Solution : दो प्रकार के संसाधन, नवीकरणीय और अपरिवर्तनीय हैं। ... संसाधनों का संरक्षण नहीं करके, मनुष्य अपने सभी संसाधनों को जल्दी से खर्च कर सकते हैं, और एक बार उपयोग किए जाने पर, ये संसाधन पूरी तरह से चले गए हैं। हमें अपने संसाधनों को संरक्षित करना चाहिए क्योंकि प्रकृति में उनमें प्रचुरता नहीं है। Show जल का उपयोग कृषि, उद्योगों, यातायात, ऊर्जा तथा घरेलू उपयोग के संसाधन के रूप में किया जाता है। जल का संरक्षण जीवन का संरक्षण है। जल एक चक्रीय संसाधन है जिसको वैज्ञानिक ढंग से साफ कर पुनः प्रयोग में लाया जा सकता है। पृथ्वी पर जल वर्षा और बर्फ से उपलब्ध होता है। यदि जल का युक्तिसंगत उपयोग किया जाए तो वह हमारे लिये कभी कम नहीं पड़ेगा। परन्तु संसार के कुछ भागों में जल की बहुत कमी है। मनुष्य अपने जीविकोपार्जन के लिये प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करता है। आदिम-मानव अपने पर्यावरण से प्राप्त वनस्पतियों एवं पशुओं पर निर्भर था। उस समय जनसंख्या का घनत्व कम था, मनुष्य की आवश्यकताएँ सीमित थीं तथा प्रौद्योगिकी का स्तर नीचे था। अतः उस समय संरक्षण की समस्या नहीं थी। कालान्तर में मनुष्य ने संसाधनों के दोहन की प्रौद्योगिकी में विकास किया। वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास द्वारा मनुष्य जीविकोपार्जी संसाधनों के अतिरिक्त, उत्पादन के संसाधनों का भी दोहन करने लगा। आज आधुनिक तकनीकी की सहायता से संसाधनों का दोहन और भी बड़े पैमाने पर होने लगा है। जनसंख्या की निरंतर वृद्धि के कारण संसाधनों की मांग बढ़ रही है साथ ही प्रौद्योगिकी के विकास द्वारा इन्हें उपभोग करने की मनुष्य की क्षमता भी बढ़ी है अतः इस होड़ ने यह आशंका उत्पन्न कर दी है कि कहीं ये संसाधन शीघ्र समाप्त न हो जाएँ और पूरी मानवता के जीवन पर ही प्रश्नचिन्ह न लग जाए। संरक्षण से तात्पर्य
संरक्षण की आवश्यकता
संसाधनों के संरक्षण के उपाय
1. मृदा संरक्षणमृदा वनस्पतियों के उगने का माध्यम है जो विभिन्न प्रकार के प्राणियों का जीवन आधार है। फसलें, घास, फल-फूल, सब्जियाँ, वृक्ष आदि सभी मृदा में उगते हैं। मृदा एक नवीकरण योग्य संसाधन है परन्तु अपरदन एवं निक्षालन आदि कुछ ऐसी समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं जिससे मृदा संरक्षण आवश्यक हो जाता है। मृदा को बहुत बड़ी हानि अपरदन से होती है। मृदा अपरदन प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक कारणों से होता है। इसके प्राकृतिक कारक भूमि का ढाल, वर्षा की तीव्रता, वायु वेग, हिमानी प्रवाह आदि हैं। सांस्कृतिक कारकों में वनों का अत्यधिक दोहन, धरातल पर वनस्पतियों का विनाश, अति पशु चारण एवं अवैज्ञानिक कृतिष पद्धति आदि मुख्य हैं। मृदा संरक्षण के उपाय स्थानीय कारकों के आधार पर किये जाते हैं। पर्वतीय ढालों पर सीढ़ीनुमा खेत बनाकर कृषि करना, वनोरोपण, अवालिकाओं को पत्थरों से बंद करना तथा अवालिकाओं के शीर्ष को और बढ़ने से रोकना आदि मृदा संरक्षण के उपाय के रूप में अपनाए जाते हैं। शुष्क एवं मरुस्थलीय क्षेत्रों में मृदा अपरदन वायु द्वारा होता है। वृक्षों तथा वनस्पतियों के विनाश से वायु वेग की तीव्रता में अवरोध नहीं होता अतः अपरदन को रोकने के लिये वृक्षों का लगाना एक प्रभावशाली उपाय है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर वृक्षों की कतारें लगाकर शैल्टरबेल्ट बनाई जा सकती है। फसल कटने के बाद खेत खाली हो जाते हैं, उन पर भी वायु वेग से मृदा अपरदन होता है अतः इससे बचने के लिये फसल का 30-35 से.मी. तक डंठल छोड़कर काटना चाहिए जिससे धरातल पर वायु वेग का प्रभाव न पड़े। मरुस्थलीय क्षेत्रों में अति पशुचारण पर प्रतिबंध लगाकर भी मृदा अपरदन को रोका जा सकता है। इसरायल में पेट्रोलियम जेली का उपयोग भी किया गया है। मैदानी भागों में मृदा अपरदन की गम्भीर समस्या चिकनी मिट्टी (क्ले) के क्षेत्रों में अवनालिकाओं के कारण होती है। इन क्षेत्रों में खेतों में मेड़ बनाकर, अति पशुचारण पर रोक लगाकर वैज्ञानिक फसल चक्र अपनाकर, तथा हरी एवं गोबर की खाद का प्रयोग कर तथा नालों के पानी के प्रवाह पर नियंत्रण द्वारा मृदा अपरदन को कम किया जा सकता है।मृदा का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण इसकी उर्वरता है। इसका संरक्षण आवश्यक है। उर्वरता में ह्रास से उत्पादकता कम हो जाती है। हरी तथा गोबर की खाद मिलाकर, रासायनिक उर्वरकों तथा जिप्स के प्रयोग, फसल चक्र अपनाकर तथा परती छोड़कर, मृदा की उर्वरता को बढ़ाया जाता है। इस प्रकार से मृदा का नवीकरण भी होता रहता है। 2. वनस्पति का संरक्षणवनस्पति का उपयोग दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। औद्योगिक क्रांति के बाद वनों का बड़े पैमाने पर ह्रास हुआ है। भारत के कई भागों में ईंधन और काष्ठ कोयला के लिये अंधाधुंध लकड़ी की कटाई हुई और ऐसे क्षेत्रों में झाड़ियाँ उग आईं। प्राचीन तृृृण भूमियाँ आज कृषि क्षेत्र में बदल गयी हैं। भारत के प्राचीन वनों को आग लगाकर नष्ट किया जा चुका है। इसके परिणाम हैं मिट्टी का कटाव, अधिक अपवाह और बाढ़। कहीं-कहीं दावाग्नि, कीडे-दीमक आदि से भी वनों को क्षति पहुँचती है। इन क्षतियों से बचने के लिये वन संरक्षण अनिवार्य है। वनों से प्राप्त होने वाले गौण पदार्थों की मांग भी निरंतर बढ़ती जा रही है अतः वनों के संरक्षण की अत्यंत आवश्यकता है। वन संरक्षण के लिये इन बातों पर ध्यान देने की आवश्यकता है: 1. जिन क्षेत्रों से निकट अतीत में वृक्ष काट डाले गए हैं, वहाँ वृक्षारोपण किया जाए। वृक्षारोपण से न केवल वन संपदा की वृद्धि होगी बल्कि मिट्टी का कटाव कम होगा, अपवाह घटेगा और भूमि जल की आपूर्ति में वृद्धि होगी। 3. जीव-जन्तुओं का संरक्षणजीवन की विविधता बनाए रखने में वन्य प्राणियों का बहुत योगदान है। रंग-बिरंगी चिड़ियाँ, जानवर एवं अन्य जीव जंतु वनों में पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिये आवश्यक हैं। वनों में भोजन शृंखला को बनाए रखने में प्रत्येक का बहुत योगदान है। वन के ह्रास के साथ-साथ वन्य प्राणियों की संख्या में भी कमी आयी है। इनकी जातियाँ समाप्त न हो जाएँ इसलिये इनका संरक्षण आवश्यक है। भविष्य के लिये जीव जंतुओं को सुरक्षित रखने में ये उपाय कारगर सिद्ध हुए हैं। 1.
विश्व के विभिन्न भागों में जीवों को शरण देने के लिये स्थान स्थापित करना। हमारे देश में राष्ट्रीय उद्यानों अभ्यारण्यों की स्थापना इसी उद्देश्य से की गयी है। इन उद्यानों और अभ्यारण्यों में वन्य जीव-जंतुओं को प्राकृतिक वातावरण उपलब्ध कराया गया है तथा यहाँ इनके शिकार पर प्रतिबंध है। 4. खनिज संपदा का संरक्षणखनिजों का निरंतर खनन करते रहने पर कुछ वर्षों बाद उनकी समाप्ति हो जाती है। एक बार शोषण होने पर समाप्त होने खनिजों का संरक्षण अति आवश्यक है। विश्व में खनिजों का असमान वितरण मिलता है और उसकी मात्रा सीमित है। अतः उनके संचित भंडार के संरक्षण की और भी अधिक आवश्यकता है। खनिजों का संरक्षण इन विधियों से किया जा सकता है। 1. धात्विक खनिजों को खोदकर निकालने और माल तैयार करने में होने वाली बर्बादी को रोकना या कम
करना। 5. जल संरक्षणजल का उपयोग कृषि, उद्योगों, यातायात, ऊर्जा तथा घरेलू उपयोग के संसाधन के रूप में किया जाता है। जल का संरक्षण जीवन का संरक्षण है। जल एक चक्रीय संसाधन है जिसको वैज्ञानिक ढंग से साफ कर पुनः प्रयोग में लाया जा सकता है। पृथ्वी पर जल वर्षा और बर्फ से उपलब्ध होता है। यदि जल का युक्तिसंगत उपयोग किया जाए तो वह हमारे लिये कभी कम नहीं पड़ेगा। परन्तु संसार के कुछ भागों में जल की बहुत कमी है। जल का प्राकृतिक स्रोत वर्षा, बर्फ तथा ओम जल है। वर्षा का जल प्रवाहित होकर नदियों एवं नालों में पहुँचता है। इसके उपयोग के लिये जल को बाँध बनाकर रोका जा सकता है। जल का अधिकतम उपयोग कृषि में सिंचाई के लिये किया जाता है। यदि सिंचाई में प्रयोग होने वाले जल की बचत सम्भव हो सके तो यह बड़ी मात्रा में अन्य कार्यों के लिये भी उपलब्ध हो सकता है। नहरों को पक्का करके अवस्रवण से होने वाली हानियों को रोका जा सकता है। स्प्रिंकलर प्रभावी सिंचाई का माध्यम है इससे पानी की बचत होती है तथा ऊँची नीची भूमि पर भी सिंचाई की जा सकती है। यद्यपि इसमें पूँजी अधिक लगती है परन्तु वाष्पीकरण तथा निस्रवण द्वारा होने वाली पानी की हानियों को रोका जा सकता है। ट्स्य आ टिंकिल सिंचाई की विधि से जल भूमि के भीतर छेददार नलिकाओं द्वारा पौधों की जड़ों में डाला जाता है इससे वाष्पीकरण से होने वाली हानियों को रोका जा सकता है। उद्योगों में पानी की भारी मांग होती है। इसे कम करने से दो लाभ होंगे। प्रथम इससे उद्योग के अन्य खण्डों की पानी की मांग को पूरा किया जा सकता है। द्वितीय, इन उद्योगों द्वारा नदियों एवं नालों में छोड़े गए दूषित जल की मात्रा कम हो जाएगी। अधिकांश उद्योगों में जल का उपयोग शीतलन के लिये होता है। इस कार्य के लिये यह आवश्यक नहीं कि स्वच्छ और शुद्ध जल का प्रयोग किया जाए। इस कार्य के लिये पुनर्शोधिक जल का उपयोग किया जा सकता है। इसी पानी को बार-बार प्रयोग करके स्वच्छ जल की मात्रा को संरक्षित किया जा सकता है। जल की घरेलू मांग को भी संरक्षण की विधियों द्वारा कम किया जा सकता है। 6. वायु संरक्षणवायु प्राण का आधार है अतः वायु की शुद्धता पर हमारा स्वास्थ्य निर्भर होता है। वायु में कुछ तो नैसर्गिक अशुद्धताएँ होती हैं परन्तु अधिकांश मनुष्य द्वारा उत्पन्न की गयी हैं। पवन वेग से उठी हुई आंधियाँ धूलकणों को वायु में मिलाती हैं। इसी प्रकार ज्वालामुखी उद्गारों से निकली राख भी वायु को प्रदूषित करती है। परन्तु मनुष्य द्वारा उत्पन्न किया गया प्रदूषण बड़े पैमाने पर हो रहा है और वह अधिक घातक है। खनिज तेल, मशीनों और मोटरगाड़ियों में जलकर सल्फर तथा नाइट्रोजन आक्साइड उत्पन्न करता है। धात्विक अयस्क के प्रगलन के लिये कोयला जलाया जाता है जिसका धुआँ आकाश पर छाया रहता है फैक्ट्रियों की चिमनियों से निकलने वाला धुआँ, रेडियोधर्मी पदार्थों (परमाणु कचरे) से निकलने वाला विकिरण आदि सभी वायु को प्रदूषित कर रहे हैं अतः वायु का संरक्षण आवश्यक है। वायु की शुद्धता को दो प्रकार से बनाए रखा जा सकता है। प्रथम तकनीकी निरीक्षण द्वारा तथा द्वितीय भारी कर लगाकर। इसके लिये मोटरगाड़ियों, चिमनियों में ऐसी जाली लगाना आवश्यक है ताकि वायु में हानिकारक तत्व न पहुँचें। चिमनियों की ऊँचाई अधिक रखी जाए। अधिक वृक्षारोपण तथा मानव अधिवासों के पास हरित क्षेत्र बनाकर वायु के प्रदूषण को कम किया जा सकता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मिट्टी और वनों के ह्रास, जीव जंतुओं के संहार, खनिजों के अत्यधिक खनन, धुआँ से और जहरीले औद्योगिक प्रदूषणों से भरे महानगरीय वातावरण तथा जल एवं वायु के प्रदूषण से मानव वंश की नौका डगमगा रही है, उसकी शांति और समृद्धि खतरे में है। यदि विज्ञान और तकनीकी विकास में ही मानव विकास है तो उनका उपयोग नियोजनात्मक विधि से हो। हमें विश्व स्तर पर और प्रत्येक समाज के स्तर पर इस ह्रास और प्रदूषण की ओर ध्यान देकर संहारक स्थिति को रोकना होगा। 301/41सी/3एफ, शिवकुटी, पत्थर गली, इलाहाबाद- हमें इन प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता क्यों है?संपोषित विकास की संकल्पना मनुष्य की वर्तमान आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति एवं विकास को प्रोत्साहित तो करती ही है साथ ही साथ भावी संतति के लिए संसाधनों का संरक्षण भी करती है। आर्थिक विकास पर्यावरण संरक्षण से संबंधित है। अतः संपोषित विकास से जीवन के सभी आयाम में परिवर्तन निहित है।
संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता क्यों अनुभव की जाती है?यदि कुछ ही व्यक्तियों तथा देशों द्वारा संसाधनों का वर्तमान दोहन जारी रहता है, तो हमारी पृथ्वी का भविष्य खतरे में पड़ सकता है। इसलिए, हर तरह के जीवन का अस्तित्व बनाए रखने के लिए संसाधनों के उपयोग की योजना बनाना अति आवश्यक है। सतत् अस्तित्व सही अर्थ में सतत् पोषणीय विकास का ही एक हिस्सा है।
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