निम्न में से कौन पवन अपरदन द्वारा नहीं बनता है? - nimn mein se kaun pavan aparadan dvaara nahin banata hai?

शुष्क और अर्ध शुष्क प्रदेश में अनाच्छादन के कारकों मुख्यतः पवन एवं सीमित मात्रा में जल के द्वारा विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतियों का निर्माण होता है, जिसे मरुस्थलीय या शुष्क स्थलाकृतियां कहते हैं।

डेविस के अनुसार पवन ही मरुस्थलीय प्रदेश में अपरदन के मुख्य दूत हैं, यह यांत्रिक ऋतुक्षरण से उत्पन्न चट्टानी कणों का अपवाहन करता है, जो क्रमशः सतह को समतल बनाता है। सतह को समतल बनाने की क्रिया अधारतल तक होती है। वायु अपरदन का आधारभूत जलस्तर होता है। अतः भूमिगत जलस्तर को प्राप्त करने के क्रम में मरुस्थल के मध्य बेसिननुमा आकृति का विकास होता है। कहीं-कहीं झील भी दृष्टिगत होने लगती है, और यह झील अंत: प्रवाह को जन्म देती है। मिस्र और लीबिया में ऐसी अनेक स्थलाकृति और जल प्रवाह देखने को मिलते हैं।

लेकिन मरुस्थलीय प्रदेशों में आकस्मिक वर्षा के कारण जलीय प्रवाहतंत्र भी विकसित होता है। यद्यपि ये अल्पकालिक होते हैं, लेकिन आर्द्र प्रदेश के समान ही अपरदन चक्र की क्रिया प्रारंभ हो जाती है। सामान्यतः मरुस्थलीय प्रदेश की झील ऐसे प्रदेश के लिए अधारताल का कार्य करती है, क्योंकि यह क्रिया आकस्मिक तथा यत्र तत्र होती है, लेकिन डेविस सहित कई अन्य स्थलाकृतिक वैज्ञानिकों का मानना है, कि बहते हुए जल स्थलाकृतियां अपरदन चक्र के नियमों के अनुरूप विकसित होती हैं, और अंतिम स्थलाकृतियां के रूप में पेडिप्लेन का विकास होता है। एल.सी. किंग ने इस संदर्भ में पेडिप्लेनेशन चक्र दिया। अतः मरुस्थलीय प्रदेश की स्थलाकृतियों का अध्ययन अपरदन दूतों के अनुसार दो समूह में किया जा सकता है।

  1. वायु द्वारा विकसित स्थलाकृतियां
  2. बहते हुए जल द्वारा विकसित स्थलाकृतियां

वायु द्वारा विकसित स्थल आकृतियां


अपरदन के अन्य कारकों की तरह वायु भी अपरदन, परिवहन एवं निक्षेपण कार्यों द्वारा विभिन्न स्थलाकृतियों का निर्माण करती है, जो निम्न प्रकार है।

अपरदनात्मक स्थलाकृतियां : 

  1. वातगर्त तथा अपवाहन बेसिन :  पवन धरातल की ढीली ऋतुक्षरित कणों तथा असंगठित शैलों को अपवाहन क्रिया द्वारा उड़ाकर ले जाती है, जिससे छोटे-छोटे गर्त बनते हैं, जिन्हें वात गर्त कहते हैं। इसकी गहराई सागर तल से भी नीचे होती है। ‘मिश्र का कटारा गर्त’ ऐसा ही गर्त है। यदि Blow Out बनने के क्रिया लंबी अवधि तक हो तो भूमिगत जलस्तर बाहर निकल आता है, जिसके कारण वहां झील का विकास हो जाता है। इसे अपविहन बेसिन कहते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका का ग्रेट साल्ट लेक अपवाहन बेसिन का उदाहरण है।
  2. क्षत्रक शिला या गारा :  मरुस्थलीय प्रदेश में वायु मार्ग में जब चट्टानी टीले अवरोध उत्पन्न करते हैं, तब वायु की अपरदन क्रिया प्रारंभ हो जाती है। चूंकि वायु के अपरदनात्मक क्षमता 30 मीटर की ऊंचाई तक ही है, जिसके परिणामस्वरुप पहाड़ी एवं टीले का ऊपरी भाग अपरदन से प्रभावित रह जाता है। यदि वायु कई दिशाओं से आ रही हो तो पवन का निचला भाग चारों ओर से अपरदित होने लगता है, जिसके ऊपरी भाग छत्रक की तरह दृष्टिगत होते हैं। इसे मशरूम शैल टोपोग्राफी कहते हैं। अरावली क्षेत्र में इसके उदाहरण मिलते हैं। ये अवतल ढाल का विकास करते हैं।
  3. यारडंग :  इसका निर्माण कोमल और कठोर शैलों के लंबवत स्तर वाले चट्टानी टीलों पर होता है। यह ऐसी स्थलाकृति है, जिस पर वायु और संरचना दोनों का प्रभाव होता है। वायु के द्वारा कोमल शैलों का अपरदन तेजी से होने लगता है, जबकि कठोर शैले स्तंभ के रूप में स्थित रहते हैं एवं कठोर शैलों के बीच में खांचें एवं नालियों का विकास हो जाता है। उसे यारडंग कहते हैं। यारडंग का विकास पवन दिशा के समानांतर होता है। यह मध्य एशिया की मरुभूमि में देखने को मिलता है। ऑस्ट्रेलिया का सेविंग हेडिंग पार्क इसका एक उदाहरण है।
  4. ज्यूगेन :  यह स्थलाकृति देखने में दवात की तरह होती है। यदि कठोर और कोमल शैलों की परतें क्षैतिज अवस्था में हो, तथा सतह पर कठोर चट्टाने हो तो यांत्रिक और भौतिक अक्षय के द्वारा कठोर सतह पर दरारें उत्पन्न होती हैं, और उन्हें दरारों के द्वारा वायु सतह के नीचे प्रविष्ट करता है, और प्रथमत: कठोर चट्टानों की दरारों को चौड़ा करता है, लेकिन ज्योंहि मुलायम चट्टानों के स्तर पर अपना प्रभाव प्रारंभ करता है, तो उसका अपरदन तेजी से होने लगता है। परिणामत: ऊपर के कठोर चट्टान के नीचे वायु के अपरदन के कारण बड़े-बड़े गड्ढे विकसित होने लगते हैं, ये देखने में दवात जैसे लगते हैं। कालारेडो का पठार एवं पेटागोनिया का पठार में ऐसे स्थलाकृति दृष्टिगोचर होती है।
  5. भू-स्तम्भ (Demoiselle) :  ढीली और कोमल शैलों के ऊपर जब कठोर और प्रतिरोधी शैल बिछी होती है तो वह नीचे की कोमल शैलों को संरक्षण प्रदान करती हैं, परंतु अगल-बगल के शैलों का अपरदन होता रहता है, किंतु कठोर शैलों के आवरण वाला भाग शेष रह जाता है, जो स्तंभ के रूप में दिखाई देती है, उसे भू-स्तंभ कहते हैं। अधिकतर स्थलाकृतिक वैज्ञानिकों के अनुसार यह ज्यूगेन का ही विकसित रूप है। कोलोरेडो और कैलिफोर्निया के मरुस्थल में ऐसी स्थलाकृतियां देखने को मिलती है।
  6. मरुस्थलीय खिड़की एवं पुल :  जब पवन प्रवाह मार्ग में किसी मरुस्थलीय प्रदेश में विषय संरचना वाली उच्च भूमि हो तो वायु विषम संरचना के मुलायम चट्टानों का आवेदन तेजी से करती है, ऐसी स्थिति में खड़ी चट्टानी स्तंभ में कई छिद्र हो जाते हैं, जिसके मार्ग से वायु गतिशील होने लगती है। छिद्रु की दीवार अपरदित होने लगती है, जिससे यह विस्तृत हो जाते हैं। देखने में ये खिड़की जैसे लगते हैं, इसे मरुस्थलीय खिड़की कहते हैं। पुनः वायु के लगातार अपरदन होने से इसका फैलाव होते रहता है, तो कुछ समय बाद खिड़कियां एक दूसरे से मिल जाती हैं, जिससे स्तंभ का ऊपरी भाग मेहराब जैसा प्रतीत होता है, इसे पुल कहते हैं। दक्षिणी कैलिफोर्निया में ऐसा देखा गया है। गुम्दाकार और ऊंचा उठा हुआ चट्टानी टीला हो तो निम्न तरीके से स्थलाकृतियों का विकास होगा।
  7. पेडिप्लेन एवं इन्सेलबर्ग :  इसकी उत्पत्ति के बारे में स्थलाकृतिक वैज्ञानिकों में पर्याप्त मतभेद हैं। एल.सी. किंग के अनुसार इन स्थलाकृतियों का विकास जल अपरदन का परिणाम है, लेकिन अधिकतर वैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि इसका विकास वायु अपरदन द्वारा भी हो सकता है। वातगर्त या मरुस्थलीय बेसिन जैसे गड्ढों का निर्माण के पूर्व अपरदन क्रिया द्वारा जिस समतल मैदान का विकास होता है, उसे ही पेडिप्लेन कहा गया है।

समप्राय मैदान के समान ही इसके मध्य कहीं-कहीं कठोर चट्टानी तीव्र ढाल पाए जाते हैं, जिसे इन्सेलबर्ग कहा गया। यह स्थलाकृति कुछ समानता लिए सहारा में कहीं कहीं दृष्टिगत होती है।

निक्षेपात्मक स्थलाकृति :
पवन की निक्षेपात्मक कार्य सबसे महत्वपूर्ण होता है, पवन के मार्ग में बाधा आने पर या अन्य कारणों से पवन वेग में कमी आने पर अपने साथ बालु या धूल के कणों का निक्षेप करने लगता है। इससे निम्न प्रकार की स्थलाकृतियों का विकास होता है – 

  1. लोयस (Loas) :  वायु द्वारा निक्षेपण का कार्य न सिर्फ मरुस्थलीय प्रदेशों के अंदर होता है, बल्कि दूर-दराज के क्षेत्रों में भी होता है, जिससे एक अलग-थलग स्थलाकृति का निर्माण करता है, उसे लोयस कहते हैं। लोयस के निर्माण का मुख्य कार्य वायु द्वारा बालु और धूलकणों की लंबी दूरी तक अपवाहन क्षमता और तापमान में कमी और वायुदाब में वृद्धि के कारण निक्षेप है। इसका नामकरण फ्रांस के अलंसस प्रांत के नाम पर किया गया है। चीन का लोयस के पठार का निर्माण इसी प्रकार हुआ था। यह उपजाऊ होता है, जिसका कारण क्ले तथा ह्युमस का होना है। इसे फ्रांस के में लिमन और संयुक्त राज्य अमेरिका में एबोड कहते हैं। पश्चिम में फ्रांस से पूर्व में चीन तक लोयस का निक्षेप उत्तर पश्चिमी चीन तक पाया जाता है।
  2. बालुका स्तूप :  निक्षेपित स्थलाकृतियों में बालुका स्तूप सबसे महत्वपूर्ण स्थलाकृति है। जब हवा द्वारा अपवाहित बालू के मोटे कणों का निक्षेप मरुस्थलीय प्रदेश के अंदर ही हो जाता है, तब संचित बालु के टीले को बालुका स्तूप कहते हैं। यह एक अस्थिर एवं गतिशील आकृति होती है, जो पवन के साथ स्थानांतरित होती रहती है। इसका पवन के सम्मुख की ढाल हल्का जबकि विपरीत हाल तीव्र होता है। यह विभिन्न प्रकार का होता है। यह गोल, चंद्राकार,  रेखिक रूप में विकसित होता है। बालुका स्तूपों के निर्माण के लिए –
  • बालु कणों की प्रचुरता
  • तीव्र वायु प्रवाह
  • बालु संचय के लिए बालू अवरोधक आदि दशाएं आवश्यक है। अवरोधक – झाड़ियां तथा टीलें आदि हो सकते हैं। बैगनाल्ड ने बालुका स्तूपों का विस्तृत अध्ययन किया है, इसके अनुसार बालुका स्तूप दो प्रकार के होते हैं। 
  1. अनुप्रस्थ बालुका स्तूप या बरखान,
  2. अनिवार्य बालुका स्तूप या सीफ
  1. अनुप्रस्थ बालुका स्तूप (बरखान) :  इसका निर्माण पवन की दशा के समकोण पर लंबवत होती है। वायु की ओर ढाल उत्तल जबकि विमुख ढाल अवतल होता है। जहां हवा बराबर एक ही दिशा से प्रवाहित होती है, वहां स्तूपों के दोनों के किनारों पर रेत को कुछ आगे तक जमा कर देती है जिससे इसके किनारों पर दो सींगें (Hom) बन जाती है, जो वायु की चलने की दिशा में निकली होती है, जिससे यह चापाकार या अर्धचंद्राकार दिखाई पड़ता है। इसे बरखान कहते हैं। दो बरखानों के बीच कारवां मार्ग बनाए जाते हैं, जिसे गासी कहते हैं।
  2. अनुदैर्ध्य बालुका स्तूप या सीफ :  ये पवन की प्रवाह की दिशा में उसके सामानांतर र्निर्मित लंबे तथा संकीर्ण टीले हैं। उसकी लंबाई मीलों होती है। ये पहाड़ी की तरह ऊंचे होते हैं तथा दोनों पार्श्व में तीव्र ढाल होते हैं। ये बरखान की अपेक्षत: अधिक ऊंचे होते हैं। प्रत्येक स्तूप एक दूसरे के समानांतर होता है। इन रैखिक बालु की पहाड़ियों को सहारा में सीफ या सीफ स्तूप कहते हैं। इन लंबे टीलों के मध्य बालु रहित गलियारे होते हैं, जिससे होकर पवन प्रवाहित होती है और बालों को दोनों किनारों पर जमा करती है। इन रेत मुक्त गलियारों को सहारा में गासी कहते हैं। यह ऊंटों का कारवां मार्ग होता है।
  3. बालुका बांध :  सीफ के अग्रसारित स्थलखंड में वायु के प्रभाव से सीफ का शीर्ष विघटित हो जाता है, तथा बालु के वहां से गिरने से शीर्ष चपका हो जाता है, अर्थात यह लगभग समतल हो जाता है, तो शेष सीफ बांध की तरह दिखाई दिखाई देता है जिसे Sand Leavees या Whale Backs कहते हैं। यह व्हेल मछली की पीठ की तरह लगता है। मिस्र के रेत सागर में ऐसा देखा जाता है।
  4. छाया बालु अपोढ़ बालु :  जब कोई चट्टान, क्लिफ या झाड़ी हवा के मार्ग के अवरोधक होता है, तब अवरोधक की छाया में बालू का निक्षेप होता रहता है। इसे Sand Shadows कहते हैं। वायु द्वारा ऋतुक्षरित चट्टानी कणों का संपूर्ण अपवाहन नहीं हो पाता, तो आकार में बड़े कण वायु के प्रभाव से सतह पर लुढ़कते रहते हैं, और जब वृहद क्षेत्र पर निक्षेपित हो जाते हैं, तो उसे Sand Drift कहते हैं।
  5. बालुका पट :  मरुभूमि में बालुका राशि विशाल क्षेत्रों में समतल अथवा ऊंची नीची भूमि में बालुका पट के रूप में पाई जाती है। सामान्यतया चंद्राकार बालुका स्तूप के बाद अग्रभाग में कणों के निक्षेप से विकसित होती है।
  6. बालुका सागर :  जहां बालु के साथ मोटे-मोटे कंकड़ पाए जाते हैं, वहां हवा बालुका का स्तूप का निर्माण नहीं कर पाती और बालु के टीलों को बिखेर देती है। इनसे रेत पर लहरों के जैसे चिह्न बन जाते हैं, जो आकार में जल पर उठने वाली तरंगों की तरह लगते हैं, ऐसे क्षेत्रों को बालुका सागर कहते हैं। इन लहरदार आकृति को उर्मिकाएं (Repples) कहते हैं।

शुष्क प्रदेशों में जल द्वारा विकसित स्तलाकृतियां

मरुस्थलीय प्रदेश में अपरदन चक्र की क्रिया का विचार सर्वप्रथम डेविस ने 1905 में दिया था। अतः आर्द्र प्रदेशों  की तरह ही यहां भी युवावस्था में निक्षेप से संबंधित स्थलाकृतियों का विकास होता है। इसी प्रकार का विचार एल.सी. किंग ने भी दिया था लेकिन मरुस्थलीय प्रदेशों में वर्षा की अल्पकालीन एवं आकस्मिता के कारण स्थलाकृति विकास की प्रक्रिया आर्द्र प्रदेशों की तुलना में भिन्न होती है। कुछ प्रमुख भिन्नताएं इस प्रकार हैं।

  1. यहां V आकार की घाटी का विकास की संभावना अत्यधिक कम होती है। जल का प्रवाह चट्टानी धरातल या किसी सरोंध (Joint) या दरार के सहारे होते हैं। सरोंध के क्षैतिज संरचना में उपस्थिति के कारण सरोंध के सहारे जल प्रवाह से गहरे गड्ढे या खादर बन जाते हैं और भूमि उबड़-खाबड़ हो जाती है। यहां नदियां अवनालिका अपरदन करती हैं, एवं आकस्मिक वर्षा से चादरी अपरदन की भी प्रक्रिया होती है। इन ऋतुक्षरित क्रिया से उत्पन्न ऋतुक्षरित पदार्थ जल बहाव के साथ निम्न प्रदेश में आ जाते हैं, लेकिन उपरोक्त स्थिति में V आकार की घाटी का विकास नहीं हो पाता, बल्कि उत्खात भूमि का विकास होता है। लेकिन लंबी अवधि तक सरोंध से जल के प्रवाहित होते रहने की स्थिति में लगभग V आकार की घाटी की संभावना होती है।
  2. आर्द्र प्रदेशों में समुद्र तल ही अपरदन क्रियाओं का आधार तल होता है, लेकिन मरुस्थलीय प्रदेशों में आंतरिक अपवाह प्रणाली पाई जाती है, और प्रदेश की झील या गर्त ही अधार तल का काम करती है।

जल की क्रिया द्वारा निम्न स्थलाकृतियों का विकास होता है।

  1. उत्खात भूमि :  धरातल पर वर्षा के जल एवं यांत्रिक ऋतुक्षरण की क्रिया से गड्ढे या दरार बन जाते हैं। साथ ही प्रवाहित होने वाली नदियां अवनालिका अपरदन द्वारा उबड़- खाबड़ कटक युक्त भूमि का निर्माण करती है, जिसे उत्खात भूमि कहते हैं। जैसे उत्तरी अमेरिका का ब्राइस नेशनल पार्क, भारत में चंबल क्षेत्र आदि इस तरह की भूमि है।
  2. पेडिमेन्ट :  यह अपरदनात्मक स्थलाकृति है, और अपरदन चक्र की प्रारंभिक अवस्था की विशेषता है। चादरी अपरदन की क्रिया के द्वारा जब ऋतुक्षरित पदार्थ अपवाहित हो जाते हैं, तो नग्न चट्टाने दृष्टिगत हो जाती हैं। उसी चट्टानी सतह को पेडिमेंट कहते हैं। चादरी अपरदन के बाद यह सतत पुनः ऋतुक्षरण से प्रभावित होती है, तथा कुछ अंतराल के बाद जब पुनः आकस्मिक वर्षा होती है, तब पुनः चादरी अपरदन होता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे पर्वतीय ढाल पर लगातार अपरदन होता है। शीर्ष की ऊंचाई में कमी आती है, साथ ही अपरदनात्मक क्षमता में भी कमी आती है, और अंतिम स्थिति में पेडिमेंट का परिवर्तन पेडिप्लेन में हो जाता है।
  3. बजादा :  यह निक्षेप से उत्पन्न स्थलाकृति है यह पर्वत पाद स्थलाकृति है, तथा कई जलोढ़ पंखों के मिलने से इसका विकास होता है। यहां ऋतुक्षरित पदार्थों में चट्टानों के बड़े-बड़े टुकड़े होते हैं, इनमें इसमें वोल्डर, क्ले और पेबुल्स की प्रधानता होती है। बहता हुआ जल सतह पर दृष्टिगत नहीं होता है। यहां जल बड़ी चट्टानी टुकड़ों के अंतर्गत कई दिशाओं में अपवाहित होने लगता है। इसे मरुस्थलीय चबूतरा भी कहते हैं।
  4. बालसन और प्लाया :  दोनों निक्षेप क्रिया द्वारा निर्मित स्थलाकृति है। बाल्सन में बालु की प्रधानता होती है। पलाया में क्ले की प्रधानता होती है। बालसन रेगिस्तानी भाग में पर्वतों से घिरी निम्न भूमि या बेसिन है। बाल्सन में जलप्रवाह केंद्र की ओर होता है, और केंद्र में समतल मैदान होता है, जिसे पलाया कहते हैं। पलाया मुख्यतः वह झील है जो आधारतल का कार्य करता है। लंबी अवधि तक वर्षा नहीं होने पर जल वाष्पोत्सर्जन द्वारा सूख जाता है, जिससे प्लाया सतह दृष्टिगोचर होने लगती है। जिस पर लवण की परत जमी रहती है। ऐसे लवणमय क्षेत्र को ‘सलिना’ कहते हैं। लेकिन वर्षा होते ही लवण का बिलियन हो जाता है और वह नीचे चले जाते हैं, प्लाया सतह का परिवर्तन प्लाया झील में हो जाता है।
  5. कैनियन :  तीव्र ढाल वाली संकीर्ण एवं गहरी घाटी है, जो पठारी रेगिस्तान में मिलती है। इसका निर्माण एवं विकास मरुस्थलीय प्रदेश में लंबी अवधि तक नदी के प्रवाहित रहने के परिणामस्वरूप होता है। क्योंकि मरुस्थलीय नदियां छोटी एवं कम आयतन वाली होती है, अतः किनारों का ढाल जल एवं वायु दोनों द्वारा अपरदित होते हैं, जिससे घाटी का ढाल तीव्र एवं खड़ा हो जाता है। दक्षिणी अल्जीरिया में चूना पत्थर की चट्टानी मरुभूमि है, जहां गार्ज जाल की तरह फैले हैं। 

वादी – बहते हुए जल द्वारा निर्मित घटियां, जिसकी तली सपाट और चौड़ी एवं ढाल खड़ी एवं तीव्र होती है। यह अपरदन चक्र की प्राथमिक अवस्था की विशेषता है। मरुस्थलों में आकस्मिक वर्षा से उत्पन्न बाढ़ को भी ‘वादी’ कहते हैं।
पेडिप्लेन और इन्सेलबर्ग : 

अपरदन चक्र से उत्पन्न अंतिम स्थलाकृति है। दोनों ही शब्दों में का प्रयोग एल.सी. किंग महोदय ने किया है। यह वह सतह है, जिसके आगे अपरदन संभव नहीं है। यह लगभग समतलप्राय विस्तृत मैदान होते हैं, जिसके मध्य कहीं-कहीं कठोर चट्टानी टीले अपशिष्ट रहते हैं, जिन्हें इंसेलवर्ग कहा जाता है। यह मोनेडनाक की तरह होते हैं पर उसकी तुलना में तीव्र ढाल वाले होते हैं। तीव्र ढाल के कारण जल के साथ ही वायु का अपरदन क्रिया का होना है। दक्षिणी कैलीफोर्निया के मरुस्थलीय स्थलाकृति का अध्ययन करते हुए डेविस ने कठोर चट्टानों के ऐसे टीले को ग्रेनाइट गुंबद कहां है। यहां ग्रेनाइट डाइक की अवस्था में होते हैं। अफ्रीका में इन टीलों का अध्ययन पहले बोर्नहोट ने किया था, अतः इन्सेलबर्ग को बोर्नहोट भी कहते हैं।

आजा ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि आकस्मिक वर्षा के बहते हुए जल द्वारा भी आधारतल के प्राप्ति के लिए अपरदन चक्र की क्रिया होती है। इस क्रम में आर्द्र विशिष्ट अपरदनात्मक और निक्षेपित्मा की स्थलाकृतियों का भी विकास होता है।

निम्न में से कौन पवन अपरदन द्वारा नहीं बनता?

जैसा कि हम जानते हैं कि हवा कठोर चट्टान की तुलना में नरम चट्टान को तेजी से अपरदन करती है। रेगिस्तान में कुछ कठोर चट्टानें होती है जिसे पवन अपरदन नहीं कर पाता, परिणाम स्वरुप वह आसपास के मैदानों की तुलना में अधिक ऊंची या पर्वत जैसा दीखता है, इसी को इंसर्लबर्ग्स या मोनाडॉक कहते है।

पवन द्वारा निर्मित स्थलाकृति कौन कौन सी है?

पवन द्वारा निर्मित स्थलाकृति में बरखान विशेष उल्लेखनीय है जिसका तात्पर्य नव चन्द्राकार एवं चापाकार बालुका स्तूप से है जो पवन प्रवाह की दिशा से अनुप्रस्थीय दिशा में स्थित होता है और इसके शृंग उस दिशा की ओर अनुगमन करते हैं जिसमें पवन बहती है, क्योंकि स्तूप के सिरों पर प्रवाहित किए जाने के लिए थोड़ी रेत की मात्रा होती है ...

मरूस्थलीय क्षेत्र में पवन निक्षेपण से कौन स्थलाकृतियों का निर्माण होता है?

मरुस्थलीय प्रदेशों में पवन द्वारा बालू के निक्षेपण से बालू टिब्बों का निर्माण होता है।

अपरदन से निर्मित स्थलाकृति क्या कहलाती है?

नदी वेदिकाएँ मुख्ययत: अपरदित स्थलरूप हैं जो नदी द्वारा निक्षेपित बाढ़ मैदानों के लंबवत अपरदन से निर्मित होते हैं। ये प्रारंभिक बाढ़ मैदानों या पुरानी नदी घाटियों के तल के चिह्न होते हैं।