ भी यात्रियों की बड़ी भीड़ थी। किसी-न-किसी तरह एक बस में घुस गया। पिछले आधे भाग में स्त्रियाँ बैठी थीं और अगले भाग में किशोर युवक और मध्य वयस्क पुरुष। बूढ़ों के लिए आरक्षित सीट पर एक हट्टा-कट्टा जवान बैठा था। देखते-देखते यात्री इतने घुस आए कि खड़े रहने तक की जगह नहीं मिल रही थी। बस चलने लगी तो मुझे लगा कि साँस लेना भी कठिन लग रहा है। मैं यात्रियों से बुरी तरह घिर गया था। मेरा सिर पसीने से तर होने लगा। लगा कि मेरी सारी मांसपेशियाँ शिथिल हो रही हैं। हथेलियाँ ठडी हो रही थीं। मेरे बाएँ हाथ में एक थैला था। वह हाथ से छूट गया। मुझे लगा कि मैं अब गिर जाऊँगा। एक महिला ने मेरी विवशता समझ ली और मुझे बैठने को थोड़ी जगह दी। रेलवे स्टेशन का स्टॉप आ गया। मैं किसी प्रकार से उतर पड़ा। सामने जो पी०सी०ओ० था, उसके सामने पहुँचकर मैंने काउंटर पर बैठी महिला से अनुरोध किया-मुझे चक्कर आ रहा है। जरा फ़र्श पर लेटने दें। कहते-कहते मैं फ़र्श पर चित्त लेट गया। महिला घबरा गई और पास की दुकान से दो पुरुषों को बुला लिया। करीब दस मिनट तक मैं वैसे ही पड़ा रहा। सोचा-अंतिम घड़ी आ गई है। भगवान की कृपा से थोड़ी देर बाद मेरी शिथिलता जाती रही। मित्रो, बूढ़े यात्रियों को बस में बैठने दें, ताकि उन्हें मेरे जैसी विपदा न भोगनी पड़े। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
7.भारतीय समाज में नारी की स्थिति सचमुच विरोधाभासपूर्ण रही है। संस्कृति पक्ष से उसे ‘शक्ति’ माना गया है तो लोकपक्ष से उसे ‘अबला’ कहा गया है। सदियों के संस्कारों की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि उन्हें न तो कुछ वर्षों की शैक्षणिक प्रगति खोद सकती है, न कुछेक आंदोलनों से उन्हें हिलाया जा सकता है। अत: स्थिति पूर्ववत ही बनी रहती है। यह स्थिति कई मामलों में अब भी उलझी हुई है और दिशा अस्पष्ट है, क्योंकि यहाँ हर प्रश्न को पश्चिमी आईने में देखा गया। तटस्थ समाजशास्त्रीय दृष्टि इस बारे में नहीं रही। हमारे यहाँ विभिन्न समाजों में स्त्रियों की स्थिति और प्रगति बहुत कुछ स्थानीय, सामुदायिक व जातीय परंपराओं पर आधारित है। एक ही धर्म और एक ही भौगोलिक स्थिति के भीतर (केरल में) कहीं मातृसत्तात्मक परिवार में स्त्री ही मुखिया है और उसे अधिकार प्राप्त हैं, कहीं मातृसत्तात्मक परिवार में भी उनका सम्मान नहीं रहा, तो कहीं पितृसत्तात्मक परिवार में भी उनकी स्थिति सम्मानजनक रही। समाजशास्त्रीय दृष्टि इन विभिन्नताओं को रेखांकित करती है। हमारा दुर्भाग्य यह रहा है कि हम पश्चिमी देशों के अंधानुकरण को अपनी प्रगति मान बैठे हैं। ‘वीमेंसलिब’ का अतिवाद पश्चिमी देशों को परिवारवाद की ओर लौटा रहा है। तीसरी दुनिया के हमारे जैसे देश बुनियादी समस्याएँ भूल आगे होकर उसी मुक्ति आंदोलन को अपनाने की होड़ में लगे हैं। यह सब दिशाहीन यात्रा है। स्थानीय और राष्ट्रीय परंपराओं और स्थितियों के अनुरूप कोई लक्ष्य, कोई स्पष्ट दिशा निर्धारित किए बिना, बिना इस बात पर गंभीरता से विचार किए कि ‘स्त्रीवाद’ का अर्थ परिवार तोड़ना या सामाजिक विघटन लाना नहीं है और न ही आजाद होने का मतलब यह है कि औरत औरत न रहे, हम अपने यहाँ इस आदोलन को चला रहे हैं। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
8. वीरता की अभिव्यक्ति अनेक प्रकार से होती है। लड़ना-मरना, खून बहाना, तोप-तलवार के सामने न झुकना ही नहीं, कर्ण की भाँति याचक को खाली हाथ न लौटाना या बुद्ध की भाँति गूढ़ तत्वों की खोज में सांसारिक सुख त्याग देना भी वीरता ही है। वीरता तो एक अंत:प्रेरणा है। वीरता देश-काल के अनुसार संसार में जब भी प्रकट हुई, तभी अपना एक नया रूप लेकर आई और लोगों को चकित कर गई। वीर कारखानों में नहीं ढलते, न खेतों में उगाए जाते हैं। वे तो देवदार के वृक्ष के समान जीवन रूपी वन में स्वयं उगते हैं, बिना किसी के पानी दिए, बिना किसी के दूध पिलाए बढ़ते हैं। वीर का दिल सबका दिल और उसके विचार सबके विचार हो जाते हैं। उसके संकल्प सबके संकल्प हो जाते हैं। औरतों और समाज का हृदय वीर के हृदय में धड़कता है। प्रश्न – (क) वीरता की अभिव्यक्ति किन-किन रूपों में हो सकती है?
9. संसार में दो अचूक शक्तियाँ हैं-वाणी और कर्म। कुछ लोग वचन से संसार को राह दिखाते हैं और कुछ लोग कर्म से। शब्द और आचार दोनों ही महान शक्तियाँ हैं। शब्द की महिमा अपार है। विश्व में साहित्य, कला, विज्ञान, शास्त्र सब शब्द-शक्ति के प्रतीक प्रमाण हैं। पर कोरे शब्द व्यर्थ होते हैं, जिनका आचरण न हो। कर्म के बिना वचन की, व्यवहार के बिना सिद्धांत की कोई सार्थकता नहीं है। निस्संदेह शब्द-शक्ति महान है, पर चिरस्थायी और सनातनी शक्ति तो व्यवहार है। महात्मा गांधी ने इन दोनों की कठिन और अद्भुत साधना की थी। महात्मा जी का संपूर्ण जीवन इन्हीं दोनों से युक्त था। वे वाणी और व्यवहार में एक थे। जो कहते थे, वही करते थे। यही उनकी महानता का रहस्य है। कस्तूरबा ने शब्द की अपेक्षा कृति की उपासना की थी, क्योंकि कृति का उत्तम व चिरस्थायी प्रभाव होता है। ‘बा’ ने कोरी शाब्दिक, शास्त्रीय, सैद्धांतिक शब्दावली नहीं सीखी थी। वे तो कर्म की उपासिका थीं। उनका विश्वास शब्दों की अपेक्षा कमों में था। वे जो कहा करती थीं, उसे पूरा करती थीं। वे रचनात्मक कर्मों को प्रधानता देती थीं। इसी के बल पर उन्होंने अपने जीवन में सार्थकता और सफलता प्राप्त की थी। प्रश्न – (क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
10. वैज्ञानिक प्रयोग की सफलता ने मनुष्य की बुद्ध का अपूर्व विकास कर दिया है। द्रवितीय महायुद्ध में एटम-बम की शक्ति ने कुछ क्षणों में ही जापान की अजेय शक्ति को पराजित कर दिया। इस शक्ति की युद्धकालीन सफलता ने अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस आदि सभी देशों को ऐसे शस्त्रास्त्रों के निर्माण की प्रेरणा दी कि सभी भयंकर और सर्वविनाशकारी शस्त्र बनाने लगे। अब सेना को पराजित करने तथा शत्रु-देश पर पैदल सेना द्वारा आक्रमण करने के लिए शस्त्र-निर्माण के स्थान पर देश का विनाश करने की दिशा में शस्त्रास्त्र बनने लगे हैं। इन हथियारों का प्रयोग होने पर शत्रु-देशों की अधिकांश जनता और संपत्ति थोड़े समय में ही नष्ट की जा सकेगी। चूँकि ऐसे शस्त्रास्त्र प्राय: सभी स्वतंत्र देशों के संग्रहालयों में कुछ-न-कुछ आ गए हैं, अत: युद्ध की स्थिति में उनका प्रयोग भी अनिवार्य हो जाएगा। अत: दुनिया का सर्वनाश या अधिकांश नाश, तो अवश्य हो ही जाएगा। इसीलिए नि:शस्त्रीकरण की योजनाएँ बन रही हैं। शस्त्रास्त्रों के निर्माण में जो दिशा अपनाई गई, उसी के अनुसार आज इतने उन्नत शस्त्रास्त्र बन गए हैं, जिनके प्रयोग से व्यापक विनाश आसन्न दिखाई पड़ता है। अब भी परीक्षणों की रोकथाम तथा बने शस्त्रों के प्रयोग को रोकने के मार्ग खोजे जा रहे हैं। इन प्रयासों के मूल में एक भयंकर आतंक और विश्व-विनाश का भय कार्य कर रहा है। प्रश्न – (क) इस गद्यांश का मूल कथ्य संक्षेप में लिखिए।
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