प्रकाश संश्लेषण के दौरान किस गैस का उत्सर्जन होता है - prakaash sanshleshan ke dauraan kis gais ka utsarjan hota hai

दीपक वर्मा

श्‍वसन-3

पिछले अंक में हमने श्‍वसन से जुड़ी दिक्‍कतों और विभिन्‍न प्राणियों में विकसित अलग-अलग तरह के श्‍वसन तंत्रों की बात की थी। पेड़-पौधों का श्‍वसन तंत्र भी इनसे अलग नहीं है।

प्रकाश संश्लेषण के दौरान किस गैस का उत्सर्जन होता है - prakaash sanshleshan ke dauraan kis gais ka utsarjan hota hai
पेड़-पौधे भी श्‍वसन करते हैं, और वो भी चौबीसों घंटे इस बात पर ज़ोर इसलिए देना पड़ा कि अभी कल ही किसी ने जिक्र किया, ‘’एक आम धारणा है कि प्रकाश संश्‍लेषण की क्रिया के समय श्‍वसन रूक जाता है और रात को जब प्रकाश संश्‍लेषण की क्रिया बंद हो जाती है तो श्‍वसन शुरू हो जाता है।‘’

दरअसल श्‍वसन की आवश्‍यकता जुड़ी हुई है ऊर्जा के उत्‍पादन और उसकी खपत से। यह ऊर्जा मिलती है कार्बोहाइड्रेट पदार्थों के ऑक्‍सीकरण से। प्रकाश संश्‍लेषण की क्रिया में पौधों में कार्बोहाइड्रेट पदार्थ बनते हैं; इनका ऑक्‍सीकरण होता है और ऊर्जा पैदा होती है। जीवन की तमाम गतिविधियों के लिए ऊर्जा की ज़रूरत तो सभी जीवधारियों को हमेशा है; हां, इसका उत्‍पादन ज़रूर क्रियाशीलता के हिसाब से कम-ज्‍यादा हो सकता है।

वैसे पेड़-पौधों की ऑक्‍सीजन की खपत जंतुओं के मुकाबले कम है। लेकिन उनमें श्‍वसन के लिए ज़रूरी मूलभूत शर्तें वैसी ही हैं जो अन्‍य सब जीव-धारियों पर लागू होती हैं – कोशिका में प्रवेश करने से पहले ऑक्‍सीजन घुली हुई होना चाहिए, विसरण तेज़ी से हो इसके लिए कोशिका और श्‍वसन सतह के बीच दूरी अत्‍यंत कत होनी चाहिए अथवा . . . आदि-आदि।

अगर आकार की दृष्टि से पेड़-पौधों को देखें तो वे एक कोशीय से लेकर बहुकोशीय रूप में मौजूद हैं। जलीय पौधों को तो कोई समस्‍या नहीं है; उनके आसपास के वातावरण में घुली ऑक्‍सीजन सीधे ही कोशिकाओं में विसरित हो जाती है।

लेकिन थलीय वातावरण में उगे हुए पौधों के लिए थलीय जंजुओं जैसी ही दिक्‍कते हैं – बड़ा आकार  यानी सवाल यह कि कैसे पहुंचे हर कोशि‍का तक ऑक्‍सीजन; और दूसरा कि नमी का बजाव कैसे किया जाए। तो कैसे निपटते हैं वे इन मुश्किलों से?

पौधों का श्‍वसन तंत्र
पूरे पेड़ में कोशिकाओं (ऊतकों) की जमावट कुछ इस तरह होती है कि उनके बीच खाली जगह मौजूद होती है। ये रिक्‍त स्‍थान आपस में एक दूसरे से जुड़े होते हैं। हवा इनमें पत्तियों और तने के छिद्रों से होकर प्रवेश करती हे। इस तरह हवा प्रत्‍येक ऊतक के पास मौजूद होती है। और कोशिका की ज़रूरत के समय ऑक्‍सीजन उसक झिल्‍ली की नमी में घुल कर अंदर विसरित हो जाती है। इसे पढ़ कर कीटों के समान नलिकाओं वाले श्‍वसन तंत्र का चित्र उभरता है न। कीटों में नलियों की एक व्‍यवस्‍था है जो प्रत्‍येक ऊतक के पास ऑक्‍सीजन पहुंचाने का काम करती है। लेकिन पेड़-पौधों के रिक्‍त स्‍थान की कोई बिल्‍कुल निश्चित जमावट नहीं होती। चलिए देखते हैं कि हवा पौधे या पेड़ के भीतर कैसे जा पाती है:

पत्तियों से: पत्तियां ऊपर से देखने में तो काफी कड़ी, चिकनी और हवा और पानी के लिए अपारगम्‍य (impremeable) नज़र आती हैं। लेकिन माइक्रोस्‍कोप से देखें तो पता चलता है कि कई जगहों पर ऊतकों(Tissues) की बिनाई इतनी ढीली होती है कि उनके बीच काफी खाली जगह मौजूद होती है। इस खाली जगह में श्‍वन रंध्र(Stomata) मौजूद होते हैं।

स्‍टोमेटा ऐसे रध्रं हैं जो दिखने में लगभग कीटों के श्‍वसन रंध्रों के समान दिखते हैं, परन्‍तु बहुत छोटे। इनके मुंह पर बंद और खुल सकने वाली दो रचनाएं होते है इन्‍हें रक्षक कोशिकाएं कहते हैं। दिन के समय जब प्रकाश संश्‍लेषण की प्रक्रिया काफी तेज़ होती है ये पूरे खुले रहते हैं और हवा इनमें से होकर आ-जा सकती है।

ये स्‍टोमेटा पत्तियों के झुके हुए हिस्‍से पर या फिर आमतौर पर नीचे की तरफ होते हैं, जहां कि सूर्य का प्रकाश सीधे नहीं पड़ता। यह इसलिए ताकि पानी के वाष्‍पोत्‍सर्जन की दर को कम रखा जा सके। वैसे भी हव की लगातार तेज़ आवाजाही की वजह से काफी पानी वाष्पित होता है। नीचे जड़ों से लगातार आ रहा पानी इस कमी को पूरा करता रहता है।

लगातार चलती प्रक्रिया

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पेड़-पौधों की पत्तियों में गैसीय आदान प्रदान की दो क्रियाए लगातार चलती रहती हैं। पहली तो अन्‍य सब जीव-जन्‍तुओं की भांति श्‍वसन जो चौबीसों घंटे जारी रहता है और जिसमें पौधे ऑक्‍सीजन इस्‍तेमाल करते हैं व कार्बन डाईऑक्‍साइड छोड़ते हैं।

दूसरी क्रिया भोजन बनाने अर्थात प्रकाश संश्‍लेषण की है जिसमें कार्बन डाईऑक्‍साइड इस्‍तेमाल होती है व ऑक्‍सीजन छोड़ी जाती है। जैसा कि नाम से ही विदित है प्रकाश संश्‍लेषण केवल रोशनी में संभव होता है इसलिए दिन में ये दोनों प्रक्रियाएं चालू होती हैं, एक में ऑक्‍सीजन छोड़ी जा रही है तो दूसरी में इस्‍तेमाल हो रही है।

इसलिए किसी भी समय बाहरी वातावरण से पत्‍ती कौन-सी गैस लेगी या कौन सी गैस छोड़ेगी (यानी कि गैसों का विसरण कैसे होगा) यह पत्‍ती के अन्‍दर उस विभिन्‍न गैसों की सांद्रता पर निर्भर करता है।

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ऊपर : एक पत्‍ती की काट जिसमें नीचे की तरु स्‍टोमेटा यानी रक्षक कोशिकाएं और खाली जगह दिख रही है।
बीच में: पत्‍ती का सूक्ष्‍मदर्शी से लिया गया चित्र, बीच में दिख रहे काले धब्‍बे स्‍टोमेटा हैं।
नीचे: खुली हुई स्थिति में लिया गया स्‍टोमेटा का इलेक्‍ट्रॉन माइक्रोग्राफ।

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रात के समय जब प्रकाश संश्‍लेषण की क्रिया नहीं होती स्‍टोमेटा लगभग बंद से हो जाते हैं बस थोड़े से खुले होते हैं उस समय; और हवा इनमें से होकर अंदर-बाहर होती रहती है। लेकिन स्‍टोमेटा सिर्फ पत्‍ती तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि पेड़ पौधों के जितने भी हरे हिस्‍से दिखते है उन सब जगहों पर मौजूद होते हैं ये।

लेन्टिसेल: हवा के पासपत्तियों से हाकर भरती जाने के  अलावा पेउ़ के तने पर भी रास्‍ते होते हैं। ये रास्‍ते या रंध्र जिन जगहों पर होते हैं वहां ऊतक काफी ढीले-ढाले रूप में जमे होते हैं। यहां कोई भी सुरक्षा कोशिका जैसी रचना नहीं होती। यानी हवा के आने जाने को लेकर लेन्टिसेल कोई रोकटोक नहीं लगाते।

जड़ों में: दरअसल पत्तियों और तने के समान जड़ों में हवा के आवागमन के लिए कोई विशेष किस्‍म की रचनाएं नहीं हैं। ये सीधे ज़मीन में मौजूद पानी से ऑक्‍सीजन सोख लेती हैं।

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ऊपर: तने की एक काट।
नीचे: एक पेड़ के तने पर सफेद धब्‍बों के रूप में दिख रहे लेनिटसेल। पतझड़ में सारा दारोमदार इन्‍हीं पर होता है।

पतझड़ में क्‍या ?

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पत्तियों के श्‍वसन तंत्र का हिस्‍सा होने का एक सीधा फायदा यह है कि श्‍वसन सतह का क्षेत्रफल बड़ा होना, यानी पर्याप्‍त ऑक्‍सीजन सोख पाना। लेकिन अगर ऐसा है तो पतझड़ में क्‍या जबकि पत्तियां झड़ जाती हें मतलब कि आपके श्‍वसन तंत्र का एक प्रमुख प्‍यादा गिर जाता है?

लेन्टिसेल ही काम आते हैं इस वक्‍त। जो पेड़ के तने, डालियों आदि में बिखरे रहते हैं। इनसे होकर इतनी ऑक्‍सीजन मिल जाती है जो पूरे पेड़ की ज़रूरत के हिसाब से पर्याप्‍त होती है। इस मौसम में प्रकाश संश्‍लेषण की क्रिया न्‍यूनतम हो जाती है; इसलिए खाना भी नहीं के बराबर बनता है। ऐसे में संरक्षित खाद्य पदार्थ का ऊर्जा उत्‍पादन के लिए उपयोग होता है। वैसे पेड़ के अलग-अलग हिस्‍सों को देखें तो जहां विकास हो रहा है जैसे नई पत्तियां आने की जगह, फूल बनने या फल बनने की जगह आदि- वहां पर श्‍वसन की गति अन्‍य जगहों के मुकबाले तेज़ होती है। क्‍योंकि यहां ऊर्जा ज़रूरत अधिक है।

आपने देखा होगा कि बागवानी करने वाले लोग पेड़-पौधों के आसपास की ज़मीन को खुरपी की मदद से भुरभुरी बनाते रहते हैं। वह इसलिए ताकि ज़मीन ढीली बनी रहे और उसमें हवा के गुज़रने के लिए खाली जगह बनी रहे।

जीवो के श्‍वसन की चर्चा में एक मुख्‍य मुद्दा था पानी को वाष्पित होने से बचाना; लेकिन यहां तो कोशिकाएं सीधे हवा क संपर्क में हैं तो पानी का बचाव . . . ?

वैसे थोड़ा ध्‍यान दें तो यहां भी हवा सीधे एकदम से कोशिकाओं के संपर्क में नहीं आ रही बल्कि स्‍टोमेटा और लेन्टिसेल से होकर पेड़-पौधे क अंदर क भीतर के रिक्‍त स्‍थान में घुस रही है। वहां पहले से ही काफी नमी होती है इसलिए हवा कोशिका के संपर्क में आने से पहले ही काफी नम हो चुकी होती है। इस वजह से कोशिकाओं की नमी के वाष्‍पन का खतरा काफी कम हो जाता है।

लेकिन फिर भी स्‍टोमेटा से काफी मात्रा में नमी वाष्पित होती रहती है। इस कमी को नीचे से ऊपर पत्तियों में आ रहा पानी पूरा करता रहता है। लेकिन फिर भी अगर वाष्‍पन की दर एक सीमा से अधिक हो जाए तो दिन के समय भी स्‍टोमेटा बंद हो जाते हैं और वाष्‍पन पर नियंत्रण रखते हैं।

विसरण और हवा
अगर सीधे-सीधे इंसान से तुलना करे तो फेफड़ों क सिकुड़ने-फैलने की क्रिया नाक से हवा को भीतर ले जाने का काम करती है; लेकिन पेड़ अगर सीधे हवा से सांस ले रहे हैं और हवा भीतर भी जा रही है तो अंदर कैसे घुस पा रही है?

दरअसल पेड़-पौधों का पूरा का पूरा श्‍वसन तंत्र विसरण के दौरान गैसों के अनुपात पर निर्भर है। जब कोशिका के अंदर ऑक्‍सीजन का अनुपात कम होता है तो बाहर रिक्‍त स्‍थान में मौजूद हवा झिल्‍ली में घुल कर अंदर विसरित हो जाती है और अंदर बनी कार्बन डाइऑक्‍साइड बाहर विसरित होकर रिक्‍त स्‍थान की हवा में मिल जाती है। इसी तरह अंदर कोशिकाओं के बीच के खाली स्‍थान मे मौजूद हवा में कार्बन डाइऑक्‍साइड का प्रतिशत बाहर पेड़ के चारों ओर मौजूद हवा के मुकाबले बढ़ जाता है तो वह विसरित होकर बाहर निकल आती है।

अगर एक वाक्‍य में कहें तो बाहर से पेड़ के अंदर की ओर, अंदर से बाहर की ओर, और अंदर कोशिका की ओर – हर जगह विभिन्‍न गैसों का कम-ज्‍़यादा होना विसरण के सिद्धांत द्वारा निधारिंत होता है।

प्रयोग पत्तियों के साथ

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स्‍टोमेटा से पानी का वाष्‍पन होता है और गैसीय आदान प्रदान भी। लेकिन क्‍या  इसे जांचने का कोई तरीका है? आइए दो प्रयोग करके देखते हैं। लेकिन परिणाम के इंतजार में कुछ दिन लगेंगे इसलिए आपको रोज़ अवलोकन लेने पड़ेंगे।

किसी भी पेड़ की खूब सारी पत्तियों को इकट्ठा कर उनके ऊपरद पोलीथि‍न की थैली बांध दीजिए। थैली अगर पारदर्शी हो तो बहुत अच्‍छा; ताकि आप अंद की स्थिति पर लगातार नज़र रख सकें। एकाध दिन में ही थैली के अंदर कुछ पानी इकट्ठा हो जाएगा। अगर तीन चार तरह के पेड़-पौधों के साथ ये प्रयोग करेंगे तो यह अवलोकन भी लिया जा सकता है कि क्‍या अलग-अलग पेड़ की पत्तियों से अलग-अलग मात्रा में पानी वाष्पित होता है या फिर समान?

थोड़ा-सा फर्क है दूसरा प्रयोग, साथ ही थोड़ा और भी धैर्य का काम। एक ही पेड़ की कुछ पत्तियों पर नीचे की तरु वैसलीन अच्‍छे से लगा दीजिए, कुछ पत्तियों में ऊपर की ओर लगा दीजिए; और कुछ पत्तियों मे दोनों तरफ लगा दीजिए। और रोज़ अवलोकन लीजिए और इंतजार कीजिए की इनकी स्थिति में क्‍या परिवर्तन हो रहा है?


दीपक वर्मा: संदर्भ में कार्यरत। सहयोग भरत पूरे; इंदौर के होकर साइंस कॉलेज में प्राणीशास्‍त्र के प्राध्‍यापक।